नींव - पहली लड़की - Update 15
मंदिर से लौट कर हमने खाना खाया, और फिर कुछ देर की बात-चीत के बाद, सोने के कल वाले ही इंतजाम में अपने अपने बिस्तर में लेट गए। आज मैंने माँ के कहने से पहले से ही अपने सारे कपड़े उतार दिए थे। आज उमस और गर्मी काफी बढ़ गई थी - संभव था कि रात में बारिश हो। इस उमस और गर्मी के कारण माँ भी केवल ब्लाउज और पेटीकोट में थीं। मैं उनके बगल लेट कर उनकी ब्लाउज खोलने लग गया।
“आज मालिश करा के अच्छा लगा?” माँ ने पूछा।
मैंने उत्साह से ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“अरे नीक काहे न लागै! लल्ला, हम तोहार रोज करबै!”
“दीदी, आप इसकी आदत बिगाड़ दोगी! वापस जा कर मैं यह सब कैसे करुँगी?”
“अरे ऊ बाद कै बात बाय! अबहीं एक हफ्ता तौ मजा लै लियौ!” चाची ने कहा, फिर बोली, “लल्ला, अपनी महतारी कै दुधवा तो रोजै पियत हो। हमहूँ पियाय देई?”
मुझे गाँव की भाषा बहुत समझ में नहीं आती थी। थोड़ा बहुत अंदाजे से समझ पाता था। माँ ने कहा,
“चाची जी का दूध पियोगे?”
मुझे समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दूँ! माँ के अतिरिक्त और किसी का स्तन नहीं पिया था मैंने। कम से कम मुझे तो याद नहीं पड़ता। अच्छा, एक और बात है - इसको शहर के लोग भले ही बहुत अनहोनी बात मान लें, लेकिन गाँवों में महिलाएँ एक दूसरे के बच्चों को स्तनपान कराने में कोई बुराई नहीं समझतीं। दूध का मुख्य स्त्रोत माता ही होती है, लेकिन अन्य महिलाएँ भी समय पड़ने पर बच्चे को अपना दूध पिला सकतीं हैं। इसी सामुदायिक लालन पालन के कारण गाँवों के बच्चे अपने समाज से अच्छी तरह जुड़े रहते हैं! मातृत्व और वात्सल्य एक ऐसा सुख है जो समुद्र जितना विस्तृत और गहरा है। उनको बाँटने में शायद ही कोई माँ कँजूसी करे! माँ को इस व्यवस्था का पता था, और उनको इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी। इसलिए उन्होंने मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा,
“पी लो! जाओ!”
“आवो लल्ला, अइसी चले आवो!
मैं उठ कर चाची के पास चला गया। उन्होंने अपना ब्लाउज खोला और अपना एक स्तन मुझे पीने के लिए दे दिया। और मैं उनके स्तन पीने लगा। मुझे कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि कुछ देर ऐसे ही चूसने के बाद उनके स्तन से मेरे मुँह में दूध आने लगा! मैंने चौंक कर उनकी तरफ़ देखा; उन्होंने मुझे मुस्कुरा कर ऐसे देखा जैसे वो इस रहस्य से परिचित हों! क्या आनंद! माँ का दूध! और ऐसा लग रहा था कि उनके स्तन पूरे भरे हुए थे। एक दो मिनट पीने के बाद,
“लल्ला, महतारी कै दूध पियै नीक लागत है?”
“दूध पीना अच्छा लग रहा है?” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।
“हाँ चाची जी!” मैंने प्रसन्न हो कर कहा!
“बहूरानी?”
“हाँ, दीदी?”
“तुहुँ आय जाव!”
“हा हा! क्या दीदी! ऐसे? अपने बेटे के सामने!” माँ ने लजाते हुए कहा।
“या देखौ! अब चली हैं सरमाय। जानत हौ लल्ला, तोहार महतारी जब हियाँ आई रहिन बियाह कै, तौ यैं जभ्भों रोवत कलपत रहीं, हमही आवत रहीं इनका दुलराय। अउर बहुत बड़ी होई गईं हैं अब!”
“हा हा हा! दीदी! आप तो माँ हो मेरी! मैं आपसे कभी बड़ी होऊँगी? आपसे भला क्या शरमाऊँगी!” माँ हँसते हुए अपने बिस्तर से उठीं, और आ कर चाची के बगल लेट गईं।
मुझे उनकी बातों से समझ नहीं आ रहा था कि किस बारे में बात हो रही थी। मैं तो दूध पीने में मगन था। दूध का स्वाद भूल गया था - और अब मुझे एक नया, गाँव की मिट्टी से पोषित शुद्ध दूध का स्वाद मिल रहा था। चाची करवट से हट कर पीठ के बल लेट गईं। माँ शर्माते हुए उनके बगल ही अपने हाथ का टेक लगा कर लेटी रहीं।
“अरे, अइसे दीठ लगाए का बइठी हौ? पीतियु काहे नाही?”
तब समझ आया कि चाची माँ को भी दूध पीने को कह रही हैं। यह तो बड़ी हैरानी वाली और अनोखी बात थी। मेरे लिए तो अभी तक केवल माँ ही थीं जो दूध पिला सकती थीं। लेकिन कोई उनको भी दूध पिला सकता है, यह अनोखी या अनहोनी सी बात थी। माँ की भी माँ! माँ शरमाते और संकोच से हँसते हुए चाची के दूसरे स्तन पर झुकीं, और उनका दूध पीने लगीं। सोचिए, उस समय हम दोनों माँ बेटा एक ही माता से स्तनपान कर रहे थे! मुझे अब कुछ कुछ समझ में आ रहा था कि माँ को इतना लाड़ दुलार क्यों मिलता था सभी से!
उस समय मुझे नहीं मालूम था, लेकिन चाची को लगभग एक साल पहले एक संतान हुई थी, जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी। पीने वाला बच्चा नहीं रहा, लेकिन दूध बनता रहा। इसीलिए ननकऊ अभी भी उनका दूध पी सक रहा था। चाची करीब चालीस के उम्र की महिला रही होंगी। आज कल इस उम्र में स्त्रियों का गर्भधारण सामान्य बात नहीं लगती है। किन्तु उस समय गाँव देहात में यह सब कोई अनहोनी बात नहीं थी। अपने बच्चों के बच्चे होने लगते थे, लेकिन इधर माता पिता की संताने होना रूकती ही नहीं थीं। कितनी ही बार तो देखा है - सास और बहू दोनों एक ही समय पर गर्भवती रहती थीं। अच्छा खान पान हो, बढ़िया दिनचर्या हो, स्वस्थ शरीर हो, प्रसन्न मन हो, शुद्ध वातावरण हो - तो ये बेहद सामान्य सी बात है।
“खाली घुण्डिया काहे पियति हौ? लल्ला के जस पियौ।” माँ ने चाची की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, फिर मेरी तरफ देखा कि मैं कैसे पी रहा था। चाची निर्देश दे रहीं थीं,
“जब तक चुचिया ना दबाये, दुधवा ना निकरे।” माँ ने मेरी ही तरह उनके एरोला को पूरा मुँह में ले कर होंठों से दबाया और चूसा,
“हाँ, यस।” चाची ने पूछा, “निकरा न?”
माँ ने ‘हाँ’ में सर हिलाया। हम दोनों ने शांति पूर्वक चाची के दोनों स्तन खाली कर दिए।
“नीक लाग?” उन्होंने पूछा।
“हाँ!” मैंने उत्साह में उत्तर दिया। गाँव की छुट्टी तो बढ़िया होती जा रही है!
“अमर, बेटा” माँ ने कहा, “चाची जी ने तुमको अमृत पिलाया है। तुम उनके चरण छू कर उनका आशीर्वाद लो!”
मैंने झट से उनके पैर छुए।
“अरे जुग जुग जियो हमार लल्ला! हमार पूत!” कह कर उन्होंने मुझे कई बार चूमा।
चाची ने फिर अपने स्तन नहीं ढँके। मुझे तो लगता है कि गाँवों देहातों में, जब स्त्रियों को बच्चा हो जाता है, तो उसके बाद उनको अपनी छातियों को ले कर कोई ख़ास लाज शरम नहीं रह जाती है। उनका सारा आकर्षण बच्चा होने से पूर्व का ही है। दोनों महिलाएँ कुछ देर तक बतियाती रहीं, और मैं वहीं, चाची के बगल ही सो गया।
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सवेरे मैं बहुत देर से उठा। उस समय चाची के घर पर कोई भी नहीं था। मैंने अगल बगल देखा - कोई नहीं था! मैंने कपड़े पहने और घर से बाहर आ गया। घर से निकल कर चार कदम चला ही था कि सामने डैड और चाचा जी दिख गए!
“बेटा,” मुझे देख कर डैड ने कहा, “कितना सोए आज! माँ कितनी देर से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं खाने के लिए! चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ, और नाश्ता कर लो!”
“डैड, आज से काम शुरू हो जाएगा?” मैंने पूछा।
“हाँ, बस शुरू ही हो गया! तुम नाश्ता कर लो, फिर देखने आ जाना।”
“जी ठीक है!”
घर से थोड़ी दूर पहले ही मैंने गायत्री को मुझे देखते, और मुस्कुराते हुए देखा। मैंने भी उसको मुस्कुरा कर देखा। वो मेरे पास आ कर मेरे कान में बोली, “सँझा को हमारे घर आ जाओगे?”
“क्यों?”
“हमसे बात करने?”
“ठीक है!”
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आज का दिन थोड़ा शांति से निकला। चूँकि निर्माण कार्य शुरू हो गया था, इसलिए डैड घर के सामने ही व्यस्त थे। उनसे मिलने वाले वहीं आ कर उनसे मिल रहे थे। आज अधिकतर मिलने वाले लोग वृद्ध थे - इसका एक लाभ हुआ मुझे। सभी ने आशीर्वाद देने के लिए मुझे रुपए दिए। दोपहर के खाने का समय होते होते मैं धनाढ्य हो गया - पूरे एक सौ तीस रुपये मिले थे मुझे आशीर्वाद में! धनाढ्य - लेकिन कुछ देर के लिए। मैंने वो सारे रुपए माँ को दे दिए। मुझे कल अच्छा नहीं लगा था कि उन्होंने अपनी चाँदी की पायलें गायत्री को दे दी थीं, और उनका पैर अब सूना सूना था। मुझे वैसे भी रुपयों का कोई काम नहीं था। माँ ने मुस्कुराते हुए वो पैसे मुझसे ले लिए। डैड को खाना घर के बाहर परोसा गया। उनके साथ तीन चार और भी खाने वाले थे। घर के अंदर स्त्रियाँ थीं, जो माँ के साथ खाना पकाने का काम देख रही थीं, और ऐसे में पुरुषों का घर के अंदर आना वर्जित था। मैंने देर से नाश्ता किया था इसलिए भूख भी नहीं लगी हुई थी। करीब एक बजते बजते सभी ने खाना खा लिया। आज बेहद उमस और धूप थी। कारीगर और मजदूरों की हालत खराब हो गई। लेकिन बहुत अधिक काम नहीं था, इसलिए उन्होंने काम जारी रखा। दो शौचालय और उसके सामने एक आधी चाहरदीवारी का स्नानघर! बस, इतना ही। लेकिन उसके लिए सोकपिट भी चाहिए होती है, जो गहरी बनती है। शाम होते होते नींव की खुदाई, और कुटाई हो गई, और सोकपिट का गड्ढा खुद गया।
इस दौरान डैड ने मुझे इस गाँव के, और आस पास के गाँवों के संभ्रांत, प्रभावशाली, और गणमान्य लोगों से - जो उनसे मिलने चले आए थे - उनसे मिलवाया। डैड बड़े मृदुभाषी, सज्जन और कर्मठ पुरुष थे। क्रोध तो उनको छू भर नहीं गया था। यह गुण जैसे पुश्तैनी था - दादा जी भी वैसे ही थे। संभव है इसी कारण से उन्होंने डैड के लिए माँ जैसी लड़की को पसंद किया। अपनी सज्जनता के कारण ही डैड से मिलने उनसे कहीं वृद्ध पुरुष, जमींदार, और ठाकुर लोग अपनी हेकड़ी छोड़ कर चले आये थे। स्वयं संघर्ष करते हुए डैड ने बहुत पहले ही समझ लिया था कि एक दूसरे की मदद करने से ही समाज कल्याण होता है। यदि संभव है, तो डैड अपनी तरफ से दूसरों की मदद करने में कभी संकोच नहीं किए। दूसरे उनकी सज्जनता का क्या मोल देते हैं, उस बात की उन्होंने कभी फ़िक्र नहीं की। उस दिन जाना कि डैड की हमारे समाज में कैसी प्रतिष्ठा थी। संभव है कि वैसी ही प्रतिष्ठा नाना जी की भी थी। इसीलिए डैड और माँ का विवाह हो पाया।
सभी के खाना इत्यादि होने के बाद चाची ने मुझे मालिश के लिए बुलाया। वैसे भी डैड और उनके मित्र न जाने क्या बातें कर रहे थे, मुझे समझ नहीं आ रहा था कुछ। इससे बेहतर तो मालिश करवाना ही है। घर में आज केवल माँ, चाची, और कल पहले वाली अभिलाषी महिला, उनकी छोटी बहू और बेटी उपस्थित थे। साथ में उनकी छोटी बहू - जिसके बारे में वो कल बता रही थीं - का दूध पीता बच्चा भी था। मुझे तो ऐसा लगने लगा था कि शायद वो महिला उसी समय पर इसलिए आ जा रही थीं कि मुझे नंगा देख सकें, और अपनी बेट और बहू को भी दिखा सकें। दोनों लड़कियों को देख कर मैं ठिठका। सबसे पहली बात तो यह थी कि दोनों ही उम्र में मुझसे छोटी लग रही थीं। और मुझे आश्चर्य हुआ कि इसकी शादी भी हो गई, और बच्चा भी! कमाल है!
“आओ भइया, इनसे मिलो - ई तोहार भौजी हुवैं,”
“नमस्ते भाभी!” मैंने हाथ जोड़ कर ‘भाभी’ को नमस्ते किया।
“अमर?” माँ ने जैसे मुझे कुछ याद दिलाया।
मैंने बढ़ कर ‘भाभी’ के पैर छू लिए। माँ मुझसे अक्सर कहतीं कि गाँव में मैं अपने समकक्ष लगभग सभी बच्चों में सबसे छोटा था। सबसे छोटा, मतलब सबका आदर सम्मान! लेकिन उसके बदले में सबका प्रेम, और स्नेह भी तो मिलता था। उसको एक पल कुछ कहते नहीं बना।
“बहू, अपने देवर का आसीस ना देबौ?” उसकी सास ने कहा।
“खूब बड़े हो जाओ भइया!” उन्होंने संकोच करते हुए आशीर्वाद दिया।
“अउर ई हमार छोटकई लरिकी, निसा (निशा)”
“नमस्ते, दीदी!”
मैंने कहा, और उसके भी पैर छू लिए। निशा बहुत ज़ोर से शरमा गई।
“हा हा हा!” चाची मेरी बात पर हँसने लगीं, “पाँव जिन छुओ ओकै... हा हा हा! अरे दीदी न है तोहार!” और कुछ और बोलने से पहले ज़ोर ज़ोर से हँसने लगीं।
उन महिला को बुरा लगा होगा, लेकिन चाची को उनकी परवाह नहीं थी।
“जा निसा, जाय कै घरे कुछु काम देखौ!” उन्होंने अपनी बेटी को घुड़का।
“अरे रहय दियौ, सुरसतिया।” चाची ने कहा, “आई हैं दूनौ जनी! कुछु खाय का दै दियौ इनका, बहू!”
“हाँ, आओ बच्चों!” माँ ने बड़े स्नेह से कहा, और दोनों को भोजन देने के लिए अपने साथ ले कर रसोई में चली गईं।
दोनों लड़कियों के आँगन से जाने पर मुझे थोड़ी राहत हुई - कोई ऐसे नग्न देख ले, वो ठीक है। लेकिन ऐसे किसी के भी सामने - ख़ास तौर पर अपने से कम उम्र की लगने वाली लड़कियों के सामने - नग्न होने में मुझे शर्म आ रही थी। अपने बारे में मुझे यह एक नई बात मालूम चली। मेरी मालिश होने लगी, तो वो अपनी बेटी का गुणगान करने लगीं। चाची को उनकी चेष्टाएँ समझ में आ रही थीं। बाद में मालूम हुआ कि इस गाँव के किया, आस पास के पाँच छः गाँवों में जिन भी परिवारों में मेरी हमउम्र लड़कियाँ थीं, सभी हमारे ही परिवार में अपनी बेटी भेजना चाहते थे। दरअसल गाँवों में लड़का लड़की नहीं बल्कि उनके परिवारों का विवाह होता है। जैसे मेरे माँ और डैड थे, कोई भी अपनी बेटी को उनकी बहू बना कर धन्य हो जाता। मुझे आश्चर्य था - इतनी कम उम्र की लड़कियाँ अब ब्याहता ‘स्त्रियाँ’ थीं, उनकी गोदों में बच्चे थे! उनके अल्प-विकसित स्तनों से दूध चूसते हुए बच्चे! गोदी में बैठकर किलकारी मारते बच्चे! खुश होने से अधिक रोने बिलबिलाने वाले बच्चे!
मैंने एक बार पूछ भी लिया,
“आप लोग इतनी कम उम्र में लड़कियों की शादी क्यों देते हो?”
“अरे कम कहाँ, लल्ला? तोहार महतारी अइसे ही तौ रहिन, जब आई रहिन हियाँ, अउर तुँहका जनीं रहीं।”
“अउर का! हमार पतोहुआ अउर हमार निसवा दूनौ एक्कै उमरिया कै तौ हैं!”
जब तक उनका खाना चला, तब तक मेरी आधी मालिश हो भी गई। इस दौरान वो महिला मुझसे मेरी पढ़ाई लिखाई इत्यादि से सम्बंधित प्रश्न पूछती रहीं। आज फुर्सत थी, इसलिए वो अपना ‘एयर टाइम’ लेना चाहती थीं। माँ से भी उन्होंने काफी देर तक बात की। मुझे सरसों के तेल से सना हुआ देख कर निशा ऐसे शरमा रही थी जैसे मैं नहीं, वो ही नंगी हो! वैसा ही हाल भाभी का भी था। खैर, उनको बचाने उनका बच्चा आ गया - वो रोने लगा, तो वो उसको दूध पिलाने में व्यस्त हो गई। बड़ी अजीब सी स्थिति थी - भाभी एक कम उम्र लड़की थीं। और उस पर उनका बच्चा भी जल्दी हो गया लगता था। उन्होंने एक हल्की, पीले रंग साड़ी पहनी हुई थी, और लाल रंग का ब्लाउज। जब ब्लाउज खुला तो देखा कि उनके स्तन तो सावित्री से छोटे थे। जैसा मैंने पहले भी कहा है, कि संभव है कि गाँवों देहातों में, जब स्त्रियों को बच्चा हो जाता है, तो उसके बाद उनको अपनी छातियों को ले कर कोई ख़ास लाज शरम नहीं रह जाती है। तो इस बात की किसी को परवाह नहीं हुई कि भाभी के ‘स्तन’ खुले हुए थे।
खैर, मेरी मालिश के बाद, चाची माँ की भी मालिश करना चाहती थीं, लेकिन माँ ने बहाना कर दिया। जब मेहमान जाने लगे, तब माँ ने मुझे भेंट में जो भी रुपए मिले थे वो, और अपनी तरफ से भी मिला कर, दोनों लड़कियों को दो सौ इक्यावन - दो सौ इक्यावन रुपए आशीर्वाद स्वरुप दिए। भाभी तो गाँव के रिश्ते में माँ की बहू हुई, और निशा लड़की - इसलिए दोनों को आशीर्वाद में कुछ देना आवश्यक था। देखने में यह एक छोटी सी रक़म लगती है, लेकिन आज के समय में उसका मूल्य करीब करीब ढाई - ढाई हज़ार रुपए दोनों को मिले। यह रकम आज के समय में भी गाँव वालों के लिए एक बड़ी रकम होती है।