अचिन्त्य - Update #4
शाम से रात्रिभोज तक का समय बड़ी ख़ुशी से बीता। हम सबने देर तक बातें करीं, हँसी मज़ाक किया, और इसी तरह के अन्य क्रियाकलापों में समय बिताया। भोजन निर्माण के लिए एक कामवाली आती थी, जो माँ का हाथ बंटाती थी। आज लतिका भी माँ के साथ ही हो ली, और माँ की अगुवाई में ही तीनों ने आज के लिए, और त्यौहार के लिए भोजन सामग्री बनाई। कामवाली छोटी दिवाली की शाम और मुख्य दिवाली को पूरे दिन छुट्टी पर थी, इसलिए माँ आज काफी सारा काम निबटा लेना चाहती थीं। तीनों ने मिल कर सब कुछ जल्दी ही कर लिया। उधर पापा और मैं बाहर जा कर कुछ मिठाईयाँ ले आए - बच्चों को तो बड़ा उत्साह रहता है मिठाईयों का! वापस आ कर कॉलोनी के कुछ लोगों से - जिनसे मेरी जान पहचान थी - मुलाकात भी करी। फिर हम दोनों वापस आ गए। तब तक खाना तैयार था। आज लतिका की ज़िद पर माँ ने हल्का खाना पकाया था, क्योंकि अगले दो तीन दिन खाने का ही तो प्रोग्राम था। वो नहीं चाहती थी कि अपनी बोऊ दी के हाथों का इतना लज़ीज़ खाना देख कर उसका मन डोल जाए! इस बात पर खाने की टेबल पर माँ और पापा ने लतिका को खूब छेड़ा।
रात्रिभोजन के बाद मैं माँ के साथ उनके कमरे में आ गया, और बाकी लोग पापा के साथ हो लिए। नन्हे बच्चों को सुलाने की ज़िम्मेदारी पापा की थी। मैं माँ की गोद में सर रख कर, आँखें बंद किये लेटा हुआ था। माँ की गोद में जो सुख मिलता है, वो शायद सबसे आरामदायक बिस्तर पर भी नहीं मिल सकता। यह एक नियम जैसा था - जब भी माँ से मिलता, सोने से पहले मैं उनकी गोद में सर रख कर पुराने - बचपन वाले - समय को जी लेता। उनके सामने मुझे छोटा बच्चा बन जाने का हमेशा ही मन करता। माँ भी मुझे वैसा ही दुलार करतीं। और वो अपनी शरारतों से भी बाज़ नहीं आती थीं - जब मैं उनका स्तनपान कर रहा होता, या यूँ एकांत में उनके साथ होता तो वो पहले के ही जैसे मुझको निर्वस्त्र कर देती थीं! यह कोई बड़ी बात नहीं थी। सुयोधन के विपरीत, अपनी माता के सामने पूर्ण नग्न हो कर जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं थी। जिनका मैं खुद एक अंश हूँ, उनसे क्या लज्जा? और तो और, मेरा मन होता कि काश मैं छोटा हो जाऊँ और पहले जैसे ही सारी शरारतें और नटखटपना करूँ! काफी हद तक मैं वो सब करता भी था। कम से कम मेरे पास ऐसे माता पिता थे, जो मुझको इस उम्र में भी स्वतंत्र रूप से अपना बचपन जीने दे रहे थे!
अपनी गोद में लिए इस समय माँ मुझको बड़ी ममता, बड़े प्यार से सहला रही थीं और मुझको ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरी सभी चिन्ताएँ, सभी नकारात्मक ऊर्जाएँ मुझसे निकल कर माँ में समां रही थीं। नवम्बर का महीना अवश्य था, लेकिन मुंबई में गर्मी तो रहती ही है। लिहाज़ा, पंखा चल रहा था, और उसकी हवा मेरे शरीर पर बड़ी सुखद लग रही थी। माँ मुझसे हल्की फुल्की बातें कर रही थीं, और मैं बस उनकी ममता का आनंद ले रहा था। उनकी गोद में हमेशा ही निर्मल आनंद और शुद्ध सुख मिलता था मुझको! माँ की वही चिर-परिचित महक! सच में, माँ की ममता के समुद्र में गोते लगाने जैसा सुख अन्यत्र नहीं हो सकता।
“अमर... बेटे...” एक समय उन्होंने कहा, “एक बात पूछूँ?”
“अरे माँ! आप ऐसे क्यों कह रही हैं?” मैंने कहा, “आप एक क्या, सौ बात पूछिए! ... पूछिए क्या, आदेश दीजिए! ... आपको मैंने कभी न कहा है? ... न कर सकता हूँ? मेरा तो वज़ूद आपके कारण है!”
“आS मेरा बच्चा... मेरा सोना बेटू...” कह कर उन्होंने मुझको दुलार किया, फिर बोलीं, “आई लव यू... तू मुझको इतना प्यार करता है... इसी कारण से तो मैं पूछना चाहती थी!”
“क्या हो गया माँ? बोलिए न!”
“बेटा... सोच रही थी कि... क्या... फिर से... मेरी कोई... बहू... आएगी?”
“ओह माँ! हा हा! इतनी से बात के लिए इतना सोच रही थीं आप?” मैंने हँसते हुए कहा।
माँ ने गहरी साँस भरते हुए कहा, “बेटे... तू इस बात को हमेशा मज़ाक में उड़ा देता है!”
फिर मेरे लिंग को प्यार से हाथ में ले कर बोलीं, “जवान हो... किसी लड़की का संग पाने का मन नहीं करता क्या? ... रचना के बाद से इस नुनु का कभी यूज़ हुआ है?”
“क्या माँ! आप भी...” मैंने झेंपते हुए कहा, “जैसा इस्तेमाल होना चाहिए इसका, वैसा हो रहा है!”
“सूसू करने में? और कैसे?” माँ से बातों में मैं जीत नहीं सकता था - शायद पापा जीत सकें, “बेटे मेरे... हमको एक बहू चाहिए, और तुमको एक बीवी... जो इसका आनंद ले सके, और हमारा परिवार बढ़ाने में मदद कर सके!”
माँ की बात मैं समझ रहा था; लेकिन मैं क्या करता? कुछ देर चुप रह कर मैं गहरी साँस ले कर बोला, “... पता नहीं माँ! ... अब मुझे नहीं मालूम! वाक़ई... ये प्यार व्यार का बिज़नेस... अब नहीं हो पाएगा मुझसे!” मैंने कहा।
“प्यार बिजनेस नहीं होता बेटू!”
“ओह माँ... मेरा वो मतलब नहीं है... और आप वो जानती हैं।” मैंने कहा, और फिर थोड़ा शरारत से मुस्कुरा कर आगे बोला, “आप ही ढूंढ दीजिए न कोई? ... अपनी पसंद की!” फिर कुछ देर चुप रह कर, थोड़ा सीरियस होते हुए बोला, “... क्योंकि अब मेरे से तो नहीं हो सकेगा! ... सच कहूँ माँ? मेरी हिम्मत भी नहीं होती अब तो। बहुत डरते डरते रचना को अपने करीब आने दिया था... और आप सभी ने देखा कि क्या हुआ! उसका रिपीट नहीं चाहिए मुझको! ... अब... और हिम्मत नहीं होती!”
“लेकिन तुम शादी करोगे न बेटे?” माँ ने थोड़ी देर की चुप्पी के बाद कहा।
“पता नहीं माँ!”
मेरी बात से माँ को शायद दुःख हुआ, “बेटे... अभी केवल सैंतीस के ही तो हुए हो तुम...! ... ये कोई उम्र है अकेले रहने की?”
मैं कुछ कहने को हुआ कि माँ ने मेरी बात काट कर कहा, “नहीं! कुछ कहना मत - बस सुनो आज मेरी! मुझको देखो - मुझको तो तुमने तैंतालीस में ब्याह दिया... यह बोल बोल कर कि इतनी बड़ी ज़िन्दगी है... अकेली कैसे काटोगी! ... और खुद ऐसी बातें करते हो! ... ऐसा कहीं थोड़े ही होता है कि माँ दोबारा शादी कर के रोज़ मैरीड लाइफ का मज़ा उठाए, बच्चे पैदा करे... और उसका चहेता बेटा यूँ, अकेला रहे! ... उस सुख को तरसे, जो उसको मिलना चाहिए!”
माँ की बात पर मैं मुस्कुराया, “आप अपनी मैरीड लाइफ का रोज़ मज़ा उठा रही हैं माँ, सुन कर बहुत अच्छा लगा!”
मेरी बात पर माँ एक क्षण के लिए अचकचा गईं, फिर सम्हल कर कोमलता से बोलीं,
“थैंक यू बेटा... सच कहूँ बेटे? सबसे सुन्दर आठ साल रहे हैं ये मेरी ज़िन्दगी के! ... ऐसा एक पल के लिए भी न सोचना कि मैं तुम्हारे डैड के साथ सुखी नहीं थी... बहुत सुखी थी। हाँ... फिर से मेरी माँ बनने की इच्छा ज़रूर थी, लेकिन बस! उसके अलावा और कुछ नहीं! मुझे उनके साथ अपनी ज़िन्दगी को ले कर कोई कम्प्लेन नहीं था... बहुत खुश रखते थे वो मुझे! इसीलिए... जब वो... मैं तो किसी और के बारे में सोच भी नहीं रही थी... लेकिन... लेकिन तुम्हारे पापा के साथ... ओह! अपने ही बारे में इतना कुछ जानने सीखने को मिला है कि क्या कहूँ! ... इन्होने न जाने क्या जादू कर दिया है मुझ पर बेटे!”
“दिखता है माँ!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “... सब दिखता है! ... पापा सच में आपको बहुत खुश रखते हैं! ... आप पर पॉजिटिव डिफरेंस साफ़ दिखाई देता है! मैं आपको जब भी देखता हूँ, आप पहले से और अधिक खुश दिखती हैं... और अधिक निखरी हुई दिखती हैं... और अधिक यंग दिखती हैं! आई ऍम सो हैप्पी दैट यू मैरीड हिम! ... इतना तो मुझको मालूम था कि कोई बहुत अच्छा आदमी ही आपको इतना खुश रख सकता था... और... मेरे पापा में सब क्वालिटीज़ हैं!” मैं एक पल को ठहरा, “सब क्वालिटीज़ एंड सम मोर! ... यह बात शायद ही कोई बेटा कह सके, बट माँ, आई ऍम प्राउड ऑफ़ बीईंग सन ऑफ़ टू रियली ग्रेट मेन!”
माँ मुस्कुराईं, “थैंक यू बेटू... एंड व्ही आर सो प्राउड दैट यू आर आवर सन! आई नो, मेरे कहने के कारण तुमने इनको अपने जीवन में पिता की जगह दी! ... लेकिन यह भी सच है कि मैं इस बात का केवल अंदाजा ही लगा सकती हूँ कि तुम्हारे लिए कितना मुश्किल रहा होगा वो करना।”
“मुश्किल था माँ! झूठ तो नहीं कहूँगा! लेकिन पापा ने सब आसान कर दिया!” मैंने सच्चाई के साथ कहा, “... पहले तो आपको इतना प्यार कर के... फिर, हम सब को! ... नहीं तो क्या मैं ऐसे ही... किसी को भी... अपना बाप बना लेता?”
“आई लव यू बेटा... बहुत! ... लेकिन मैं क्या कह रही थी, कि जब मुझको उस उम्र में एक बार और प्यार पाने का मौका मिल सकता है, तो तुम तो अभी बहुत छोटे हो!” माँ ने इस बार बड़ी ही कोमलता से समझाते हुए कहा, “... जैसे मुझे ‘वो’ मिल गए... वैसे ही... कोई एक तो होगी जो तुमको खुश रख सकेगी... जिसको तुम भी इतना ही खुश रख सकोगे जितना गैबी और डेवी को रखा था...”
“पता नहीं माँ... हाँ, इतना बड़ा संसार है, कोई तो होगी ही... लेकिन डर लगता है अब!”
“डर? किस बात का बेटू?”
मैं थोड़ा झिझका, “एक तो हमारी फैमिली, नार्मल फैमिली जैसी नहीं है... उसको एक्सेप्ट कर पाना किसी के लिए भी बहुत डिफिकल्ट है... ऊपर से मिष्टी... और पुचुकी... उनके साथ किसी ने गड़बड़ बिहैवियर किया, तो मन टूट जाएगा!”
माँ ने समझते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“रचना ने अपने पत्ते शादी से पहले ही खोल दिए... नहीं तो उसका वो पहलू मुझको कैसे मालूम पड़ता?” मैंने कहा।
“हाँ बेटा... बात तो सही है।” माँ कुछ सोच कर बोलीं, “... लेकिन... यह भी तो पॉसिबल है न, कि कोई लड़की ऐसी हो जो गड़बड़ नहीं, बल्कि बहुत सुन्दर बिहैव करे? ... क्या पता... गैबी बिटिया और देवयानी बिटिया से भी सुन्दर?”
“हाँ माँ... पॉसिबल है! ... लेकिन सच में एक बात कहूँ? ... अब मन नहीं होता! ऐसा लगता है कि अगर मैं अब किसी और के बारे में सोचूँगा तो जैसे मैं गैबी और डेवी से किसी तरह की बेईमानी करूँगा! ... उन दोनों ने कितना प्यार दिया था हम सभी को! ऐसे में... फिर से... किसी और लड़की के पीछे भागना... बहुत अजीब लगता है माँ!”
“आई नो कि तुम क्या कह रहे हो मेरे बच्चे... लेकिन यही सब बातें तो मेरे लिए भी उतनी ही सच थीं न? और अम्मा? उनके लिए भी तो यह सब उतना ही सच था न! ... लेकिन हम दोनों ने ही फिर से घर बसाया। हमको समझ में आया कि अपनी खुशियाँ पाने के साथ साथ हम दूसरों को भी खुश रख सकते हैं! दूसरों को भी ख़ुशियाँ दे सकते हैं... अब देखो न... हम दोनों का ही कितना भरा पूरा परिवार है! है न?”
मैंने कुछ नहीं कहा, तो माँ ने कहना जारी रखा, “अगर हम दोनों भी ऐसे ही सब कुछ छोड़ कर सन्यासिनें बन जातीं, तो कैसा रहता? सोचो न! ... ऐसे सब छोड़ छाड़ कर बैठने से कुछ थोड़े ही होता है।”
“अरे भई... क्या बात हो रही है माँ बेटे में?” माँ मुझको समझा ही रही थीं कि उतने में पापा भी आ गए, “ज़रा हमको भी शामिल कर लीजिए अपनी गुफ़्तग़ू में लाडली बेग़म!” उन्होंने अपने ही मज़ाकिया अंदाज़ में माँ को खींचा।
पापा की बात पर माँ खिलखिला कर हँसने लगीं। उनको ऐसे, छोटी छोटी बातों पर यूँ उन्मुक्त रूप से हँसता हुआ देख कर ऐसा आनंद आया कि क्या कहें। बिलकुल पहले के ही जैसी... वो पचास के ऊपर की प्रौढ़ महिला नहीं लगती थीं, बल्कि कोई नटखट सी, बीस से तीस के दशक स्त्री लगती थीं। और इस कायाकल्प के पीछे थे एक अत्युत्तम पुरुष - मेरे पापा! इसीलिए तो उनका बेटा बनने में मुझको कोई शरम नहीं लगती! बल्कि मैं तो इसको अपना सौभाग्य ही मानता हूँ!
“माँ तो हैं ही आपकी लाडली बेग़म... है न पापा?” मैंने पापा को खींचा।
मेरी बात पर दोनों ने कुछ नहीं कहा, लेकिन पापा हँसने लगे... और उन दोनों की चमकदार मुस्कान ने दोनों के दिल के सब हाल बयान कर दिए! सच में, दोनों के बीच की मोहब्बत और प्रगाढ़ता को रोज़ और भी अधिक बढ़ता हुआ देख कर मेरा मन खिल जाता है! लेकिन बात को पलटते हुए उन्होंने कहा,
“अच्छा? माँ से कम लाडले हो क्या तुम सब लोग मेरे लिए? ... हमारी तो जान बसती है तुम सभी में! सीना ठोंक कर कहता हूँ मैं तो सभी से कि मैं छः बच्चों का बाप हूँ!” यह बोलते हुए उनके चेहरे पर गर्व का भाव साफ़ दिखाई देने लगा, “तुम सभी तो मेरी ज़िन्दगी की जमा पूँजी हो...”
“आई लव यू पापा!”
“आई लव यू टू बेटे... भगवान हर किसी की बुरी नज़र से बचाएँ मेरे बच्चों को! अच्छा बताओ... किस बारे में बातें हो रही थीं, कुछ मुझे भी बताओ!”
“और किस बारे में करेंगे पापा! ... माँ को फिर से मेरी शादी करवानी है! बस, और क्या!”
“अरे बेटा तो क्या गलत है इसमें?” पापा ने माँ की बात का अनुमोदन करते हुए कहा, “मैं तो खुद ही कुछ सालों से बहू ढूंढ रहा हूँ... लेकिन कोई ऐसी लड़की जो इस परिवार का केवल हिस्सा ही न बने, बल्कि इस परिवार में खुशहाली ला सके, मिलती ही नहीं! ... हाँ, एक लड़की मिली थी जो लगा था कि सही रहेगी! लेकिन उसके माँ बाप से बात करने के बाद बात नहीं बनी!”
“हा हा! अच्छा... आप मेरे पीछे पीछे मेरी शादी ढूंढ रहे हैं, और मुझे कुछ बताते ही नहीं!” मैंने पापा से मज़ाक में कहा।
“अरे... मैंने सोचा कि पहले समधियों में बात हो जाए, फिर बात आगे बढ़ाएँ! ... तुम बच्चे लोग हमारी बात थोड़े ही टालोगे!”
बहुत हद तक बात सही भी थी - माँ, पापा, और अम्मा शायद ही कभी कुछ माँगते थे मुझसे। इसलिए उनकी कोई बात टाल पाना लगभग असंभव था। लेकिन फिर भी, अभी तक आज़ाद पंछी की तरह जीवन जिया था मैंने, और उस परिपाटी से अलग हो पाना मेरे लिए कठिन तो था। अरेंज्ड मैरिज वाला कांसेप्ट मुझको समझ नहीं आता था - ख़ास तौर पर अब! दो बार मैंने प्रेम विवाह किया, और पापा-माँ और अम्मा तीनों ने ही प्रेम विवाह किया, और हर बार सुख ही मिला। ऐसे में अरेंज्ड मैरिज - सोचना लगभग असंभव था मेरे लिए!
पापा कह रहे थे, “वैसे भी, बिना तुम दोनों एक दूसरे को जाने समझे शादी थोड़े ही करोगे! हम लोग तो केवल शादी फैसिलिटेट करवा सकते हैं - करना या न करना, तुम बच्चों पर ही डिपेंडेंट है!”
“हम्म!”
“लेकिन कोई बात नहीं - मैं लगा रहूँगा और एक अच्छी सी बहू ढूंढ कर लाऊँगा... मिशन है मेरा ये! ... एक लड़की मिली है, तो दूसरी भी मिल जाएगी जल्दी ही!”
“ओह पापा! आप भी... कुछ दिनों में पुचुकी भी शादी के लायक हो जाएगी... उसके लिए ढूंढते हैं न कोई! मेरा तो हो गया, जो होना था!”
“क्या हो गया तुम्हारा तो? हम्म? चुप कर बैठो! नहीं तो कान उमेठूँगा तुम्हारे! ... हम तो चाहते हैं कि तुम फिर से शादी का सुख पा सको, फिर से कुछ और बच्चों का दादा बनूँ मैं... हाँ, पुचुकी शादी के लायक तो है... ठीक है, पुचुकी के लिए भी ढूँढेंगे! तुम्हारे लिए भी ढूँढेंगे!”
“हा हा! ठीक है!” मैं इस बहस को अवॉयड करना चाहता था अब, “आपको अपना सर दर्द करवाना है, तो मैं क्या करूँ!”
पापा ने भी इस बात को आगे नहीं बढ़ाया। और हम अब दूसरी बातों पर चर्चा करने लगे - ख़ास कर हमारे यहाँ, मुंबई आने की। मुझे बताया गया कि आभा के लिए दो तीन बढ़िया स्कूलों में बात कर ली गई है, और उसके एडमिशन में कोई भी दिक्कत नहीं होगी। लतिका अपना पोस्ट-ग्रेजुएशन मुंबई यूनिवर्सिटी से कर सकती थी। बहुत से ऑप्शंस मौजूद थे। मैं जितना सुन रहा था, मुझे उतना ही अच्छा लग रहा था। पापा ने मेरे नए ऑफिस के लिए एक नई बनती बिल्डिंग में स्थान भी देख रखा था - अगर मुझे पसंद आता, तो बुकिंग करी जा सकती थी। बढ़िया है!
“बहुत अच्छा है पापा सब कुछ! लेकिन...”
“लेकिन क्या बेटे?”
“दोनों बच्चों से एक बार पूछ लेना चाहिए न... और कुछ नहीं! उनसे डिसकस कर लेते हैं। पुचुकी और मिष्टी के सारे दोस्त हैं दिल्ली में! उनका भी अपना एक सर्किल है।”
“हाँ हाँ! बिलकुल पूछना चाहिए! कल सबसे बात कर लेंगे न! ... मैं तो बस इसी उत्साह में हूँ कि मेरे सारे बच्चे मेरे साथ होंगे जल्दी ही! हमारी ज़िन्दगी बड़ी सुन्दर होने वाली है!”
पापा का एक्साईटमेन्ट देख कर कोई भी उससे अछूता बना नहीं रह सकता। इतनी पाजिटिविटी है उनके विचारों में! मैं मुस्कुराया, और माँ की गोद से उठने लगा, “आई ऍम आल्सो लुकिंग फॉरवर्ड टू इट पापा! ... चलिए अभी आप लोग सो जाईए! देर हो रही है!”
“दुद्धू पिया इसने?” पापा ने माँ से पूछा।
माँ ने ‘न’ में सर हिलाया।
“अरे, ऐसे कैसे जा रहे हो? यहाँ आये हो! जितने दिन दो, माँ का दूध पी लिया करो... ये बेचारी तरसती रहती है तुम सभी को अपना दूध पिलाने को, और तुम लोग ऐसे करते हो!”
“पापा! इतना बड़ा आदमी अपनी माँ का दूधू कैसे पिए!”
“हँय? अरे भई, जैसे पिया जाता है वैसे ही! या फिर भूल गए!” पापा ने हँसते हुए कहा, “बेग़म, ज़रा सिखाओ तो बेटे को!”
“क्या पापा...” मैं झेंप गया।
“बेटे... क्या अपने माँ बाप से बड़े हो जाओगे कभी? हमको देखो... हम दोनों को तो कभी भी शर्म नहीं आती अम्मा का दूध पीने में! उल्टा हमको तो गर्व होता है कि अभी भी उनका आशीर्वाद मिल रहा है हमको!”
“नहीं पापा, मैंने कब कहा कि मुझको शर्म आती है? ... और... गर्व तो मुझको भी होता है!”
“तो फिर हिचकते क्यों हो बेटू?” माँ ने कहा, “तुम्हारा तो अधिकार है!”
“लेकिन आप दोनों को सोने में लेट हो जाएगा न...”
“लेट होगा तो होने दो... कोई बात नहीं! कल से तो छुट्टी है बढ़िया...”
“... लेकिन आप दोनों की प्राइवेसी में भी ख़लल...”
“अब पिटेगा तू मेरे हाथों!” पापा ने कहा और मुझको हाथ से पकड़ कर वापस बिस्तर पर बैठा लिया।
माँ एक चौड़ी मुस्कान में मुस्कुराती हुई, मेरे गालों को अपनी हथेलियों में ले कर मेरे माथे को चूम लेती हैं, और फिर मुझको लिटा कर अपनी ब्लाउज के बटन खोलने लगती हैं।
“अमर... बेटे... मेरे लिए जैसे बाकी सब बच्चे हैं, वैसे ही तुम हो!” माँ बड़े प्यार से बोलीं, “बस, थोड़े बड़े हो गए हो!”
“सुना?” पापा ने मुझे कहा - मेरे कुछ भी कहने से पहले।
मैं बस मुस्कुराया।
“मुझसे कैसी शर्म? मेरे ही शरीर से तो तुम्हारा शरीर बना है... इतने सालों तक तुमको सेया है... अपना दूध पिलाया है... ऐसे ही थोड़े न इतने बड़े से हो गए तुम!” माँ ने ब्लाउज उतारते हुए कहा - उनके दोनों सुन्दर से अमृत-कलश प्रदर्शित हो गए।
“नहीं माँ... आपसे और पापा से कहाँ शर्म करता हूँ! आप दोनों से शर्म करता तो यूँ आप दोनों के सामने नंगा रहता?”
“तो दूध पीने में भी मत किया करो!” पापा ने कहा, “... माँ के दूध पर तुम्हारा सबसे पहला हक़ है!”
“इसलिए,” माँ मेरे बगल में आ कर अपनी हथेली पर अपना सर टिका कर, मेरी तरफ़ मुखातिब हो कर, अपने साइड पर लेट गईं, “जब भी मौका मिला करे, जितना हो सके, मेरा आशीर्वाद ले लिया करो!”
“जी माँ!” मैंने मन ही मन इस आशीर्वाद के लिए ईश्वर का धन्यवाद किया, “हमेशा माँ!”
“समझ गया न बेटा?” पापा ने सुनिश्चित किया।
“जी पापा!”
“मेरा बेटा...” माँ ने कहा और बड़े प्रेम से अपना एक दुग्धपूरित चूचक मेरे मुँह में डाल दिया।
कुछ देर तक मैंने शांति के साथ माँ के अमृत का पान किया। माँ कोई गीत गुनगुना रही थीं - कोई गीत था, लेकिन लोरी नहीं थी, पर उनके गाने में इतनी ममता थी कि मुझ पर वो लोरी जैसा प्रभाव डालने लगी। पाठकों को आश्चर्य होगा कि इतने बड़े हो कर ऐसी बच्चों जैसी प्रतिक्रिया! मुझे भी स्वयं पर आश्चर्य हो आया!
मैं अनगिनत बार यह बात दोहरा चुका हूँ कि माँ का दूध अमृत होता है। जब तक स्नेहपूरित तरीके से संभव हो, माँ और संतान को इस अमृत के देन-लेन करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। अच्छा किया माँ और पापा ने कि मुझको आज उन्होंने स्तनपान के लिए उकसाया। मैं भी बेवक़ूफ़ हूँ - खुद को उन दोनों से बड़ा समझने लगता हूँ कभी कभी, और उनसे हिचकने लगता हूँ। उनका बच्चा होने का यही तो सबसे बड़ा लाभ है - अपने माँ पापा से तो मैं सब कुछ मांग सकता हूँ! अचानक ही मन बहुत शांत होने लगा - एक तो माँ के शरीर की महक इतनी आश्वस्त करने वाली थी, ऊपर से उनका मीठा सा, गुनगुना गरम दूध, और ऊपर से उनकी मीठी सी लोरी! शायद इन बातों का कोई रासायनिक कारण हो, लेकिन मुझ पर सुकून की एक कनात छाने लगी। कुछ ही पलों में मैं फिर से छोटा बच्चा बन गया था। शायद इसीलिए हमारे माँ बाप हमेशा कहते हैं कि ‘मेरे लिए तो तुम बच्चे ही हो’!
इतनी तेज़ से मुझ पर सुकून छाने लगा कि समझ ही नहीं आया कि कब नींद गहराने लगी। मैं खुद महसूस कर रहा था कि मुझको नींद आ रही थी - दुग्धपान की क्रिया बहुत धीमी होने लगी थी मेरी... बहुत रुक रुक कर मेरा मुँह चल रहा था। जब मुँह से दूध ढलकने लगता, तब मैं चौंक कर पुनः पीने लगता, नहीं तो नींद के आगोश में समाता रहता।
“दुल्हनिया,” पापा की दबी, फुसफुसाती आवाज़ आई, “बेटा सो गया क्या?”
“लगभग... लेकिन कच्ची नींद है अभी!” माँ ने मेरा माथा सहलाया; बड़े प्यार से माथे पर बिखरे बाल हटाए।
“ठीक से पिया?”
“ऊहूँ... आधा खाली है अभी!”
“इतना बड़ा हो गया है बेटा, लेकिन फिर भी आदित्य जैसा ही बिहैव करता है!”
“उसका तो पीना कम हो रहा है, इसलिए!”
“गधा है वो...”
“हा हा... आप ही का बेटा है!”
“दुल्हनिया?”
“जी?”
“मेरा भी मन हो रहा है...”
माँ अवश्य ही इस बात पर मुस्कुराई होंगी, “आपका मन कब नहीं होता?” उन्होंने दबी आवाज़ में कहा।
“अच्छा जी... मन क्यों नहीं होगा? पहले तो तुमने मुझ बेचारे पर अपना जादू डाल दिया, और अब अपना गुलाम बना कर ऐसी बातें करती हो!”
“ग़ुलाम! हा हा! ... बढ़िया ग़ुलामी है आपकी!” माँ दबे स्वर में हँसने लगीं, “... मेरे अमर के पापा... थोड़ा सब्र रखिए! कुछ देर रुक जाईए!” उन्होंने दबी आवाज़ में कहा, “बेटा सो जाए... फिर आपको वो सुख दूँगी जिसके लिए आप पूरे दिन तरसे हैं...”
“हाय दुल्हनिया... ऐसी बातें कह कर मेरी बेसब्री और भी बढ़ा दोगी तुम तो! कैसे रुकूँ ऐसी बातें सुन कर?”
ज़ोर की नींद आ रही थी, लेकिन ऐसी बातें सुन कर मन में हलचल तो मचने ही लगती है न! मैंने मन ही मन पापा से शिकायत करी - कहाँ बढ़िया वात्सल्य और ममता भरा माहौल चल रहा था, और कहाँ अचानक ही वो यह ब्लू-फ़िल्म वाला माहौल ले आए! धत्त, ऐसे थोड़े ही होता है! हलचल अवश्य होने लगी, लेकिन नींद बहुत चढ़ गई थी। आँखें खोल पाना मुश्किल हो रहा था। और तो और, मैं भी चाहता था कि जल्दी से सो जाऊँ, जिससे दोनों अपना खेल खेल सकें।
“मैं भी तो तरस रही हूँ सुबह से...” माँ ने रहस्य खोला।
“क्या सच में दुल्हनिया?” पापा ने कहा।
“और क्या? आपको क्या लगता है? ... आपके बिना मेरा चल जाता है!” माँ ने तरसती हुई आवाज़ में कहा।
“देखूँ तो...”
कुछ क्षणों के बाद कपड़ों की सरसराहट और बिस्तर की हलकी चरमराहट की आवाज़ से समझ आ गया कि माँ के कपड़े - मतलब उनकी साड़ी और पेटीकोट उतर रहे हैं। पापा कुछ भी कर रहे हों, लेकिन माँ ने सुनिश्चित कर रखा था कि उनका स्तन मेरे मुँह से न निकले। लेकिन पापा शायद अब खुद पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे - हो भी कैसे? जब माँ जैसी सुंदरी, अपने पति के सामने नग्न लेटी हुई हो, तो वो व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण रखे भी कैसे? और क्यों?
मेरे कानों में माँ के पायल की रसीली सी आवाज़ आई - लेकिन ऐसा लगा कि मस्तिष्क में मीठा सा रस तैर कर घुल गया हो। मैं बस नींद की गोद में समाने वाला ही था।
“दुल्हनिया... तू सच में कमाल की है!” पापा की फुसफुसाती हुई आवाज़ बहुत दूर से आती हुई, लगभग तैरती हुई, लग रही थी, “इन प्यारे प्यारे दुद्धुओं से अमृत निकलता है... और इस क्यूट सी चूत से शहद!”
“ओह्ह्ह...” माँ के चिहुँकने की आवाज़ आई, और फिर पापा को उनकी एक प्यार भरी झिड़की पड़ी, “धत्त...”
आगे का मुझे कुछ नहीं सुनाई दिया। अब तक मैं पूरी तरह से नींद की आगोश में समां गया था।
*