मैं और मेरा परिवार मूलतः केरल राज्य से हैं। वो अलग बात है कि मेरा जन्म और मेरी परवरिश उत्तरी-भारत में हुई। फिर भी वंशावली के नाते, केरल से मेरे सम्बन्ध सदैव रहे। केरल को भारत में 'देवों के देश' के नाम से जाना जाता है। उसके कई सारे कारण हो सकते हैं - एक तो यह कि केरल प्राकृतिक रूप से एक अत्यंत सुन्दर भूमि है - हमारे लाख दुष्प्रयत्नों के बाद भी यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता अभी भी लगभग वैसी ही है जैसी की लगभग एक सहस्त्र वर्ष पहले रही होगी। सहस्त्रों वर्षों से विभिन्न मानव जातियाँ केरल आती रहीं, और मिलती रहीं। द्रविड़, सीरिआई, आर्य, अरबी और ऐसी ही कई प्रकार की मानव जातियाँ यहाँ आईं और मिलती रहीं। और इसी मिश्रित परम्पराओं से उपजी है केरल की अत्यंत संपन्न संस्कृति!
खैर, भावनाओं की रौ में बहने से पहले मैं अब कुछ अपने और अपने परिवार के बारे में बता देता हूँ। मेरे परिवार में बस हम तीन लोग ही हैं। मैं, मेरी माँ और मेरे पिता। मेरे पिता, मेरी माँ से करीब दस साल बड़े हैं – उनका विवाह कोई प्रेम विवाह नहीं था, बल्कि उनके माता-पिता द्वारा तय किया हुआ विवाह था। उन दिनों लड़कियों की शादी बहुत जल्दी हो जाती थी। उस लिहाज़ से माँ का विवाह होने में कुछ देर हो गई। उसी जल्दबाज़ी में जो भी पहला, बढ़िया वर मिल पाया, उसी से माँ को ब्याह दिया गया। उन दोनों के विवाह का एक ही कारण था, और वो था मेरे पिता की सरकारी नौकरी! वो अलग बात है कि बाद में मालूम पड़ा कि वो एक अच्छे इंसान भी हैं। विवाह के बाद उन्होंने माँ को काफी प्रोत्साहन दिया, जिसके कारण उन्होंने मुझे जन्म देने के बाद स्वयं भी नौकरी करना आरम्भ कर दिया। आगे की पढ़ाई नहीं करी लेकिन एक बैंक में माँ क्लर्क का काम करती थीं। पिता जी तब तक सिंचाई विभाग में अधिवीक्षक बन गए थे। उन दोनों की ही नौकरियाँ उत्तर-भारत में थीं। और सरकारी नौकरी होने के बावजूद उनका ज्यादातर समय अपने अपने कार्य में ही बीतता था।
मैं बचपन से ही काफी जीवंत था। मेरा पूरा समय इधर उधर भागने दौड़ने, और खेलने में ही बीत जाता था। और मेरी ऊर्जा का मुकाबला न तो मेरे पिता ही कर पाते थे, और न ही मेरी माता। समय से बहुत पहले ही बूढ़े हो गए थे दोनों। मेरे जन्म के समय माँ के शरीर में कुछ जटिलता उत्पन्न हो गई थी, इसलिए उनको और संताने नहीं हो सकीं - अन्यथा उन दिनों सिर्फ एक संतान का चलन नहीं था। बच्चों की एक पूरी लड़ी लग जाती थी। खैर, काम के बोझ से मेरे माता पिता दोनों ही थके हुए और चिड़चिड़े से रहते थे। इसलिए मेरे साथ बहुत समय नहीं बिता पाते थे। और फिर जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ी, वैसे वैसे हमारे बीच दूरियाँ बढ़ती गईं। ऐसा नहीं है कि मैं उनका आदर नहीं करता था, या फिर वो मुझसे प्रेम नहीं करते थे। मैं उनका आदर भी करता था, और वो मुझसे प्रेम भी करते थे। बस हमारे बीच में यह दिक्कत थी कि हम एक दूसरे से अपनी भावनाएं खुल कर नहीं कह पाते थे। इन सब बातों का मुझ पर असर यह हुआ कि मैं अपने शुरूआती जीवन के बाद, बहुत जल्दी ही आत्म-निर्भर हो गया। अपना सब काम, और घर के कुछ काम मैं कर लेता था। इस कारण से आज़ाद ख़याली भी काफ़ी हो गई थी, और उसके कारण मेरी सोच भी भेड़-चाल से भिन्न विकसित होती गई। पढ़ाई लिखाई में मैं साधारण ही था। न तेज़, न फिसड्डी। कुछ एक बार एकाध विषयों में फ़ेल होते होते बचा था। लेकिन पूरा फ़ेल कभी नहीं!
हमको जब कभी भी उनको छुट्टियां मिलती थी, तो वो समय हम अपने तय स्थान केरल जा कर मनाते थे। केरल में मेरे नाना-नानी और मौसी रहते थे। नाना-नानी की कई संतानें हुईं : माँ से पहले दो, फिर माँ, उनके बाद दो और, फिर मौसी, फिर एक और। लेकिन अधिकतर बच्चों की मृत्यु हो गई थी - कोई मृत पैदा हुए, तो कोई जन्म के कुछ दिनों में मर गए। केवल मेरी माँ और मौसी ही जीवित बच सके। लिहाज़ा, माँ और मौसी के बीच उम्र का लम्बा चौड़ा अंतर था। मेरी मौसी अल्का मुझसे कोई दस साल बड़ी रही होंगी। उनका नाम उनके घने घुंघराले बालों के कारण ही पड़ा था। सच तो यह है कि मैं केरल जाने की राह अक्सर ही देखता रहता था - और उसका कारण थीं मेरी मौसी अल्का।
उनके लिए मेरे मन में गंभीर प्रेमासक्ति थी। मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं है की मेरे मन में उनको लेकर किसी प्रकार की कामुक फंतासी थी। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि मेरे मन में इनके लिए एक प्रबल और स्मरणीय स्नेह था। और उनके मन में मेरे लिए! उनसे एक अलग ही तरह का लगाव था मुझे। माँ के ख़ानदान में मैं एकलौता पुरुष संतान बचा हुआ था। उस कारण से भी मुझे काफी तवज्जो मिलती थी। लेकिन मौसी और मेरा एक अलग ही तारतम्य था।
माँ कभी कभी मुझे कहती भी थी : “अल्का तुमको बहुत प्यार करती है। उसके लिए तुम दुनिया के सबसे प्यारे बच्चे हो! और हो भी क्यों न? तुम भी तो उसके सामने एक सीधे सादे बच्चे बन जाते थे!”
यह बात सच भी थी - उनके साथ अपनी छुट्टियों का एक एक पल बिताना भी मुझे अच्छा लगता था। उनके आस पास रहने से मेरी अतिसक्रियता अचानक ही कम हो जाती थी। वो मुझे पुस्तक से पढ़ कर कोई कहानी सुनातीं, तो मैं चुपचाप बैठ कर सुन लेता। वो जो भी कहतीं, मैं बिना किसी प्रतिवाद के कर देता। अल्का मौसी बदले में मेरे साथ विनोदप्रियता, बुद्धिमत्ता और प्रेम से व्यवहार करती थीं। न तो वो कभी मुझसे ऊंची आवाज़ में बात करती थीं, और न ही कभी मेरी मार पिटाई। और प्रेम तो इतना करतीं कि बस पूछिए मत! दुनिया में वो मेरी सबसे पसंदीदा व्यक्ति थीं।
जब तक मैं छोटा था, तब तक प्रत्येक वर्ष हम दो बार केरल अवश्य जाते थे। लेकिन मेरे बड़े होने के साथ साथ माता-पिता की जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगीं और मेरी पढ़ाई का बोझ भी। नाना जी की मृत्यु (तब मैं ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा!) के समय हम सभी दो बार साथ में गए, और उसके बाद केरल जाना कम होता गया। नाना जी की बहुत बड़ी खेती थी, और उसको सम्हालने का कार्य अब मौसी के सर था। आश्चर्य की बात है की ऐसा सश्रम कार्य मौसी बखूबी और कुशलता से निभा रही थीं।
मेरी नानी अब करीब पैंसठ साल की हो चुकीं थीं, और अब उनकी सभी इन्द्रियां शिथिल पड़ गईं थीं। उनको अब ठीक से दिखाई, और सुनाई नहीं देता था। सात बच्चे हो जाने कारण उनके शरीर में ऐसे ही कमज़ोरी आ गई थी। उनके हाथ कांपते थे; गठिया और मृदुलास्थि के कारण ठीक से चल भी नहीं पाती थीं। उनकी देखभाल और खेती के कार्य के बढ़ते बोझ के कारण मौसी ने विवाह करने से भी मना कर दिया था। उनका कहना था कि यह दो जिम्मेदारियां उनके लिए बहुत हैं! ज्ञात रहे, कि उन दिनों अगर कोई लड़की अट्ठाइस साल की हो जाए, और अविवाहित हो, तो केरल के ग्रामीण परिद्रेश्य में वो विवाह योग्य नहीं रहती। वैसे तो कुछेक लोग अभी भी उनके लिए विवाह प्रस्ताव लाते थे, लेकिन उनकी दृष्टि सिर्फ मौसी की धन-सम्पदा पर ही थी। इसलिए उनके विवाह की कोई भी सम्भावना अब लगभग नगण्य थी।
लेकिन मेरे मन में एक अबूझ सी बात अक्सर आती। मैं जब भी अलका मौसी के बारे में सोचता, या फिर जब भी उनको देखता, तो मुझे लगता कि हो न हो - उन्ही के जैसी कोई लड़की मेरे लिए ठीक है... हर प्रकार से! जिस प्रकार से वो विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाती हैं, वो एक तरह से बहुत ही आकर्षक, रोचक और एक तरह से दिलासा देने वाला भाव उत्पन्न करता है। उन के जैसी मृदुभाषी, कर्मठ, विभिन्न कलाओं में दक्ष, समाज में आदरणीय लड़की कौन नहीं चाहेगा! लेकिन देखिए - कोई नहीं चाहता। ख़ैर...