#32
मैंने नहर को पार किया ही था की तभी एक गाड़ी मेरे सामने आकर रुकी और उस से जो उतरा, उसकी वहां होने की कोई भी उम्मीद नहीं थी मुझे. खाकी वर्दी पहने वो पुलिसवाला मुझे देखे और मैं उसे देखू.
“मनीष चौधरी तेरा ही नाम है क्या छोरे ” उसने पूछा
मैं-ये बात तो तू भी जानता ही है फिर क्यों पूछता है
पुलिसवाला- मेरा नाम दिलेर सिंह है , इस इलाके का थानेदार हूँ मैं
मैं- मुझे क्यों बता रहा है , मेरे पास तेरे लिए एक मिनट का भी समय नहीं है , मेरे रस्ते से हट
दिलेर- रस्ते तो अब टकराते ही रहेंगे हमारे- तुम्हारे, सुना है आजकल बहुत उड़ रहे हो तुम, हमने ऐसी उडती चिड़िया के पंख बहुत काटे है .
मैं- सुन थानेदार, पहली बात तो ये है की तेरा मेरा कोई लेना देना है नहीं, दूसरी बात ये की मैं चिड़िया नहीं बाज़ हूँ, मेरी आजमाइश मत करना और सब से महत्वपूर्ण बात की तू अपनी मर्जी से तो आया नहीं है किसी न किसी ने टुकड़े फेंके होंगे तेरे आगे , तू अपना देख लेना कही टुकड़े महंगे न पड़ जाये.
दिलेर- बित्ती भर का छोकरा है तू और घमंड आसमान तक का पुलिस के दो डंडे तेरा सारा जोश ठंडा कर देंगे.
मैं- तू दुआ कर की काश वो दिन आये जिस दिन तुझे ये मौका मिले.
दिलेर- मैं देख रहा हूँ मामले को मुझे जरा भी लगा की सुनार पर हुए हमले में तेरा हाथ है तो तू दुआ करना अपने लिए.
मैं- माँ चुदाये सुनार
दिलेर- एक बार वो होश में आ जाये.
मैं- सुनार की जाने दे, मैं मेले के बाद सीधा जब्बर की गर्दन पकडूँगा मेरी जमीन जो उसने कब्जाई है छुड़ाने जाऊँगा, तेरा जोर हो तो रोक लेना
दिलेर- जब्बर मेरा बहनोई है बात फिर पर्सनल हो जाएगी
मैं- बात पर्सनल हो चुकीहै , शुरू उसने की थी ख़तम मैं करूँगा. पर तू मेरे पास आया है तो मैं तुझे खाली हाथ नहीं जाने दूंगा, मैं तुझसे वादा करता हूँ मेरी जमीन शांति से मुझे वापिस दिला दे, मैं भी जबान देता हूँ जब्बर से कोई लेना देना नहीं रखूँगा,
दिलेर-जानता भी है तू क्या कह रहा है
मैं- जब्बर जानता है मैंने उस से क्या कहा था , अगर वो नहीं जानता तो तुझे मेरे पास नहीं भेजता.
मैंने बिना उसके जवाब का इंतज़ार किये अपने कदम आगे बढ़ा दिए. आज मैं हर हाल में मीता से मिलना चाहता था, मैं चाहता था की एक बार फिर से वो मेरे सितारों को पढ़े, उनसे मेरे सवालो के जवाब पूछे. पर मेरी किस्मत भी न ,एक बार फिर उसके घर पर ताला लगा था . ऐसा लगा की जैसे ये ताला ही इस जहाँ में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन था . अब मैं कहाः तलाश करूँ उसकी.
बहुत देर उसके दरवाजे पर ही इंतज़ार किया उसका पर वो ना आई, हार कर मैंने फिर शिवाले की राह पकड़ी. वहां पर भी वो न मिली . मेले की तैयारिया बदस्तूर जारी थी . एक आदमी प्राचीर बाँध रहा था मुझे देख कर वो मेरे पास आया.
मैंने उसे मीता का हुलिया बताया और पूछा की ऐसी कोई लड़की आई थी क्या उसने मुझे मना किया .
“आप तो यहाँ तक़रीबन ही आते जाते रहते होंगे बाबा ” मैंने कहा
वो- तक़रीबन तो नहीं पर कभी कभार इधर से आ निकलता हूँ , सोलह साल से ये जगह खामोश थी, वक्त से बिछड़ी हुई अभी मेले की वजह से थोड़ी रौनक हुई है .
मैं-बाबा, आपकी तो उम्र बीती है इस शिवाले को देखते हुए,मेरे मन में एक दो बाते है क्या आप बता सकते हो
बाबा- बेटा, मैं इस गाँव का नहीं हूँ, पर इस शिवाले से मेरा नाता है, जब जब मेला लगा है मेरे काबिले के लोगो ने ही इसे सजाया है , किसी ज़माने में हमारा बहुत मान था यहाँ पर , यहां से खूब इनाम-बक्शीश लेकर जाते थे हम लोग, पर फिर वक्त बदला. सोलह साल बाद फिर से हमें बुलावा भेजा गया . काबिले से तो लोगो ने आने से मना कर दिया , पर मैं जिदंगी के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ न जाने कब डोर कट जाये तो सोचा की एक आखिरी बार देवता के दर्शन कर लू तो आ गया.
मैं- बाबा इस शिवाले की क्या कहानी है बताओ मुझे.
बाबा- बस इतनी कहानी की जो भी यहाँ पर आया इसका होकर रह गया. इसकी लगन जो लगी फिर सब प्रीत छुटी .कोई खाली हाथ नहीं गया यहाँ से . ऐसी कोई दुआ नहीं जो यहाँ कबूल नहीं हुई. पर फिर सब रूठ गया . सब टूट गया.
मैं- क्या हुआ था बाबा ऐसा
बाबा- वो मेला , वो मेला , उस मेले में कुछ ऐसा हुआ था की जो अच्छा भी था और बुरा भी , मेले में बरसो से रीत चली आ रही थी की दोनों गाँव से एक एक लोग जोर करते थे और हारने वाले के सर को देवता को अर्पित किया जाता था, वो चौधरी अर्जुन थे जिन्होंने इस खुनी प्रथा को रोका था . उन्होंने समाज को समझाया था की देवता कभी खुश नहीं होंगे रक्त से. और उनकी बात का मान रखा भी दोनों ही गाँवो के लोगो ने, प्रथा बंद की गयी, मिठाई बांटी गयी. चारो तरफ हर्ष था उल्लास था, पर उसी रात चौधरी अर्जुन ने अपने ही वचन को तोड़ दिया. जिस चुनोती को उन्होंने दिन में नकार दिया था उसी रात उन्होंने एक दो नहीं बल्कि पुरे ग्यारह लोगो से जोर किया और उनके सर देवता को अर्पित किये.
मैंने वो नर संहार अपनी आँखों से देखा था . उस रात सावन शुरू हुआ था , पूरा रुद्रपुर रोया था , चौधरी अर्जुन रोये थे , ऐसा विलाप उनका की धरती फट जाए, मैं नहीं जानता उस रात बरसा सावन किसके लिए रोया था , चौधरी के लिए , उन ग्यारह लोगो के लिए या फिर देवता के लिए पर जो भी था वो ठीक नहीं था .
मैं- आप के कबीले वालो ने इस बार आने से मना क्यों कर दिया.
बाबा- जैसा मैंने बताया मेले की तयारी से लेकर देवता के श्रृंगार तक की जिम्मेवारी हमारी रही है, उस दिन क्या मालूम क्या हुआ, देवता का श्रृंगार चोरी हो गया , मेरे कबीले के कुछ लोगो को शक के बिनाह पर मार दिया गया .
मैं- पर मैंने सुना की काफी सामान मिल गया था वापिस, अभी भी तो देवता के कमरे में पड़ा है कितना सारा हीरा-जवाहरात
मेरी बात सुनकर उस बाबा के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी .
मैं- क्या हुआ बाबा क्या कुछ गलत कहा मैंने
बाबा- देवता को भला इन चीजों का क्या मोह
मैं- तो क्या ये चीजे श्रृंगार का हिस्सा नहीं थी .
बाबा- तुमने देवता को देखा ही नहीं है फिर
मैं- तुम दिखा दो फिर बाबा.
बाबा- अर्जुन के बेटे ने कपाट खोले है , देवता की मर्जी होगी तो मिलेंगे उस से .
मैं- बाबा आप अर्जुन सिंह को जानते थे न,
बाबा- उनको सब जानते थे
मैं- कैसे थे वो क्रूर, अहंकारी , घमंडी जमींदार
बाबा- उसके बारे में पूछना है तो मुझसे मत पूछ उनसे पूछ जिनका बेटा था वो. उन किसानो से पूछ जिनके बैल बीमार होने पर खुद के कंधो से हल जोता था उसने. उसके बारे में मुझसे मत पूछ इन हवाओ से पूछ ये तुझे यहाँ तक ले आई है तो उसके किस्से भी बता देंगे.
मैं- बाबा क्बाया नाम बताया था आपने अपने कबीले का
बाबा- यहाँ से उत्तर में पन्द्रह कोस दूर , कानबेलियो का डेरा है हमारा
मैं-अलख के बारे में कुछ जानते है क्या आप
बाबा ने घुर कर मुझे देखा और बोले- काम बहुत बाकी है मेरा , समय रहते निपटाना है मुझे
मैं- किसी ने मुझसे कहा है की वो मुझे अलख के पार मिलेगी.
बाबा- अलख देवता की आग है जो बरसो पहले बुझा दी गयी .
मैं- किसने बुझाई
बाबा- चौधरी अर्जुन ने
मैं वहां से उठा और अपने रस्ते पर चल दिया, कुछ दूर चला ही था की मैं पलटा और कहा- ......................................