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Adultery गुजारिश 2 (Completed)

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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83,769
259
#१

“मैं जिस दिन भुला दू , तेरा प्यार दिल से वो दिन आखिरी हो मेरी जिन्दगी का ” फूली सांसो के बीच हौले हौले इस गाने को गुनगुनाते हुए मैं तेजी से साइकिल के पेडल मारते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहा था .होंठो पर जीभ फेरी तो पाया की अभी तक बर्फी- जलेबियो की मिठास चिपकी हुई थी . मौसम में वैसे तो कोई ख़ास बात नहीं थी पर मई की गर्म रात में पसीने से भीगी मेरी पीठ से चिपकी शर्ट परेशान करने लगी थी .

“न जाने कितना समय हुआ होगा ” मैंने अपने आप से कहा और दो चार गालिया अपने दोस्तों को दी जो मुझे छोड़ कर न जाने कहाँ गायब हो गए थे . दरसल हम लोग पडोसी गाँव में दावत में आये थे.

“सुबह हरामखोरो को दो चार बाते तो सुना ही दूंगा. ” कहते हुए मैंने गाँव की तरफ जाने वाला दोराहा पार ही किया था की पट की तेज आवाज ने मेरे माथे पर बल डाल दिए.

“इसे भी अभी धोखा देना था. ” मैंने साइकिल से निचे उतरते हुए कहा टायर पंक्चर हो गया था . एक पल में मूड ख़राब हो गया . कहने को तो गाँव की दुरी कोई दो - तीन कोस ही थी पर अचानक से दुरी न जाने कितनी ज्यादा लगने लगी थी . पैदल घसीटते हुए साइकिल को मैं चांदनी रात में गाँव की तरफ चल रहा था .

धीमी चलती हवा में कच्चे सेर के दोनों तरफ लगे सीटे किसी लम्बे कद वाले आदमियों की तरह लहरा रहे थे .दूर कहीं कुत्ते भोंक रहे थे . ऐसे ही चलते चलते मैं नाहर के पुल को पार कर गया था .मेरी खड खड करती साइकिल और गुनगुनाते हुए मैं दोनों चले जा रहे थे की तभी अचानक से मेरे पैर रुक गए .अजीब सी बात थी ये इतनी रात में मेरे कानो में इकतारे की आवाज आ रही थी .इस बियाबान में इकतारे की आवाज , जैसे बिलकुल मेरे पास से आ रही हो . मुझे कोतुहल हुआ .



मैंने कान लगाये और ध्यान से सुनने लगा. ये इकतारे की ही आवाज थी . बेशक मुझे संगीत का इतना ज्ञान नहीं था पर इस गर्म लू वाली रात में किसी शर्बत सी ठंडक मिल जाना ऐसी लगी वो ध्वनी मुझे . जैसे किसी अद्रश्य डोर ने मुझे खींच लिया हो . मेरे पैर अपने आप उस दिशा में ले जाने लगे जो मेरे गाँव से दूर जाती थी . हवाओ ने जैसे मुझ से आँख मिचोली खेलना शुरू कर दिया था . कभी वो आवाज बिलकुल पास लगती , इतनी पास की जैसे मेरे दिल में ही हो और कभी लगता की कहीं दूर कोई इकतारा बजा रहा था .

पथरीला रास्ता कब का पीछे छुट गया था . नर्म घास पर पैर घसीटते हुए मैं पेड़ो के उस गुच्छे के पास पहुँच गया था जिस पर वो बड़ा सा चबूतरा बना था जिसके सहारे से पहाड़ काट कर बनाई सीढिया ऊपर की तरफ जाती थी .साइकिल को वही खड़ी करके मैं सीढिया चढ़ कर ऊपर पहुंचा तो देखा की सब कुछ शांत था ,ख़ामोशी इतनी की मैं अपनी उखड़ी साँसों को खूब सुन पा रहा था . मेरे सामने बुझता धुना था जिसमे शायद ही कोई लौ अब बची थी . सीढिया चढ़ने की वजह से गला सूख गया था तो मैं टंकी के पास पानी पीने गया ही था की मेरे कानो से वो आवाज टकराई जिसे मैं लाखो में भी पहचान सकता था .



“उसमे खारा पानी है , ले मेरी बोतल से पी ले. ”

मैं पलटा हम दोनों की नजरे मिली और होंठो पर गहरी मुस्कान आ गयी .

“तू यहाँ कैसे ” मैंने उसके हाथ से पानी की बोतल लेते हुए कहा .

“आज पूर्णमासी है न तो नानी के साथ कीर्तन में आई थी . अभी ख़तम ही हुआ है , मेरी नजर तुझ पर पड़ी तो इधर आई पर तू इधर कैसे ” उसने कहा

मैंने उसे बताया . मेरी बात सुनकर वो बोली- कीर्तन तो दो- ढाई घंटे से हो रहा पर इकतारा कोई नहीं बजा रहा था .मुझे मालूम है ये तेरा बहाना ही होगा वैसे भी तू तो भटकता ही रहता है इधर उधर

मैं- तुझे जो ठीक लगे तू समझ

“रुक मैं तेरे लिए प्रसाद लाती हूँ , ये बोतल पकड़ तब तक ” उसने कहा और तेजी से मुड गयी . मैंने बोतल का ढक्कन खोला और पानी से गले को तर करने लगा .

आसमान में पूनम का चाँद शोखियो से लहरा रहा था . काली रात और चमकता चाँद कोई शायर होता तो अब तक न जाने क्या लिख चूका होता , ये तो मैं था जो कुछ कह नहीं पाया.

“अब ऊपर क्या ताक रहा है , चलना नहीं है क्या ” उसने एक बार मेरे ख्यालो पर दस्तक दी .

मैं- हाँ चलते है .

उसने एक मुट्टी प्रसाद मेरी हथेली पर रखा और हम सीढियों की तरफ चलने लगे.

मैं- नानी कहा है तेरी .

वो- आ रही है मोहल्ले की औरतो संग , मैंने बोल दिया की तेरे संग जा रही हूँ .

मैं- ठीक किया.

“बैठ ” मैंने साइकिल पर चढ़ते हुए कहा

वो- पैदल ही चलते है न

मैं- जैसा तू कहे

वो मुस्कुरा पड़ी , बोली- कभी तो टाल दिया कर मेरी बात को .

मैं- टाल जो दी तो फिर वो बात, बात कहाँ रहेगी .

“बातो में कोई नहीं जीत सकता तुझसे ” वो बोली.

मैं- ऐसा बस तुझे ही लगता है.

बाते करते करते हम लोग अपनी राह चले जा रहे थे. कच्चे रस्ते पर झूलते पेड़ अब अजीब नहीं लग रहे थे. न ही खामोश हवा में कोई शरारत थी .

“बोल कुछ , कब से चुपचाप चले जा रहा है ” उसने कहा

मैं- क्या बोलू, कुछ है भी तो नहीं

वो- क्लास में तो इतना शोर मचाते रहता है , अभी कोई देखे तो माने ही न की वो तू है .

मैं मुस्कुरा दिया .

“बर्फी खाएगी ” मैंने पूछा उससे

“बर्फी , कहाँ से लाया तू ” उसने कहा

मैं- पड़ोस के गाँव में दावत थी , दो चार टुकड़े जेब में रख लिए थे .

वो- पक्का कमीना है तू . मुझे नहीं खानी कहीं रात में कोई भूत न लग जाये मुझे

मैं- तू खुद भूतनी से कम है क्या

कहके जोर जोर से हंस पड़ा मैं

वो- रुक जरा तुझे बताती हूँ .

मेरी पीठ पर एक धौल जमाई उसने .

मैंने जेब से बर्फी के टुकड़े निकाले और उसकी हथेली पर रख दिए.

“अच्छी है , ” उसने चख कर कहा .

मैं- वो तेरे मामा से बात की तूने

वो- तू खुद ही कर ले न

मैं- मेरी हिम्मत कहाँ उस खूसट के आगे मुह खोलने की

वो- कितनी बार कहा है मामा को खूसट मत बोला कर .

मैं- ठीक है बाबा. पर तू बात कर न .

वो- मैंने तुझसे कहा तो है , बाजार चल मेरे साथ .

मैं- तू जानती है न , वैसे ही तू बहुत करती है मेरे लिए .

वो- तो ये भी करने दे न ,

मैं- इसलिए तो कह रहा हूँ, तेरे मामा से बोल दे , कैंटीन में रेडियो थोडा सस्ता मिल जायेगा. कुछ पैसे है मेरे पास कुछ का जुगाड़ कर लूँगा.

“पर मुझसे पैसे नहीं लेगा. हैं न , कभी तो अपना मानता है और कभी एक पल में इतना पराया कर देता है . जा मैं नहीं करती तुझसे बात ” उसने नाराजगी से कहा .

फिर मैंने कुछ नहीं कहा. जानता था एक बार ये रूस गयी तो फिर सहज नहीं मांगेगी. हालाँकि हम दोनों जानते थे हालात को , ऐसे ही ख़ामोशी में चलते चलते गाँव आ गया. मैंने उसे उसके घर के दरवाजे पर छोड़ा और अपने घर की तरफ साइकिल को मोड़ दिया. घर, अपना घर ............................. .
 

Ristrcted

Now I am become Death, the destroyer of worlds
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:congrats: for new story thread
 

HalfbludPrince

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Naik

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“न जाने कितना समय हुआ होगा ” मैंने अपने आप से कहा और दो चार गालिया अपने दोस्तों को दी जो मुझे छोड़ कर न जाने कहाँ गायब हो गए थे . दरसल हम लोग पडोसी गाँव में दावत में आये थे.

“सुबह हरामखोरो को दो चार बाते तो सुना ही दूंगा. ” कहते हुए मैंने गाँव की तरफ जाने वाला दोराहा पार ही किया था की पट की तेज आवाज ने मेरे माथे पर बल डाल दिए.

“इसे भी अभी धोखा देना था. ” मैंने साइकिल से निचे उतरते हुए कहा टायर पंक्चर हो गया था . एक पल में मूड ख़राब हो गया . कहने को तो गाँव की दुरी कोई दो - तीन कोस ही थी पर अचानक से दुरी न जाने कितनी ज्यादा लगने लगी थी . पैदल घसीटते हुए साइकिल को मैं चांदनी रात में गाँव की तरफ चल रहा था .

धीमी चलती हवा में कच्चे सेर के दोनों तरफ लगे सीटे किसी लम्बे कद वाले आदमियों की तरह लहरा रहे थे .दूर कहीं कुत्ते भोंक रहे थे . ऐसे ही चलते चलते मैं नाहर के पुल को पार कर गया था .मेरी खड खड करती साइकिल और गुनगुनाते हुए मैं दोनों चले जा रहे थे की तभी अचानक से मेरे पैर रुक गए .अजीब सी बात थी ये इतनी रात में मेरे कानो में इकतारे की आवाज आ रही थी .इस बियाबान में इकतारे की आवाज , जैसे बिलकुल मेरे पास से आ रही हो . मुझे कोतुहल हुआ .



मैंने कान लगाये और ध्यान से सुनने लगा. ये इकतारे की ही आवाज थी . बेशक मुझे संगीत का इतना ज्ञान नहीं था पर इस गर्म लू वाली रात में किसी शर्बत सी ठंडक मिल जाना ऐसी लगी वो ध्वनी मुझे . जैसे किसी अद्रश्य डोर ने मुझे खींच लिया हो . मेरे पैर अपने आप उस दिशा में ले जाने लगे जो मेरे गाँव से दूर जाती थी . हवाओ ने जैसे मुझ से आँख मिचोली खेलना शुरू कर दिया था . कभी वो आवाज बिलकुल पास लगती , इतनी पास की जैसे मेरे दिल में ही हो और कभी लगता की कहीं दूर कोई इकतारा बजा रहा था .

पथरीला रास्ता कब का पीछे छुट गया था . नर्म घास पर पैर घसीटते हुए मैं पेड़ो के उस गुच्छे के पास पहुँच गया था जिस पर वो बड़ा सा चबूतरा बना था जिसके सहारे से पहाड़ काट कर बनाई सीढिया ऊपर की तरफ जाती थी .साइकिल को वही खड़ी करके मैं सीढिया चढ़ कर ऊपर पहुंचा तो देखा की सब कुछ शांत था ,ख़ामोशी इतनी की मैं अपनी उखड़ी साँसों को खूब सुन पा रहा था . मेरे सामने बुझता धुना था जिसमे शायद ही कोई लौ अब बची थी . सीढिया चढ़ने की वजह से गला सूख गया था तो मैं टंकी के पास पानी पीने गया ही था की मेरे कानो से वो आवाज टकराई जिसे मैं लाखो में भी पहचान सकता था .



“उसमे खारा पानी है , ले मेरी बोतल से पी ले. ”

मैं पलटा हम दोनों की नजरे मिली और होंठो पर गहरी मुस्कान आ गयी .

“तू यहाँ कैसे ” मैंने उसके हाथ से पानी की बोतल लेते हुए कहा .

“आज पूर्णमासी है न तो नानी के साथ कीर्तन में आई थी . अभी ख़तम ही हुआ है , मेरी नजर तुझ पर पड़ी तो इधर आई पर तू इधर कैसे ” उसने कहा

मैंने उसे बताया . मेरी बात सुनकर वो बोली- कीर्तन तो दो- ढाई घंटे से हो रहा पर इकतारा कोई नहीं बजा रहा था .मुझे मालूम है ये तेरा बहाना ही होगा वैसे भी तू तो भटकता ही रहता है इधर उधर

मैं- तुझे जो ठीक लगे तू समझ

“रुक मैं तेरे लिए प्रसाद लाती हूँ , ये बोतल पकड़ तब तक ” उसने कहा और तेजी से मुड गयी . मैंने बोतल का ढक्कन खोला और पानी से गले को तर करने लगा .

आसमान में पूनम का चाँद शोखियो से लहरा रहा था . काली रात और चमकता चाँद कोई शायर होता तो अब तक न जाने क्या लिख चूका होता , ये तो मैं था जो कुछ कह नहीं पाया.

“अब ऊपर क्या ताक रहा है , चलना नहीं है क्या ” उसने एक बार मेरे ख्यालो पर दस्तक दी .

मैं- हाँ चलते है .

उसने एक मुट्टी प्रसाद मेरी हथेली पर रखा और हम सीढियों की तरफ चलने लगे.

मैं- नानी कहा है तेरी .

वो- आ रही है मोहल्ले की औरतो संग , मैंने बोल दिया की तेरे संग जा रही हूँ .

मैं- ठीक किया.

“बैठ ” मैंने साइकिल पर चढ़ते हुए कहा

वो- पैदल ही चलते है न

मैं- जैसा तू कहे

वो मुस्कुरा पड़ी , बोली- कभी तो टाल दिया कर मेरी बात को .

मैं- टाल जो दी तो फिर वो बात, बात कहाँ रहेगी .

“बातो में कोई नहीं जीत सकता तुझसे ” वो बोली.

मैं- ऐसा बस तुझे ही लगता है.

बाते करते करते हम लोग अपनी राह चले जा रहे थे. कच्चे रस्ते पर झूलते पेड़ अब अजीब नहीं लग रहे थे. न ही खामोश हवा में कोई शरारत थी .

“बोल कुछ , कब से चुपचाप चले जा रहा है ” उसने कहा

मैं- क्या बोलू, कुछ है भी तो नहीं

वो- क्लास में तो इतना शोर मचाते रहता है , अभी कोई देखे तो माने ही न की वो तू है .

मैं मुस्कुरा दिया .

“बर्फी खाएगी ” मैंने पूछा उससे

“बर्फी , कहाँ से लाया तू ” उसने कहा

मैं- पड़ोस के गाँव में दावत थी , दो चार टुकड़े जेब में रख लिए थे .

वो- पक्का कमीना है तू . मुझे नहीं खानी कहीं रात में कोई भूत न लग जाये मुझे

मैं- तू खुद भूतनी से कम है क्या

कहके जोर जोर से हंस पड़ा मैं

वो- रुक जरा तुझे बताती हूँ .

मेरी पीठ पर एक धौल जमाई उसने .

मैंने जेब से बर्फी के टुकड़े निकाले और उसकी हथेली पर रख दिए.

“अच्छी है , ” उसने चख कर कहा .

मैं- वो तेरे मामा से बात की तूने

वो- तू खुद ही कर ले न

मैं- मेरी हिम्मत कहाँ उस खूसट के आगे मुह खोलने की

वो- कितनी बार कहा है मामा को खूसट मत बोला कर .

मैं- ठीक है बाबा. पर तू बात कर न .

वो- मैंने तुझसे कहा तो है , बाजार चल मेरे साथ .

मैं- तू जानती है न , वैसे ही तू बहुत करती है मेरे लिए .

वो- तो ये भी करने दे न ,

मैं- इसलिए तो कह रहा हूँ, तेरे मामा से बोल दे , कैंटीन में रेडियो थोडा सस्ता मिल जायेगा. कुछ पैसे है मेरे पास कुछ का जुगाड़ कर लूँगा.

“पर मुझसे पैसे नहीं लेगा. हैं न , कभी तो अपना मानता है और कभी एक पल में इतना पराया कर देता है . जा मैं नहीं करती तुझसे बात ” उसने नाराजगी से कहा .


फिर मैंने कुछ नहीं कहा. जानता था एक बार ये रूस गयी तो फिर सहज नहीं मांगेगी. हालाँकि हम दोनों जानते थे हालात को , ऐसे ही ख़ामोशी में चलते चलते गाँव आ गया. मैंने उसे उसके घर के दरवाजे पर छोड़ा और अपने घर की तरफ साइकिल को मोड़ दिया. घर, अपना घर ............................. .
Welcome back brother
Bahot achcha laga aake wapas aane per
Shaandaar shuruwat bhai
 
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