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Incest आह..तनी धीरे से.....दुखाता.

Lovely Anand

Love is life
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आह ....तनी धीरे से ...दुखाता
(Exclysively for Xforum)
यह उपन्यास एक ग्रामीण युवती सुगना के जीवन के बारे में है जोअपने परिवार में पनप रहे कामुक संबंधों को रोकना तो दूर उसमें शामिल होती गई। नियति के रचे इस खेल में सुगना अपने परिवार में ही कामुक और अनुचित संबंधों को बढ़ावा देती रही, उसकी क्या मजबूरी थी? क्या उसके कदम अनुचित थे? क्या वह गलत थी? यह प्रश्न पाठक उपन्यास को पढ़कर ही बता सकते हैं। उपन्यास की शुरुआत में तत्कालीन पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए सेक्स को प्रधानता दी गई है जो समय के साथ न्यायोचित तरीके से कथानक की मांग के अनुसार दर्शाया गया है।

इस उपन्यास में इंसेस्ट एक संयोग है।
अनुक्रमणिका
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भाग 126 (मध्यांतर)
 
Last edited:

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Well-Known Member
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कहानी का 100 वे पृष्ठ की हार्दिक बधाई हो भाई :applause: :applause:
इस उपलक्ष में तडकता फडकता अपडेट हो जाये तो मजा आ जायेगा
प्रतिक्षा रहेगी
 

Lovely Anand

Love is life
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भाग 53

बनारस महोत्सव का पांचवा दिन…..

बीती रात अपने जमीर से द्वंद लड़ते हुए तथा आज के दिन की रणनीति बनाते बनाते सुगना को सोने में विलंब हो गया था।

आज के शुभ दिन सुगना को उसके व्रत का फल मिलना था। सूर्य की कोमल किरणें पांडाल को प्रकाशमान कर चुकी थी परंतु सुगना अब भी सोई हुई थी। कजरी और पदमा सुगना के खूबसूरत चेहरे को निहार रही थीं। एक बार के लिए पदमा का मन हुआ कि वह सुगना को जगा दे परंतु कजरी ने रोक लिया। उसे पता था जब सुगना नींद पूरी कर उठती थी खिली खिली रहती थी यह समय का ही चक्र था की सुगना को अब कजरी उसकी मां की से ज्यादा समझने लगी थी। पदमा अपनी पुत्री के खूबसूरत चेहरे को निहारते हुए कुछ देर वहीं बैठ गयी।

कजरी ने ही सुगना के मर्म को समझा था तथा न सिर्फ सुगना के गर्भधारण की इच्छा के लिए अपने कुँवर जी को उससे साझा किया था अपितु सुगना की काम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह हर हद तक गई और उसकी इच्छाओं की पूर्ति करते करते स्वयं खुद की और सरयू सिंह की काम इच्छाओं को अतिरेक तक पहुंचा दिया था। इस वासना के अतिरेक का परिणाम ही कि सरयू सिंह सुगना के दूसरे छेद के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे। सुगना अभी मीठे स्वप्न में खोयी हुयी थी।

वह पूरी तरह निर्वस्त्र होकर सरयू सिह की गोद में बैठी हुई कभी उनकी मूछे सवांरती कभी वह उनकी मूछों पर ताव देकर उन्हें ऊंचा करती कभी अपने होठों से उसे गिला कर अलग आकार देती। सरयू सिंह उसके कोमल नितंबों को सहला रहे थे और अपनी मजबूत भुजाओं से खींच कर उसे अपने सीने से सटा ले रहे थे। सुगना सहज ही उनकी गोद में खेल रही थी।

यदि सुगना के स्तन विकसित ना हुए होते और शरीर पर वस्त्रों का आवरण होता तो यह वासना रहित दृश्य बेहद मधुर और पावन होता।

परंतु यह अवस्था वासनाजन्य थी। एक तरुणी एक अधेड़ की उम्र के मर्द की गोद में में नग्न बैठी हुई थी। सरयू सिंह का लण्ड पूरी तरह तन कर खड़ा हो गया था और सुगना के जांघों के बीच अपनी सहभागिनी को उत्तेजित कर रहा था। शरीर सिंह सुगना को सहलाए जा रहे थे और सुगना उन्हें चूमे जा रही थी। सुगना ने अपने दोनों पैर उनकी कमर पर लपेट लिए थे। जैसे ही सरयू सिंह के लण्ड ने सुगना की बुर के मुख को चुमा। सुगना की नींद खुल गई।

"बाबूजी…."

सुगना की आँखें खुल चुकी थीं।

सुगना की मां पद्मा ने अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार उसे उठाया और बोली..

"सुगना बेटा सपनात रहलु हा का?"

सुगना को अपने सुखद स्वप्न से जागने का अफसोस भी था और अपनी मां को करीब देखने का सुख भी। वैसे भी उसका स्वप्न आज हकीकत में बदलने वाला था।

इधर सुगना अपने मीठे सपनों में खोई हुई थी उधर पंडाल के पुरुष वाले भाग में सरयू सिंह तैयार हो चुके थे। उन्होंने होटल वाले से मिलकर कमरा भी बुक कर लिया था जिसमें आज वह सुगना के साथ रंगरलिया मनाने वाले थे। वह पंडाल में चहलकदमी करते हुए सुगना के आने का इंतजार कर रहे थे।

तभी पांडाल के गेट पर एक बार फिर मनोरमा की गाड़ी आकर रुकी। सरयू सिंह तो अपनी कामुक दुनिया में खोए हुए थे। उन्हें मनोरमा की गाड़ी आने का आभास नहीं हुआ। सरयू सिंह को अपनी तरफ आता न देखकर ड्राइवर गाड़ी से निकल कर भागता हुआ उनके पास गया आधी दूर पहुंचकर ही जोर से चिल्लाया

"सरयू जी मैडम गाड़ी में बैठी हैं"

शरीर सिंह की तो सांसें फूल गई वो भागते हुए मनोरमा के सामने पहुंच गए।

अपने दोनों हाथ जोड़े हुए वह कार की पिछली सीट के सामने खड़े थे। मनोरमा ने शीशा नीचे किया और कहा

"आपको सलेमपुर जाना होगा। बिजली गिरने से कई मवेशियों की मौत हो गई है गांव वाले बवाल कर रहे हैं। आप इसी गाड़ी से सलेमपुर चले जाइए और स्थिति के नियंत्रण में आने पर वापस आ जाइएगा। मैं आपकी मदद के लिए पुलिस फोर्स भी भेज रही हूँ"

सरयू सिंह जी को तो जैसे सांप सूंघ गया उनके सारे अरमान एक पल में मिट्टी में मिल गए थे उन्होंने हिम्मत करके एक बार फिर पूछा..

"मैडम दोपहर बाद चला जाऊं क्या?.".

नहीं आपको तुरंत जाना होगा मनोरमा की मीठी आवाज में छुपे आदेश की गंभीरता सरयू सिंह समझ चुके थे। उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी मनोरमा ने फिर कहा

"मैं आपका इंतजार कर रही हूं आप अपना सामान लेकर आ जाइये।"

मनोरमा ने जो काम बताया था वह उनके अलावा कोई और कर भी नहीं कर सकता था। यह तो मनोरमा का बड़प्पन था कि उसने आगे बढ़कर उन्हें अपनी ही गाड़ी ऑफर कर दी थी और उन्हें ससम्मान सलेमपुर भेजने की तैयारी कर दी थी।

परंतु सरयू सिंह ने जिस कृत्य की तैयारी की थी वह उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण था।

सरयू सिंह ने अभी दो दिनों पहले ही पदोन्नति पाई थी और वह मनोरमा के कृपा पात्र बने थे। कृपा पात्र ही क्या वह मनोरमा के गर्भ में पल रहे बच्चे के पिता भी बन चुके थे । वह किसी भी परिस्थिति में उसका कोपभाजन नहीं बनना चाह रहे थे। वह भागते हुए गए और अपना झोला लपेटा। उन्होंने महिला पंडाल की तरफ जाकर कजरी को आवाज लगाई और उसे सारी वस्तुस्थिति बताई। और अनमने मन से गाड़ी के करीब आ गए।

आज मनोरमा काम पिपासु युवती की भांति नहीं एक सजी-धजी और मर्यादित एसडीएम थी। हालांकि सरयू सिंह उसे अपने मजबूत शरीर के नीचे लाकर उसे कसकर चोद चुके थे फिर भी उसके साथ पिछली सीट पर बैठने की न वह हिम्मत जुटा पाए और न हीं मनोरमा ने यह आग्रह किया।

मनोरमा ने ड्राइवर को आदेश दिया मुझे होटल छोड़ दो और साहब के साथ सलेमपुर चले जाओ।

मनोरमा हमेशा सरयू सिंह को उनके नाम से ही पुकारती थी और अधिकतर नाम के आगे जी जोड़कर उनके व्यक्तित्व का सम्मान बनाए रखती थी परंतु आज मनोरमा ने उन्हें पहली बार साहब कहकर आदर दिया था। सरयू सिंह मनोरमा के कायल हुए जा रहे थे।

ड्राइवर के साथ अगली सीट पर बैठे सरयू सिंह बनारस महोत्सव को पीछे छूटते हुए देख रहे थे।

कुछ ही देर में मनोरमा की कार पांच सितारा होटल के गेट से अंदर प्रवेश कर चुकी थी। होटल की भव्यता देखकर सरयू सिंह आश्चर्यचकित रह गए । 6 मंजिला होटल की बिल्डिंग बेहद खूबसूरत और प्रभावशाली थी। गाड़ी जैसे ही पोर्च के अंदर खड़ी हुई अंदर हल्की-हल्की पीली लाइटों से सुसज्जित रिसेप्शन दिखाई पड़ गया। कितना खूबसूरत था वह होटल। वह उस पांच सितारा होटल की तुलना अपने बुक किए गए होटल से करने लगे। मटमैली जमीन और नीले आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। सरयू सिंह उस होटल में अपनी जान सुगना के साथ रंगरेलियां मनाने की सोचने लगे थे।

मन भी चंचल होता वह भौतिक दुनिया की सीमाओं और मजबूरियों को नजरअंदाज कर अपनी कल्पनाओं में वह हर उस सुख और संसाधन को शामिल करता है जिसे उसने देखा और महसूस किया हो चाहे वह उसके लिए संभव हो या ना हो।

अपनी कामुकता को शांत करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें सुगना जैसी सहभागीनी दे दी थी पर जिस ऐश्वर्य और वैभव के साथ उसका भोग करना चाहिए था वह सरयुसिंह की हैसियत के बाहर था।

यदि भगवान की बनाई सुगना की सुडौल और कमनीय काया की तुलना किसी भी राजरानी या तथाकथित परियों से की जाती तो सुगना की चमकती कुंदन काया निश्चित ही सब पर भारी पड़ती।

सरयू सिंह को अब जाकर पद की अहमियत समझ में आ रही थी। उन्हें पता था मनोरमा जी के पति सेक्रेटरी और अब वह सेक्रेटरी पद की आर्थिक और सामाजिक हैसियत जान चुके थे।

सरयू सिंह वैसे तो संतोषी स्वभाव के व्यक्ति थे परंतु जब जब वह वैभव और ऐश्वर्य को देखते उन्हें हमेशा सुगना की याद आती। वह सुगना को दुनिया के सारे ऐसो आराम देना चाहते थे और संसार की सारी खूबसूरत कृतियों से उसे रूबरू कराना चाहते थे। आखिर वह स्वयं इस संसार की एक अनुपम कलाकृति थी उसे इस वैभव को भोगने का पूरा हक था। सरयू सिंह अपनी भावनाओं में खोए हुए थे तभी मनोरमा कार से निकलकर बाहर आई और सरयू सिंह की तरफ देखकर बोली।

"मैं आपको आपके परिवार से अलग कर रही हूं इसका मुझे अफसोस है परंतु यह कार्य बेहद आवश्यक है और आपके बिना शायद ही कोई इसे पूरी दक्षता से पूरा कर पाए।"

सरयू सिंह ने अपने हाथ जोड़ लिए और खुशी-खुशी बोले

"मैं आपको कभी निराश नहीं करूंगा आपने मुझ पर विश्वास जताया है मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा"

ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। मनोरमा अभी भी सरयु सिंह को एकटक देखे जा रही थी। 2 दिन पहले उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए मनोरमा मुस्कुराते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चली।

इधर सुगना जाग चुकी थी। सुगना की मां पद्मा अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख खुश हो गई और उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार से उसे उठाया। सुगना झटपट उठ ग़यी। उसका आज का पूरा कार्यक्रम पहले से तय था।

सर्वप्रथम वह अपने बाबूजी को देखने के लिए पुरुष पंडाल की तरफ गई। सरयू सिंह अपनी कद काठी की वजह से भीड़ में भी पहचाने जा सकते थे परंतु सुगना की आंखों को सरयू सिंह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। सुगना अधीर हो रही थी वह भागती हुई फिर अंदर आई और कजरी को ढूंढने लगी। कजरी स्वयं सुगना को ढूंढ रही थी नजरें मिलते दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ने लगे

" मां बाबूजी कहां बाड़े" सुगना ने अधीर होकर कहा।

सुगना का यह संबोधन उसे और मासूम बना देता था। न तो कजरी उसकी मां थी और नहीं सरयू सिंह उसके बाबूजी पर संबोधनों का यह दौर तब शुरू हुआ था जब सुगना अबोध थी और तब से अब तक काफी समय बीत चुका था।

संबोधनों में अंतर अब भी न था परंतु संबंध बदल चुके थे।

कजरी ने सरयू सिंह के सलेमपुर जाने की बात सुगना को बता दी। सुगना के पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई वह आज के दिन के लिए पूरी तरह आस लगाए हुए थी और मन ही मन अपने गर्भधारण के लिए बेतहाशा चुदने को तैयार थी। बनारस महोत्सव में सूरज की मुक्तिदायिनी का सृजन सुगना के लिए जीवन मरण का प्रश्न था। सुगना का मायूस चेहरा देखकर कजरी परेशान हो गयी।

"ए सुगना काहे परेशान बाड़े?"

सुगना ने कोई उत्तर न दिया उसकी जबान पर विद्यानंद के वचन का ताला लगा हुआ था। वह किस मुंह कजरी को अपनी व्यथा बताती।

सुगना रुवांसी हो गई वह। धीमे धीमे कदमों से आकर पांडाल में बैठ गयी।

मनुष्य की चाल उसके मन में भरे उत्साह या निराशा को स्पष्ट कर देती है।

सुगना जमीन पर बैठ गई उसने अपने दोनों घुटने ऊपर किए और उस पर अपना सर टिका दिया। पदमा और कजरी दोनों सुगना के पास आकर बैठ गयीं और उसकी मनो व्यथा पढ़ने का प्रयास करने लगीं। परंतु जितना ही वह सुगना से उसके व्यथित होने का कारण पूछती सुगना उतना ही दुखी होती।

नियति का यह क्रूर मजाक सुगना को बेहद दुखी कर गया था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान ने उसके व्रत का उसे कोई प्रतिफल नहीं दिया था। पदमा और कजरी दोनों सुगना की उदासी का कारण जानना चाहते थे।

यदि सुगना को विद्यानंद की बातों पर थोड़ा भी अविश्वास होता तो वह निश्चय ही अपने मन की बात अपनी सास और सहेली कजरी से अवश्य साझा करती। इस समय कजरी सुगना के ज्यादा नजदीक थी बनिस्पत उसकी मां के।

पास लेटे हुए सूरज को देख कर सुगना की ममता हिलोरे मारने लगी। जब जब वह सूरज के मुखड़े की तरफ देखती वह और बेचैन हो जाती। कजरी और पदमा को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। सोनी और मोनी भी अब सुगना के पास आ चुकी थीं। सुगना जिस मुसीबत में थी उसका निदान किसी के पास ना था। सुगना को गर्भवती करने वाले सरयू सिंह अचानक ही सलेमपुर चले गए थे। बनारस महोत्सव का उत्तरार्ध शुरु हो चुका था। सुगना के दिमाग में बार-बार एक ही बात घूम रही थी यदि वह गर्भवती ना हुई तो……. यह यक्ष प्रश्न सुगना की बेचैनी को बढ़ा रहा था।

सोनी ने सुगना से कहा….

"चल दीदी हम लोग लाली दीदी के घर से घूम कर आते हैं"

सुगना सचेत हो गई पर कुछ बोली नहीं सोनी ने दुबारा कहा

"दीदी तुझे रास्ता तो मालूम है ना?"

सुगना के जबाब न देने पर सोनी उसे पैरों से पकड़ कर हिलाने लगी और बोली

"दीदी चल ना ऐसे मुह लटकाने से क्या मिलेगा चल हम लोग वहीं नाश्ता करेंगे"

सुगना ने सोनी की बात मान ली। लाली से मिलकर वह अपना दुख तो साझा नहीं कर सकती थी पर लाली के सानिध्य में रहकर थोड़ा हंसी मजाक कर सहज अवश्य हो सकती थी। सुगना धीरे धीरे उठ खड़ी हूं और अपने आशुओं को पोछते हुए तैयार होने चली गई।


उधर लाली के घर में ..

सोनू आज सुबह-सुबह ही लाली के घर आ धमका था। और अभी लाली की रसोई में अपनी दीदी की मदद कर रहा था। ऐसा नहीं था कि सोनू को अब रसोई के कार्यों में आनंद आने लगा था परंतु नाइटी में घूम रही लाली के शरीर के उभारों को देखने के लालच में सोनू लाली के साथ साथ लगा हुआ था।

सोनू लाली के ठीक बगल में खड़े होकर चाकू से प्याज काट रहा था। उसकी उंगलियां बहुत तेजी से चल रही थी। बगल में खड़ी लाली की उभरी हुई चूचियां सोनू का ध्यान खींच रही थी। जैसे ही लाली मुड़ी उसकी चूँची सोनू की मजबूत बांहों से टकरा गई। सोनू का ध्यान भटक गया और चाकू ने प्याज की जगह सोनू की उंगली को चुन लिया।

"आह" उसके मुंह से चीख निकल गई।

"क्या हुआ सोनू बाबू"

जैसे ही लाली की निगाह सोनू की उंगलियों पर पड़ी उसे सारा वाकया समझ में आ गया। इससे पहले कि सोनू कुछ बोलता लाली ने उसकी उंगली को अपने मुंह में भर लिया और उसे चूस कर खून के बहाव को शांत करने लगी।

खून का बहाव रोकने की यह विधि निराली थी जो आजकल के पढ़े लिखे समाज में शायद कम उपयोग में लाई जाती होगी पर उस समय यह बेहद कारगर थी।

सोनू लाली के सुंदर चेहरे को निहार रहा था और उसके गोल हो चुके हुए होंठ बेहद मादक लग रहे थे। एक पल के लिए सोनू पर महसूस हुआ काश लाली के होठों के बीच उसकी उंगलियां ना होकर उसका लण्ड होता। सोनू के इस ख्याल से ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जिसे लाली ने भांप लिया।

उसने उसकी उंगली को मुंह से बाहर निकाला और बड़ी अदा से बोली

" क्या सोच रहा है?" शायद लाली ने उसकी मनोदशा पढ़ ली थी

"कुछ नहीं दीदी"

"सच-सच बता नहीं तो?"

"सच दीदी कोई बात नहीं. देखिए उंगली से खून निकलना भी बंद हो गया"

"तु मुस्कुरा क्यों रहा था? सच बता क्या सोच रहा था? कुछ गंदा संदा सोच रहा था ना?"

लाली सोनू के मुंह में शब्द डालने की कोशिश कर रही थी.

सोनू ने शर्माते हुए कहा

"वह सब गंदी पिक्चरों में होता है ना… मेरे दिमाग में वही बात आ गई."

"क्या होता है साफ-साफ बताना"

"अरे वो विदेशी लड़कियां अपने होठों में लेकर लड़कों का…."

सोनू अपनी बात पूरी नहीं कर सका.

"मैंने तो सुना है कि लड़के भी…. " लाली ने शर्माते हुए कहा परंतु अपनी नजरें सोनू से हटाकर कड़ाही पर केंद्रित कर लीं।

"हां दीदी बहुत मजा आता होगा"। सोनू अब लाली से खुल रहा था।

"छी वह जगह कितनी गंदी होती है लड़के अपना मुंह कैसे लगाते होंगे.."

"दीदी मेरे लिए तो वह जन्नत का द्वार है मुझे तो उसमें कोई गलत बात दिखाई नहीं पड़ती मैं तो उसे चूम सकता हूं और…"

"और क्या.." लाली का चेहरा शर्म से लाल हो चुका था और वह अब सोनू से अपनी नजर नहीं मिला रही थी। कड़ाही मे प्याज भूनते हुए लाली ने सोनू को उकसाया।

"मेरी दीदी की तो मैं चाट भी सकता हूँ"

"अपनी सुगना दीदी की"

"आप कैसी गंदी बात करती हो"

"अरे वाह तूने ही तो कहा"

"अरे मैं अपनी प्यारी दीदी की बात कर रहा था" सोनू ने अपने दोनों हाथ लाली के पेट पर ले जाकर उसे अपनी और खींच लिया। सोनू का तना हुआ लण्ड लाली के नितंबों के बीच आ गया और उसकी गांड में छेद करने को आतुर हो गया।

लाली ने सोनू को फिर छेड़ा..

"अरे वाह सुगना के नाम से तो छोटे नवाब भी तन गए हैं"

सोनू को गुस्सा आ रहा था परंतु लाली की मदमस्त जवानी उसे अपना गुस्सा व्यक्त करने से रोक रही थी परंतु सोनू ने अपने लण्ड का दबाव लाली के नितंबों पर और बढ़ा दिया

"उइ माँ सोनू बाबू तनी धीरे से…."

सोनू ने लाली को छोड़ तो दिया था पर लाली खुद अपने चीखने का अफसोस कर रही थी। सोनू के लण्ड के सु पाडे ने उसकी बुर के होठों को सहला दिया था।

लाली अब आटा गूथ रही थी और सोनू उसे पीछे से अपने आगोश में लिए हुए था। उसकी हथेलियां लाली के कोमल हाथों के ऊपर घूम रही थी जो आटे से सनी हुयी थी। सोनू का पूरा शरीर लाली से सटा हुआ था और लण्ड रह-रहकर उसके नितंबों से छू रहा था सोनू लाली के सानिध्य का आनंद जी भर कर उठा रहा था।

सोनू की हथेलियां धीरे-धीरे लाली की भरी भरी चूची ऊपर आ गई। लाली जैसे-जैसे आटे को गूथ रही थी सोनू उसी लय में उसकी चुचियों को मीस रहा था। जैसे-जैसे लाली की उंगलियां चलती वैसे वैसे सोनू अपनी उंगलियां घुमाता। उधर उसका लण्ड अभी भी लाली के नितंबों में जगह-जगह छेद करने का प्रयास कर रहा था।

सोनू और लाली की मीठी छेड़छाड़ जारी थी। लाली में आह भरी। तवा गर्म हो चुका था…. गैस पर रखा हुआ भी और लाली की जांघों के बीच भी...

इधर सोनू और लाली मिलन की तैयारी में थे उधर सुगना और सोनी बनारस महोत्सव से लाली के घर आने के लिए निकल चुके थे..

कुछ अप्रत्याशित होने वाला था.

शेष अगले भाग में।

 

Royal boy034

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भाग 53

बनारस महोत्सव का पांचवा दिन…..

बीती रात अपने जमीर से द्वंद लड़ते हुए तथा आज के दिन की रणनीति बनाते बनाते सुगना को सोने में विलंब हो गया था।

आज के शुभ दिन सुगना को उसके व्रत का फल मिलना था। सूर्य की कोमल किरणें पांडाल को प्रकाशमान कर चुकी थी परंतु सुगना अब भी सोई हुई थी। कजरी और पदमा सुगना के खूबसूरत चेहरे को निहार रही थीं। एक बार के लिए पदमा का मन हुआ कि वह सुगना को जगा दे परंतु कजरी ने रोक लिया। उसे पता था जब सुगना नींद पूरी कर उठती थी खिली खिली रहती थी यह समय का ही चक्र था की सुगना को अब कजरी उसकी मां की से ज्यादा समझने लगी थी। पदमा अपनी पुत्री के खूबसूरत चेहरे को निहारते हुए कुछ देर वहीं बैठ गयी।

कजरी ने ही सुगना के मर्म को समझा था तथा न सिर्फ सुगना के गर्भधारण की इच्छा के लिए अपने कुँवर जी को उससे साझा किया था अपितु सुगना की काम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह हर हद तक गई और उसकी इच्छाओं की पूर्ति करते करते स्वयं खुद की और सरयू सिंह की काम इच्छाओं को अतिरेक तक पहुंचा दिया था। इस वासना के अतिरेक का परिणाम ही कि सरयू सिंह सुगना के दूसरे छेद के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे। सुगना अभी मीठे स्वप्न में खोयी हुयी थी।

वह पूरी तरह निर्वस्त्र होकर सरयू सिह की गोद में बैठी हुई कभी उनकी मूछे सवांरती कभी वह उनकी मूछों पर ताव देकर उन्हें ऊंचा करती कभी अपने होठों से उसे गिला कर अलग आकार देती। सरयू सिंह उसके कोमल नितंबों को सहला रहे थे और अपनी मजबूत भुजाओं से खींच कर उसे अपने सीने से सटा ले रहे थे। सुगना सहज ही उनकी गोद में खेल रही थी।

यदि सुगना के स्तन विकसित ना हुए होते और शरीर पर वस्त्रों का आवरण होता तो यह वासना रहित दृश्य बेहद मधुर और पावन होता।

परंतु यह अवस्था वासनाजन्य थी। एक तरुणी एक अधेड़ की उम्र के मर्द की गोद में में नग्न बैठी हुई थी। सरयू सिंह का लण्ड पूरी तरह तन कर खड़ा हो गया था और सुगना के जांघों के बीच अपनी सहभागिनी को उत्तेजित कर रहा था। शरीर सिंह सुगना को सहलाए जा रहे थे और सुगना उन्हें चूमे जा रही थी। सुगना ने अपने दोनों पैर उनकी कमर पर लपेट लिए थे। जैसे ही सरयू सिंह के लण्ड ने सुगना की बुर के मुख को चुमा। सुगना की नींद खुल गई।

"बाबूजी…."

सुगना की आँखें खुल चुकी थीं।

सुगना की मां पद्मा ने अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार उसे उठाया और बोली..

"सुगना बेटा सपनात रहलु हा का?"

सुगना को अपने सुखद स्वप्न से जागने का अफसोस भी था और अपनी मां को करीब देखने का सुख भी। वैसे भी उसका स्वप्न आज हकीकत में बदलने वाला था।

इधर सुगना अपने मीठे सपनों में खोई हुई थी उधर पंडाल के पुरुष वाले भाग में सरयू सिंह तैयार हो चुके थे। उन्होंने होटल वाले से मिलकर कमरा भी बुक कर लिया था जिसमें आज वह सुगना के साथ रंगरलिया मनाने वाले थे। वह पंडाल में चहलकदमी करते हुए सुगना के आने का इंतजार कर रहे थे।

तभी पांडाल के गेट पर एक बार फिर मनोरमा की गाड़ी आकर रुकी। सरयू सिंह तो अपनी कामुक दुनिया में खोए हुए थे। उन्हें मनोरमा की गाड़ी आने का आभास नहीं हुआ। सरयू सिंह को अपनी तरफ आता न देखकर ड्राइवर गाड़ी से निकल कर भागता हुआ उनके पास गया आधी दूर पहुंचकर ही जोर से चिल्लाया

"सरयू जी मैडम गाड़ी में बैठी हैं"

शरीर सिंह की तो सांसें फूल गई वो भागते हुए मनोरमा के सामने पहुंच गए।

अपने दोनों हाथ जोड़े हुए वह कार की पिछली सीट के सामने खड़े थे। मनोरमा ने शीशा नीचे किया और कहा

"आपको सलेमपुर जाना होगा। बिजली गिरने से कई मवेशियों की मौत हो गई है गांव वाले बवाल कर रहे हैं। आप इसी गाड़ी से सलेमपुर चले जाइए और स्थिति के नियंत्रण में आने पर वापस आ जाइएगा। मैं आपकी मदद के लिए पुलिस फोर्स भी भेज रही हूँ"

सरयू सिंह जी को तो जैसे सांप सूंघ गया उनके सारे अरमान एक पल में मिट्टी में मिल गए थे उन्होंने हिम्मत करके एक बार फिर पूछा..

"मैडम दोपहर बाद चला जाऊं क्या?.".

नहीं आपको तुरंत जाना होगा मनोरमा की मीठी आवाज में छुपे आदेश की गंभीरता सरयू सिंह समझ चुके थे। उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी मनोरमा ने फिर कहा

"मैं आपका इंतजार कर रही हूं आप अपना सामान लेकर आ जाइये।"

मनोरमा ने जो काम बताया था वह उनके अलावा कोई और कर भी नहीं कर सकता था। यह तो मनोरमा का बड़प्पन था कि उसने आगे बढ़कर उन्हें अपनी ही गाड़ी ऑफर कर दी थी और उन्हें ससम्मान सलेमपुर भेजने की तैयारी कर दी थी।

परंतु सरयू सिंह ने जिस कृत्य की तैयारी की थी वह उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण था।

सरयू सिंह ने अभी दो दिनों पहले ही पदोन्नति पाई थी और वह मनोरमा के कृपा पात्र बने थे। कृपा पात्र ही क्या वह मनोरमा के गर्भ में पल रहे बच्चे के पिता भी बन चुके थे । वह किसी भी परिस्थिति में उसका कोपभाजन नहीं बनना चाह रहे थे। वह भागते हुए गए और अपना झोला लपेटा। उन्होंने महिला पंडाल की तरफ जाकर कजरी को आवाज लगाई और उसे सारी वस्तुस्थिति बताई। और अनमने मन से गाड़ी के करीब आ गए।

आज मनोरमा काम पिपासु युवती की भांति नहीं एक सजी-धजी और मर्यादित एसडीएम थी। हालांकि सरयू सिंह उसे अपने मजबूत शरीर के नीचे लाकर उसे कसकर चोद चुके थे फिर भी उसके साथ पिछली सीट पर बैठने की न वह हिम्मत जुटा पाए और न हीं मनोरमा ने यह आग्रह किया।

मनोरमा ने ड्राइवर को आदेश दिया मुझे होटल छोड़ दो और साहब के साथ सलेमपुर चले जाओ।

मनोरमा हमेशा सरयू सिंह को उनके नाम से ही पुकारती थी और अधिकतर नाम के आगे जी जोड़कर उनके व्यक्तित्व का सम्मान बनाए रखती थी परंतु आज मनोरमा ने उन्हें पहली बार साहब कहकर आदर दिया था। सरयू सिंह मनोरमा के कायल हुए जा रहे थे।

ड्राइवर के साथ अगली सीट पर बैठे सरयू सिंह बनारस महोत्सव को पीछे छूटते हुए देख रहे थे।

कुछ ही देर में मनोरमा की कार पांच सितारा होटल के गेट से अंदर प्रवेश कर चुकी थी। होटल की भव्यता देखकर सरयू सिंह आश्चर्यचकित रह गए । 6 मंजिला होटल की बिल्डिंग बेहद खूबसूरत और प्रभावशाली थी। गाड़ी जैसे ही पोर्च के अंदर खड़ी हुई अंदर हल्की-हल्की पीली लाइटों से सुसज्जित रिसेप्शन दिखाई पड़ गया। कितना खूबसूरत था वह होटल। वह उस पांच सितारा होटल की तुलना अपने बुक किए गए होटल से करने लगे। मटमैली जमीन और नीले आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। सरयू सिंह उस होटल में अपनी जान सुगना के साथ रंगरेलियां मनाने की सोचने लगे थे।

मन भी चंचल होता वह भौतिक दुनिया की सीमाओं और मजबूरियों को नजरअंदाज कर अपनी कल्पनाओं में वह हर उस सुख और संसाधन को शामिल करता है जिसे उसने देखा और महसूस किया हो चाहे वह उसके लिए संभव हो या ना हो।

अपनी कामुकता को शांत करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें सुगना जैसी सहभागीनी दे दी थी पर जिस ऐश्वर्य और वैभव के साथ उसका भोग करना चाहिए था वह सरयुसिंह की हैसियत के बाहर था।

यदि भगवान की बनाई सुगना की सुडौल और कमनीय काया की तुलना किसी भी राजरानी या तथाकथित परियों से की जाती तो सुगना की चमकती कुंदन काया निश्चित ही सब पर भारी पड़ती।

सरयू सिंह को अब जाकर पद की अहमियत समझ में आ रही थी। उन्हें पता था मनोरमा जी के पति सेक्रेटरी और अब वह सेक्रेटरी पद की आर्थिक और सामाजिक हैसियत जान चुके थे।

सरयू सिंह वैसे तो संतोषी स्वभाव के व्यक्ति थे परंतु जब जब वह वैभव और ऐश्वर्य को देखते उन्हें हमेशा सुगना की याद आती। वह सुगना को दुनिया के सारे ऐसो आराम देना चाहते थे और संसार की सारी खूबसूरत कृतियों से उसे रूबरू कराना चाहते थे। आखिर वह स्वयं इस संसार की एक अनुपम कलाकृति थी उसे इस वैभव को भोगने का पूरा हक था। सरयू सिंह अपनी भावनाओं में खोए हुए थे तभी मनोरमा कार से निकलकर बाहर आई और सरयू सिंह की तरफ देखकर बोली।

"मैं आपको आपके परिवार से अलग कर रही हूं इसका मुझे अफसोस है परंतु यह कार्य बेहद आवश्यक है और आपके बिना शायद ही कोई इसे पूरी दक्षता से पूरा कर पाए।"

सरयू सिंह ने अपने हाथ जोड़ लिए और खुशी-खुशी बोले

"मैं आपको कभी निराश नहीं करूंगा आपने मुझ पर विश्वास जताया है मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा"

ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। मनोरमा अभी भी सरयु सिंह को एकटक देखे जा रही थी। 2 दिन पहले उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए मनोरमा मुस्कुराते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चली।

इधर सुगना जाग चुकी थी। सुगना की मां पद्मा अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख खुश हो गई और उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार से उसे उठाया। सुगना झटपट उठ ग़यी। उसका आज का पूरा कार्यक्रम पहले से तय था।

सर्वप्रथम वह अपने बाबूजी को देखने के लिए पुरुष पंडाल की तरफ गई। सरयू सिंह अपनी कद काठी की वजह से भीड़ में भी पहचाने जा सकते थे परंतु सुगना की आंखों को सरयू सिंह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। सुगना अधीर हो रही थी वह भागती हुई फिर अंदर आई और कजरी को ढूंढने लगी। कजरी स्वयं सुगना को ढूंढ रही थी नजरें मिलते दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ने लगे

" मां बाबूजी कहां बाड़े" सुगना ने अधीर होकर कहा।

सुगना का यह संबोधन उसे और मासूम बना देता था। न तो कजरी उसकी मां थी और नहीं सरयू सिंह उसके बाबूजी पर संबोधनों का यह दौर तब शुरू हुआ था जब सुगना अबोध थी और तब से अब तक काफी समय बीत चुका था।

संबोधनों में अंतर अब भी न था परंतु संबंध बदल चुके थे।

कजरी ने सरयू सिंह के सलेमपुर जाने की बात सुगना को बता दी। सुगना के पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई वह आज के दिन के लिए पूरी तरह आस लगाए हुए थी और मन ही मन अपने गर्भधारण के लिए बेतहाशा चुदने को तैयार थी। बनारस महोत्सव में सूरज की मुक्तिदायिनी का सृजन सुगना के लिए जीवन मरण का प्रश्न था। सुगना का मायूस चेहरा देखकर कजरी परेशान हो गयी।

"ए सुगना काहे परेशान बाड़े?"

सुगना ने कोई उत्तर न दिया उसकी जबान पर विद्यानंद के वचन का ताला लगा हुआ था। वह किस मुंह कजरी को अपनी व्यथा बताती।

सुगना रुवांसी हो गई वह। धीमे धीमे कदमों से आकर पांडाल में बैठ गयी।

मनुष्य की चाल उसके मन में भरे उत्साह या निराशा को स्पष्ट कर देती है।

सुगना जमीन पर बैठ गई उसने अपने दोनों घुटने ऊपर किए और उस पर अपना सर टिका दिया। पदमा और कजरी दोनों सुगना के पास आकर बैठ गयीं और उसकी मनो व्यथा पढ़ने का प्रयास करने लगीं। परंतु जितना ही वह सुगना से उसके व्यथित होने का कारण पूछती सुगना उतना ही दुखी होती।

नियति का यह क्रूर मजाक सुगना को बेहद दुखी कर गया था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान ने उसके व्रत का उसे कोई प्रतिफल नहीं दिया था। पदमा और कजरी दोनों सुगना की उदासी का कारण जानना चाहते थे।

यदि सुगना को विद्यानंद की बातों पर थोड़ा भी अविश्वास होता तो वह निश्चय ही अपने मन की बात अपनी सास और सहेली कजरी से अवश्य साझा करती। इस समय कजरी सुगना के ज्यादा नजदीक थी बनिस्पत उसकी मां के।

पास लेटे हुए सूरज को देख कर सुगना की ममता हिलोरे मारने लगी। जब जब वह सूरज के मुखड़े की तरफ देखती वह और बेचैन हो जाती। कजरी और पदमा को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। सोनी और मोनी भी अब सुगना के पास आ चुकी थीं। सुगना जिस मुसीबत में थी उसका निदान किसी के पास ना था। सुगना को गर्भवती करने वाले सरयू सिंह अचानक ही सलेमपुर चले गए थे। बनारस महोत्सव का उत्तरार्ध शुरु हो चुका था। सुगना के दिमाग में बार-बार एक ही बात घूम रही थी यदि वह गर्भवती ना हुई तो……. यह यक्ष प्रश्न सुगना की बेचैनी को बढ़ा रहा था।

सोनी ने सुगना से कहा….

"चल दीदी हम लोग लाली दीदी के घर से घूम कर आते हैं"

सुगना सचेत हो गई पर कुछ बोली नहीं सोनी ने दुबारा कहा

"दीदी तुझे रास्ता तो मालूम है ना?"

सुगना के जबाब न देने पर सोनी उसे पैरों से पकड़ कर हिलाने लगी और बोली

"दीदी चल ना ऐसे मुह लटकाने से क्या मिलेगा चल हम लोग वहीं नाश्ता करेंगे"

सुगना ने सोनी की बात मान ली। लाली से मिलकर वह अपना दुख तो साझा नहीं कर सकती थी पर लाली के सानिध्य में रहकर थोड़ा हंसी मजाक कर सहज अवश्य हो सकती थी। सुगना धीरे धीरे उठ खड़ी हूं और अपने आशुओं को पोछते हुए तैयार होने चली गई।


उधर लाली के घर में ..

सोनू आज सुबह-सुबह ही लाली के घर आ धमका था। और अभी लाली की रसोई में अपनी दीदी की मदद कर रहा था। ऐसा नहीं था कि सोनू को अब रसोई के कार्यों में आनंद आने लगा था परंतु नाइटी में घूम रही लाली के शरीर के उभारों को देखने के लालच में सोनू लाली के साथ साथ लगा हुआ था।

सोनू लाली के ठीक बगल में खड़े होकर चाकू से प्याज काट रहा था। उसकी उंगलियां बहुत तेजी से चल रही थी। बगल में खड़ी लाली की उभरी हुई चूचियां सोनू का ध्यान खींच रही थी। जैसे ही लाली मुड़ी उसकी चूँची सोनू की मजबूत बांहों से टकरा गई। सोनू का ध्यान भटक गया और चाकू ने प्याज की जगह सोनू की उंगली को चुन लिया।

"आह" उसके मुंह से चीख निकल गई।

"क्या हुआ सोनू बाबू"

जैसे ही लाली की निगाह सोनू की उंगलियों पर पड़ी उसे सारा वाकया समझ में आ गया। इससे पहले कि सोनू कुछ बोलता लाली ने उसकी उंगली को अपने मुंह में भर लिया और उसे चूस कर खून के बहाव को शांत करने लगी।

खून का बहाव रोकने की यह विधि निराली थी जो आजकल के पढ़े लिखे समाज में शायद कम उपयोग में लाई जाती होगी पर उस समय यह बेहद कारगर थी।

सोनू लाली के सुंदर चेहरे को निहार रहा था और उसके गोल हो चुके हुए होंठ बेहद मादक लग रहे थे। एक पल के लिए सोनू पर महसूस हुआ काश लाली के होठों के बीच उसकी उंगलियां ना होकर उसका लण्ड होता। सोनू के इस ख्याल से ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जिसे लाली ने भांप लिया।

उसने उसकी उंगली को मुंह से बाहर निकाला और बड़ी अदा से बोली

" क्या सोच रहा है?" शायद लाली ने उसकी मनोदशा पढ़ ली थी

"कुछ नहीं दीदी"

"सच-सच बता नहीं तो?"

"सच दीदी कोई बात नहीं. देखिए उंगली से खून निकलना भी बंद हो गया"

"तु मुस्कुरा क्यों रहा था? सच बता क्या सोच रहा था? कुछ गंदा संदा सोच रहा था ना?"

लाली सोनू के मुंह में शब्द डालने की कोशिश कर रही थी.

सोनू ने शर्माते हुए कहा

"वह सब गंदी पिक्चरों में होता है ना… मेरे दिमाग में वही बात आ गई."

"क्या होता है साफ-साफ बताना"

"अरे वो विदेशी लड़कियां अपने होठों में लेकर लड़कों का…."

सोनू अपनी बात पूरी नहीं कर सका.

"मैंने तो सुना है कि लड़के भी…. " लाली ने शर्माते हुए कहा परंतु अपनी नजरें सोनू से हटाकर कड़ाही पर केंद्रित कर लीं।

"हां दीदी बहुत मजा आता होगा"। सोनू अब लाली से खुल रहा था।

"छी वह जगह कितनी गंदी होती है लड़के अपना मुंह कैसे लगाते होंगे.."

"दीदी मेरे लिए तो वह जन्नत का द्वार है मुझे तो उसमें कोई गलत बात दिखाई नहीं पड़ती मैं तो उसे चूम सकता हूं और…"

"और क्या.." लाली का चेहरा शर्म से लाल हो चुका था और वह अब सोनू से अपनी नजर नहीं मिला रही थी। कड़ाही मे प्याज भूनते हुए लाली ने सोनू को उकसाया।

"मेरी दीदी की तो मैं चाट भी सकता हूँ"

"अपनी सुगना दीदी की"

"आप कैसी गंदी बात करती हो"

"अरे वाह तूने ही तो कहा"

"अरे मैं अपनी प्यारी दीदी की बात कर रहा था" सोनू ने अपने दोनों हाथ लाली के पेट पर ले जाकर उसे अपनी और खींच लिया। सोनू का तना हुआ लण्ड लाली के नितंबों के बीच आ गया और उसकी गांड में छेद करने को आतुर हो गया।

लाली ने सोनू को फिर छेड़ा..

"अरे वाह सुगना के नाम से तो छोटे नवाब भी तन गए हैं"

सोनू को गुस्सा आ रहा था परंतु लाली की मदमस्त जवानी उसे अपना गुस्सा व्यक्त करने से रोक रही थी परंतु सोनू ने अपने लण्ड का दबाव लाली के नितंबों पर और बढ़ा दिया

"उइ माँ सोनू बाबू तनी धीरे से…."

सोनू ने लाली को छोड़ तो दिया था पर लाली खुद अपने चीखने का अफसोस कर रही थी। सोनू के लण्ड के सु पाडे ने उसकी बुर के होठों को सहला दिया था।

लाली अब आटा गूथ रही थी और सोनू उसे पीछे से अपने आगोश में लिए हुए था। उसकी हथेलियां लाली के कोमल हाथों के ऊपर घूम रही थी जो आटे से सनी हुयी थी। सोनू का पूरा शरीर लाली से सटा हुआ था और लण्ड रह-रहकर उसके नितंबों से छू रहा था सोनू लाली के सानिध्य का आनंद जी भर कर उठा रहा था।

सोनू की हथेलियां धीरे-धीरे लाली की भरी भरी चूची ऊपर आ गई। लाली जैसे-जैसे आटे को गूथ रही थी सोनू उसी लय में उसकी चुचियों को मीस रहा था। जैसे-जैसे लाली की उंगलियां चलती वैसे वैसे सोनू अपनी उंगलियां घुमाता। उधर उसका लण्ड अभी भी लाली के नितंबों में जगह-जगह छेद करने का प्रयास कर रहा था।

सोनू और लाली की मीठी छेड़छाड़ जारी थी। लाली में आह भरी। तवा गर्म हो चुका था…. गैस पर रखा हुआ भी और लाली की जांघों के बीच भी...

इधर सोनू और लाली मिलन की तैयारी में थे उधर सुगना और सोनी बनारस महोत्सव से लाली के घर आने के लिए निकल चुके थे..

कुछ अप्रत्याशित होने वाला था.

शेष अगले भाग में।
Sonu aur lali ka KLPD hoga jaise Saguna aur uske babuji ka hua
 

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भाग 53

बनारस महोत्सव का पांचवा दिन…..

बीती रात अपने जमीर से द्वंद लड़ते हुए तथा आज के दिन की रणनीति बनाते बनाते सुगना को सोने में विलंब हो गया था।

आज के शुभ दिन सुगना को उसके व्रत का फल मिलना था। सूर्य की कोमल किरणें पांडाल को प्रकाशमान कर चुकी थी परंतु सुगना अब भी सोई हुई थी। कजरी और पदमा सुगना के खूबसूरत चेहरे को निहार रही थीं। एक बार के लिए पदमा का मन हुआ कि वह सुगना को जगा दे परंतु कजरी ने रोक लिया। उसे पता था जब सुगना नींद पूरी कर उठती थी खिली खिली रहती थी यह समय का ही चक्र था की सुगना को अब कजरी उसकी मां की से ज्यादा समझने लगी थी। पदमा अपनी पुत्री के खूबसूरत चेहरे को निहारते हुए कुछ देर वहीं बैठ गयी।

कजरी ने ही सुगना के मर्म को समझा था तथा न सिर्फ सुगना के गर्भधारण की इच्छा के लिए अपने कुँवर जी को उससे साझा किया था अपितु सुगना की काम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह हर हद तक गई और उसकी इच्छाओं की पूर्ति करते करते स्वयं खुद की और सरयू सिंह की काम इच्छाओं को अतिरेक तक पहुंचा दिया था। इस वासना के अतिरेक का परिणाम ही कि सरयू सिंह सुगना के दूसरे छेद के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे। सुगना अभी मीठे स्वप्न में खोयी हुयी थी।

वह पूरी तरह निर्वस्त्र होकर सरयू सिह की गोद में बैठी हुई कभी उनकी मूछे सवांरती कभी वह उनकी मूछों पर ताव देकर उन्हें ऊंचा करती कभी अपने होठों से उसे गिला कर अलग आकार देती। सरयू सिंह उसके कोमल नितंबों को सहला रहे थे और अपनी मजबूत भुजाओं से खींच कर उसे अपने सीने से सटा ले रहे थे। सुगना सहज ही उनकी गोद में खेल रही थी।

यदि सुगना के स्तन विकसित ना हुए होते और शरीर पर वस्त्रों का आवरण होता तो यह वासना रहित दृश्य बेहद मधुर और पावन होता।

परंतु यह अवस्था वासनाजन्य थी। एक तरुणी एक अधेड़ की उम्र के मर्द की गोद में में नग्न बैठी हुई थी। सरयू सिंह का लण्ड पूरी तरह तन कर खड़ा हो गया था और सुगना के जांघों के बीच अपनी सहभागिनी को उत्तेजित कर रहा था। शरीर सिंह सुगना को सहलाए जा रहे थे और सुगना उन्हें चूमे जा रही थी। सुगना ने अपने दोनों पैर उनकी कमर पर लपेट लिए थे। जैसे ही सरयू सिंह के लण्ड ने सुगना की बुर के मुख को चुमा। सुगना की नींद खुल गई।

"बाबूजी…."

सुगना की आँखें खुल चुकी थीं।

सुगना की मां पद्मा ने अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार उसे उठाया और बोली..

"सुगना बेटा सपनात रहलु हा का?"

सुगना को अपने सुखद स्वप्न से जागने का अफसोस भी था और अपनी मां को करीब देखने का सुख भी। वैसे भी उसका स्वप्न आज हकीकत में बदलने वाला था।

इधर सुगना अपने मीठे सपनों में खोई हुई थी उधर पंडाल के पुरुष वाले भाग में सरयू सिंह तैयार हो चुके थे। उन्होंने होटल वाले से मिलकर कमरा भी बुक कर लिया था जिसमें आज वह सुगना के साथ रंगरलिया मनाने वाले थे। वह पंडाल में चहलकदमी करते हुए सुगना के आने का इंतजार कर रहे थे।

तभी पांडाल के गेट पर एक बार फिर मनोरमा की गाड़ी आकर रुकी। सरयू सिंह तो अपनी कामुक दुनिया में खोए हुए थे। उन्हें मनोरमा की गाड़ी आने का आभास नहीं हुआ। सरयू सिंह को अपनी तरफ आता न देखकर ड्राइवर गाड़ी से निकल कर भागता हुआ उनके पास गया आधी दूर पहुंचकर ही जोर से चिल्लाया

"सरयू जी मैडम गाड़ी में बैठी हैं"

शरीर सिंह की तो सांसें फूल गई वो भागते हुए मनोरमा के सामने पहुंच गए।

अपने दोनों हाथ जोड़े हुए वह कार की पिछली सीट के सामने खड़े थे। मनोरमा ने शीशा नीचे किया और कहा

"आपको सलेमपुर जाना होगा। बिजली गिरने से कई मवेशियों की मौत हो गई है गांव वाले बवाल कर रहे हैं। आप इसी गाड़ी से सलेमपुर चले जाइए और स्थिति के नियंत्रण में आने पर वापस आ जाइएगा। मैं आपकी मदद के लिए पुलिस फोर्स भी भेज रही हूँ"

सरयू सिंह जी को तो जैसे सांप सूंघ गया उनके सारे अरमान एक पल में मिट्टी में मिल गए थे उन्होंने हिम्मत करके एक बार फिर पूछा..

"मैडम दोपहर बाद चला जाऊं क्या?.".

नहीं आपको तुरंत जाना होगा मनोरमा की मीठी आवाज में छुपे आदेश की गंभीरता सरयू सिंह समझ चुके थे। उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी मनोरमा ने फिर कहा

"मैं आपका इंतजार कर रही हूं आप अपना सामान लेकर आ जाइये।"

मनोरमा ने जो काम बताया था वह उनके अलावा कोई और कर भी नहीं कर सकता था। यह तो मनोरमा का बड़प्पन था कि उसने आगे बढ़कर उन्हें अपनी ही गाड़ी ऑफर कर दी थी और उन्हें ससम्मान सलेमपुर भेजने की तैयारी कर दी थी।

परंतु सरयू सिंह ने जिस कृत्य की तैयारी की थी वह उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण था।

सरयू सिंह ने अभी दो दिनों पहले ही पदोन्नति पाई थी और वह मनोरमा के कृपा पात्र बने थे। कृपा पात्र ही क्या वह मनोरमा के गर्भ में पल रहे बच्चे के पिता भी बन चुके थे । वह किसी भी परिस्थिति में उसका कोपभाजन नहीं बनना चाह रहे थे। वह भागते हुए गए और अपना झोला लपेटा। उन्होंने महिला पंडाल की तरफ जाकर कजरी को आवाज लगाई और उसे सारी वस्तुस्थिति बताई। और अनमने मन से गाड़ी के करीब आ गए।

आज मनोरमा काम पिपासु युवती की भांति नहीं एक सजी-धजी और मर्यादित एसडीएम थी। हालांकि सरयू सिंह उसे अपने मजबूत शरीर के नीचे लाकर उसे कसकर चोद चुके थे फिर भी उसके साथ पिछली सीट पर बैठने की न वह हिम्मत जुटा पाए और न हीं मनोरमा ने यह आग्रह किया।

मनोरमा ने ड्राइवर को आदेश दिया मुझे होटल छोड़ दो और साहब के साथ सलेमपुर चले जाओ।

मनोरमा हमेशा सरयू सिंह को उनके नाम से ही पुकारती थी और अधिकतर नाम के आगे जी जोड़कर उनके व्यक्तित्व का सम्मान बनाए रखती थी परंतु आज मनोरमा ने उन्हें पहली बार साहब कहकर आदर दिया था। सरयू सिंह मनोरमा के कायल हुए जा रहे थे।

ड्राइवर के साथ अगली सीट पर बैठे सरयू सिंह बनारस महोत्सव को पीछे छूटते हुए देख रहे थे।

कुछ ही देर में मनोरमा की कार पांच सितारा होटल के गेट से अंदर प्रवेश कर चुकी थी। होटल की भव्यता देखकर सरयू सिंह आश्चर्यचकित रह गए । 6 मंजिला होटल की बिल्डिंग बेहद खूबसूरत और प्रभावशाली थी। गाड़ी जैसे ही पोर्च के अंदर खड़ी हुई अंदर हल्की-हल्की पीली लाइटों से सुसज्जित रिसेप्शन दिखाई पड़ गया। कितना खूबसूरत था वह होटल। वह उस पांच सितारा होटल की तुलना अपने बुक किए गए होटल से करने लगे। मटमैली जमीन और नीले आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। सरयू सिंह उस होटल में अपनी जान सुगना के साथ रंगरेलियां मनाने की सोचने लगे थे।

मन भी चंचल होता वह भौतिक दुनिया की सीमाओं और मजबूरियों को नजरअंदाज कर अपनी कल्पनाओं में वह हर उस सुख और संसाधन को शामिल करता है जिसे उसने देखा और महसूस किया हो चाहे वह उसके लिए संभव हो या ना हो।

अपनी कामुकता को शांत करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें सुगना जैसी सहभागीनी दे दी थी पर जिस ऐश्वर्य और वैभव के साथ उसका भोग करना चाहिए था वह सरयुसिंह की हैसियत के बाहर था।

यदि भगवान की बनाई सुगना की सुडौल और कमनीय काया की तुलना किसी भी राजरानी या तथाकथित परियों से की जाती तो सुगना की चमकती कुंदन काया निश्चित ही सब पर भारी पड़ती।

सरयू सिंह को अब जाकर पद की अहमियत समझ में आ रही थी। उन्हें पता था मनोरमा जी के पति सेक्रेटरी और अब वह सेक्रेटरी पद की आर्थिक और सामाजिक हैसियत जान चुके थे।

सरयू सिंह वैसे तो संतोषी स्वभाव के व्यक्ति थे परंतु जब जब वह वैभव और ऐश्वर्य को देखते उन्हें हमेशा सुगना की याद आती। वह सुगना को दुनिया के सारे ऐसो आराम देना चाहते थे और संसार की सारी खूबसूरत कृतियों से उसे रूबरू कराना चाहते थे। आखिर वह स्वयं इस संसार की एक अनुपम कलाकृति थी उसे इस वैभव को भोगने का पूरा हक था। सरयू सिंह अपनी भावनाओं में खोए हुए थे तभी मनोरमा कार से निकलकर बाहर आई और सरयू सिंह की तरफ देखकर बोली।

"मैं आपको आपके परिवार से अलग कर रही हूं इसका मुझे अफसोस है परंतु यह कार्य बेहद आवश्यक है और आपके बिना शायद ही कोई इसे पूरी दक्षता से पूरा कर पाए।"

सरयू सिंह ने अपने हाथ जोड़ लिए और खुशी-खुशी बोले

"मैं आपको कभी निराश नहीं करूंगा आपने मुझ पर विश्वास जताया है मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा"

ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। मनोरमा अभी भी सरयु सिंह को एकटक देखे जा रही थी। 2 दिन पहले उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए मनोरमा मुस्कुराते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चली।

इधर सुगना जाग चुकी थी। सुगना की मां पद्मा अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख खुश हो गई और उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार से उसे उठाया। सुगना झटपट उठ ग़यी। उसका आज का पूरा कार्यक्रम पहले से तय था।

सर्वप्रथम वह अपने बाबूजी को देखने के लिए पुरुष पंडाल की तरफ गई। सरयू सिंह अपनी कद काठी की वजह से भीड़ में भी पहचाने जा सकते थे परंतु सुगना की आंखों को सरयू सिंह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। सुगना अधीर हो रही थी वह भागती हुई फिर अंदर आई और कजरी को ढूंढने लगी। कजरी स्वयं सुगना को ढूंढ रही थी नजरें मिलते दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ने लगे

" मां बाबूजी कहां बाड़े" सुगना ने अधीर होकर कहा।

सुगना का यह संबोधन उसे और मासूम बना देता था। न तो कजरी उसकी मां थी और नहीं सरयू सिंह उसके बाबूजी पर संबोधनों का यह दौर तब शुरू हुआ था जब सुगना अबोध थी और तब से अब तक काफी समय बीत चुका था।

संबोधनों में अंतर अब भी न था परंतु संबंध बदल चुके थे।

कजरी ने सरयू सिंह के सलेमपुर जाने की बात सुगना को बता दी। सुगना के पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई वह आज के दिन के लिए पूरी तरह आस लगाए हुए थी और मन ही मन अपने गर्भधारण के लिए बेतहाशा चुदने को तैयार थी। बनारस महोत्सव में सूरज की मुक्तिदायिनी का सृजन सुगना के लिए जीवन मरण का प्रश्न था। सुगना का मायूस चेहरा देखकर कजरी परेशान हो गयी।

"ए सुगना काहे परेशान बाड़े?"

सुगना ने कोई उत्तर न दिया उसकी जबान पर विद्यानंद के वचन का ताला लगा हुआ था। वह किस मुंह कजरी को अपनी व्यथा बताती।

सुगना रुवांसी हो गई वह। धीमे धीमे कदमों से आकर पांडाल में बैठ गयी।

मनुष्य की चाल उसके मन में भरे उत्साह या निराशा को स्पष्ट कर देती है।

सुगना जमीन पर बैठ गई उसने अपने दोनों घुटने ऊपर किए और उस पर अपना सर टिका दिया। पदमा और कजरी दोनों सुगना के पास आकर बैठ गयीं और उसकी मनो व्यथा पढ़ने का प्रयास करने लगीं। परंतु जितना ही वह सुगना से उसके व्यथित होने का कारण पूछती सुगना उतना ही दुखी होती।

नियति का यह क्रूर मजाक सुगना को बेहद दुखी कर गया था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान ने उसके व्रत का उसे कोई प्रतिफल नहीं दिया था। पदमा और कजरी दोनों सुगना की उदासी का कारण जानना चाहते थे।

यदि सुगना को विद्यानंद की बातों पर थोड़ा भी अविश्वास होता तो वह निश्चय ही अपने मन की बात अपनी सास और सहेली कजरी से अवश्य साझा करती। इस समय कजरी सुगना के ज्यादा नजदीक थी बनिस्पत उसकी मां के।

पास लेटे हुए सूरज को देख कर सुगना की ममता हिलोरे मारने लगी। जब जब वह सूरज के मुखड़े की तरफ देखती वह और बेचैन हो जाती। कजरी और पदमा को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। सोनी और मोनी भी अब सुगना के पास आ चुकी थीं। सुगना जिस मुसीबत में थी उसका निदान किसी के पास ना था। सुगना को गर्भवती करने वाले सरयू सिंह अचानक ही सलेमपुर चले गए थे। बनारस महोत्सव का उत्तरार्ध शुरु हो चुका था। सुगना के दिमाग में बार-बार एक ही बात घूम रही थी यदि वह गर्भवती ना हुई तो……. यह यक्ष प्रश्न सुगना की बेचैनी को बढ़ा रहा था।

सोनी ने सुगना से कहा….

"चल दीदी हम लोग लाली दीदी के घर से घूम कर आते हैं"

सुगना सचेत हो गई पर कुछ बोली नहीं सोनी ने दुबारा कहा

"दीदी तुझे रास्ता तो मालूम है ना?"

सुगना के जबाब न देने पर सोनी उसे पैरों से पकड़ कर हिलाने लगी और बोली

"दीदी चल ना ऐसे मुह लटकाने से क्या मिलेगा चल हम लोग वहीं नाश्ता करेंगे"

सुगना ने सोनी की बात मान ली। लाली से मिलकर वह अपना दुख तो साझा नहीं कर सकती थी पर लाली के सानिध्य में रहकर थोड़ा हंसी मजाक कर सहज अवश्य हो सकती थी। सुगना धीरे धीरे उठ खड़ी हूं और अपने आशुओं को पोछते हुए तैयार होने चली गई।


उधर लाली के घर में ..

सोनू आज सुबह-सुबह ही लाली के घर आ धमका था। और अभी लाली की रसोई में अपनी दीदी की मदद कर रहा था। ऐसा नहीं था कि सोनू को अब रसोई के कार्यों में आनंद आने लगा था परंतु नाइटी में घूम रही लाली के शरीर के उभारों को देखने के लालच में सोनू लाली के साथ साथ लगा हुआ था।

सोनू लाली के ठीक बगल में खड़े होकर चाकू से प्याज काट रहा था। उसकी उंगलियां बहुत तेजी से चल रही थी। बगल में खड़ी लाली की उभरी हुई चूचियां सोनू का ध्यान खींच रही थी। जैसे ही लाली मुड़ी उसकी चूँची सोनू की मजबूत बांहों से टकरा गई। सोनू का ध्यान भटक गया और चाकू ने प्याज की जगह सोनू की उंगली को चुन लिया।

"आह" उसके मुंह से चीख निकल गई।

"क्या हुआ सोनू बाबू"

जैसे ही लाली की निगाह सोनू की उंगलियों पर पड़ी उसे सारा वाकया समझ में आ गया। इससे पहले कि सोनू कुछ बोलता लाली ने उसकी उंगली को अपने मुंह में भर लिया और उसे चूस कर खून के बहाव को शांत करने लगी।

खून का बहाव रोकने की यह विधि निराली थी जो आजकल के पढ़े लिखे समाज में शायद कम उपयोग में लाई जाती होगी पर उस समय यह बेहद कारगर थी।

सोनू लाली के सुंदर चेहरे को निहार रहा था और उसके गोल हो चुके हुए होंठ बेहद मादक लग रहे थे। एक पल के लिए सोनू पर महसूस हुआ काश लाली के होठों के बीच उसकी उंगलियां ना होकर उसका लण्ड होता। सोनू के इस ख्याल से ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जिसे लाली ने भांप लिया।

उसने उसकी उंगली को मुंह से बाहर निकाला और बड़ी अदा से बोली

" क्या सोच रहा है?" शायद लाली ने उसकी मनोदशा पढ़ ली थी

"कुछ नहीं दीदी"

"सच-सच बता नहीं तो?"

"सच दीदी कोई बात नहीं. देखिए उंगली से खून निकलना भी बंद हो गया"

"तु मुस्कुरा क्यों रहा था? सच बता क्या सोच रहा था? कुछ गंदा संदा सोच रहा था ना?"

लाली सोनू के मुंह में शब्द डालने की कोशिश कर रही थी.

सोनू ने शर्माते हुए कहा

"वह सब गंदी पिक्चरों में होता है ना… मेरे दिमाग में वही बात आ गई."

"क्या होता है साफ-साफ बताना"

"अरे वो विदेशी लड़कियां अपने होठों में लेकर लड़कों का…."

सोनू अपनी बात पूरी नहीं कर सका.

"मैंने तो सुना है कि लड़के भी…. " लाली ने शर्माते हुए कहा परंतु अपनी नजरें सोनू से हटाकर कड़ाही पर केंद्रित कर लीं।

"हां दीदी बहुत मजा आता होगा"। सोनू अब लाली से खुल रहा था।

"छी वह जगह कितनी गंदी होती है लड़के अपना मुंह कैसे लगाते होंगे.."

"दीदी मेरे लिए तो वह जन्नत का द्वार है मुझे तो उसमें कोई गलत बात दिखाई नहीं पड़ती मैं तो उसे चूम सकता हूं और…"

"और क्या.." लाली का चेहरा शर्म से लाल हो चुका था और वह अब सोनू से अपनी नजर नहीं मिला रही थी। कड़ाही मे प्याज भूनते हुए लाली ने सोनू को उकसाया।

"मेरी दीदी की तो मैं चाट भी सकता हूँ"

"अपनी सुगना दीदी की"

"आप कैसी गंदी बात करती हो"

"अरे वाह तूने ही तो कहा"

"अरे मैं अपनी प्यारी दीदी की बात कर रहा था" सोनू ने अपने दोनों हाथ लाली के पेट पर ले जाकर उसे अपनी और खींच लिया। सोनू का तना हुआ लण्ड लाली के नितंबों के बीच आ गया और उसकी गांड में छेद करने को आतुर हो गया।

लाली ने सोनू को फिर छेड़ा..

"अरे वाह सुगना के नाम से तो छोटे नवाब भी तन गए हैं"

सोनू को गुस्सा आ रहा था परंतु लाली की मदमस्त जवानी उसे अपना गुस्सा व्यक्त करने से रोक रही थी परंतु सोनू ने अपने लण्ड का दबाव लाली के नितंबों पर और बढ़ा दिया

"उइ माँ सोनू बाबू तनी धीरे से…."

सोनू ने लाली को छोड़ तो दिया था पर लाली खुद अपने चीखने का अफसोस कर रही थी। सोनू के लण्ड के सु पाडे ने उसकी बुर के होठों को सहला दिया था।

लाली अब आटा गूथ रही थी और सोनू उसे पीछे से अपने आगोश में लिए हुए था। उसकी हथेलियां लाली के कोमल हाथों के ऊपर घूम रही थी जो आटे से सनी हुयी थी। सोनू का पूरा शरीर लाली से सटा हुआ था और लण्ड रह-रहकर उसके नितंबों से छू रहा था सोनू लाली के सानिध्य का आनंद जी भर कर उठा रहा था।

सोनू की हथेलियां धीरे-धीरे लाली की भरी भरी चूची ऊपर आ गई। लाली जैसे-जैसे आटे को गूथ रही थी सोनू उसी लय में उसकी चुचियों को मीस रहा था। जैसे-जैसे लाली की उंगलियां चलती वैसे वैसे सोनू अपनी उंगलियां घुमाता। उधर उसका लण्ड अभी भी लाली के नितंबों में जगह-जगह छेद करने का प्रयास कर रहा था।

सोनू और लाली की मीठी छेड़छाड़ जारी थी। लाली में आह भरी। तवा गर्म हो चुका था…. गैस पर रखा हुआ भी और लाली की जांघों के बीच भी...

इधर सोनू और लाली मिलन की तैयारी में थे उधर सुगना और सोनी बनारस महोत्सव से लाली के घर आने के लिए निकल चुके थे..

कुछ अप्रत्याशित होने वाला था.

शेष अगले भाग में।


कुछ अप्रत्याशित होने वाला था. Ye likh ke aapne aag aur bada di 😅
 
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