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#6
मैंने देखा की नाहर की पुलिया से एक गाड़ी टकरा गयी थी. मैं दौड़ कर उसके पास गया . गाड़ी में एक औरत थी जिसका चेहरा खून से लथपथ था . मैंने दरवाजे के कांच को थपथपाया . झूलती आँखों से उसने मुझे देखा ,
“घबराओ नहीं मैं निकालता हूँ तुम्हे बाहर. ” मैंने कहा पर शीशे की वजह से उसे सुना नहीं होगा.
मैंने दरवाजा खोलने की कोशिश की पर वो जाम था . एक पत्थर से मैंने शीशा तोडा और फिर अन्दर हाथ डाल कर दरवाजा खोला और उस औरत को बाहर निकाला. वो खांसने लगी.
“पानी , पानी दो ” वो खांसते हुए बोली.
मेरी नजर गाड़ी में पड़ी बोतल पर पड़ी मैंने उसे दी. दो घूँट पिने के बाद उसने अपना मुह साफ क्या तो मुझे मालूम हुआ ये जब्बर की घरवाली थी . चूँकि जब्बर से हमारी कम बनती थी तो बोल-चाल कम ही थी पर इस हालत में मेरा इसकी मदद करना बनता था .
“ठीक हो काकी ” मैंने कहा
काकी- सर फुट गया है , उस लड़की को बचाने के चक्कर में गाड़ी ठुक गयी . जरा उधर देख तो सही वो लड़की तो ठीक है न
मैं- कौन लड़की काकी, इधर हम दोनों के आलावा कोई और नहीं है .
काकी- ठीक से देख बेटा, वो भी गाड़ी से टकरा ही गयी थी . हे राम कही नहर में तो नहीं गिर गयी .
मैं- नहर में पानी है ही कहा काकी, कितने दिनों से नहर आई तो नहीं है .
मेरी बात सुनकर काकी को जैसे झटका सा लगा. उसके होंठ जैसे सुन्न हो गए थे .
“वो लड़की , यही तो खड़ी थी ” काकी अपनी चोट भूलकर और कहीं ध्यान देने लगी थी .
मैं- काकी, सर से खून बह रहा है, तुम्हे गाँव चलना चाहिए मरहम पट्टी करवा लो पहले कोई होगी भी तो मालूम हो ही जायेगा. चलो मैं तुमको ले चलता हूँ .
मैंने काकी को वैध जी घर छोड़ा और अपनी राह पकड़ ली. मेरे दिमाग में भी अब उस लड़की वाली बात ही घूम रही थी , कौन होगी, उसे कितनी चोट लगी होगी. पर जब हमें कोई मिला ही नहीं तो कोई क्या करे.
रात भी घिर आई थी . घर जाने का मन नहीं था तो मैं ऐसे ही ताई के घर चला गया . ताई चूल्हे पर खाना बना रही थी .
“सही टाइम पर आया तू, जा अन्दर से थाली ले आ खाना परोस दू तुझे ” ताई ने कहा.
वैसे भूख तो लगी थी पर मैंने कहा- नहीं ताई, चाची को मालूम होगा तो कलेश करेगी.
ताई- उसके कलेश से तुझे कब से फर्क पड़ने लगा.
मैं-तुझे तो सब पता है ही . खैर, ताऊ नहीं दिख रहा .
ताई- बोल रहा था की शहर में नौकरी मिल गयी है सिनेमाहाल में चोकिदारी करने की , वही जाने कह बोल के गया. अब राम ही जाने , सच कहता है या झूठ,
मैं- तुझे तो खुश होना चाहिए , अब वो कमा के लायेगा.
ताई- ऐसा मेरा भाग कहा, तू बता क्या नयी ताजा
मैं- बस वही रोज के ड्रामे.
मैंने ताई को बताया की जब्बर की घरवाली का सर फुट गया
ताई- बढ़िया होता जो मर ही जाती, कमीने जब्बर ने गाँव के लोगो का जीना हराम किया हुआ है .
मैं- गलती तो गाँव वालो की ही हैं, उसे जवाब नहीं देते. सामना करे तो उसकी क्या औकात.
ताई- कौन करे उसका सामना, जाने कहा कहाँ तक उसकी पैठ है .
मैं - छोड़ अपने को क्या मतलब उस से .
ताई- सही कहाँ और बता तेरे वो पैसे पुरे हुए क्या
मैं- कहाँ, अभी भी कसर है
ताई- अब तो कोयले पर भी हाथ नहीं मार पाएंगे, कल से काम बंद , सब सामान वापिस जा रहा है
मैं -क्यों
ताई- आज कुछ अफसर आये थे,उन्होंने ही काम बंद कर वाया है .
मैं- ये तो बुरा हुआ
ताई- अब क्या करे, कल से कहीं और मजदूरी देखूंगी
मैं- ठीक है अब चलता हूँ
इस दुनिया में हर कोई अपनी अपनी परेशानियों से घिरा था , यही सोचते सोचते मेरी वो रात कटी . मेरी जिन्दगी न जाने किस दिशा में जाने वाली थी .बिस्तर पर करवट बदलते बदलते मेरी नजर उस बक्से पर पड़ी जो मैंने सुनार से चुराया था . मैंने उसे खोला और मैं हैरान हो गया उसके अन्दर कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसे महत्वपूर्ण बनाता हो. बक्सा बाहर से जितना सुन्दर था ,अन्दर से उतना ही काला . उसके अन्दर सिर्फ एक धागा था, लाल रंग का नाल जिसे गूंध कर माला के जैसा बनाया हो.
पर जैसा हम कहते है किसी भी चीज को बस देख कर उसका अनुमान नहीं लगाना चाहिए. मैंने नाल को हल्का सा छुआ ही था की मेरी ऊँगली जल गयी , इतना गर्म था वो . एक पल में मैं समझ गया की कोई तो बात थी जो सुनार ने सोलह साल इसकी हिफाजत की थी . और अब मुझे वो बात मालूम करनी थी . सोचते सोचते कब मेरी आँख लग गई पता ही नहीं चला.
सुबह चाचा ने मुझे बुलाया और बोले- बेटे, अब तुम बड़े हो रहे हो तो तुम्हे अब कुछ बाते समझनी चाहिए
मैं- जी
चाचा- तुम तो जानते ही हो की हमारी जमीने अलग अलग जगह फैली हुई है , जितना हो सके मैंने संभालने की कोशिश की है पर अब लगता है की मैं अकेला काफी नहीं हूँ, तो मैंने सोचा है की तुम मेरा थोडा हाथ बंटाओ , समझो हम कैसे काम करते है , इस कुल की परम्परा रही हैइस धरती को माँ समान मानने की हमारे पुरखो ने , तुम्हारे पिता ने और फिर मैंने इसे बढाया ही है पर ना जाने किसकी नजर लग गयी हमारी जंगल पार वाली जमीन बंजर होते जा रही है एक तरफ नहर है , अपना कुवा है फिर भी जाने क्यों जमीन की हरियाली सूख रही है . खैर, मेरी कुछ चिंताए और है जो तुम जान जाओगे पर मैं चाहता हूँ की सुबह शाम तुम जमीनों का चक्कर लगाओ . खेत में काम करने वालो से जान- पहचान बढाओ .
मैं- जी .
हम बात कर ही रहे थे की चाची आ गयी तो चाचा ने बात बदल दी और मैं घर से निकल गया . क्योंकि मेरे पास मेरी खुद की चिंताए थी, आज हार हाल में मुझे ट्रिप के पैसे जमा करवाने थे पर जुगाड़ नहीं हो रहा था तो मैं गया नहीं . मैं ऐसे ही भटकते भटकते उधर पहुँच गया जहाँ नयी सड़क बन रही थी , मेरे दिल में था की थोडा कोयला मिल जाये तो उसे बेच दू, पर वहां कुछ नहीं था सिवाय रेत, रोड़ी के, सब जा चुके थे, हताशा में मैं भी वापिस मुड ही गया था की मैंने सोचा उस बंद कमरे में ही देख लू क्या मालूम कुछ मिल जाये. और जब मैंने कमरे के दरवाजे को धक्का दिया तो ........................................
मैंने देखा की नाहर की पुलिया से एक गाड़ी टकरा गयी थी. मैं दौड़ कर उसके पास गया . गाड़ी में एक औरत थी जिसका चेहरा खून से लथपथ था . मैंने दरवाजे के कांच को थपथपाया . झूलती आँखों से उसने मुझे देखा ,
“घबराओ नहीं मैं निकालता हूँ तुम्हे बाहर. ” मैंने कहा पर शीशे की वजह से उसे सुना नहीं होगा.
मैंने दरवाजा खोलने की कोशिश की पर वो जाम था . एक पत्थर से मैंने शीशा तोडा और फिर अन्दर हाथ डाल कर दरवाजा खोला और उस औरत को बाहर निकाला. वो खांसने लगी.
“पानी , पानी दो ” वो खांसते हुए बोली.
मेरी नजर गाड़ी में पड़ी बोतल पर पड़ी मैंने उसे दी. दो घूँट पिने के बाद उसने अपना मुह साफ क्या तो मुझे मालूम हुआ ये जब्बर की घरवाली थी . चूँकि जब्बर से हमारी कम बनती थी तो बोल-चाल कम ही थी पर इस हालत में मेरा इसकी मदद करना बनता था .
“ठीक हो काकी ” मैंने कहा
काकी- सर फुट गया है , उस लड़की को बचाने के चक्कर में गाड़ी ठुक गयी . जरा उधर देख तो सही वो लड़की तो ठीक है न
मैं- कौन लड़की काकी, इधर हम दोनों के आलावा कोई और नहीं है .
काकी- ठीक से देख बेटा, वो भी गाड़ी से टकरा ही गयी थी . हे राम कही नहर में तो नहीं गिर गयी .
मैं- नहर में पानी है ही कहा काकी, कितने दिनों से नहर आई तो नहीं है .
मेरी बात सुनकर काकी को जैसे झटका सा लगा. उसके होंठ जैसे सुन्न हो गए थे .
“वो लड़की , यही तो खड़ी थी ” काकी अपनी चोट भूलकर और कहीं ध्यान देने लगी थी .
मैं- काकी, सर से खून बह रहा है, तुम्हे गाँव चलना चाहिए मरहम पट्टी करवा लो पहले कोई होगी भी तो मालूम हो ही जायेगा. चलो मैं तुमको ले चलता हूँ .
मैंने काकी को वैध जी घर छोड़ा और अपनी राह पकड़ ली. मेरे दिमाग में भी अब उस लड़की वाली बात ही घूम रही थी , कौन होगी, उसे कितनी चोट लगी होगी. पर जब हमें कोई मिला ही नहीं तो कोई क्या करे.
रात भी घिर आई थी . घर जाने का मन नहीं था तो मैं ऐसे ही ताई के घर चला गया . ताई चूल्हे पर खाना बना रही थी .
“सही टाइम पर आया तू, जा अन्दर से थाली ले आ खाना परोस दू तुझे ” ताई ने कहा.
वैसे भूख तो लगी थी पर मैंने कहा- नहीं ताई, चाची को मालूम होगा तो कलेश करेगी.
ताई- उसके कलेश से तुझे कब से फर्क पड़ने लगा.
मैं-तुझे तो सब पता है ही . खैर, ताऊ नहीं दिख रहा .
ताई- बोल रहा था की शहर में नौकरी मिल गयी है सिनेमाहाल में चोकिदारी करने की , वही जाने कह बोल के गया. अब राम ही जाने , सच कहता है या झूठ,
मैं- तुझे तो खुश होना चाहिए , अब वो कमा के लायेगा.
ताई- ऐसा मेरा भाग कहा, तू बता क्या नयी ताजा
मैं- बस वही रोज के ड्रामे.
मैंने ताई को बताया की जब्बर की घरवाली का सर फुट गया
ताई- बढ़िया होता जो मर ही जाती, कमीने जब्बर ने गाँव के लोगो का जीना हराम किया हुआ है .
मैं- गलती तो गाँव वालो की ही हैं, उसे जवाब नहीं देते. सामना करे तो उसकी क्या औकात.
ताई- कौन करे उसका सामना, जाने कहा कहाँ तक उसकी पैठ है .
मैं - छोड़ अपने को क्या मतलब उस से .
ताई- सही कहाँ और बता तेरे वो पैसे पुरे हुए क्या
मैं- कहाँ, अभी भी कसर है
ताई- अब तो कोयले पर भी हाथ नहीं मार पाएंगे, कल से काम बंद , सब सामान वापिस जा रहा है
मैं -क्यों
ताई- आज कुछ अफसर आये थे,उन्होंने ही काम बंद कर वाया है .
मैं- ये तो बुरा हुआ
ताई- अब क्या करे, कल से कहीं और मजदूरी देखूंगी
मैं- ठीक है अब चलता हूँ
इस दुनिया में हर कोई अपनी अपनी परेशानियों से घिरा था , यही सोचते सोचते मेरी वो रात कटी . मेरी जिन्दगी न जाने किस दिशा में जाने वाली थी .बिस्तर पर करवट बदलते बदलते मेरी नजर उस बक्से पर पड़ी जो मैंने सुनार से चुराया था . मैंने उसे खोला और मैं हैरान हो गया उसके अन्दर कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसे महत्वपूर्ण बनाता हो. बक्सा बाहर से जितना सुन्दर था ,अन्दर से उतना ही काला . उसके अन्दर सिर्फ एक धागा था, लाल रंग का नाल जिसे गूंध कर माला के जैसा बनाया हो.
पर जैसा हम कहते है किसी भी चीज को बस देख कर उसका अनुमान नहीं लगाना चाहिए. मैंने नाल को हल्का सा छुआ ही था की मेरी ऊँगली जल गयी , इतना गर्म था वो . एक पल में मैं समझ गया की कोई तो बात थी जो सुनार ने सोलह साल इसकी हिफाजत की थी . और अब मुझे वो बात मालूम करनी थी . सोचते सोचते कब मेरी आँख लग गई पता ही नहीं चला.
सुबह चाचा ने मुझे बुलाया और बोले- बेटे, अब तुम बड़े हो रहे हो तो तुम्हे अब कुछ बाते समझनी चाहिए
मैं- जी
चाचा- तुम तो जानते ही हो की हमारी जमीने अलग अलग जगह फैली हुई है , जितना हो सके मैंने संभालने की कोशिश की है पर अब लगता है की मैं अकेला काफी नहीं हूँ, तो मैंने सोचा है की तुम मेरा थोडा हाथ बंटाओ , समझो हम कैसे काम करते है , इस कुल की परम्परा रही हैइस धरती को माँ समान मानने की हमारे पुरखो ने , तुम्हारे पिता ने और फिर मैंने इसे बढाया ही है पर ना जाने किसकी नजर लग गयी हमारी जंगल पार वाली जमीन बंजर होते जा रही है एक तरफ नहर है , अपना कुवा है फिर भी जाने क्यों जमीन की हरियाली सूख रही है . खैर, मेरी कुछ चिंताए और है जो तुम जान जाओगे पर मैं चाहता हूँ की सुबह शाम तुम जमीनों का चक्कर लगाओ . खेत में काम करने वालो से जान- पहचान बढाओ .
मैं- जी .
हम बात कर ही रहे थे की चाची आ गयी तो चाचा ने बात बदल दी और मैं घर से निकल गया . क्योंकि मेरे पास मेरी खुद की चिंताए थी, आज हार हाल में मुझे ट्रिप के पैसे जमा करवाने थे पर जुगाड़ नहीं हो रहा था तो मैं गया नहीं . मैं ऐसे ही भटकते भटकते उधर पहुँच गया जहाँ नयी सड़क बन रही थी , मेरे दिल में था की थोडा कोयला मिल जाये तो उसे बेच दू, पर वहां कुछ नहीं था सिवाय रेत, रोड़ी के, सब जा चुके थे, हताशा में मैं भी वापिस मुड ही गया था की मैंने सोचा उस बंद कमरे में ही देख लू क्या मालूम कुछ मिल जाये. और जब मैंने कमरे के दरवाजे को धक्का दिया तो ........................................