आधी रात हो रही है, लेकिन ये शहर... लगता ही नहीं कि ये शहर कभी सोता भी है। और ऊपर से इस होटल की कागज़ जैसी पतली पतली दीवारें! लगता है कि ट्रैफिक का सारा शोर बिना किसी रोक टोक अंदर आ जाता है... पूरे का पूरा।
लेकिन उस शोर में भी, बगल की कोठरी से बच्चे के रोने की दबी घुटी आवाज़ मंगल को साफ़ सुनाई दे रही थी। उधर बच्चा रो रहा था, और इधर मंगल की ममता!
“क्या हो गया रानी... तुम्हारे लिए आये हैं, लेकिन तुम तो... कहीं और ही खोई हुई हो!” अपनी नशे से भारी हुई आवाज़, और चुलबुल पाण्डे वाले फ़िल्मी अंदाज़ में उस विशालकाय आदमी ने मंगल से कहा।
क्या कहती मंगल? वो दो पल चुप रही, और उतने में ही उस आदमी ने मंगल का चेहरा, उसकी ठोढ़ी से पकड़ कर अपनी तरफ़ घुमा कर, उसको अपने और करीब खींच लिया। आदमी की साँसों से उठती सस्ती शराब और सिगरेट की दुर्गन्ध से मंगल का मन खराब हो गया। उसको उबकाई सी आने लगी।
इतनी रात हो जाने के बावज़ूद मंगल को लग रहा था कि जैसे आज की रात बीत ही नहीं रही है! उसने आदमी की घड़ी पर नज़र डाली तो देखा कि रात का एक बजा है!
‘इन आदमियों को नींद नहीं आती?’
फिर उसको स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया, ‘क्यों आएगी नींद? पैसा दिया है... वो भी चलते रेट से अधिक! अपने पैसे का मोल तो वसूलेगा ही न!’
बात उचित थी, लेकिन ये ‘पैसा वसूलवाना’ मंगल को भारी पड़ रहा था।
उस आदमी से कुछ पलों के लिए ही सही, लेकिन पीछा छुड़ाने की गरज़ से मंगल ने पूछा, “पानी लाऊँ साहब?”
“पानी?” आदमी ने यह शब्द बड़ी हिकारत से बोला... जैसे कैसी निम्न, निकृष्ट वस्तु के बारे में पूछ लिया गया हो उससे!
उसकी आँखें नशे, नींद, और घुटी हुई हँसी के कारण बमुश्किल ही खुल पा रही थीं। तरंग में था वो पूरी तरह!
बहकती, भारी आवाज़ में वो बोला, “पानी नहीं रानी... अपनी प्यास बुझती है या तो शराब से,” उसने अपनी आँखों के भौंह को उचका कर बोतल की तरफ़ इशारा किया, “...या फिर तुम्हारे शबाब से...”
और यह बोल कर वो ऐसे मुस्कुराया कि जैसे उसने कोई सुपर-हिट डायलॉग बोल दिया हो।
मंगल का मन पहले ही घिनाया हुआ था, और इस बात से उसको और भी घिन आ गई। वो चुप ही रही।
“क्या रानी! तुम तो हर बात पर चुप हो जाती हो!” आदमी ने उसको छेड़ते हुए शिकायत करी, “अच्छा... चलो... ज़रा एक पेग और बनाना तो!”
मंगल जैसे तैसे उठी; तीन बार उस आदमी के भारी भरकम शरीर के तले कुचल कर मंगल का शरीर थकावट से चूर हो गया था, और उसका अंग अंग दुःख रहा था! जब वो उठ रही थी, तब उसके कपड़े उसके शरीर से सरक कर ऐसे गिरने लगे कि जैसे पानी बह रहा हो। वो हाथों से ही अपने शरीर पर पड़े इक्का दुक्का कपड़ों को सम्हाल कर अपनी नग्नता छुपाने लगी।
आदमी को मंगल की हालत देख कर जैसे अपार आनंद आ गया हो। वो ‘हूँ हूँ’ की घुटी हुई आवाज़ में हँसने लगा।
मंगल का मन जुगुप्सा से भर गया, ‘और शराब... और जानवरपन! वैसे भी इनकी हवस में कौन सी कसर बाकी रह जाती है कि शराब की ज़रुरत पड़ती हैं इन जानवरों को!’
आदमी को शराब का गिलास पकड़ाते हुए उसको बच्चे के रोने की आवाज़ धीमी पड़ती हुई लगी।
‘कब तक रोवेगा? नन्ही सी जान है! थक न जाएगा? कब से तो हलकान हुआ जाता है मेरा लाल! छः महीने का कमज़ोर बालक! ऊपर से बीमार... पिछले चार घण्टे से अकेला है।’ मंगल का मन रोने लगा।
उसके दिल में आया कि एक बार इस आदमी से विनती कर ले; आधा घण्टा अपने बच्चे के लिए छुट्टी पा ले।
‘इस गैण्डे को नहीं आती बच्चे के रोने की आवाज़?’
लेकिन क्यों ही आएगी? उसका बच्चा थोड़े ही न है! रोता भी तो वो रुक रुक कर है! कभी रोता है, तो कभी नहीं! ऊपर से वो इस कमरे से अलग, एक दूसरी कोठरी में लेटा हुआ है, जिसका दरवाज़ा बंद है। कमज़ोर सा बच्चा, जिसके रोने की आवाज़ भी इतनी धीमी है कि बगल में रोवे, तो ठीक से न सुनाई दे! गर्भावस्था की पूर्ण अवधि से पूर्व हुआ बच्चा कमज़ोर नहीं होगा तो क्या बुक्का फाड़ के रोवेगा?
‘इस आदमी के भी तो बच्चे होंगे! वो भी रोते होंगे! उनके रोने की आवाज़ सुन कर ऐसे ही पड़ा रहता होगा क्या ये? कोई दया बची हुई है, या सब ख़तम ही हो गई है!’
फिर से बच्चे के रोने की आवाज़ आई। धीमी आवाज़... लेकिन कुछ था उस आवाज़ में जो मंगल के दिल में शूल के समान धंस गया। माँ है वो... बच्चे के रोने से उसकी ममता का हनन तो होना ही है!
मंगल ने सुनने की कोशिश करी, लेकिन पुनः आवाज़ नहीं आई।
‘शायद थक कर सो गया... लेकिन बिना दूध पिए कैसे सो जाएगा? कब तो पिलाया था उसको दूध... कमज़ोर, बीमार बच्चा... ठीक से पीता भी तो नहीं जब से बीमार हुआ है! छातियाँ दूध से भरी हुई हैं... लेकिन वो तो बस कुछ बूँदें ही पी कर सो गया! ...भूखा भी होगा, और गन्दा भी! ...टट्टी पेशाब में पड़े पड़े अपनी माँ की राह देख रहा होगा।’
अपने बच्चे की हालत का अनुमान लगा कर मंगल की आँखें डबडबा आईं।
‘ऐसे ही क्या कम रोया है? कब तक रोवेगा?’
उसकी आँखों में बनने वाले आँसू, बस ढलकने को हो आए।
“अरे रानी,” आदमी को इतने नशे में भी मंगल के चेहरे पर उठने वाली भंगिमा की समझ थी, “इतनी खूबसूरत आँखों में आँसू? ...इनको सम्हाले रखना! देखो... कहीं ढलकने न लगें!”
आदमी की बेहूदा बातें सुन कर मंगल का दिल हो आया कि थूक से उसके पैसों पर! लेकिन ऐसे कैसे होता है? उसने अपना हृदय दृढ़ कर के जैसे तैसे अपने आँसुओं को सम्हाला। मंगल की यह चेष्टा आदमी को बड़ी भली लगी।
“हाय रानी! क्या अदा है तुम्हारी! कोई कैसे न मर जाए इस पर?”
कह कर वो किसी हिंसक पशु के समान मंगल पर झपटा, और एक ही गति में उसको अपनी ओर खींच लिया। लज्जा छुपाने को कुछ शेष न बचा था, तो मंगल ने अपनी बाँह से अपने आँसू छुपा लिए। कम से कम ममता के करुण क्रंदन पर तो उसका ही अधिकार है! उसको तो नहीं बेच दिया उसने इस हवसी के हाथ!
“अरे अरे मेरी रानी! रोवो मत... आई हेट टीयर्स पुष्पा!” कहते हुए उस आदमी के होंठों पर एक विजयी मुस्कान थी।
मंगल ने आँसू पोंछने की कोशिश करी, लेकिन वो रुकने के बजाए और भी बहने लगे।
“देख... तेरे इस अनोखे हुस्न के लिए ही तो इतने रुपये दिये हैं मैंने!” उसने मंगल को समझाया, “कोरी लौंडिया को ढाई सौ देता हूँ! लेकिन तुम...” उसने प्रशंसा में कहा, “तुम तो दुधारू गाय हो रानी... पैसे वसूलना होता, तो दोनों थन पीता रात भर! फिर भी मैंने एक थन छोड़ दिया तेरे बच्चे के लिए!” उसने एहसान जताते हुए कहा, “कोई और सेठ होता तो तुमको रौंद डालता... तो मेरी जान... मौज करो! क्या रोना धोना लगा रखा है?”
मंगल को आदमी की बातें सही लगीं। ठीक ही तो कह रहा है! यह विचार आते ही मंगल को लगा कि आदमी कहीं उससे नाराज़ न हो जाए। घोर आर्थिक विपत्ति में गिन चुन कर यही तो एक सहारा बचा है उसके पास!
मंगल ने बातें बनाने की फ़िल्मी कोशिश करी, “साहब... आपका प्यार पा कर अपने घरवालों की नाइन्साफ़ी याद हो आई!”
बात बनावटी थी, लेकिन वो सुन कर आदमी खुश हो गया।
उत्तेजना के मारे उसके मंगल का एक स्तन दबोच लिया। कोमल से अंग पर उसकी सख़्त और खुरदुरी उँगलियों का दबाव मंगल के लिए असहनीय हो गया। लगा कि अब उनमें से दूध नहीं, खून ही निकलने लगेगा! मंगल का मन हुआ कि उसका हाथ परे झटक दे... लेकिन साढ़े तीन सौ रुपये बहुत होते हैं!
साढ़े तीन सौ रुपए! समझो आज लाटरी लग गई थी उसकी! आज से पहले केवल तीन रोज़ ही तो सोई है वो गैर-आदमियों के नीचे! और हर बार बमुश्किल दो सौ ही मिल पाए थे उसको! कोरी कंवारी लड़कियों को ढाई से तीन सौ मिलते हैं - और वो तो एक बच्चे की माँ है! ऐसा होटल वाले ने उसको समझाया था।
लेकिन आज...!
अब इसमें से पचास तो ये होटल वाला ही रख लेगा। झोपड़ी का दो महीने का किराया बकाया ही है। घर-मालिक से मिन्नतें कर कर के वो जैसे तैसे अपने सर पर छत रखे हुए है! वो उदार हृदय आदमी है! लेकिन वो भी कब तक बर्दाश्त करेगा? निकाल देगा घर से, तो वो कहाँ कहाँ भटकेगी? ऊपर से बच्चे की दवा पर रुपया पानी की तरह बह रहा है! तिस पर अपना पेट भरना, नहीं तो बच्चे का पेट कैसे भरेगा? और अगर वो खुद सूखी, निर्जीव सी दिखाई देगी, तो ये डेढ़ - दो सौ जो इस ‘काम’ के मिल रहे हैं, वो भी मयस्सर नहीं होने वाले!
लिखा था मंगल ने अपने भाई को - लिखा क्या, समझिए मिन्नतें मांगी थीं - कि अपनी बहन की लाज रख लो और ले जाओ यहाँ से! उस चिट्ठी को लिखे तीन महीने हो गए! न तो भाई आया, और न ही उसकी तरफ से एक शब्द! क्या पता, वो उस पते पर हो ही न? या फिर सोच रहा हो कि एक नई बला अपने सर क्यों ले? उसका अपना परिवार है। यह नई मुसीबत क्यों सम्हालेगा वो? अपने ससुराल से दुत्कार ही दी गई है, तो वहाँ से कोई मतलब ही नहीं। कुल जमा यहीं रहना है मंगल और उसके बच्चे को!
भीषण विपत्ति थी, लेकिन मंगल के दिल में हिम्मत थी। सोची थी कि कोई काम ढूँढ लेगी। बच्चा आने से पहले भी तो करती ही थी काम। उसकी झोपड़ी के पास ही ऊँची ऊँची अट्टालिकाएँ थीं। संपन्न घर... और कितने सारे घर! कहीं तो काम मिलेगा ही न? लेकिन उन अट्टालिकाओं के दरबान! उफ़्फ़! वो इस पशु से भी अधिक हिंसक थे! इसने तो फिर भी उसके शरीर का मूल्य दिया है! वो तो नज़रों से ही...
शुरू-शुरू में कुछ दिन पड़ोसियों से सहारा मिला, लेकिन वो भी कितना करते? और क्यों करते? मजबूर अकेली औरत... पिछले कुछ हफ़्तों से उसको अपनी झोपड़ी के बाहर रोज़ नए नए चेहरे दिखाई देने लगे। वो उनकी नज़रें समझती थी... तिस पर ये छोटा सा बच्चा... और उसकी अपनी ज़रूरतें! कब तक सहती? कब तक संघर्ष करती वो?
आदमी खुश तो हो गया था, लेकिन उसको मंगल की रोनी सूरत देख कर ऊब होने लग गई थी।
“ए रानी! हमको खुश करो! ये रोना वोना मत करो! रोने और पकाने के लिए बीवी है घर में...” आदमी लड़खड़ाती ज़बान में, शिकायती लहज़े में बोला, “इधर भी वही रोना राग नहीं सुनना हमको!”
बात सही थी। आदमी उसके पास मनोरंजन के लिए आया था।
‘मालिक का मन तो रखना ही पड़ेगा न!’
मंगल मुस्करा दी। जबरदस्ती ही सही! लेकिन आदमी के मुँह से आती भीषण दुर्गन्ध असहनीय थी! वो जब जब भी खुद को बचाने के लिए अपना चेहरा घुमाती, तब तब आदमी का खुरदुरा हाथ उसका चेहरा अपनी ओर घुमा लेता! मंगल का साँस लेना दूभर हो रहा था! दम घुटा जा रहा था! ऐसे में वो उसको खुश कैसे रखती?
“ऐसे दूर दूर क्यों भाग रही हो रानी? कौन से काँटें लगे हुए हैं हममें?”
हार कर मंगल उसके सामने बिछ गई।
“हाँ... बढ़िया! ऐसे ही लेटी रहो।”
और अधिक जुगुप्सा!
मंगल को अपने शरीर पर उस आदमी का बदबूदार थूक लगता महसूस होने लगा। उसको खुद ही से घिन आने लगी... जैसे उस आदमी ने उसको जहाँ जहाँ छुवा हो, वहाँ वहाँ उसको कोढ़ हो गया हो। उसको लग रहा था कि जैसे उसके शरीर के हर अंग से मवाद सा रिस रहा हो! आदमी फिर से उसके ऊपर चढ़ गया। पहले से ही उसका हर अंग पीड़ित था, लेकिन इस बार सब असहनीय हो गया था। अगले दस मिनट तक वो उस असहनीय मंथन को झेलती रहती है! इस क्रिया में आनंद आता है... अपने मरद के साथ तो उसको कितना आनंद आता था। तो इस आदमी के साथ उसको आनंद क्यों नहीं आ रहा था? इस आदमी क्या, किसी भी अन्य आदमी के साथ उसको एक बार भी आनंद नहीं आया। क्या रहस्य था, मंगल समझ ही नहीं पा रही थी!
अंततः, आदमी निवृत्त हो कर मंगल को अपनी बाँह में लिए हुए, उसके बगल ही ढेर हो गया। मंगल को ऐसी राहत मिलती है कि जैसे उसको शूल-शैय्या पर से उठा लिया गया हो। अपनी बाँह से जहाँ भी संभव हो पाता है, वो अपने शरीर से बलात्कार के चिन्ह पोंछने लगती है। कोशिश कर के वो एक गहरी साँस लेती है, और फिर आदमी की तरफ़ देखती है।
आदमी की आँखें बंद थीं, और साँसे गहरी।
‘लगता है सो गया!’ सोच कर वो उठने को होती है तो आदमी की पकड़ उस पर और कस जाती है।
उसी समय मंगल को लगता है कि कोठरी से फिर से रोने की आवाज़ आई।
“क्या बात है रानी?” मंगल के शरीर की हलचल महसूस कर के आदमी बोला।
“कुछ नहीं साहब!”
“अरे! कुछ नहीं साहब!” आदमी ने मंगल की बात की नक़ल करी, “रूप में इतना नमक है लेकिन फिर भी इतनी ठंडी हो! अच्छा... एक काम कर... तुम भी मेरे साथ एक पेग लगा लो! देखना कैसी गनगनाती गरमी चढ़ जाएगी यूँ ही चुटकियों में!”
कह कर आदमी उसके मुँह से अपना मुँह लगाने की चेष्टा करने लगता है। शारीरिक बल में मंगल का उससे कोई आमना सामना नहीं था। लेकिन फिर भी उसने मुँह फेर लिया,
“नहीं साहब! हम पी नहीं सकेंगे! ...कभी नहीं पी!”
मंगल का मन खट्टा हो गया था। शरीर वैसे ही थक कर चूर था, उस पर बच्चे का रोना मचलना! वो खुद भी भूखी थी। खाना पका कर रखा ही था कि होटल वाले का संदेशा मिला कि नया ग्राहक मिला है - जिसको मंगल जैसी की ही तलाश है! बढ़िया पैसे देगा। ऐसे अचानक बुलावा आने के कारण, न वो खुद ही खा पाई, और न ही अपने बच्चे को ठीक से दूध पिला पाई। तब से अब तक साढ़े चार घण्टे से वो लगातार पिस रही थी। अब तो मंगल का भी पेट भूख से पीड़ा देने लगा।
“अरे! ऐसे कैसे? तुम्हारा आदमी नहीं पीता?”
‘उसका आदमी!’ सोच कर मंगल का दिल कचोट गया।
“उसकी बात न कीजिए साहब!” मंगल ने मनुहार करी।
होटल वाले ने मंगल को समझाया था कि कोई उसके मरद के बारे में पूछे, तो अपना रोना न रोने लगे। ग्राहकों को यह सब पसंद नहीं आता सुनने में!
उसका मरद होता, तो यह सब नौबत आती ही क्यों?
कोई डेढ़ साल पहले जब वो मंगल को ब्याह कर, इस शहर लाया था, तब उसने अपने सबसे बुरे दुःस्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कुछ ही दिनों में वो विधवा बन जायेगी! वो फेरी लगता था फलों की! हाथ-ठेला ले कर सवेरे निकलता, तो देर शाम को ही घर आता। फिर भी मंगल खुश थी। उसका मरद स्नेही था, मेहनती था। लेकिन हाय री फूटी किस्मत! एक दिन, दो हवलदारों ने ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ के चलते उसका हाथ-ठेला उलट दिया। अभी अभी ताज़ा फलों को बड़ी मेहनत से सजाया था उसने। सब से सब सड़क पर बिखर गए पल भर में! वहाँ तक भी ठीक था, लेकिन वाहनों के आवागमन से ताज़े फल कुचल कर बर्बाद होने लगे। उसको बचने, समेटने के चक्कर में वो भी एक भारी वाहन के नीचे आ गया। उस दिन तो मंगल को अपने जीवन में हो चुके अमंगल का पता भी नहीं चला! अगले दिन किसी से खबर मिली, तो उसके हाथ लगी अपने पति की दबी कुचली लाश, जो ठीक से पहचान में भी नहीं आ रही थी।
जब पुरुष का साथ रहता है, तो समाज स्त्री की इज़्ज़त पर बुरी नज़र नहीं डाल पाता। वो सुरक्षित रहती है... उसके सम्मान पर किसी ऐरे गैर की दृष्टि नहीं पड़ पाती! उसका आदमी जीवित होता, तो यह सब नौबत आती ही क्यों? गरीब अवश्य था, लेकिन वो मंगल को रानी की तरह ही रखता था। सब बातें सोच कर उसके दिल में टीस उठने लगी। लेकिन ग्राहकों को यह सब बातें पसंद नहीं आतीं।
उसने बात पलट दी, “साहब, यूँ खाली पेट कब तक पिएँगे आप? ...कुछ खा लेंगे?” मंगल ने बड़ी उम्मीद से पूछा, “कुछ मँगायें?”
“तुम भी खाओगी?” आदमी ने खुश हो कर कहा।
यह सुनते ही मंगल को अपार राहत मिली!
‘क्यों नहीं? अपना और बच्चे का पेट कैसे भरेगा नहीं तो?’
“हाँ हाँ... मैं नहीं तो फिर आपका साथ कौन देगा?” उसने उत्साह से कहा।
“सही है फिर तो... अभी मँगाता हूँ! ...क्या खाओगी?”
कह कर वो आदमी फ़ोन पर खाने का आर्डर देने लगा। नीचे खाना देने वालों को भी जैसे मालूम हो कि कभी न कभी तो हर कमरे से आर्डर आएगा ही! कोई दस मिनट में ही, थोड़ा ठंडा ही सही, लेकिन खाना आ जाता है।
भूख से परेशान मंगल खुद भी खाती है, और उस आदमी को भी खिलाती है। चार बार सम्भोग से आदमी को शायद उतना आनंद नहीं मिलता, जितना मंगल द्वारा खाना खिलाने से मिलता है। वो आनंदित हो कर खाने लगता है।
मंगल को महसूस होता है कि वो आदमी बुरा नहीं था! सम्भोग के पलों को छोड़ दें, तो वो उससे नरमी से ही पेश आ रहा था। लेकिन फिर भी, न जाने क्यों वो मंगल को मदमत्त भैंसे जैसा लग रहा था। शराब के मद में चूर, लाल लाल आँखें! भारी, विशालकाय शरीर! शोर मचाती हुई साँसें! और सबसे घिनौनी बात - उसकी साँसों और उसके शरीर से सिगरेट की दुर्गन्ध! कुल मिला कर वो बम्बईया फिल्मों का विलेन जैसा लग रहा था मंगल को!
यह सब सोच कर मंगल का मन फिर से खराब होने लगा। वैसे भी उस रात फिर से उस आदमी के नीचे पिसने की हालत में नहीं थी मंगल!
‘अब पेट भर गया है, तो शायद सो भी जाए,’ उसने उम्मीद से सोचा।
थोड़ी देर की भी मोहलत बहुत है! वो बच्चे को सम्हाल लेगी... उसको दूध पिला देगी। उसको साफ़ कर के सूखी जगह पर सुला देगी। बस, जैसे तैसे आज रात की बला टल जाए! कल वो फिर से काम ढूंढने की कोशिश करेगी! साफ़ सफाई, झाड़ू बर्तन - वो सब कर लेगी, लेकिन इस तरह का पाशविक अपमान अब वो नहीं सहेगी! जीवन के कमज़ोर क्षणों में उसने अपने शरीर का सौदा कर लिया था, लेकिन अब और नहीं! इस होटल में फिर से नहीं आएगी - मंगल ने अपने मन में यह विचार दृढ़ कर लिया।
जिन जिन लोगों की दृष्टि उसके ऊपर थी, उनमें से सबसे शरीफ़ और सबसे ज़हीन वो होटल वाला ही था। विशुद्ध व्यापारी था वो! मंगल की आपदा में उसको अवसर लगभग तुरंत ही दिखाई दे गया था। लेकिन फिर भी औरों के जैसे वो उसका फ़ायदा नहीं उठाना चाहता था... वो तो मंगल को उसकी समस्या का समाधान दे रहा था... कब से तो वो मंगल को समझा रहा था!
‘अच्छे पैसे मिलेंगे!’
‘बस कुछ घण्टों की ही तो बात है!’
‘पूरा दिन अपने बच्चे की देखभाल कर सकती है वो!’
‘बस रात ही में...’
मंगल की अपनी समस्या का समाधान होता दिख रहा था, लेकिन वो ही थी जो सुन नहीं रही थी। कैसे मान ले वो उसकी बात? समाज का देखना पड़ता है! लेकिन जब वही समाज उसकी और उसके बच्चे की भूख और बीमारी का समाधान न कर पाए, तो वो भी क्या करती? उसके बच्चे का जीवन, उसके खुद के जीवन से मूल्यवान था! काम और आमदनी के अभाव में शीघ्र ही उसके घर में जो भी बचा खुचा था, वो सब समाप्त हो गया; एक दो छोटे मोटे ज़ेवर थे, वो भी बिक गए। बच्चे की दवाई में जो कुछ धन था, वो भी जाता रहा! ऐसे में क्या करती वो? क्या उपाय बाकी बचा था उसके पास? यह बच्चा ही तो एकलौती निचानी बची थी उसके जीवन के सबसे सुन्दर समय की!
होटल वाला वाक़ई उसका शुभचिंतक था। होटल वाले ने दया कर के उसके बच्चे के सोने की व्यवस्था बगल की कोठरी में कर दी थी, जिससे ‘काम’ में सुविधा रहे। कौन करता है यह सब? उसके बदले में वो क्या लेता है? बस, पचास रुपए! बाकी सब तो मंगल के पास ही रहता है। कम से कम वो बच्चे के इलाज का बंदोबस्त तो कर सकती है अब!
‘बच्चा!’
आवाज़ नहीं आ रही थी अब उसके रोने की।
‘सो गया होगा बेचारा।’
मंगल पूरे ध्यान को एकाग्र कर के सुनने की कोशिश करती है। न - कोई आवाज़ नहीं!
पेट भर जाने के बाद आदमी नींद से झूमने लग रहा था। मंगल दबे पाँव, बिना कोई आवाज़ किए वो उठने की कोशिश करने लगती है, कि कहीं वो जाग न जाए! जाग गया तो क्या पता, कहीं फिर से उसको नोचने न लगे!
उसके उठने की आहट पा कर आदमी उसकी तरफ़ करवट बदलता है। आदमी के बदबूदार मुँह से लार निकलने लगती है। वो दृश्य देख कर घिना गई मंगल! वितृष्णा से उसका मन भर गया।
‘कैसा जीवन है ये! न बाबा... चौका बर्तन, साफ़ सफाई वाला काम ही ठीक है। कुछ तो इज्जत मिलती है!’
जैसे किसी भैंसे ने डकारा हो, “कहाँ चल दी, रानी?”
अबकी रहा न गया मंगल से, “साहब, आपने तो सितम कर डाला आज...” उसने उस आदमी की प्रशंसा में फ़िल्मी डायलॉग बोल दिए, “मेरा अंग अंग तोड़ दिया आपने! न जाने कैसे कर लेते हैं आप... न... अब और कुछ न कह पाउँगी! बड़ी शरम आवे है...”
“हूँ...” आदमी सब सुन कर संतुष्ट हुआ; नींद की चादर उस पर पसरती जा रही थी, “तुम अच्छी हो रानी! मज़ा आया बहुत! ...चलो तुम भी आराम कर लो!” उसने पूरी दरियादिली से कहा, “लेकिन... फिर... कब?”
सुनते ही मंगल के जीवन में राहत आ गई, “जब आप बुलावेंगे, मैं तो भागी चली आऊँगी!”
आदमी कुछ बोला नहीं।
‘कहीं ज़्यादा तो नहीं बोल दिया?’
‘कहीं ये अपना मन न बदल दे!’
मंगल के मन में खटका हुआ, लेकिन बची खुची हिम्मत जुटा कर वो बोली, “अब आराम कर लीजिए साहब?”
“हूँ...”
जैसे स्कूल की आखिरी घण्टी बजी हो! बिना कोई समय व्यर्थ किए मंगल ने एक हाथ से रुपए उठाए, और दूसरे में अपने कपड़े, और कमरे से निकल भागी। न तो अपनी नग्नता का होश, और न ही उसकी कोई परवाह! बस मन में एक ही विचार - ‘मेरा बच्चा’!
द्रुत गति से कोठरी का पल्ला खोल कर वो भीतर घुसी। कोठरी में जीरो वाट का बल्ब जल रहा था, लेकिन निपट नीरवता छाई हुई थी। एक गहरा निःश्वास भर के मंगल ने बच्चे की बिछावन टटोली... पूरा बिस्तर गीला हो गया था... ठंडा भी। कहीं बच्चे को ठंडक न लग जाए, सोच कर उसने बच्चे को उठा कर अपने सीने से लगा लिया। कोई हरकत नहीं!
‘क्या हो गया?’
मंगल का दिल सहम गया! किसी अनिष्ट की आशंका से उसने बच्चे को को हिलाया, थपथपाया! लेकिन कोई अंतर नहीं! घबराते हुए उसने बच्चे को अपनी गोद में लिटाया। शायद अपनी माँ को पहचान कर बच्चा नींद से जाग जाए। लेकिन बच्चे का सर एक ओर लुढ़क गया! उसके हाथ-पाँव निर्जीव हो कर उसकी गोद से बाहर ढलक गए! उसमें अब जीवन शेष नहीं रह गया था।
जीवन तो अब मंगल के शरीर में भी शेष नहीं रह गया था!
जैसी विच्छिन्न सी दशा बच्चे की थी, वैसी ही दशा मंगल की भी थी! उसके हाथ से रुपये गिर कर कोठरी की फर्श पर बिखर गए, और वो निःशब्द, आँखें फाड़े, अपने बच्चे के निर्जीव शरीर को देखती रही!
समाप्त।