पहला प्यार - विवाह - Update #2
मेरा इस बार गाँव आना कई वर्षों बाद ही संभव हो पाया था। ग्रामीण सीमा में प्रवेश करते ही अनेक मीठी यादें मेरे मस्तिष्क में दौड़ गईं - वो मालिश का आनंद, नग्न अवस्था में ही गाँव में विचरण करना, गायत्री और उसके साथ बिताया गया समय, वो स्वादिष्ट भोजन! सब सुहानी यादें ताज़ा हो गईं। मन में एक बार को विचार आया कि गायत्री कैसी होगी अब? खैर, पहुँच रहे हैं, तो सब कुछ मालूम पड़ ही जाएगा। गाँव में माँ और डैड पहले से ही हमारी अगवानी के लिए उपस्थित थे। आज तो कुछ हो नहीं सकता था, लेकिन शादी की रस्में सब कल से शुरू हो जानी थीं। हमारी शादी आज से दो दिन बाद, तीसरे दिन, सुबह-सुबह होने वाली थी। तो आज, फिलहाल केवल खा पी कर सोने का ही काम था। कुछ करीबी मेहमान भी वहाँ पहुँचे हुए थे। मजे की बात यह है कि गाँव पहुँचते ही मुझे गैबी से अलग कर दिया गया, और अगले दो दिनों तक मुझे अपने सामान समेत अलग, पड़ोसी चाचा जी - चाची जी के यहाँ रहने को कहा गया। और मुझे गैबी से न मिलने की हिदायद दी गई। यह कितना हास्यास्पद हो सकता है? गाँव में मान्यता है कि विवाह के दिन से पहले वर, अपनी होने वाली वधू को नहीं देखता है, अन्यथा अपशकुन होता है। अब ऐसी मान्यताओं में मेरा या मेरे परिवार में किसी का भी रत्ती भर भी भरोसा नहीं है, लेकिन फिर भी, कभी कभी समाज की धारा के साथ बहना अच्छा होता है - खासतौर पर तब, जब आप जानते हों कि उस समाज में रहने वाले सभी लोग आपके शुभचिंतक हैं!
और फिर, यह एक छोटा सा गाँव था, और लोग पहले से ही एक गोरी बहू के आने से बहुत उत्सुक थे! वे और अधिक सदमे नहीं ले पाएंगे, अगर उन्होंने हमें शादी से पहले ही एक साथ देखा होता! दूसरी बात यह थी कि दूल्हे को सजने सँवरने के लिए कोई ख़ास काम या मेहनत नहीं करनी पड़ती है, लेकिन दुल्हन को ले कर बहुत सारे काम करने होते हैं - अनगिनत रस्में होती हैं, और उनके दौरान कई सारे कपड़े भी बदलने होते हैं। वैसे भी गैबी फिलहाल माँ के संरक्षण में थी, और वो उसको कोई तकलीफ़ होने ही नहीं देंगीं - यह तो मुझे मालूम था। इतना तो मुझे मालूम था कि माँ ने फालतू की कई सारी रस्में, रस्मों की फेहरिस्त से कटा दीं, जिससे गैबी भाव-विह्वल न हो जाये! वैसे ही बेचारी के लिए सब कुछ नया नया था। अब उस पर ऊपर से रस्मों का भार डाल देने से वो तो घबरा ही जाती। उन्होंने यह निश्चित किया कि गैबी को पूरा आराम मिले, और वो सभी रस्मों का, और विवाह तक की सभी कार्यविधि का आनंद उठा सके।
आखिरी बाद जब मैं यहाँ आया था, तो कोई पाँच वर्ष पहले था! तब से अब तक गाँव में अनेक परिवर्तन हो गए थे - गाँव में नहीं - वो तो वैसा ही था - बल्कि वहाँ के समाज में! चाचा जी और चाची जी के बड़े बेटे, बड़कऊ भैया की शादी हो गई थी (उनके लिए वधू की तलाश तो उसी समय की जा रही थी जब मैं पिछली बार गाँव आया था), और अब उनका एक कोई चार साल का बेटा भी था, और उनकी पत्नी अपनी अगली संतान से गर्भवती भी थीं। ननकऊ भैया की भी शादी हो गई थी, और उनका भी एक लगभग दो साल का बेटा था। और तो और, चाचा जी और चाची जी भी संतानोत्पत्ति के मामले में पीछे नहीं थे - जब मैंने उनको आखिरी बार देखा था, तो उनको हाल ही में एक मृत संतान हुई थी। आज उनसे मिला, तो पता चला कि उनको उसके बाद दो और भी संतानें हुईं - एक लड़का, जो अपने बड़े भतीजे से बस कुछ महीने ही पहले हुआ था, और एक नवजात लड़की, जो कोई साल भर की थी। सोचने वाली बात है न - चाचा, बुआ और भतीजे - सब लगभग एक ही उम्र के! लेकिन गाँव देहात में यह सब होता था, और इसको कोई आश्चर्य से नहीं देखता था। और तो और, इसको बड़े गौरव से देखा जाता था, कि बढ़ती उम्र में भी कोई युगल संतानोत्पत्ति में सक्षम है। चाची जी उस समय लगभग पैंतालीस साल की महिला थीं, लेकिन अभी भी जननक्षम थीं! अब इसको तो ईश्वर प्रदत्त प्रसाद ही माना जाएगा! बाद में मुझे पता चला कि चाचा जी और चाची जी अपने अब तक के विवाहित जीवन में नौ बच्चों के माता-पिता बन चुके थे - जिनमें से अब पाँच जीवित थे। ख़ैर, क्षमता एक चीज़ होती है, और इच्छा दूसरी। अपनी बहुओं के साथ ही सास का भी गर्भवती होना ईश्वरीय प्रसाद माना जाता था। चाचा और चाची जी में स्नेह उनके विवाह के इतने सालों बाद भी बरकरार था, यह और भी बड़े गौरव की बात थी। अब अवश्य ही गाँवों के समाज में भी बड़े परिवर्तन आ गए हैं।
मैंने उन सभी को कई वर्षों बाद देखा था - भाभियों और उनकी संतानों को पहली बार - तो उन सभी के पैर छू कर मैंने आशीर्वाद लिया। सभी के इसलिए, क्योंकि रिश्ते में मैं सभी से छोटा था। वो सभी हमारे परिवार समान ही थे। माँ ने मुझे उन सबको देने के लिए उपहारों से भरा एक बैग पहले ही दे दिया था, तो मैंने उन सबको एक एक कर के उनके उपहार सौंप दिए। तीनों स्त्रियाँ अपने लिए महँगी रेशमी साड़ियाँ पा कर अत्यधिक प्रसन्न हुईं। चाचा जी और भाइयों को धोती कुर्ते में ही संतोष करना पड़ा। सभी छोटे बच्चों के लिए नए कपड़े, खिलौने, मिठाइयां और टॉफियाँ - बच्चे तो खैर कुछ भी नया पा कर प्रसन्न हो जाते हैं!
मेरे आने से पहले से ही वो लोग भोजन के लिए मेरी ही राह देख रहे थे, इसलिए मैं उपहार इत्यादि दे कर जल्दी से खाने बैठ गया। गैबी और काजल, माँ और डैड के साथ हमारे घर पर ही थे। चाचा जी ने हँसते हुए मज़ाक में कहा,
“लल्ला, ई तोहरै घर बाय। अउर बियाहे के दिना तक हम सबहि लड़का वाले होई! बियाह के ताईं तोहार बाप महतारी हमहीं हन! तोहार अम्मा बप्पा दूनौ जने लड़की वाले हैं!”
“हम तौ कहिबै किहे हन बहू का और भैया का, कि तू दूनौ जने लड़की वाले रहौ, अउर हम लड़का वाले। कन्यादान तोहरे अम्मा बप्पा करिहैं!” चाची ने हँसते हुए कहा, “लड़की कै बियाह करब तौ पुन्य काम होवत है। यही मारे तोहरै अम्मा बप्पा दूनौ जने बहूरानी कै बाप महतारी रहियैं बियाहे मा!”
गाँव में कभी कभी ऐसा होता है - अगर कोई किसी को अपना अग्रज मानता है, तो विवाह में जो रीतियाँ होती हैं, उनसे ही करने का आग्रह करता है। उदाहरण के लिए, कन्यादान की रस्में लड़की के माता-पिता न कर के, उसके ताऊ और ताई अदा कर देते हैं। वैसे भी चाचा जी और चाची जी को मेरे माँ और डैड अपना अग्रज ही मानते थे। तो यह संभव भी है। खैर, रस्मों का क्या है! मज़िल (अर्थात विवाह) तक पहुँचना आवश्यक है! खाते खाते मैंने उनको अपने काम के बारे में बताया, और शहर में अपने रहन सहन के बाते में बताया। उनको यह जान कर बहुत प्रसन्नता हुई कि दो कमरों के मकान में मैं अकेला ही रहता हूँ। गैबी के बारे में उनको माँ और डैड से थोड़ा मालूम तो था, लेकिन फिर भी उन्होंने उत्सुकता से उसके बारे में कई सारी बातें पूछीं। माँ ने मुझे पहले ही आगाह कर दिया था कि गैबी को ले कर मैं किसी को अनावश्यक ब्यौरा न दूँ - और उससे सम्बंधित सभी बातों को सामाजिक सरोकार की सीमा में ही रखूँ। लिहाज़ा, जब उन्होंने गैबी के माता पिता के बारे में पूछा, तो मैंने केवल इतना ही कहा कि उसके माँ बाप नहीं हैं। माँ ने भी मुझसे यही कहने को कहा था। एक तरीके से ये बात सही भी थी - जिनको अपनी एकलौती लड़की की शादी से न कोई प्रसन्नता हुई और न ही कोई सरोकार रहा, उनके होने या न होने का क्या महत्त्व? खैर, चाचा जी और चाची जी को यह बात पहले से मालूम थी, लेकिन वो केवल बातें करने के लिए मुझसे ये सब पूछ रहे थे।
विश्व मानचित्र में ब्राज़ील कहाँ है, यह तो दोनों भाभियों को मालूम था (क्योंकि दोनों पढ़ी लिखी थीं), लेकिन बड़कऊ और ननकऊ भैया को केवल ब्राज़ील देश का नाम ही पता था। बड़ी मुश्किल से उनको बता पाया कि ब्राज़ील, और खासतौर पर गैबी का शहर, हमारे देश और मेरे शहर से कितना दूर है। मेरी बातों से उनको इतना तो समझ में आया कि गैबी पढ़ने के लिए भारत आई हुई थी, और फिर मुझसे मुलाकात हो गई और हमको एक दूसरे से प्रेम हो गया। एक जटिल कहानी की यह सरलतम व्याख्या थी! ननकऊ भैया वाली भाभी ने मेरी पूरी कहानी सुनने के बाद हँसते हुए कहा,
“भैया, यह तो कोई फ़िल्म की कहानी लगती है।”
सच कहूँ, तो कभी कभी मुझे भी गैबी और मेरी दास्तान किसी फ़िल्म की कहानी ही लगती है! एक और बात मैंने महसूस करी, और वो यह कि छोटी भाभी की बोली, गाँव के अन्य लोगों से अलग है। जहाँ बाकी लोग देहाती में बोलते, वहीं भाभी एकदम साफ़ हिन्दी बोलती। बड़ी भाभी भी साफ़ हिंदी ही बोलतीं - लेकिन वो मितभाषी थीं! लेकिन छोटी भाभी का अंदाज़ बहुत परिष्कृत था। वो जल्दबाज़ी में नहीं बोलती थीं। सुन कर ही लग रहा था कि उन्होंने एक अच्छी, और उच्च शिक्षा प्राप्त कर रखी है। छोटी भाभी अधिक पढ़ी लिखी थीं, लेकिन फिर भी उनको पीएचडी के बारे में नहीं मालूम था (उसके लिए उनको ‘डॉक्टरेट’ शब्द मालूम था, जो मैंने इस्तेमाल ही नहीं किया)। ननकऊ भैया की तो निकल पड़ी!
काजल के बारे में जब उन्होंने पूछा, तो मैंने बताया कि वो मेरी अभिवावक हैं - और मेरी देखभाल करती हैं। यूँ समझ लीजिए कि वो मेरी बड़ी दीदी हैं, और सुनील और लतिका उनके बच्चे हैं। मैंने उनको जानबूझ कर यह भी बताया कि सुनील एक अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ता है - इस बात का उन पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। गाँवों में जात-पात, ऊँच-नीच, और दुराव-बचाव बहुत होता है - आज भी इसमें कोई कमी नहीं आई है - इसलिए उस चर्चा से जितना दूर रहा जा सके, उतना ही अच्छा! मैं नहीं चाहता था कि काजल की जाति के बारे में कोई भी जानकारी बाहर निकले। मैं नहीं चाहता था कि काजल की जाति के कारण या उसके काम के कारण, उसके या सुनील और लतिका के साथ कोई दुराव या भेदभाव हो। इसीलिए मैंने बहुत सोच समझ कर सुनील के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाली बात कही - क्योंकि अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा कोई मामूली परिवार से तो नहीं होगा न!
खैर, ऐसे ही बात चीत करते हुए भोजन समाप्त हो गया, और सोने के इंतजाम की बारी आई। उनका घर कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन उनका परिवार बड़ी तेजी से बढ़ा था। घर की दो कोठरियों में दोनों भाई लोग अपने परिवार समेत सोते थे, और चाचा चाची तीसरे कमरे में। उस कमरे की साफ़ सफ़ाई कर के वहाँ शादी की सुबह तक मेरे रहने की व्यवस्था कर दी गई थी। शादी के बाद गैबी और मेरे साथ ही ठहरने का इंतज़ाम घर पर रहेगा - ऐसा मुझे बताया गया। वो सब ठीक था, लेकिन मेरे कारण उनको कष्ट होता, इसलिए मैंने उनसे बहुत अनुनय विनय करी कि मेरे कारण वो परेशान न हों, और मैं बाहर अहाते में ही सो जाऊँगा, लेकिन मेरी एक नहीं सुनी गई। चाचा जी वैसे भी खेत पर जा कर सोने वाले थे - गेहूँ, सरसों, और मटर की फसल लदी हुई थी, इसलिए उसको नीलगाय के प्रकोप से बचाना आवश्यक था। इसलिए रात में उठ कर खेतों के दो तीन बार चक्कर लगाने आवश्यक थे। चाचा जी के साथ बड़कऊ भैया भी जाने वाले थे - उनकी पत्नी गर्भवती थीं, तो फ़िलहाल उनके साथ लेट कर उनको क्या ही मिलने वाला था, सिवाय उनकी सेवा करने के? हाँ, लेकिन ननकऊ भैया अवश्य ही अपनी पत्नी के साथ सोने वाले थे। अपने परिवार की वंशबेल बढ़ाने का काम उनको भी करते ही रहना था! लिहाज़ा यह तय हुआ कि मैं चाची के साथ सोने वाला था।
एक बार जब आपके ऊपर घर में ‘सबसे छोटे’ होने का तमगा लग जाता है, तो वो उम्र भर आपके साथ ही रहता है - छूटता ही नहीं। उसके कारण आपके साथ कई अच्छी बातें भी हो सकती हैं, और कई बुरी भी! अच्छी बातें ये कि आपको उम्र भर सभी ‘बड़ों’ का स्नेह और दुलार मिल सकता है। और बुरी ये कि आपको उम्र भर कभी सीरियसली न लिया जाए! लड़कियों को उनके जीवन में शायद एक और चांस मिल जाए - उनकी शादी के समय, लेकिन लड़कों को नहीं! लेकिन फिलहाल, मेरे साथ अब तक अच्छा ही अच्छा हुआ है - गाँव में मैं अपने सामाजिक भाइयों और बहनों में सबसे छोटा अवश्य था, लेकिन अपने घर की तो एकलौती संतान हूँ! बेस्ट ऑफ़ बोथ वर्ल्डस!
“लल्ला,” चाची ने मुस्कुराते हुए सबके सामने कहा, “आज हम तुम्हका आपन दूध पियाय कै सोवौबै!”
उनकी शरारत भरी बात पर दोनों भाभियाँ हँसने लगीं।
“अउर का! बिटवा है तोहार! तोहरै दुधवा पी कै तो बेदी पै चढ़िहैं!” चाचा जी ने चाची की बात का अनुमोदन किया, “ओकै महतारी का दूध औतै नाही न अब! तुंही पियावौ!”
हमारे बिरादरी में शादी के समय एक छोटी सी रस्म होती है, जिसमे दूल्हा अपनी माँ के स्तनों को पी कर (अधिकतर समय स्तनों पर केवल मुँह लगा कर) लड़की (वधू) के घर जाता है। इसका सांकेतिक महत्त्व यह है कि वर की माँ अपने पुत्र को याद दिलाती है कि उसने अपनी माँ का दूध पिया है, तो उसकी लज्जा रक्षण के लिए जब वो वधू के घर से वापस आए तो उसकी बहू को साथ में लाए। प्राचीन काल में बारात में महिलाएँ वर के साथ नहीं जाती थीं, अपितु घर पर ही बारात के लौटने का इंतज़ार करती थीं, और बहू के स्वागत की तैयारियाँ करती थीं! उत्तर में वर ये वचन देता है कि वो अपनी माँ के दूध का मान रखेगा और खाली हाथ नहीं आएगा! इस तरह से माँ के दूध, और पुरुष की मर्दानगी का बेहद करीबी रिश्ता है।
मुझे उस समय यह नहीं मालूम था। इसलिए, जब चाचा जी ने ऐसा कहा, तो मुझे लगा कि यह सब कोई मज़ाक चल रहा है, लेकिन जब बिस्तर पर लेट कर चाची अपनी ब्लाउज खोलने लगीं, तब समझ में आया कि इसमें कोई मज़ाक नहीं था। उनके दोनों बच्चे, उनकी बड़ी बहू के साथ सो रहे थे, और उनके दूध का आस्वादन कर रहे थे। एक तरह से पाँचों (आने वाले को मिला कर) बच्चे बहुत भाग्यशाली थे - उनकी तीन तीन स्नेही माएँ थीं! बढ़ते बच्चों के लिए इससे बड़ा आशीर्वाद नहीं हो सकता! मुझे इस उम्र में भी उनका अमृत पीने का आशीर्वाद मिल रहा था - अब इससे बड़ी सौभाग्य की क्या बात हो सकती थी?