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Romance मोहब्बत का सफ़र [Completed]

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avsji

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Supreme
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प्रकरण (Chapter)अनुभाग (Section)अद्यतन (Update)
1. नींव1.1. शुरुवाती दौरUpdate #1, Update #2
1.2. पहली लड़कीUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19
2. आत्मनिर्भर2.1. नए अनुभवUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3. पहला प्यार3.1. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह प्रस्तावUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21
3.3. पल दो पल का साथUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
4. नया सफ़र 4.1. लकी इन लव Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15
4.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
4.3. अनमोल तोहफ़ाUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
5. अंतराल5.1. त्रिशूल Update #1
5.2. स्नेहलेपUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10
5.3. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24
5.4. विपर्ययUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
5.5. समृद्धि Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20
6. अचिन्त्यUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28
7. नव-जीवनUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5
 
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avsji

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यह जबरदस्त रहा
अपनी बेटर हाफ के स्तन से दुध पीना....
मैं नहीं कर पाया
या यूँ कहूँ कि
मुझसे नहीं हुआ
शायद शर्म
पर बाकी सब बहुत ही सटीक भाव से प्रस्तुत किया है आपने

शर्म, झिझक, स्टिगमा - बहुत से कारण होते हैं जिनके कारण प्रेमी युगल यह काम नहीं कर पाते। पत्नियाँ भी अपने पतियों को झिड़क देती हैं कि बच्चे के लिए है सब! तुम पी लोगे, तो बच्चा क्या पिएगा?
सबसे मज़े की बात है कि आज कल अधिकतर महिलाएँ अपने बच्चों को बहुत हुआ तो छः महीने ही स्तनपान कराती हैं। उनमें भी ज्यादातर तो तीन में ही दूध छुड़ा देती हैं। फ़िगर का हवाला दिया जाता है - वो अलग बात है कि ज्यादातर लड़कियाँ शादी के पहले ही महिषी के आकार की हैं आज कल! खैर...

अब इस फ्लैशबैक पर आपने मेरी खिंचाई कर दी है
अब मैं अगले अपडेट में पक्का पकाऊँगा
खैर काजल की समस्या का समाधान फ्लैशबैक के कारण ही मिला यह ना भूलिए
स्तनपान पर एक विशेष बात आपसे साझा करता हूँ
दक्षिण ओड़िशा के मलकानगिरी ज़िले में एक जगह है जिसका नाम बंडाघाटी है वहाँ पर बंडा आदिवासी संप्रदाय रहती है l मैं नब्बे दशक की बात कर रहा हूँ जब वे लोग कपड़ा नहीं पहनते थे l यहां तक अपने सिर पर बाल तक नहीं रखते थे l उस समय अगर उनको कोई छेड़ दे तो वे मरने मारने पर उतारु हो जाते थे l ऐसी परिस्थिति में अगर आप बंडा जाती के किसी स्त्री के स्तन पर मुहँ लगा देते हैं तो आपको प्राण दान मिल सकती थी l क्यूँकी उसे उस समय संतान का दर्जा मिल जाता था

हा हा हा हा! अरे भाई, आपकी यह स्टाइल मुझे बहुत पसंद आई है।
इसका इस्तेमाल मैं अपनी आगे आने वाली किसी कहानी में अवश्य करूँगा। थ्रिलर वाली कहानी में! हा हा!
बंडा समुदाय के बारे में जानकारी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। कभी कभी लगता है कि आदिवासी समाज, या फिर जान-जातीय समाज सोच विचार में मेनस्ट्रीम समाज से कहीं आगे है। हम मध्यमवर्गीय समाज की सोच बेहद पिछड़ी हुई और जकड़ी हुई है। असल मायने में समाज की भेंड़-बकरियाँ मध्यमवर्गीय समाज के लोग ही हैं। न कोई स्वतंत्र सोच, न कोई स्वतंत्र और उत्तम विचार।

भाई ऐसी परिस्थिति के लिए अखंड साधना की आवश्यकता होती है
सिद्ध पुरुष होने चाहिए
खैर इस अंक पर कमेंट करना मेरे साध्य में नहीं है

हाँ - समझ सकता हूँ।
इन्सेस्ट लिखने वाले ऐसे अवसर को पा कर टूट पड़ते अपनी अम्मा पर! लेकिन मेरी कलम ऐसा लिख ही नहीं पाती - लिखना दूर, सोच भी नहीं पाती।
बस एक ही कहानी इन्सेस्ट पर लिखी थी - मंगलसूत्र। उसमें भी कहानी के मूल में प्रेम निहित है। वासना नहीं।
एक बार लिखने का प्रयास अवश्य करूँगा इन्सेस्ट पर।

खैर, ये सब बवाल छोड़िए - पहले ये बताइए कि फ़्लू के ज़ोर में कोई कमी आई या नहीं?
काढ़ा पीजिए। और इस सप्ताहांत केवल आराम कीजिए।

मिलते हैं शीघ्र ही :)
 
  • Love
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avsji

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नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #6


एक बार की बात है - आभा की नींद रात में तीन बार टूटी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। डेवी थकी हुई होने के कारण सोती रही। मैंने भी उसको बोल कर सुला दिया और बच्ची को अपने सीने से लगाए पूरे घर भर में घूम घूम कर सुलाता रहा। अंततः उसको नींद आ ही गई। तब कहीं जा कर मैं भी आराम से बिस्तर पर आ कर, सिरहाने पर तकिया लगा कर आधा लेट गया। आभा मेरे सीने पर ही सोती रही - सवेरे तक। न तो वो एक बार भी रोई और न ही उसको भूख लगी - बस वो शांति से सोती रही। शायद मेरे शरीर की गर्मी, और मेरे दिल की धड़कन की आवाज़ से उसको आराम मिल रहा हो। इतनी नन्ही सी जान, लेकिन उसको इस तरह देख कर किसी का भी दिल पसीज जाए। उसको आराम से सोता हुआ देख कर मैं भी चैन से सो गया।

जब सवेरे उठा तो देखा देवयानी हम दोनों को बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में देख रही थी।

“ठीक से सोए मेरे जानू?” उसने मुझे चूमते हुए कहा, “हाऊ डिड यू कीप फ्रॉम मूविंग?” उसने फिर आभा के सर को चूमा।

“पता नहीं यार! सच में इसको इस तरह से सीने से लगा कर सोने में क्या अच्छी नींद आती है!”

“हा हा हा! ये इस बात में अपनी मम्मी पर गई है! जैसे उसकी मम्मी उसके पापा के सीने पर सर रख कर गहरी नींद सो जाती है, वैसे ही ये भी है, लगता है!”

“आअह! फिर तो मुश्किल हो जाएगी!”

“वो क्यों?”

“हमारी बिटिया तो सोएगी मेरे सीने पर! मतलब तुम मेरे पेट पर सो जाना!”

“हा हा हा हा! पेट पर! तुम्हारे पेट से जैसी जैसी आवाज़ें आती हैं, वो सब सुन कर मुझे जो नींद आनी होगी, वो भी उड़ जाएगी!”

उस दिन के बाद से आभा को रात में सुलाने का जिम्मा मेरा हो गया। वो मेरे सीने से ही लग कर सोती, और देर तक सोती। कम से कम डेवी को इस कारण से थोड़ी राहत मिल जाती। दिन भर वो वो ही उसको देख रही होती। मन में एक डर सा लगा रहता कि बच्ची कहीं गिर न जाए, दब न जाए, लेकिन वैसा कभी हुआ नहीं।


**


आभा के जन्म के लगभग कोई पाँच सप्ताह बाद हमको गेल और मरी का कॉल आया कि उनके घर बेटा हुआ है। वो बिलकुल स्वस्थ था, और अपनी माँ के जैसा दिखता था। मैं और डेवी इस खबर से बहुत खुश हुए। अच्छा लगा कि दो बेहद अच्छे लोगों के मन की आस पूरी हो गई है। उन्होंने हमको फिर से न्योता दिया कि हम दोनों फ्राँस आएँ। वो बच्चे का बप्तीस्म तब करना चाहते थे जब हम वहाँ पर हों, जिससे कि हम दोनों को उस बच्चे का गॉड पेरेंट्स बनाया जा सके। मैंने और डेवी ने वायदा किया कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ आने की कोशिश करेंगे।


**


डेवी का डिलीवरी के बाद स्वास्थ्य लाभ भी बड़ी तेजी से हुआ। माँ के जन्मदिन और हमारी शादी की सालगिरह तक आते आते देवयानी लगभग पहले जैसी ही लगने लगी। हाँ, उसके स्तन थोड़ा बड़े अवश्य हो गए थे, लेकिन पेट और नितम्ब पर जो अतिरिक्त वसा थी, वो अब नहीं थी। अभी पिछले ही महीने से हमने पहले की ही भांति प्रतिदिन सम्भोग करना शुरू कर दिया था। आभा एक प्यारी सी बच्ची थी, लेकिन फिलहाल दूसरा बच्चा हम दोनों को ही नहीं चाहिए था। तीन साल तक नहीं। इसलिए पहली बार मैंने प्रोटेक्शन का इस्तेमाल करना शुरू किया था। अभी भी उसके पास लगभग दो महीने की हॉफ पे मैटरनिटी लीव थीं। लेकिन लग रहा था कि थोड़ा जल्दी ही जोइनिंग हो सकती है। उसके पहले हमने निर्णय लिया कि कुछ दिन माँ और डैड के साथ बिता कर, और फ्राँस घूम कर वापस आ जाएँगे। फिर डेवी ऑफिस में काम फिर से शुरू कर सकती है।

तो इस बार माँ के जन्मदिन पर हम तीनों डैड के घर गए। इतने लम्बे अर्से के बाद मैं उनके घर आया था - थोड़े बहुत परिवर्तन तो थे, लेकिन घर अभी भी वैसा ही था। डैड ने एक और कमरा बनवा लिया था - क्योंकि अब सारे कमरों में कोई न कोई होता था। मेहमानों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनको आवश्यक लगा कि एक और कमरा चाहिए। पाँचवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद, उनका वेतन बढ़ गया था, और पिछली बकाया राशि भी मिली थी। इसलिए उनका हाथ खर्चा करने में थोड़ा खुल गया था। फ़िज़ूलखर्च नहीं, बस, अपने आराम के लिए आवश्यक ख़र्च करने में अब उनको सोचना नहीं पड़ रहा था। उसके बाद से घर में कोई परिवर्तन नहीं आया।

थी तो हमारी शादी की सालगिरह भी उसी दिन, लेकिन उस दिन को हमने माँ के जन्मदिन के रूप में मनाया। पूरे पर्व का डेवी और मैंने ही आयोजन किया था। माँ कह रही थीं कि यह सब करने की क्या ज़रुरत है, लेकिन बात दरअसल यह थी कि अगर ख़ुशी है, तो उसका इज़हार करने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए? और ख़ुशी तो हम सभी को भरपूर थी। उसी दिन सवेरे आभा का मुंडन करवा दिया गया। ज्यादातर बच्चे बाल कटने पर रोने धोने लगते हैं। लेकिन आभा उसमें भी खुश थी और रह रह कर मुस्कुरा रही थी। उसको जब कुछ फनी सा लगता तो रोने जैसा मुंह बना लेती, लेकिन रोई एक बार भी नहीं। सर के बाल गायब होने के बाद वो और भी क्यूट, और भी लड्डू जैसी लगने लगी। अब तो वो हर तरह से गोल गोल लगती। बच्चे शायद इसलिए बहुत प्यारे से लगते हैं कि जो भी लोग उनको देखें, वो उनसे प्यार करें। उनका नुकसान न करें। तो प्यारा दिखना, एक तरह का सर्वाइवल स्किल है बच्चों का! खैर जो भी हो, मुंडी हो कर आभा और भी अधिक प्यारी लगने लगी थी।

शाम को भोज का आयोजन किया गया। उसमें हमने माँ और डैड - दोनों के मित्रों को आमंत्रित किया था। कितने ही सालों बाद कस्बे के बहुत से पुराने जान पहचान वालों से मिलने का मौका मिला था मुझे। इसलिए अच्छा भी बहुत लगा।


**


माँ और डैड के यहाँ से वापस आने के एक सप्ताह बाद हमारा फ्राँस जाने का प्रोग्राम था। बहुत डर लग रहा था कि एक नन्ही सी बच्ची के साथ इतना लम्बा सफर कैसे करेंगे! उसके पहले मैं जब भी हवाई जहाज़ में यात्रा करता था, तो किसी नन्हे बच्चे को देख कर मेरा दिल बैठ जाता था कि ‘भई, गए काम से’! पक्की बात थी कि बच्चा पूरी यात्रा भर पेंपें कर के चिल्लाता रहेगा, और हम सबकी जान खाएगा। डर इस बात का था कि मम्मी-पापा बनने के बाद बाकी लोग भी हमारे बारे में यही सोचेंगे, और हमारी बच्ची भी बाकी बच्चों के जैसे पेंपें कर के रोएगी। लेकिन घोर आश्चर्य कि बात यह थी कि आभा लगभग न के बराबर रोई। एक बार तब जब केबिन प्रेशर थोड़ा कम हो गया तो बेचारी के कान में दर्द होने लगा - हम सभी के कान में दर्द हो रहा था। और दूसरी बार तब जब उसका नैपी पूरी तरह से ग़ैर-आरामदायक हो गया था। बस! वरना पूरे समय वो हंसती खेलती रही, और अपने पड़ोसियों का भी मन बहलाती रही। आभा इतनी खुशमिज़ाज़ बच्ची थी कि जिसको मन करता, वो उसको अपनी गोदी में उठा कर इधर उधर घुमा कर ले आता - क्या एयर होस्टेस, और क्या यात्री!

हमारी फ्रांस की यात्रा दस दिनों की थी। उसके बाद एक हफ्ते का आराम, और फिर डेवी वापस ऑफिस ज्वाइन कर लेती। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, गेल और मरी, नीस नामक शहर में रहते हैं। नीस भूमध्य-सागर के किनारे पर बसा हुआ एक बहुत ही सुन्दर शहर है, और शायद फ्राँस के सबसे अधिक घने बसे शहरों में से एक है। ऐसा नहीं है कि बहुत ही कलात्मक शहर है - बस, जिस सलीके से, जिस तमीज़ से शहर को रखा गया है, वो उसको सुन्दर बना देता है। एक पहाड़ी है - माउंट बोरॉन कर के - वहाँ से फ्रेंच रिवेरा का नज़ारा साफ़ दिखाई देता है। बहुत ही सुन्दर परिदृश्य! वहाँ से ऐल्प्स पर्वत-श्रंखला को भूमध्यसागर से मिलता हुआ देखा जा सकता है। सड़कों और गलियों के दोनों तरफ छोटे छोटे घर! बड़े सुन्दर लगते हैं। हवाई जहाज़ से नीचे उतरते समय भी अंदर बैठे यात्री ‘वाओ’ ‘वाओ’ कह कर आहें भर रहे थे।

हमको एयरपोर्ट पर लेने गेल और मरी दोनों आए थे। उनका बेटा घर पर ही पार्ट-टाइम नैनी के साथ था, जो उसकी देखभाल करती थी। उनको देख कर हम दोनों ही बहुत खुश हुए! फ्रेंड्स फॉर लाइफ - हाँ, यही कहना ठीक होगा। हम अब एक दूसरे से इस तरह जुड़ गए थे, कि हमारे परिवारों का बंधन अटूट हो गया था। अवश्य ही हमारी जान पहचान कोई दस दिनों की ही थी, लेकिन उसकी गुणवत्ता बहुत अधिक थी।

इस पूरी यात्रा के लिए हम उन दोनों पर ही निर्भर थे। हमने उनको अपने टिकट और यात्रा का पूरा प्लान पहले ही बता रखा था, इसलिए उन्होंने बच्चे का बप्तीस्म हमारे आने के अगले ही दिन तय कर रखा था। हमारे पाठकों को शायद न मालूम हो, लेकिन किसी बच्चे के गॉड पेरेंट्स बनना बहुत ही सम्मान का विषय होता है। एक तरह से आप उस बच्चे के अघोषित माता-पिता ही होते हैं। ठीक है, मैं उस बच्चे का जैविक पिता था, लेकिन उन दोनों के कारण मुझे उसके जीवन में सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर मिल रहा था। मुझे उम्मीद थी कि मैं जैसा भी संभव हो सकेगा, उस बच्चे से प्रेम करूँगा।

गेल और मरी के लिए हम बहुत से उपहार ले कर आए हुए थे - उनमें से मरी के लिए साड़ी ब्लाउज, और गेल के लिए धोती कुर्ता। बहुत सम्मान और आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने वही परिधान बच्चे के बप्तीस्म के दिन भी पहना हुआ था। तो हम चारों जने, सौ प्रतिशत भारतीय परिधान में एक विदेशी मुल्क में बच्चे का बप्तीस्म कर रहे थे। चर्च में हम ही ऐसी अतरंगी पोशाक पहने हुए थे और दूर से ही साफ़ नज़र आ रहे थे। कोई हमको आश्चर्य से, तो कोई हमको मज़ाकिया अंदाज़ में देखता। खैर, दूसरों की परवाह हमने करी ही कब, जो आज करते? बेटे के साथ हमारी बेटी का भी बप्तीस्म कर दिया गया, और गेल और मरी ने हमारी ही तरह आभा का गॉड पेरेंट्स बनने की शपथ ली। उन्होंने पूछा कि हमने आभा का सर क्यों मुंडा कर दिया, तो हमने मुंडन के बारे में उनको बताया। तो उन्होंने भी निर्णय लिया कि अपने बेटे का मुंडन करवाएँगे। जो कुछ आभा का होगा, वो ही रॉबिन का होगा। हाँ - रॉबिन नाम था बेटे का। तो मैंने हँसते हुए उनको समझाया कि आभा का नाक और कान का छेदन होगा। कम से कम रॉबिन को वो मत करवाना।

रॉबिन में ज्यादातर मरी के फीचर्स आए हुए थे। वो उसी की ही तरह गोरा गोरा बच्चा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उसकी आँखों, उसकी नाक, और होंठ मेरे समान दिखते थे। मुझे मालूम है कि हमारे वहाँ आने पर वहाँ उपस्थित लोगों को हम चारों के सम्बन्ध के बारे में संदेह तो अवश्य ही हुआ होगा। ऐसे थोड़े ही कोई यूँ ही चला आता है, और वो भी इतनी आत्मीयता दिखाते हुए! लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं - कम से कम हमसे तो कुछ नहीं कहा। और कोई कुछ कहता भी तो क्या फ़र्क़ पड़ता? गेल और मरी अमेजिंग लोग थे, और उनको भी माता-पिता बनने का पूरा अधिकार था। और मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैं इस सन्दर्भ में उनकी कुछ मदद कर सका। लेकिन, आगे जो उन्होंने मेरी आभा के लिए किया, वो अद्भुत है। खैर, भविष्य की बातें, भविष्य के ही गर्भ में रहने देते हैं!

एक दूसरे को तोहफा देने में गेल और मरी भी कोई पीछे नहीं थे। वो भी हमारे लिए ढेर सारे उपहार लाए हुए थे - मतलब जितना हमने लाया हुआ था, उससे अधिक हमको मिला। देवयानी के लिए उन्होंने सबसे आधुनिक फैशन के कपड़े, जूते, और परफ़्यूम लाया था, मेरे लिए भी वही सब, और आभा के लिए तो पूरा सूटकेस भर के सामान था! पूरे दस दिन यूँ ही मौज मस्ती करने में बीत गया - हम दोनों के परिवार बहुत करीब आ गए और हमारे सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो गए। हमने उनसे वायदा लिया कि जब उनको लम्बी छुट्टी मिले, तो हमारे घर आ कर रहें। हमारे साथ समय बिताएँ। उन्होंने भी वायदा किया कि वो अवश्य ही फिर से भारत आएँगे।


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सुनील ने इंटरमीडिएट में नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त किए थे। लेकिन वो उसका लक्ष्य नहीं था। उसका लक्ष्य था इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाएँ। जब उनका रिजल्ट आया, तो पता चला कि सुनील ने जे-ई-ई में बढ़िया रैंक पाई है! कौन्सेलिंग में उसको खड़गपुर में दाखिला मिला। अंततः काजल का, मेरा, और माँ और डैड का सपना पूरा हो ही गया! आनंद ही आनंद!

टॉप रैंक में होने के कारण उसको स्कॉलरशिप भी मिली थी, और इकोनॉमिकली वीक सेक्शन से आने के कारण उसको एक अलग तरह का वजीफ़ा मिला था, जिसमें उसको पढ़ने की किताबें, और रहने सहने का ख़र्च भी सम्मिलित था। कुल मिला कर उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हमारी तरफ से शायद ही कोई खर्चा आता। मैंने और देवयानी ने उससे वायदा किया था कि अगर उसका दाखिला आई आई टी में हो जाता है, तो हम उसको एक डेस्कटॉप उपहार स्वरुप देंगे। तो मैं उसके साथ ही खड़गपुर गया, और जब वो हॉस्टल के रूम एलोकेशन की लाइन में धक्के खा रहा था, तब मैं एक लोकल वेंडर से बातें कर के उसके लिए एक कंप्यूटर की व्यवस्था कर रहा था।

आठ वर्षों पहले की बातें याद हो आईं! तब मैं भी इसी तरह इंजीनियरिंग स्टूडेंट बन कर दाखिल हो रहा था, और जब वहाँ से बाहर आया तो एक अनोखी दुनिया मेरे सामने कड़ी थी। मुझे उम्मीद थी कि सुनील को भी वैसा ही अनुभव मिले। उसका जीवन भी सम्पन्न और समृद्ध और सुखी हो। उसको कंप्यूटर, और ढेर सारा आशीर्वाद दे कर मैं वापस दिल्ली आ गया।


**


उन दिनों आज कल के जैसे हाफ़ बर्थडे, फुल बर्थडे मनाने का चलन नहीं था। केवल जन्मदिन ही मनाया जाता था। आभा का पहला जन्मदिन बेहद यादगार था। मुझे भी उसके कुछ दिनों पहले ही एक प्रमोशन मिला था और देवयानी अब तक अपने काम में वापस रंग गई थी। हमारी नई कामवाली कुशल थी, और भरोसेमंद थी। उसकी देख रेख में आभा स्वस्थ थी। हम या तो केवल काम करते, या फिर घर आ कर आभा की देखभाल करते। ऐसा ही जीवन हो गया था लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं थी। अपने बच्चे के लिए कुछ भी करना मंज़ूर था। तो अवश्य ही मेरी दोनों शादियाँ बिना किसी चमक धमक के थीं, लेकिन आभा का पहला जन्मदिन पूरे उत्साह और तड़क भड़क वाला था। हम दोनों ही बढ़िया कमा रहे थे, तो अपनी संतान से सम्बंधित कार्यों पर न खर्च करें, तो किस पर करें? लेकिन एक साल की बच्ची को इन सब बातों का कोई बोध नहीं होता। वो अपने में ही मगन रहते हैं। शायद उसको, और उसके जितनी उम्र के बच्चों को छोड़ कर, बाकी सभी ने बहुत मौज मस्ती करी। देवयानी अभी भी उसको स्तनपान कराती थी इसलिए वो मदिरा नहीं पीती थी। और जिस उत्साह से डेवी को ब्रेस्टफीडिंग कराने में आनंद आता था, वो देख कर मुझे पक्का यकीन था कि आभा खुद ही पीना छोड़ दे, तो छोड़ दे, वरना डेवी तो जब तक संभव है, उसको अपना दूध पिलाती रहेगी। आनंदमय दिन था वो! यादगार!

ख़ुशी और भी अधिक बढ़ गई जब गेल और मरी ने फ्रांस से एक बड़ा सा गिफ्ट का डब्बा आभा के लिए भेजा। उन्होंने तब से ले कर आभा के प्रत्येक जन्मदिन पर उपहार दिया है, और हमने भी। रॉबिन भी तेजी से बढ़ रहा था - वो एक स्वस्थ और स्ट्रांग बच्चा था - बिलकुल अपनी ‘बहन’ के जैसा!

एक बार यूँ ही मज़ाक मज़ाक में बात निकल आई कि कितना अच्छा हो अगर आगे चल कर ये दोनों बच्चे एक साथ, एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर सकें। बात मज़ाक में ही हुई थी, लेकिन डेवी को यह बात बहुत जँच गई। गेल और मरी ने कहा कि उनका घर भी आभा का घर है, और अगर संयोग बैठता है, तो अवश्य ही वो उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर सकती है फ्राँस में। हाँ, कहीं और जा कर पढ़ना है, तो अलग बात है! हमने यह भी निर्णय किया कि हम उन दोनों को आगे चल कर यह बात बताएँगे कि दोनों दरअसल भाई बहन ही हैं। और हम दोनों, एक तरह से एक ही परिवार हैं।


**


आभा के पहले जन्मदिन तक आते आते डेवी का स्वास्थ्य पूरी तरह से पहले जैसा हो गया। हमारी सेक्स लाइफ भी बिलकुल पहले जैसी हो गई - हाँ, बस, गर्भनिरोधकों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आभा तेजी से सीख रही थी - तोतली आवाज़ में कुछ की बुड़बुड़ करना, डगमगाते हुए चलना, लगभग हर प्रकार का भोजन करना, यह सब वो करने लगी थी। और तो और उसके सोने और जागने का समय भी काफी निर्धारित हो गया था, और इस कारण से हमको भी सोने जागने में दिक्कत नहीं होती थी। आभा सच में ईश्वर का प्रसाद थी, और हम उस जैसी पुत्री को पा कर वाकई धन्य हो गए थे! उसको देख देख कर देवयानी को अक्सर एक और बच्चा करने की तलब होने लगती - वो यही सोचती कि अगला बच्चा भी आभा के ही जैसा होगा। लेकिन मैं उसकी इस तलब को जैसे तैसे, समझा बुझा कर शांत करता। सबसे पहला प्रश्न था उसकी सेहत का, फिर प्रश्न था दोनों बच्चों की उम्र के बीच में समुचित अंतर का, और तीसरा प्रश्न था कि सभी बच्चे एक समान नहीं होते।

ऐसा नहीं था कि मुझे और बच्चों की इच्छा नहीं थी, लेकिन देवयानी की सेहत सर्वोपरि थी। मैं उसको समझाता कि कैसे मेरे माँ और डैड ने केवल मुझे ही पाल पोस कर बड़ा किया था। और देखो, वो दोनों कैसे जवान और खुश दिखते थे! डेवी को यह बात समझ आ जाती थी। आखिर कौन लड़की जवान नहीं दिखना चाहती?


**


ससुर जी ने किसी प्रेरणावश रिटायरमेंट के इतने साल बाद अपनी एक सॉफ्टवेयर से सम्बंधित कंपनी शुरू करी। उनको सॉफ्टवेयर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इतने लम्बे समय तक आई ए एस ऑफिसर होने के कारण, उनकी महत्वपूर्ण जगहों पर अच्छी जान पहचान थी। बिज़नेस के लिए जान पहचान बहुत ही आवश्यक वस्तु होती है। छोटी सी कंपनी और बहुत ही आला दर्ज़े का काम। दरअसल उनके पास समय ही समय था, और पैसा भी था। तो सोचा कि क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाए! दिल्ली में वैसे भी स्किल की कमी नहीं थी। बढ़िया इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स आसानी से उपलब्ध थे। मैं भी इसी क्षेत्र से सम्बंधित था, लिहाज़ा मैं उनकी अक्सर ही मदद करता रहता।

वो मुझको कहते कि पिंकी तो बढ़िया कर ही रही है, तो क्यों न मैं उनके साथ लग जाऊँ और कंपनी के मालिक के जैसे उसको चलाऊँ। अपना काम है। तरक्की होगी। लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार से आने के कारण अपना बिज़नेस करने में डर लगता था। नौकरी एक सुरक्षित ऑप्शन था। वैसे भी कमाई अच्छी हो रही थी, इसलिए ‘तनख़्वाह’ से प्रेम हो गया था। तो मैं उनको कहता कि मैं आपकी सहायता करूँगा। जब एक ढंग के लेवल तक पहुँच जाएगी कंपनी, तो मैं फॉर्मली ज्वाइन कर लूँगा।

देवयानी से जब इस बाबत बातचीत करी, तो वो बहुत सपोर्टिव तरीके से पेश आई। बात तो सही थी - उसकी सैलरी बढ़िया थी, और तो और, उसके पास अपना एक बड़ा घर था (शादी से पहले यह बात मुझे मालूम नहीं थी)! तो अगर मैं स्ट्रगल करना चाहता था, तो यह बढ़िया समय था। मेरी उम्र तक तो लोगों की नौकरी नहीं लगती - और मेरे पास इतने सालों का एक्सपीरियंस भी हो गया था। वैसे भी ससुर जी की कंपनी ख़राब काम नहीं कर रही थी - प्रॉफिट नहीं था, तो बहुत नुकसान भी नहीं हो रहा था। और कुछ लोगों को बढ़िया रोज़गार मिल रहा था, सो अलग!

फिर भी मेरे मन में हिचक थी। सैलरी का मोह ऐसे नहीं जाता। वैसे भी काम और आभा को ले कर इतनी व्यस्तता रहती कि मैं पूरी तरह से अपने बिज़नेस में लिप्त नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने उनसे ठीक से सोचने के लिए मोहलत मांगी। ससुर जी को कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी सब बातें समझते थे, इसलिए उन्होंने कोई ज़ोर नहीं दिया। हाँ - लेकिन मेरा उनके बिज़नेस में दखल बदस्तूर जारी रहा। बिज़नेस से सम्बंधित कई सारे महत्वपूर्ण निर्णय मैं ही लेता था।


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अंतराल - त्रिशूल - Update #1


जब हम प्रसन्न होते हैं, तरक्की करते हैं, सुखी रहते हैं, तो ऐसा लगता है कि दिन पंख लगा कर उड़े जाते हैं! हमारी शादी को हुए दो साल हो गए, और कुछ ही महीनों में आभा भी दो साल की हो गई। मस्त, चंचल, और बहुत ही सुन्दर सी, प्यारी सी बच्ची! गुड़िया जैसी बिलकुल! मीठी मीठी बोली उसकी। पहले तो हम सभी निहाल थे ही, अब तो और भी हो गए थे। प्यारी प्यारी, भोली भली अदाएँ दिखा दिखा कर आभा हम सबको अपना मुरीद बनाये हुए थी। हमने इस अंतराल में बहुत ही कम छुट्टियाँ ली थीं, और ऑफिस में भी दिसंबर की तरफ आते आते काम कम जाता था।

इसलिए हमने निर्णय लिया कि इस बार विदेश यात्रा पर चलते हैं। कहाँ चलें? यह तय हुआ कि ऑस्ट्रेलिया जायेंगे! ऑस्ट्रेलिया सुनने पर लगता है पूरा देश घूम लेंगे! लेकिन ऑस्ट्रेलिया देश नहीं, एक पूरा महाद्वीप है! पूरा ऑस्ट्रेलिया घूमने के लिए महीनों लग जाएँ! तो हम ऑस्ट्रेलिया में क्वीन्सलैण्ड गए। क्वीन्सलैण्ड ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्व में स्थित एक बड़ा राज्य है। और विश्व विख्यात ‘ग्रेट बैरियर रीफ़’ यहीं स्थित है!

क्वीन्सलैण्ड की सामुद्रिक तट रेखा कोई सात हज़ार किलोमीटर लम्बी है! समुद्र और सामुद्रिक जीवन के जो नज़ारे वहाँ देखने को मिलते हैं, पृथ्वी पर और कहीं संभव ही नहीं! सचमुच - ऐसा लगता है कि जैसे जादुई सम्मोहन है समुद्र में! असंख्य छोटे छोटे, बड़े बड़े टापू, साफ़, सफ़ेद रेत, नारियल के झूमते हुए पेड़, साफ़ समुद्र, रंग बिरंगे कोरल, असंख्य मछलियाँ, व्हेल, डॉलफिन, सील, नानाप्रकार के जीव जंतु, और ट्रॉपिकल रेन-फारेस्ट! ओह, लिखने बैठें, तो पूरा ग्रन्थ लिख सकते हैं क्वीन्सलैण्ड पर! भारत में हमने जंगल देखे हुए थे और हमको नहीं लगता था कि बाघ या हाथी को देखने जैसा रोमांचक अनुभव और कहीं मिल सकता है, इसलिए हमने केवल समुद्र पर फोकस किया।

अंडमान की ही भांति, हमने क्वीन्सलैण्ड में स्कूबा-डाइविंग का अनुभव किया। क्योंकि ग्रेट बैरियर रीफ एक संवेदनशील स्थान है, तो हम जैसे नौसिखिया डाइवर्स एक सुनिश्चित स्थान पर ही डाइव करते हैं। लेकिन वो छोटी सी जगह भी इतनी सुन्दर है कि क्या कहें! उम्र भर वो चित्र, वो अनुभव दिमाग में ताज़ा रहेंगे! चूँकि मैं और डेवी, दोनों को ही तैराकी का अनुभव था, और हम दोनों को ही उसमें आनंद आता था, इसलिए हमको बहुत ही मज़ा आया! आभा को भी होटल के पूल में पहली बार तैरने का अनुभव दिया। उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। अपनी टूटी फूटी भाषा में उसने बताया कि उसको बहुत मज़ा आ रहा है। दिल खुश हो गया कि मेरी बिटिया को भी तैराकी सीखने और तैराकी करने में मज़ा आएगा!

लोग ऑस्ट्रेलिया का नाम सुन कर तुरंत ही कंगारूओं के बारे में सोचने लगते हैं। लेकिन सच में, वहां के लोग कंगारूओं को सर का दर्द समझते हैं। जैसे हमारे यहाँ नीलगाय खेती का आतंक है, वैसे ही कंगारू आतंक हैं। खेती में, और सड़क पर भी! न जाने कितने ही एक्सीडेंट्स होते हैं उनके कारण। इसलिए कई स्थानों पर कंगारू का मीट खाया जाता है (अभी भी खाते हैं या नहीं - कह नहीं सकता! यह सब थोड़ा पुरानी बातें हैं)! खैर, कुल मिला कर हमारा दो हफ़्तों का ऑस्ट्रेलिया भ्रमण बहुत ही आनंद-दायक रहा।


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इसी बीच ऐसी घटना हो गई जिसकी उम्मीद नहीं थी। काजल की अम्मा की तबियत कुछ अधिक ही खराब हो गई। वो अकेली ही रहती थीं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी नहीं था। जिन पुत्रों की चाह में उन्होंने जीवन स्वाहा कर दिया, जिनकी पढाई लिखाई में उन्होंने अपना सर्वस्व आग में झोंक दिया, वही लड़के (पुत्र) उनकी ज़रुरत पड़ने पर उनको लात मार कर आगे चल दिए। काजल ने जब यह सुना, तो वो पूरी तरह से घबरा गई। उसने निर्णय लिया कि वो अपनी अम्मा की सेवा करने वहां, अपने गाँव चली जाएगी। लेकिन इस बात का लतिका की पढ़ाई लिखाई पर बहुत ही बुरा असर पड़ता - गाँव में कोई ढंग का स्कूल नहीं था। यहाँ वो अच्छा सीख रही थी, लेकिन वहां उसका न जाने क्या होता! और फिर खान पान, रहन सहन - हमारी मेहनत पर पानी फिरने वाला था।

लेकिन फिर सवाल तो काजल की माँ का था। माँ तो एक ही होती है। भले ही कैसी भी हो? और फिर काजल का तो दिल ही ऐसा था कि वो हम जैसे लोगों के लिए, जिनसे उसका न तो कोई नाता था, और न ही कोई सम्बन्ध, भागी भागी चली आई थी, तो अपनी माँ के लिए तो उसको जाना ही जाना था। माँ का दिल टूट गया - काजल से आत्मीयता तो थी ही, लेकिन लतिका के साथ उनका जो सम्बन्ध था, वो माँ बेटी से कैसे भी कम नहीं था। लेकिन अपनी बेटी के बगैर काजल वहाँ जाती भी तो कैसे? और माँ और डैड किस अधिकार से उसको या लतिका को अपने पास रोक पाते?

लिहाज़ा, काजल अचानक ही अपने गाँव चली गई। ऐसा नहीं है कि उसको इस बात में कोई आनंद आ रहा था, लेकिन वो भी क्या करती? संतान का दायित्व, संतान का कर्तव्य तो निभाना ही था न उसको! यह हमारे ऑस्ट्रेलिया से वापस आने के कुछ हफ़्तों बाद की बात है। मैंने भी एक दो बार काजल को रुक जाने को कहा, और उसको समझाया कि उसकी अम्मा को यहाँ दिल्ली ले आते हैं। वहां अच्छे अस्पताल में उनकी देखभाल हो सकती है। लेकिन काजल ने कहा कि उनका मरना निश्चित है, और वो अपने गाँव में ही अपना दम तोड़ना चाहती थी। अब इस बात पर हम क्या ही कर सकते थे?


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इतने सालों की आनाकानी के बाद अंततः मैंने निश्चय कर ही लिया कि मैं ससुर जी की कंपनी में बतौर सी ई ओ ज्वाइन करूँगा। कंपनी का काम पटरी पर था, और एक जानकार निर्देशन में वो बहुत फल फूल सकती थी। ऐसे में मुझे कोई कारण नहीं दिख रहा था कि मैं क्यों न वहां काम करूँ। देवयानी मेरे निर्णय पर बहुत खुश हुई, और उसने मुझे बहुत बधाइयाँ भी दीं। ससुर ही ने मेरे ज्वाइन करते ही कंपनी छोड़ दी। उन्होंने रिटायरमेंट में थोड़ा व्यस्त रहने के लिए यह काम शुरू किया था, लेकिन अब जब मैं आ गया था, तब उनको बिना वजह मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ ही दिनों में उन्होंने कंपनी भी मेरे नाम कर दी।

काम बहुत ही व्यस्त करने वाला था। लेकिन बड़ा ही सुकून भी था। अपना काम था, अपने तरीके से किया जा सकता था। नेटवर्क भी इतना बढ़िया था कि शुरुवाती दौर में छोटे छोटे प्रोजेक्ट और कॉन्ट्रैक्ट बड़ी आसानी से मिल रहे थे। उनके दम पर मैंने बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करना शुरू किया, और जल्दी ही कंपनी ने प्रॉफिट देना शुरू कर दिया। मुझको कंपनी से कोई लाभ या वेतन नहीं मिल रहा था - घर का खर्च इत्यादि सब देवयानी की सैलरी पर ही निर्भर था। किसी नए धंधे में तुरंत ही वेतन नहीं लिया जा सकता। सब कुछ री-इन्वेस्ट किया जाता है। तो फिलहाल वही चल रहा था। लेकिन कंपनी का वैल्युएशन हर तिमाही में बढ़ता जा रहा था। प्रॉफिटेबल वेंचर होने के अपने लाभ तो हैं!


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मैं अपने व्यवसाय में बस रमा ही था कि एक दिन अचानक ही देवयानी ने कहा कि कुछ दिनों से न जाने क्यों उसको खाने पीने का मन नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं था कि मैंने उसमें यह परिवर्तन नहीं देखा - अवश्य देखा। वो थोड़ी थकी थकी सी रहती, कम खाती! सोचा था कि शायद काम बढ़ा हुआ होने के कारण उसको यह अनुभव हो रहे हों। देवयानी ऐसी लड़की नहीं थी जो यूँ ही, आराम से एक जगह पर बैठी रहे। वो हमेशा से ही एक्टिव थी - शारीरिक रूप से भी, और मानसिक रूप से भी। और आभा के होने के बाद वो और भी एक्टिव हो गई थी। उसने पहले तो इसको सीरियस्ली नहीं लिया - बोली कि सर्दी जुकाम हुआ होगा। लेकिन जब मैंने और पूछा, तो वो बोली कि उसके स्टूल में भी थोड़े परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। यह शंका वाली बात थी।

मैंने उसको कहा कि एक बार डॉक्टर से मिल ले। लेकिन फिर बात आई गई हो गई। लेकिन एक रात जब वो पानी पीने के लिए बिस्तर से उठी, तो उसको चक्कर सा आ गया और वो वापस बिस्तर पर बैठ गई। अब ये बेहद शंका वाली बात थी। मैंने सवेरे उठते ही उसको डॉक्टर के पास ले जाने की ठानी। डेवी अभी भी ज़िद किये हुए बैठी थी कि शायद कम खाने से कमज़ोरी हो गई होगी, लेकिन सबसे घबराने वाली बात यह थी कि उसने दस दिनों में ठीक से खाना नहीं खाया था। मुझको अब बेहद चिंता होने लगी थी। कहीं पीलिया तो नहीं था?

डॉक्टर के यहाँ कई सारे टेस्ट, स्कैनिंग, और बाईओप्सी करि गईं। मैं सोच रहा था कि बिना वजह यह सब नौटंकी चल रही है। लेकिन जिस डॉक्टर की देख रेख में यह ‘नौटंकी’ चल रही थी, उसने कहा कि उसको थोड़ा डाउट है, और उसी के निवारण के लिए वो यह सभी टेस्ट करवा रहा है। मैंने पूछा कि क्या डाउट है, तो उसने बताया कि उसको शक है कि देवयानी के पेट में कोई ट्यूमर है। ट्यूमर? यह नाम सुनते ही मेरा दिल उछल कर मेरे गले में आ गया।

‘हे प्रभु, रक्षा करें!’

पूरा समय वो देवयानी से पूछता रहा कि उसको पेट में दर्द तो नहीं। और वो बार बार ‘न’ में उत्तर देती।

मैं ऊपर ऊपर हिम्मत दिखा रहा था, लेकिन मुझे मालूम है कि मेरी हालत खराब थी। प्रति क्षण मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि उसको कोई गंभीर रोग न हो!

फिर अल्ट्रासाउंड किया गया। उसमें साफ़ दिख रहा था कि देवयानी के पेट में सूजन थी, और उसका बाईल डक्ट जाम हो गया था! ट्यूमर तो था। इसी कारण से उसको भूख नहीं लग रही थी, और थकावट हो रही थी। बाईल डक्ट का जाम होना पैंक्रिअटिक कैंसर का चिन्ह है!

‘हे भगवान्!’

सी टी स्कैन में निश्चित हो गया कि ट्यूमर है, और पैंक्रियास में है। मतलब कैंसर है। पैंक्रिअटिक कैंसर, सभी कैंसरों में सबसे जानलेवा कैंसर है। अगर हो गया, तो मृत्यु लगभग निश्चित है।

‘यह सब क्या हो गया!’

पूरा दिमाग साँय साँय करने लगा। कोई क्या कह रहा है, क्यों कह रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पहले गैबी, और अब डेवी! ये तो अन्याय है भगवान्! सरासर अन्याय! ऐसा क्या कर दिया मैंने? इसको छोड़ दो प्रभु, मुझे ले लो। मेरी बच्ची की माँ छोड़ दो! उस नन्ही सी जान को किसके भरोसे छोड़ूँ? ऐसे मुझे बार बार बिना हमसफ़र के क्यों कर रहे हो प्रभु? ऐसे बार बार मुझे अनाथ क्यों बना रहे हो?

मैं दिखाने के लिए डेवी को हंसाने का प्रयास कर रहा था, लेकिन वो भी जानती थी कि मैं अंदर ही अंदर डर गया था। हमसफ़र से क्या छुपा रह सकता है भला? एकांत पा कर डेवी ने बड़े प्यार से मेरे गले में अपनी बाँहें डाल कर मेरे होंठों को चूमा, और कहा,

“मेरी जान, ये साढ़े तीन साल मेरी ज़िन्दगी के सबसे शानदार साल रहे हैं! मैं बहुत खुश हूँ! तुम गड़बड़ मत सोचो! मेडिकल फील्ड बहुत एडवांस्ड है! तुमको ऐसे नहीं छोडूँगी!”

वो यह सब कह तो रही थी, लेकिन मुझे उसकी बातों में केवल ‘अलविदा’ ही सुनाई दे रही थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। सारी मज़बूती धरी की धरी रह गई।

एक्स-रे में पता चला कि देवयानी के फेफड़ों के एक छोटे से हिस्से में कैंसर ट्यूमर के छोटे छोटे टुकड़े थे। मतलब यह स्टेज फोर कैंसर में तब्दील हो चुका था, और हमको मालूम भी नहीं चला! पैंक्रिअटिक कैंसर का इलाज स्टेज वन में हो जाय तो ठीक! स्टेज फोर का मतलब है, अब कुछ नहीं हो सकता।

इस बात पर मेरा दिल डूब गया। ऐसा लगा कि जैसे मुझे दिल का दौरा हो जाएगा! मन हुआ कि देवयानी से पहले मैं ही मर जाऊँ। दोबारा यह दर्द, यह दुःख - अब यह सब झेलने की शक्ति नहीं बची थी।

‘यह सब कैसे हो गया?’

‘फिर से!’

देवयानी ने इतने सालों में शराब की एक बूँद तक नहीं छुई थी। न ही वो सिगरेट पीती थी। वो नियमित व्यायाम करती थी, और तंदरुस्त थी। फिर भी! कैसे? अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह गया था। स्टेज फोर कैंसर! ओह प्रभु!

केवल एक ही दिन में मेरी हंसती खेलती दुनिया तहस नहस हो गई थी।

किस्मत ने कैसी क्रूरता दिखाई थी मेरे साथ! फिर से! जब लगा कि ज़िन्दगी पटरी पर आ गई, तब ऐसी दुर्घटना!!

काश कि ऊपर वाला मुझे उठा ले, लेकिन मेरी देवयानी को बख़्श दे! मेरी बच्ची को उसकी माँ के स्नेह से वंचित न होने दे! ओह प्रभु, प्लीज! मुझे देवयानी की बहुत ज़रुरत है! उसको वापस मत लो!


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सच कहूँ - ये पूजा प्रार्थना - यह सब मन बहलाने का साधन है। कुछ नहीं होता इन सब से। जीवन पर मनुष्य का कोई वश नहीं होता - और यह बात ही परम सत्य है। हमको लगता है कि यह सब कर के हम खुद को जीवन की मार से बचा सकते हैं। लेकिन नहीं! कुछ नहीं होता - केवल क्षणिक मन बहलाव के अतिरिक्त!

देवयानी का कैंसर के साथ संघर्ष बेहद दुर्धुर्ष था। डॉक्टरों ने सुझाया कि ऑपरेशन कर के ट्यूमर तो हटाया जा सकता है, लेकिन स्टेजिंग हो जाने के कारण कीमो-थेरेपी करनी ही पड़ेगी। लेकिन मरता क्या न करता! देवयानी को मालूम था कि यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। लेकिन उसने जब मेरी मरी हुई हालत देखी, तो उसने ऑपरेशन के लिए हाँ कह दिया। चौदह घंटे चले ऑपरेशन के बाद ट्यूमर तो हटा दिया गया। कम से कम वो अब ढंग से खा तो सकती थी! कभी सोचा नहीं था कि ऐसा कहने, ऐसा चाहने की नौबत भी आ सकती है।

इस ऑपरेशन के बाद, जब उसके शरीर ने थोड़ा रिकवर किया, तब कीमो-थेरेपी शुरू हो गई। पाठको को यह ज्ञात होना चाहिए कि कीमो-थेरेपी बेहद कठिन चिकित्सा होती है। शरीर को लुंज पुंज करने के लिए यह पर्याप्त होती है। बेचारी नन्ही सी बच्ची अपनी माँ को ऐसी छिन्न अवस्था में देखती, तो समझ न पाती कि उसकी माँ के साथ क्या हुआ है! लेकिन आभा हमारे जीवन की रौशनी थी - उसको देख कर चाहे मृत्यु भी सामने खड़ी हो, होंठों पर मुस्कान आ ही जाती। देवयानी भी मुस्कुरा देती। और मेरी आँखों से बस, आँसू ढलक जाते! दुर्धुर्ष संघर्ष!

डेवी समझ रही थी कि कुछ लाभ नहीं होना। लेकिन वो बेचारी मेरे और आभा के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी। उसको भी मेरे लिए, आभा के लिए जीने का मन था। लेकिन सब व्यर्थ सिद्ध हो रहा था। कभी कभी मन में यह प्रश्न उठता अवश्य है कि उसने ऐसा क्या किया कि वो ऐसे झेले! शायद मुझसे शादी करने का गुनाह! और क्या कहा जा सकता है? मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी दलदल में फंस गया हूँ, और वो मुझे धीरे धीरे लील रहा है! डेवी मर रही थी, और उसके साथ हर दिन, हर पल मैं मर रहा था। खुद को काम में व्यस्त रख कर मैं दुःख की तरफ पीठ कर के खड़ा तो होता, लेकिन फिर भी दुःख का प्रत्येक वार सीधे दिल पर आ कर लगता।

हाँ - यह एक संघर्ष था। लेकिन ऐसा कि जिसमें विजेता पहले से ही निश्चित था।

आखिरी दिनों में डॉक्टरों ने सुझाया कि कोई अल्टरनेटिव दवाओं को आज़मा लें! लेकिन फ्राँस के डॉक्टरों ने कहा, कि देवयानी के शरीर को प्रयोगशाला के जैसे इस्तेमाल न किया जाए। उसको थोड़ी डिग्निटी दी जाय। और अब केवल उपशामक चिकित्सा ही करी जाय तो बेहतर। उसको कोई तकलीफ न हो, बस इस बात का ध्यान रखा जाए। थोड़ी बहुत - जो भी ख़ुशी दी जा सकती है, दी जाए। दिल टूट गया यह सुन कर!

कैसी ज़िंदादिल लड़की है मेरी देवयानी और कैसी हो गई! उसकी छाया भी ऐसी कांतिहीन नहीं थी जैसी कांतिहीन वो हो चली थी! कैसी सुन्दर सी थी वो! और कैसी हो गई! लेकिन इस समय मेरी बस एक ख्वाईश थी - कैसे भी कर के वो रह जाए। जीवन में कोई तमन्ना नहीं बची थी।

हमको मालूम था कि हर अगले दिन उसका दर्द, उसकी तकलीफ बढ़ती जाएगी। इसलिए सभी को उससे मिलने बुला लिया गया। देवयानी बड़ी ज़िंदादिली से सभी से मिली। सबसे मुस्कुरा कर बातें करी उसने। लेकिन हर मिलने वाले का दिल टूट गया।

आखिरी बार उसने जब बुझती आँखों से मेरी तरफ देख कर “आई लव यू” कहा, तो मेरा दिल छिन्नभिन्न हो गया। वो दर्द आज भी महसूस होता है मुझको। लेकिन एक सुकून भी है कि मुझे देवयानी जैसी लड़की का हस्बैंड बनने का सौभाग्य मिला!

आखिरी तीन दिन वो आयोजित कोमा में रही! शरीर में कोई हरकत नहीं। बस ऑक्सीजन का रह रह कर टिक टिक कर के आने वाली आवाज़! मॉनीटर्स का बीप बीप! ओह, कितना भयानक मंज़र था वो! कितनी सुन्दर लगती थी वो - और अब - उसकी त्वचा काली पड़ गई थी, और सिकुड़ गई थी। उसको उस अवस्था में देख कर मैंने वो किया, जो मैं अपने सबसे भयावह सपने में भी करने का नहीं सोच सकता था। और वो था उसके मृत्यु की प्रार्थना।

ऐसे कष्ट से तो मृत्यु ही भली है!

तीन दिनों बाद देवयानी चली गई!

कैंसर के संज्ञान से मृत्यु तक केवल अट्ठारह हफ्ते लगे! बस! क्षण-भंगुर! और वो बस छत्तीस साल की थी! बस! हमारा पूरा परिवार उस दिन वहाँ उपस्थित था। मेरे डैड अभी भी किसी करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे थे। वो बेचारे इसी बात से हलकान हुए जा रहे थे कि उनका चहेता बेटा एक बार फिर से वही पीड़ा, वही कष्ट झेल रहा था, जो उसने कुछ वर्षों पहले झेला था। वो हमारे सामने कभी नहीं स्वीकारेंगे, लेकिन उनको देवयानी से अगाध प्रेम था। वो न केवल उनकी पुत्रवधू थी, बल्कि उनकी पोती की माता भी थी और एक तरह से अपनी पुत्री से बढ़ कर थी। देवयानी ने ऐसे ऐसे अनमोल तोहफे उनको दिए थे, कि उनका दिल भी टूट गया था। आभा उनके जीवन का केंद्र बन गई थी। और उसकी मम्मी के जाने की बात सोच कर वो हलकान हुए जा रहे थे। यह सब बहुत अप्रत्याशित सा था। देवयानी उनके लिए ‘श्री’ का स्वरुप थी। उसके आने के बाद से हमारे घर में कितनी सम्पन्नता, कितनी ख़ुशी आई थी कि कुछ कहने को नहीं! कुछ न कुछ कर के वो भी देवयानी से भावनात्मक तौर पर बहुत मज़बूती से जुड़ गए थे।

उसी दिन मैंने देवयानी की आखिरी क्रिया संपन्न कर दी।

इस बार किसी में हिम्मत नहीं हुई कि मुझे किसी तरह की कोई स्वांत्वना दे। क्यों मुझे ऐसा दंड मिला - वो भी दो दो बार, इसका उत्तर मुझे मिल ही नहीं रहा था। क्या मेरे में ही कोई खोट था? कि मेरी वजह से मेरे जीवन में आने वाली लड़कियों का जीवन ऐसे कम हो जा रहा था? संभव है न?

दिल टूट चुका था और जीने की आस भी छूट गई थी। लेकिन मेरे भाग्य में जो दंड लिखा था, अभी समाप्त नहीं हुआ था।

देवयानी की मृत्यु के बाद डैड का दिल भी टूट गया। वो एक भयंकर अवसाद में चले गए थे। उसकी मृत्यु के कोई एक महीने बाद उनको दिल का दौरा पड़ा। वो बेचारे बिस्तर पर आ गए। उनको दिल्ली लिवा लाया मैं, कि माँ अकेले उनकी देखभाल नहीं कर सकतीं! उन बेचारी का इन सब में क्या दोष? लेकिन बात इतने में सुलझ जाती तो क्या दिक्कत थी। तीन महीने बाद उनको एक और दिल का दौरा पड़ा। और इस बार उसने वो हासिल कर लिया, जो पहली बार में उसको हासिल नहीं हुआ था। डैड भी चल बसे!

भाग्य ने मेरे हृदय में त्रिशूल भोंक दिया था - पहले गैबी, फिर देवयानी और फिर डैड! तीन मेरे सबसे अज़ीज़ - और तीनों जाते रहे! देवयानी से बिछुड़ने के केवल चार महीनों में डैड भी चले गए। वो बस पचास साल के थे।

भाग्य ने मेरे किये किसी पाप का बेहद ख़राब दंड दिया था मुझको।

अब मेरे दिल में एक डर सा बैठ गया था - ‘अगला कौन होगा’ - मैं अक्सर यही सोचता! माँ? ससुर जी? आभा? ओह प्रभु! कैसे सम्हालूँ इन सभी को? मैं तो नहीं मर सकता - नहीं तो आभा को कौन देखेगा? और माँ - वो अवश्य ही मेरी माँ थीं, लेकिन उनका भोलापन ऐसा था कि वो भी एक बच्चे समान ही थीं। ऐसी खुश खुश रहने वाली माँ ऐसे अचानक ही विधवा हो गईं। उनके जीवन के रंग यूँ ही अचानक से उड़ गए! सच में, अब मुझे उनकी बेहद चिंता होने लगी थी। कभी सोचा भी न था कि मैं माँ की चिंता करूंगा! उनकी कोई उम्र थी यह सब झेलने की? उफ़!

माँ एक ज़िंदादिल महिला थीं। उनके अंदर जीने की, ज़िन्दगी की प्रबल लौ थी। डैड और माँ एक तरह से परफेक्ट कपल थे - जीवन से भरपूर! लेकिन अब - अपने लगभग अट्ठाईस साल के जीवन साथी को यूँ खो देना, उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। और इस सदमे से दो चार होना उनके लिए आसान काम नहीं था। इतनी कम उम्र में उनकी शादी हुई थी, और तब से डैड उनके एकलौते सहारा थे। वो कहते हैं न - वन एंड ओन्ली वन! उनका पूरा संसार! बस, वही थे डैड उनके लिए। कोई कहने की आवश्यकता नहीं कि डैड के जाने के बाद माँ एक गहरे अवसाद में चली गईं! उस ज़माने में मानसिक तकलीफों को इतना गंभीरता से नहीं लिया जाता था, जितना कि आज कल है। लेकिन मुझे लगा कि उनको डॉक्टर को दिखाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि माँ भी डैड के पीछे चल बसें! इसलिए माँ को एक बढ़िया मनोचिकित्सक की देख रेख में रख दिया। रहती वो मेरे - हमारे साथ थीं - लेकिन उनका मन शायद डैड के साथ ही कहीं चला गया।

माँ बहुत घरेलु किस्म की महिला थीं। डैड भी वैसे ही थे। वो ही माँ की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करते थे। उनके लिए माँ की छोटी छोटी कमियाँ ही उनका सौंदर्य थीं। वो उनके लिए छोटे छोटे, रोमांटिक तोहफे लाते थे। उनका मन बहलाते थे। उनको कविताएँ सुनाते थे। और माँ में ही खोए रहते थे - ऐसे कि जैसे धरती पर उनके लिए अन्य किसी महिला का कोई वज़ूद न हो! माँ उनका प्रेम थीं, और वो माँ के!

डैड के बिना जीवन कठिन था। बयालीस की उम्र में विधवा होना - यह एक कठिन चुनौती है। किसी के लिए भी। उस सच्चाई से दो चार होना उनके लिए संभव ही नहीं हो रहा था। सामान्य दिन वो जैसे तैसे बिता लेतीं - लेकिन त्यौहार, जन्मदिन, सालगिरह - यह उनको बड़ा सालता। इन सबके कारण उनको डैड की बड़ी याद आती। दीपावली में वो दोनों सम्भोग करते - लेकिन अब उसी दीपावली के नाम पर उनको अवसाद हो आता। उनके चेहरे की रंगत उड़ जाती।

वो रंग बिरंगी साड़ियाँ पहनतीं। खूब सजतीं - मेकअप नहीं, बल्कि गजरा, काजल, बिंदी इत्यादि से। उतने से ही उनका रूप ऐसा निखार आता कि अप्सराएँ पानी भरें उनके सामने! लेकिन अब तो उनको रंगों से ही घबराहट होने लगी थी। बस दुःख का आवरण ओढ़े रहतीं हमेशा। होंठों पर लाली, और आँखों में काजल लगाने के नाम पर वो दुखी हो जातीं। हमारे लाख कहने पर भी उनसे सजना धजना न हो पाता। वो घर से बाहर भी नहीं निकलती थीं। बस डॉक्टर के पास जाते समय, और मुँह अँधेरे वाकिंग करते समय ही वो बाहर निकलती थीं।

कोई तीन महीने हो गए थे अब डैड को गए हुए। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी।

कभी कभी मन में ख़याल आता कि क्यों न माँ की शादी करा दी जाए। विधवा होना कोई गुनाह नहीं। माँ को खुश रहने का पूरा हक़ था। लेकिन फिर यह भी लगता कि इतनी जल्दी क्या माँ किसी और को अपनाने का भी सोच सकती हैं? मुश्किल सी बात थी। लेकिन कोई बुरी बात नहीं।

उनको अकेली क्यों होना चाहिए? इस बात का कोई उत्तर नहीं था। अगर कोई ऐसा मिल जाए जो माँ को भावनात्मक रूप से सम्हाल सके, उनको प्रेम कर सके, उनके उदास वीरान जीवन में कोई फिर से रंग भर सके, तो मुझे वो व्यक्ति मंज़ूर था। मैं उदास था, और खुद भी डिप्रेशन में था; लेकिन माँ को देख कर मैं अपना ग़म भूल गया। और फिर मेरे सर पर आभा और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी भी थी। उधर ससुर जो भी देवयानी के जाने के बाद से बेहद दुखी रहने लगे थे। एक और बाप न चला जाय कर के एक और डर मेरे मन में समां गया था। वो तो भला हो जयंती दी का, जिन्होंने कुछ समय के लिए आभा के पालन की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। लेकिन वो बच्ची उनकी परमानेंट ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती थी।

इस समय बस यही दो तीन ख़याल मन में रहते - कैसे भी कर के माँ बहुत दुखी न हों, और आभा की परवरिश ठीक से हो। कहाँ कुछ ही दिनों पहले मेरी पूरी ज़िन्दगी कैसी खुशहाल थी, और कहाँ अब सब कुछ पटरी से उतर गया था।

उसी बुरी दशा में मुझे फिर से काजल की याद आई। काजल - मेरे जीवन का लौह स्तम्भ! मेरा निरंतर सहारा।

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Kala Nag

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शर्म, झिझक, स्टिगमा - बहुत से कारण होते हैं जिनके कारण प्रेमी युगल यह काम नहीं कर पाते। पत्नियाँ भी अपने पतियों को झिड़क देती हैं कि बच्चे के लिए है सब! तुम पी लोगे, तो बच्चा क्या पिएगा?
सबसे मज़े की बात है कि आज कल अधिकतर महिलाएँ अपने बच्चों को बहुत हुआ तो छः महीने ही स्तनपान कराती हैं। उनमें भी ज्यादातर तो तीन में ही दूध छुड़ा देती हैं। फ़िगर का हवाला दिया जाता है - वो अलग बात है कि ज्यादातर लड़कियाँ शादी के पहले ही महिषी के आकार की हैं आज कल! खैर...
यह सौ फीसदी सही कहा आपने
आज कल ली लड़कियाँ होते ही ऐसे हैं l किसी और की क्यूँ बात करें हाल ही में मेरी ही रिश्ते दारी में एक लड़की अपने बच्चे को तीन महीने तक ही दुध पिलाया है जब कि मेरे बच्चे तीन साढ़े तीन साल तक माँ का दुध नहीं छोड़ा था
हा हा हा हा! अरे भाई, आपकी यह स्टाइल मुझे बहुत पसंद आई है।
इसका इस्तेमाल मैं अपनी आगे आने वाली किसी कहानी में अवश्य करूँगा। थ्रिलर वाली कहानी में! हा हा!
जरूर मुझे उस कहानी की प्रतीक्षा रहेगी
बंडा समुदाय के बारे में जानकारी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। कभी कभी लगता है कि आदिवासी समाज, या फिर जान-जातीय समाज सोच विचार में मेनस्ट्रीम समाज से कहीं आगे है। हम मध्यमवर्गीय समाज की सोच बेहद पिछड़ी हुई और जकड़ी हुई है। असल मायने में समाज की भेंड़-बकरियाँ मध्यमवर्गीय समाज के लोग ही हैं। न कोई स्वतंत्र सोच, न कोई स्वतंत्र और उत्तम विचार।
हाँ यह बात तो है कोरापुट जिले में ना जाने कितने आदि वासी समाज हैं उनमें से प्रमुख बंडा, कोया, परजा, देसीया होते हैं
हाँ - समझ सकता हूँ।
इन्सेस्ट लिखने वाले ऐसे अवसर को पा कर टूट पड़ते अपनी अम्मा पर! लेकिन मेरी कलम ऐसा लिख ही नहीं पाती - लिखना दूर, सोच भी नहीं पाती।
बस एक ही कहानी इन्सेस्ट पर लिखी थी - मंगलसूत्र। उसमें भी कहानी के मूल में प्रेम निहित है। वासना नहीं।
एक बार लिखने का प्रयास अवश्य करूँगा इन्सेस्ट पर।
ह्म्म्म्म इस पर मौन ही रहूँगा
खैर, ये सब बवाल छोड़िए - पहले ये बताइए कि फ़्लू के ज़ोर में कोई कमी आई या नहीं?
काढ़ा पीजिए। और इस सप्ताहांत केवल आराम कीजिए।

मिलते हैं शीघ्र ही :)
हाँ भाई अब सेहत अच्छी है
अब एलोपैथी के साथ साथ यह घरेलु नुस्खे भी आजमा रहा हूँ l सोच रहा हूँ आज से लिखना शुरु कर दूँ
 
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नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #6


एक बार की बात है - आभा की नींद रात में तीन बार टूटी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। डेवी थकी हुई होने के कारण सोती रही। मैंने भी उसको बोल कर सुला दिया और बच्ची को अपने सीने से लगाए पूरे घर भर में घूम घूम कर सुलाता रहा। अंततः उसको नींद आ ही गई। तब कहीं जा कर मैं भी आराम से बिस्तर पर आ कर, सिरहाने पर तकिया लगा कर आधा लेट गया। आभा मेरे सीने पर ही सोती रही - सवेरे तक। न तो वो एक बार भी रोई और न ही उसको भूख लगी - बस वो शांति से सोती रही। शायद मेरे शरीर की गर्मी, और मेरे दिल की धड़कन की आवाज़ से उसको आराम मिल रहा हो। इतनी नन्ही सी जान, लेकिन उसको इस तरह देख कर किसी का भी दिल पसीज जाए। उसको आराम से सोता हुआ देख कर मैं भी चैन से सो गया।

जब सवेरे उठा तो देखा देवयानी हम दोनों को बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में देख रही थी।

“ठीक से सोए मेरे जानू?” उसने मुझे चूमते हुए कहा, “हाऊ डिड यू कीप फ्रॉम मूविंग?” उसने फिर आभा के सर को चूमा।

“पता नहीं यार! सच में इसको इस तरह से सीने से लगा कर सोने में क्या अच्छी नींद आती है!”

“हा हा हा! ये इस बात में अपनी मम्मी पर गई है! जैसे उसकी मम्मी उसके पापा के सीने पर सर रख कर गहरी नींद सो जाती है, वैसे ही ये भी है, लगता है!”

“आअह! फिर तो मुश्किल हो जाएगी!”

“वो क्यों?”

“हमारी बिटिया तो सोएगी मेरे सीने पर! मतलब तुम मेरे पेट पर सो जाना!”

“हा हा हा हा! पेट पर! तुम्हारे पेट से जैसी जैसी आवाज़ें आती हैं, वो सब सुन कर मुझे जो नींद आनी होगी, वो भी उड़ जाएगी!”

उस दिन के बाद से आभा को रात में सुलाने का जिम्मा मेरा हो गया। वो मेरे सीने से ही लग कर सोती, और देर तक सोती। कम से कम डेवी को इस कारण से थोड़ी राहत मिल जाती। दिन भर वो वो ही उसको देख रही होती। मन में एक डर सा लगा रहता कि बच्ची कहीं गिर न जाए, दब न जाए, लेकिन वैसा कभी हुआ नहीं।


**


आभा के जन्म के लगभग कोई पाँच सप्ताह बाद हमको गेल और मरी का कॉल आया कि उनके घर बेटा हुआ है। वो बिलकुल स्वस्थ था, और अपनी माँ के जैसा दिखता था। मैं और डेवी इस खबर से बहुत खुश हुए। अच्छा लगा कि दो बेहद अच्छे लोगों के मन की आस पूरी हो गई है। उन्होंने हमको फिर से न्योता दिया कि हम दोनों फ्राँस आएँ। वो बच्चे का बप्तीस्म तब करना चाहते थे जब हम वहाँ पर हों, जिससे कि हम दोनों को उस बच्चे का गॉड पेरेंट्स बनाया जा सके। मैंने और डेवी ने वायदा किया कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ आने की कोशिश करेंगे।


**


डेवी का डिलीवरी के बाद स्वास्थ्य लाभ भी बड़ी तेजी से हुआ। माँ के जन्मदिन और हमारी शादी की सालगिरह तक आते आते देवयानी लगभग पहले जैसी ही लगने लगी। हाँ, उसके स्तन थोड़ा बड़े अवश्य हो गए थे, लेकिन पेट और नितम्ब पर जो अतिरिक्त वसा थी, वो अब नहीं थी। अभी पिछले ही महीने से हमने पहले की ही भांति प्रतिदिन सम्भोग करना शुरू कर दिया था। आभा एक प्यारी सी बच्ची थी, लेकिन फिलहाल दूसरा बच्चा हम दोनों को ही नहीं चाहिए था। तीन साल तक नहीं। इसलिए पहली बार मैंने प्रोटेक्शन का इस्तेमाल करना शुरू किया था। अभी भी उसके पास लगभग दो महीने की हॉफ पे मैटरनिटी लीव थीं। लेकिन लग रहा था कि थोड़ा जल्दी ही जोइनिंग हो सकती है। उसके पहले हमने निर्णय लिया कि कुछ दिन माँ और डैड के साथ बिता कर, और फ्राँस घूम कर वापस आ जाएँगे। फिर डेवी ऑफिस में काम फिर से शुरू कर सकती है।

तो इस बार माँ के जन्मदिन पर हम तीनों डैड के घर गए। इतने लम्बे अर्से के बाद मैं उनके घर आया था - थोड़े बहुत परिवर्तन तो थे, लेकिन घर अभी भी वैसा ही था। डैड ने एक और कमरा बनवा लिया था - क्योंकि अब सारे कमरों में कोई न कोई होता था। मेहमानों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनको आवश्यक लगा कि एक और कमरा चाहिए। पाँचवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद, उनका वेतन बढ़ गया था, और पिछली बकाया राशि भी मिली थी। इसलिए उनका हाथ खर्चा करने में थोड़ा खुल गया था। फ़िज़ूलखर्च नहीं, बस, अपने आराम के लिए आवश्यक ख़र्च करने में अब उनको सोचना नहीं पड़ रहा था। उसके बाद से घर में कोई परिवर्तन नहीं आया।

थी तो हमारी शादी की सालगिरह भी उसी दिन, लेकिन उस दिन को हमने माँ के जन्मदिन के रूप में मनाया। पूरे पर्व का डेवी और मैंने ही आयोजन किया था। माँ कह रही थीं कि यह सब करने की क्या ज़रुरत है, लेकिन बात दरअसल यह थी कि अगर ख़ुशी है, तो उसका इज़हार करने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए? और ख़ुशी तो हम सभी को भरपूर थी। उसी दिन सवेरे आभा का मुंडन करवा दिया गया। ज्यादातर बच्चे बाल कटने पर रोने धोने लगते हैं। लेकिन आभा उसमें भी खुश थी और रह रह कर मुस्कुरा रही थी। उसको जब कुछ फनी सा लगता तो रोने जैसा मुंह बना लेती, लेकिन रोई एक बार भी नहीं। सर के बाल गायब होने के बाद वो और भी क्यूट, और भी लड्डू जैसी लगने लगी। अब तो वो हर तरह से गोल गोल लगती। बच्चे शायद इसलिए बहुत प्यारे से लगते हैं कि जो भी लोग उनको देखें, वो उनसे प्यार करें। उनका नुकसान न करें। तो प्यारा दिखना, एक तरह का सर्वाइवल स्किल है बच्चों का! खैर जो भी हो, मुंडी हो कर आभा और भी अधिक प्यारी लगने लगी थी।

शाम को भोज का आयोजन किया गया। उसमें हमने माँ और डैड - दोनों के मित्रों को आमंत्रित किया था। कितने ही सालों बाद कस्बे के बहुत से पुराने जान पहचान वालों से मिलने का मौका मिला था मुझे। इसलिए अच्छा भी बहुत लगा।


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माँ और डैड के यहाँ से वापस आने के एक सप्ताह बाद हमारा फ्राँस जाने का प्रोग्राम था। बहुत डर लग रहा था कि एक नन्ही सी बच्ची के साथ इतना लम्बा सफर कैसे करेंगे! उसके पहले मैं जब भी हवाई जहाज़ में यात्रा करता था, तो किसी नन्हे बच्चे को देख कर मेरा दिल बैठ जाता था कि ‘भई, गए काम से’! पक्की बात थी कि बच्चा पूरी यात्रा भर पेंपें कर के चिल्लाता रहेगा, और हम सबकी जान खाएगा। डर इस बात का था कि मम्मी-पापा बनने के बाद बाकी लोग भी हमारे बारे में यही सोचेंगे, और हमारी बच्ची भी बाकी बच्चों के जैसे पेंपें कर के रोएगी। लेकिन घोर आश्चर्य कि बात यह थी कि आभा लगभग न के बराबर रोई। एक बार तब जब केबिन प्रेशर थोड़ा कम हो गया तो बेचारी के कान में दर्द होने लगा - हम सभी के कान में दर्द हो रहा था। और दूसरी बार तब जब उसका नैपी पूरी तरह से ग़ैर-आरामदायक हो गया था। बस! वरना पूरे समय वो हंसती खेलती रही, और अपने पड़ोसियों का भी मन बहलाती रही। आभा इतनी खुशमिज़ाज़ बच्ची थी कि जिसको मन करता, वो उसको अपनी गोदी में उठा कर इधर उधर घुमा कर ले आता - क्या एयर होस्टेस, और क्या यात्री!

हमारी फ्रांस की यात्रा दस दिनों की थी। उसके बाद एक हफ्ते का आराम, और फिर डेवी वापस ऑफिस ज्वाइन कर लेती। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, गेल और मरी, नीस नामक शहर में रहते हैं। नीस भूमध्य-सागर के किनारे पर बसा हुआ एक बहुत ही सुन्दर शहर है, और शायद फ्राँस के सबसे अधिक घने बसे शहरों में से एक है। ऐसा नहीं है कि बहुत ही कलात्मक शहर है - बस, जिस सलीके से, जिस तमीज़ से शहर को रखा गया है, वो उसको सुन्दर बना देता है। एक पहाड़ी है - माउंट बोरॉन कर के - वहाँ से फ्रेंच रिवेरा का नज़ारा साफ़ दिखाई देता है। बहुत ही सुन्दर परिदृश्य! वहाँ से ऐल्प्स पर्वत-श्रंखला को भूमध्यसागर से मिलता हुआ देखा जा सकता है। सड़कों और गलियों के दोनों तरफ छोटे छोटे घर! बड़े सुन्दर लगते हैं। हवाई जहाज़ से नीचे उतरते समय भी अंदर बैठे यात्री ‘वाओ’ ‘वाओ’ कह कर आहें भर रहे थे।

हमको एयरपोर्ट पर लेने गेल और मरी दोनों आए थे। उनका बेटा घर पर ही पार्ट-टाइम नैनी के साथ था, जो उसकी देखभाल करती थी। उनको देख कर हम दोनों ही बहुत खुश हुए! फ्रेंड्स फॉर लाइफ - हाँ, यही कहना ठीक होगा। हम अब एक दूसरे से इस तरह जुड़ गए थे, कि हमारे परिवारों का बंधन अटूट हो गया था। अवश्य ही हमारी जान पहचान कोई दस दिनों की ही थी, लेकिन उसकी गुणवत्ता बहुत अधिक थी।

इस पूरी यात्रा के लिए हम उन दोनों पर ही निर्भर थे। हमने उनको अपने टिकट और यात्रा का पूरा प्लान पहले ही बता रखा था, इसलिए उन्होंने बच्चे का बप्तीस्म हमारे आने के अगले ही दिन तय कर रखा था। हमारे पाठकों को शायद न मालूम हो, लेकिन किसी बच्चे के गॉड पेरेंट्स बनना बहुत ही सम्मान का विषय होता है। एक तरह से आप उस बच्चे के अघोषित माता-पिता ही होते हैं। ठीक है, मैं उस बच्चे का जैविक पिता था, लेकिन उन दोनों के कारण मुझे उसके जीवन में सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर मिल रहा था। मुझे उम्मीद थी कि मैं जैसा भी संभव हो सकेगा, उस बच्चे से प्रेम करूँगा।

गेल और मरी के लिए हम बहुत से उपहार ले कर आए हुए थे - उनमें से मरी के लिए साड़ी ब्लाउज, और गेल के लिए धोती कुर्ता। बहुत सम्मान और आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने वही परिधान बच्चे के बप्तीस्म के दिन भी पहना हुआ था। तो हम चारों जने, सौ प्रतिशत भारतीय परिधान में एक विदेशी मुल्क में बच्चे का बप्तीस्म कर रहे थे। चर्च में हम ही ऐसी अतरंगी पोशाक पहने हुए थे और दूर से ही साफ़ नज़र आ रहे थे। कोई हमको आश्चर्य से, तो कोई हमको मज़ाकिया अंदाज़ में देखता। खैर, दूसरों की परवाह हमने करी ही कब, जो आज करते? बेटे के साथ हमारी बेटी का भी बप्तीस्म कर दिया गया, और गेल और मरी ने हमारी ही तरह आभा का गॉड पेरेंट्स बनने की शपथ ली। उन्होंने पूछा कि हमने आभा का सर क्यों मुंडा कर दिया, तो हमने मुंडन के बारे में उनको बताया। तो उन्होंने भी निर्णय लिया कि अपने बेटे का मुंडन करवाएँगे। जो कुछ आभा का होगा, वो ही रॉबिन का होगा। हाँ - रॉबिन नाम था बेटे का। तो मैंने हँसते हुए उनको समझाया कि आभा का नाक और कान का छेदन होगा। कम से कम रॉबिन को वो मत करवाना।

रॉबिन में ज्यादातर मरी के फीचर्स आए हुए थे। वो उसी की ही तरह गोरा गोरा बच्चा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उसकी आँखों, उसकी नाक, और होंठ मेरे समान दिखते थे। मुझे मालूम है कि हमारे वहाँ आने पर वहाँ उपस्थित लोगों को हम चारों के सम्बन्ध के बारे में संदेह तो अवश्य ही हुआ होगा। ऐसे थोड़े ही कोई यूँ ही चला आता है, और वो भी इतनी आत्मीयता दिखाते हुए! लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं - कम से कम हमसे तो कुछ नहीं कहा। और कोई कुछ कहता भी तो क्या फ़र्क़ पड़ता? गेल और मरी अमेजिंग लोग थे, और उनको भी माता-पिता बनने का पूरा अधिकार था। और मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैं इस सन्दर्भ में उनकी कुछ मदद कर सका। लेकिन, आगे जो उन्होंने मेरी आभा के लिए किया, वो अद्भुत है। खैर, भविष्य की बातें, भविष्य के ही गर्भ में रहने देते हैं!

एक दूसरे को तोहफा देने में गेल और मरी भी कोई पीछे नहीं थे। वो भी हमारे लिए ढेर सारे उपहार लाए हुए थे - मतलब जितना हमने लाया हुआ था, उससे अधिक हमको मिला। देवयानी के लिए उन्होंने सबसे आधुनिक फैशन के कपड़े, जूते, और परफ़्यूम लाया था, मेरे लिए भी वही सब, और आभा के लिए तो पूरा सूटकेस भर के सामान था! पूरे दस दिन यूँ ही मौज मस्ती करने में बीत गया - हम दोनों के परिवार बहुत करीब आ गए और हमारे सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो गए। हमने उनसे वायदा लिया कि जब उनको लम्बी छुट्टी मिले, तो हमारे घर आ कर रहें। हमारे साथ समय बिताएँ। उन्होंने भी वायदा किया कि वो अवश्य ही फिर से भारत आएँगे।


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सुनील ने इंटरमीडिएट में नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त किए थे। लेकिन वो उसका लक्ष्य नहीं था। उसका लक्ष्य था इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाएँ। जब उनका रिजल्ट आया, तो पता चला कि सुनील ने जे-ई-ई में बढ़िया रैंक पाई है! कौन्सेलिंग में उसको खड़गपुर में दाखिला मिला। अंततः काजल का, मेरा, और माँ और डैड का सपना पूरा हो ही गया! आनंद ही आनंद!

टॉप रैंक में होने के कारण उसको स्कॉलरशिप भी मिली थी, और इकोनॉमिकली वीक सेक्शन से आने के कारण उसको एक अलग तरह का वजीफ़ा मिला था, जिसमें उसको पढ़ने की किताबें, और रहने सहने का ख़र्च भी सम्मिलित था। कुल मिला कर उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हमारी तरफ से शायद ही कोई खर्चा आता। मैंने और देवयानी ने उससे वायदा किया था कि अगर उसका दाखिला आई आई टी में हो जाता है, तो हम उसको एक डेस्कटॉप उपहार स्वरुप देंगे। तो मैं उसके साथ ही खड़गपुर गया, और जब वो हॉस्टल के रूम एलोकेशन की लाइन में धक्के खा रहा था, तब मैं एक लोकल वेंडर से बातें कर के उसके लिए एक कंप्यूटर की व्यवस्था कर रहा था।

आठ वर्षों पहले की बातें याद हो आईं! तब मैं भी इसी तरह इंजीनियरिंग स्टूडेंट बन कर दाखिल हो रहा था, और जब वहाँ से बाहर आया तो एक अनोखी दुनिया मेरे सामने कड़ी थी। मुझे उम्मीद थी कि सुनील को भी वैसा ही अनुभव मिले। उसका जीवन भी सम्पन्न और समृद्ध और सुखी हो। उसको कंप्यूटर, और ढेर सारा आशीर्वाद दे कर मैं वापस दिल्ली आ गया।


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उन दिनों आज कल के जैसे हाफ़ बर्थडे, फुल बर्थडे मनाने का चलन नहीं था। केवल जन्मदिन ही मनाया जाता था। आभा का पहला जन्मदिन बेहद यादगार था। मुझे भी उसके कुछ दिनों पहले ही एक प्रमोशन मिला था और देवयानी अब तक अपने काम में वापस रंग गई थी। हमारी नई कामवाली कुशल थी, और भरोसेमंद थी। उसकी देख रेख में आभा स्वस्थ थी। हम या तो केवल काम करते, या फिर घर आ कर आभा की देखभाल करते। ऐसा ही जीवन हो गया था लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं थी। अपने बच्चे के लिए कुछ भी करना मंज़ूर था। तो अवश्य ही मेरी दोनों शादियाँ बिना किसी चमक धमक के थीं, लेकिन आभा का पहला जन्मदिन पूरे उत्साह और तड़क भड़क वाला था। हम दोनों ही बढ़िया कमा रहे थे, तो अपनी संतान से सम्बंधित कार्यों पर न खर्च करें, तो किस पर करें? लेकिन एक साल की बच्ची को इन सब बातों का कोई बोध नहीं होता। वो अपने में ही मगन रहते हैं। शायद उसको, और उसके जितनी उम्र के बच्चों को छोड़ कर, बाकी सभी ने बहुत मौज मस्ती करी। देवयानी अभी भी उसको स्तनपान कराती थी इसलिए वो मदिरा नहीं पीती थी। और जिस उत्साह से डेवी को ब्रेस्टफीडिंग कराने में आनंद आता था, वो देख कर मुझे पक्का यकीन था कि आभा खुद ही पीना छोड़ दे, तो छोड़ दे, वरना डेवी तो जब तक संभव है, उसको अपना दूध पिलाती रहेगी। आनंदमय दिन था वो! यादगार!

ख़ुशी और भी अधिक बढ़ गई जब गेल और मरी ने फ्रांस से एक बड़ा सा गिफ्ट का डब्बा आभा के लिए भेजा। उन्होंने तब से ले कर आभा के प्रत्येक जन्मदिन पर उपहार दिया है, और हमने भी। रॉबिन भी तेजी से बढ़ रहा था - वो एक स्वस्थ और स्ट्रांग बच्चा था - बिलकुल अपनी ‘बहन’ के जैसा!

एक बार यूँ ही मज़ाक मज़ाक में बात निकल आई कि कितना अच्छा हो अगर आगे चल कर ये दोनों बच्चे एक साथ, एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर सकें। बात मज़ाक में ही हुई थी, लेकिन डेवी को यह बात बहुत जँच गई। गेल और मरी ने कहा कि उनका घर भी आभा का घर है, और अगर संयोग बैठता है, तो अवश्य ही वो उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर सकती है फ्राँस में। हाँ, कहीं और जा कर पढ़ना है, तो अलग बात है! हमने यह भी निर्णय किया कि हम उन दोनों को आगे चल कर यह बात बताएँगे कि दोनों दरअसल भाई बहन ही हैं। और हम दोनों, एक तरह से एक ही परिवार हैं।


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आभा के पहले जन्मदिन तक आते आते डेवी का स्वास्थ्य पूरी तरह से पहले जैसा हो गया। हमारी सेक्स लाइफ भी बिलकुल पहले जैसी हो गई - हाँ, बस, गर्भनिरोधकों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आभा तेजी से सीख रही थी - तोतली आवाज़ में कुछ की बुड़बुड़ करना, डगमगाते हुए चलना, लगभग हर प्रकार का भोजन करना, यह सब वो करने लगी थी। और तो और उसके सोने और जागने का समय भी काफी निर्धारित हो गया था, और इस कारण से हमको भी सोने जागने में दिक्कत नहीं होती थी। आभा सच में ईश्वर का प्रसाद थी, और हम उस जैसी पुत्री को पा कर वाकई धन्य हो गए थे! उसको देख देख कर देवयानी को अक्सर एक और बच्चा करने की तलब होने लगती - वो यही सोचती कि अगला बच्चा भी आभा के ही जैसा होगा। लेकिन मैं उसकी इस तलब को जैसे तैसे, समझा बुझा कर शांत करता। सबसे पहला प्रश्न था उसकी सेहत का, फिर प्रश्न था दोनों बच्चों की उम्र के बीच में समुचित अंतर का, और तीसरा प्रश्न था कि सभी बच्चे एक समान नहीं होते।

ऐसा नहीं था कि मुझे और बच्चों की इच्छा नहीं थी, लेकिन देवयानी की सेहत सर्वोपरि थी। मैं उसको समझाता कि कैसे मेरे माँ और डैड ने केवल मुझे ही पाल पोस कर बड़ा किया था। और देखो, वो दोनों कैसे जवान और खुश दिखते थे! डेवी को यह बात समझ आ जाती थी। आखिर कौन लड़की जवान नहीं दिखना चाहती?


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ससुर जी ने किसी प्रेरणावश रिटायरमेंट के इतने साल बाद अपनी एक सॉफ्टवेयर से सम्बंधित कंपनी शुरू करी। उनको सॉफ्टवेयर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इतने लम्बे समय तक आई ए एस ऑफिसर होने के कारण, उनकी महत्वपूर्ण जगहों पर अच्छी जान पहचान थी। बिज़नेस के लिए जान पहचान बहुत ही आवश्यक वस्तु होती है। छोटी सी कंपनी और बहुत ही आला दर्ज़े का काम। दरअसल उनके पास समय ही समय था, और पैसा भी था। तो सोचा कि क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाए! दिल्ली में वैसे भी स्किल की कमी नहीं थी। बढ़िया इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स आसानी से उपलब्ध थे। मैं भी इसी क्षेत्र से सम्बंधित था, लिहाज़ा मैं उनकी अक्सर ही मदद करता रहता।

वो मुझको कहते कि पिंकी तो बढ़िया कर ही रही है, तो क्यों न मैं उनके साथ लग जाऊँ और कंपनी के मालिक के जैसे उसको चलाऊँ। अपना काम है। तरक्की होगी। लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार से आने के कारण अपना बिज़नेस करने में डर लगता था। नौकरी एक सुरक्षित ऑप्शन था। वैसे भी कमाई अच्छी हो रही थी, इसलिए ‘तनख़्वाह’ से प्रेम हो गया था। तो मैं उनको कहता कि मैं आपकी सहायता करूँगा। जब एक ढंग के लेवल तक पहुँच जाएगी कंपनी, तो मैं फॉर्मली ज्वाइन कर लूँगा।

देवयानी से जब इस बाबत बातचीत करी, तो वो बहुत सपोर्टिव तरीके से पेश आई। बात तो सही थी - उसकी सैलरी बढ़िया थी, और तो और, उसके पास अपना एक बड़ा घर था (शादी से पहले यह बात मुझे मालूम नहीं थी)! तो अगर मैं स्ट्रगल करना चाहता था, तो यह बढ़िया समय था। मेरी उम्र तक तो लोगों की नौकरी नहीं लगती - और मेरे पास इतने सालों का एक्सपीरियंस भी हो गया था। वैसे भी ससुर जी की कंपनी ख़राब काम नहीं कर रही थी - प्रॉफिट नहीं था, तो बहुत नुकसान भी नहीं हो रहा था। और कुछ लोगों को बढ़िया रोज़गार मिल रहा था, सो अलग!

फिर भी मेरे मन में हिचक थी। सैलरी का मोह ऐसे नहीं जाता। वैसे भी काम और आभा को ले कर इतनी व्यस्तता रहती कि मैं पूरी तरह से अपने बिज़नेस में लिप्त नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने उनसे ठीक से सोचने के लिए मोहलत मांगी। ससुर जी को कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी सब बातें समझते थे, इसलिए उन्होंने कोई ज़ोर नहीं दिया। हाँ - लेकिन मेरा उनके बिज़नेस में दखल बदस्तूर जारी रहा। बिज़नेस से सम्बंधित कई सारे महत्वपूर्ण निर्णय मैं ही लेता था।


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बहुत ही बढ़िया
रॉबिन और आभा को गॉड पेरेंट्स मिल गए
हर एक अनुभूति को बखूबी प्रस्तुत किया है
जीवन को फिर से पटरी पर आ गई है
आपने ससुर जी की पोस्ट रिटायर्मेंट जीवन को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान देना अच्छी बात है l
 
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Kala Nag

Mr. X
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नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #6


एक बार की बात है - आभा की नींद रात में तीन बार टूटी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। डेवी थकी हुई होने के कारण सोती रही। मैंने भी उसको बोल कर सुला दिया और बच्ची को अपने सीने से लगाए पूरे घर भर में घूम घूम कर सुलाता रहा। अंततः उसको नींद आ ही गई। तब कहीं जा कर मैं भी आराम से बिस्तर पर आ कर, सिरहाने पर तकिया लगा कर आधा लेट गया। आभा मेरे सीने पर ही सोती रही - सवेरे तक। न तो वो एक बार भी रोई और न ही उसको भूख लगी - बस वो शांति से सोती रही। शायद मेरे शरीर की गर्मी, और मेरे दिल की धड़कन की आवाज़ से उसको आराम मिल रहा हो। इतनी नन्ही सी जान, लेकिन उसको इस तरह देख कर किसी का भी दिल पसीज जाए। उसको आराम से सोता हुआ देख कर मैं भी चैन से सो गया।

जब सवेरे उठा तो देखा देवयानी हम दोनों को बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में देख रही थी।

“ठीक से सोए मेरे जानू?” उसने मुझे चूमते हुए कहा, “हाऊ डिड यू कीप फ्रॉम मूविंग?” उसने फिर आभा के सर को चूमा।

“पता नहीं यार! सच में इसको इस तरह से सीने से लगा कर सोने में क्या अच्छी नींद आती है!”

“हा हा हा! ये इस बात में अपनी मम्मी पर गई है! जैसे उसकी मम्मी उसके पापा के सीने पर सर रख कर गहरी नींद सो जाती है, वैसे ही ये भी है, लगता है!”

“आअह! फिर तो मुश्किल हो जाएगी!”

“वो क्यों?”

“हमारी बिटिया तो सोएगी मेरे सीने पर! मतलब तुम मेरे पेट पर सो जाना!”

“हा हा हा हा! पेट पर! तुम्हारे पेट से जैसी जैसी आवाज़ें आती हैं, वो सब सुन कर मुझे जो नींद आनी होगी, वो भी उड़ जाएगी!”

उस दिन के बाद से आभा को रात में सुलाने का जिम्मा मेरा हो गया। वो मेरे सीने से ही लग कर सोती, और देर तक सोती। कम से कम डेवी को इस कारण से थोड़ी राहत मिल जाती। दिन भर वो वो ही उसको देख रही होती। मन में एक डर सा लगा रहता कि बच्ची कहीं गिर न जाए, दब न जाए, लेकिन वैसा कभी हुआ नहीं।


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आभा के जन्म के लगभग कोई पाँच सप्ताह बाद हमको गेल और मरी का कॉल आया कि उनके घर बेटा हुआ है। वो बिलकुल स्वस्थ था, और अपनी माँ के जैसा दिखता था। मैं और डेवी इस खबर से बहुत खुश हुए। अच्छा लगा कि दो बेहद अच्छे लोगों के मन की आस पूरी हो गई है। उन्होंने हमको फिर से न्योता दिया कि हम दोनों फ्राँस आएँ। वो बच्चे का बप्तीस्म तब करना चाहते थे जब हम वहाँ पर हों, जिससे कि हम दोनों को उस बच्चे का गॉड पेरेंट्स बनाया जा सके। मैंने और डेवी ने वायदा किया कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ आने की कोशिश करेंगे।


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डेवी का डिलीवरी के बाद स्वास्थ्य लाभ भी बड़ी तेजी से हुआ। माँ के जन्मदिन और हमारी शादी की सालगिरह तक आते आते देवयानी लगभग पहले जैसी ही लगने लगी। हाँ, उसके स्तन थोड़ा बड़े अवश्य हो गए थे, लेकिन पेट और नितम्ब पर जो अतिरिक्त वसा थी, वो अब नहीं थी। अभी पिछले ही महीने से हमने पहले की ही भांति प्रतिदिन सम्भोग करना शुरू कर दिया था। आभा एक प्यारी सी बच्ची थी, लेकिन फिलहाल दूसरा बच्चा हम दोनों को ही नहीं चाहिए था। तीन साल तक नहीं। इसलिए पहली बार मैंने प्रोटेक्शन का इस्तेमाल करना शुरू किया था। अभी भी उसके पास लगभग दो महीने की हॉफ पे मैटरनिटी लीव थीं। लेकिन लग रहा था कि थोड़ा जल्दी ही जोइनिंग हो सकती है। उसके पहले हमने निर्णय लिया कि कुछ दिन माँ और डैड के साथ बिता कर, और फ्राँस घूम कर वापस आ जाएँगे। फिर डेवी ऑफिस में काम फिर से शुरू कर सकती है।

तो इस बार माँ के जन्मदिन पर हम तीनों डैड के घर गए। इतने लम्बे अर्से के बाद मैं उनके घर आया था - थोड़े बहुत परिवर्तन तो थे, लेकिन घर अभी भी वैसा ही था। डैड ने एक और कमरा बनवा लिया था - क्योंकि अब सारे कमरों में कोई न कोई होता था। मेहमानों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनको आवश्यक लगा कि एक और कमरा चाहिए। पाँचवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद, उनका वेतन बढ़ गया था, और पिछली बकाया राशि भी मिली थी। इसलिए उनका हाथ खर्चा करने में थोड़ा खुल गया था। फ़िज़ूलखर्च नहीं, बस, अपने आराम के लिए आवश्यक ख़र्च करने में अब उनको सोचना नहीं पड़ रहा था। उसके बाद से घर में कोई परिवर्तन नहीं आया।

थी तो हमारी शादी की सालगिरह भी उसी दिन, लेकिन उस दिन को हमने माँ के जन्मदिन के रूप में मनाया। पूरे पर्व का डेवी और मैंने ही आयोजन किया था। माँ कह रही थीं कि यह सब करने की क्या ज़रुरत है, लेकिन बात दरअसल यह थी कि अगर ख़ुशी है, तो उसका इज़हार करने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए? और ख़ुशी तो हम सभी को भरपूर थी। उसी दिन सवेरे आभा का मुंडन करवा दिया गया। ज्यादातर बच्चे बाल कटने पर रोने धोने लगते हैं। लेकिन आभा उसमें भी खुश थी और रह रह कर मुस्कुरा रही थी। उसको जब कुछ फनी सा लगता तो रोने जैसा मुंह बना लेती, लेकिन रोई एक बार भी नहीं। सर के बाल गायब होने के बाद वो और भी क्यूट, और भी लड्डू जैसी लगने लगी। अब तो वो हर तरह से गोल गोल लगती। बच्चे शायद इसलिए बहुत प्यारे से लगते हैं कि जो भी लोग उनको देखें, वो उनसे प्यार करें। उनका नुकसान न करें। तो प्यारा दिखना, एक तरह का सर्वाइवल स्किल है बच्चों का! खैर जो भी हो, मुंडी हो कर आभा और भी अधिक प्यारी लगने लगी थी।

शाम को भोज का आयोजन किया गया। उसमें हमने माँ और डैड - दोनों के मित्रों को आमंत्रित किया था। कितने ही सालों बाद कस्बे के बहुत से पुराने जान पहचान वालों से मिलने का मौका मिला था मुझे। इसलिए अच्छा भी बहुत लगा।


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माँ और डैड के यहाँ से वापस आने के एक सप्ताह बाद हमारा फ्राँस जाने का प्रोग्राम था। बहुत डर लग रहा था कि एक नन्ही सी बच्ची के साथ इतना लम्बा सफर कैसे करेंगे! उसके पहले मैं जब भी हवाई जहाज़ में यात्रा करता था, तो किसी नन्हे बच्चे को देख कर मेरा दिल बैठ जाता था कि ‘भई, गए काम से’! पक्की बात थी कि बच्चा पूरी यात्रा भर पेंपें कर के चिल्लाता रहेगा, और हम सबकी जान खाएगा। डर इस बात का था कि मम्मी-पापा बनने के बाद बाकी लोग भी हमारे बारे में यही सोचेंगे, और हमारी बच्ची भी बाकी बच्चों के जैसे पेंपें कर के रोएगी। लेकिन घोर आश्चर्य कि बात यह थी कि आभा लगभग न के बराबर रोई। एक बार तब जब केबिन प्रेशर थोड़ा कम हो गया तो बेचारी के कान में दर्द होने लगा - हम सभी के कान में दर्द हो रहा था। और दूसरी बार तब जब उसका नैपी पूरी तरह से ग़ैर-आरामदायक हो गया था। बस! वरना पूरे समय वो हंसती खेलती रही, और अपने पड़ोसियों का भी मन बहलाती रही। आभा इतनी खुशमिज़ाज़ बच्ची थी कि जिसको मन करता, वो उसको अपनी गोदी में उठा कर इधर उधर घुमा कर ले आता - क्या एयर होस्टेस, और क्या यात्री!

हमारी फ्रांस की यात्रा दस दिनों की थी। उसके बाद एक हफ्ते का आराम, और फिर डेवी वापस ऑफिस ज्वाइन कर लेती। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, गेल और मरी, नीस नामक शहर में रहते हैं। नीस भूमध्य-सागर के किनारे पर बसा हुआ एक बहुत ही सुन्दर शहर है, और शायद फ्राँस के सबसे अधिक घने बसे शहरों में से एक है। ऐसा नहीं है कि बहुत ही कलात्मक शहर है - बस, जिस सलीके से, जिस तमीज़ से शहर को रखा गया है, वो उसको सुन्दर बना देता है। एक पहाड़ी है - माउंट बोरॉन कर के - वहाँ से फ्रेंच रिवेरा का नज़ारा साफ़ दिखाई देता है। बहुत ही सुन्दर परिदृश्य! वहाँ से ऐल्प्स पर्वत-श्रंखला को भूमध्यसागर से मिलता हुआ देखा जा सकता है। सड़कों और गलियों के दोनों तरफ छोटे छोटे घर! बड़े सुन्दर लगते हैं। हवाई जहाज़ से नीचे उतरते समय भी अंदर बैठे यात्री ‘वाओ’ ‘वाओ’ कह कर आहें भर रहे थे।

हमको एयरपोर्ट पर लेने गेल और मरी दोनों आए थे। उनका बेटा घर पर ही पार्ट-टाइम नैनी के साथ था, जो उसकी देखभाल करती थी। उनको देख कर हम दोनों ही बहुत खुश हुए! फ्रेंड्स फॉर लाइफ - हाँ, यही कहना ठीक होगा। हम अब एक दूसरे से इस तरह जुड़ गए थे, कि हमारे परिवारों का बंधन अटूट हो गया था। अवश्य ही हमारी जान पहचान कोई दस दिनों की ही थी, लेकिन उसकी गुणवत्ता बहुत अधिक थी।

इस पूरी यात्रा के लिए हम उन दोनों पर ही निर्भर थे। हमने उनको अपने टिकट और यात्रा का पूरा प्लान पहले ही बता रखा था, इसलिए उन्होंने बच्चे का बप्तीस्म हमारे आने के अगले ही दिन तय कर रखा था। हमारे पाठकों को शायद न मालूम हो, लेकिन किसी बच्चे के गॉड पेरेंट्स बनना बहुत ही सम्मान का विषय होता है। एक तरह से आप उस बच्चे के अघोषित माता-पिता ही होते हैं। ठीक है, मैं उस बच्चे का जैविक पिता था, लेकिन उन दोनों के कारण मुझे उसके जीवन में सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर मिल रहा था। मुझे उम्मीद थी कि मैं जैसा भी संभव हो सकेगा, उस बच्चे से प्रेम करूँगा।

गेल और मरी के लिए हम बहुत से उपहार ले कर आए हुए थे - उनमें से मरी के लिए साड़ी ब्लाउज, और गेल के लिए धोती कुर्ता। बहुत सम्मान और आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने वही परिधान बच्चे के बप्तीस्म के दिन भी पहना हुआ था। तो हम चारों जने, सौ प्रतिशत भारतीय परिधान में एक विदेशी मुल्क में बच्चे का बप्तीस्म कर रहे थे। चर्च में हम ही ऐसी अतरंगी पोशाक पहने हुए थे और दूर से ही साफ़ नज़र आ रहे थे। कोई हमको आश्चर्य से, तो कोई हमको मज़ाकिया अंदाज़ में देखता। खैर, दूसरों की परवाह हमने करी ही कब, जो आज करते? बेटे के साथ हमारी बेटी का भी बप्तीस्म कर दिया गया, और गेल और मरी ने हमारी ही तरह आभा का गॉड पेरेंट्स बनने की शपथ ली। उन्होंने पूछा कि हमने आभा का सर क्यों मुंडा कर दिया, तो हमने मुंडन के बारे में उनको बताया। तो उन्होंने भी निर्णय लिया कि अपने बेटे का मुंडन करवाएँगे। जो कुछ आभा का होगा, वो ही रॉबिन का होगा। हाँ - रॉबिन नाम था बेटे का। तो मैंने हँसते हुए उनको समझाया कि आभा का नाक और कान का छेदन होगा। कम से कम रॉबिन को वो मत करवाना।

रॉबिन में ज्यादातर मरी के फीचर्स आए हुए थे। वो उसी की ही तरह गोरा गोरा बच्चा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उसकी आँखों, उसकी नाक, और होंठ मेरे समान दिखते थे। मुझे मालूम है कि हमारे वहाँ आने पर वहाँ उपस्थित लोगों को हम चारों के सम्बन्ध के बारे में संदेह तो अवश्य ही हुआ होगा। ऐसे थोड़े ही कोई यूँ ही चला आता है, और वो भी इतनी आत्मीयता दिखाते हुए! लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं - कम से कम हमसे तो कुछ नहीं कहा। और कोई कुछ कहता भी तो क्या फ़र्क़ पड़ता? गेल और मरी अमेजिंग लोग थे, और उनको भी माता-पिता बनने का पूरा अधिकार था। और मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैं इस सन्दर्भ में उनकी कुछ मदद कर सका। लेकिन, आगे जो उन्होंने मेरी आभा के लिए किया, वो अद्भुत है। खैर, भविष्य की बातें, भविष्य के ही गर्भ में रहने देते हैं!

एक दूसरे को तोहफा देने में गेल और मरी भी कोई पीछे नहीं थे। वो भी हमारे लिए ढेर सारे उपहार लाए हुए थे - मतलब जितना हमने लाया हुआ था, उससे अधिक हमको मिला। देवयानी के लिए उन्होंने सबसे आधुनिक फैशन के कपड़े, जूते, और परफ़्यूम लाया था, मेरे लिए भी वही सब, और आभा के लिए तो पूरा सूटकेस भर के सामान था! पूरे दस दिन यूँ ही मौज मस्ती करने में बीत गया - हम दोनों के परिवार बहुत करीब आ गए और हमारे सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो गए। हमने उनसे वायदा लिया कि जब उनको लम्बी छुट्टी मिले, तो हमारे घर आ कर रहें। हमारे साथ समय बिताएँ। उन्होंने भी वायदा किया कि वो अवश्य ही फिर से भारत आएँगे।


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सुनील ने इंटरमीडिएट में नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त किए थे। लेकिन वो उसका लक्ष्य नहीं था। उसका लक्ष्य था इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाएँ। जब उनका रिजल्ट आया, तो पता चला कि सुनील ने जे-ई-ई में बढ़िया रैंक पाई है! कौन्सेलिंग में उसको खड़गपुर में दाखिला मिला। अंततः काजल का, मेरा, और माँ और डैड का सपना पूरा हो ही गया! आनंद ही आनंद!

टॉप रैंक में होने के कारण उसको स्कॉलरशिप भी मिली थी, और इकोनॉमिकली वीक सेक्शन से आने के कारण उसको एक अलग तरह का वजीफ़ा मिला था, जिसमें उसको पढ़ने की किताबें, और रहने सहने का ख़र्च भी सम्मिलित था। कुल मिला कर उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हमारी तरफ से शायद ही कोई खर्चा आता। मैंने और देवयानी ने उससे वायदा किया था कि अगर उसका दाखिला आई आई टी में हो जाता है, तो हम उसको एक डेस्कटॉप उपहार स्वरुप देंगे। तो मैं उसके साथ ही खड़गपुर गया, और जब वो हॉस्टल के रूम एलोकेशन की लाइन में धक्के खा रहा था, तब मैं एक लोकल वेंडर से बातें कर के उसके लिए एक कंप्यूटर की व्यवस्था कर रहा था।

आठ वर्षों पहले की बातें याद हो आईं! तब मैं भी इसी तरह इंजीनियरिंग स्टूडेंट बन कर दाखिल हो रहा था, और जब वहाँ से बाहर आया तो एक अनोखी दुनिया मेरे सामने कड़ी थी। मुझे उम्मीद थी कि सुनील को भी वैसा ही अनुभव मिले। उसका जीवन भी सम्पन्न और समृद्ध और सुखी हो। उसको कंप्यूटर, और ढेर सारा आशीर्वाद दे कर मैं वापस दिल्ली आ गया।


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उन दिनों आज कल के जैसे हाफ़ बर्थडे, फुल बर्थडे मनाने का चलन नहीं था। केवल जन्मदिन ही मनाया जाता था। आभा का पहला जन्मदिन बेहद यादगार था। मुझे भी उसके कुछ दिनों पहले ही एक प्रमोशन मिला था और देवयानी अब तक अपने काम में वापस रंग गई थी। हमारी नई कामवाली कुशल थी, और भरोसेमंद थी। उसकी देख रेख में आभा स्वस्थ थी। हम या तो केवल काम करते, या फिर घर आ कर आभा की देखभाल करते। ऐसा ही जीवन हो गया था लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं थी। अपने बच्चे के लिए कुछ भी करना मंज़ूर था। तो अवश्य ही मेरी दोनों शादियाँ बिना किसी चमक धमक के थीं, लेकिन आभा का पहला जन्मदिन पूरे उत्साह और तड़क भड़क वाला था। हम दोनों ही बढ़िया कमा रहे थे, तो अपनी संतान से सम्बंधित कार्यों पर न खर्च करें, तो किस पर करें? लेकिन एक साल की बच्ची को इन सब बातों का कोई बोध नहीं होता। वो अपने में ही मगन रहते हैं। शायद उसको, और उसके जितनी उम्र के बच्चों को छोड़ कर, बाकी सभी ने बहुत मौज मस्ती करी। देवयानी अभी भी उसको स्तनपान कराती थी इसलिए वो मदिरा नहीं पीती थी। और जिस उत्साह से डेवी को ब्रेस्टफीडिंग कराने में आनंद आता था, वो देख कर मुझे पक्का यकीन था कि आभा खुद ही पीना छोड़ दे, तो छोड़ दे, वरना डेवी तो जब तक संभव है, उसको अपना दूध पिलाती रहेगी। आनंदमय दिन था वो! यादगार!

ख़ुशी और भी अधिक बढ़ गई जब गेल और मरी ने फ्रांस से एक बड़ा सा गिफ्ट का डब्बा आभा के लिए भेजा। उन्होंने तब से ले कर आभा के प्रत्येक जन्मदिन पर उपहार दिया है, और हमने भी। रॉबिन भी तेजी से बढ़ रहा था - वो एक स्वस्थ और स्ट्रांग बच्चा था - बिलकुल अपनी ‘बहन’ के जैसा!

एक बार यूँ ही मज़ाक मज़ाक में बात निकल आई कि कितना अच्छा हो अगर आगे चल कर ये दोनों बच्चे एक साथ, एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर सकें। बात मज़ाक में ही हुई थी, लेकिन डेवी को यह बात बहुत जँच गई। गेल और मरी ने कहा कि उनका घर भी आभा का घर है, और अगर संयोग बैठता है, तो अवश्य ही वो उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर सकती है फ्राँस में। हाँ, कहीं और जा कर पढ़ना है, तो अलग बात है! हमने यह भी निर्णय किया कि हम उन दोनों को आगे चल कर यह बात बताएँगे कि दोनों दरअसल भाई बहन ही हैं। और हम दोनों, एक तरह से एक ही परिवार हैं।


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आभा के पहले जन्मदिन तक आते आते डेवी का स्वास्थ्य पूरी तरह से पहले जैसा हो गया। हमारी सेक्स लाइफ भी बिलकुल पहले जैसी हो गई - हाँ, बस, गर्भनिरोधकों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आभा तेजी से सीख रही थी - तोतली आवाज़ में कुछ की बुड़बुड़ करना, डगमगाते हुए चलना, लगभग हर प्रकार का भोजन करना, यह सब वो करने लगी थी। और तो और उसके सोने और जागने का समय भी काफी निर्धारित हो गया था, और इस कारण से हमको भी सोने जागने में दिक्कत नहीं होती थी। आभा सच में ईश्वर का प्रसाद थी, और हम उस जैसी पुत्री को पा कर वाकई धन्य हो गए थे! उसको देख देख कर देवयानी को अक्सर एक और बच्चा करने की तलब होने लगती - वो यही सोचती कि अगला बच्चा भी आभा के ही जैसा होगा। लेकिन मैं उसकी इस तलब को जैसे तैसे, समझा बुझा कर शांत करता। सबसे पहला प्रश्न था उसकी सेहत का, फिर प्रश्न था दोनों बच्चों की उम्र के बीच में समुचित अंतर का, और तीसरा प्रश्न था कि सभी बच्चे एक समान नहीं होते।

ऐसा नहीं था कि मुझे और बच्चों की इच्छा नहीं थी, लेकिन देवयानी की सेहत सर्वोपरि थी। मैं उसको समझाता कि कैसे मेरे माँ और डैड ने केवल मुझे ही पाल पोस कर बड़ा किया था। और देखो, वो दोनों कैसे जवान और खुश दिखते थे! डेवी को यह बात समझ आ जाती थी। आखिर कौन लड़की जवान नहीं दिखना चाहती?


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ससुर जी ने किसी प्रेरणावश रिटायरमेंट के इतने साल बाद अपनी एक सॉफ्टवेयर से सम्बंधित कंपनी शुरू करी। उनको सॉफ्टवेयर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इतने लम्बे समय तक आई ए एस ऑफिसर होने के कारण, उनकी महत्वपूर्ण जगहों पर अच्छी जान पहचान थी। बिज़नेस के लिए जान पहचान बहुत ही आवश्यक वस्तु होती है। छोटी सी कंपनी और बहुत ही आला दर्ज़े का काम। दरअसल उनके पास समय ही समय था, और पैसा भी था। तो सोचा कि क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाए! दिल्ली में वैसे भी स्किल की कमी नहीं थी। बढ़िया इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स आसानी से उपलब्ध थे। मैं भी इसी क्षेत्र से सम्बंधित था, लिहाज़ा मैं उनकी अक्सर ही मदद करता रहता।

वो मुझको कहते कि पिंकी तो बढ़िया कर ही रही है, तो क्यों न मैं उनके साथ लग जाऊँ और कंपनी के मालिक के जैसे उसको चलाऊँ। अपना काम है। तरक्की होगी। लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार से आने के कारण अपना बिज़नेस करने में डर लगता था। नौकरी एक सुरक्षित ऑप्शन था। वैसे भी कमाई अच्छी हो रही थी, इसलिए ‘तनख़्वाह’ से प्रेम हो गया था। तो मैं उनको कहता कि मैं आपकी सहायता करूँगा। जब एक ढंग के लेवल तक पहुँच जाएगी कंपनी, तो मैं फॉर्मली ज्वाइन कर लूँगा।

देवयानी से जब इस बाबत बातचीत करी, तो वो बहुत सपोर्टिव तरीके से पेश आई। बात तो सही थी - उसकी सैलरी बढ़िया थी, और तो और, उसके पास अपना एक बड़ा घर था (शादी से पहले यह बात मुझे मालूम नहीं थी)! तो अगर मैं स्ट्रगल करना चाहता था, तो यह बढ़िया समय था। मेरी उम्र तक तो लोगों की नौकरी नहीं लगती - और मेरे पास इतने सालों का एक्सपीरियंस भी हो गया था। वैसे भी ससुर जी की कंपनी ख़राब काम नहीं कर रही थी - प्रॉफिट नहीं था, तो बहुत नुकसान भी नहीं हो रहा था। और कुछ लोगों को बढ़िया रोज़गार मिल रहा था, सो अलग!

फिर भी मेरे मन में हिचक थी। सैलरी का मोह ऐसे नहीं जाता। वैसे भी काम और आभा को ले कर इतनी व्यस्तता रहती कि मैं पूरी तरह से अपने बिज़नेस में लिप्त नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने उनसे ठीक से सोचने के लिए मोहलत मांगी। ससुर जी को कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी सब बातें समझते थे, इसलिए उन्होंने कोई ज़ोर नहीं दिया। हाँ - लेकिन मेरा उनके बिज़नेस में दखल बदस्तूर जारी रहा। बिज़नेस से सम्बंधित कई सारे महत्वपूर्ण निर्णय मैं ही लेता था।


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बहुत ही बढ़िया
रॉबिन और आभा को गॉड पेरेंट्स मिल गए
हर एक अनुभूति को बखूबी प्रस्तुत किया है
जीवन को फिर से पटरी पर आ गई है
आपने ससुर जी की पोस्ट रिटायर्मेंट जीवन को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान देना अच्छी बात है l
अंतराल - त्रिशूल - Update #1


जब हम प्रसन्न होते हैं, तरक्की करते हैं, सुखी रहते हैं, तो ऐसा लगता है कि दिन पंख लगा कर उड़े जाते हैं! हमारी शादी को हुए दो साल हो गए, और कुछ ही महीनों में आभा भी दो साल की हो गई। मस्त, चंचल, और बहुत ही सुन्दर सी, प्यारी सी बच्ची! गुड़िया जैसी बिलकुल! मीठी मीठी बोली उसकी। पहले तो हम सभी निहाल थे ही, अब तो और भी हो गए थे। प्यारी प्यारी, भोली भली अदाएँ दिखा दिखा कर आभा हम सबको अपना मुरीद बनाये हुए थी। हमने इस अंतराल में बहुत ही कम छुट्टियाँ ली थीं, और ऑफिस में भी दिसंबर की तरफ आते आते काम कम जाता था।

इसलिए हमने निर्णय लिया कि इस बार विदेश यात्रा पर चलते हैं। कहाँ चलें? यह तय हुआ कि ऑस्ट्रेलिया जायेंगे! ऑस्ट्रेलिया सुनने पर लगता है पूरा देश घूम लेंगे! लेकिन ऑस्ट्रेलिया देश नहीं, एक पूरा महाद्वीप है! पूरा ऑस्ट्रेलिया घूमने के लिए महीनों लग जाएँ! तो हम ऑस्ट्रेलिया में क्वीन्सलैण्ड गए। क्वीन्सलैण्ड ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्व में स्थित एक बड़ा राज्य है। और विश्व विख्यात ‘ग्रेट बैरियर रीफ़’ यहीं स्थित है!

क्वीन्सलैण्ड की सामुद्रिक तट रेखा कोई सात हज़ार किलोमीटर लम्बी है! समुद्र और सामुद्रिक जीवन के जो नज़ारे वहाँ देखने को मिलते हैं, पृथ्वी पर और कहीं संभव ही नहीं! सचमुच - ऐसा लगता है कि जैसे जादुई सम्मोहन है समुद्र में! असंख्य छोटे छोटे, बड़े बड़े टापू, साफ़, सफ़ेद रेत, नारियल के झूमते हुए पेड़, साफ़ समुद्र, रंग बिरंगे कोरल, असंख्य मछलियाँ, व्हेल, डॉलफिन, सील, नानाप्रकार के जीव जंतु, और ट्रॉपिकल रेन-फारेस्ट! ओह, लिखने बैठें, तो पूरा ग्रन्थ लिख सकते हैं क्वीन्सलैण्ड पर! भारत में हमने जंगल देखे हुए थे और हमको नहीं लगता था कि बाघ या हाथी को देखने जैसा रोमांचक अनुभव और कहीं मिल सकता है, इसलिए हमने केवल समुद्र पर फोकस किया।

अंडमान की ही भांति, हमने क्वीन्सलैण्ड में स्कूबा-डाइविंग का अनुभव किया। क्योंकि ग्रेट बैरियर रीफ एक संवेदनशील स्थान है, तो हम जैसे नौसिखिया डाइवर्स एक सुनिश्चित स्थान पर ही डाइव करते हैं। लेकिन वो छोटी सी जगह भी इतनी सुन्दर है कि क्या कहें! उम्र भर वो चित्र, वो अनुभव दिमाग में ताज़ा रहेंगे! चूँकि मैं और डेवी, दोनों को ही तैराकी का अनुभव था, और हम दोनों को ही उसमें आनंद आता था, इसलिए हमको बहुत ही मज़ा आया! आभा को भी होटल के पूल में पहली बार तैरने का अनुभव दिया। उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। अपनी टूटी फूटी भाषा में उसने बताया कि उसको बहुत मज़ा आ रहा है। दिल खुश हो गया कि मेरी बिटिया को भी तैराकी सीखने और तैराकी करने में मज़ा आएगा!

लोग ऑस्ट्रेलिया का नाम सुन कर तुरंत ही कंगारूओं के बारे में सोचने लगते हैं। लेकिन सच में, वहां के लोग कंगारूओं को सर का दर्द समझते हैं। जैसे हमारे यहाँ नीलगाय खेती का आतंक है, वैसे ही कंगारू आतंक हैं। खेती में, और सड़क पर भी! न जाने कितने ही एक्सीडेंट्स होते हैं उनके कारण। इसलिए कई स्थानों पर कंगारू का मीट खाया जाता है (अभी भी खाते हैं या नहीं - कह नहीं सकता! यह सब थोड़ा पुरानी बातें हैं)! खैर, कुल मिला कर हमारा दो हफ़्तों का ऑस्ट्रेलिया भ्रमण बहुत ही आनंद-दायक रहा।


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इसी बीच ऐसी घटना हो गई जिसकी उम्मीद नहीं थी। काजल की अम्मा की तबियत कुछ अधिक ही खराब हो गई। वो अकेली ही रहती थीं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी नहीं था। जिन पुत्रों की चाह में उन्होंने जीवन स्वाहा कर दिया, जिनकी पढाई लिखाई में उन्होंने अपना सर्वस्व आग में झोंक दिया, वही लड़के (पुत्र) उनकी ज़रुरत पड़ने पर उनको लात मार कर आगे चल दिए। काजल ने जब यह सुना, तो वो पूरी तरह से घबरा गई। उसने निर्णय लिया कि वो अपनी अम्मा की सेवा करने वहां, अपने गाँव चली जाएगी। लेकिन इस बात का लतिका की पढ़ाई लिखाई पर बहुत ही बुरा असर पड़ता - गाँव में कोई ढंग का स्कूल नहीं था। यहाँ वो अच्छा सीख रही थी, लेकिन वहां उसका न जाने क्या होता! और फिर खान पान, रहन सहन - हमारी मेहनत पर पानी फिरने वाला था।

लेकिन फिर सवाल तो काजल की माँ का था। माँ तो एक ही होती है। भले ही कैसी भी हो? और फिर काजल का तो दिल ही ऐसा था कि वो हम जैसे लोगों के लिए, जिनसे उसका न तो कोई नाता था, और न ही कोई सम्बन्ध, भागी भागी चली आई थी, तो अपनी माँ के लिए तो उसको जाना ही जाना था। माँ का दिल टूट गया - काजल से आत्मीयता तो थी ही, लेकिन लतिका के साथ उनका जो सम्बन्ध था, वो माँ बेटी से कैसे भी कम नहीं था। लेकिन अपनी बेटी के बगैर काजल वहाँ जाती भी तो कैसे? और माँ और डैड किस अधिकार से उसको या लतिका को अपने पास रोक पाते?

लिहाज़ा, काजल अचानक ही अपने गाँव चली गई। ऐसा नहीं है कि उसको इस बात में कोई आनंद आ रहा था, लेकिन वो भी क्या करती? संतान का दायित्व, संतान का कर्तव्य तो निभाना ही था न उसको! यह हमारे ऑस्ट्रेलिया से वापस आने के कुछ हफ़्तों बाद की बात है। मैंने भी एक दो बार काजल को रुक जाने को कहा, और उसको समझाया कि उसकी अम्मा को यहाँ दिल्ली ले आते हैं। वहां अच्छे अस्पताल में उनकी देखभाल हो सकती है। लेकिन काजल ने कहा कि उनका मरना निश्चित है, और वो अपने गाँव में ही अपना दम तोड़ना चाहती थी। अब इस बात पर हम क्या ही कर सकते थे?


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इतने सालों की आनाकानी के बाद अंततः मैंने निश्चय कर ही लिया कि मैं ससुर जी की कंपनी में बतौर सी ई ओ ज्वाइन करूँगा। कंपनी का काम पटरी पर था, और एक जानकार निर्देशन में वो बहुत फल फूल सकती थी। ऐसे में मुझे कोई कारण नहीं दिख रहा था कि मैं क्यों न वहां काम करूँ। देवयानी मेरे निर्णय पर बहुत खुश हुई, और उसने मुझे बहुत बधाइयाँ भी दीं। ससुर ही ने मेरे ज्वाइन करते ही कंपनी छोड़ दी। उन्होंने रिटायरमेंट में थोड़ा व्यस्त रहने के लिए यह काम शुरू किया था, लेकिन अब जब मैं आ गया था, तब उनको बिना वजह मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ ही दिनों में उन्होंने कंपनी भी मेरे नाम कर दी।

काम बहुत ही व्यस्त करने वाला था। लेकिन बड़ा ही सुकून भी था। अपना काम था, अपने तरीके से किया जा सकता था। नेटवर्क भी इतना बढ़िया था कि शुरुवाती दौर में छोटे छोटे प्रोजेक्ट और कॉन्ट्रैक्ट बड़ी आसानी से मिल रहे थे। उनके दम पर मैंने बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करना शुरू किया, और जल्दी ही कंपनी ने प्रॉफिट देना शुरू कर दिया। मुझको कंपनी से कोई लाभ या वेतन नहीं मिल रहा था - घर का खर्च इत्यादि सब देवयानी की सैलरी पर ही निर्भर था। किसी नए धंधे में तुरंत ही वेतन नहीं लिया जा सकता। सब कुछ री-इन्वेस्ट किया जाता है। तो फिलहाल वही चल रहा था। लेकिन कंपनी का वैल्युएशन हर तिमाही में बढ़ता जा रहा था। प्रॉफिटेबल वेंचर होने के अपने लाभ तो हैं!


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मैं अपने व्यवसाय में बस रमा ही था कि एक दिन अचानक ही देवयानी ने कहा कि कुछ दिनों से न जाने क्यों उसको खाने पीने का मन नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं था कि मैंने उसमें यह परिवर्तन नहीं देखा - अवश्य देखा। वो थोड़ी थकी थकी सी रहती, कम खाती! सोचा था कि शायद काम बढ़ा हुआ होने के कारण उसको यह अनुभव हो रहे हों। देवयानी ऐसी लड़की नहीं थी जो यूँ ही, आराम से एक जगह पर बैठी रहे। वो हमेशा से ही एक्टिव थी - शारीरिक रूप से भी, और मानसिक रूप से भी। और आभा के होने के बाद वो और भी एक्टिव हो गई थी। उसने पहले तो इसको सीरियस्ली नहीं लिया - बोली कि सर्दी जुकाम हुआ होगा। लेकिन जब मैंने और पूछा, तो वो बोली कि उसके स्टूल में भी थोड़े परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। यह शंका वाली बात थी।

मैंने उसको कहा कि एक बार डॉक्टर से मिल ले। लेकिन फिर बात आई गई हो गई। लेकिन एक रात जब वो पानी पीने के लिए बिस्तर से उठी, तो उसको चक्कर सा आ गया और वो वापस बिस्तर पर बैठ गई। अब ये बेहद शंका वाली बात थी। मैंने सवेरे उठते ही उसको डॉक्टर के पास ले जाने की ठानी। डेवी अभी भी ज़िद किये हुए बैठी थी कि शायद कम खाने से कमज़ोरी हो गई होगी, लेकिन सबसे घबराने वाली बात यह थी कि उसने दस दिनों में ठीक से खाना नहीं खाया था। मुझको अब बेहद चिंता होने लगी थी। कहीं पीलिया तो नहीं था?

डॉक्टर के यहाँ कई सारे टेस्ट, स्कैनिंग, और बाईओप्सी करि गईं। मैं सोच रहा था कि बिना वजह यह सब नौटंकी चल रही है। लेकिन जिस डॉक्टर की देख रेख में यह ‘नौटंकी’ चल रही थी, उसने कहा कि उसको थोड़ा डाउट है, और उसी के निवारण के लिए वो यह सभी टेस्ट करवा रहा है। मैंने पूछा कि क्या डाउट है, तो उसने बताया कि उसको शक है कि देवयानी के पेट में कोई ट्यूमर है। ट्यूमर? यह नाम सुनते ही मेरा दिल उछल कर मेरे गले में आ गया।

‘हे प्रभु, रक्षा करें!’

पूरा समय वो देवयानी से पूछता रहा कि उसको पेट में दर्द तो नहीं। और वो बार बार ‘न’ में उत्तर देती।

मैं ऊपर ऊपर हिम्मत दिखा रहा था, लेकिन मुझे मालूम है कि मेरी हालत खराब थी। प्रति क्षण मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि उसको कोई गंभीर रोग न हो!

फिर अल्ट्रासाउंड किया गया। उसमें साफ़ दिख रहा था कि देवयानी के पेट में सूजन थी, और उसका बाईल डक्ट जाम हो गया था! ट्यूमर तो था। इसी कारण से उसको भूख नहीं लग रही थी, और थकावट हो रही थी। बाईल डक्ट का जाम होना पैंक्रिअटिक कैंसर का चिन्ह है!

‘हे भगवान्!’

सी टी स्कैन में निश्चित हो गया कि ट्यूमर है, और पैंक्रियास में है। मतलब कैंसर है। पैंक्रिअटिक कैंसर, सभी कैंसरों में सबसे जानलेवा कैंसर है। अगर हो गया, तो मृत्यु लगभग निश्चित है।

‘यह सब क्या हो गया!’

पूरा दिमाग साँय साँय करने लगा। कोई क्या कह रहा है, क्यों कह रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पहले गैबी, और अब डेवी! ये तो अन्याय है भगवान्! सरासर अन्याय! ऐसा क्या कर दिया मैंने? इसको छोड़ दो प्रभु, मुझे ले लो। मेरी बच्ची की माँ छोड़ दो! उस नन्ही सी जान को किसके भरोसे छोड़ूँ? ऐसे मुझे बार बार बिना हमसफ़र के क्यों कर रहे हो प्रभु? ऐसे बार बार मुझे अनाथ क्यों बना रहे हो?

मैं दिखाने के लिए डेवी को हंसाने का प्रयास कर रहा था, लेकिन वो भी जानती थी कि मैं अंदर ही अंदर डर गया था। हमसफ़र से क्या छुपा रह सकता है भला? एकांत पा कर डेवी ने बड़े प्यार से मेरे गले में अपनी बाँहें डाल कर मेरे होंठों को चूमा, और कहा,

“मेरी जान, ये साढ़े तीन साल मेरी ज़िन्दगी के सबसे शानदार साल रहे हैं! मैं बहुत खुश हूँ! तुम गड़बड़ मत सोचो! मेडिकल फील्ड बहुत एडवांस्ड है! तुमको ऐसे नहीं छोडूँगी!”

वो यह सब कह तो रही थी, लेकिन मुझे उसकी बातों में केवल ‘अलविदा’ ही सुनाई दे रही थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। सारी मज़बूती धरी की धरी रह गई।

एक्स-रे में पता चला कि देवयानी के फेफड़ों के एक छोटे से हिस्से में कैंसर ट्यूमर के छोटे छोटे टुकड़े थे। मतलब यह स्टेज फोर कैंसर में तब्दील हो चुका था, और हमको मालूम भी नहीं चला! पैंक्रिअटिक कैंसर का इलाज स्टेज वन में हो जाय तो ठीक! स्टेज फोर का मतलब है, अब कुछ नहीं हो सकता।

इस बात पर मेरा दिल डूब गया। ऐसा लगा कि जैसे मुझे दिल का दौरा हो जाएगा! मन हुआ कि देवयानी से पहले मैं ही मर जाऊँ। दोबारा यह दर्द, यह दुःख - अब यह सब झेलने की शक्ति नहीं बची थी।

‘यह सब कैसे हो गया?’

‘फिर से!’

देवयानी ने इतने सालों में शराब की एक बूँद तक नहीं छुई थी। न ही वो सिगरेट पीती थी। वो नियमित व्यायाम करती थी, और तंदरुस्त थी। फिर भी! कैसे? अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह गया था। स्टेज फोर कैंसर! ओह प्रभु!

केवल एक ही दिन में मेरी हंसती खेलती दुनिया तहस नहस हो गई थी।

किस्मत ने कैसी क्रूरता दिखाई थी मेरे साथ! फिर से! जब लगा कि ज़िन्दगी पटरी पर आ गई, तब ऐसी दुर्घटना!!

काश कि ऊपर वाला मुझे उठा ले, लेकिन मेरी देवयानी को बख़्श दे! मेरी बच्ची को उसकी माँ के स्नेह से वंचित न होने दे! ओह प्रभु, प्लीज! मुझे देवयानी की बहुत ज़रुरत है! उसको वापस मत लो!


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सच कहूँ - ये पूजा प्रार्थना - यह सब मन बहलाने का साधन है। कुछ नहीं होता इन सब से। जीवन पर मनुष्य का कोई वश नहीं होता - और यह बात ही परम सत्य है। हमको लगता है कि यह सब कर के हम खुद को जीवन की मार से बचा सकते हैं। लेकिन नहीं! कुछ नहीं होता - केवल क्षणिक मन बहलाव के अतिरिक्त!

देवयानी का कैंसर के साथ संघर्ष बेहद दुर्धुर्ष था। डॉक्टरों ने सुझाया कि ऑपरेशन कर के ट्यूमर तो हटाया जा सकता है, लेकिन स्टेजिंग हो जाने के कारण कीमो-थेरेपी करनी ही पड़ेगी। लेकिन मरता क्या न करता! देवयानी को मालूम था कि यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। लेकिन उसने जब मेरी मरी हुई हालत देखी, तो उसने ऑपरेशन के लिए हाँ कह दिया। चौदह घंटे चले ऑपरेशन के बाद ट्यूमर तो हटा दिया गया। कम से कम वो अब ढंग से खा तो सकती थी! कभी सोचा नहीं था कि ऐसा कहने, ऐसा चाहने की नौबत भी आ सकती है।

इस ऑपरेशन के बाद, जब उसके शरीर ने थोड़ा रिकवर किया, तब कीमो-थेरेपी शुरू हो गई। पाठको को यह ज्ञात होना चाहिए कि कीमो-थेरेपी बेहद कठिन चिकित्सा होती है। शरीर को लुंज पुंज करने के लिए यह पर्याप्त होती है। बेचारी नन्ही सी बच्ची अपनी माँ को ऐसी छिन्न अवस्था में देखती, तो समझ न पाती कि उसकी माँ के साथ क्या हुआ है! लेकिन आभा हमारे जीवन की रौशनी थी - उसको देख कर चाहे मृत्यु भी सामने खड़ी हो, होंठों पर मुस्कान आ ही जाती। देवयानी भी मुस्कुरा देती। और मेरी आँखों से बस, आँसू ढलक जाते! दुर्धुर्ष संघर्ष!

डेवी समझ रही थी कि कुछ लाभ नहीं होना। लेकिन वो बेचारी मेरे और आभा के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी। उसको भी मेरे लिए, आभा के लिए जीने का मन था। लेकिन सब व्यर्थ सिद्ध हो रहा था। कभी कभी मन में यह प्रश्न उठता अवश्य है कि उसने ऐसा क्या किया कि वो ऐसे झेले! शायद मुझसे शादी करने का गुनाह! और क्या कहा जा सकता है? मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी दलदल में फंस गया हूँ, और वो मुझे धीरे धीरे लील रहा है! डेवी मर रही थी, और उसके साथ हर दिन, हर पल मैं मर रहा था। खुद को काम में व्यस्त रख कर मैं दुःख की तरफ पीठ कर के खड़ा तो होता, लेकिन फिर भी दुःख का प्रत्येक वार सीधे दिल पर आ कर लगता।

हाँ - यह एक संघर्ष था। लेकिन ऐसा कि जिसमें विजेता पहले से ही निश्चित था।

आखिरी दिनों में डॉक्टरों ने सुझाया कि कोई अल्टरनेटिव दवाओं को आज़मा लें! लेकिन फ्राँस के डॉक्टरों ने कहा, कि देवयानी के शरीर को प्रयोगशाला के जैसे इस्तेमाल न किया जाए। उसको थोड़ी डिग्निटी दी जाय। और अब केवल उपशामक चिकित्सा ही करी जाय तो बेहतर। उसको कोई तकलीफ न हो, बस इस बात का ध्यान रखा जाए। थोड़ी बहुत - जो भी ख़ुशी दी जा सकती है, दी जाए। दिल टूट गया यह सुन कर!

कैसी ज़िंदादिल लड़की है मेरी देवयानी और कैसी हो गई! उसकी छाया भी ऐसी कांतिहीन नहीं थी जैसी कांतिहीन वो हो चली थी! कैसी सुन्दर सी थी वो! और कैसी हो गई! लेकिन इस समय मेरी बस एक ख्वाईश थी - कैसे भी कर के वो रह जाए। जीवन में कोई तमन्ना नहीं बची थी।

हमको मालूम था कि हर अगले दिन उसका दर्द, उसकी तकलीफ बढ़ती जाएगी। इसलिए सभी को उससे मिलने बुला लिया गया। देवयानी बड़ी ज़िंदादिली से सभी से मिली। सबसे मुस्कुरा कर बातें करी उसने। लेकिन हर मिलने वाले का दिल टूट गया।

आखिरी बार उसने जब बुझती आँखों से मेरी तरफ देख कर “आई लव यू” कहा, तो मेरा दिल छिन्नभिन्न हो गया। वो दर्द आज भी महसूस होता है मुझको। लेकिन एक सुकून भी है कि मुझे देवयानी जैसी लड़की का हस्बैंड बनने का सौभाग्य मिला!

आखिरी तीन दिन वो आयोजित कोमा में रही! शरीर में कोई हरकत नहीं। बस ऑक्सीजन का रह रह कर टिक टिक कर के आने वाली आवाज़! मॉनीटर्स का बीप बीप! ओह, कितना भयानक मंज़र था वो! कितनी सुन्दर लगती थी वो - और अब - उसकी त्वचा काली पड़ गई थी, और सिकुड़ गई थी। उसको उस अवस्था में देख कर मैंने वो किया, जो मैं अपने सबसे भयावह सपने में भी करने का नहीं सोच सकता था। और वो था उसके मृत्यु की प्रार्थना।

ऐसे कष्ट से तो मृत्यु ही भली है!

तीन दिनों बाद देवयानी चली गई!

कैंसर के संज्ञान से मृत्यु तक केवल अट्ठारह हफ्ते लगे! बस! क्षण-भंगुर! और वो बस छत्तीस साल की थी! बस! हमारा पूरा परिवार उस दिन वहाँ उपस्थित था। मेरे डैड अभी भी किसी करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे थे। वो बेचारे इसी बात से हलकान हुए जा रहे थे कि उनका चहेता बेटा एक बार फिर से वही पीड़ा, वही कष्ट झेल रहा था, जो उसने कुछ वर्षों पहले झेला था। वो हमारे सामने कभी नहीं स्वीकारेंगे, लेकिन उनको देवयानी से अगाध प्रेम था। वो न केवल उनकी पुत्रवधू थी, बल्कि उनकी पोती की माता भी थी और एक तरह से अपनी पुत्री से बढ़ कर थी। देवयानी ने ऐसे ऐसे अनमोल तोहफे उनको दिए थे, कि उनका दिल भी टूट गया था। आभा उनके जीवन का केंद्र बन गई थी। और उसकी मम्मी के जाने की बात सोच कर वो हलकान हुए जा रहे थे। यह सब बहुत अप्रत्याशित सा था। देवयानी उनके लिए ‘श्री’ का स्वरुप थी। उसके आने के बाद से हमारे घर में कितनी सम्पन्नता, कितनी ख़ुशी आई थी कि कुछ कहने को नहीं! कुछ न कुछ कर के वो भी देवयानी से भावनात्मक तौर पर बहुत मज़बूती से जुड़ गए थे।

उसी दिन मैंने देवयानी की आखिरी क्रिया संपन्न कर दी।

इस बार किसी में हिम्मत नहीं हुई कि मुझे किसी तरह की कोई स्वांत्वना दे। क्यों मुझे ऐसा दंड मिला - वो भी दो दो बार, इसका उत्तर मुझे मिल ही नहीं रहा था। क्या मेरे में ही कोई खोट था? कि मेरी वजह से मेरे जीवन में आने वाली लड़कियों का जीवन ऐसे कम हो जा रहा था? संभव है न?

दिल टूट चुका था और जीने की आस भी छूट गई थी। लेकिन मेरे भाग्य में जो दंड लिखा था, अभी समाप्त नहीं हुआ था।

देवयानी की मृत्यु के बाद डैड का दिल भी टूट गया। वो एक भयंकर अवसाद में चले गए थे। उसकी मृत्यु के कोई एक महीने बाद उनको दिल का दौरा पड़ा। वो बेचारे बिस्तर पर आ गए। उनको दिल्ली लिवा लाया मैं, कि माँ अकेले उनकी देखभाल नहीं कर सकतीं! उन बेचारी का इन सब में क्या दोष? लेकिन बात इतने में सुलझ जाती तो क्या दिक्कत थी। तीन महीने बाद उनको एक और दिल का दौरा पड़ा। और इस बार उसने वो हासिल कर लिया, जो पहली बार में उसको हासिल नहीं हुआ था। डैड भी चल बसे!

भाग्य ने मेरे हृदय में त्रिशूल भोंक दिया था - पहले गैबी, फिर देवयानी और फिर डैड! तीन मेरे सबसे अज़ीज़ - और तीनों जाते रहे! देवयानी से बिछुड़ने के केवल चार महीनों में डैड भी चले गए। वो बस पचास साल के थे।

भाग्य ने मेरे किये किसी पाप का बेहद ख़राब दंड दिया था मुझको।

अब मेरे दिल में एक डर सा बैठ गया था - ‘अगला कौन होगा’ - मैं अक्सर यही सोचता! माँ? ससुर जी? आभा? ओह प्रभु! कैसे सम्हालूँ इन सभी को? मैं तो नहीं मर सकता - नहीं तो आभा को कौन देखेगा? और माँ - वो अवश्य ही मेरी माँ थीं, लेकिन उनका भोलापन ऐसा था कि वो भी एक बच्चे समान ही थीं। ऐसी खुश खुश रहने वाली माँ ऐसे अचानक ही विधवा हो गईं। उनके जीवन के रंग यूँ ही अचानक से उड़ गए! सच में, अब मुझे उनकी बेहद चिंता होने लगी थी। कभी सोचा भी न था कि मैं माँ की चिंता करूंगा! उनकी कोई उम्र थी यह सब झेलने की? उफ़!

माँ एक ज़िंदादिल महिला थीं। उनके अंदर जीने की, ज़िन्दगी की प्रबल लौ थी। डैड और माँ एक तरह से परफेक्ट कपल थे - जीवन से भरपूर! लेकिन अब - अपने लगभग अट्ठाईस साल के जीवन साथी को यूँ खो देना, उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। और इस सदमे से दो चार होना उनके लिए आसान काम नहीं था। इतनी कम उम्र में उनकी शादी हुई थी, और तब से डैड उनके एकलौते सहारा थे। वो कहते हैं न - वन एंड ओन्ली वन! उनका पूरा संसार! बस, वही थे डैड उनके लिए। कोई कहने की आवश्यकता नहीं कि डैड के जाने के बाद माँ एक गहरे अवसाद में चली गईं! उस ज़माने में मानसिक तकलीफों को इतना गंभीरता से नहीं लिया जाता था, जितना कि आज कल है। लेकिन मुझे लगा कि उनको डॉक्टर को दिखाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि माँ भी डैड के पीछे चल बसें! इसलिए माँ को एक बढ़िया मनोचिकित्सक की देख रेख में रख दिया। रहती वो मेरे - हमारे साथ थीं - लेकिन उनका मन शायद डैड के साथ ही कहीं चला गया।

माँ बहुत घरेलु किस्म की महिला थीं। डैड भी वैसे ही थे। वो ही माँ की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करते थे। उनके लिए माँ की छोटी छोटी कमियाँ ही उनका सौंदर्य थीं। वो उनके लिए छोटे छोटे, रोमांटिक तोहफे लाते थे। उनका मन बहलाते थे। उनको कविताएँ सुनाते थे। और माँ में ही खोए रहते थे - ऐसे कि जैसे धरती पर उनके लिए अन्य किसी महिला का कोई वज़ूद न हो! माँ उनका प्रेम थीं, और वो माँ के!

डैड के बिना जीवन कठिन था। बयालीस की उम्र में विधवा होना - यह एक कठिन चुनौती है। किसी के लिए भी। उस सच्चाई से दो चार होना उनके लिए संभव ही नहीं हो रहा था। सामान्य दिन वो जैसे तैसे बिता लेतीं - लेकिन त्यौहार, जन्मदिन, सालगिरह - यह उनको बड़ा सालता। इन सबके कारण उनको डैड की बड़ी याद आती। दीपावली में वो दोनों सम्भोग करते - लेकिन अब उसी दीपावली के नाम पर उनको अवसाद हो आता। उनके चेहरे की रंगत उड़ जाती।

वो रंग बिरंगी साड़ियाँ पहनतीं। खूब सजतीं - मेकअप नहीं, बल्कि गजरा, काजल, बिंदी इत्यादि से। उतने से ही उनका रूप ऐसा निखार आता कि अप्सराएँ पानी भरें उनके सामने! लेकिन अब तो उनको रंगों से ही घबराहट होने लगी थी। बस दुःख का आवरण ओढ़े रहतीं हमेशा। होंठों पर लाली, और आँखों में काजल लगाने के नाम पर वो दुखी हो जातीं। हमारे लाख कहने पर भी उनसे सजना धजना न हो पाता। वो घर से बाहर भी नहीं निकलती थीं। बस डॉक्टर के पास जाते समय, और मुँह अँधेरे वाकिंग करते समय ही वो बाहर निकलती थीं।

कोई तीन महीने हो गए थे अब डैड को गए हुए। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी।

कभी कभी मन में ख़याल आता कि क्यों न माँ की शादी करा दी जाए। विधवा होना कोई गुनाह नहीं। माँ को खुश रहने का पूरा हक़ था। लेकिन फिर यह भी लगता कि इतनी जल्दी क्या माँ किसी और को अपनाने का भी सोच सकती हैं? मुश्किल सी बात थी। लेकिन कोई बुरी बात नहीं।

उनको अकेली क्यों होना चाहिए? इस बात का कोई उत्तर नहीं था। अगर कोई ऐसा मिल जाए जो माँ को भावनात्मक रूप से सम्हाल सके, उनको प्रेम कर सके, उनके उदास वीरान जीवन में कोई फिर से रंग भर सके, तो मुझे वो व्यक्ति मंज़ूर था। मैं उदास था, और खुद भी डिप्रेशन में था; लेकिन माँ को देख कर मैं अपना ग़म भूल गया। और फिर मेरे सर पर आभा और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी भी थी। उधर ससुर जो भी देवयानी के जाने के बाद से बेहद दुखी रहने लगे थे। एक और बाप न चला जाय कर के एक और डर मेरे मन में समां गया था। वो तो भला हो जयंती दी का, जिन्होंने कुछ समय के लिए आभा के पालन की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। लेकिन वो बच्ची उनकी परमानेंट ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती थी।

इस समय बस यही दो तीन ख़याल मन में रहते - कैसे भी कर के माँ बहुत दुखी न हों, और आभा की परवरिश ठीक से हो। कहाँ कुछ ही दिनों पहले मेरी पूरी ज़िन्दगी कैसी खुशहाल थी, और कहाँ अब सब कुछ पटरी से उतर गया था।

उसी बुरी दशा में मुझे फिर से काजल की याद आई। काजल - मेरे जीवन का लौह स्तम्भ! मेरा निरंतर सहारा।


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यार झटका लगा है
भयंकर झटका
अब क्या कहूँ डेवी की वह अंतिम आई लव यू मेरी आँखों से आँसू निकाल दिए
बहुत ही बड़ा झटका था
 
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बहुत ही बढ़िया
रॉबिन और आभा को गॉड पेरेंट्स मिल गए
हर एक अनुभूति को बखूबी प्रस्तुत किया है
जीवन को फिर से पटरी पर आ गई है
आपने ससुर जी की पोस्ट रिटायर्मेंट जीवन को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान देना अच्छी बात है l

यार झटका लगा है
भयंकर झटका
अब क्या कहूँ डेवी की वह अंतिम आई लव यू मेरी आँखों से आँसू निकाल दिए
बहुत ही बड़ा झटका था

ज़िन्दगी है - ऐसे ही चलती है।
बीच बीच में छोटी बड़ी खुशियां और छोड़े बड़े ग़म!

यह सौ फीसदी सही कहा आपने
आज कल ली लड़कियाँ होते ही ऐसे हैं l किसी और की क्यूँ बात करें हाल ही में मेरी ही रिश्ते दारी में एक लड़की अपने बच्चे को तीन महीने तक ही दुध पिलाया है जब कि मेरे बच्चे तीन साढ़े तीन साल तक माँ का दुध नहीं छोड़ा था

बहुत बढ़िया!!
मेरे बच्चे तो अभी भी पी रहे हैं।
 
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ज़िन्दगी है - ऐसे ही चलती है।
बीच बीच में छोटी बड़ी खुशियां और छोड़े बड़े ग़म!
हाँ जिंदगी है
चलनी ही चाहिए रुक जाए तो ज़िंदगी कैसा
बहुत बढ़िया!!
मेरे बच्चे तो अभी भी पी रहे हैं।
भाई हमारी तो पुरी तरह से बंद है 😉
 
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भाई हमारी तो पुरी तरह से बंद है 😉

कोई बात नहीं। आपके बच्चों ने समुचित लाभ और आशीर्वाद प्राप्त कर लिया है 😊
लेकिन एक बात तो है - और मैं अक्सर अंजलि को कहता भी हूँ - और वो यह है कि जब उसके जैसी मॉडर्न लड़की, अपने बच्चों को breastfeeding कराती है न, तो बहुत सेक्सी लगती है।
 

Lib am

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नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #6


एक बार की बात है - आभा की नींद रात में तीन बार टूटी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। डेवी थकी हुई होने के कारण सोती रही। मैंने भी उसको बोल कर सुला दिया और बच्ची को अपने सीने से लगाए पूरे घर भर में घूम घूम कर सुलाता रहा। अंततः उसको नींद आ ही गई। तब कहीं जा कर मैं भी आराम से बिस्तर पर आ कर, सिरहाने पर तकिया लगा कर आधा लेट गया। आभा मेरे सीने पर ही सोती रही - सवेरे तक। न तो वो एक बार भी रोई और न ही उसको भूख लगी - बस वो शांति से सोती रही। शायद मेरे शरीर की गर्मी, और मेरे दिल की धड़कन की आवाज़ से उसको आराम मिल रहा हो। इतनी नन्ही सी जान, लेकिन उसको इस तरह देख कर किसी का भी दिल पसीज जाए। उसको आराम से सोता हुआ देख कर मैं भी चैन से सो गया।

जब सवेरे उठा तो देखा देवयानी हम दोनों को बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में देख रही थी।

“ठीक से सोए मेरे जानू?” उसने मुझे चूमते हुए कहा, “हाऊ डिड यू कीप फ्रॉम मूविंग?” उसने फिर आभा के सर को चूमा।

“पता नहीं यार! सच में इसको इस तरह से सीने से लगा कर सोने में क्या अच्छी नींद आती है!”

“हा हा हा! ये इस बात में अपनी मम्मी पर गई है! जैसे उसकी मम्मी उसके पापा के सीने पर सर रख कर गहरी नींद सो जाती है, वैसे ही ये भी है, लगता है!”

“आअह! फिर तो मुश्किल हो जाएगी!”

“वो क्यों?”

“हमारी बिटिया तो सोएगी मेरे सीने पर! मतलब तुम मेरे पेट पर सो जाना!”

“हा हा हा हा! पेट पर! तुम्हारे पेट से जैसी जैसी आवाज़ें आती हैं, वो सब सुन कर मुझे जो नींद आनी होगी, वो भी उड़ जाएगी!”

उस दिन के बाद से आभा को रात में सुलाने का जिम्मा मेरा हो गया। वो मेरे सीने से ही लग कर सोती, और देर तक सोती। कम से कम डेवी को इस कारण से थोड़ी राहत मिल जाती। दिन भर वो वो ही उसको देख रही होती। मन में एक डर सा लगा रहता कि बच्ची कहीं गिर न जाए, दब न जाए, लेकिन वैसा कभी हुआ नहीं।


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आभा के जन्म के लगभग कोई पाँच सप्ताह बाद हमको गेल और मरी का कॉल आया कि उनके घर बेटा हुआ है। वो बिलकुल स्वस्थ था, और अपनी माँ के जैसा दिखता था। मैं और डेवी इस खबर से बहुत खुश हुए। अच्छा लगा कि दो बेहद अच्छे लोगों के मन की आस पूरी हो गई है। उन्होंने हमको फिर से न्योता दिया कि हम दोनों फ्राँस आएँ। वो बच्चे का बप्तीस्म तब करना चाहते थे जब हम वहाँ पर हों, जिससे कि हम दोनों को उस बच्चे का गॉड पेरेंट्स बनाया जा सके। मैंने और डेवी ने वायदा किया कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ आने की कोशिश करेंगे।


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डेवी का डिलीवरी के बाद स्वास्थ्य लाभ भी बड़ी तेजी से हुआ। माँ के जन्मदिन और हमारी शादी की सालगिरह तक आते आते देवयानी लगभग पहले जैसी ही लगने लगी। हाँ, उसके स्तन थोड़ा बड़े अवश्य हो गए थे, लेकिन पेट और नितम्ब पर जो अतिरिक्त वसा थी, वो अब नहीं थी। अभी पिछले ही महीने से हमने पहले की ही भांति प्रतिदिन सम्भोग करना शुरू कर दिया था। आभा एक प्यारी सी बच्ची थी, लेकिन फिलहाल दूसरा बच्चा हम दोनों को ही नहीं चाहिए था। तीन साल तक नहीं। इसलिए पहली बार मैंने प्रोटेक्शन का इस्तेमाल करना शुरू किया था। अभी भी उसके पास लगभग दो महीने की हॉफ पे मैटरनिटी लीव थीं। लेकिन लग रहा था कि थोड़ा जल्दी ही जोइनिंग हो सकती है। उसके पहले हमने निर्णय लिया कि कुछ दिन माँ और डैड के साथ बिता कर, और फ्राँस घूम कर वापस आ जाएँगे। फिर डेवी ऑफिस में काम फिर से शुरू कर सकती है।

तो इस बार माँ के जन्मदिन पर हम तीनों डैड के घर गए। इतने लम्बे अर्से के बाद मैं उनके घर आया था - थोड़े बहुत परिवर्तन तो थे, लेकिन घर अभी भी वैसा ही था। डैड ने एक और कमरा बनवा लिया था - क्योंकि अब सारे कमरों में कोई न कोई होता था। मेहमानों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनको आवश्यक लगा कि एक और कमरा चाहिए। पाँचवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद, उनका वेतन बढ़ गया था, और पिछली बकाया राशि भी मिली थी। इसलिए उनका हाथ खर्चा करने में थोड़ा खुल गया था। फ़िज़ूलखर्च नहीं, बस, अपने आराम के लिए आवश्यक ख़र्च करने में अब उनको सोचना नहीं पड़ रहा था। उसके बाद से घर में कोई परिवर्तन नहीं आया।

थी तो हमारी शादी की सालगिरह भी उसी दिन, लेकिन उस दिन को हमने माँ के जन्मदिन के रूप में मनाया। पूरे पर्व का डेवी और मैंने ही आयोजन किया था। माँ कह रही थीं कि यह सब करने की क्या ज़रुरत है, लेकिन बात दरअसल यह थी कि अगर ख़ुशी है, तो उसका इज़हार करने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए? और ख़ुशी तो हम सभी को भरपूर थी। उसी दिन सवेरे आभा का मुंडन करवा दिया गया। ज्यादातर बच्चे बाल कटने पर रोने धोने लगते हैं। लेकिन आभा उसमें भी खुश थी और रह रह कर मुस्कुरा रही थी। उसको जब कुछ फनी सा लगता तो रोने जैसा मुंह बना लेती, लेकिन रोई एक बार भी नहीं। सर के बाल गायब होने के बाद वो और भी क्यूट, और भी लड्डू जैसी लगने लगी। अब तो वो हर तरह से गोल गोल लगती। बच्चे शायद इसलिए बहुत प्यारे से लगते हैं कि जो भी लोग उनको देखें, वो उनसे प्यार करें। उनका नुकसान न करें। तो प्यारा दिखना, एक तरह का सर्वाइवल स्किल है बच्चों का! खैर जो भी हो, मुंडी हो कर आभा और भी अधिक प्यारी लगने लगी थी।

शाम को भोज का आयोजन किया गया। उसमें हमने माँ और डैड - दोनों के मित्रों को आमंत्रित किया था। कितने ही सालों बाद कस्बे के बहुत से पुराने जान पहचान वालों से मिलने का मौका मिला था मुझे। इसलिए अच्छा भी बहुत लगा।


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माँ और डैड के यहाँ से वापस आने के एक सप्ताह बाद हमारा फ्राँस जाने का प्रोग्राम था। बहुत डर लग रहा था कि एक नन्ही सी बच्ची के साथ इतना लम्बा सफर कैसे करेंगे! उसके पहले मैं जब भी हवाई जहाज़ में यात्रा करता था, तो किसी नन्हे बच्चे को देख कर मेरा दिल बैठ जाता था कि ‘भई, गए काम से’! पक्की बात थी कि बच्चा पूरी यात्रा भर पेंपें कर के चिल्लाता रहेगा, और हम सबकी जान खाएगा। डर इस बात का था कि मम्मी-पापा बनने के बाद बाकी लोग भी हमारे बारे में यही सोचेंगे, और हमारी बच्ची भी बाकी बच्चों के जैसे पेंपें कर के रोएगी। लेकिन घोर आश्चर्य कि बात यह थी कि आभा लगभग न के बराबर रोई। एक बार तब जब केबिन प्रेशर थोड़ा कम हो गया तो बेचारी के कान में दर्द होने लगा - हम सभी के कान में दर्द हो रहा था। और दूसरी बार तब जब उसका नैपी पूरी तरह से ग़ैर-आरामदायक हो गया था। बस! वरना पूरे समय वो हंसती खेलती रही, और अपने पड़ोसियों का भी मन बहलाती रही। आभा इतनी खुशमिज़ाज़ बच्ची थी कि जिसको मन करता, वो उसको अपनी गोदी में उठा कर इधर उधर घुमा कर ले आता - क्या एयर होस्टेस, और क्या यात्री!

हमारी फ्रांस की यात्रा दस दिनों की थी। उसके बाद एक हफ्ते का आराम, और फिर डेवी वापस ऑफिस ज्वाइन कर लेती। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, गेल और मरी, नीस नामक शहर में रहते हैं। नीस भूमध्य-सागर के किनारे पर बसा हुआ एक बहुत ही सुन्दर शहर है, और शायद फ्राँस के सबसे अधिक घने बसे शहरों में से एक है। ऐसा नहीं है कि बहुत ही कलात्मक शहर है - बस, जिस सलीके से, जिस तमीज़ से शहर को रखा गया है, वो उसको सुन्दर बना देता है। एक पहाड़ी है - माउंट बोरॉन कर के - वहाँ से फ्रेंच रिवेरा का नज़ारा साफ़ दिखाई देता है। बहुत ही सुन्दर परिदृश्य! वहाँ से ऐल्प्स पर्वत-श्रंखला को भूमध्यसागर से मिलता हुआ देखा जा सकता है। सड़कों और गलियों के दोनों तरफ छोटे छोटे घर! बड़े सुन्दर लगते हैं। हवाई जहाज़ से नीचे उतरते समय भी अंदर बैठे यात्री ‘वाओ’ ‘वाओ’ कह कर आहें भर रहे थे।

हमको एयरपोर्ट पर लेने गेल और मरी दोनों आए थे। उनका बेटा घर पर ही पार्ट-टाइम नैनी के साथ था, जो उसकी देखभाल करती थी। उनको देख कर हम दोनों ही बहुत खुश हुए! फ्रेंड्स फॉर लाइफ - हाँ, यही कहना ठीक होगा। हम अब एक दूसरे से इस तरह जुड़ गए थे, कि हमारे परिवारों का बंधन अटूट हो गया था। अवश्य ही हमारी जान पहचान कोई दस दिनों की ही थी, लेकिन उसकी गुणवत्ता बहुत अधिक थी।

इस पूरी यात्रा के लिए हम उन दोनों पर ही निर्भर थे। हमने उनको अपने टिकट और यात्रा का पूरा प्लान पहले ही बता रखा था, इसलिए उन्होंने बच्चे का बप्तीस्म हमारे आने के अगले ही दिन तय कर रखा था। हमारे पाठकों को शायद न मालूम हो, लेकिन किसी बच्चे के गॉड पेरेंट्स बनना बहुत ही सम्मान का विषय होता है। एक तरह से आप उस बच्चे के अघोषित माता-पिता ही होते हैं। ठीक है, मैं उस बच्चे का जैविक पिता था, लेकिन उन दोनों के कारण मुझे उसके जीवन में सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर मिल रहा था। मुझे उम्मीद थी कि मैं जैसा भी संभव हो सकेगा, उस बच्चे से प्रेम करूँगा।

गेल और मरी के लिए हम बहुत से उपहार ले कर आए हुए थे - उनमें से मरी के लिए साड़ी ब्लाउज, और गेल के लिए धोती कुर्ता। बहुत सम्मान और आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने वही परिधान बच्चे के बप्तीस्म के दिन भी पहना हुआ था। तो हम चारों जने, सौ प्रतिशत भारतीय परिधान में एक विदेशी मुल्क में बच्चे का बप्तीस्म कर रहे थे। चर्च में हम ही ऐसी अतरंगी पोशाक पहने हुए थे और दूर से ही साफ़ नज़र आ रहे थे। कोई हमको आश्चर्य से, तो कोई हमको मज़ाकिया अंदाज़ में देखता। खैर, दूसरों की परवाह हमने करी ही कब, जो आज करते? बेटे के साथ हमारी बेटी का भी बप्तीस्म कर दिया गया, और गेल और मरी ने हमारी ही तरह आभा का गॉड पेरेंट्स बनने की शपथ ली। उन्होंने पूछा कि हमने आभा का सर क्यों मुंडा कर दिया, तो हमने मुंडन के बारे में उनको बताया। तो उन्होंने भी निर्णय लिया कि अपने बेटे का मुंडन करवाएँगे। जो कुछ आभा का होगा, वो ही रॉबिन का होगा। हाँ - रॉबिन नाम था बेटे का। तो मैंने हँसते हुए उनको समझाया कि आभा का नाक और कान का छेदन होगा। कम से कम रॉबिन को वो मत करवाना।

रॉबिन में ज्यादातर मरी के फीचर्स आए हुए थे। वो उसी की ही तरह गोरा गोरा बच्चा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उसकी आँखों, उसकी नाक, और होंठ मेरे समान दिखते थे। मुझे मालूम है कि हमारे वहाँ आने पर वहाँ उपस्थित लोगों को हम चारों के सम्बन्ध के बारे में संदेह तो अवश्य ही हुआ होगा। ऐसे थोड़े ही कोई यूँ ही चला आता है, और वो भी इतनी आत्मीयता दिखाते हुए! लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं - कम से कम हमसे तो कुछ नहीं कहा। और कोई कुछ कहता भी तो क्या फ़र्क़ पड़ता? गेल और मरी अमेजिंग लोग थे, और उनको भी माता-पिता बनने का पूरा अधिकार था। और मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैं इस सन्दर्भ में उनकी कुछ मदद कर सका। लेकिन, आगे जो उन्होंने मेरी आभा के लिए किया, वो अद्भुत है। खैर, भविष्य की बातें, भविष्य के ही गर्भ में रहने देते हैं!

एक दूसरे को तोहफा देने में गेल और मरी भी कोई पीछे नहीं थे। वो भी हमारे लिए ढेर सारे उपहार लाए हुए थे - मतलब जितना हमने लाया हुआ था, उससे अधिक हमको मिला। देवयानी के लिए उन्होंने सबसे आधुनिक फैशन के कपड़े, जूते, और परफ़्यूम लाया था, मेरे लिए भी वही सब, और आभा के लिए तो पूरा सूटकेस भर के सामान था! पूरे दस दिन यूँ ही मौज मस्ती करने में बीत गया - हम दोनों के परिवार बहुत करीब आ गए और हमारे सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो गए। हमने उनसे वायदा लिया कि जब उनको लम्बी छुट्टी मिले, तो हमारे घर आ कर रहें। हमारे साथ समय बिताएँ। उन्होंने भी वायदा किया कि वो अवश्य ही फिर से भारत आएँगे।


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सुनील ने इंटरमीडिएट में नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त किए थे। लेकिन वो उसका लक्ष्य नहीं था। उसका लक्ष्य था इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाएँ। जब उनका रिजल्ट आया, तो पता चला कि सुनील ने जे-ई-ई में बढ़िया रैंक पाई है! कौन्सेलिंग में उसको खड़गपुर में दाखिला मिला। अंततः काजल का, मेरा, और माँ और डैड का सपना पूरा हो ही गया! आनंद ही आनंद!

टॉप रैंक में होने के कारण उसको स्कॉलरशिप भी मिली थी, और इकोनॉमिकली वीक सेक्शन से आने के कारण उसको एक अलग तरह का वजीफ़ा मिला था, जिसमें उसको पढ़ने की किताबें, और रहने सहने का ख़र्च भी सम्मिलित था। कुल मिला कर उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हमारी तरफ से शायद ही कोई खर्चा आता। मैंने और देवयानी ने उससे वायदा किया था कि अगर उसका दाखिला आई आई टी में हो जाता है, तो हम उसको एक डेस्कटॉप उपहार स्वरुप देंगे। तो मैं उसके साथ ही खड़गपुर गया, और जब वो हॉस्टल के रूम एलोकेशन की लाइन में धक्के खा रहा था, तब मैं एक लोकल वेंडर से बातें कर के उसके लिए एक कंप्यूटर की व्यवस्था कर रहा था।

आठ वर्षों पहले की बातें याद हो आईं! तब मैं भी इसी तरह इंजीनियरिंग स्टूडेंट बन कर दाखिल हो रहा था, और जब वहाँ से बाहर आया तो एक अनोखी दुनिया मेरे सामने कड़ी थी। मुझे उम्मीद थी कि सुनील को भी वैसा ही अनुभव मिले। उसका जीवन भी सम्पन्न और समृद्ध और सुखी हो। उसको कंप्यूटर, और ढेर सारा आशीर्वाद दे कर मैं वापस दिल्ली आ गया।


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उन दिनों आज कल के जैसे हाफ़ बर्थडे, फुल बर्थडे मनाने का चलन नहीं था। केवल जन्मदिन ही मनाया जाता था। आभा का पहला जन्मदिन बेहद यादगार था। मुझे भी उसके कुछ दिनों पहले ही एक प्रमोशन मिला था और देवयानी अब तक अपने काम में वापस रंग गई थी। हमारी नई कामवाली कुशल थी, और भरोसेमंद थी। उसकी देख रेख में आभा स्वस्थ थी। हम या तो केवल काम करते, या फिर घर आ कर आभा की देखभाल करते। ऐसा ही जीवन हो गया था लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं थी। अपने बच्चे के लिए कुछ भी करना मंज़ूर था। तो अवश्य ही मेरी दोनों शादियाँ बिना किसी चमक धमक के थीं, लेकिन आभा का पहला जन्मदिन पूरे उत्साह और तड़क भड़क वाला था। हम दोनों ही बढ़िया कमा रहे थे, तो अपनी संतान से सम्बंधित कार्यों पर न खर्च करें, तो किस पर करें? लेकिन एक साल की बच्ची को इन सब बातों का कोई बोध नहीं होता। वो अपने में ही मगन रहते हैं। शायद उसको, और उसके जितनी उम्र के बच्चों को छोड़ कर, बाकी सभी ने बहुत मौज मस्ती करी। देवयानी अभी भी उसको स्तनपान कराती थी इसलिए वो मदिरा नहीं पीती थी। और जिस उत्साह से डेवी को ब्रेस्टफीडिंग कराने में आनंद आता था, वो देख कर मुझे पक्का यकीन था कि आभा खुद ही पीना छोड़ दे, तो छोड़ दे, वरना डेवी तो जब तक संभव है, उसको अपना दूध पिलाती रहेगी। आनंदमय दिन था वो! यादगार!

ख़ुशी और भी अधिक बढ़ गई जब गेल और मरी ने फ्रांस से एक बड़ा सा गिफ्ट का डब्बा आभा के लिए भेजा। उन्होंने तब से ले कर आभा के प्रत्येक जन्मदिन पर उपहार दिया है, और हमने भी। रॉबिन भी तेजी से बढ़ रहा था - वो एक स्वस्थ और स्ट्रांग बच्चा था - बिलकुल अपनी ‘बहन’ के जैसा!

एक बार यूँ ही मज़ाक मज़ाक में बात निकल आई कि कितना अच्छा हो अगर आगे चल कर ये दोनों बच्चे एक साथ, एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर सकें। बात मज़ाक में ही हुई थी, लेकिन डेवी को यह बात बहुत जँच गई। गेल और मरी ने कहा कि उनका घर भी आभा का घर है, और अगर संयोग बैठता है, तो अवश्य ही वो उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर सकती है फ्राँस में। हाँ, कहीं और जा कर पढ़ना है, तो अलग बात है! हमने यह भी निर्णय किया कि हम उन दोनों को आगे चल कर यह बात बताएँगे कि दोनों दरअसल भाई बहन ही हैं। और हम दोनों, एक तरह से एक ही परिवार हैं।


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आभा के पहले जन्मदिन तक आते आते डेवी का स्वास्थ्य पूरी तरह से पहले जैसा हो गया। हमारी सेक्स लाइफ भी बिलकुल पहले जैसी हो गई - हाँ, बस, गर्भनिरोधकों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आभा तेजी से सीख रही थी - तोतली आवाज़ में कुछ की बुड़बुड़ करना, डगमगाते हुए चलना, लगभग हर प्रकार का भोजन करना, यह सब वो करने लगी थी। और तो और उसके सोने और जागने का समय भी काफी निर्धारित हो गया था, और इस कारण से हमको भी सोने जागने में दिक्कत नहीं होती थी। आभा सच में ईश्वर का प्रसाद थी, और हम उस जैसी पुत्री को पा कर वाकई धन्य हो गए थे! उसको देख देख कर देवयानी को अक्सर एक और बच्चा करने की तलब होने लगती - वो यही सोचती कि अगला बच्चा भी आभा के ही जैसा होगा। लेकिन मैं उसकी इस तलब को जैसे तैसे, समझा बुझा कर शांत करता। सबसे पहला प्रश्न था उसकी सेहत का, फिर प्रश्न था दोनों बच्चों की उम्र के बीच में समुचित अंतर का, और तीसरा प्रश्न था कि सभी बच्चे एक समान नहीं होते।

ऐसा नहीं था कि मुझे और बच्चों की इच्छा नहीं थी, लेकिन देवयानी की सेहत सर्वोपरि थी। मैं उसको समझाता कि कैसे मेरे माँ और डैड ने केवल मुझे ही पाल पोस कर बड़ा किया था। और देखो, वो दोनों कैसे जवान और खुश दिखते थे! डेवी को यह बात समझ आ जाती थी। आखिर कौन लड़की जवान नहीं दिखना चाहती?


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ससुर जी ने किसी प्रेरणावश रिटायरमेंट के इतने साल बाद अपनी एक सॉफ्टवेयर से सम्बंधित कंपनी शुरू करी। उनको सॉफ्टवेयर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इतने लम्बे समय तक आई ए एस ऑफिसर होने के कारण, उनकी महत्वपूर्ण जगहों पर अच्छी जान पहचान थी। बिज़नेस के लिए जान पहचान बहुत ही आवश्यक वस्तु होती है। छोटी सी कंपनी और बहुत ही आला दर्ज़े का काम। दरअसल उनके पास समय ही समय था, और पैसा भी था। तो सोचा कि क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाए! दिल्ली में वैसे भी स्किल की कमी नहीं थी। बढ़िया इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स आसानी से उपलब्ध थे। मैं भी इसी क्षेत्र से सम्बंधित था, लिहाज़ा मैं उनकी अक्सर ही मदद करता रहता।

वो मुझको कहते कि पिंकी तो बढ़िया कर ही रही है, तो क्यों न मैं उनके साथ लग जाऊँ और कंपनी के मालिक के जैसे उसको चलाऊँ। अपना काम है। तरक्की होगी। लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार से आने के कारण अपना बिज़नेस करने में डर लगता था। नौकरी एक सुरक्षित ऑप्शन था। वैसे भी कमाई अच्छी हो रही थी, इसलिए ‘तनख़्वाह’ से प्रेम हो गया था। तो मैं उनको कहता कि मैं आपकी सहायता करूँगा। जब एक ढंग के लेवल तक पहुँच जाएगी कंपनी, तो मैं फॉर्मली ज्वाइन कर लूँगा।

देवयानी से जब इस बाबत बातचीत करी, तो वो बहुत सपोर्टिव तरीके से पेश आई। बात तो सही थी - उसकी सैलरी बढ़िया थी, और तो और, उसके पास अपना एक बड़ा घर था (शादी से पहले यह बात मुझे मालूम नहीं थी)! तो अगर मैं स्ट्रगल करना चाहता था, तो यह बढ़िया समय था। मेरी उम्र तक तो लोगों की नौकरी नहीं लगती - और मेरे पास इतने सालों का एक्सपीरियंस भी हो गया था। वैसे भी ससुर जी की कंपनी ख़राब काम नहीं कर रही थी - प्रॉफिट नहीं था, तो बहुत नुकसान भी नहीं हो रहा था। और कुछ लोगों को बढ़िया रोज़गार मिल रहा था, सो अलग!

फिर भी मेरे मन में हिचक थी। सैलरी का मोह ऐसे नहीं जाता। वैसे भी काम और आभा को ले कर इतनी व्यस्तता रहती कि मैं पूरी तरह से अपने बिज़नेस में लिप्त नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने उनसे ठीक से सोचने के लिए मोहलत मांगी। ससुर जी को कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी सब बातें समझते थे, इसलिए उन्होंने कोई ज़ोर नहीं दिया। हाँ - लेकिन मेरा उनके बिज़नेस में दखल बदस्तूर जारी रहा। बिज़नेस से सम्बंधित कई सारे महत्वपूर्ण निर्णय मैं ही लेता था।


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अंतराल - त्रिशूल - Update #1


जब हम प्रसन्न होते हैं, तरक्की करते हैं, सुखी रहते हैं, तो ऐसा लगता है कि दिन पंख लगा कर उड़े जाते हैं! हमारी शादी को हुए दो साल हो गए, और कुछ ही महीनों में आभा भी दो साल की हो गई। मस्त, चंचल, और बहुत ही सुन्दर सी, प्यारी सी बच्ची! गुड़िया जैसी बिलकुल! मीठी मीठी बोली उसकी। पहले तो हम सभी निहाल थे ही, अब तो और भी हो गए थे। प्यारी प्यारी, भोली भली अदाएँ दिखा दिखा कर आभा हम सबको अपना मुरीद बनाये हुए थी। हमने इस अंतराल में बहुत ही कम छुट्टियाँ ली थीं, और ऑफिस में भी दिसंबर की तरफ आते आते काम कम जाता था।

इसलिए हमने निर्णय लिया कि इस बार विदेश यात्रा पर चलते हैं। कहाँ चलें? यह तय हुआ कि ऑस्ट्रेलिया जायेंगे! ऑस्ट्रेलिया सुनने पर लगता है पूरा देश घूम लेंगे! लेकिन ऑस्ट्रेलिया देश नहीं, एक पूरा महाद्वीप है! पूरा ऑस्ट्रेलिया घूमने के लिए महीनों लग जाएँ! तो हम ऑस्ट्रेलिया में क्वीन्सलैण्ड गए। क्वीन्सलैण्ड ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्व में स्थित एक बड़ा राज्य है। और विश्व विख्यात ‘ग्रेट बैरियर रीफ़’ यहीं स्थित है!

क्वीन्सलैण्ड की सामुद्रिक तट रेखा कोई सात हज़ार किलोमीटर लम्बी है! समुद्र और सामुद्रिक जीवन के जो नज़ारे वहाँ देखने को मिलते हैं, पृथ्वी पर और कहीं संभव ही नहीं! सचमुच - ऐसा लगता है कि जैसे जादुई सम्मोहन है समुद्र में! असंख्य छोटे छोटे, बड़े बड़े टापू, साफ़, सफ़ेद रेत, नारियल के झूमते हुए पेड़, साफ़ समुद्र, रंग बिरंगे कोरल, असंख्य मछलियाँ, व्हेल, डॉलफिन, सील, नानाप्रकार के जीव जंतु, और ट्रॉपिकल रेन-फारेस्ट! ओह, लिखने बैठें, तो पूरा ग्रन्थ लिख सकते हैं क्वीन्सलैण्ड पर! भारत में हमने जंगल देखे हुए थे और हमको नहीं लगता था कि बाघ या हाथी को देखने जैसा रोमांचक अनुभव और कहीं मिल सकता है, इसलिए हमने केवल समुद्र पर फोकस किया।

अंडमान की ही भांति, हमने क्वीन्सलैण्ड में स्कूबा-डाइविंग का अनुभव किया। क्योंकि ग्रेट बैरियर रीफ एक संवेदनशील स्थान है, तो हम जैसे नौसिखिया डाइवर्स एक सुनिश्चित स्थान पर ही डाइव करते हैं। लेकिन वो छोटी सी जगह भी इतनी सुन्दर है कि क्या कहें! उम्र भर वो चित्र, वो अनुभव दिमाग में ताज़ा रहेंगे! चूँकि मैं और डेवी, दोनों को ही तैराकी का अनुभव था, और हम दोनों को ही उसमें आनंद आता था, इसलिए हमको बहुत ही मज़ा आया! आभा को भी होटल के पूल में पहली बार तैरने का अनुभव दिया। उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। अपनी टूटी फूटी भाषा में उसने बताया कि उसको बहुत मज़ा आ रहा है। दिल खुश हो गया कि मेरी बिटिया को भी तैराकी सीखने और तैराकी करने में मज़ा आएगा!

लोग ऑस्ट्रेलिया का नाम सुन कर तुरंत ही कंगारूओं के बारे में सोचने लगते हैं। लेकिन सच में, वहां के लोग कंगारूओं को सर का दर्द समझते हैं। जैसे हमारे यहाँ नीलगाय खेती का आतंक है, वैसे ही कंगारू आतंक हैं। खेती में, और सड़क पर भी! न जाने कितने ही एक्सीडेंट्स होते हैं उनके कारण। इसलिए कई स्थानों पर कंगारू का मीट खाया जाता है (अभी भी खाते हैं या नहीं - कह नहीं सकता! यह सब थोड़ा पुरानी बातें हैं)! खैर, कुल मिला कर हमारा दो हफ़्तों का ऑस्ट्रेलिया भ्रमण बहुत ही आनंद-दायक रहा।


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इसी बीच ऐसी घटना हो गई जिसकी उम्मीद नहीं थी। काजल की अम्मा की तबियत कुछ अधिक ही खराब हो गई। वो अकेली ही रहती थीं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी नहीं था। जिन पुत्रों की चाह में उन्होंने जीवन स्वाहा कर दिया, जिनकी पढाई लिखाई में उन्होंने अपना सर्वस्व आग में झोंक दिया, वही लड़के (पुत्र) उनकी ज़रुरत पड़ने पर उनको लात मार कर आगे चल दिए। काजल ने जब यह सुना, तो वो पूरी तरह से घबरा गई। उसने निर्णय लिया कि वो अपनी अम्मा की सेवा करने वहां, अपने गाँव चली जाएगी। लेकिन इस बात का लतिका की पढ़ाई लिखाई पर बहुत ही बुरा असर पड़ता - गाँव में कोई ढंग का स्कूल नहीं था। यहाँ वो अच्छा सीख रही थी, लेकिन वहां उसका न जाने क्या होता! और फिर खान पान, रहन सहन - हमारी मेहनत पर पानी फिरने वाला था।

लेकिन फिर सवाल तो काजल की माँ का था। माँ तो एक ही होती है। भले ही कैसी भी हो? और फिर काजल का तो दिल ही ऐसा था कि वो हम जैसे लोगों के लिए, जिनसे उसका न तो कोई नाता था, और न ही कोई सम्बन्ध, भागी भागी चली आई थी, तो अपनी माँ के लिए तो उसको जाना ही जाना था। माँ का दिल टूट गया - काजल से आत्मीयता तो थी ही, लेकिन लतिका के साथ उनका जो सम्बन्ध था, वो माँ बेटी से कैसे भी कम नहीं था। लेकिन अपनी बेटी के बगैर काजल वहाँ जाती भी तो कैसे? और माँ और डैड किस अधिकार से उसको या लतिका को अपने पास रोक पाते?

लिहाज़ा, काजल अचानक ही अपने गाँव चली गई। ऐसा नहीं है कि उसको इस बात में कोई आनंद आ रहा था, लेकिन वो भी क्या करती? संतान का दायित्व, संतान का कर्तव्य तो निभाना ही था न उसको! यह हमारे ऑस्ट्रेलिया से वापस आने के कुछ हफ़्तों बाद की बात है। मैंने भी एक दो बार काजल को रुक जाने को कहा, और उसको समझाया कि उसकी अम्मा को यहाँ दिल्ली ले आते हैं। वहां अच्छे अस्पताल में उनकी देखभाल हो सकती है। लेकिन काजल ने कहा कि उनका मरना निश्चित है, और वो अपने गाँव में ही अपना दम तोड़ना चाहती थी। अब इस बात पर हम क्या ही कर सकते थे?


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इतने सालों की आनाकानी के बाद अंततः मैंने निश्चय कर ही लिया कि मैं ससुर जी की कंपनी में बतौर सी ई ओ ज्वाइन करूँगा। कंपनी का काम पटरी पर था, और एक जानकार निर्देशन में वो बहुत फल फूल सकती थी। ऐसे में मुझे कोई कारण नहीं दिख रहा था कि मैं क्यों न वहां काम करूँ। देवयानी मेरे निर्णय पर बहुत खुश हुई, और उसने मुझे बहुत बधाइयाँ भी दीं। ससुर ही ने मेरे ज्वाइन करते ही कंपनी छोड़ दी। उन्होंने रिटायरमेंट में थोड़ा व्यस्त रहने के लिए यह काम शुरू किया था, लेकिन अब जब मैं आ गया था, तब उनको बिना वजह मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ ही दिनों में उन्होंने कंपनी भी मेरे नाम कर दी।

काम बहुत ही व्यस्त करने वाला था। लेकिन बड़ा ही सुकून भी था। अपना काम था, अपने तरीके से किया जा सकता था। नेटवर्क भी इतना बढ़िया था कि शुरुवाती दौर में छोटे छोटे प्रोजेक्ट और कॉन्ट्रैक्ट बड़ी आसानी से मिल रहे थे। उनके दम पर मैंने बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करना शुरू किया, और जल्दी ही कंपनी ने प्रॉफिट देना शुरू कर दिया। मुझको कंपनी से कोई लाभ या वेतन नहीं मिल रहा था - घर का खर्च इत्यादि सब देवयानी की सैलरी पर ही निर्भर था। किसी नए धंधे में तुरंत ही वेतन नहीं लिया जा सकता। सब कुछ री-इन्वेस्ट किया जाता है। तो फिलहाल वही चल रहा था। लेकिन कंपनी का वैल्युएशन हर तिमाही में बढ़ता जा रहा था। प्रॉफिटेबल वेंचर होने के अपने लाभ तो हैं!


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मैं अपने व्यवसाय में बस रमा ही था कि एक दिन अचानक ही देवयानी ने कहा कि कुछ दिनों से न जाने क्यों उसको खाने पीने का मन नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं था कि मैंने उसमें यह परिवर्तन नहीं देखा - अवश्य देखा। वो थोड़ी थकी थकी सी रहती, कम खाती! सोचा था कि शायद काम बढ़ा हुआ होने के कारण उसको यह अनुभव हो रहे हों। देवयानी ऐसी लड़की नहीं थी जो यूँ ही, आराम से एक जगह पर बैठी रहे। वो हमेशा से ही एक्टिव थी - शारीरिक रूप से भी, और मानसिक रूप से भी। और आभा के होने के बाद वो और भी एक्टिव हो गई थी। उसने पहले तो इसको सीरियस्ली नहीं लिया - बोली कि सर्दी जुकाम हुआ होगा। लेकिन जब मैंने और पूछा, तो वो बोली कि उसके स्टूल में भी थोड़े परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। यह शंका वाली बात थी।

मैंने उसको कहा कि एक बार डॉक्टर से मिल ले। लेकिन फिर बात आई गई हो गई। लेकिन एक रात जब वो पानी पीने के लिए बिस्तर से उठी, तो उसको चक्कर सा आ गया और वो वापस बिस्तर पर बैठ गई। अब ये बेहद शंका वाली बात थी। मैंने सवेरे उठते ही उसको डॉक्टर के पास ले जाने की ठानी। डेवी अभी भी ज़िद किये हुए बैठी थी कि शायद कम खाने से कमज़ोरी हो गई होगी, लेकिन सबसे घबराने वाली बात यह थी कि उसने दस दिनों में ठीक से खाना नहीं खाया था। मुझको अब बेहद चिंता होने लगी थी। कहीं पीलिया तो नहीं था?

डॉक्टर के यहाँ कई सारे टेस्ट, स्कैनिंग, और बाईओप्सी करि गईं। मैं सोच रहा था कि बिना वजह यह सब नौटंकी चल रही है। लेकिन जिस डॉक्टर की देख रेख में यह ‘नौटंकी’ चल रही थी, उसने कहा कि उसको थोड़ा डाउट है, और उसी के निवारण के लिए वो यह सभी टेस्ट करवा रहा है। मैंने पूछा कि क्या डाउट है, तो उसने बताया कि उसको शक है कि देवयानी के पेट में कोई ट्यूमर है। ट्यूमर? यह नाम सुनते ही मेरा दिल उछल कर मेरे गले में आ गया।

‘हे प्रभु, रक्षा करें!’

पूरा समय वो देवयानी से पूछता रहा कि उसको पेट में दर्द तो नहीं। और वो बार बार ‘न’ में उत्तर देती।

मैं ऊपर ऊपर हिम्मत दिखा रहा था, लेकिन मुझे मालूम है कि मेरी हालत खराब थी। प्रति क्षण मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि उसको कोई गंभीर रोग न हो!

फिर अल्ट्रासाउंड किया गया। उसमें साफ़ दिख रहा था कि देवयानी के पेट में सूजन थी, और उसका बाईल डक्ट जाम हो गया था! ट्यूमर तो था। इसी कारण से उसको भूख नहीं लग रही थी, और थकावट हो रही थी। बाईल डक्ट का जाम होना पैंक्रिअटिक कैंसर का चिन्ह है!

‘हे भगवान्!’

सी टी स्कैन में निश्चित हो गया कि ट्यूमर है, और पैंक्रियास में है। मतलब कैंसर है। पैंक्रिअटिक कैंसर, सभी कैंसरों में सबसे जानलेवा कैंसर है। अगर हो गया, तो मृत्यु लगभग निश्चित है।

‘यह सब क्या हो गया!’

पूरा दिमाग साँय साँय करने लगा। कोई क्या कह रहा है, क्यों कह रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पहले गैबी, और अब डेवी! ये तो अन्याय है भगवान्! सरासर अन्याय! ऐसा क्या कर दिया मैंने? इसको छोड़ दो प्रभु, मुझे ले लो। मेरी बच्ची की माँ छोड़ दो! उस नन्ही सी जान को किसके भरोसे छोड़ूँ? ऐसे मुझे बार बार बिना हमसफ़र के क्यों कर रहे हो प्रभु? ऐसे बार बार मुझे अनाथ क्यों बना रहे हो?

मैं दिखाने के लिए डेवी को हंसाने का प्रयास कर रहा था, लेकिन वो भी जानती थी कि मैं अंदर ही अंदर डर गया था। हमसफ़र से क्या छुपा रह सकता है भला? एकांत पा कर डेवी ने बड़े प्यार से मेरे गले में अपनी बाँहें डाल कर मेरे होंठों को चूमा, और कहा,

“मेरी जान, ये साढ़े तीन साल मेरी ज़िन्दगी के सबसे शानदार साल रहे हैं! मैं बहुत खुश हूँ! तुम गड़बड़ मत सोचो! मेडिकल फील्ड बहुत एडवांस्ड है! तुमको ऐसे नहीं छोडूँगी!”

वो यह सब कह तो रही थी, लेकिन मुझे उसकी बातों में केवल ‘अलविदा’ ही सुनाई दे रही थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। सारी मज़बूती धरी की धरी रह गई।

एक्स-रे में पता चला कि देवयानी के फेफड़ों के एक छोटे से हिस्से में कैंसर ट्यूमर के छोटे छोटे टुकड़े थे। मतलब यह स्टेज फोर कैंसर में तब्दील हो चुका था, और हमको मालूम भी नहीं चला! पैंक्रिअटिक कैंसर का इलाज स्टेज वन में हो जाय तो ठीक! स्टेज फोर का मतलब है, अब कुछ नहीं हो सकता।

इस बात पर मेरा दिल डूब गया। ऐसा लगा कि जैसे मुझे दिल का दौरा हो जाएगा! मन हुआ कि देवयानी से पहले मैं ही मर जाऊँ। दोबारा यह दर्द, यह दुःख - अब यह सब झेलने की शक्ति नहीं बची थी।

‘यह सब कैसे हो गया?’

‘फिर से!’

देवयानी ने इतने सालों में शराब की एक बूँद तक नहीं छुई थी। न ही वो सिगरेट पीती थी। वो नियमित व्यायाम करती थी, और तंदरुस्त थी। फिर भी! कैसे? अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह गया था। स्टेज फोर कैंसर! ओह प्रभु!

केवल एक ही दिन में मेरी हंसती खेलती दुनिया तहस नहस हो गई थी।

किस्मत ने कैसी क्रूरता दिखाई थी मेरे साथ! फिर से! जब लगा कि ज़िन्दगी पटरी पर आ गई, तब ऐसी दुर्घटना!!

काश कि ऊपर वाला मुझे उठा ले, लेकिन मेरी देवयानी को बख़्श दे! मेरी बच्ची को उसकी माँ के स्नेह से वंचित न होने दे! ओह प्रभु, प्लीज! मुझे देवयानी की बहुत ज़रुरत है! उसको वापस मत लो!


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सच कहूँ - ये पूजा प्रार्थना - यह सब मन बहलाने का साधन है। कुछ नहीं होता इन सब से। जीवन पर मनुष्य का कोई वश नहीं होता - और यह बात ही परम सत्य है। हमको लगता है कि यह सब कर के हम खुद को जीवन की मार से बचा सकते हैं। लेकिन नहीं! कुछ नहीं होता - केवल क्षणिक मन बहलाव के अतिरिक्त!

देवयानी का कैंसर के साथ संघर्ष बेहद दुर्धुर्ष था। डॉक्टरों ने सुझाया कि ऑपरेशन कर के ट्यूमर तो हटाया जा सकता है, लेकिन स्टेजिंग हो जाने के कारण कीमो-थेरेपी करनी ही पड़ेगी। लेकिन मरता क्या न करता! देवयानी को मालूम था कि यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। लेकिन उसने जब मेरी मरी हुई हालत देखी, तो उसने ऑपरेशन के लिए हाँ कह दिया। चौदह घंटे चले ऑपरेशन के बाद ट्यूमर तो हटा दिया गया। कम से कम वो अब ढंग से खा तो सकती थी! कभी सोचा नहीं था कि ऐसा कहने, ऐसा चाहने की नौबत भी आ सकती है।

इस ऑपरेशन के बाद, जब उसके शरीर ने थोड़ा रिकवर किया, तब कीमो-थेरेपी शुरू हो गई। पाठको को यह ज्ञात होना चाहिए कि कीमो-थेरेपी बेहद कठिन चिकित्सा होती है। शरीर को लुंज पुंज करने के लिए यह पर्याप्त होती है। बेचारी नन्ही सी बच्ची अपनी माँ को ऐसी छिन्न अवस्था में देखती, तो समझ न पाती कि उसकी माँ के साथ क्या हुआ है! लेकिन आभा हमारे जीवन की रौशनी थी - उसको देख कर चाहे मृत्यु भी सामने खड़ी हो, होंठों पर मुस्कान आ ही जाती। देवयानी भी मुस्कुरा देती। और मेरी आँखों से बस, आँसू ढलक जाते! दुर्धुर्ष संघर्ष!

डेवी समझ रही थी कि कुछ लाभ नहीं होना। लेकिन वो बेचारी मेरे और आभा के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी। उसको भी मेरे लिए, आभा के लिए जीने का मन था। लेकिन सब व्यर्थ सिद्ध हो रहा था। कभी कभी मन में यह प्रश्न उठता अवश्य है कि उसने ऐसा क्या किया कि वो ऐसे झेले! शायद मुझसे शादी करने का गुनाह! और क्या कहा जा सकता है? मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी दलदल में फंस गया हूँ, और वो मुझे धीरे धीरे लील रहा है! डेवी मर रही थी, और उसके साथ हर दिन, हर पल मैं मर रहा था। खुद को काम में व्यस्त रख कर मैं दुःख की तरफ पीठ कर के खड़ा तो होता, लेकिन फिर भी दुःख का प्रत्येक वार सीधे दिल पर आ कर लगता।

हाँ - यह एक संघर्ष था। लेकिन ऐसा कि जिसमें विजेता पहले से ही निश्चित था।

आखिरी दिनों में डॉक्टरों ने सुझाया कि कोई अल्टरनेटिव दवाओं को आज़मा लें! लेकिन फ्राँस के डॉक्टरों ने कहा, कि देवयानी के शरीर को प्रयोगशाला के जैसे इस्तेमाल न किया जाए। उसको थोड़ी डिग्निटी दी जाय। और अब केवल उपशामक चिकित्सा ही करी जाय तो बेहतर। उसको कोई तकलीफ न हो, बस इस बात का ध्यान रखा जाए। थोड़ी बहुत - जो भी ख़ुशी दी जा सकती है, दी जाए। दिल टूट गया यह सुन कर!

कैसी ज़िंदादिल लड़की है मेरी देवयानी और कैसी हो गई! उसकी छाया भी ऐसी कांतिहीन नहीं थी जैसी कांतिहीन वो हो चली थी! कैसी सुन्दर सी थी वो! और कैसी हो गई! लेकिन इस समय मेरी बस एक ख्वाईश थी - कैसे भी कर के वो रह जाए। जीवन में कोई तमन्ना नहीं बची थी।

हमको मालूम था कि हर अगले दिन उसका दर्द, उसकी तकलीफ बढ़ती जाएगी। इसलिए सभी को उससे मिलने बुला लिया गया। देवयानी बड़ी ज़िंदादिली से सभी से मिली। सबसे मुस्कुरा कर बातें करी उसने। लेकिन हर मिलने वाले का दिल टूट गया।

आखिरी बार उसने जब बुझती आँखों से मेरी तरफ देख कर “आई लव यू” कहा, तो मेरा दिल छिन्नभिन्न हो गया। वो दर्द आज भी महसूस होता है मुझको। लेकिन एक सुकून भी है कि मुझे देवयानी जैसी लड़की का हस्बैंड बनने का सौभाग्य मिला!

आखिरी तीन दिन वो आयोजित कोमा में रही! शरीर में कोई हरकत नहीं। बस ऑक्सीजन का रह रह कर टिक टिक कर के आने वाली आवाज़! मॉनीटर्स का बीप बीप! ओह, कितना भयानक मंज़र था वो! कितनी सुन्दर लगती थी वो - और अब - उसकी त्वचा काली पड़ गई थी, और सिकुड़ गई थी। उसको उस अवस्था में देख कर मैंने वो किया, जो मैं अपने सबसे भयावह सपने में भी करने का नहीं सोच सकता था। और वो था उसके मृत्यु की प्रार्थना।

ऐसे कष्ट से तो मृत्यु ही भली है!

तीन दिनों बाद देवयानी चली गई!

कैंसर के संज्ञान से मृत्यु तक केवल अट्ठारह हफ्ते लगे! बस! क्षण-भंगुर! और वो बस छत्तीस साल की थी! बस! हमारा पूरा परिवार उस दिन वहाँ उपस्थित था। मेरे डैड अभी भी किसी करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे थे। वो बेचारे इसी बात से हलकान हुए जा रहे थे कि उनका चहेता बेटा एक बार फिर से वही पीड़ा, वही कष्ट झेल रहा था, जो उसने कुछ वर्षों पहले झेला था। वो हमारे सामने कभी नहीं स्वीकारेंगे, लेकिन उनको देवयानी से अगाध प्रेम था। वो न केवल उनकी पुत्रवधू थी, बल्कि उनकी पोती की माता भी थी और एक तरह से अपनी पुत्री से बढ़ कर थी। देवयानी ने ऐसे ऐसे अनमोल तोहफे उनको दिए थे, कि उनका दिल भी टूट गया था। आभा उनके जीवन का केंद्र बन गई थी। और उसकी मम्मी के जाने की बात सोच कर वो हलकान हुए जा रहे थे। यह सब बहुत अप्रत्याशित सा था। देवयानी उनके लिए ‘श्री’ का स्वरुप थी। उसके आने के बाद से हमारे घर में कितनी सम्पन्नता, कितनी ख़ुशी आई थी कि कुछ कहने को नहीं! कुछ न कुछ कर के वो भी देवयानी से भावनात्मक तौर पर बहुत मज़बूती से जुड़ गए थे।

उसी दिन मैंने देवयानी की आखिरी क्रिया संपन्न कर दी।

इस बार किसी में हिम्मत नहीं हुई कि मुझे किसी तरह की कोई स्वांत्वना दे। क्यों मुझे ऐसा दंड मिला - वो भी दो दो बार, इसका उत्तर मुझे मिल ही नहीं रहा था। क्या मेरे में ही कोई खोट था? कि मेरी वजह से मेरे जीवन में आने वाली लड़कियों का जीवन ऐसे कम हो जा रहा था? संभव है न?

दिल टूट चुका था और जीने की आस भी छूट गई थी। लेकिन मेरे भाग्य में जो दंड लिखा था, अभी समाप्त नहीं हुआ था।

देवयानी की मृत्यु के बाद डैड का दिल भी टूट गया। वो एक भयंकर अवसाद में चले गए थे। उसकी मृत्यु के कोई एक महीने बाद उनको दिल का दौरा पड़ा। वो बेचारे बिस्तर पर आ गए। उनको दिल्ली लिवा लाया मैं, कि माँ अकेले उनकी देखभाल नहीं कर सकतीं! उन बेचारी का इन सब में क्या दोष? लेकिन बात इतने में सुलझ जाती तो क्या दिक्कत थी। तीन महीने बाद उनको एक और दिल का दौरा पड़ा। और इस बार उसने वो हासिल कर लिया, जो पहली बार में उसको हासिल नहीं हुआ था। डैड भी चल बसे!

भाग्य ने मेरे हृदय में त्रिशूल भोंक दिया था - पहले गैबी, फिर देवयानी और फिर डैड! तीन मेरे सबसे अज़ीज़ - और तीनों जाते रहे! देवयानी से बिछुड़ने के केवल चार महीनों में डैड भी चले गए। वो बस पचास साल के थे।

भाग्य ने मेरे किये किसी पाप का बेहद ख़राब दंड दिया था मुझको।

अब मेरे दिल में एक डर सा बैठ गया था - ‘अगला कौन होगा’ - मैं अक्सर यही सोचता! माँ? ससुर जी? आभा? ओह प्रभु! कैसे सम्हालूँ इन सभी को? मैं तो नहीं मर सकता - नहीं तो आभा को कौन देखेगा? और माँ - वो अवश्य ही मेरी माँ थीं, लेकिन उनका भोलापन ऐसा था कि वो भी एक बच्चे समान ही थीं। ऐसी खुश खुश रहने वाली माँ ऐसे अचानक ही विधवा हो गईं। उनके जीवन के रंग यूँ ही अचानक से उड़ गए! सच में, अब मुझे उनकी बेहद चिंता होने लगी थी। कभी सोचा भी न था कि मैं माँ की चिंता करूंगा! उनकी कोई उम्र थी यह सब झेलने की? उफ़!

माँ एक ज़िंदादिल महिला थीं। उनके अंदर जीने की, ज़िन्दगी की प्रबल लौ थी। डैड और माँ एक तरह से परफेक्ट कपल थे - जीवन से भरपूर! लेकिन अब - अपने लगभग अट्ठाईस साल के जीवन साथी को यूँ खो देना, उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। और इस सदमे से दो चार होना उनके लिए आसान काम नहीं था। इतनी कम उम्र में उनकी शादी हुई थी, और तब से डैड उनके एकलौते सहारा थे। वो कहते हैं न - वन एंड ओन्ली वन! उनका पूरा संसार! बस, वही थे डैड उनके लिए। कोई कहने की आवश्यकता नहीं कि डैड के जाने के बाद माँ एक गहरे अवसाद में चली गईं! उस ज़माने में मानसिक तकलीफों को इतना गंभीरता से नहीं लिया जाता था, जितना कि आज कल है। लेकिन मुझे लगा कि उनको डॉक्टर को दिखाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि माँ भी डैड के पीछे चल बसें! इसलिए माँ को एक बढ़िया मनोचिकित्सक की देख रेख में रख दिया। रहती वो मेरे - हमारे साथ थीं - लेकिन उनका मन शायद डैड के साथ ही कहीं चला गया।

माँ बहुत घरेलु किस्म की महिला थीं। डैड भी वैसे ही थे। वो ही माँ की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करते थे। उनके लिए माँ की छोटी छोटी कमियाँ ही उनका सौंदर्य थीं। वो उनके लिए छोटे छोटे, रोमांटिक तोहफे लाते थे। उनका मन बहलाते थे। उनको कविताएँ सुनाते थे। और माँ में ही खोए रहते थे - ऐसे कि जैसे धरती पर उनके लिए अन्य किसी महिला का कोई वज़ूद न हो! माँ उनका प्रेम थीं, और वो माँ के!

डैड के बिना जीवन कठिन था। बयालीस की उम्र में विधवा होना - यह एक कठिन चुनौती है। किसी के लिए भी। उस सच्चाई से दो चार होना उनके लिए संभव ही नहीं हो रहा था। सामान्य दिन वो जैसे तैसे बिता लेतीं - लेकिन त्यौहार, जन्मदिन, सालगिरह - यह उनको बड़ा सालता। इन सबके कारण उनको डैड की बड़ी याद आती। दीपावली में वो दोनों सम्भोग करते - लेकिन अब उसी दीपावली के नाम पर उनको अवसाद हो आता। उनके चेहरे की रंगत उड़ जाती।

वो रंग बिरंगी साड़ियाँ पहनतीं। खूब सजतीं - मेकअप नहीं, बल्कि गजरा, काजल, बिंदी इत्यादि से। उतने से ही उनका रूप ऐसा निखार आता कि अप्सराएँ पानी भरें उनके सामने! लेकिन अब तो उनको रंगों से ही घबराहट होने लगी थी। बस दुःख का आवरण ओढ़े रहतीं हमेशा। होंठों पर लाली, और आँखों में काजल लगाने के नाम पर वो दुखी हो जातीं। हमारे लाख कहने पर भी उनसे सजना धजना न हो पाता। वो घर से बाहर भी नहीं निकलती थीं। बस डॉक्टर के पास जाते समय, और मुँह अँधेरे वाकिंग करते समय ही वो बाहर निकलती थीं।

कोई तीन महीने हो गए थे अब डैड को गए हुए। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी।

कभी कभी मन में ख़याल आता कि क्यों न माँ की शादी करा दी जाए। विधवा होना कोई गुनाह नहीं। माँ को खुश रहने का पूरा हक़ था। लेकिन फिर यह भी लगता कि इतनी जल्दी क्या माँ किसी और को अपनाने का भी सोच सकती हैं? मुश्किल सी बात थी। लेकिन कोई बुरी बात नहीं।

उनको अकेली क्यों होना चाहिए? इस बात का कोई उत्तर नहीं था। अगर कोई ऐसा मिल जाए जो माँ को भावनात्मक रूप से सम्हाल सके, उनको प्रेम कर सके, उनके उदास वीरान जीवन में कोई फिर से रंग भर सके, तो मुझे वो व्यक्ति मंज़ूर था। मैं उदास था, और खुद भी डिप्रेशन में था; लेकिन माँ को देख कर मैं अपना ग़म भूल गया। और फिर मेरे सर पर आभा और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी भी थी। उधर ससुर जो भी देवयानी के जाने के बाद से बेहद दुखी रहने लगे थे। एक और बाप न चला जाय कर के एक और डर मेरे मन में समां गया था। वो तो भला हो जयंती दी का, जिन्होंने कुछ समय के लिए आभा के पालन की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। लेकिन वो बच्ची उनकी परमानेंट ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती थी।

इस समय बस यही दो तीन ख़याल मन में रहते - कैसे भी कर के माँ बहुत दुखी न हों, और आभा की परवरिश ठीक से हो। कहाँ कुछ ही दिनों पहले मेरी पूरी ज़िन्दगी कैसी खुशहाल थी, और कहाँ अब सब कुछ पटरी से उतर गया था।

उसी बुरी दशा में मुझे फिर से काजल की याद आई। काजल - मेरे जीवन का लौह स्तम्भ! मेरा निरंतर सहारा।


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ये कहानी जितना दिल को सुकून देती है उससे ज्यादा दर्द, कहानी के हीरो की लाइफ एक सर्किल में चलती नजर आती है, कुछ सालो की खुशियां और फिर इन खुशियों का छीन जाना कई बार बहुत ही दयनीय लगता है। लेखन बहुत ही सुंदर है मगर बार ये घटनाएं दिल को विचलित करती है। अगर ये अच्छी घटनाएं है तो बहुत दुखद है और कल्पनाएं है तो थोड़ा और स्कारात्मक और खुशहाल ट्विस्ट की जरूरत है.
 
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