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Romance मंगलसूत्र [Completed]

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avsji

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मैं और मेरा परिवार मूलतः केरल राज्य से हैं। वो अलग बात है कि मेरा जन्म और मेरी परवरिश उत्तरी-भारत में हुई। फिर भी वंशावली के नाते, केरल से मेरे सम्बन्ध सदैव रहे। केरल को भारत में 'देवों के देश' के नाम से जाना जाता है। उसके कई सारे कारण हो सकते हैं - एक तो यह कि केरल प्राकृतिक रूप से एक अत्यंत सुन्दर भूमि है - हमारे लाख दुष्प्रयत्नों के बाद भी यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता अभी भी लगभग वैसी ही है जैसी की लगभग एक सहस्त्र वर्ष पहले रही होगी। सहस्त्रों वर्षों से विभिन्न मानव जातियाँ केरल आती रहीं, और मिलती रहीं। द्रविड़, सीरिआई, आर्य, अरबी और ऐसी ही कई प्रकार की मानव जातियाँ यहाँ आईं और मिलती रहीं। और इसी मिश्रित परम्पराओं से उपजी है केरल की अत्यंत संपन्न संस्कृति!

खैर, भावनाओं की रौ में बहने से पहले मैं अब कुछ अपने और अपने परिवार के बारे में बता देता हूँ। मेरे परिवार में बस हम तीन लोग ही हैं। मैं, मेरी माँ और मेरे पिता। मेरे पिता, मेरी माँ से करीब दस साल बड़े हैं – उनका विवाह कोई प्रेम विवाह नहीं था, बल्कि उनके माता-पिता द्वारा तय किया हुआ विवाह था। उन दिनों लड़कियों की शादी बहुत जल्दी हो जाती थी। उस लिहाज़ से माँ का विवाह होने में कुछ देर हो गई। उसी जल्दबाज़ी में जो भी पहला, बढ़िया वर मिल पाया, उसी से माँ को ब्याह दिया गया। उन दोनों के विवाह का एक ही कारण था, और वो था मेरे पिता की सरकारी नौकरी! वो अलग बात है कि बाद में मालूम पड़ा कि वो एक अच्छे इंसान भी हैं। विवाह के बाद उन्होंने माँ को काफी प्रोत्साहन दिया, जिसके कारण उन्होंने मुझे जन्म देने के बाद स्वयं भी नौकरी करना आरम्भ कर दिया। आगे की पढ़ाई नहीं करी लेकिन एक बैंक में माँ क्लर्क का काम करती थीं। पिता जी तब तक सिंचाई विभाग में अधिवीक्षक बन गए थे। उन दोनों की ही नौकरियाँ उत्तर-भारत में थीं। और सरकारी नौकरी होने के बावजूद उनका ज्यादातर समय अपने अपने कार्य में ही बीतता था।

मैं बचपन से ही काफी जीवंत था। मेरा पूरा समय इधर उधर भागने दौड़ने, और खेलने में ही बीत जाता था। और मेरी ऊर्जा का मुकाबला न तो मेरे पिता ही कर पाते थे, और न ही मेरी माता। समय से बहुत पहले ही बूढ़े हो गए थे दोनों। मेरे जन्म के समय माँ के शरीर में कुछ जटिलता उत्पन्न हो गई थी, इसलिए उनको और संताने नहीं हो सकीं - अन्यथा उन दिनों सिर्फ एक संतान का चलन नहीं था। बच्चों की एक पूरी लड़ी लग जाती थी। खैर, काम के बोझ से मेरे माता पिता दोनों ही थके हुए और चिड़चिड़े से रहते थे। इसलिए मेरे साथ बहुत समय नहीं बिता पाते थे। और फिर जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ी, वैसे वैसे हमारे बीच दूरियाँ बढ़ती गईं। ऐसा नहीं है कि मैं उनका आदर नहीं करता था, या फिर वो मुझसे प्रेम नहीं करते थे। मैं उनका आदर भी करता था, और वो मुझसे प्रेम भी करते थे। बस हमारे बीच में यह दिक्कत थी कि हम एक दूसरे से अपनी भावनाएं खुल कर नहीं कह पाते थे। इन सब बातों का मुझ पर असर यह हुआ कि मैं अपने शुरूआती जीवन के बाद, बहुत जल्दी ही आत्म-निर्भर हो गया। अपना सब काम, और घर के कुछ काम मैं कर लेता था। इस कारण से आज़ाद ख़याली भी काफ़ी हो गई थी, और उसके कारण मेरी सोच भी भेड़-चाल से भिन्न विकसित होती गई। पढ़ाई लिखाई में मैं साधारण ही था। न तेज़, न फिसड्डी। कुछ एक बार एकाध विषयों में फ़ेल होते होते बचा था। लेकिन पूरा फ़ेल कभी नहीं!

हमको जब कभी भी उनको छुट्टियां मिलती थी, तो वो समय हम अपने तय स्थान केरल जा कर मनाते थे। केरल में मेरे नाना-नानी और मौसी रहते थे। नाना-नानी की कई संतानें हुईं : माँ से पहले दो, फिर माँ, उनके बाद दो और, फिर मौसी, फिर एक और। लेकिन अधिकतर बच्चों की मृत्यु हो गई थी - कोई मृत पैदा हुए, तो कोई जन्म के कुछ दिनों में मर गए। केवल मेरी माँ और मौसी ही जीवित बच सके। लिहाज़ा, माँ और मौसी के बीच उम्र का लम्बा चौड़ा अंतर था। मेरी मौसी अल्का मुझसे कोई दस साल बड़ी रही होंगी। उनका नाम उनके घने घुंघराले बालों के कारण ही पड़ा था। सच तो यह है कि मैं केरल जाने की राह अक्सर ही देखता रहता था - और उसका कारण थीं मेरी मौसी अल्का।

उनके लिए मेरे मन में गंभीर प्रेमासक्ति थी। मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं है की मेरे मन में उनको लेकर किसी प्रकार की कामुक फंतासी थी। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि मेरे मन में इनके लिए एक प्रबल और स्मरणीय स्नेह था। और उनके मन में मेरे लिए! उनसे एक अलग ही तरह का लगाव था मुझे। माँ के ख़ानदान में मैं एकलौता पुरुष संतान बचा हुआ था। उस कारण से भी मुझे काफी तवज्जो मिलती थी। लेकिन मौसी और मेरा एक अलग ही तारतम्य था।

माँ कभी कभी मुझे कहती भी थी : “अल्का तुमको बहुत प्यार करती है। उसके लिए तुम दुनिया के सबसे प्यारे बच्चे हो! और हो भी क्यों न? तुम भी तो उसके सामने एक सीधे सादे बच्चे बन जाते थे!”

यह बात सच भी थी - उनके साथ अपनी छुट्टियों का एक एक पल बिताना भी मुझे अच्छा लगता था। उनके आस पास रहने से मेरी अतिसक्रियता अचानक ही कम हो जाती थी। वो मुझे पुस्तक से पढ़ कर कोई कहानी सुनातीं, तो मैं चुपचाप बैठ कर सुन लेता। वो जो भी कहतीं, मैं बिना किसी प्रतिवाद के कर देता। अल्का मौसी बदले में मेरे साथ विनोदप्रियता, बुद्धिमत्ता और प्रेम से व्यवहार करती थीं। न तो वो कभी मुझसे ऊंची आवाज़ में बात करती थीं, और न ही कभी मेरी मार पिटाई। और प्रेम तो इतना करतीं कि बस पूछिए मत! दुनिया में वो मेरी सबसे पसंदीदा व्यक्ति थीं।

जब तक मैं छोटा था, तब तक प्रत्येक वर्ष हम दो बार केरल अवश्य जाते थे। लेकिन मेरे बड़े होने के साथ साथ माता-पिता की जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगीं और मेरी पढ़ाई का बोझ भी। नाना जी की मृत्यु (तब मैं ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा!) के समय हम सभी दो बार साथ में गए, और उसके बाद केरल जाना कम होता गया। नाना जी की बहुत बड़ी खेती थी, और उसको सम्हालने का कार्य अब मौसी के सर था। आश्चर्य की बात है की ऐसा सश्रम कार्य मौसी बखूबी और कुशलता से निभा रही थीं।

मेरी नानी अब करीब पैंसठ साल की हो चुकीं थीं, और अब उनकी सभी इन्द्रियां शिथिल पड़ गईं थीं। उनको अब ठीक से दिखाई, और सुनाई नहीं देता था। सात बच्चे हो जाने कारण उनके शरीर में ऐसे ही कमज़ोरी आ गई थी। उनके हाथ कांपते थे; गठिया और मृदुलास्थि के कारण ठीक से चल भी नहीं पाती थीं। उनकी देखभाल और खेती के कार्य के बढ़ते बोझ के कारण मौसी ने विवाह करने से भी मना कर दिया था। उनका कहना था कि यह दो जिम्मेदारियां उनके लिए बहुत हैं! ज्ञात रहे, कि उन दिनों अगर कोई लड़की अट्ठाइस साल की हो जाए, और अविवाहित हो, तो केरल के ग्रामीण परिद्रेश्य में वो विवाह योग्य नहीं रहती। वैसे तो कुछेक लोग अभी भी उनके लिए विवाह प्रस्ताव लाते थे, लेकिन उनकी दृष्टि सिर्फ मौसी की धन-सम्पदा पर ही थी। इसलिए उनके विवाह की कोई भी सम्भावना अब लगभग नगण्य थी।

लेकिन मेरे मन में एक अबूझ सी बात अक्सर आती। मैं जब भी अलका मौसी के बारे में सोचता, या फिर जब भी उनको देखता, तो मुझे लगता कि हो न हो - उन्ही के जैसी कोई लड़की मेरे लिए ठीक है... हर प्रकार से! जिस प्रकार से वो विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाती हैं, वो एक तरह से बहुत ही आकर्षक, रोचक और एक तरह से दिलासा देने वाला भाव उत्पन्न करता है। उन के जैसी मृदुभाषी, कर्मठ, विभिन्न कलाओं में दक्ष, समाज में आदरणीय लड़की कौन नहीं चाहेगा! लेकिन देखिए - कोई नहीं चाहता। ख़ैर...
 

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उनकी देखा-देखी मुझे भी मन होता था कि मैं भी खेती करूँ। आज कल कृषि एक कर्मनाशा व्यवसाय हो गया है, लेकिन मानव-जाति की असंख्य पीढ़ियाँ यही व्यवसाय कर के उन्नति कर सकीं। इसलिए बड़े होते होते मैंने भी यह ठान लिया था कि कृषि क्षेत्र में ही स्नातक की पढ़ाई कर खेती का व्यवसाय करुंगा। इस हेतु मैंने दुनिया भर में कृषि क्षेत्र में चल रहे वैज्ञानिक उन्नति के बारे में पढ़ना और समझना शुरू कर दिया था, और जल्दी ही मेरे मस्तिष्क में कृषि के आधुनिकीकरण को लेकर कई सारे विचार और प्रयोग उत्पन्न हो गए। लेकिन, मेरे इस निर्णय से मेरे माता पिता सबसे अधिक चिंतित रहते थे - उनको लगता था की यह बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय नहीं था, और नौकरी करना ही श्रेयस्कर था। उन दोनों ने मुझे मनाने की बहुत कोशिश करी, लेकिन मेरे तर्क के सामने बेबस हो गए। खैर, मेरे बारहवीं करते करते उन्होंने मुझे एक साल का अवसर दिया कि मैं अपनी सोच और प्रयोग केरल में हमारी खेती पर सफलतापूर्वक आज़मा सका तो वो मुझे इसी क्षेत्र में जाने देंगे, अन्यथा मुझे उनकी बात माननी पड़ेगी और नौकरी करनी पड़ेगी। मेरे पास उनकी बात मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था।

अल्का मौसी ने मेरे निर्णय पर मेरे सामने तो ख़ुशी ज़ाहिर करी, लेकिन मेरे माता-पिता के सामने नहीं। दरअसल, बिना मेरे माता पिता को बताए, वो मेरे सुझावों को हमारी खेती में पिछले तीन चार साल से इस्तेमाल कर रहीं थी, और इसके कारण खेती में पहले ही बहुत उन्नति हो चुकी थी। मेरा केरल जाना कम हो गया था, लेकिन फ़ोन और डाक के जरिए मौसी और मेरी बात-चीत चलती रहती थी। मेरे सुझावों के कारण, पिछले इन तीन वर्षों में हमारी कृषि आय प्रतिवर्ष औसतन कोई बीस प्रतिशत बढ़ी। यह एक बड़ी बात थी। मौसी अगर यह बात मेरे माता पिता को बता देतीं, तो उनके सामने मेरी बात मानने का कोई चारा न रहता! लेकिन मेरे ही आग्रह के कारण उन्होंने यह रहस्य मेरे माता-पिता के सामने नहीं खोला। खैर, केरल जाने से पूर्व मुझे उनसे एक बार पुनः एक लम्बा चौड़ा भाषण सुनना पड़ा और अंततः मैं केरल के लिए रवाना हो गया। पहले साल में सिर्फ एक दो बार ही वहाँ जाता था, और वो भी बस एक एक सप्ताह के लिए, लेकिन इस बार पूरे एक साल के लिए जा रहा था, और वो भी अपने सपने को साकार करने के लिए। अपना भविष्य बनाने! मैं बहुत खुश था!

तब उत्तर भारत से केरल तक जाने में काफी अधिक समय लग जाता था। एक ट्रैन थी, जो कि करीब ढाई दिन लेती थी एर्नाकुलम तक पहुँचने में। फिर वहाँ से बस, और फिर बैलगाड़ी ले कर करीब तीन दिन की एक लम्बी यात्रा के बाद मैं शाम को अपने ननिहाल पहुंचा।

“अम्माई (मौसी)!” मैंने जैसे ही अल्का मौसी को दरवाज़े पर देखा, मेरे चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान फ़ैल गई। मौसी का चेहरा पहले से ही ख़ुशी में सौ वाट के बल्ब जैसा चमक रहा था।

“चिन्नू!!”

मेरा नाम वैसे तो अर्चित है, लेकिन मौसी मुझे चिन्नू ही कहती हैं। वो मुझसे मिलने के लिए दौड़ती हुई मेरे पास आईं। उनके पास आकर मैं उनके पैर छूने के लिए झुका तो उन्होंने मुझे बीच में ही रोक लिया और अपने गले से लगा लिया।

“इतने दिनों के बाद आए! मेरी याद नहीं आती?” मौसी ने लाड़ से शिकायत करी।

“आती क्यों नहीं! बहुत आती है। लेकिन अम्मा और अच्चन पढ़ाई के बहाने से मुझे आने ही नहीं दिए। अब आया हूँ - इस बार तो कम से कम पूरे साल भर रहूँगा! और अगर किस्मत तेज रही, तो हमेशा!”

उनके गले लग कर मुझे महसूस हुआ, कि वाकई उनकी कितनी कमी महसूस होती रही है मुझे। मैंने उसी आवेश में उनको और ज़ोर से गले लगा लिया, और उनके गाल को चूम लिया। मौसी मुस्कुराई। और मुझे कंधे से पकड़े हुए ही एक दो कदम पीछे हट कर मुझे देखने लगी।

“तुम तो कितने बड़े हो गए!! मुझसे भी ऊंचे!”

“हा हा हा!”

“और सिर्फ ऊंचे ही नहीं,” उन्होंने मेरी भुजाओं को महसूस करते हुए कहना जारी रखा, “मज़बूत भी!”

“एक्सरसाइज करता हूँ न!” मैंने इम्प्रैशन झाड़ा!

“हाँ! तभी तो! वरना वहाँ का खाना पीना तो यहाँ के जैसा थोड़े ही है!” वो मुझे ऐसे देख रही थीं, जैसे मेरे पूरे शरीर का अनुपात पता लगा लेंगी...

“पिछली बार जब तुम आए थे तो कैसे दुबले पतले थे.… लेकिन अभी देखो! पूरे नौजवान बन गए हो! और हैंडसम भी!” उन्होंने आँख मारते हुए कहा।

“क्या अम्माई!” मैंने झेंप गया, लेकिन मैंने भी उनकी खिंचाई करी, “वैसे, तुम भी कुछ कम नहीं लग रही हो।”

“हा हा! हाँ, यहाँ की धूप, धूल-मिट्टी, और गर्मी मुझे बहुत रास आ रही है! चल अंदर आ!”

मौसी अपने साँवले रंग की तरफ इशारा कर रही थीं, लेकिन मेरा इशारा उनकी गढ़न की तरफ था। कम से कम उनके सीने पहले से अधिक विकसित हो गए थे। जब आखिरी बार उनको देखा था, तो वो पतली दुबली, सुकुड़ी सी लड़की थीं। लेकिन शायद उम्र के एक पड़ाव के बाद स्त्रियों का शरीर भरने लगता है। मौसी में यह परिवर्तन देर से ही सही, लेकिन हो रहे थे। जब मैं बहुत छोटा था, तब तो मौसी भी छोटी ही थीं। उस समय मुझे हम दोनों को हमारी उम्र में वाकई कोई अंतर नहीं लगता था। क्योंकि वो मुझसे मौसी के जैसे कम और दोस्त के जैसे अधिक बर्ताव करती थीं। छुटपन में हमारे लिए एक दूसरे के सामने यूँ ही नंगे घूमना, और वैसे ही साथ में खेलना एक आम बात थी। लेकिन धीरे धीरे हमारे शरीरों में परिवर्तन होने लगे। छोटा लड़का होने के नाते मेरे शरीर में परिवर्तन धीरे हो रहा था, लेकिन मेरी हर केरल यात्रा के दौरान मैं अलका मौसी के शरीर में जो अंतर देखता था, वो मुझे बहुत रोचक जान पड़ता।
 

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लेकिन पिछले तीन चार वर्षों में उनका जैसे कायाकल्प हो गया था! यौवन ने जैसे जीवन के स्त्रोत से रस सोख लिया था। मौसी का रूप हर बार मुझे और निखरा हुआ लगता था... मुझे ही नहीं, बल्कि हम सभी को! उनका चेहरा कई मायनों में बदल गया था... ऐसे नहीं की उनकी शक्ल ही बदल गई हो, बस वो छोटे छोटे, लगभग अपरिभाष्य तरीके से आते हैं, वो! उनके चेहरे पर से धीरे-धीरे बालपन की सुंदरता की जगह, यौवन के लावण्य ने ले ली थी। उनके होंठ अब और अधिक रसीले हो गए थे, उनकी मुस्कान पहले से भी प्यारी और आकर्षक हो गई थी। मौसी जब छोटी थीं, तो साफ रंग की थीं, लेकिन खेत पर काम के कारण अब उनके रंग में सांवलापन बैठ गया था। लेकिन मैंने एक बात ध्यान दी कि वो काफी सुन्दर लगती हैं। अगर कैराली मर्द रंग के पर्दे के परे देख सकते तो समझते!

मेरे सामने वो बहुत पहले से ही नग्न होना बंद कर चुकी थी - लेकिन ऐसा नहीं था कि उन्होंने मुझे अपने नवोदित स्तनों को छूने या महसूस करने से रोका हो। हमारी हर केरल यात्रा में किसी न किसी बहाने से मैं उनके स्तनों को छूता या टटोलता ज़रूर था, और उनको यह बात भली भांति मालूम भी थी। और सबसे अच्छी बात यह, कि वो मुझे रोकती भी नहीं थीं। वो अलग बात है कि पिछले दो बार से मैंने ऐसी कोई चेष्टा नहीं करी। लेकिन मैं हर बार उनके आकार बदलते स्तनों को एक नया नाम देता - कभी चेरुनारेंगा (नींबू), तो कभी सातुकुड़ी (संतरा)! वो भी मेरे मज़ाक का बुरा नहीं मानती थीं - बल्कि मेरे साथ खुद भी इस बात पर हंसती थीं।

घर में आ कर मैंने नानी के पैर छू कर उनसे आशीर्वाद लिया। हमारी बहुत पुरानी वित्तुवेल्लक्कारी (आया... नौकरानी नहीं) चिन्नम्मा भी थीं। मैंने उनके भी पैर छू कर आशीर्वाद लिए। चिन्नम्मा अब इस घर का अभिन्न हिस्सा थीं। उनके बिना घर का काम आगे नहीं बढ़ सकता था। हाँलाकि उनका घर लगभग दस मिनट की दूरी पर था, लेकिन दिन का ज्यादातर समय उनका नानी की और घर की देखभाल में बीतता था। सभी से हाल चाल लेने के बाद, स्नान कर के मैं भोजन करने को बैठा। मौसी मेरे स्वागत के लिए उस दिन, और अगले पूरे दिन घर पर ही रहीं। उनसे पूरे तीन साल बाद मिला था। वो जम कर मेरी आवभगत करना चाहती थीं। आज करीमीन पोळीचट्टु, एराची उल्लरथीयद्दु, अप्पम, चावल, और पायसम पकाया गया था। वैसे भी उत्तर भारत में इस प्रकार के व्यंजन उपलब्ध नहीं हो पाते। तो मैंने डट कर खाया। वैसे भी रास्ते भर ठीक से खाना नहीं हो सका। गाँव में बिजली की व्यवस्था नहीं थी। इसलिए दिन जल्दी ही समाप्त हो जाते थे उन दिनों।

नाना का घर बड़ा था, लेकिन आज कल घर का ज्यादातर हिस्सा एक तरह का गोदाम बन गया था। उपज अधिक होने के कारण बाकी सारे कमरों को कोठरी के जैसे ही इस्तेमाल किया जा रहा था। इसलिए अब सिर्फ दो ही कमरे खुले हुए थे। एक कमरे में तो नानी रहती थीं, दूसरे में मौसी। इसलिए अब मेरे पास बस दो ही विकल्प थे - एक तो घर के बाहर सोना या रहना या फिर मौसी के साथ! लेकिन बाहर सोने की आदत अब ख़त्म हो गई थी। मच्छर और अन्य कीड़े मकोड़ों का डर भी था। जब तक अभ्यस्थ न हो जाएँ नए परिवेश में, तब तक बार सोने का जोखिम लेना मूर्खतापूर्ण काम था। इतने वर्षों तक अकेले सोने के बाद मेरी किसी के संग सोने की आदत नहीं थी। खासतौर पर किसी लड़की के साथ! सतही तौर पर मैंने थोड़ी बहुत शिकायत तो करी, लेकिन फिर भी मौसी जैसी सुन्दर लड़की के साथ ‘सोने’ के अवसर पर मेरा मन प्रफुल्लित भी था। भई, अब मैं भी जवान हो गया था, और इस उम्र में लड़की का साथ बुरा तो नहीं लगता। वो अलग बात थी कि नानी की दृष्टि में मैं अभी भी छोटा बच्चा ही था।

माँ ने जाने से पूर्व मुझे कई सारे सामान दिए थे, मौसी, नानी, चिन्नम्मा और गाँव के अन्य ख़ास लोगों के लिए उपहार स्वरुप! शाम को मुझसे मिलने के लिए परिवार के कुछ अभिन्न मित्र आए हुए थे। उनसे मैंने कुछ देर बात करी, और उनको उनके हिस्से के उपहार सौंप दिए। छोटे से समाज में रहने के बड़े लाभ है – जैसे की अभी की बात देख लीजिए। जो लोग मिलने आए, वो लोग कुछ न कुछ साथ में लाए भी। कुछ लोग रात के खाने के लिए व्यंजन भी साथ ले आए थे। इसलिए घर में उस रात अधिक कुछ पकाना नहीं पड़ा।

खैर, जब हम रात को कमरे में आए, तो मौसी ने कहा कि अब मैं उनको अम्माई न कहा करूँ... सिर्फ अल्का कहा करूँ! एक तो अम्माई बहुत ही औपचारिक शब्द है, और अगर हम दोनों कहीं साथ में जा रहे हों, और मैंने उनको ‘मौसी’ कह कर बुलाया तो लोग समझेंगे कि कोई बुढ़िया जा रही है... और ऊपर से अगर हम दोनों साथ में सोने वाले हैं तो एक दूसरे का नाम ले कर बुलाने में कोई हर्ज़ नहीं है। यह बात कहते हुए वो हलके से मुस्कुरा भी रही थीं, और उनका चेहरा शर्म से कुछ कुछ लाल भी होता जा रहा था। मुझे थोड़ी हिचकिचाहट सी हुई। ऐसे कैसे अम्माई से अलका बोलने लग जाऊँगा। खैर, अंत में निश्चित हुआ कि शुरुआत में जब हम अकेले हों, तब तो मैं उनको अलका कह कर बुला सकता हूँ।

फिर मैंने अलका के लिए अम्मा ने जो सामान दिया था, वो उनको दिखा दिया। अधिकतर तो बस कपड़े लत्ते ही थे। अम्मा ने बनारसी साड़ी भेजी थी ख़ास। अलका को बहुत पसंद आई। मैंने भी मौसी के लिए अपनी जेब-खर्च से बचा बचा कर एक ‘छोटा सा’ उपहार खरीद लिया था। निक्कर और टी-शर्ट! अम्मा और अच्चन की नज़र से छुपा कर! वो लोग देख लेते तो बहुत नाराज़ होते। ऐसे कपड़े तो अभी दिल्ली की ही लड़कियाँ नहीं पहनती थीं। लेकिन मैंने एक मैगज़ीन में लड़कियों को यह पहने देखा था। इसलिए अपनी कल्पना से मौसी की नाप सोच कर उनके लिए खरीद लिया था। इस चक्कर में मेरा सब संचित धन ख़र्च हो गया था। लेकिन उसकी परवाह नहीं थी। परवाह बस इस बात की थी कि मौसी को यह उपहार पसंद आना चाहिए, और उन्हें स्वीकार होना चाहिए। लेकिन समझ नहीं आ रहा था की वो उनको कैसे दूँ! हम दोनों दोस्त भी थे, लेकिन सम्बन्ध की मर्यादा भी तो थी! हाँलाकि उनके इस खुलेपन के कारण मुझे भी कुछ कुछ हिम्मत आई। मैंने मौसी को उनका ‘उपहार’ दिखाया। वो उस छोटी सी निक्कर को देख कर पहले तो काफी हैरान हुईं, लेकिन फिर हलके से मुस्कुराईं भी!
 

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“मैं इसको कब पहनूंगी? और तुमको कैसे लगा कि मैं ऐसे कपड़े पहन लूंगी?” उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा।

“व्व्व्वो म्म्म्म्मौसी...”

“मौसी नहीं... अल्का कहो! याद है न?”

“ह्ह्ह्हान् अल्का... वो मैंने सोचा की यहाँ तो ऐसे कपड़े मिलते नहीं। इसलिए ले आया। सोचा की आपको अच्छा लगेगा।”

“यहाँ ये कपड़े नहीं मिलते क्योंकि यहाँ कोई ऐसे कपड़े नहीं पहनता। समझे चिन्नू!”

“त त तो? मतलब आप इसे नहीं पहनेंगी?”

“मैंने ऐसे कब कहा? मैंने तो बस इतना कहा कि मैं इसे कब पहनूंगी!” अल्का मुझे छेड़ रही थीं, यह बात मुझे समझ में आ गई। मैंने कुछ हिम्मत दिखाई।

“क्यों? अभी पहन लीजिए?”

“अभी? तुम्हारे सामने?” अल्का का नाटक जारी था।

“हाँ!”

“चिन्नू जी, क्या चल रहा है दिमाग में?”

“अल्का, आज इसी को पहन कर सो जाओ न!” अब मैं भी काफी हिम्मत दिखा रहा था।

“पहन का सो जाओ? मतलब नाईट ड्रेस?”

“हाँ! अगर इसको दिन में नहीं सकती, तो रात में ही पहनो!”

अल्का कुछ देर तक सोच में पड़ी रही, और फिर दोनों कपड़े ले कर कमरे से बाहर निकल गई। कोई दो तीन मिनट बाद ही वो कमरे में वापस आई। वो कमरे में आ कर दरवाज़े के सामने कुछ देर के लिए खड़ी हो गई - जैसे वो स्वयं को मुझे दिखा रही हो और पूछ रही हो, ‘बताओ, कैसी लग रही हूँ?’

मैंने यह दोनों ही कपड़े अपने अंदाजे से खरीदे थे - मेरे दिमाग में दो साल पुरानी अल्का की ही छवि थी। लेकिन अभी की अल्का शारीरिक तौर पर और परिपक्व हो गई थी। इस कारण से जो कपड़े मेरे ख्याल से अल्का के नाप के थे, अभी काफी कसे हुए लग रहे थे, और उसकी देहयष्टि साफ़ दिखा रहे थे। अल्का का शरीर गांधार प्रतिमाओं जैसा था - नपा तुला शरीर, सुडौल ग्रीवा, छाती पर शानदार स्तनों की जोड़ी जो सामने की तरफ अभिमान से उठे हुए थे, क्षीण बल-खाती कमर, और उसके नीचे सौम्य उभार लिए हुए परिपक्व नितम्ब!

अलका ने टी-शर्ट के अंदर किसी भी प्रकार का अधोवस्त्र (ब्रा) नहीं पहना हुआ था, और इस अनुभव से वह भी काफी रोमांचित दिख रही थी। उसके स्तनों के दोनों चूचक और उसके आसपास का करीब दो इंच का गोलाकार हिस्सा टी-शर्ट के होशरी कपड़े को सामने की तरफ ताने हुए थे। इस उम्र तक लड़के लड़कियों को एक दूसरे के शरीर के बारे में ज्ञान तो हो ही जाता है, और मैं भी कोई अपवाद नहीं था। एक नई नई मैगज़ीन आई थी मार्किट में। डेबोनेयर! कहीं से, किसी तरह पैसे जुगाड़ कर हमने एक दो मैगज़ीन खरीदी थीं। पहली बार हिंदुस्तानी लड़कियों को उनके नग्न रूप में देखा था। वैसे तो मैं नग्न लड़कियों की तस्वीरों का विदेशी मैगज़ीनों में कई बार आस्वादन कर चुका था, और मुझे यह तो अच्छे से पता था की लड़कियों के शरीर में कहाँ पर क्या क्या होता है, लेकिन हिंदुस्तानी लड़कियाँ पहली बार डेबोनेयर में ही दिखीं। लेकिन चित्र में देखना और वास्तविकता में देखना दो अलग बातें हैं।

अलका का पेट पूरी तरह सपाट तो नहीं था - उसमें एक सौम्य उभार था, जो कि नीचे की तरफ जाते जाते और जाँघों के जोड़ तक पहुँचते पहुँचते एक प्रकार की गहराई में परिवर्तित होता जा रहा था। इतना तो मुझे मालूम था कि यही हिस्सा अल्का की योनि है, लेकिन मैं उसके बारे में सिर्फ अंदाज़ा लगा सकता था। निक्कर से बाहर उसकी दोनों टाँगे शरीर के अन्य हिस्सों के मुकाबले गोरी थीं और काफी सुडौल थीं। जाँघों, घुटनों और पिण्डलियों की माँस-पेशियाँ काफ़ी उभरी हुई थीं। बाहुबली फिल्म की अवन्तिका याद है (हेरोइन का नाम है तमन्ना)? अरे, याद कैसे नहीं होगी? बस ये समझ लीजिये कि बिलकुल वैसा का शरीर, नाक-नक्श और उम्र! बस, अल्का उसके मुकाबले सांवली थी। आज पहली बार मैंने एक बला जैसी सुन्दर लड़की देखी थी!

“तो?” आखिरकार अल्का ने ही चुप्पी तोड़ी।

मेरी तो जैसे तन्द्रा टूटी! मैं हैरानी से उसको देख रहा था।
 

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“चिन्नू बाबू... कभी लड़की नहीं देखी क्या?” वो मुस्कुराते हुए कह रही थी - वो हल्का फुल्का मज़ाक तो कर रही थी, लेकिन खुद भी कुछ घबराई हुई थी।

“देखी तो है... लेकिन आप जैसी सुन्दर नहीं!”

“हम्म्... अच्छा है फिर तो! ‘मेरे जैसी’ सुन्दर लड़की के साथ सोने का मौका मिलेगा!” कहते हुए वो बिस्तर में मेरे पास आ गई, और आते ही उसने खुद को चद्दर से ढक लिया। मौसम गर्म था, और अब हम दोनों भी! और ऐसे में चद्दर ओढ़ना! यह तो तय बात थी कि वो अपने स्तंभित मुलाक्कन्ना (चूचकों) को ढकना चाहती थी।

“यह निक्कर बहुत कसी हुई है....” कह कर उसने निक्कर के बटन खोल दिए। आवाज़ और उसके हाथ की हरकतों से मुझे इतना तो मालूम हो गया। माहौल बहुत ही भारी हो गया था। हम दोनों ने बहुत देर तक कुछ भी बात नहीं करी।

“और ये टी शर्ट भी!” उन्होंने चुप्पी तोड़ी।

मैं क्या कहता! वो तो लग ही रहा था कि टी शर्ट बहुत कसी हुई थी।

“मेरा साइज़ लगता है कि थर्टी फोर हो गया है!” उन्होंने ऐसे कहा जैसे कि ऐसे ही कोई आम बात कह रही हों।

“मुलाक्कल (स्तनों) का?” मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया।

“हाँ!”

“सातुकुड़ी अब पृयूर बन गए ... हा हा!” मैंने मज़ाक में कहा।

पृयूर दरअसल एक बहुत ही उत्कृष्ट नस्ल का आम होता है जो केरल में होता है। इसके फ़ल में खटास कभी नहीं होती, कच्चा होने पर भी नहीं। और पक जाने पर यह बहुत रसीला, और मीठा हो जाता है।

मेरी इस बात पर वो भी खिलखिला कर हंस पड़ी!

“पृयूर नहीं.. उससे भी बड़े!” उसने हँसते हुए आगे जोड़ा। उनके यह बोलते ही मेरे आँखों के सामने उनके स्तनों का एक परिकल्पित दृश्य घूम गया.. मैंने कुछ कहा नहीं, बस एक हलकी सी, दबी हुई हंसी छोड़ी।

“गुड नाईट चिन्नू” अंततः अल्का ने कहा।

“गुड नाईट अल्का!” मैंने भी कहा और जबरदस्ती सोने की कोशिश करने लगा।

इस तरह के अनुभव के बाद नींद किसको आ सकती है? यही हाल मेरा भी था। और एक समस्या थी - और वह यह कि मैं अब तक अत्यंत कामोत्तेजित हो गया था। यह मेरे लिए वैसे कोई नई बात तो थी नहीं। इस उम्र में वैसे भी हार्मोनों का प्रभाव अपने चरम पर होता है। लेकिन, उससे भी बड़ा कारण थी अल्का, जो मेरे ही बगल लेटी हुई थी, और उस प्रकार के कपड़े पहने हुए थी, जो किसी भी नवयुवक को पागल कर दे! मुझे यह ज्ञान था कि मेरे बगल वही अत्यंत सुन्दर जवान लड़की लेटी हुई थी। और उस लड़की के पास एक कोरी योनि थी, और मेरे पास एक अनभ्यस्त लिंग! न जाने क्यों बंद आँखों के पटल पर एक तस्वीर खिंच गई जिसमें मैं और अलका दोनों नग्न थे, और आलिंगनबद्ध थे।

‘यह कैसा दृश्य!’ कब अलका मेरे ख्यालों में इस तरह आने लग गई! अब जब आ ही गई है, तो मन में एक और विचार कौंधा, ‘क्या मैं अल्का की योनि के कोरे कागज़ पर अपने लिंग की कलम से कोई प्रेम कहानी लिख पाऊंगा?’ ऐसी बातों का उत्तर तो भविष्य की कोख में था! लेकिन मेरा अलका को देखने का नज़रिया बदलने लग गया था। यही सब सोचते सोचते जब नींद आई, तो मेरे सपने में लड़कियों के कामुक सपने आने लगे, और उन लड़कियों के चेहरे अल्का से मिलते जुलते से लगे।
 

LightingEel

Inglorious Basterd
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Aagaz Jab itna sundar hai to aage ki raah kaisi ho ye soch hi nahi paa raha hun. Xossip par aap ki kahani 'kayakalp' padhi thi. Wo bhi bahut hi sundar khani thi. Jis tarah aap ne us khani me prem ko dikhya tha wo bhi Gazab tha aur lagta hai ye kahani bhi waise hi Khhas hogi bas incest Test ke sath ..Aur Naye Kahani ke 5 Update me itne naye words sikhe ki kya batau. Lagta hai kahani khatam hote tak Malyalam jarur sikh jauga. Aur Naye Kahani ke liye Aap ka Swagat Aur Dhanyawad. Miss 🙏🙏
 
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