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Adultery गुजारिश 2 (Completed)

Naik

Well-Known Member
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गिरने से बचने को मैंने ताई की कमर में हाथ डाल लिया ताई की कड़क छतिया मेरे सीने से टकराई मेरे लबो ने ताई के सुर्ख गालो को हलके से छू लिया.

“देख कर चला कर, ” ताई ने चाची की तरफ देखते हुआ कहा तो मैं उस से अलग हो गया और घर से बाहर निकल गया . पल भर में ही आँखों के आगे वो लम्हा घूम गया जब ताई को मैंने ठेकेदार से चुदते हुए देखा था , दिल ने बड़ी जोर से कहा ही हिम्मत करके ताई को बता दे अपनी इस ख्वाहिश के बारे में , पर हमारे सोचने से क्या होता , देनी तो ताई को थी उसका भी तो मन होना चाहिए न .

सोचते सोचते मैं हलवाई की दूकान पर जाकर बैठ गया , एक गर्म समोसा लिया और खाने वाला ही था की सुनार मेरे सामने आकर बैठ गया .

“और बेटे कैसे हो ” सुनार ने मुझसे कहा

आज से पहले मेरी उससे कभी कोई बात नहीं हुई थी तो मुझे थोडा अचरज हुआ .

मैं- ठीक हूँ लालाजी , तुम बताओ .

लाला- बस कट रही है . वैसे तुझे मुझसे कोई काम हो तो बता देना , हिचकिचाना मत मैं तो तेरे लिए सदा ही हूँ

मैं- मुझे भला क्या काम होगा तुमसे

लाला ने आँखों से चश्मा उतार कर साफ़ किया और मेरे थोडा और नजदीक सरक कर बोला- तुझे कुछ भी , मेरा मतलब सोना-चांदी बेचना हो तो मैं हूँ न, सीधा मेरे पास आ जाना , बढ़िया दाम दूंगा तुझे.

मैं- पागल हुआ है क्या लाला, हालत देख मेरी, और भला किसने तुझसे कहा की मेरे पास कुबेर का खजाना है .

लाला- इतना भी भोला नहीं है तू, बैंक मेनेजर ने मुझे सब कुछ बता दिया है , देख पुरे गाँव को मालूम है तेरे चाचा ने सब कुछ डकार लिया है , तुझे नौकर से जायदा कुछ नहीं समझते वो. तू वो गहने मुझे बेच दे, दाम तेरे हाथ में आयेंगे तो मौज करेगा.

“तेरो बकवास ख़तम हो गयी हो तो , निकल यहाँ से ” मैंने समोसे का टुकड़ा तोड़ते हुए कहा .

लाला- ऐंठ देखो इस चिलगोजे की, तेरे बाप में भी ये ही अहंकार था

“भोसड़ी के , तेरी हिम्मत क्या हुई मेरे बाप का नाम अपनी जुबान पर लाने की ” गुस्से में मैंने लाला की गुद्दी पकड़ ली.

पल भर में ही चौपाल पर तमाशा हो गया .

“कल के लौंडे , तेरी ये औकात तूने मेरे गिरेबान पर हाथ डाला , इस गाँव में लोगो की ये औकात भी नहीं की वो मुझ से नजर मिला सके, मेरी जुती को दुनिया सलाम करती है तू देख ये सौदा कितना महंगा पड़ेगा तुझे ” लाला ने गुर्राते हुए कहा .

मैंने खींच कर एक थप्पड़ लाला के गाल पर रसीद किया और बोला-चूतिये, महंगे सस्ते की बात ही नहीं है , तू समझ तो गया होगा की तेरी औकात क्या है मेरे आगे.

लाला- इस थप्पड़ की गूँज बहुत दूर तक सुनाई देगी तुझे , तेरी जिन्दगी के दिन आज से उलटे हो गए है .

मैं- नो दो ग्यारह हो जा लाला, इस से पहले की मैं अपनी हद भूल जाऊ, और जा जो उखाड़ सकता है उखाड़ ले .

लाला ने घुर कर देखा मुझे और अपनी बेंत लिए तेजी से चला गया .

“तू क्या देख रहा है एक समोसा और दे ” मैंने हलवाई से कहा और वापिस बेंच पर बैठ गया .

समोसा खाते हुए मैं सोचने लगा की बैंक मेनेजर ने गहनों की बात सुनार को क्यों बताई , और उन गहनों का मुझसे भला क्या लेना देना था . मैंने बैंक जाने का सोचा और करीब 11 बजे मैं बैंक में पहुँच गया .

“सुन भाई, मुझे मेनेजर से मिलना है ” मैंने बाहर बैठे चपरासी से कहा .

“साहब , दो बजे से पहले किसी से नहीं मिलते ” उसने रुखा सा जवाब दिया.

मैं- मेनेजर को जाकर बोल की चौधरी अर्जुन सिंह का बेटा बाहर खड़ा है

कुछ ही देर में एक नाटा सा आदमी लगभग दौड़ते हुए बाहर आया और बोला- छोटे चौधरी, आप यहाँ आये, सुचना भिजवा देते मैं खुद आ जाता .

मैं- क्या फर्क पड़ता है साहब,

“आप आइये मेरे साथ ” उसने कहा और मुझे खुद के केबिन में ले आया.

मेनेजर की उम्र कोई पचास के लगभग की तो होगी ही , सर के थोड़े से बाल झड़े हुए. मैंने देखा उसके माथे पर पसीना कुछ जायदा ही बह रहा था.

मैं- मेरा यहाँ कभी नहीं आना होता, मैं बस आपसे एक बात पूछने आया हूँ और मुझे विश्वास है की आप मुझे मेरे सवाल का जवाब देंगे.

मेनेजर ने हाँ में सर हिलाया.

मैं- लाला ने आज मुझसे गहनों की बात की , उन गहनों का मुझसे क्या वास्ता है और लाला को कैसे मालूम हुआ.

मेनेजर- आप तो जानते है की मेरी वफ़ादारी हमेशा से आपके साथ रही है .

मैं- ये मेरे सवाल का जवाब नहीं है .

मेनेजर- बैंक का नियम है की हमें लाकर रखने पड़ते है , पिछले दिनों बैंक में मरम्मत का काम चल रहा था तो लाकर हमने किसी दूसरी जगह रखे कुछ दिनों के लिए , जिस दिन लाकर शिफ्ट हो रहे थे , उसी दिन लालाजी बैंक में आये थे , बदकिस्मती से दीमक खाए लाकर मजदूरो के हाथ से गिर गए और उनमे से एक लाकर जो कुछ ज्यादा ही खस्ताहाल था वो सबके सामने खुल गया.

मैं- फिर

मेनेजर- लालाजी की दिलचस्पी बिखरे हुए सामान में जाग उठी

मैं- और क्या था वो सामान

मेनेजर उठा और मुझे अपने साथ बैंक के एक नए बने हिस्से में ले आया. उसने जेब से एक जंग खायी चाबी निकाली और एक लाकर में लगा दी. और जब लाकर खुला तो मेरी आँखे फटी की फटी रह गयी . सोने - चांदी के अनगिनत गहने , नोटों की गड्डियां , न जाने क्या क्या .

पर मेरी दिलचस्पी उस कागज़ के टुकड़े में थी जो लाल रंग के धागे में लिपटा हुआ था, मैंने उसे उठाया, मामूली धागे को आपस में गूंध कर गले में पहनने का बनाया हुआ था जिसे एक हीरे में पिरोया हुआ था . धागा कुछ पुराना था पर हीरे में चमक बरक़रार थी . मेरी नजर कागज पर लिखी लाइन पर पड़ी

“इसका बोझ उठा सको तो ही थामना इसे ”

मैंने गौर किया ये लाइन किसी स्याही से नहीं बल्कि खून के कतरों से लिखी हुई थी. चाह कर भी मैं अपनी उत्तेजना , हैरानी को छुपा नहीं पाया.

“ये चाहिए मुझे ” मैंने मेनेजर से कहा

“सब कुछ आपका ही है , मैं तो सोलह साल से राह देख रहा था की कब आप अपनी अमानत लेने आये. ”मेनेजर ने जवाब दिया .

मैं- अभी सिर्फ ये ही चाहिए मुझे

मैंने वो धागा जेब में रख लिया और बैंक से वापिस आ गया. मुझे इकतारे वाली से मिलना था तो मैं रस्ते पर ये ही सोचता रहा की मेरा बाप मेरे लिए इतना सब छोड़ कर गया था और मुझे मालूम ही नहीं था.
Bahot behtareen shaandaar update bhai
Poora kubair ka khazana bhara pada h locker m sahi h
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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#16

दिल इतना बेताब कभी नहीं हुआ था , न जाने कैसी ये कसक थी . बैंक से निकल कर मैंने रुद्रपुर का रास्ता लिया ही थी की साइकिल धोखा दे गयी , इस कमबख्त को भी अभी पंक्चर होना था . मैंने साइकिल को दुकान पर खड़ी की और पैदल ही चल दिया. घंटे भर बाद मैं रुद्रपुर की सीम में दाखिल हो गए. मई के अंतिम दिनों की दुपहरी इतना गर्म थी की जैसे बदन से खाल को उतार कर ही मानेगी. एक चरवाहे से मांग कर मैंने थोडा पानी पिया और उन कतार में लगे पीपलो में से एक के निचे जाकर बैठ गया. छाँव मिली तो जी को थोडा करार मिला.

दूर दूर तक कोई दिख नहीं रहा था , सिवाय झुलसती धुप के , आज वो बुजुर्ग लोग भी ताश नहीं खेल रहे थे . कुछ देर मैंने उसका इंतज़ार किया और फिर पेड़ से कमर लगा कर तौलिया मुह पर डाल कर आँखे मूँद ली. हलकी सी नींद में ही गया था की किसी ने झिंझोड़ दिया मुझे . झट से मैंने आँखे खोली . मेरे सामने वो बैठी थी .

“हाँ, तू कब आई ” मैंने उबासी लेते हुए उस से कहा .

वो- बस अभी अभी .

“जब जब तुझे देखता हूँ , दिल करता है तू बस मेरे सामने बैठी ही रहे , ”मैंने कहा

वो- कल को तेरा दिल न जाने क्या कहेगा.

मैं- तू सुन लेना जो भी वो कहे.

वो- यही बकवास करनी है क्या तुझे .

मैं- तू ही बता फिर क्या बात करूँ मैं .

वो- तो कभी तो सिरियस हुआ कर

मैं- सारी जिन्दगी ही रहा हूँ , अब तलाश है कुछ लम्हों की जो मैं जी सकू.

वो- मैंने मालूम किया है तेरे बारे में .

मैं- जासूस है तू

वो- जो मेरे पीछे पड़ा है उसके बारे में जानकारी तो होनी चाहिए न

मैं- तो क्या मालूम हुआ तुझे

वो- यही की तू अमीर है , गाँव में नाम है तुम्हारे परिवार का .

मैं- ये तो तुझे दुनिया ने बताया, तेरे मन ने जो बताया वो बता

वो- मैं दुनिया से अलग हूँ क्या

मैं- उस रात तूने मेरा हाथ देखा था , तो मेरा हाल भी देख ही लिया होगा. तू सितारे पढ़ती है , तूने मेरा मन भी पढ़ा होगा.

वो- मैं एक मुसफ़िर हूँ, मेरी मंजिल का कोई पता नहीं

मैं- मैं बंजर टुकड़ा हूँ, मुझे बरसात की चाह नहीं

वो - मैं लहराता आँचल हूँ ,

मैं- मैं थाम लूँगा

वो- मैं बहती लहर हूँ मेरा साथ तुझे डगमगा देगा .

मैं- तेरा हाथ पकड लूँगा.

वो- मैं गिरी हुई आन हूँ

मैं- तुझे मान बना कर माथे पर लगा लूँगा.

वो- मैं बिखरी हुई राख हूँ

मैं- मै उसे तिलक बना लूँगा.

वो- मेरा साथ तुझे बर्बाद कर देगा.

मैं- मैं बर्बाद होना चाहता हूँ

उसने माथे पर घिरी पसीने से भीगी लटो को पीछे की ओर किया और बोली- चाय पिएगा.

मैं- रोटी खाऊंगा,

“आ फिर संग मेरे ” उसने अपना झोला उठाया और मैं उसके साथ साथ चल पड़ा. पता नहीं क्यों वो बार बार मुस्कुरा रही थी , और ये पहली बार था जब मैंने उसे मुस्कुराते हुए देखा था . चलते चलते हम लोग रुद्रपुर के बाजार में आ गए थे . मैं बस उसके कदमो को देख रहा था , गाँव के साइड से होते हुए हम लोग चल रहे थे तभी मेरी नजर उस सफ़ेद संगमरमर से बनी ईमारत पर पड़ी. मैंने देखा कुछ पलो के लिए मेरी दोस्त के कदम लडखडाये पर फिर उसने अपना मुह दूसरी तरफ फेर लिया. मैं कुछ देर उस तीन मंजिला चमचमाती ईमारत को निहारता रहा .

“आओ भी ” उसने कुछ झुंझला कर कहा . थोडा और चलने पर रस्ता ख़त्म होने लगा. इक्के दुक्के मकान पीछे छूटने लगे और फिर वो रुक गयी . हमारे सामने एक पुराना मकान था जो मरम्मत मांग रहा था . उसने जेब से चाबी निकाल कर उस पुराने ताले को खोला और हम अन्दर आ गए. उसने दरवाजा बंद किया.

आँगन में मिटटी का लेप लगा था, पास में ही एक हैंडपंप था , दो कमरे थे , .

मैंने पास रखे मटके से दो गिलास पानी पिया कुछ छींटे मुह पर मारे और फिर चारपाई पर बैठ गया . उसने झोला खूँटी पर टांका और बोली- बोल क्या खायेगा.

मैं- रोटी .

वो- रोटी किसी के साथ तो खायेगा न ,

मैं- जो है दे दे

वो- बैठ जरा

उसने चूल्हा जलाया और रोटी बनाने लगी.

“थोडा बुरा है पर यही है मेरा घर ” उसने कहा

मैं- घर का क्या बुरा . कमसेकम तेरे पास खुद का घर तो है .मुझे देख मेरे पास तो खुद की झोपडी भी नहीं .

“अन्दर से घी की डोली ले आ.” उसने कहा

मैं अन्दर गया , कमरे से हर चीज़ बड़े करीने से रखी हुई थी . सामने मुहे डोली दिखी तो मैं ले आया उसने थाली में रोटी रखी घी में डुबो कर , कटोरी ने दाल और गिलास में लस्सी.

“अभी तो ये ही है , मालूम होता तो कुछ और बनाती ” उसने कहा .

“मेरे लिए तो ये ही दावत है , न जाने कब आखिरी बार गरम रोटी खाई थी “मैंने निवाला मुह में रखते हुए उसे कहा.

वो मुस्कुरा पड़ी. भरपेट भोजन किया मैंने .

“तेरा बहुत आभार, ” मैंने उस से कहा .

“और कुछ , ” उसने कहा

मैं- हाँ एक गिलास पानी .

“अब ये तेरा घर भी है , दोस्त का जो कुछ है वो तेरा भी है और अपने घर में हुक्म नहीं चलाते जो चाहिए होता है ले लेते है ” उसने कहा

मैं- तूने कब कहा की तूने हा कहदी

वो- कुछ बाते कहीं नहीं जाती बस समझी जाती है . और तुझे भी कुछ बाते समझनी होंगी,

मैं -जैसे की

वो- जैसे की तुम कभी भी यहाँ नहीं आ सकते,

मैं- अभी तो कह रही थी की दोस्त का घर तेरा घर है

वो- मैं अपने चाचा के साथ रहती हूँ , आज वो काम से शहर गया है इसलिए तुजे ले आई , जब वो यहाँ होगा तब तू आ सकता है बाकि हम बाहर कहीं मिलेंगे.

मैं- जो तेरी मर्जी.

वो- ठीक है फिर

मैं- क्या ठीक है

वो- अब तू चल.

मैं- फिर कब मिलेगी.

वो- जब किस्मत में होगा.

मैं- और किस्मत में कब होगा.

वो- जब मैं चाहूंगी.

मैं- सुन , तेरे गाँव की सीम पर ही मेरी बंजर जमीन है , अगर तू चाहे तो हम उधर मिल सकते है .

वो- सोच कर बताउंगी.

मैं- ठीक है मैं चलता हूँ

जी भर कर उसे देखने के बाद मैं दरवाजे तक पहुंचा ही था की मुझे कुछ याद आया .

मैं- सुन जरा

वो- क्या

मैं- तूने नाम नहीं बताया.

वो- मीता, मीता नाम है मेरा.

“मीता,” मेरे होंठो ने कहा और मैं अपने रस्ते चल पड़ा. वापसी में मैंने उसी सफ़ेद ईमारत को देखा. बनाने वाले ने भी क्या खूब कारीगरी की थी , सफ़ेद संगमरमर पर क्या नक्काशी थी , ईमारत की चारदीवारी के बाहर सफ़ेद खम्बे थे जिनपर दो सांप आपस में लिपटे हुए थे. मैं ईमारत को निहारने में इतना मशगूल था की मुझे अचानक से रस्ते से हटना पड़ा, ईमारत से एक के बाद एक गाडिया निकलने लगी और उस खुली जीप में मैंने चश्मा लगाये दद्दा ठाकुर को देखा....... एक पल को हमारी नजरे मिली, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा और फिर जीप आगे बढ़ गयी धुल उड़ाते हुए.
 
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