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Romance मोहब्बत का सफ़र [Completed]

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avsji

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Supreme
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प्रकरण (Chapter)अनुभाग (Section)अद्यतन (Update)
1. नींव1.1. शुरुवाती दौरUpdate #1, Update #2
1.2. पहली लड़कीUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19
2. आत्मनिर्भर2.1. नए अनुभवUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3. पहला प्यार3.1. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह प्रस्तावUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21
3.3. पल दो पल का साथUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
4. नया सफ़र 4.1. लकी इन लव Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15
4.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
4.3. अनमोल तोहफ़ाUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
5. अंतराल5.1. त्रिशूल Update #1
5.2. स्नेहलेपUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10
5.3. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24
5.4. विपर्ययUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
5.5. समृद्धि Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20
6. अचिन्त्यUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28
7. नव-जीवनUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5
 
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avsji

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Supreme
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बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

सोचा था, कथानक पढ़ कर पुनः मौन होकर पलायन कर लेंगे परन्तु पिछले कुछ नवीन अपडेट पढ़कर अपने आपको रोक नहीं पाए

और जब कथा और कथानक १०० वें पृष्ठ तक पहुंचने को है आप श्री avsji भी कथा को रोचक और मनोरंजक बनाने में सफल हो गए हैं। कथा अब अपने आंग्ल भाषा के मूल कथानक कि छाया से मुक्त होकर नवीन पड़ावों कि ओर बढ़ रहा है रोचकता और बढ़ रही है। कथाकार को बहुमान

अरे बहुत बहुत धन्यवाद!
ये क्या बात हुई - गिन कर चार पाँच रेगुलर पाठक हैं जो कमेंट करते हैं। अब वो भी न करें, तो ठीक है - हम भी लिखना बंद कर देते हैं।
ऐसे तो सभी का नुकसान है।
 
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Choduraghu

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अंतराल - स्नेहलेप - Update #3


काम में व्यस्त था मैं! या यह कह लीजिए कि अपने दुःखों से दो-चार होने से डर कर भाग रहा था मैं। पलायनवादी हो गया था मैं। ऊपर से अवश्य ही मज़बूत लगता और दिखता, लेकिन अंदर ही अंदर हिला हुआ था मैं। माँ का उदास और सूना सूना चेहरा देखने से कतरा रहा था मैं। कायर हो गया था मैं। देर रात घर आता, जल्दी ऑफिस के लिए निकल जाता। अकेले में ही अपनी दुनिया बना बैठा - खुद को सभी से दूर कर के!

अक्सर होता है न - दूसरों की छोटी छोटी कमियाँ हमको साफ़ दिखाई दे जाती हैं। लेकिन अपने तरबूज़ के समान कमियाँ दिखाई नहीं दिखतीं - भले ही आईना सामने रख दिया जाय। वही हो रहा था मेरे साथ। लेकिन इस चक्कर में क्या कुछ नहीं मिस कर रहा था मैं - आभा तेजी से बड़ी हो रही थी। उसका बचपना मिस कर रहा था मैं। इस बार उसका चौथा बर्थडे मैंने लगभग लगभग मिस ही कर दिया था - वो तो आखिरी समय पर काजल ने याद दिला दिया, नहीं तो मैं भूल ही जाता कि उसका जन्मदिन भी था। दूसरी छोटी बच्ची - लतिका - के बड़े होने का आश्चर्यजनक सफर मिस कर रहा था मैं। उसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं था मुझको। और तो और, माँ से दूरी बनती जा रही थी मेरी। ऐसा मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि यह नौबत आ जाएगी - माँ से दूरी और मेरी? असंभव! लेकिन वही असंभव, अब मूर्त रूप ले रहा था, या ले चुका था। वो तो भला हो काजल का - अन्यथा, माँ मेरे लिए एक ‘मानसिक रोगी’ का रूप अख्तियार करने ही वाली थीं।

मेरे एक परम मित्र हैं - बिलकुल श्रवण कुमार जैसे। माता पिता को ईश्वर मानने वाले। लेकिन जब उनकी माता जी रोगिणी बन कर सदा के लिए बिस्तर पकड़ लीं, तब मैंने देखा कि ऐसे व्यक्ति भी अपनी श्रद्धा में कैसे बिखर जाते हैं। कई महीनों तक निर्लिप्त सेवा के बाद वो मित्र एक दिन मुझसे बोले कि उनको अपनी माता से नफरत हो गई है, और वो ईश्वर से मना रहे हैं कि उनको शीघ्र ही अपने पास बुला लें। कष्टप्रद था उनका अनुभव सुनना। लेकिन यही सच्चाई है। अगर कोई व्यक्ति चौतरफ़ा भाग्य की मार ही झेलेगा, तो वो और क्या करे? व्यक्ति ही तो है। मानुष की कमियाँ तो रहेंगी ही सदैव! इसलिए मुझे काजल का धन्यवाद करने में कोई गुरेज नहीं है। आज भी माँ और मेरे बीच जो आत्मीयता है, जो प्रेम है, वो उपस्थित है और निर्मल है तो केवल काजल के कारण! सच में देवी है काजल! कोई बहुत अच्छे कर्म किए होंगे मैंने कि उसकी दया, उसका प्रेम हम सभी पर इस तरह से बरस रहा था।

एक रात बहुत ही अधिक देर हो गई वापस आते आते। करीब करीं एक बजे होंगे रात के। थक कर चूर हो गया था और भूखा भी बहुत था। शायद इसीलिए नाराज़ भी था। उस समय यही हाल था मेरा - नाराज़ रहता - खुद पर, दूसरों पर। चिड़चिड़ाने लगा था। मैं स्वयं एक मानसिक रोगी बनता जा रहा था, या शायद बन गया था। घर में आया, तो देखा कि काजल वहीं सामने बैठी मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उसको देखते ही मेरा मन ग्लानि से भर गया। एक तो ठंडक थी - हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था, और ऊपर से थोड़ी ठंडी हवा भी चल रही थी।

“क्या हो गया काजल? इतनी रात, यहाँ बाहर?” मैंने पूछा - यद्यपि मुझे मालूम था कि वो वहाँ किसके इंतज़ार में बैठी है।

उसने कहा, “आओ, खाना लगा देती हूँ!”

यह सुन कर राहत हुई, “हाँ, भूख तो लग गई!” मैंने जबरदस्ती ही मुस्कुराने की कोशिश करी। लेकिन काजल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

डाइनिंग टेबल पर दो प्लेटें लगी हुई थीं - एक मेरे लिए और एक काजल के लिए। देख कर इतना दुःख हुआ और ग्लानि हुई कि मैं आपसे कह नहीं सकता। बेचारी दिन भर काम करते नहीं थकती, और अब मेरा भी इंतज़ार! मेरी यह हिम्मत भी न हुई कि उससे कह सकूँ कि मेरा इंतज़ार क्यों किया। लगा, कि मैंने शिकायतें करने का अधिकार भी खो दिया।

बड़ी ख़ामोशी से खाना परोसा गया। काजल भी नाराज़ तो होगी ही।

आधा खाना खा लिया तब मुझे कुछ कहने की हिम्मत आई, “काजल, अब से मैं समय पर घर आऊँगा, समय पर जाऊँगा! आई ऍम सॉरी! प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो?”

“पक्का?”

“पक्का - तुमसे वायदा कर के उसको न फॉलो कर के, तुम्हारा अपमान नहीं करूँगा। यू डिज़र्व बेटर! मैं बदतमीज़ी कर रहा हूँ - यह मुझे भी मालूम है। आईन्दा ऐसी गलती नहीं होगी!”

“थैंक यू,” वो मुस्कुराते हुए बोली, “जब ज़रुरत है तब कर लेना लेट सिटिंग! लेकिन हर रोज़ तो ज़रुरत नहीं हो सकती न? और देखो, कितने हफ़्तों से एक्सरसाइज भी नहीं किया है तुमने! हैंडसम से बूढ़े बूढ़े लगने लगे हो!”

“आई ऍम सॉरी!”

“नहीं। सॉरी मत कहो। तुमको बात समझ आ गई, बस!”

फिर माहौल थोड़ा अच्छा हो गया। मैंने सबके बारे में पूछा। काजल ने बताया कि वो दीदी के साथ मॉर्निंग वाक पर जाती है। और तो और दीदी उसको इंग्लिश भी सिखा रही हैं। लतिका की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी दीदी ने ही ले रखी है। इस बार के एक्साम्स में उसके नंबर भी अच्छे आए हैं। और अपनी आभा तो अब उछल कूद अधिक करने लगी है। दोनों बच्चे मायूस थे कि इस साल दिवाली नहीं मनाई गई (इसी साल के पहले क्वार्टर में डैड की मृत्यु हुई थी और इसलिए एक साल तक कोई तयोहार न मनाने की प्रथा का पालन कर रहे थे हम)!

हाँ दुःख तो था। लेकिन उस दुःख के ऊपर थोड़े और दुःख लाद कर भला कौन सा सुख निकल रहा था - यह सुधी जनों की बुद्धि से परे है। मूर्खता अपनी जगह होती है, लेकिन, हाँ - लोक रीति का पालन अपनी जगह है। देवयानी के गए एक साल हो गया था। उसकी याद आते ही आँखें नम हो गईं। बात बदलने के लिए मैंने सुनील के बारे में पूछा। सुनील का सातवाँ सेमेस्टर भी ख़तम होने वाला था। लेकिन वो सर्दी की छुट्टियाँ वहीं बिताने वाला था - किसी प्रोफेसर के साथ प्रोजेक्ट था उसका।

“काजल,” मैंने संजीदा होते हुए कहा, “मैं चाहता हूँ कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए! आई मीन, सब कुछ वैसा तो नहीं हो सकता, लेकिन इस घर में थोड़ी खुशियाँ आ सकें, तो क्या हर्ज़ है!”

“मेरे मन की बात कह दी तुमने!” वो बोली, “एक आईडिया तो है!”

“वो क्या?”

“हम अपन चारों जने का कंबाइंड बर्थडे मनाते हैं, इस वीकेंड?”

“चारों जने?”

“हाँ - तुम, आभा, लतिका, और दीदी?”

“और तुम? तुम अलग हो इस घर में? मत भूलो कि तुम इस घर की मालकिन हो। सबसे पहले तुम्हारा बर्थडे मनेगा!”

“मतलब तुमको आईडिया पसंद आया?”

“बहुत पसंद आया! लेकिन बर्थडे मत मनाओ प्लीज़!”

“ठीक है फिर! किसी का नहीं मनेगा!”

“ओह्हो तुम भी न!”

“हाँ - मैं भी न! मालकिन हूँ इस घर की। मेरा हुकुम मानना पड़ेगा सभी को!”

मैं मुस्कुराया।

“दोनों बच्चे कहाँ हैं?”

“सो रहे हैं - पुचुकी (लतिका) के कमरे में!”

“उनको देख लूँ?”

“मुझसे पूछोगे? अपने बच्चों को देखने के लिए?”

न जाने मन में क्या आया कि मैं रोने लगा। काजल ने मुझे अपने आलिंगन में बाँध लिया, और रोने दिया। न जाने कब तक रोया। लेकिन रोना तभी रुका जब नाक इस कदर जम गई कि उससे साँस आनी बंद हो गई और आँखों से आँसू सूख गए। जब काजल ने मेरा रोना बंद होते हुए महसूस किया तब वो बड़ी ममता से बोली,

“बस, बस! अब हो गया! रो लिए - तो दिल का दुःख कम गया। अब बस! अब आगे की सुध लो! धैर्य रखो। भगवान् सब ठीक करेंगे!”

“ओह काजल! यार मैं बिलकुल टूट गया हूँ! अकेला हो गया हूँ!”

“टूट गए हो - हाँ। लेकिन अकेले नहीं हुए हो। मैं हूँ न। बच्चे हैं। दीदी हैं।” वो मुझको समझाते हुए बोली, “हम अपनी अपनी तरीके से टूट गए हैं। लेकिन हमारा साथ तो बना हुआ है। है न? तो अकेले नहीं हैं हम! जब तक हम में से कोई एक भी है न, तब तक तुम अकेले नहीं होने वाले!”

काजल की बात पर मैंने कांपती आवाज़ में सांस छोड़ी। सच में - काजल के रहने से सम्बल तो है ही।

“मन अच्छा करो, और आ जाओ... बच्चों से मिल लो। कल उनके साथ खेलना! बड़ा अच्छा लगेगा। दोनों बहुत नटखट हैं!”

उसकी बात इतनी अच्छी थी कि मेरी मुस्कान खुद-ब-खुद आ गई।

बच्चों के कमरे में गया। दोनों बेसुध पड़े सो रहे थे। आभा को हलके हलके खर्राटे भी आ रहे थे - शायद थोड़ी सर्दी हो गई थी उसको।

“कितना कुछ मिस कर दिया मैंने!” दोनों को देखते हुए मैंने कहा।

“वो सब मत सोचो। यह सोचो कि आगे यह सब मिस न करना पड़े!”

बात सौ प्रतिशत सही थी। जो बीत गया, उसका कुछ किया नहीं जा सकता। हाँ, आगे वही सब फिर से न हो, यह सुनिश्चित किया जा सकता है।

“दोनों कितने प्यारे लगते हैं!”

“बहुत ही प्यारे हैं। जब घर में नहीं होते, तब घर सुनसान लगता है। और जब आ जाते हैं, तो पूरा घर गुलज़ार रहता है!”

हमारी बातें सुन कर लतिका की नींद थोड़ा कच्ची हो जाती है। वो अपनी उनींदी आवाज़ में बोलती है,

“अंकल, आपको निन्नी नहीं आ रही है?”

“अब आ जाएगी बेटू!” मैंने उसको चूमते हुए कहा, “अब आ जाएगी!”

“मैं आपको सुला दूँ?”

“नहीं मेरी बच्ची! लेकिन तुम सो जाओ! मैं भी सो जाऊँगा!”

“ओके!”

“कल मेरे साथ खेलोगी?”

“हाँ!” वो नींद में भी खुश होते हुए बोली, “आई वुड लव टू!”

“ठीक है बेटा,” मैंने उसके मुँह को चूमते हुए कहा, “थैंक यू! आई लव यू!”

आई लव यू टू!”

कह कर लतिका वापस सो गई। मैंने बारी बारी से दोनों बच्चों को चूमा, और कमरे से बाहर निकल आया। मन बहुत ही हल्का हो गया; शांत भी। काजल भी मुस्कुराते हुए मेरे पीछे बाहर आ गई। इतने महीनों में इतनी मनःशांति नहीं मिली।

देखा कि काजल रसोई की तरफ जा रही थी।

“क्या हुआ?”

“नहीं, कुछ नहीं। बस, थोड़ा रख रखाव कर लूँ!”

“कल आएगी न कामवाली?”

“हाँ!”

“तो उसके लिए कुछ छोड़ दो! तुम भी आराम किया करो न?” मैंने कहा।

“कॉफ़ी पियोगे?”

“अभी नहीं! बाद की बाद में देखेंगे!” मैं बोला, “आओ। मेरे साथ बैठो न कुछ देर?”

काजल मुस्कुराई, “ठीक है!”

कमरे में आ कर मैंने मद्धिम मधुर संगीत बजाया। बहुत दिन हो गए यह काम किये। करीब करीब ढाई बज गए थे। देर रात! ठंडक। मैंने रजाई खींची, और काजल को अंदर आने के लिए आमंत्रित किया। बहुत ही लम्बा अर्सा हो गया था काजल और मुझे साथ लेटे हुए। कैसी आत्मीयता, और कैसी अंतरंगता थी हमारे बीच - लेकिन अब!

बात सुनील से शुरू हुई - काजल को उसके बारे में चिंता थी। उसको कैंपस प्लेसमेंट से एक नौकरी मिली तो थी, लेकिन अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के कारण, उसकी कम्पनी ने वो ऑफर वापस ले लिया था। हमको यहाँ दुःख तो हुआ, लेकिन यह भी मालूम था कि सुनील जैसे कैंडिडेट के लिए नया जॉब ऑफर लेना, कोई कठिन काम नहीं होगा। और वैसे भी, उसने कभी जॉब को लेकर चिंता नहीं दिखाई थी। चारों साल उसने कठिन परिश्रम किया था, कई सारे प्रोजेक्ट्स किए थे, वो क्लास टॉपर्स में एक था, और उसका रेज़्यूमे अपने सहपाठियों में सबसे मज़बूत था। इसलिए डरने वाली बात थी ही नहीं। यही सब बातें मैंने काजल को समझाईं।

मैंने उसको यह भी समझाया कि अगर इतनी ही बुरी किस्मत हुई उसकी कि उसको कैंपस से जॉब ऑफर न मिले, तो मेरी कंपनी है ही न! वहाँ काम कर ले! काजल को यह सुन कर संतोष हुआ। फिर बात माँ पर आ गई। उनके जीवन में किसी साथी की आवश्यकता पर भी हमने बात चीत करी। अभी तक मैंने बस एक बार ही माँ से यह बात कही थी, लेकिन माँ की प्रतिक्रिया ऐसी थी कि दोबारा कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन तब से अब तक परस्थितियों में बहुत परिवर्तन हो चुका था। हो सकता है कि अब - जबकि वो पहले के अपेक्षा अधिक शांत थीं, तो इस प्रस्ताव पर वो सकारात्मक प्रतिक्रिया देतीं।

“काजल?”

“हम्म?”

“तुम मुझसे शादी करोगी?”

“ओह अमर! अगर मेरी शादी तुमसे होगी न, तो मैं बहुत ही लकी होऊँगी!” उसने कहा, “लेकिन हमने इस बारे में बात करी है न!”

“हाँ!” मैंने बुझे मन से कहा।

“हे, ऐसे मत रहो अमर! मुझे तुमसे बहुत प्यार है अमर, बहुत ही! ये तुम जानते हो और मैं भी जानती हूँ! लेकिन शादी का नहीं मालूम!”

“पर क्यों?”

“क्योंकि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ, अमर। इसलिए! मैं गंवार हूँ। तुम्हारा समाज में एक अलग ही मुकाम है - मेरा उस मुकाम से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं है!”

मैं कुछ कहना चाहता था, कि उसने मुझे रोक कर कहना जारी रखा, “बीवी ऐसी चाहिए जो तुमको तुम्हारे मुकाम से आगे ले जाए - पीछे नहीं। मुझे न तो तुम्हारे तौर तरीके मालूम, और न ही बोलने का कोई ढंग ही मालूम! पुचुकी के स्कूल जा कर उसकी टीचर से बात करने में भी डर लगता है मुझे। ऐसे थोड़े न होना चाहिए बीवी को! समझा करो। कोई तो बराबरी हो!”

“काजल, अगर मेरा बिज़नेस हमारे बीच की दीवार है, तो मैं जॉब कर लेता हूँ!”

“हाँ, और अपने, देवयानी दीदी, डैडी जी, और दीदी के सपनों को पानी में बहा दो! ठीक है? सबको बहुत अच्छा लगेगा, और सबको संतोष मिलेगा - तुमको भी!”

“पर काजल?”

काजल कुछ पल के लिए कुछ नहीं बोली, फिर रुक कर कहती है, “अच्छा चलो! भूल जाओ कि मैंने यह सब कहा। मैं करूँगी शादी तुमसे!”

“सच में?”

“हाँ! क्यों नहीं! बीवी दिखाने के लिए थोड़े न होती है। बीवी तो जीवन साथी होती है!”

मैं मुस्कुराया। लेकिन अगले ही पल मेरे पूरे शरीर में अज्ञात भय की लहार दौड़ गई।

“तुम सीरियस नहीं हो न?”

“हूँ! क्यों?”

“काजल। मुझे लगता है कि मेरी पत्नियाँ मेरे कारन से जी नहीं पातीं।”

मैंने इतना कहा ही था कि एक झन्नाटेदार झापड़ मेरे गाल पर आ कर लगा। और अगले ही पल काजल आलिंगन में कस कर बाँध लिया।

“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ऐसा सोचने की?” उसने मुझे डाँटा, “आइंदा ऐसा कहा न तो मुझसे बुरा कोई न होगा! गैबी दीदी का एक्सीडेंट, और देवयानी दीदी का कैंसर - तुम्हारे कारण नहीं था। यह हमारा दुर्भाग्य है कि उनको वो सब झेलना पड़ा और हमको भी। लेकिन यह भी तो देखो, कि वो दोनों चली गईं और तुम रह गए। तुम्हारा दुःख अधिक है कि उनका? वो दोनों तो मुक्त हो गईं।”

उसने मेरे गाल को सहलाया - जहाँ अभी अभी मुझे झापड़ लगा था।

“आई ऍम सॉरी! लेकिन मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूँ! इसलिए मेरा हक़ है तुम पर, कि तुमको समझाऊँ, तुमको डांटूं - अगर तुम गलत हो! है कि नहीं? अब बस! ऐसी बकवास फिर मत सोचना।”

उसने कहा, और अपनी ब्लाउज़ के बटन खोलने लगी।

“आओ, अपने को शांत करो! और मुझे भी! बहुत दिन हो गए!”

पहले तो कुछ पल समझ नहीं आया कि क्या करूँ। फिर मैंने उसके स्तनों पर अपने हाथ रखे - ऐसे कि उसके चूचक मेरे उँगलियों के बीच फँस जाएँ। वो स्तंभित हो रहे थे।

“उम्म्म्म... आह... बहुत दिन हो गए!” काजल ने फुसफुसाते हुए कहा।

अंततः मैंने उसके एक चूचक पर अपना मुँह लगाया - सच में, बहुत ही अधिक दिन हो गए थे। कोई चार - साढ़े साल! मेरे बाद काजल ने किसी के साथ सेक्स नहीं किया। उसके चूचकों पर मेरे मुँह की हर क्रिया पर उसकी योनि लरज रही थी। हाँ, उसका दूध अवश्य ही मेरे मुँह में भर रहा था, लेकिन वो एक काम-वर्धक का कार्य कर रहा था। उधर काजल का हाथ मेरे पाजामे को ढीला करने में व्यस्त था। उसकी उँगलियों की छुवन से मेरा लिंग भी तेजी से आकार में बढ़ने लगा। डेढ़ साल हो गए थे मुझे भी सेक्स किए। सेक्स की याद आते ही मुझे आखिरी बार देवयानी के साथ अपने मिलन की घड़ी याद हो आई।

देवयानी की याद आते ही जो भी मूड था, सब रफू-चक्कर हो गया। लिंग जितनी तेजी से स्तंभित हो रहा था, उससे भी दोगुनी गति से शिथिल पड़ने लगा। सब धरा का धरा रह गया। मैं वापस रोने लगा। काजल समझ रही थी कि मुझे क्या हो रहा है। वो मुझे दिलासा भी दे रही थी, और अपने और मेरे कपड़े भी उतारती जा रही थी। शीघ्र ही हम दोनों पूर्ण नग्न हो कर रजाई के भीतर आलिंगनबद्ध हो कर लेटे हुए थे।

“अमर, मत रोओ! मैं हूँ न!” उसने मुझे धीरज बंधाया।

उसका हाथ वापस मेरे लिंग पर चला गया। मेरे गले से एक आह निकल गई। उसने लिंग पर मुट्ठी बाँध कर कामुकता से अपना हाथ फिराया। कुछ ही पलों में मेरे लिंग में जीवन पुनः लौटने लगा। कुछ देर तक वो ऐसे ही मुझे हस्तमैथुन का आनंद देती रही - उसने इस बात का ख़याल रखा कि बहुत न करे। अन्यथा स्खलन की सम्भावना बड़ी तीव्र थी। इतने महीनों बिना सेक्स के...

जब मैं समुचित रूप से तैयार हो गया, तब वो बोली,

“आ जाओ! मेरे ऊपर! सब मीठी बातें याद दिला दो मुझे!”

मैंने किया वो सब।

हमारा यह संसर्ग बेहद संछिप्त था, लेकिन भावनात्मक ज्वार से भरपूर था। हम दोनों के ही मन में वर्षों से दबी हुई कामुक ऊर्जा थी। जो तेजी से निकल गई। बमुश्किल दो तीन मिनट में ही। अवश्य ही शारीरिक संतुष्टि न मिली हो, लेकिन मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि हम दोनों को ही मिली। काजल के शरीर की गुणवत्ता भी बढ़ गई थी। अब लगता था कि हाँ, वो कोई खानदानी स्त्री है। खान-पान, रहन सहन में आमूलचूल बदलाव से यह सब होता ही है।

जब हम दोनों संतुष्ट हो कर लेटे हुए थे, तब मैंने काजल को देखा। वो करीब चालीस साल की हो गई थी। लेकिन अपनी उम्र से कहीं कम लगती थी। और सुन्दर भी वैसी ही थी, जब वो पहली बार मेरे घर आई थी। नहीं - उससे भी अधिक सुन्दर। हमारी बच्ची के जन्म के बाद, इतने सालों तक सतत स्तनपान कराने से उसके स्तन थोड़ा बड़े हो गए थे। लेकिन बाकी शरीर थोड़ा छरहरा ही था। उसमें स्थूलता नहीं थी - न तो पेट निकला था, और न ही नितम्ब। XForum में फोटो सेक्शन में देसी ‘सुंदरियों’ के जैसे स्थूल शरीर होते हैं, वैसा तो उसका बिलकुल भी नहीं था। हाँ - लेकिन उसके शरीर के कटाव बड़े लोचदार थे। माँ उसके सामने कमउम्र लगती थीं क्योंकि उनके शरीर में वैसे कटाव नहीं थे... वैसे लोच नहीं थे।

कुछ देर हम वैसे ही आलिंगनबद्ध अवस्था में ही पड़े पड़े, गहरी नींद सो गए। और बहुत देर तक सोए। माँ समझ गईं कि हम दोनों के बीच कल रात क्या हुआ था। इसलिए उन्होंने हमको परेशान नहीं किया और लतिका और आभा को तैयार करने, और नाश्ता पकने का काम खुद ही कर लिया।

जब हम दोनों उठे, तब तक कोई ग्यारह बज गए थे। कमरे से बाहर आते हुए मुझे भी और काजल को भी शर्म आ रही थी। लेकिन उनका सामना तो करना ही था। माँ ने हमको देखा, तो मुस्कुराईं - वही पुरानी जैसी मुस्कान! मन खुश हो गया। इतने समय में उनको बहुत ही कम बार मुस्कुराते देखा था। और यह मुस्कान स्पेशल थी। मैं तैयार हो कर, नाश्ता कर के ऑफिस के लिए जब रवाना हुआ, तब तक लंच का समय हो गया। ऑफिस पहुँचा तो पाया कि सभी लोग अपने अपने काम में मशगूल थे। और तन्मयता से काम कर रहे थे।

अच्छे, परिश्रमी लोगों को टीम में लेने के यही परिणाम होते हैं। काम ईमानदारी से होता रहता है। सच में - मुझे काम के पीछे अपनी जान निकालने की कोई आवश्यकता नहीं थी। काजल से किया गया वायदा निभाने का एक और कारण मिल गया। मन ही मन मैंने एक नोट बनाया कि कल या अगले दिन, पूरे ऑफिस को लंच मैं कराऊँगा - कहीं बाहर अच्छे होटल में ले जा कर।

मेरे जाने के बाद माँ ने काजल को घेर लिया।

“काजल, बेटा, तुम अमर से शादी क्यों नहीं कर लेती! तुम दोनों साथ में कितने सुन्दर, कितने सुखी लगते हो! पहले भी मना कर चुकी हो। लेकिन क्या तुम देखती नहीं, कि किस्मत ने हम दोनों के परिवारों का एक होना तय कर रखा है?”

“दीदी,” काजल ने बड़े प्रेम से कहा, “तुम्हारी बहू बनना तो बहुत सौभाग्य की बात है। अगर वो होता है, तो मैं सबसे लकी औरत होऊँगी दुनिया की। लेकिन मैं ये कर नहीं सकती। सही नहीं होगा!”

“क्या तुम अमर से प्यार नहीं करती?”

“बहुत करती हूँ! इस बारे में कभी शक न करना दीदी। लेकिन,” और फिर काजल का वही पुराना गाना शुरू हो गया, जो उसने मुझे सुनाया था रात में।

“काजल, इन सब बातों से मेरा विचार नहीं बदलता। तुम बहुत अच्छी हो, और बहुत सुन्दर भी हो! अमर भी बहुत लकी होगा अगर तुम उसकी पत्नी बनो। दोनों के दो तीन बच्चे भी हो सकते हैं।”

“दीदी!”

“क्या दीदी? अब देखो न... सुनील की पढ़ाई पूरी होने वाली है। नौकरी करने लगेगा वो जल्दी ही। वो तो रहेगा अपनी बहू के साथ अलग। रह गए तुम और लतिका। यहीं रह जाओ। इसी घर में। हमेशा। तुम्हारा घर है। इसी को गुलज़ार कर दो। नन्हे नन्हे बच्चों की किलकारियों से सजा दो!”

“दीदी, तुम बहुत अच्छी हो। इसीलिए तो आ गई यहाँ भागी भागी! तुमको छोड़ कर जाने का मेरा मन तो नहीं है। सुनील को कहीं रहना हो रहे! उसकी बीवी उसी को मुबारक। मैं और तुम काफी हैं!” काजल हँसते हुए बोली, “लेकिन यार ये शादी वाली बात न बोलो। अमर के पाँवों की चक्की नहीं बनना मुझे।”

माँ ने भी बहुत तूल नहीं दिया इस बात पर। शादी करना या न करना, एक बेहद व्यक्तिगत निर्णय होता है। इसको ज़ोर जबरदस्ती से नहीं करवाया जा सकता।

“देख लो! मैं तो केवल समझा सकती हूँ। बाकी तो सब तुम्ही दोनों पर है। लेकिन हाँ - अगर तुम दोनों शादी करना चाहोगे तो याद रखना कि मेरा आशीर्वाद है। और मुझे बहुत ख़ुशी होगी उस दिन!”

“मेरी छोड़ो दीदी, अपनी बताओ! तुम क्या सोचती हो शादी करने के बारे में?”

“पागल हो गई है क्या? मैं अब दादी माँ हूँ। इस उम्र में कोई शादी करता है क्या?”

“दीदी, दादी तो तुम हो, लेकिन तुम्हारी उम्र नहीं हुई है कुछ! आज कल तो कितनी सारी औरतें पैंतीस के बाद शादी करने लगी हैं।”

“नहीं रे! यह सब मैं नहीं जानती।”

“दीदी, मैं तुमसे बहस नहीं कर सकती। तुम्हरी बहुत इज़्ज़त करती हूँ। लेकिन, शरीर की ज़रूरतें होती हैं। उनकी संतुष्टि भी ज़रूरी है। तुम्हारी एक और बच्चे की चाहत के बारे में पता है मुझको। अगर कोई अच्छा आदमी मिल जाय, तो क्यों न उससे शादी कर लो?” काजल ने सजींदगी से कहा, “तुम्हारी माँग फिर से सिन्दूर से सज जाय, तुम्हारे चेहरे पर फिर से वही मुस्कान आ जाय, तो क्या बात बने!”

“मत देख सपने काजल। वो सब कुछ ‘उन्ही’ के साथ चला गया बेटा। सब ‘उन्ही’ के साथ चला
Purane Updates bahut hi bhauk the, kintu is update main kuch ummeed ki ek nayi Kiran najar ayi hai jo Amar ki jindagi main wapas khusiyan layengi.
 
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Purane Updates bahut hi bhauk the, kintu is update main kuch ummeed ki ek nayi Kiran najar ayi hai jo Amar ki jindagi main wapas khusiyan layengi.

बहुत बहुत धन्यवाद मित्र!
सुख-दुःख का चक्र तो सदैव चलता ही रहता है। दोनों ही स्थाई नहीं है। सब इस पर निर्भर है कि परिस्थितियों पर हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है।
साथ में बने रहें। कुछ रोचक एपिसोड्स ले कर जल्दी ही उपस्थित होता हूँ!
 

avsji

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अंतराल - स्नेहलेप - Update #4


आज ऑफिस में मन नहीं लग रहा था।

काजल से किया हुआ वायदा रह रह कर याद आ रहा था, और बच्चों से खेलने का बड़ा मन हो रहा था। लिहाज़ा, मैं ऑफिस में अपने सेक्रेटरी से अगले दो दिनों में किसी बढ़िया होटल में पूरे स्टाफ के लंच के बुकिंग करने को कह कर निकल गया - बच्चों को उनके स्कूल से लाने। उम्मीद थी कि दोनों को अच्छा लगेगा। मैं स्कूल जल्दी पहुँच गया - बच्चों की छुट्टी का ठीक ठीक आईडिया नहीं था। लेकिन वहाँ आइसक्रीम, चना जोर, भेल इत्यादि बेचने वालों की रेहड़ियाँ लग चुकी थीं। इसका मतलब छुट्टी होने ही वाली थी। मैंने कार से निकल कर एक आइसक्रीम खरीदी और खाने लगा। सर्दी में आइसक्रीम खाने में एक अभूतपूर्व आनंद आता है। कर के देखें कभी। बचपन में यह काम मैंने कभी नहीं किया। अभी भी नहीं करता था। माँ के होने से स्वादिष्ट भोजन घर पर ही उपलब्ध था, और भर पेट खाने को मिलता था। तो यह एक तरीके का गिल्टी प्लेशर था, मेरे लिए। मेरी आइसक्रीम ख़तम ही हुई थी कि मैंने काजल को आते देखा। उसको देख कर मुस्कान आ गई - ‘मेरी काजल’! हाँ, यही ख़याल आता था।

मैंने हाथ हिला कर उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। मुझे देख कर वो आश्चर्यचकित हो गई। लेकिन उसको अच्छा भी लगा। हम दोनों ही बातें करते हुए दोनों बच्चों के बाहर आने का इंतज़ार करने लगे। कोई दस मिनट बाद ढेर सारे बच्चों का हुजूम स्कूल के गेट से बाहर आने लगा। लतिका और आभा दोनों हमेशा एक नियत स्थान पर खड़े हो कर काजल का इंतज़ार करते थे। आज भी वो दोनों वहीं खड़े थे। लेकिन आज काजल के साथ मुझे भी देख कर दोनों बच्चे बड़े खुश हुए। मुर्गा मिला था, तो हलाल भी होना था। मज़े की बात यह थी कि बच्चों को ज़िद भी नहीं करनी पड़ी, और मैं उनको ले कर पास की ही एक मिठाई की दूकान चला गया। वहाँ तीन चार डब्बे मिठाइयाँ पैक करवा कर अगले पाँच मिनट में हम घर पर थे।

माँ भी मुझे इतनी जल्दी घर में उपस्थित देख कर बड़ी खुश हुईं - उन्होंने बड़े प्रशंसा भाव लिए काजल को देखा। वो हमेशा से जानती थीं कि काजल का मुझ पर एक बेहद सकारात्मक प्रभाव है। और ऐसे गहरे अवसाद के अवसर पर भी वो प्रभाव बरकरार था। खाना पहले ही पका हुआ था। हम सभी हँसते बोलते खाने की टेबल पर बैठे। दोनों बच्चे - मुझे लग रहा था कि शायद वो मुझसे दूरी बना कर रखेंगे - मेरे आशातीत (उम्मीद से परे), मेरी गोदी में आ कर बैठ गए : लतिका मेरी बाईं जांघ पर और आभा मेरी दाईं जांघ पर। और ज़िद यह कि मुझे ही खिलाना पड़ेगा दोनों को। ऐसे में दोनों को खाना खिलाना मुश्किल काम था - डर लगा हुआ था कि कोई गिर न जाए - लेकिन मैंने किया। और सच में, इतने महीनों में यह सबसे सुखद अनुभूति थी। उनकी किलकारियाँ, हँसी, भोले चुटकुले - यह सब सुन कर दिल को बहुत ठंडक मिली।

दोपहर में दोनों बच्चे कुछ देर के लिए सो जाते थे - लेकिन आज दोनों को ही नींद नहीं आ रही थी। इसलिए हमने कैरम बोर्ड निकाला, और कुछ देर तक खेल का आनंद लिया। माँ भी अपने ही कमरे में चली जाती थीं अक्सर - लेकिन आज सभी मेरे ही कमरे में जमे रहे। बच्चों ने बड़ी आसानी से मुझे हरा दिया! आभा तो इतनी क्यूट थी कि मेरे विपक्ष में खेलते हुए भी, वो मेरी ही गोद में बैठ कर अपनी चाल खेलती। उसकी इस हरकत पर इतनी हँसी आती कि पूछिए नहीं! उसको आलिंगन में भर के खूब चूमता रहा। मेरा बच्चा! मेरी देवयानी की निशानी!

रोज़ इस आनंद का आस्वादन करना मुश्किल था, लेकिन मैंने निर्णय लिया कि कम से कम सप्ताहांतों में यह अवश्य करूँगा। दोनों बच्चे अपने पिता के अभाव में नहीं जिएँगे अब से।


**


नया साल आने के साथ ही साथ हमारा भाग्य भी खुल गया।

फरवरी में माँ का जन्मदिन होता है और काजल के कहने पर बहुत ही अधिक न-नुकुर करने के बाद, माँ ने अपना जन्मदिन मनाने के लिए ‘हां’ कर दी। माँ का मन नहीं था यह सब करने का, क्योंकि अगले महीने डैड की पहली पुण्यतिथि थी। लेकिन काजल की ज़िद के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। ऐसा कोई बड़ा प्लान भी नहीं था हम लोगों का - बस साथ में बैठ कर, घर में ही फिल्म देखने का, और स्वादिष्ट पकवान खाने का प्लान था। ससुर जी, और जयंती दीदी सपरिवार आमंत्रित थे, और उपस्थित भी। जो नहीं आ सकते थे - जैसे कि सुनील - उन्होंने फ़ोन कर के उनको स्वस्थ जीवन की शुभकामनाएँ दीं। बड़ा अच्छा लगा सभी को यूँ एक साथ देख कर। ससुर जी भी बूढ़े से दिख रहे थे, लेकिन अपने सभी नाती और नातिनों को देख कर वो भी बच्चे बन गए। उन्होंने भी बहुत आनंद उठाया। काजल की ही मनुहार पर माँ ने कम फ़ीकी रंग की साड़ी पहनी थी उस दिन। सच में - उनको हँसता खेलता देखने के लिए मन तरसने लगा था। न जाने कब वो होता! लेकिन अभी जो हो रहा था, मैं उतने से भी संतुष्ट था।

माँ के जन्मदिन के एक सप्ताह बाद सुनील को एक मल्टीनेशनल कंपनी से जॉब ऑफर मिला। वो कंपनी पहली बार कैंपस में आई थी, और केवल सुनील को ही ऑफर दे कर गई। उसका पे पैकेज भी बड़ा आकर्षक था - मुझे जितना मिला था, उससे कहीं अधिक! कंपनी ने उसको पहले ही बता दिया था कि उसकी जोइनिंग अगस्त में होगी - ग्रेजुएशन के कोई तीन महीने बाद! और वो इसलिए क्योंकि रिसेशन के कारण कंपनी के वर्कफ़ोर्स में थोड़ा बदलाव चल रहा था। थोड़ा घबराहट तो हुई यह सुन कर - क्योंकि यह रिसेशन ईयर था। क्या पता - तीन महीने बाद कहीं ऑफर न वापस ले लें। लेकिन फिर भी, यह कोई खराब बात नहीं थी। कुछ नहीं तो सुनील हमारे साथ क्वालिटी समय बिता लेता। और अगर उसको काम करना भी था, तो मेरे संग कर सकता था। दोनों बच्चों के साथ मेरे सम्बन्ध घनिष्ट हो गए थे, और मुझे उम्मीद थी कि सुनील के साथ भी पहले जैसी घनिष्टता बन सकेगी!


**


काजल के हमारे यहाँ आए हुए अब कोई नौ महीने हो गए थे। अब हमारे घर में सब कुछ या तो ठीक, या फिर अच्छा चल रहा था - सिवाय माँ के डिप्रेशन के। हाँ - इतना तो हुआ था कि काजल के आने के बाद डिप्रेशन के सबसे बड़े दुष्प्रभाव समाप्त हो गए थे, और अधिकतर एपिसोड्स अब कम दिख रहे थे! लेकिन फिर भी वो उससे पूरी तरह से उबर नहीं पाई थीं। डॉक्टर के हिसाब से उनकी हालत में सकारात्मक अंतर था और उसने उनकी दवाइयाँ भी कम कर दी थीं। लेकिन फिर भी, न जाने क्यों, मेरे दिल में माँ को ले कर एक डर सा बैठा हुआ था। मुझे मालूम था - माँ बदल गई थी... और यह कोई बढ़िया बात नहीं थी। मैं अपनी वही पहली वाली, हँसती गाती, चंचल माँ को मिस कर रहा था। काश कि मेरी वो पहली वाली माँ वापस आ जाएँ! मुझे समझ में भी नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे होगा! उनको खुश देखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। बस, कैसे भी कर के वो पहले जैसी हो जाएँ! खैर, देखेंगे!

मेरा बिज़नेस भी बड़ी अच्छी रफ़्तार से बढ़ रहा था। हमारी शुरुवात छोटी सी थी - लेकिन अब यकीन से कहा जा सकता था, कि कुछ अच्छा ही भविष्य होगा मेरी कंपनी का। कंपनी का टर्न-ओवर काफ़ी बढ़ गया था, और अब वो प्रॉफिट में भी थी! किसी भी स्टार्ट-अप के लिए प्रॉफिटेबल होना एक बड़ा ही अच्छा संकेत होता है। मैं उस कारण से खुश था। कंपनी इतनी बड़ी भी नहीं हुई थी कि अन्य बड़ी कंपनियों की नज़र में आ जाए, और वो मेरा बिज़नेस बिगाड़ने के लिए कोई प्रतिक्रिया दें। मैं अब काम के लिए खुद की जान नहीं निकाले दे रहा था! अपने साथ साथ मैं कुछ और लोगों को रोज़गार भी दे रहा था! और सबसे अच्छी बात यह थी कि मैं घर में उचित समय भी बिता रहा था! और क्या चाहिए?

काजल इस समय तक, प्रक्टिकली, मेरे घर की ‘स्वामिनी’ बन गई थी। घर का पूरा सञ्चालन उसी के हाथ में था। एक तरह से हम सभी के जीवन की बागडोर काजल के हाथ में थी। और यह बड़ी अच्छी बात भी थी। कम से कम मेरा जीवन बड़ा अनुशासित हो गया था - अब खाना पीना तरीके से हो रहा था, और नियमित एक्सरसाइज करने के लिए प्रेरणा भी थी। काजल के साथ मेरी कोई नियमित अंतरंगता नहीं थी - उस पहली बार के बाद, हमने बस दो या तीन और बार ही सेक्स किया होगा। शायद इसलिए कि या तो मैं, या फिर काजल किसी बात से विचलित थे। और सेक्स करने से मन में स्थिरता आती है - बस, और कोई कारण नहीं। हमारा सम्बन्ध अभी भी प्रेम और आदर वाला ही था, रोमांटिक नहीं। दोनों बच्चे भी अब बहुत खुश रहने लगे थे - उनका स्वास्थ्य और शारीरिक विकास, जाहिर तौर पर पहले से बेहतर लग रहा था। एक तरह से जीवन वापस पटरी पर लौट आया था!

उधर सुनील की इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी! जैसा कि मैंने बताया कि ग्रेजुएशन के बाद अपनी नई नौकरी शुरू करने में उसको तीन महीने का समय मिला हुआ था। लिहाज़ा, वो हमारे साथ रहने दिल्ली चला आया। हाँलाकि काजल इतने दिनों से यहाँ रह रही थी, लेकिन फिर भी यह पहली बार था कि सुनील हमसे मिलने आया था!


**


एक लम्बा अर्सा हो गया था सुनील को देखे। उसके इंजीनियरिंग के फर्स्ट सेमेस्टर में मिला था शायद उससे आखिरी बार! मतलब कोई साढ़े तीन साल हो गए थे! हे भगवान्! पिछली बार मैंने जब उसको देखा, तो वो बस एक किशोरवय लड़के जैसा ही था। लेकिन अब वो एक सुन्दर, स्वस्थ, और आकर्षक युवक में परिवर्तित हो गया था। उसकी कद-काठी बहुत विकसित हो गई थी, उसके कारण वो अपनी उम्र से दो तीन साल बड़ा भी लगता था। उसके लहज़े में धीरता थी और चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता था। उसके बोलने का अंदाज़ भी आकर्षक था - थोड़ी भारी आवाज़, और आत्मविश्वास से भरी। उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा देख कर बढ़िया लगता था। सच में - उसे देखकर मुझे बहुत गर्व हुआ। मुझे बिलकुल वैसा ही महसूस हुआ जैसा कि किसी गौरान्वित बाप को हो सकता है! सुनील मुझको अपने पिता समान मानता था, और मैं भी सुनील को अपने बेटे जैसा - अपना बेटा ही मानता था!

मैंने ही उसको हवाई जहाज़ से दिल्ली आने को कहा था। ट्रेन से आने पर खड़गपुर से दिल्ली पूरा दिन ले लेता है। मैं चाहता था, कि वो अधिक से अधिक समय हमारे साथ गुजार सके! उसको लेने काजल, माँ और मैं, तीन लोग एयरपोर्ट गए थे। बच्चे स्कूल में थे - वो उससे बाद में मिल लेते।

मुझे देखते ही उसने सबसे पहले मेरे पैर छुए। मैंने भी उसे बड़े स्नेह से अपने गले से लगा लिया।

“आ गया मेरा बेटा! कैसे हो सुनील?”

“बढ़िया हूँ, भैया! आप कैसे हैं?”

“मैं तो बहुत बढ़िया हो गया तुमको देख कर!”

“तुम्हारी अम्मा हम सभी को सम्हाल रही हैं, तो हम सभी अच्छे ही होंगे न!” माँ ने मद्धिम मद्धिम हँसते हुए कहा, “तुम बताओ बेटे! तुम कैसे हो? सच में, तुम्हारी तरक़्क़ी देख कर हम सभी को बहुत गर्व होता है!”

माँ भी सुनील को शायद कोई ढाई तीन साल बाद ही देख रही थीं। कितना कुछ बदल गया था इतने ही समय में!

सुनील ने उनके पैर छूते हुए कहा, “मैं ठीक हूँ - आप कैसी है?”

“आयुष्मान भव! यशश्वी भव!” माँ ने आशीर्वाद दिया, “हम सब ठीक हैं! तुम आ गए, तो अब और भी अच्छे हो गए!”

सबसे बाद में उसने काजल के पैर छुए। काजल ने उसको कस कर अपने गले से लगा कर इतनी बार चूमा कि वो शर्मसार हो गया। माँ की ममता अपने बच्चे का आकार प्रकार थोड़े ही देखती है।

आखिरकार, इतने लंबे अंतराल के बाद मुझे अपना परिवार एक खुशहाल, बड़े परिवार की तरह लग रहा था! आज मैं बहुत खुश था! आखिरकार, हमारा छः लोगों का खुशहाल संसार मिल गया था!


**


सुनील पहले तो अपनी छुट्टियाँ भारत भ्रमण करने में बिताना चाहता था! मुझे थोड़ा सा दुःख तो हुआ। एक मौका मिला था उससे आत्मीयता बढ़ाने का, वो अब जाता रहा - यह सोच कर। लेकिन फिर अचानक ही, उसने अपना वो निर्णय बदल दिया। पहली ही शाम सुनील मुझसे बोला कि वो अपनी पूरी छुट्टी हमारे साथ ही बिताएगा, और फिर अपनी जॉब ज्वाइन करेगा। यह तो बहुत अच्छी बात थी, और उसके निर्णय पर हम सभी को बहुत ही अधिक ख़ुशी हुई। मुझे तो शायद काजल से भी अधिक!

मैंने जब उससे भारत भ्रमण पर न जाने का कारण पूछा तो उसने मुझसे कहा कि वो मेरे बिज़नेस में कुछ दिन इंटर्नशिप करना चाहता है। और इस काम से अगर मेरी कोई मदद हो जाती है, तो और भी बेहतर! मुझे उसकी मदद की आवश्यकता नहीं थी! क्योंकि अब कंपनी जम गई थी। लेकिन हाँ, मेरे साथ काम कर के उसको इंटर्नशिप का बढ़िया अनुभव हो जाता, जो कि उसको अपनी जॉब शुरू करने में बहुत मदद करता। इसलिए, मैंने उसे अपने साथ काम करने के लिए ‘हाँ’ कर दी। मैं भी चाहता था कि हम दोनों कुछ क्वालिटी टाइम साथ में बिताएँ।

एक समय था, जब मैं उसको पढ़ाता था, लिखाता था, और विभिन्न विषयों के बारे में समझाता था। एक बाप के समान ही मैंने उसको भले बुरे का ज्ञान दिया; व्यावहारिक समझ दी; समाज के बारे में समझाया! उस समय हम कितने पास थे! सुनील मुझे बहुत पसंद था - बिलकुल अपने बेटे की ही तरह। और मैं चाहता था कि हमारे बीच वही बाप-बेटे वाली निकटता वापस आ जाय। वैसे भी, इतने दिनों से मैं केवल स्त्रियों के बीच ही रह रहा था। इसलिए थोड़ा परिवर्तन तो मुझे भी चाहिए था! हा हा हा! उसने यह भी कहा कि वो अपनी नई नौकरी पर जाने से पहले, अम्मा और माँ जी के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिताना चाहता था। उनसे दूर रहे बहुत अधिक समय हो चला था। यह भी बहुत अच्छी बात थी।

मैंने सुनील से वायदा किया कि वो जब भी चाहे, मेरी कंपनी में शामिल हो सकता है। यह उसी की कंपनी है। यह बात सच भी है - मेरी कंपनी एक तरीके से फॅमिली बिज़नेस थी। ससुर जी अब कभी कभी ही ऑफिस आते थे। पूरे काम की बागडोर मैंने ही सम्हाल रखी थी। उन्होंने कंपनी मेरे नाम कब की कर दी थी। ससुर जी ने इसको शुरू किया था, फिर मैंने अपनी पूँजी लगा कर इसको तेजी से बढ़ाया था। सुनील एक सुशिक्षित प्रोफेशनल था, और अगर अन्य कम्पनियाँ उस पर अपना काम करने में भरोसा कर सकती हैं, तो मैं भी उस पर भरोसा कर सकता हूँ!

सच में, सुनील के आने के बाद से, घर में रौनक सी आ गई थी! लतिका और आभा उसको देखते ही चहकने लगती थीं - और ‘दादा’ ‘दादा’ कह कर उसके आगे पीछे होने लगती थीं। वो भी दोनों बच्चों के साथ बड़ी नरमी, बड़ी सौम्यता से व्यवहार करता था। उनके साथ वो खुद भी एक छोटा सा बच्चा बन जाता।


**


जब उसने आभा को पहली बार देखा तो उससे पूरे दिन भर अलग ही नहीं हो पाया। उसने इतना प्यार, इतना दुलार उस छोटी सी बच्ची पर बरसाया कि पूछो मत!

“आभा!” जब उसने आभा का ये नाम सुना तो बड़े नाटकीय अंदाज़ में बोला, “ये कैसा नाम है!”

उसकी बात सुन कर आभा के होंठ और गाल फूलने लगे - वैसे ही जब नन्हे बच्चे किसी से नाराज़ होने लगते हैं।

बात बहुत बिगड़ जाती, कि उस से पहले ही उसने बात सम्हाल ली, “इतनी मीठी मीठी बिटिया है मेरी! है कि नहीं? मेरी इतनी मीठी मीठी बिटिया का नाम तो ‘मिश्री’ होना चाहिए! बोलो? अच्छा नाम है कि नहीं?” वो आभा को अपनी गोदी में लिए, उसको दुलार करते हुए बोला।

उसकी बात पर आभा की बाँछे खिल गईं! तुरंत! साथ ही साथ वो उसको घोर आश्चर्य से देख भी रही थी - आखिर ये कौन है जो उस पर इतना प्यार बरसा रहा है! सुनील अभी भी उसके लिए अपरिचित और नया व्यक्ति था। लेकिन आभा को समझ में आ रहा था कि वो ‘मित्र’ है! इसलिए जब सुनील आभा की टी-शर्ट थोड़ा ऊपर उठा कर, और उसकी निक्कर थोड़ा नीचे सरका कर जब उसने आभा का पेड़ू खोला, तो आभा ने बिना चिल्लम चिल्ली किए उसको वो करने दिया, यह देखने के लिए कि वो आगे क्या करता है! फिर अचानक ही सुनील ने अपने होंठों को उसके पेड़ू पर सटाया, और ‘फ़ुर्र’ कर के आवाज़ निकाली। उसके होंठों के कम्पन से उठने वाली गुदगुदी से आभा खिलखिला कर हँसने लगी।

इन दोनों का ये खेल तब शुरू हुआ था - कोई बीस साल पहले, और आज भी जारी है! आभा अपने दादा के साथ सब तरह के नखरे कर सकती है, और करती भी है। और सुनील उसकी हर जायज़, नाजायज़ माँग पूरी करता है - बिना कुछ पूछे (वो अलग बात है कि आभा कोई नाजायज़ मांग नहीं करती)! कुछ बातें नहीं बदलतीं! कभी नहीं! बदलनी भी नहीं चाहिए!

“दादा, और मैं?” लतिका ने ठुनकते हुए कहा। आभा और सुनील के इस मज़ेदार एपिसोड में वो पीछे नहीं रहना चाहती थी।

“अरे, तू तो मेरी पुचुकी है ही! मेरी खट्टी मीठी चटपटी पुचुकी!” सुनील ने लतिका के पेट में गुदगुदी करते हुए कहा।

“हा हा हा!” लतिका उसकी हरकत पर खिलखिला कर हँसने लगी, फिर बोली, “लेकिन दादा, मिश्री तो खूब कड़ी कड़ी होती है। आभा तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उसका नाम भी तो उसके जैसा ही सॉफ्ट सॉफ्ट होना चहिए न?”

कितनी सयानी और बुद्धिमत्ता भरी बात थी ये तो!

“हाँ! बात तो सही है! ये बिटिया तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उम्म्म… तो फिर क्या करें?” सुनील ने कुछ देर सोचा, और फिर जैसे निर्णय सुनाते हुए बोला, “हम हमारी बिटिया को ‘मिष्टी’ कहेंगे!” सुनील ने जैसे निर्णय सुनाते हुए कहा, “मिष्टी! क्यों, ठीक है न मेरी बिटिया? तुमको ये नाम पसंद आया?”

“हाँ! मिष्टी! ये बढ़िया नाम है!” लतिका ने भी इस नए नाम का समर्थन किया।

आभा, जो अभी सुनील से ठीक से परिचित भी नहीं थी, उसकी मीठी मीठी बात पर मुस्कुराने लगी, और उत्साह से ‘हाँ’ में सर हिलाने लगी। जब लतिका ने किसी बात के लिए हाँ कर दी, तो आभा भी वो बात मान लेती। लतिका उसकी सबसे चहेती जो थी!

तो उस दिन से आभा को घर में हमेशा मिष्टी के ही नाम से पुकारा जाने लगा। और तो और, कुछ ही दिनों में मैं भी उसको मिष्टी कह कर बुलाने लगा। आभा नाम का इस्तेमाल बस बच्ची को ‘खबरदार’ करने के लिए केवल मैं ही इस्तेमाल करता था।

बाकी के सभी लोग माँ जैसे ही हो गए थे - कोई किसी से ऊँची आवाज़ में न तो बात करता, न कोई झगड़ा, न कोई डाँट, और न कोई क्रोध! सभी बड़े शांत शांत और स्नेही! बस मैं ही एक अपवाद था, और घर में सभी लोग मेरी इस बात को नज़रअंदाज़ भी कर देते थे।


**


सुनील के आने के बाद और भी अनेक सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे!

घर में अब गाने बजते थे। खूब सारे! सुबह से शाम तक संगीत ही संगीत! पहले तो केवल माँ ही कभी कभी अपने कमरे में रेडियो सुनती थीं। लेकिन अब लगभग पूरे समय, मधुर संगीत सुन सकते थे। यह संगीत शास्त्रीय से ले कर फ़िल्मी - कुछ भी हो सकता था। सुनील ने इंजीनियरिंग करते करते गिटार बजाना सीख लिया था - और वो अक्सर देसी और विदेशी धुनें निकाल कर बजाया करता था। बढ़िया बजाता था! वो गाने भी गाता था - उसके साथ साथ माँ भी कभी कभी गाने लगतीं। और तो और, बच्चों के खेल में अब बड़े भी शामिल होने लग गए - लतिका और आभा के साथ साथ सुनील, काजल और माँ भी सब प्रकार के बचकाने खेल खेलने लगे थे। सब खूब खेलते, खूब हँसते और फिर अपने ही बचकानेपन पर खूब हँसते! मुझको जब फुर्सत मिलती, तो मुझको भी जबरदस्ती कर के बच्चों के खेल में शामिल कर लिया जाता। मुझको समय कम मिलता था, लेकिन सच में, यह सब करने में मुझे भी आनंद आता!

और भी एक परिवर्तन देखने को मिला, जो बड़ा ही आनंददायक था।

मुझे अब अचानक ही ऐसा लगने लगा था कि माँ अब खुश खुश रहने लगी थीं।

जब सुनील मेरी मदद नहीं कर रहा होता था, तो वो माँ और काजल के साथ अच्छा और क्वालिटी टाइम बिताता था। सच कहूँ, तो वो मेरे साथ बहुत कम, लेकिन घर में अधिक समय बिताता था। यह अच्छी बात थी, और इसको ले कर मुझे कोई शिकायत भी नहीं थी। वो उन दोनों को अपने कॉलेज की कहानियाँ सुनाता था, और अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में बताता था। एक इंजीनियरिंग छात्र के छात्रावास जीवन के बारे में माँ को कुछ कुछ मालूम था, लेकिन सुनील के अनुभव मेरे अनुभवों से थोड़े अलग थे। उसने मुझसे लगभग एक दशक के बाद स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी, इसलिए जाहिर सी बात है कि उसके अनुभव मेरे अनुभवों से अलग थे।

दोपहर में इत्मीनान से लम्बी लम्बी, गपशप करना माँ, काजल और सुनील की सबसे पसंदीदा गतिविधि बन गई थी। उसके आने से बड़ी रौनक हो गई थी। काजल भी खुश थी और माँ भी! सच में, दोनों औरतों में यह बदलाव देख कर, ख़ास कर माँ में इस सकारात्मक बदलाव को देखकर मैं बहुत खुश था, और बड़ी राहत महसूस कर रहा था। ऐसा लगने लगा था कि आखिरकार, उनके डिप्रेशन की दीवार अब टूटने लगी थी, और वो डिप्रेशन से बाहर आने लगी थीं।

जब उनकी दोपहर की गपशप चल रही होती, तो काजल उससे बोलती कि उसका आगे का क्या प्लान है! तो सुनील अक्सर कहता कि वो एक ‘अच्छी सी लड़की’ के साथ शादी करना चाहता है। उसकी यह बात माँ और काजल, दोनों को ही खूब पसंद आती। दोनों महिलाओं की भी यही राय थी कि लोगों को जल्दी से जल्दी शादी कर लेनी चाहिए... सही व्यक्ति से शादी करने में जीवन का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। एक लंबा और सुखी वैवाहिक जीवन, किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे अच्छा उपहार होता है।

माँ अक्सर अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती दिनों की कहानियाँ बड़े प्यार से सुनाया करती थीं। अपने वैवाहिक जीवन की बातें करते हुए, उनकी आँखों में कैसी अनूठी चमक आ जाती थी - वो चमक न तो काजल से ही छुपी थी, और न ही सुनील से! काजल और माँ दोनों का मानना था कि शादी की कानूनी उम्र पहुंचते ही लोगों को अपनी पसंद के साथी से शादी कर लेनी चाहिए।

माँ और काजल अक्सर उत्साह और उत्सुकता से उससे पूछते थे कि वो किस तरह की लड़की से शादी करना पसंद करेगा। और सुनील हमेशा मजाकिया अंदाज में कहता, कि वो एक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है जो उससे प्यार करे, उसका सहारा बने - जैसे कि कोई चट्टान हो, उसके बच्चों को खूब प्यार करे और उनका पालन-पोषण करे - ठीक वैसे ही जैसे माँ जी ने ‘भैया’ का किया है, या जैसे काजल ने उसका और लतिका का किया है। अब यह विवरण तो बड़ा ही अस्पष्ट था, लेकिन दोनों महिलाओं को वो सब सुन कर अच्छा लगता। कम से कम ये लड़का किसी लड़की के रंग-रूप जैसे सतही बातों का दीवाना नहीं था!

“ईश्वर करें, कि तुम्हारी अभीष्ट पत्नी की मनोकामना पूरी हो!” माँ ने उसको आशीर्वाद दिया, “और तुमको तुम्हारी मन-पसंद लड़की मिले!”

“हाँ दीदी! ऐसी बहू मिल जाए, तो मैं तो तर गई समझो!” काजल भी माँ के समर्थन में बोली।

‘हम्म्म तो तेरे लिए जल्दी ही एक अच्छी सी दुल्हन ढूंढ के लानी पड़ेगी अब तो!’

उनका गप्प सेशन हर बार काजल और माँ के इसी वायदे पर ख़तम होता!


**


सुनील के आने के दो ही सप्ताह में माँ के ऊपर उसका सकारात्मक प्रभाव साफ़ दिखने लग गया था। उसके आने से पहले तक माँ घर से बाहर केवल अपनी ब्रिस्क वाकिंग के लिए ही निकलती थीं, और वो भी समझिए मुँह अँधेरे। मुझे उनको ले कर डर भी लगा रहता - आप सभी जानते ही हैं कि हमारे शहर में महिला सुरक्षा की क्या हालत है! तब भी खराब थी, और अब भी खराब है। खैर, सुनील सवेरे सवेरे उठ जाता, और अपने साथ ही माँ को भी जॉगिंग के लिए जाने लगा। पास के पार्क में दोनों अपनी अपनी एक्सरसाइज करते। वो उनके इर्द गिर्द ही रहता। मुझे भी थोड़ा सुकून हुआ - सुनील के साथ होने से, माँ कम से कम सुरक्षित तो थीं।


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Lib am

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अंतराल - स्नेहलेप - Update #4


आज ऑफिस में मन नहीं लग रहा था।

काजल से किया हुआ वायदा रह रह कर याद आ रहा था, और बच्चों से खेलने का बड़ा मन हो रहा था। लिहाज़ा, मैं ऑफिस में अपने सेक्रेटरी से अगले दो दिनों में किसी बढ़िया होटल में पूरे स्टाफ के लंच के बुकिंग करने को कह कर निकल गया - बच्चों को उनके स्कूल से लाने। उम्मीद थी कि दोनों को अच्छा लगेगा। मैं स्कूल जल्दी पहुँच गया - बच्चों की छुट्टी का ठीक ठीक आईडिया नहीं था। लेकिन वहाँ आइसक्रीम, चना जोर, भेल इत्यादि बेचने वालों की रेहड़ियाँ लग चुकी थीं। इसका मतलब छुट्टी होने ही वाली थी। मैंने कार से निकल कर एक आइसक्रीम खरीदी और खाने लगा। सर्दी में आइसक्रीम खाने में एक अभूतपूर्व आनंद आता है। कर के देखें कभी। बचपन में यह काम मैंने कभी नहीं किया। अभी भी नहीं करता था। माँ के होने से स्वादिष्ट भोजन घर पर ही उपलब्ध था, और भर पेट खाने को मिलता था। तो यह एक तरीके का गिल्टी प्लेशर था, मेरे लिए। मेरी आइसक्रीम ख़तम ही हुई थी कि मैंने काजल को आते देखा। उसको देख कर मुस्कान आ गई - ‘मेरी काजल’! हाँ, यही ख़याल आता था।

मैंने हाथ हिला कर उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। मुझे देख कर वो आश्चर्यचकित हो गई। लेकिन उसको अच्छा भी लगा। हम दोनों ही बातें करते हुए दोनों बच्चों के बाहर आने का इंतज़ार करने लगे। कोई दस मिनट बाद ढेर सारे बच्चों का हुजूम स्कूल के गेट से बाहर आने लगा। लतिका और आभा दोनों हमेशा एक नियत स्थान पर खड़े हो कर काजल का इंतज़ार करते थे। आज भी वो दोनों वहीं खड़े थे। लेकिन आज काजल के साथ मुझे भी देख कर दोनों बच्चे बड़े खुश हुए। मुर्गा मिला था, तो हलाल भी होना था। मज़े की बात यह थी कि बच्चों को ज़िद भी नहीं करनी पड़ी, और मैं उनको ले कर पास की ही एक मिठाई की दूकान चला गया। वहाँ तीन चार डब्बे मिठाइयाँ पैक करवा कर अगले पाँच मिनट में हम घर पर थे।

माँ भी मुझे इतनी जल्दी घर में उपस्थित देख कर बड़ी खुश हुईं - उन्होंने बड़े प्रशंसा भाव लिए काजल को देखा। वो हमेशा से जानती थीं कि काजल का मुझ पर एक बेहद सकारात्मक प्रभाव है। और ऐसे गहरे अवसाद के अवसर पर भी वो प्रभाव बरकरार था। खाना पहले ही पका हुआ था। हम सभी हँसते बोलते खाने की टेबल पर बैठे। दोनों बच्चे - मुझे लग रहा था कि शायद वो मुझसे दूरी बना कर रखेंगे - मेरे आशातीत (उम्मीद से परे), मेरी गोदी में आ कर बैठ गए : लतिका मेरी बाईं जांघ पर और आभा मेरी दाईं जांघ पर। और ज़िद यह कि मुझे ही खिलाना पड़ेगा दोनों को। ऐसे में दोनों को खाना खिलाना मुश्किल काम था - डर लगा हुआ था कि कोई गिर न जाए - लेकिन मैंने किया। और सच में, इतने महीनों में यह सबसे सुखद अनुभूति थी। उनकी किलकारियाँ, हँसी, भोले चुटकुले - यह सब सुन कर दिल को बहुत ठंडक मिली।

दोपहर में दोनों बच्चे कुछ देर के लिए सो जाते थे - लेकिन आज दोनों को ही नींद नहीं आ रही थी। इसलिए हमने कैरम बोर्ड निकाला, और कुछ देर तक खेल का आनंद लिया। माँ भी अपने ही कमरे में चली जाती थीं अक्सर - लेकिन आज सभी मेरे ही कमरे में जमे रहे। बच्चों ने बड़ी आसानी से मुझे हरा दिया! आभा तो इतनी क्यूट थी कि मेरे विपक्ष में खेलते हुए भी, वो मेरी ही गोद में बैठ कर अपनी चाल खेलती। उसकी इस हरकत पर इतनी हँसी आती कि पूछिए नहीं! उसको आलिंगन में भर के खूब चूमता रहा। मेरा बच्चा! मेरी देवयानी की निशानी!

रोज़ इस आनंद का आस्वादन करना मुश्किल था, लेकिन मैंने निर्णय लिया कि कम से कम सप्ताहांतों में यह अवश्य करूँगा। दोनों बच्चे अपने पिता के अभाव में नहीं जिएँगे अब से।


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नया साल आने के साथ ही साथ हमारा भाग्य भी खुल गया।

फरवरी में माँ का जन्मदिन होता है और काजल के कहने पर बहुत ही अधिक न-नुकुर करने के बाद, माँ ने अपना जन्मदिन मनाने के लिए ‘हां’ कर दी। माँ का मन नहीं था यह सब करने का, क्योंकि अगले महीने डैड की पहली पुण्यतिथि थी। लेकिन काजल की ज़िद के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। ऐसा कोई बड़ा प्लान भी नहीं था हम लोगों का - बस साथ में बैठ कर, घर में ही फिल्म देखने का, और स्वादिष्ट पकवान खाने का प्लान था। ससुर जी, और जयंती दीदी सपरिवार आमंत्रित थे, और उपस्थित भी। जो नहीं आ सकते थे - जैसे कि सुनील - उन्होंने फ़ोन कर के उनको स्वस्थ जीवन की शुभकामनाएँ दीं। बड़ा अच्छा लगा सभी को यूँ एक साथ देख कर। ससुर जी भी बूढ़े से दिख रहे थे, लेकिन अपने सभी नाती और नातिनों को देख कर वो भी बच्चे बन गए। उन्होंने भी बहुत आनंद उठाया। काजल की ही मनुहार पर माँ ने कम फ़ीकी रंग की साड़ी पहनी थी उस दिन। सच में - उनको हँसता खेलता देखने के लिए मन तरसने लगा था। न जाने कब वो होता! लेकिन अभी जो हो रहा था, मैं उतने से भी संतुष्ट था।

माँ के जन्मदिन के एक सप्ताह बाद सुनील को एक मल्टीनेशनल कंपनी से जॉब ऑफर मिला। वो कंपनी पहली बार कैंपस में आई थी, और केवल सुनील को ही ऑफर दे कर गई। उसका पे पैकेज भी बड़ा आकर्षक था - मुझे जितना मिला था, उससे कहीं अधिक! कंपनी ने उसको पहले ही बता दिया था कि उसकी जोइनिंग अगस्त में होगी - ग्रेजुएशन के कोई तीन महीने बाद! और वो इसलिए क्योंकि रिसेशन के कारण कंपनी के वर्कफ़ोर्स में थोड़ा बदलाव चल रहा था। थोड़ा घबराहट तो हुई यह सुन कर - क्योंकि यह रिसेशन ईयर था। क्या पता - तीन महीने बाद कहीं ऑफर न वापस ले लें। लेकिन फिर भी, यह कोई खराब बात नहीं थी। कुछ नहीं तो सुनील हमारे साथ क्वालिटी समय बिता लेता। और अगर उसको काम करना भी था, तो मेरे संग कर सकता था। दोनों बच्चों के साथ मेरे सम्बन्ध घनिष्ट हो गए थे, और मुझे उम्मीद थी कि सुनील के साथ भी पहले जैसी घनिष्टता बन सकेगी!


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काजल के हमारे यहाँ आए हुए अब कोई नौ महीने हो गए थे। अब हमारे घर में सब कुछ या तो ठीक, या फिर अच्छा चल रहा था - सिवाय माँ के डिप्रेशन के। हाँ - इतना तो हुआ था कि काजल के आने के बाद डिप्रेशन के सबसे बड़े दुष्प्रभाव समाप्त हो गए थे, और अधिकतर एपिसोड्स अब कम दिख रहे थे! लेकिन फिर भी वो उससे पूरी तरह से उबर नहीं पाई थीं। डॉक्टर के हिसाब से उनकी हालत में सकारात्मक अंतर था और उसने उनकी दवाइयाँ भी कम कर दी थीं। लेकिन फिर भी, न जाने क्यों, मेरे दिल में माँ को ले कर एक डर सा बैठा हुआ था। मुझे मालूम था - माँ बदल गई थी... और यह कोई बढ़िया बात नहीं थी। मैं अपनी वही पहली वाली, हँसती गाती, चंचल माँ को मिस कर रहा था। काश कि मेरी वो पहली वाली माँ वापस आ जाएँ! मुझे समझ में भी नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे होगा! उनको खुश देखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। बस, कैसे भी कर के वो पहले जैसी हो जाएँ! खैर, देखेंगे!

मेरा बिज़नेस भी बड़ी अच्छी रफ़्तार से बढ़ रहा था। हमारी शुरुवात छोटी सी थी - लेकिन अब यकीन से कहा जा सकता था, कि कुछ अच्छा ही भविष्य होगा मेरी कंपनी का। कंपनी का टर्न-ओवर काफ़ी बढ़ गया था, और अब वो प्रॉफिट में भी थी! किसी भी स्टार्ट-अप के लिए प्रॉफिटेबल होना एक बड़ा ही अच्छा संकेत होता है। मैं उस कारण से खुश था। कंपनी इतनी बड़ी भी नहीं हुई थी कि अन्य बड़ी कंपनियों की नज़र में आ जाए, और वो मेरा बिज़नेस बिगाड़ने के लिए कोई प्रतिक्रिया दें। मैं अब काम के लिए खुद की जान नहीं निकाले दे रहा था! अपने साथ साथ मैं कुछ और लोगों को रोज़गार भी दे रहा था! और सबसे अच्छी बात यह थी कि मैं घर में उचित समय भी बिता रहा था! और क्या चाहिए?

काजल इस समय तक, प्रक्टिकली, मेरे घर की ‘स्वामिनी’ बन गई थी। घर का पूरा सञ्चालन उसी के हाथ में था। एक तरह से हम सभी के जीवन की बागडोर काजल के हाथ में थी। और यह बड़ी अच्छी बात भी थी। कम से कम मेरा जीवन बड़ा अनुशासित हो गया था - अब खाना पीना तरीके से हो रहा था, और नियमित एक्सरसाइज करने के लिए प्रेरणा भी थी। काजल के साथ मेरी कोई नियमित अंतरंगता नहीं थी - उस पहली बार के बाद, हमने बस दो या तीन और बार ही सेक्स किया होगा। शायद इसलिए कि या तो मैं, या फिर काजल किसी बात से विचलित थे। और सेक्स करने से मन में स्थिरता आती है - बस, और कोई कारण नहीं। हमारा सम्बन्ध अभी भी प्रेम और आदर वाला ही था, रोमांटिक नहीं। दोनों बच्चे भी अब बहुत खुश रहने लगे थे - उनका स्वास्थ्य और शारीरिक विकास, जाहिर तौर पर पहले से बेहतर लग रहा था। एक तरह से जीवन वापस पटरी पर लौट आया था!

उधर सुनील की इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी! जैसा कि मैंने बताया कि ग्रेजुएशन के बाद अपनी नई नौकरी शुरू करने में उसको तीन महीने का समय मिला हुआ था। लिहाज़ा, वो हमारे साथ रहने दिल्ली चला आया। हाँलाकि काजल इतने दिनों से यहाँ रह रही थी, लेकिन फिर भी यह पहली बार था कि सुनील हमसे मिलने आया था!


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एक लम्बा अर्सा हो गया था सुनील को देखे। उसके इंजीनियरिंग के फर्स्ट सेमेस्टर में मिला था शायद उससे आखिरी बार! मतलब कोई साढ़े तीन साल हो गए थे! हे भगवान्! पिछली बार मैंने जब उसको देखा, तो वो बस एक किशोरवय लड़के जैसा ही था। लेकिन अब वो एक सुन्दर, स्वस्थ, और आकर्षक युवक में परिवर्तित हो गया था। उसकी कद-काठी बहुत विकसित हो गई थी, उसके कारण वो अपनी उम्र से दो तीन साल बड़ा भी लगता था। उसके लहज़े में धीरता थी और चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता था। उसके बोलने का अंदाज़ भी आकर्षक था - थोड़ी भारी आवाज़, और आत्मविश्वास से भरी। उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा देख कर बढ़िया लगता था। सच में - उसे देखकर मुझे बहुत गर्व हुआ। मुझे बिलकुल वैसा ही महसूस हुआ जैसा कि किसी गौरान्वित बाप को हो सकता है! सुनील मुझको अपने पिता समान मानता था, और मैं भी सुनील को अपने बेटे जैसा - अपना बेटा ही मानता था!

मैंने ही उसको हवाई जहाज़ से दिल्ली आने को कहा था। ट्रेन से आने पर खड़गपुर से दिल्ली पूरा दिन ले लेता है। मैं चाहता था, कि वो अधिक से अधिक समय हमारे साथ गुजार सके! उसको लेने काजल, माँ और मैं, तीन लोग एयरपोर्ट गए थे। बच्चे स्कूल में थे - वो उससे बाद में मिल लेते।

मुझे देखते ही उसने सबसे पहले मेरे पैर छुए। मैंने भी उसे बड़े स्नेह से अपने गले से लगा लिया।

“आ गया मेरा बेटा! कैसे हो सुनील?”

“बढ़िया हूँ, भैया! आप कैसे हैं?”

“मैं तो बहुत बढ़िया हो गया तुमको देख कर!”

“तुम्हारी अम्मा हम सभी को सम्हाल रही हैं, तो हम सभी अच्छे ही होंगे न!” माँ ने मद्धिम मद्धिम हँसते हुए कहा, “तुम बताओ बेटे! तुम कैसे हो? सच में, तुम्हारी तरक़्क़ी देख कर हम सभी को बहुत गर्व होता है!”

माँ भी सुनील को शायद कोई ढाई तीन साल बाद ही देख रही थीं। कितना कुछ बदल गया था इतने ही समय में!

सुनील ने उनके पैर छूते हुए कहा, “मैं ठीक हूँ - आप कैसी है?”

“आयुष्मान भव! यशश्वी भव!” माँ ने आशीर्वाद दिया, “हम सब ठीक हैं! तुम आ गए, तो अब और भी अच्छे हो गए!”

सबसे बाद में उसने काजल के पैर छुए। काजल ने उसको कस कर अपने गले से लगा कर इतनी बार चूमा कि वो शर्मसार हो गया। माँ की ममता अपने बच्चे का आकार प्रकार थोड़े ही देखती है।

आखिरकार, इतने लंबे अंतराल के बाद मुझे अपना परिवार एक खुशहाल, बड़े परिवार की तरह लग रहा था! आज मैं बहुत खुश था! आखिरकार, हमारा छः लोगों का खुशहाल संसार मिल गया था!


**


सुनील पहले तो अपनी छुट्टियाँ भारत भ्रमण करने में बिताना चाहता था! मुझे थोड़ा सा दुःख तो हुआ। एक मौका मिला था उससे आत्मीयता बढ़ाने का, वो अब जाता रहा - यह सोच कर। लेकिन फिर अचानक ही, उसने अपना वो निर्णय बदल दिया। पहली ही शाम सुनील मुझसे बोला कि वो अपनी पूरी छुट्टी हमारे साथ ही बिताएगा, और फिर अपनी जॉब ज्वाइन करेगा। यह तो बहुत अच्छी बात थी, और उसके निर्णय पर हम सभी को बहुत ही अधिक ख़ुशी हुई। मुझे तो शायद काजल से भी अधिक!

मैंने जब उससे भारत भ्रमण पर न जाने का कारण पूछा तो उसने मुझसे कहा कि वो मेरे बिज़नेस में कुछ दिन इंटर्नशिप करना चाहता है। और इस काम से अगर मेरी कोई मदद हो जाती है, तो और भी बेहतर! मुझे उसकी मदद की आवश्यकता नहीं थी! क्योंकि अब कंपनी जम गई थी। लेकिन हाँ, मेरे साथ काम कर के उसको इंटर्नशिप का बढ़िया अनुभव हो जाता, जो कि उसको अपनी जॉब शुरू करने में बहुत मदद करता। इसलिए, मैंने उसे अपने साथ काम करने के लिए ‘हाँ’ कर दी। मैं भी चाहता था कि हम दोनों कुछ क्वालिटी टाइम साथ में बिताएँ।

एक समय था, जब मैं उसको पढ़ाता था, लिखाता था, और विभिन्न विषयों के बारे में समझाता था। एक बाप के समान ही मैंने उसको भले बुरे का ज्ञान दिया; व्यावहारिक समझ दी; समाज के बारे में समझाया! उस समय हम कितने पास थे! सुनील मुझे बहुत पसंद था - बिलकुल अपने बेटे की ही तरह। और मैं चाहता था कि हमारे बीच वही बाप-बेटे वाली निकटता वापस आ जाय। वैसे भी, इतने दिनों से मैं केवल स्त्रियों के बीच ही रह रहा था। इसलिए थोड़ा परिवर्तन तो मुझे भी चाहिए था! हा हा हा! उसने यह भी कहा कि वो अपनी नई नौकरी पर जाने से पहले, अम्मा और माँ जी के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिताना चाहता था। उनसे दूर रहे बहुत अधिक समय हो चला था। यह भी बहुत अच्छी बात थी।

मैंने सुनील से वायदा किया कि वो जब भी चाहे, मेरी कंपनी में शामिल हो सकता है। यह उसी की कंपनी है। यह बात सच भी है - मेरी कंपनी एक तरीके से फॅमिली बिज़नेस थी। ससुर जी अब कभी कभी ही ऑफिस आते थे। पूरे काम की बागडोर मैंने ही सम्हाल रखी थी। उन्होंने कंपनी मेरे नाम कब की कर दी थी। ससुर जी ने इसको शुरू किया था, फिर मैंने अपनी पूँजी लगा कर इसको तेजी से बढ़ाया था। सुनील एक सुशिक्षित प्रोफेशनल था, और अगर अन्य कम्पनियाँ उस पर अपना काम करने में भरोसा कर सकती हैं, तो मैं भी उस पर भरोसा कर सकता हूँ!

सच में, सुनील के आने के बाद से, घर में रौनक सी आ गई थी! लतिका और आभा उसको देखते ही चहकने लगती थीं - और ‘दादा’ ‘दादा’ कह कर उसके आगे पीछे होने लगती थीं। वो भी दोनों बच्चों के साथ बड़ी नरमी, बड़ी सौम्यता से व्यवहार करता था। उनके साथ वो खुद भी एक छोटा सा बच्चा बन जाता।


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जब उसने आभा को पहली बार देखा तो उससे पूरे दिन भर अलग ही नहीं हो पाया। उसने इतना प्यार, इतना दुलार उस छोटी सी बच्ची पर बरसाया कि पूछो मत!

“आभा!” जब उसने आभा का ये नाम सुना तो बड़े नाटकीय अंदाज़ में बोला, “ये कैसा नाम है!”

उसकी बात सुन कर आभा के होंठ और गाल फूलने लगे - वैसे ही जब नन्हे बच्चे किसी से नाराज़ होने लगते हैं।

बात बहुत बिगड़ जाती, कि उस से पहले ही उसने बात सम्हाल ली, “इतनी मीठी मीठी बिटिया है मेरी! है कि नहीं? मेरी इतनी मीठी मीठी बिटिया का नाम तो ‘मिश्री’ होना चाहिए! बोलो? अच्छा नाम है कि नहीं?” वो आभा को अपनी गोदी में लिए, उसको दुलार करते हुए बोला।

उसकी बात पर आभा की बाँछे खिल गईं! तुरंत! साथ ही साथ वो उसको घोर आश्चर्य से देख भी रही थी - आखिर ये कौन है जो उस पर इतना प्यार बरसा रहा है! सुनील अभी भी उसके लिए अपरिचित और नया व्यक्ति था। लेकिन आभा को समझ में आ रहा था कि वो ‘मित्र’ है! इसलिए जब सुनील आभा की टी-शर्ट थोड़ा ऊपर उठा कर, और उसकी निक्कर थोड़ा नीचे सरका कर जब उसने आभा का पेड़ू खोला, तो आभा ने बिना चिल्लम चिल्ली किए उसको वो करने दिया, यह देखने के लिए कि वो आगे क्या करता है! फिर अचानक ही सुनील ने अपने होंठों को उसके पेड़ू पर सटाया, और ‘फ़ुर्र’ कर के आवाज़ निकाली। उसके होंठों के कम्पन से उठने वाली गुदगुदी से आभा खिलखिला कर हँसने लगी।

इन दोनों का ये खेल तब शुरू हुआ था - कोई बीस साल पहले, और आज भी जारी है! आभा अपने दादा के साथ सब तरह के नखरे कर सकती है, और करती भी है। और सुनील उसकी हर जायज़, नाजायज़ माँग पूरी करता है - बिना कुछ पूछे (वो अलग बात है कि आभा कोई नाजायज़ मांग नहीं करती)! कुछ बातें नहीं बदलतीं! कभी नहीं! बदलनी भी नहीं चाहिए!

“दादा, और मैं?” लतिका ने ठुनकते हुए कहा। आभा और सुनील के इस मज़ेदार एपिसोड में वो पीछे नहीं रहना चाहती थी।

“अरे, तू तो मेरी पुचुकी है ही! मेरी खट्टी मीठी चटपटी पुचुकी!” सुनील ने लतिका के पेट में गुदगुदी करते हुए कहा।

“हा हा हा!” लतिका उसकी हरकत पर खिलखिला कर हँसने लगी, फिर बोली, “लेकिन दादा, मिश्री तो खूब कड़ी कड़ी होती है। आभा तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उसका नाम भी तो उसके जैसा ही सॉफ्ट सॉफ्ट होना चहिए न?”

कितनी सयानी और बुद्धिमत्ता भरी बात थी ये तो!

“हाँ! बात तो सही है! ये बिटिया तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उम्म्म… तो फिर क्या करें?” सुनील ने कुछ देर सोचा, और फिर जैसे निर्णय सुनाते हुए बोला, “हम हमारी बिटिया को ‘मिष्टी’ कहेंगे!” सुनील ने जैसे निर्णय सुनाते हुए कहा, “मिष्टी! क्यों, ठीक है न मेरी बिटिया? तुमको ये नाम पसंद आया?”

“हाँ! मिष्टी! ये बढ़िया नाम है!” लतिका ने भी इस नए नाम का समर्थन किया।

आभा, जो अभी सुनील से ठीक से परिचित भी नहीं थी, उसकी मीठी मीठी बात पर मुस्कुराने लगी, और उत्साह से ‘हाँ’ में सर हिलाने लगी। जब लतिका ने किसी बात के लिए हाँ कर दी, तो आभा भी वो बात मान लेती। लतिका उसकी सबसे चहेती जो थी!

तो उस दिन से आभा को घर में हमेशा मिष्टी के ही नाम से पुकारा जाने लगा। और तो और, कुछ ही दिनों में मैं भी उसको मिष्टी कह कर बुलाने लगा। आभा नाम का इस्तेमाल बस बच्ची को ‘खबरदार’ करने के लिए केवल मैं ही इस्तेमाल करता था।

बाकी के सभी लोग माँ जैसे ही हो गए थे - कोई किसी से ऊँची आवाज़ में न तो बात करता, न कोई झगड़ा, न कोई डाँट, और न कोई क्रोध! सभी बड़े शांत शांत और स्नेही! बस मैं ही एक अपवाद था, और घर में सभी लोग मेरी इस बात को नज़रअंदाज़ भी कर देते थे।


**


सुनील के आने के बाद और भी अनेक सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे!

घर में अब गाने बजते थे। खूब सारे! सुबह से शाम तक संगीत ही संगीत! पहले तो केवल माँ ही कभी कभी अपने कमरे में रेडियो सुनती थीं। लेकिन अब लगभग पूरे समय, मधुर संगीत सुन सकते थे। यह संगीत शास्त्रीय से ले कर फ़िल्मी - कुछ भी हो सकता था। सुनील ने इंजीनियरिंग करते करते गिटार बजाना सीख लिया था - और वो अक्सर देसी और विदेशी धुनें निकाल कर बजाया करता था। बढ़िया बजाता था! वो गाने भी गाता था - उसके साथ साथ माँ भी कभी कभी गाने लगतीं। और तो और, बच्चों के खेल में अब बड़े भी शामिल होने लग गए - लतिका और आभा के साथ साथ सुनील, काजल और माँ भी सब प्रकार के बचकाने खेल खेलने लगे थे। सब खूब खेलते, खूब हँसते और फिर अपने ही बचकानेपन पर खूब हँसते! मुझको जब फुर्सत मिलती, तो मुझको भी जबरदस्ती कर के बच्चों के खेल में शामिल कर लिया जाता। मुझको समय कम मिलता था, लेकिन सच में, यह सब करने में मुझे भी आनंद आता!

और भी एक परिवर्तन देखने को मिला, जो बड़ा ही आनंददायक था।

मुझे अब अचानक ही ऐसा लगने लगा था कि माँ अब खुश खुश रहने लगी थीं।

जब सुनील मेरी मदद नहीं कर रहा होता था, तो वो माँ और काजल के साथ अच्छा और क्वालिटी टाइम बिताता था। सच कहूँ, तो वो मेरे साथ बहुत कम, लेकिन घर में अधिक समय बिताता था। यह अच्छी बात थी, और इसको ले कर मुझे कोई शिकायत भी नहीं थी। वो उन दोनों को अपने कॉलेज की कहानियाँ सुनाता था, और अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में बताता था। एक इंजीनियरिंग छात्र के छात्रावास जीवन के बारे में माँ को कुछ कुछ मालूम था, लेकिन सुनील के अनुभव मेरे अनुभवों से थोड़े अलग थे। उसने मुझसे लगभग एक दशक के बाद स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी, इसलिए जाहिर सी बात है कि उसके अनुभव मेरे अनुभवों से अलग थे।

दोपहर में इत्मीनान से लम्बी लम्बी, गपशप करना माँ, काजल और सुनील की सबसे पसंदीदा गतिविधि बन गई थी। उसके आने से बड़ी रौनक हो गई थी। काजल भी खुश थी और माँ भी! सच में, दोनों औरतों में यह बदलाव देख कर, ख़ास कर माँ में इस सकारात्मक बदलाव को देखकर मैं बहुत खुश था, और बड़ी राहत महसूस कर रहा था। ऐसा लगने लगा था कि आखिरकार, उनके डिप्रेशन की दीवार अब टूटने लगी थी, और वो डिप्रेशन से बाहर आने लगी थीं।

जब उनकी दोपहर की गपशप चल रही होती, तो काजल उससे बोलती कि उसका आगे का क्या प्लान है! तो सुनील अक्सर कहता कि वो एक ‘अच्छी सी लड़की’ के साथ शादी करना चाहता है। उसकी यह बात माँ और काजल, दोनों को ही खूब पसंद आती। दोनों महिलाओं की भी यही राय थी कि लोगों को जल्दी से जल्दी शादी कर लेनी चाहिए... सही व्यक्ति से शादी करने में जीवन का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। एक लंबा और सुखी वैवाहिक जीवन, किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे अच्छा उपहार होता है।

माँ अक्सर अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती दिनों की कहानियाँ बड़े प्यार से सुनाया करती थीं। अपने वैवाहिक जीवन की बातें करते हुए, उनकी आँखों में कैसी अनूठी चमक आ जाती थी - वो चमक न तो काजल से ही छुपी थी, और न ही सुनील से! काजल और माँ दोनों का मानना था कि शादी की कानूनी उम्र पहुंचते ही लोगों को अपनी पसंद के साथी से शादी कर लेनी चाहिए।

माँ और काजल अक्सर उत्साह और उत्सुकता से उससे पूछते थे कि वो किस तरह की लड़की से शादी करना पसंद करेगा। और सुनील हमेशा मजाकिया अंदाज में कहता, कि वो एक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है जो उससे प्यार करे, उसका सहारा बने - जैसे कि कोई चट्टान हो, उसके बच्चों को खूब प्यार करे और उनका पालन-पोषण करे - ठीक वैसे ही जैसे माँ जी ने ‘भैया’ का किया है, या जैसे काजल ने उसका और लतिका का किया है। अब यह विवरण तो बड़ा ही अस्पष्ट था, लेकिन दोनों महिलाओं को वो सब सुन कर अच्छा लगता। कम से कम ये लड़का किसी लड़की के रंग-रूप जैसे सतही बातों का दीवाना नहीं था!

“ईश्वर करें, कि तुम्हारी अभीष्ट पत्नी की मनोकामना पूरी हो!” माँ ने उसको आशीर्वाद दिया, “और तुमको तुम्हारी मन-पसंद लड़की मिले!”

“हाँ दीदी! ऐसी बहू मिल जाए, तो मैं तो तर गई समझो!” काजल भी माँ के समर्थन में बोली।

‘हम्म्म तो तेरे लिए जल्दी ही एक अच्छी सी दुल्हन ढूंढ के लानी पड़ेगी अब तो!’

उनका गप्प सेशन हर बार काजल और माँ के इसी वायदे पर ख़तम होता!


**


सुनील के आने के दो ही सप्ताह में माँ के ऊपर उसका सकारात्मक प्रभाव साफ़ दिखने लग गया था। उसके आने से पहले तक माँ घर से बाहर केवल अपनी ब्रिस्क वाकिंग के लिए ही निकलती थीं, और वो भी समझिए मुँह अँधेरे। मुझे उनको ले कर डर भी लगा रहता - आप सभी जानते ही हैं कि हमारे शहर में महिला सुरक्षा की क्या हालत है! तब भी खराब थी, और अब भी खराब है। खैर, सुनील सवेरे सवेरे उठ जाता, और अपने साथ ही माँ को भी जॉगिंग के लिए जाने लगा। पास के पार्क में दोनों अपनी अपनी एक्सरसाइज करते। वो उनके इर्द गिर्द ही रहता। मुझे भी थोड़ा सुकून हुआ - सुनील के साथ होने से, माँ कम से कम सुरक्षित तो थीं।


**
अमर में सकारात्मक परिवर्तन से बच्चो को आनंद मिला और साथ ही मां और काजल को भी सुकून मिला की अब परिवार फिर से परिवार बन रहा है। सुनील ने तो आ कर सब कुछ ही बदल दिया और पूरा परिवार पुराने समय की तरह खुशियों की राह पर चल पड़ा। अब चार लोग है जिनको जीवन साथी की तलाश या आवश्यकता है, अमर, काजल, मां और सुनील देखते है किस किस की ख्वाहिश पूरी होती है।
 
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Kala Nag

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आज ऑफिस में मन नहीं लग रहा था।

काजल से किया हुआ वायदा रह रह कर याद आ रहा था, और बच्चों से खेलने का बड़ा मन हो रहा था। लिहाज़ा, मैं ऑफिस में अपने सेक्रेटरी से अगले दो दिनों में किसी बढ़िया होटल में पूरे स्टाफ के लंच के बुकिंग करने को कह कर निकल गया - बच्चों को उनके स्कूल से लाने। उम्मीद थी कि दोनों को अच्छा लगेगा। मैं स्कूल जल्दी पहुँच गया - बच्चों की छुट्टी का ठीक ठीक आईडिया नहीं था। लेकिन वहाँ आइसक्रीम, चना जोर, भेल इत्यादि बेचने वालों की रेहड़ियाँ लग चुकी थीं। इसका मतलब छुट्टी होने ही वाली थी। मैंने कार से निकल कर एक आइसक्रीम खरीदी और खाने लगा। सर्दी में आइसक्रीम खाने में एक अभूतपूर्व आनंद आता है। कर के देखें कभी। बचपन में यह काम मैंने कभी नहीं किया। अभी भी नहीं करता था। माँ के होने से स्वादिष्ट भोजन घर पर ही उपलब्ध था, और भर पेट खाने को मिलता था। तो यह एक तरीके का गिल्टी प्लेशर था, मेरे लिए। मेरी आइसक्रीम ख़तम ही हुई थी कि मैंने काजल को आते देखा। उसको देख कर मुस्कान आ गई - ‘मेरी काजल’! हाँ, यही ख़याल आता था।

मैंने हाथ हिला कर उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। मुझे देख कर वो आश्चर्यचकित हो गई। लेकिन उसको अच्छा भी लगा। हम दोनों ही बातें करते हुए दोनों बच्चों के बाहर आने का इंतज़ार करने लगे। कोई दस मिनट बाद ढेर सारे बच्चों का हुजूम स्कूल के गेट से बाहर आने लगा। लतिका और आभा दोनों हमेशा एक नियत स्थान पर खड़े हो कर काजल का इंतज़ार करते थे। आज भी वो दोनों वहीं खड़े थे। लेकिन आज काजल के साथ मुझे भी देख कर दोनों बच्चे बड़े खुश हुए। मुर्गा मिला था, तो हलाल भी होना था। मज़े की बात यह थी कि बच्चों को ज़िद भी नहीं करनी पड़ी, और मैं उनको ले कर पास की ही एक मिठाई की दूकान चला गया। वहाँ तीन चार डब्बे मिठाइयाँ पैक करवा कर अगले पाँच मिनट में हम घर पर थे।

माँ भी मुझे इतनी जल्दी घर में उपस्थित देख कर बड़ी खुश हुईं - उन्होंने बड़े प्रशंसा भाव लिए काजल को देखा। वो हमेशा से जानती थीं कि काजल का मुझ पर एक बेहद सकारात्मक प्रभाव है। और ऐसे गहरे अवसाद के अवसर पर भी वो प्रभाव बरकरार था। खाना पहले ही पका हुआ था। हम सभी हँसते बोलते खाने की टेबल पर बैठे। दोनों बच्चे - मुझे लग रहा था कि शायद वो मुझसे दूरी बना कर रखेंगे - मेरे आशातीत (उम्मीद से परे), मेरी गोदी में आ कर बैठ गए : लतिका मेरी बाईं जांघ पर और आभा मेरी दाईं जांघ पर। और ज़िद यह कि मुझे ही खिलाना पड़ेगा दोनों को। ऐसे में दोनों को खाना खिलाना मुश्किल काम था - डर लगा हुआ था कि कोई गिर न जाए - लेकिन मैंने किया। और सच में, इतने महीनों में यह सबसे सुखद अनुभूति थी। उनकी किलकारियाँ, हँसी, भोले चुटकुले - यह सब सुन कर दिल को बहुत ठंडक मिली।

दोपहर में दोनों बच्चे कुछ देर के लिए सो जाते थे - लेकिन आज दोनों को ही नींद नहीं आ रही थी। इसलिए हमने कैरम बोर्ड निकाला, और कुछ देर तक खेल का आनंद लिया। माँ भी अपने ही कमरे में चली जाती थीं अक्सर - लेकिन आज सभी मेरे ही कमरे में जमे रहे। बच्चों ने बड़ी आसानी से मुझे हरा दिया! आभा तो इतनी क्यूट थी कि मेरे विपक्ष में खेलते हुए भी, वो मेरी ही गोद में बैठ कर अपनी चाल खेलती। उसकी इस हरकत पर इतनी हँसी आती कि पूछिए नहीं! उसको आलिंगन में भर के खूब चूमता रहा। मेरा बच्चा! मेरी देवयानी की निशानी!

रोज़ इस आनंद का आस्वादन करना मुश्किल था, लेकिन मैंने निर्णय लिया कि कम से कम सप्ताहांतों में यह अवश्य करूँगा। दोनों बच्चे अपने पिता के अभाव में नहीं जिएँगे अब से।


**


नया साल आने के साथ ही साथ हमारा भाग्य भी खुल गया।

फरवरी में माँ का जन्मदिन होता है और काजल के कहने पर बहुत ही अधिक न-नुकुर करने के बाद, माँ ने अपना जन्मदिन मनाने के लिए ‘हां’ कर दी। माँ का मन नहीं था यह सब करने का, क्योंकि अगले महीने डैड की पहली पुण्यतिथि थी। लेकिन काजल की ज़िद के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। ऐसा कोई बड़ा प्लान भी नहीं था हम लोगों का - बस साथ में बैठ कर, घर में ही फिल्म देखने का, और स्वादिष्ट पकवान खाने का प्लान था। ससुर जी, और जयंती दीदी सपरिवार आमंत्रित थे, और उपस्थित भी। जो नहीं आ सकते थे - जैसे कि सुनील - उन्होंने फ़ोन कर के उनको स्वस्थ जीवन की शुभकामनाएँ दीं। बड़ा अच्छा लगा सभी को यूँ एक साथ देख कर। ससुर जी भी बूढ़े से दिख रहे थे, लेकिन अपने सभी नाती और नातिनों को देख कर वो भी बच्चे बन गए। उन्होंने भी बहुत आनंद उठाया। काजल की ही मनुहार पर माँ ने कम फ़ीकी रंग की साड़ी पहनी थी उस दिन। सच में - उनको हँसता खेलता देखने के लिए मन तरसने लगा था। न जाने कब वो होता! लेकिन अभी जो हो रहा था, मैं उतने से भी संतुष्ट था।

माँ के जन्मदिन के एक सप्ताह बाद सुनील को एक मल्टीनेशनल कंपनी से जॉब ऑफर मिला। वो कंपनी पहली बार कैंपस में आई थी, और केवल सुनील को ही ऑफर दे कर गई। उसका पे पैकेज भी बड़ा आकर्षक था - मुझे जितना मिला था, उससे कहीं अधिक! कंपनी ने उसको पहले ही बता दिया था कि उसकी जोइनिंग अगस्त में होगी - ग्रेजुएशन के कोई तीन महीने बाद! और वो इसलिए क्योंकि रिसेशन के कारण कंपनी के वर्कफ़ोर्स में थोड़ा बदलाव चल रहा था। थोड़ा घबराहट तो हुई यह सुन कर - क्योंकि यह रिसेशन ईयर था। क्या पता - तीन महीने बाद कहीं ऑफर न वापस ले लें। लेकिन फिर भी, यह कोई खराब बात नहीं थी। कुछ नहीं तो सुनील हमारे साथ क्वालिटी समय बिता लेता। और अगर उसको काम करना भी था, तो मेरे संग कर सकता था। दोनों बच्चों के साथ मेरे सम्बन्ध घनिष्ट हो गए थे, और मुझे उम्मीद थी कि सुनील के साथ भी पहले जैसी घनिष्टता बन सकेगी!


**


काजल के हमारे यहाँ आए हुए अब कोई नौ महीने हो गए थे। अब हमारे घर में सब कुछ या तो ठीक, या फिर अच्छा चल रहा था - सिवाय माँ के डिप्रेशन के। हाँ - इतना तो हुआ था कि काजल के आने के बाद डिप्रेशन के सबसे बड़े दुष्प्रभाव समाप्त हो गए थे, और अधिकतर एपिसोड्स अब कम दिख रहे थे! लेकिन फिर भी वो उससे पूरी तरह से उबर नहीं पाई थीं। डॉक्टर के हिसाब से उनकी हालत में सकारात्मक अंतर था और उसने उनकी दवाइयाँ भी कम कर दी थीं। लेकिन फिर भी, न जाने क्यों, मेरे दिल में माँ को ले कर एक डर सा बैठा हुआ था। मुझे मालूम था - माँ बदल गई थी... और यह कोई बढ़िया बात नहीं थी। मैं अपनी वही पहली वाली, हँसती गाती, चंचल माँ को मिस कर रहा था। काश कि मेरी वो पहली वाली माँ वापस आ जाएँ! मुझे समझ में भी नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे होगा! उनको खुश देखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। बस, कैसे भी कर के वो पहले जैसी हो जाएँ! खैर, देखेंगे!

मेरा बिज़नेस भी बड़ी अच्छी रफ़्तार से बढ़ रहा था। हमारी शुरुवात छोटी सी थी - लेकिन अब यकीन से कहा जा सकता था, कि कुछ अच्छा ही भविष्य होगा मेरी कंपनी का। कंपनी का टर्न-ओवर काफ़ी बढ़ गया था, और अब वो प्रॉफिट में भी थी! किसी भी स्टार्ट-अप के लिए प्रॉफिटेबल होना एक बड़ा ही अच्छा संकेत होता है। मैं उस कारण से खुश था। कंपनी इतनी बड़ी भी नहीं हुई थी कि अन्य बड़ी कंपनियों की नज़र में आ जाए, और वो मेरा बिज़नेस बिगाड़ने के लिए कोई प्रतिक्रिया दें। मैं अब काम के लिए खुद की जान नहीं निकाले दे रहा था! अपने साथ साथ मैं कुछ और लोगों को रोज़गार भी दे रहा था! और सबसे अच्छी बात यह थी कि मैं घर में उचित समय भी बिता रहा था! और क्या चाहिए?

काजल इस समय तक, प्रक्टिकली, मेरे घर की ‘स्वामिनी’ बन गई थी। घर का पूरा सञ्चालन उसी के हाथ में था। एक तरह से हम सभी के जीवन की बागडोर काजल के हाथ में थी। और यह बड़ी अच्छी बात भी थी। कम से कम मेरा जीवन बड़ा अनुशासित हो गया था - अब खाना पीना तरीके से हो रहा था, और नियमित एक्सरसाइज करने के लिए प्रेरणा भी थी। काजल के साथ मेरी कोई नियमित अंतरंगता नहीं थी - उस पहली बार के बाद, हमने बस दो या तीन और बार ही सेक्स किया होगा। शायद इसलिए कि या तो मैं, या फिर काजल किसी बात से विचलित थे। और सेक्स करने से मन में स्थिरता आती है - बस, और कोई कारण नहीं। हमारा सम्बन्ध अभी भी प्रेम और आदर वाला ही था, रोमांटिक नहीं। दोनों बच्चे भी अब बहुत खुश रहने लगे थे - उनका स्वास्थ्य और शारीरिक विकास, जाहिर तौर पर पहले से बेहतर लग रहा था। एक तरह से जीवन वापस पटरी पर लौट आया था!

उधर सुनील की इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी! जैसा कि मैंने बताया कि ग्रेजुएशन के बाद अपनी नई नौकरी शुरू करने में उसको तीन महीने का समय मिला हुआ था। लिहाज़ा, वो हमारे साथ रहने दिल्ली चला आया। हाँलाकि काजल इतने दिनों से यहाँ रह रही थी, लेकिन फिर भी यह पहली बार था कि सुनील हमसे मिलने आया था!


**


एक लम्बा अर्सा हो गया था सुनील को देखे। उसके इंजीनियरिंग के फर्स्ट सेमेस्टर में मिला था शायद उससे आखिरी बार! मतलब कोई साढ़े तीन साल हो गए थे! हे भगवान्! पिछली बार मैंने जब उसको देखा, तो वो बस एक किशोरवय लड़के जैसा ही था। लेकिन अब वो एक सुन्दर, स्वस्थ, और आकर्षक युवक में परिवर्तित हो गया था। उसकी कद-काठी बहुत विकसित हो गई थी, उसके कारण वो अपनी उम्र से दो तीन साल बड़ा भी लगता था। उसके लहज़े में धीरता थी और चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता था। उसके बोलने का अंदाज़ भी आकर्षक था - थोड़ी भारी आवाज़, और आत्मविश्वास से भरी। उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा देख कर बढ़िया लगता था। सच में - उसे देखकर मुझे बहुत गर्व हुआ। मुझे बिलकुल वैसा ही महसूस हुआ जैसा कि किसी गौरान्वित बाप को हो सकता है! सुनील मुझको अपने पिता समान मानता था, और मैं भी सुनील को अपने बेटे जैसा - अपना बेटा ही मानता था!

मैंने ही उसको हवाई जहाज़ से दिल्ली आने को कहा था। ट्रेन से आने पर खड़गपुर से दिल्ली पूरा दिन ले लेता है। मैं चाहता था, कि वो अधिक से अधिक समय हमारे साथ गुजार सके! उसको लेने काजल, माँ और मैं, तीन लोग एयरपोर्ट गए थे। बच्चे स्कूल में थे - वो उससे बाद में मिल लेते।

मुझे देखते ही उसने सबसे पहले मेरे पैर छुए। मैंने भी उसे बड़े स्नेह से अपने गले से लगा लिया।

“आ गया मेरा बेटा! कैसे हो सुनील?”

“बढ़िया हूँ, भैया! आप कैसे हैं?”

“मैं तो बहुत बढ़िया हो गया तुमको देख कर!”

“तुम्हारी अम्मा हम सभी को सम्हाल रही हैं, तो हम सभी अच्छे ही होंगे न!” माँ ने मद्धिम मद्धिम हँसते हुए कहा, “तुम बताओ बेटे! तुम कैसे हो? सच में, तुम्हारी तरक़्क़ी देख कर हम सभी को बहुत गर्व होता है!”

माँ भी सुनील को शायद कोई ढाई तीन साल बाद ही देख रही थीं। कितना कुछ बदल गया था इतने ही समय में!

सुनील ने उनके पैर छूते हुए कहा, “मैं ठीक हूँ - आप कैसी है?”

“आयुष्मान भव! यशश्वी भव!” माँ ने आशीर्वाद दिया, “हम सब ठीक हैं! तुम आ गए, तो अब और भी अच्छे हो गए!”

सबसे बाद में उसने काजल के पैर छुए। काजल ने उसको कस कर अपने गले से लगा कर इतनी बार चूमा कि वो शर्मसार हो गया। माँ की ममता अपने बच्चे का आकार प्रकार थोड़े ही देखती है।

आखिरकार, इतने लंबे अंतराल के बाद मुझे अपना परिवार एक खुशहाल, बड़े परिवार की तरह लग रहा था! आज मैं बहुत खुश था! आखिरकार, हमारा छः लोगों का खुशहाल संसार मिल गया था!


**


सुनील पहले तो अपनी छुट्टियाँ भारत भ्रमण करने में बिताना चाहता था! मुझे थोड़ा सा दुःख तो हुआ। एक मौका मिला था उससे आत्मीयता बढ़ाने का, वो अब जाता रहा - यह सोच कर। लेकिन फिर अचानक ही, उसने अपना वो निर्णय बदल दिया। पहली ही शाम सुनील मुझसे बोला कि वो अपनी पूरी छुट्टी हमारे साथ ही बिताएगा, और फिर अपनी जॉब ज्वाइन करेगा। यह तो बहुत अच्छी बात थी, और उसके निर्णय पर हम सभी को बहुत ही अधिक ख़ुशी हुई। मुझे तो शायद काजल से भी अधिक!

मैंने जब उससे भारत भ्रमण पर न जाने का कारण पूछा तो उसने मुझसे कहा कि वो मेरे बिज़नेस में कुछ दिन इंटर्नशिप करना चाहता है। और इस काम से अगर मेरी कोई मदद हो जाती है, तो और भी बेहतर! मुझे उसकी मदद की आवश्यकता नहीं थी! क्योंकि अब कंपनी जम गई थी। लेकिन हाँ, मेरे साथ काम कर के उसको इंटर्नशिप का बढ़िया अनुभव हो जाता, जो कि उसको अपनी जॉब शुरू करने में बहुत मदद करता। इसलिए, मैंने उसे अपने साथ काम करने के लिए ‘हाँ’ कर दी। मैं भी चाहता था कि हम दोनों कुछ क्वालिटी टाइम साथ में बिताएँ।

एक समय था, जब मैं उसको पढ़ाता था, लिखाता था, और विभिन्न विषयों के बारे में समझाता था। एक बाप के समान ही मैंने उसको भले बुरे का ज्ञान दिया; व्यावहारिक समझ दी; समाज के बारे में समझाया! उस समय हम कितने पास थे! सुनील मुझे बहुत पसंद था - बिलकुल अपने बेटे की ही तरह। और मैं चाहता था कि हमारे बीच वही बाप-बेटे वाली निकटता वापस आ जाय। वैसे भी, इतने दिनों से मैं केवल स्त्रियों के बीच ही रह रहा था। इसलिए थोड़ा परिवर्तन तो मुझे भी चाहिए था! हा हा हा! उसने यह भी कहा कि वो अपनी नई नौकरी पर जाने से पहले, अम्मा और माँ जी के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिताना चाहता था। उनसे दूर रहे बहुत अधिक समय हो चला था। यह भी बहुत अच्छी बात थी।

मैंने सुनील से वायदा किया कि वो जब भी चाहे, मेरी कंपनी में शामिल हो सकता है। यह उसी की कंपनी है। यह बात सच भी है - मेरी कंपनी एक तरीके से फॅमिली बिज़नेस थी। ससुर जी अब कभी कभी ही ऑफिस आते थे। पूरे काम की बागडोर मैंने ही सम्हाल रखी थी। उन्होंने कंपनी मेरे नाम कब की कर दी थी। ससुर जी ने इसको शुरू किया था, फिर मैंने अपनी पूँजी लगा कर इसको तेजी से बढ़ाया था। सुनील एक सुशिक्षित प्रोफेशनल था, और अगर अन्य कम्पनियाँ उस पर अपना काम करने में भरोसा कर सकती हैं, तो मैं भी उस पर भरोसा कर सकता हूँ!

सच में, सुनील के आने के बाद से, घर में रौनक सी आ गई थी! लतिका और आभा उसको देखते ही चहकने लगती थीं - और ‘दादा’ ‘दादा’ कह कर उसके आगे पीछे होने लगती थीं। वो भी दोनों बच्चों के साथ बड़ी नरमी, बड़ी सौम्यता से व्यवहार करता था। उनके साथ वो खुद भी एक छोटा सा बच्चा बन जाता।


**


जब उसने आभा को पहली बार देखा तो उससे पूरे दिन भर अलग ही नहीं हो पाया। उसने इतना प्यार, इतना दुलार उस छोटी सी बच्ची पर बरसाया कि पूछो मत!

“आभा!” जब उसने आभा का ये नाम सुना तो बड़े नाटकीय अंदाज़ में बोला, “ये कैसा नाम है!”

उसकी बात सुन कर आभा के होंठ और गाल फूलने लगे - वैसे ही जब नन्हे बच्चे किसी से नाराज़ होने लगते हैं।

बात बहुत बिगड़ जाती, कि उस से पहले ही उसने बात सम्हाल ली, “इतनी मीठी मीठी बिटिया है मेरी! है कि नहीं? मेरी इतनी मीठी मीठी बिटिया का नाम तो ‘मिश्री’ होना चाहिए! बोलो? अच्छा नाम है कि नहीं?” वो आभा को अपनी गोदी में लिए, उसको दुलार करते हुए बोला।

उसकी बात पर आभा की बाँछे खिल गईं! तुरंत! साथ ही साथ वो उसको घोर आश्चर्य से देख भी रही थी - आखिर ये कौन है जो उस पर इतना प्यार बरसा रहा है! सुनील अभी भी उसके लिए अपरिचित और नया व्यक्ति था। लेकिन आभा को समझ में आ रहा था कि वो ‘मित्र’ है! इसलिए जब सुनील आभा की टी-शर्ट थोड़ा ऊपर उठा कर, और उसकी निक्कर थोड़ा नीचे सरका कर जब उसने आभा का पेड़ू खोला, तो आभा ने बिना चिल्लम चिल्ली किए उसको वो करने दिया, यह देखने के लिए कि वो आगे क्या करता है! फिर अचानक ही सुनील ने अपने होंठों को उसके पेड़ू पर सटाया, और ‘फ़ुर्र’ कर के आवाज़ निकाली। उसके होंठों के कम्पन से उठने वाली गुदगुदी से आभा खिलखिला कर हँसने लगी।

इन दोनों का ये खेल तब शुरू हुआ था - कोई बीस साल पहले, और आज भी जारी है! आभा अपने दादा के साथ सब तरह के नखरे कर सकती है, और करती भी है। और सुनील उसकी हर जायज़, नाजायज़ माँग पूरी करता है - बिना कुछ पूछे (वो अलग बात है कि आभा कोई नाजायज़ मांग नहीं करती)! कुछ बातें नहीं बदलतीं! कभी नहीं! बदलनी भी नहीं चाहिए!

“दादा, और मैं?” लतिका ने ठुनकते हुए कहा। आभा और सुनील के इस मज़ेदार एपिसोड में वो पीछे नहीं रहना चाहती थी।

“अरे, तू तो मेरी पुचुकी है ही! मेरी खट्टी मीठी चटपटी पुचुकी!” सुनील ने लतिका के पेट में गुदगुदी करते हुए कहा।

“हा हा हा!” लतिका उसकी हरकत पर खिलखिला कर हँसने लगी, फिर बोली, “लेकिन दादा, मिश्री तो खूब कड़ी कड़ी होती है। आभा तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उसका नाम भी तो उसके जैसा ही सॉफ्ट सॉफ्ट होना चहिए न?”

कितनी सयानी और बुद्धिमत्ता भरी बात थी ये तो!

“हाँ! बात तो सही है! ये बिटिया तो खूब सॉफ्ट सॉफ्ट है! उम्म्म… तो फिर क्या करें?” सुनील ने कुछ देर सोचा, और फिर जैसे निर्णय सुनाते हुए बोला, “हम हमारी बिटिया को ‘मिष्टी’ कहेंगे!” सुनील ने जैसे निर्णय सुनाते हुए कहा, “मिष्टी! क्यों, ठीक है न मेरी बिटिया? तुमको ये नाम पसंद आया?”

“हाँ! मिष्टी! ये बढ़िया नाम है!” लतिका ने भी इस नए नाम का समर्थन किया।

आभा, जो अभी सुनील से ठीक से परिचित भी नहीं थी, उसकी मीठी मीठी बात पर मुस्कुराने लगी, और उत्साह से ‘हाँ’ में सर हिलाने लगी। जब लतिका ने किसी बात के लिए हाँ कर दी, तो आभा भी वो बात मान लेती। लतिका उसकी सबसे चहेती जो थी!

तो उस दिन से आभा को घर में हमेशा मिष्टी के ही नाम से पुकारा जाने लगा। और तो और, कुछ ही दिनों में मैं भी उसको मिष्टी कह कर बुलाने लगा। आभा नाम का इस्तेमाल बस बच्ची को ‘खबरदार’ करने के लिए केवल मैं ही इस्तेमाल करता था।

बाकी के सभी लोग माँ जैसे ही हो गए थे - कोई किसी से ऊँची आवाज़ में न तो बात करता, न कोई झगड़ा, न कोई डाँट, और न कोई क्रोध! सभी बड़े शांत शांत और स्नेही! बस मैं ही एक अपवाद था, और घर में सभी लोग मेरी इस बात को नज़रअंदाज़ भी कर देते थे।


**


सुनील के आने के बाद और भी अनेक सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे!

घर में अब गाने बजते थे। खूब सारे! सुबह से शाम तक संगीत ही संगीत! पहले तो केवल माँ ही कभी कभी अपने कमरे में रेडियो सुनती थीं। लेकिन अब लगभग पूरे समय, मधुर संगीत सुन सकते थे। यह संगीत शास्त्रीय से ले कर फ़िल्मी - कुछ भी हो सकता था। सुनील ने इंजीनियरिंग करते करते गिटार बजाना सीख लिया था - और वो अक्सर देसी और विदेशी धुनें निकाल कर बजाया करता था। बढ़िया बजाता था! वो गाने भी गाता था - उसके साथ साथ माँ भी कभी कभी गाने लगतीं। और तो और, बच्चों के खेल में अब बड़े भी शामिल होने लग गए - लतिका और आभा के साथ साथ सुनील, काजल और माँ भी सब प्रकार के बचकाने खेल खेलने लगे थे। सब खूब खेलते, खूब हँसते और फिर अपने ही बचकानेपन पर खूब हँसते! मुझको जब फुर्सत मिलती, तो मुझको भी जबरदस्ती कर के बच्चों के खेल में शामिल कर लिया जाता। मुझको समय कम मिलता था, लेकिन सच में, यह सब करने में मुझे भी आनंद आता!

और भी एक परिवर्तन देखने को मिला, जो बड़ा ही आनंददायक था।

मुझे अब अचानक ही ऐसा लगने लगा था कि माँ अब खुश खुश रहने लगी थीं।

जब सुनील मेरी मदद नहीं कर रहा होता था, तो वो माँ और काजल के साथ अच्छा और क्वालिटी टाइम बिताता था। सच कहूँ, तो वो मेरे साथ बहुत कम, लेकिन घर में अधिक समय बिताता था। यह अच्छी बात थी, और इसको ले कर मुझे कोई शिकायत भी नहीं थी। वो उन दोनों को अपने कॉलेज की कहानियाँ सुनाता था, और अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में बताता था। एक इंजीनियरिंग छात्र के छात्रावास जीवन के बारे में माँ को कुछ कुछ मालूम था, लेकिन सुनील के अनुभव मेरे अनुभवों से थोड़े अलग थे। उसने मुझसे लगभग एक दशक के बाद स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी, इसलिए जाहिर सी बात है कि उसके अनुभव मेरे अनुभवों से अलग थे।

दोपहर में इत्मीनान से लम्बी लम्बी, गपशप करना माँ, काजल और सुनील की सबसे पसंदीदा गतिविधि बन गई थी। उसके आने से बड़ी रौनक हो गई थी। काजल भी खुश थी और माँ भी! सच में, दोनों औरतों में यह बदलाव देख कर, ख़ास कर माँ में इस सकारात्मक बदलाव को देखकर मैं बहुत खुश था, और बड़ी राहत महसूस कर रहा था। ऐसा लगने लगा था कि आखिरकार, उनके डिप्रेशन की दीवार अब टूटने लगी थी, और वो डिप्रेशन से बाहर आने लगी थीं।

जब उनकी दोपहर की गपशप चल रही होती, तो काजल उससे बोलती कि उसका आगे का क्या प्लान है! तो सुनील अक्सर कहता कि वो एक ‘अच्छी सी लड़की’ के साथ शादी करना चाहता है। उसकी यह बात माँ और काजल, दोनों को ही खूब पसंद आती। दोनों महिलाओं की भी यही राय थी कि लोगों को जल्दी से जल्दी शादी कर लेनी चाहिए... सही व्यक्ति से शादी करने में जीवन का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। एक लंबा और सुखी वैवाहिक जीवन, किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे अच्छा उपहार होता है।

माँ अक्सर अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती दिनों की कहानियाँ बड़े प्यार से सुनाया करती थीं। अपने वैवाहिक जीवन की बातें करते हुए, उनकी आँखों में कैसी अनूठी चमक आ जाती थी - वो चमक न तो काजल से ही छुपी थी, और न ही सुनील से! काजल और माँ दोनों का मानना था कि शादी की कानूनी उम्र पहुंचते ही लोगों को अपनी पसंद के साथी से शादी कर लेनी चाहिए।

माँ और काजल अक्सर उत्साह और उत्सुकता से उससे पूछते थे कि वो किस तरह की लड़की से शादी करना पसंद करेगा। और सुनील हमेशा मजाकिया अंदाज में कहता, कि वो एक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है जो उससे प्यार करे, उसका सहारा बने - जैसे कि कोई चट्टान हो, उसके बच्चों को खूब प्यार करे और उनका पालन-पोषण करे - ठीक वैसे ही जैसे माँ जी ने ‘भैया’ का किया है, या जैसे काजल ने उसका और लतिका का किया है। अब यह विवरण तो बड़ा ही अस्पष्ट था, लेकिन दोनों महिलाओं को वो सब सुन कर अच्छा लगता। कम से कम ये लड़का किसी लड़की के रंग-रूप जैसे सतही बातों का दीवाना नहीं था!

“ईश्वर करें, कि तुम्हारी अभीष्ट पत्नी की मनोकामना पूरी हो!” माँ ने उसको आशीर्वाद दिया, “और तुमको तुम्हारी मन-पसंद लड़की मिले!”

“हाँ दीदी! ऐसी बहू मिल जाए, तो मैं तो तर गई समझो!” काजल भी माँ के समर्थन में बोली।

‘हम्म्म तो तेरे लिए जल्दी ही एक अच्छी सी दुल्हन ढूंढ के लानी पड़ेगी अब तो!’

उनका गप्प सेशन हर बार काजल और माँ के इसी वायदे पर ख़तम होता!


**


सुनील के आने के दो ही सप्ताह में माँ के ऊपर उसका सकारात्मक प्रभाव साफ़ दिखने लग गया था। उसके आने से पहले तक माँ घर से बाहर केवल अपनी ब्रिस्क वाकिंग के लिए ही निकलती थीं, और वो भी समझिए मुँह अँधेरे। मुझे उनको ले कर डर भी लगा रहता - आप सभी जानते ही हैं कि हमारे शहर में महिला सुरक्षा की क्या हालत है! तब भी खराब थी, और अब भी खराब है। खैर, सुनील सवेरे सवेरे उठ जाता, और अपने साथ ही माँ को भी जॉगिंग के लिए जाने लगा। पास के पार्क में दोनों अपनी अपनी एक्सरसाइज करते। वो उनके इर्द गिर्द ही रहता। मुझे भी थोड़ा सुकून हुआ - सुनील के साथ होने से, माँ कम से कम सुरक्षित तो थीं।


**
वाह वाह
एक पारिवारिक समय
हंसते खेलता कुछ जिंदगियां
कुछ भूलते भुलाते कहानियाँ
बचपन जवानी पौढता और बुढ़ापा
यादें कुछ खट्टे मीठे
कुछ संभावना
कुछ वास्तव
वाह क्या बात है
शब्द नहीं है विश्लेषण और समीक्षा के लिए
 
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अमर में सकारात्मक परिवर्तन से बच्चो को आनंद मिला और साथ ही मां और काजल को भी सुकून मिला की अब परिवार फिर से परिवार बन रहा है। सुनील ने तो आ कर सब कुछ ही बदल दिया और पूरा परिवार पुराने समय की तरह खुशियों की राह पर चल पड़ा। अब चार लोग है जिनको जीवन साथी की तलाश या आवश्यकता है, अमर, काजल, मां और सुनील देखते है किस किस की ख्वाहिश पूरी होती है।

जी भाई 🙏
जीवन मे स्थिरता भी आ रही है और गतिशीलता भी।
बच्चों के कारण वैसे भी ख़ुशियाँ बनी रहती हैं।
देखते हैं कि किस किस की ख्वाहिश पूरी होती है 😊
 
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धन्यवाद भाई साहब। आपका सूत्र भी देखा।
पढ़ता हूँ पहली फुर्सत में 🙏😊
 
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धन्यवाद भाई साहब। आपका सूत्र भी देखा।
पढ़ता हूँ पहली फुर्सत में 🙏😊
धन्यबाद मित्र बहुत बहुत धन्यबाद
 
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