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Trinity

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KEKIUS MAXIMUS

Supreme
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AnandBhavan - Ek Erotic-Horror Kahani

मैं अनामिका हूं। मैं टूटे-फूटे पुराने घरों को ऐसे घरों में बदलने के कारोबार में हूं जहां परिवार रह सकें। संक्षेप में , मैं घरों को सुंदर बनाने में मदद करती हूं ताकि वे रियल-इस्टेट एजेंट द्वारा संभावित खरीदारों को बेचें जा सके। में एक पुराने घर के प्रोजेक्ट पर काम करने वाली थी। घर का ऐड्रेस था – २१४, आनंद-भवन, मेन रोड करवे मार्ग , पिनकोड- १११००५.





यह पुराना घर - उस पर एक प्रेतवाधित (haunted) घर होने की अफवाह थी, लेकिन मैं सोची कि यह सिर्फ अफवाहें होंगी। मैं भूतों या ऐसी किसी भी चीज में विश्वास नहीं रखती थी। इसलिए आखिरकार मैंने इस पुराने घर को सुंदर बनाने का प्रोजेक्ट लेने का फैसला करी



पूरी गर्मी के महीनों में मैंने इस पुराने घर पर काम करने लगी। । पेंटिंग, पुराने वॉलपेपर को हटाना, नए प्लंबिंग और उपकरण लगाना सब कुछ। थोड़ा-थोड़ा करके, अपनी मेहनत से, मैं घर को फिर से नया बनायी थी। हर कमरे पर काम कर में उस जगह पर इतनी अच्छी तरह से काम करी थी की वहाँ एक परिवार रह सकेगा। वहाँ पर काम करते वक्त मुझे उस घर में कुछ भी प्रेतवाधित (haunted) बात नहीं लग रही थी।



वह एक छोटा सा घर था जिसमें सिर्फ दो बेडरूम थे। मैं डोनो बेडरूम का काम आख़िर में करने लगी थी।

में जब पहली बार उस घर के प्रेतवाधित बेडरूम में प्रवेश करी तो मुझे उम्मीद थी कि कमरा कुछ डरावना सा होगा, जैसे किसी डरावनी फिल्म में होते हैं कमरे वैसे । लेकिन, में पायी की वह सिर्फ एक नोर्मल बेडरूम ही था, गंदा और धूल भरा, कबाड़ के बक्सों से भरा हुआ। में बेडरूम में एक दरवाजा देखी। मैं उसे खोली तो पायी कि उस कमरे का अपना ही एक बाथरूम था, जिसमें एक विशाल टब था। अब तक तो बेडरूम काफ़ी नोर्मल लग रहा था।



मैंने फिर वहाँ के आसपास के कुछ स्थानीय लोगों से घर के बारे में पूछने लगी। उन्होंने मुझे कहा कि उस बेडरूम में एक पति-पत्नी रहते थे।

वहाँ उस घर में कुछ ऐसा हुआ था जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं था और उस औरत के पति गुजर गए थे। उस घटना के बारे में उस आदमी की विधवा ने भी कभी कुछ कहा नहीं और उसने वह कमरे को हमेशा के लिए बंद कर दिया था। उसके बाद वह बेडरूम कभी नहीं खोला गया था और कुछ सालों बाद वह विदवा भी बीमारी की वजह से मर चुकी थी।

एक बात थी की उस आदमी की मौत एक हल्लोवीन (halloween) की रात हुई थी।



मैं फिर अगले 2 महीने उन बेडरूम को ठीक करने में बिताए, दोनों कमरों को खाली कर, उन्हें रंग देकर, औ फर्श की टाइलिंग कर की । एक बात थी की मैं शाम 6 बजे के बाद उस प्रेतवाधित कमरे या घर में कभी नहीं रही थी ।



अब जैसे ही सितंबर आया, मैं उत्साह के साथ देखी कि आखिरकार, मेरी कड़ी मेहनत के बाद, वह पुराना घर अब नए जैसे लगने लगा था।



आज का दिन था हल्लोवीन का दिन।

अब एजेंट को देने से पहले मुझे घर में एक दिन बिताना होता ही हैं। एक तो वह haunted हाउस के नाम से जाना जाता था । इसीलिए मुझे एजेंट को प्रूव करना था की यह घर haunted नहीं हैं।



इसीलिए मुझे उस प्रेतवाधित बेडरूम में एक रात रहना पड़ा। जो भी प्रेत-आत्मा प्रेत होंगे वह उन नए दीवारों में दबे होंगे, जिस पर मेंने हल्के भूरे रंग का लेटेक्स पेंट लगायी थी । वैसे भी में भूत प्रेत में विश्वास नहीं रखती थी।



मैं फैसला करी कि में गर्म पानी से नाहाने जाऊँगी। मैं बाथटब के नलों को शुरू करी और बाथरूम में टब अब गरम पानी से भरने लगा। जैसे ही टब गरम पानी से भर गया, मैं अपने कपड़े उतार कर नंगी हो गयी।

में एक खूबसूरत लड़की हूँ । ५ft ६ in क़द, बदन ना बहुत मोटा या पतला। मेरे 34 ड-कप स्तन है और उनपर नुकीले गुलाबी निप्पलस और छोटे एरोले भी हैं । मेरी नभी का आकार काफ़ी गोल हैं और मेरी नभी एक बेली-रिंग (belly-ring) से सजी हुयी हैं।



में अपने आप को बहुत फ़िट रखती थी। मेरी चूत पर बाल नहीं थे और वहाँ भूरे रंग के मेरे चूत के लिप्स थे।

में टब के गर्म पानी में लेट गयी। मैं मन ही मन मुस्कुरायी। मैं अपने पैरों को टब के पानी से ऊपर उठा लिया और उन्हें टब के किनारों पर रखली। जैसे ही पानी मेरी संवेदनशील त्वचा पर नाचने लगी मैं अपनी आँखें बंद कर लीं और अपनी चूत की लेबिया को फैला दी, ताकि टब का गरम पानी मेरी अब सूजी हुई योनि तक पहुँच सके। में अपनी चूत से खेलने लगी और अचानक, मेरे ऊपर एक बेचैनी छा गई, जैसे कि मुझे देखा जा रहा हो। मैं आँखें खोली और टब में उठकर बैठ गयी और इधर-उधर देखने लगी। लेकिन मुझे कोई ना दिखा।



बहुत सी डरावनी फिल्मों को देखने का यही नतीजा होता हैं में सोची , और खुद पर हँसकर वापस टब के गरम पानी में चली गयी।



मैं अपनी आँखें फिर से बंद कर लीं और टब के पानी में अपनी चूत से खेलना जारी रखी। मैं धीरे-धीरे विलाप करने लगी। मैं चूत से खेलती रही और जल्द ही मेरी चूत से ढेर सारा पानी बहने लगा।

में टब के गर्म पानी में डूब गयी। मैं मन ही मन मुस्कुरायी। मैंने अपने पैरों को पानी से उठा लिया और उन्हें टब के किनारों पर लपेट ली। जैसे ही पानी मेरी संवेदनशील त्वचा पर नाचने लगी मैं अपनी आँखें बंद कर लीं और अपने चूर के लेबिया को फैला दी, जिससे टब का गरम पानी मेरी अब सूजी हुई योनि तक पहुँच सके। में अपनी चूत से खेलने लगी और अचानक, मेरे ऊपर एक बेचैनी छा गई, जैसे कि मुझे देखा जा रहा हो। मैं आँखें खोली और टब में उठकर बैठ गयी और इधर-उधर देखने लगी। लेकिन मुझे कोई ना दिखा।



बहुत सी डरावनी फिल्मों को देखने का यही नतीजा होता हैं में सोची , और खुद पर हँस वापस टब के साबुन के पानी में चली गयी।



मैंने अपनी आँखें फिर से बंद कर लीं और टब के पानी में अपनी चूत से खेलना जारी रखी। मैं धीरे-धीरे विलाप करने लगी। मैं चूत से खेलती रही जब तक कि में कामोन्माद की रिहाई के साथ मेरी चूत से पानी ना बहने लगी।





मैं टब से बाहर निकली और तौलिये से बदन सुखाने लगी। में एक sleevless टोप पहनी और नीचे शॉर्ट्स पहनी। में ने घर के सभी दरवाजे बंद किए और अलार्म सेट करी।फिर मैं बिस्तर पर लेट गयी , लाइट बंद कर दी और कुछ ही मिनटों के बाद में सो गयी।





जैसे ही मुझे नींद लग गयी एक असहज भावना लौट आई जैसे की किसी के आँखें मुझ पर थीं, कमरे के अंधेरे में मुझे वह आँखें देख रही थीं। में सोने के लिए संघर्ष करने लगी,



एक घबराहट के साथ मेरी आँखें खुल गयी, ऐसा लग रहा था मानो किसी का हाथ मेरी टखनों को पकड़कर मुझे बिस्तर के किनारे तक खींच रहा था। मैं चीखने की कोशिश करी, लेकिन कोई आवाज नहीं निकाल पायी। मेरी आँखें तेजी से उस अँधेरे कमरे के चारों ओर घूमने लगीं। में किसी को भी उस कमरे में देख नहीं सकती थी। मैं ज़ोरों से चिल्लाने लगी, "कौन है वहाँ?", "कौन है वहाँ?"

किसी ने जवाब नहीं दिया। लेकिन मैं महसूस कर सकती थी कि जो भी भूत या प्रेत उस कमरे में था वह मेरे डर से खुश था और मेरे साथ खिलवाड़ कर रहा था। मैं अपने पैरों को बेतहाशा फड़फड़ाने लगी, खुद को उस मज़बूत पकड़ से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी । में महसूस करी की किसी के उंगलियाँ मेरी झंघों और मेरे पेट के ऊपर चल रही थी।



वह उँगलियाँ मेरी गोरी और मुलायम त्वचा को खरोंचते हुए मेरी गर्दन तक आ गयी । मैं महसूस करी कि दो उंगलियाँ मेरी टैंक टॉप को पकड़ रही हैं और उसे मेरे बदन से निकालने लगी थी।

मैं इस हरकत के ख़िलाफ़ संघर्ष करना जारी रखी, लेकिन उसकी पकड़ शक्तिहीन थी। मैं महसूस कर सकती थी कि एक हाथ मेरे स्तनों को पकड़ रहा है और उन्हें कमरे के अंधेरे में एक उत्सुक मुंह की ओर उठा रहा है। मैं महसूस करी कि उस प्रेत-आत्मा के होंठ मेरे निप्पल के करीब हैं। में अब अपनी चूचियों को चुस्ती हुयी महसूस कर कराह उठी।



में अब अपने शरीर पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थी। फिर में महसूस करी की उस प्रेत-आत्मा के हाथ मेरी कमर को जकड़े हुए थे। वह मेरी कमर नोंच रहा था और उसे खींच रहा था। उस प्रेत-आत्मा अजनबी ने जोर से मेरी पैंटी पकड़ी।।

अब, बिना प्रतिरोध के, उस प्रेत-आत्मा के हाथों ने मेरी टोप को मेरी शरीर से उतार दिए, मेरी त्वचा को खुरचते हुए मेरी पैंटी को मेरे पैरों से नीचे खींच कर निकाल लिए। उस अक्टूबर की रात की हवा ठंडी थी और मुझे अपनी चूत में वह ठंडक महसूस हो रही थी।







उस प्रेत-आत्मा के शरीर से मुझे आश्चर्यजनक गर्माहट का अहसास महसूस होने लगी। मैं उस भावना से मदहोश हुयी, और उस प्रेत-आत्मा के खिलाफ शक्तिहीन महसूस करी।

मैं महसूस करी कि वह प्रेत-आत्मा मेरे शरीर के करीब आ रहा है, उसके लंड की नोक मेरी चूत के होठों पर दब रही है। जैसे ही उस प्रेत-आत्मा-प्रेत का लंड मेरी चुत में घुसने लगा, उसकी हाथों ने मेरी टांगों को पकड़ लिया, और उन्हें और चौड़ा कर दिया। मेरी तंग चुत का उस लण्ड के आकार से कोई मुकाबला नहीं था जिसे वह प्रेत-आत्मा थोड़ा-थोड़ा करके मेरी चूत के अंदर धकेल रहा था। मैं उसके लंड के बड़े मोटेआकार को स्वीकार करने के लिए कराह उठी। उस प्रेत-आत्मा ने अपने लंड को मेरी चुत की गहराइ में धकेलना जारी रखा, जब तक कि मैं महसूस कर सकी कि उसके लंड का गोल सिर मेरी गर्भाशय ग्रीवा के खिलाफ जोर से दबा हुआ है, जिससे मेरी चूत अनैच्छिक रूप से पानी छोर्ने लगी।





प्रेत-आत्मा ने मेरी चुदाई शुरू कर दी। पहले तो धीरे धीरे से वह मेरी चुदाई करने लगा ,लेकिन बाद में उसने चुदाई की तेज़ी बाधा दी। जैसे ही कमरे में हवा हमारी सेक्स की गंध से घनी हो गई ।

उस प्रेत-आत्मा का लंड मेरी चूत के अंदर और बाहर मेरी चुदाई करते रहा। मैं बहुत जोर से कराहने लगी जैसे कि किसी अलौकिक शक्ति से संचालित हो, मैं महसूस कर सकती थी कि में उस प्रेत-आत्मा के प्रत्येक जोर को पूरा करने के लिए अपने कूल्हों को उठा रही थी।



प्रेत-आत्मा की चुदाई की रफ्तार तेज हो गई। तेज़ और तेज़। उसकी चुदाई ऐसी थी जिसे मैंने पहले कभी अनुभव कि हो। इस लंड का ज़ोर और आकार अलौकिक थी। वह अपना लंड पिस्टन की तरह मेरी चूत के अंदर पंप करते रहा। मेरी कराह तेज होती गयी और जोर से बढ़ती गयी, मानो मुझ पर खुद उस प्रेत-आत्मा ने करी हो। प्रत्येक चुदाई के जोर के साथ, मेरी चुत उस भूतिया लंड के विशाल आकार के चारों ओर कस कर फ़िट हो गयी।





मेरे पैर काँपने लगे और मेरा शरीर बिना नियंत्रण के तनाव में आ गया। मेरे कामोन्माद की लहर उठ गई। मैं बार-बार ऐंठन में कांप रही । मैं महसूस कर सकती थी कि मेरी चूत फट रही है, मेरी चूत का गर्म रस एक फव्वारे की तरह बाहर निकल रहा है, जिससे बेडशीट भीग रही है। प्रेत-आत्मा ने अपने लंड को मेरी चूत के अंदर गहराई तक पंप करना जारी रखा, जब तक कि एक अंतिम जोर के साथ उसके लंड के मलाईदार सह को वह मेरी चुत में पंप करने लगा। फिर, एक पल में, यह सब चला गया था.. प्रेत-आत्मा का बड़ा लंड। लंड का सह , सब कुछ चला गया।

मैं बिस्तर पर बैठ गयी। मैं अब कमरे में बिलकुल अकेली थी। चादरें लगभग पूरी तरह से बिस्तर से खींच ली गई थीं, मेरे अपने चिपचिपे चूत के रस से भीग गई थीं। मेरी त्वचा पसीने से भीग गई थी।

यह कैसा नाइट्मेर (nightmare) था में सोची।





मैं बिस्तर से उठ गयी और वॉश्रूम चली गयी। मैं शॉवर शुरू करी और अपने शरीर को धोने लगी। नहाते हुए में खुद सोचने लगी की यह सिर्फ एक बुरा सपना था.

मैं शॉवर से बाहर निकली और खुद के बदन को सुखाने लगी। अपने हाथ से, मैंने आईने से भाप पोंछी और जो मैं देखि उसे देखकर हांफने लगी। मेरे स्तन इतने सूजे हुए थे कि जब मैं उन्हें छूने लगी तो मैं कराह उठी। मैं अपने निप्पलों को धीरे से सहलाने लगी और अपने स्तनों से सफेद दूध की बूंदों को निकलते देख बहुत हैरान हुई।

इससे पहले कि मैं ऊपर आइने को देख पति, में एक ठंडी हवा मेरे ऊपर से गुजरती हुयी महसूस करी। वह शीशा, जिसे मैंने साफ कर दिया था, एक बार फिर भाप से धुँधला हो गया था। जैसे ही मैं भाप में बिखरे हुए शब्दों को पढ़ने लगी, तब में डर के मारे पीछे हट गयी। आइने में लिखा हुआ था- "हैप्पी हैलोवीन (halloween) डार्लिंग।"

मैं अब बहुत डर गयी थी और अपने कपड़े पहने और घर से बाहर निकलने का फैसला करी।

इससे पहले कि मैं दरवाजे तक पहुँचने के लिए अपना हाथ बढ़ाती, मुझे उस प्रेत-आत्मा ने पकड़ कर दरवाज़े के ख़िलाफ़ दबाया।

मेरी चूचियाँ थरथरा रही थी, मैं कुछ बोल नहीं पा रही थी।

"मैं घर छोर कर जाऊँगी। ... बस मुझे जाने दो... में वापस यहाँ नहीं आऊँगी... बस मुझे जाने दो," मैं उस खाली कमरे में धीरे से उस प्रेत-आत्मा से विनती करने लगी।

"बस मुझे जाने दो... प्लीज... ," मैं फिर से विनंती करना शुरू करी, लेकिन तब मेरी टांगों के बीच उस प्रेत-आत्मा का लंड दबा हुआ महसूस करी।

"ओह्ह्ह... भगवान," मैं उसके लंड के हमलावर से कराह उठी।



अब में खुद को हवें में पायी और वह प्रेत-आत्मा मुझे फिर से बेडरूम की तरफ़ लेने लगा। मुझे बिस्तर पर सुला कर वह फिर से मेरी चुदाई करने लगा।

"आह्ह्ह्ह ... आह्ह्ह्ह ... आह्ह्ह्ह ... ऊह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्," मैं जोरॉन से कराहने लगी । उस प्रेत-आत्मा ने मेरी चूत को उसके विशाल लंड से भर दिया।

उस प्रेत-आत्मा-प्रेत ने मेरी ज़ोरों से चुदाई जारी रखी। मैं विलाप करी और आख़िरकार उस प्रेत-आत्मा से बात करने का फैसला करी। मैं अपने होठों को उसके करीब रखी जहां मुझे लगा कि उसके कान होंगे और में धीरे से उसके वहाँ फुसफुसायी।

“उफ़्फ़्फ पता नहीं आप वही हो जो इस घर के मालिक थे, लेकिन आप की चुदाई से मुझे अब ढेर सारा मज्जा आ रहा हैं। आप मेरी चूत की ऐसी जमदार चुदाई कर रहे हो, जो में पहले कभी नहीं करी हूँ। आप की सालों की हवस को आप शांत करिए आह्ह्हह उफ़्फ़्फ म्म्म मेरी चुदाई करते रहिए ।।”

उसका लंड अब मेरी चुत में काफी अंदर दबा हुआ था। हमारी चुदाई से बिस्तर चरमराया।



मैं महसूस करी और देख सकी की उस मर्द कि प्रेत-आत्मा मेरे आमने-सामने थी। अब मैं उसकी भूतिया आँखों को गौर से देख सकती थी और उसमें हवस देख सकती थी। वह भी मुझे कराहते हुए देख सकता था और मेरी चुदाई की स्पीड उसने बढ़ायी। मैं देख सकती ठी की उसके चेहरे पर एक मुस्कान छायी हुयी थी।

उसका लंड मुझे मेरी चुत के अंदर हथौड़े की तरह चोदता रहा। बिस्तर हमारे चुदाई के वजन के नीचे हिलने लगा था । इस चुदाई का संभोग सुख मुझे अभी तक महसूस नहीं हुआ।

वो मुझे और 1 घंटे तक चोदते रहे। आख़िरकार में ऑर्गैज़म की चर्मसीमा पर पहुँच गयी थी ।

यह कामोन्माद मेरे अनुमान से अधिक समय तक चलता रहा। अंत में प्रेत-आत्मा का मोटा लंड मेरी चुत में अपना गधा सफ़ेद माल छोर्ने लगा और उनकी कमिंग चलती रही लगभग ५ मीन तक। उसने अपना वीर्य मेरी चुत के गहराई तक छोर दिया था।

उसने मेरी चुत से आसानी से उसका मोटा लंड बाहर निकाल लिया। में मेरी चूत के भगशेफ को एक अखरोट के आकार जैसे महसूस करी और अपनी उंगलियों को सावधानी से अपनी चुत पर फेरने लगी और मैं फिर उसके लंड को पकड़ कर अपनी चूत, जांघों और चूचियों पर रगड़ना शुरू कर दी।

फिर मैं इस भूतिया चुदाई के बाद थक कर बिस्तर पर लेट गयी। मुझे एहसास हुआ की वह प्रेत-आत्मा भी मेरे बग़ल में लेटा हुआ था। मेरी आँखें खुली तब में देखी की बिस्तर के बग़ल में एक फ़ोटो पड़ी थी। उस फ़ोटो को देखने लगी तब में बिलकुल शॉक हो गयी। वह किसी औरत का फ़ोटो था और वह लगभग मेरे जैसे ही दिखती थी। फिर मुझे एक ठंडी हवा महुस्स हुयी, जो निशित रूप से उस प्रेत-आत्मा की ही थी। वह हल्के से मेरे कान में फुसफुसाया “यहाँ आओ , यहाँ आओ।” में पहली बार उस प्रेत-आत्मा की आवाज़ सुन पा रही थी। अब मानो उस ने मेरी कलाई पकड़ ली थी और वह मुझे उस बेडरूम के एक कबर्ड के तरफ़ ले गया। वह अलमारी जब में खोली तो में पायी और एक फ़ोटो जिसमें वह प्रेत-आत्मा की तस्वीर थी उसके बीवी के साथ। फिर में उस अलमारी में एक डाइअरी पायी , जिसमें यह प्रेत-आत्मा ने कुछ लिखा था। में उसकी private-diary पढ़ने लगी । तब मुझे पता चला की इस प्रेत-आत्मा के साथ क्या हादसा हुआ था। उसके private-diary को पढ़ कर मेरी आँखों में आँसू आने लगे। में उस प्रेत-आत्मा को पास महसूस करी और में उससे लिपट गयी। वह मुझे फिर से बिस्तर पर ले चला , आज रात हमारी तीसरी चुदाई होने जा रही थी। इस बार फिर से एक घंटे तक हमारी चुदाई चली। इस बार अलग भावनाओं से में इस प्रेत-आत्मा के साथ रात बिताई।

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कुछ दिनों बाद मैं अपने कंप्यूटर पर कुछ काम करने में व्यस्त थी कि मेरे सेल फोन की घंटी बजने से मैं बाधित हो गयी। अपने पर्स से फ़ोन निकालने के लिए झुकी तो मैं आह आवाज़ कर बैठी क्यूँकि, में एक नई व्यायाम रेजिमेंट को शुरू करी थी।

"हैलो," मेरी चुलबुली आवाज ने फोन करने वाले का अभिवादन किया।

"हेलो इस थिस अनामिका," दूसरे छोर पर एक मर्द स्वर से उत्तर आया। "मैं एक एजेंट हूं और मैं आपके एक रेनवेटेड (renovated) घर के बारे में पूछने आपको कॉल किया हूँ, ... इस किताब के पेज 88 पर है उस घर का नाम"

"ठीक है," मैं बोली, में उसी किताब की कॉपी को लेने आगे बधी ताकि मैं उस घर को देख सकूँ जिसके बारे में फोन करने वाला पूछताछ कर रहा था।



में वह किताब पढ़ने ही वाली थी की वह आदमी बोला “ अनामिका जी उस घर का नाम हैं आनंद भवन। पता 214, आनंद भवन, मेन रोड, करवे मार्ग , पिनकोड – १११००५”

"ओह...," मेरी आवाज़ वह नाम सुनकर बदल गयी। में फिर बोली "देखते हैं हम्म... आपके पास जो किताब है वह दो महीने पहले की हैं ... किसी ने उस घर को खरीदने के लिए पहले ही किसी अन्य रियल एस्टेट एजेंट से संपर्क किया है, इसलिए अब वह घर बिक्री के लिए नहीं है।

"हालांकि मैं आपको बताऊँगी की... मेरे पास और 5 घर हैं जिन्हें मैं renovate करी हूँ और मुझे आपको उन घरों की सूची भेजने में खुशी होगी। उन्हें आप बेच सकते हैं," मैं अपनी विनम्र आवाज़ में बोली। फिर में उन्हें दूसरे घरों के ऐड्रेस देकर अपने परसे से एक अजेंट का विसितंग कार्ड देखने लगी। यह उस रियल एस्टेट एजेंट का कार्ड था जिससे मैं दो दिन पहले मिल चुकी थी।

अपनी उँगलियों के बीच उस कार्ड के कागज के आयताकार टुकड़े को रगड़ते हुए, मेरे शरीर में गर्माहट और प्रत्याशा महसूस करी। मेरी कम्प्यूटर पर में नज़र डाली, उस घर पर जिसे मैं उस रियल एस्टेट एजेंट से खरीदने जा रही थी।

में जल्द ही एक घर ख़रीदने वाली थी जिसका ऐड्रेस था .
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214, आनंद भवन, मेन रोड, करवे मार्ग, पिनकोड - १११००५
kahani mast hai ,anamika ek pret sw hi pyar karne lagi aur ab wo uske saath usi ghar me rehke chudai ke maje bhi legi .
par us aatma ke saath aisa jya hua tha jo diary padhne ke baad anamika rone lag gayi ye bataya hi nahi ,jitna sex ko detail me bataya tha usse kam me bhi wo haadsa bataya hota to kahani aur best ban jaati .
 

KEKIUS MAXIMUS

Supreme
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MAUT -- Pyar ya Nafrat


Uski dhadhkane bijli ki tarah tez gati se dhadak rahi thi, wo apni aankho ko baar baar band kar rahi thi taki wo is tarah apne aasu rok sake. Wo apni aankhe band kar rahi thi taaki wo us dukh mein Dubey huye seher ko na dekh sake jaha uske marey huye dushman ki yaade hai. Yaade hai ek mare huye Hero ki. Wo bheed mein ek khauf mehsoos kar sakti thi uske aane ka. Wo yaha bilkul ek aam naagrik ki tarah sadharan kapdo mein aana chahti thi lekin uske dil ne usey majboor kar diya tha usey apni Costume mein aane ke liye. Wo aaj yaha kuch kehna chahti thi isliye wo apne sath ek aansu ke dhabbe se sane huye mudde tudde ek kagaz ke tukde ko leke aayi thi jo usne kal raat ko bhut saari sarab pitey huye likha tha. Usey dekhte hi police walo ne uspe apni guns taan di lekin wo side mein utri aur apne hath hawa mein utha liye jisse wo dikha sake ki wo aaj yaha koi khatra banke nahi aayi hai. Uske upper uthey huye hatho ki ungliyo mein surkh laal aag naach rahi thi, lekin uski aankho mein koi gussa nahi tha, tha to sirf dukh aur dard jo ki is bheed ke har ek insaan ko aankho mein tha. Wo bina kisi ki aur dekhte huye nazre nichi karke stage pe aa gayi aur waha usne maujood logo se kuch sabd kehne ki izzazat maangi jo ki usey mil gayi kyuki usey koi mana nahi kar sakta tha. Usne apni Jeb mein se wo aansuo se Sana kagaz nikal liya aur ek kampkapati saans li aur bolna suru kiya.



"Suru mein mujhe samajh nahi aaya tum mujhse kyu lade. Main sirf is sansaar mein jo takaat ke bhukhe log hai, jo bharastachaar aur lalach se bhare hai jo dusro se pehle khud ki jeb bharne aur jo dusro ka gala ghot ke apne sapno ke baar mein sochte hai, main to bas unhe khatam karna chahti thi. Maine apne jeewan ke har mod pe ye Sahaa hai aur main ye khatam karna chahti thi, main maanti hu ye sab main khud ke liye kar rahi thi, ya badla le rahi thi is samaaj se, maine aaj tak bhut se logo ki jaan li aur isme bhut se log masoom bhi they jo sayad mere andhe nyay ki bhet chadh Gaye. Lekin hum dono mein ant tak yahi to faasla tha, main apna kaam kaise bhi asaani se kar leti thi aur wahi tum apne sapne se pehle logo ki suraksha ko rakhte they, tumne Aaj Tak kisi ki jaan nahi li chahe sithti kaisi bhi kyu na ho, samay kitna bhi kharab kyu na ho lekin tumhare chehre pe humesha se ek muskaan rehti thi. Ye muskaan ek umeed thi logo ke liye aur sayad mere liye bhi. Mujhe lagta hai ki main ab tumhe samjhne lagi hu."


Uski awaaz ukhadne lagi thi, usne ek baar bheed mein chupke se ek nazar daudayi aur jo kagaz uske hatho mein hawa se fadfada raha tha use apne samne rakhe stand pe dabba diya, taaki padhne mein asaani ho. Usey laga tha ki bheed ki aankho mein uske liye nafrat hogi lekin aisa kuch nahi tha, tha to sirf dukh. Usne ek gehri saans li aur aage bolna suru kiya.



"Har kisi ki kismat mein ye nahi likha hota ki unke janaaze pe pura seher dukh maanaye, mere hisaab se aisi kismat laakho mein se ek ki hoti hogi. Maut unhe mehsoos nahi hoti jo mar chuke hai, maut unhe mehsoos hoti hai jo us marey huye insaan ko pyar karte hai. Maine tumse bahut lambey samay tak nafrat ki hai, kyuki main kuch bhi karna chahti ya karne ko hoti to tum humesha mere raaste ki rukawat banke mere saamne aa jaate they. Tumne kabhi yeh jaanne ki kosis nahi ki main ye sab kyu kar Rahi hu, aakhirkaar hamari manzil to ek thi beshak raaste alag ho. Tum bhi is sansaar mein saanti laana chahte they aur main bhi. Haan maanti hu ki maine ye sab karte huye khud ka fayda jyada dekha lekin kya karti, main aise halaato se nikli hu ki tum soch bhi nahi sakte. Main chahe galat kar rahi hu lekin khud ke dil ko tasalli deti thi ki ant mein sab sahi hoga aur main jo kar rahi hu wo sahi hai. Haan main tumse nafrat karti thi lekin main tumhari MAUT kabhi nahi chahti thi."



"Mujhe nahi pata tha ki tum kaun ho, Naa hi maine ye jaanne ki kabhi kosis ki us mukhote ke piche chuppe huye chehre ko dekhne ki. Kabhi nahi,,,,,, mujhe nahi pata tha ki ye tum ho, kal shyam tak to bilkul bhi nahi. maine wo naam shyam ko news mein padha jisey maine apne muh se hazaro baar pukara hai. Wo saari Dates jo ek dum last minute pe cancel ho jaati thi, jab main tumhare liye dinner banati thi to tum last minute gayab ho jaate they, wo time jab tum choti moti chhotto ke sath Ghar aate they aur bolte they "Aaj Martial Arts ki Class thodi rough ho gayi".



Uski saanse tez hone lagi thi aur uski aankho mein aansu rukne ka naam hi nahi le rahe they. Usne himmat karke apna hath uthaya aur apne gaalo pe jo aansu kisi neher ki tarah beh rahe they unhe saaf kiya.



"Mujhe pata hai main tumse nafrat karti thi, jis din main apni puri taakat ke sath aasmaan mein tumse ladti thi, ghar jaake tumko siddat se pyar bhi to karti thi. Maine tumhe apne baare mein bhut baar batane ki kosis ki lekin darti thi ki tum mere baare mein kya sochoge. Ab bata to Rahi hu lekin sochne ke liye tum hi nahi ho."



Wo aage bolne hi wali thi ki wo apne kandhe pe ek hath dekh ke chauk gayi, usne piche mud ke dekha to usey wo shaks dikha jo aur koi nahi balki uske premi ki maa thi. Jisey sayad usne is stage pe pehle dekha nahi tha. Ye wo aurat thi jisne in dono ke sath sabse jyada samay bitaya tha aur in dono ki hi hakikat se anjaan thi.


"Ohh Riya," wo budbudayi aur uske kandhe ko pyar se dabate huye boli "mujhe chinta aur dar laga tha ki tum yaha nahi aaogi."


"Main yaha pakka aati kyuki Pyar aur nafrat dono usi se to karti thi."



Usne ek baar bheed ki taraf dekha aur usey un sab ki aankho mein wo nafrat nahi dikhi jo usey hamesa se dikhti hai. Un sab ki aankho mein shahnubhuti thi, samjh thi, dukh tha, dard tha, kyuki is bheed mein lagbhag sabne hi kisi na kisi chahne wale ko khoya hai un hadso mein jo is seher ke upper kaale badalo ki tarah aaye hai. Usne ek gehri saans li aur apne ander ek takar mehsoos ki wo bolne ki jo wo bolne aayi thi.



"Main usse pyar karti thi aur ab bhi karti hu aur mujhe is baat ka koi afsos nahi hai. Meri bas kewal ek khawahish hai,,, khawahish hai ki kaash wo ab bhi hamare sath hota, taaki main usey fir se apni baaho mein kas ke bhar sakti aur usey bata sakti ki main usse kitna pyar karti hu. Abhi to bahut kuch karna baaki tha, kehna baaki tha aur sunna baaki tha. Ye seher tumhe nahi jaanta jitna main tumhe jaanti hu. Wo sab tumhara ek alag roop jaante hai aur main yaha khade hoke ye baat daawe ke sath bol sakti hu ki ye log tumhari fikr karte hai tumhe pyar karte hai apne pariwar ki tarah. Tumne anginit logo ko prerit kiya hai acha banne ke liye, anginat logo ki madad ki hai, anginant logo ki jaan bachayi hai tumne khud ki jaan ko khatre mein daalke. Aur mujhe ye sab kal tak bilkul bhi nahi pata tha. Aur ye sab jaan karke mujhe tumpar aur bhi jyada pyar aa raha hai, aur khud pe hasi ki maine ab tak kya kiya hai?"



Usne apni jeb mein hath daala aur us insaan ki maa ki aur dekhte huye boli "humne aapko kabhi ye bataya nahi lekin, humne Aaj ke liye ye plan Kiya tha"



Itna bolke usne apni jeb se ek dhoop mein chamchamti diamond ring nikal li.
" Mujhe kabhi tumse ye kehne ka mauka nahi mila, lekin ye tumhare liye hai. Maine kaafi samay pehle tumhare liye ye ring Li thi."


Uske doosre hath ke naakhoon uski hatheliyo mein gad rahe they usne saans leke fir bolna suru kiya.


"Main tumhari MAUT kabhi nahi chahti thi, jabse Maine tumhe pehli baar dekha tha, halanki tumse kab pyar kar baithi mujhe ye bhi nahi pata. Main tumhe yaha sabse ache se jaanti hu kyuki maine nafrat mein bhar ke tumhare sath aasmaan mein dil dehla dene wali ladayia bhi Ladi hai, aur mujhe us nafrat mein bhi ek sukoon sa milta tha. Main Kasam khaati hu ki main tumhe kabhi nahi bhool paaungi, aur Naa hi ye bhool paaungi ki tum kiske liye lade ho. Main kabhi bhi ek achi insaan hone mein achi nahi rahi hoon. Lekin abse main kosis karungi is duniya ko tumhare nazariye se dekhne ki aur tumhare kadmo pe chalne ki, sayad main apne dusman aur pyar ke liye itna to kar hi sakti hu. Main tumse maafi maangti hu humne itna samay aapas mein ek dusro ko bina jaane ladne mein laga diya aur main tab tumhare paas nahi thi jab tumhe meri sabse jyada jaroorat thi."



Uske kandhe kaampne lage they aur wo us aurat ki baaho mein simat gayi jo sayad uski mother-in-law banne wali thi. Usne khud ko kuch der ke liye wo Mamta bhara pyar mehsoos hone diya, fir wo alag hoke us coffin ki taraf badh gayi. Waha usne us insaan ka chehra dekha jisse wo nafrat bhi tahe dil se karti thi aur pyar ki bhi koi seema nahi thi. Wo khud ko tasalli Dena chahti thi ki wo so Raha hai aur kbhi bhi uthke ya to usse ladne lagega ya pyar jatane lagega. Lekin maut ke baad nafrat aur pyar dono hi khatam ho gaye they us marey huye insaan ke liye. Usne aage badh ke us insaan ke haatho ki ungliyo mein ring pehna di jo bilkul thande pad chuke they.


"I love you and I still hate you. Isliye in logo ka dhyan main rakhungi jinhe tum itna pyar karte they"


Itna bolke wo piche ho gayi kyuki uska ab yaha rukna uske liye hi muskil hota jaa raha tha. Jaise hi wo sabse alag huyi uske purey sarir pe laal rang ki aag naachne lagi aur wo palak jhapakte hi aasmaan mein ud gayi aur agli palak jhapakte hi wo waha se gayab ho gayi. Wo to gayab ho gayi lekin uske jaane ke baad bhi uske kuch sabd bheed mein gunnjne lage.




"Main tumhari MAUT kabhi nahi chahti thi, ek baar bhi nahi."
emotional kar denewali kahani thi .superwomen ki love story .
 

parkas

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Title - अभय प्रसाद
Written - Kala Nag

Review - Very interesting and sweet story....
 

parkas

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Title - AnandBhavan - Ek Erotic-Horror Kahani
Written - HusnKiMallika

Review - Very interesting and horror story....
 

parkas

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Title - To me rista pakka samzu (romance)
Written By - Shetan

Review-
Mufat lal apni bahu malvika ko chodta hai or Lagta hai ki uska hi baccha malvika ke andar hai, Malvika ne hi simran ki sadi ke liye mnaya hoga Mufat lal ko, uski chut ka lalach dekr, yha Subhash chand ko bhi isliye fasaya hai ki future me Kabhi unka raaj khul jaye to koi kuchh na kr sake, malvika NE apne pita ka video bhi bana liya mafat lal ka lund chuste huye vahi apne pati ka bhi video bnaye baithi hai Pahle se Taki vo malvika se dur rhe, yha malvika ne apne pita ko apne isaro me nchaya hai kisi paltu ki tarah...

Sandar jabarjast story Maza aaya padh kr Shetan ji
 

parkas

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Title - Desh Premi
Written by - asadjee

Review -
Kafi achi lagi aapki story read krne ke baad.Suresh ka kirdar bahut hi joshila nd desh prem se bhara hua laga mujhe. Paida hote hi uske life me ek ke baad ek muskile aati gayi lakin wo marne se phle kabhi haar nahi mana aur sari muskilo ko paar karte hue ek commondo ban gaya. Aapke story ka best part mujhe wo laga jab pata chala ki story to flashback me chal rahi thi. Suresh to apni aap biti suna raha tha Miss Ananya ko. Matlb past se story to present me aapne sirf ek lines se bahut hi khubsurat tarike se laya. Aakhir me suresh hara bhi to kisi ki jaan bachane ke hi chakkar me. Matlb aakhir tak wo bhlayi karne ke bare me hi sochta raha.
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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बन्नो

हमारे गाँव में कल्लू के पिताजी की करियाने की दुकान थी।
वह अपने पिताजी की तरह मोटू व अकड़ू था।

मेरे पिताजी गांव के पचांयतघर में क्लर्क थे, रोज साइकिल चला कर दफ़्तर जाते और शाम को घर लौटते।
कल्लू के अतिरिक्त हमारे साथ में वह भी खेलती थी- पड़ोस की हमउम्र नाजुक-नरम सी लड़की।

उसके पिताजी शहर के सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। वे भी साइकिल से शहर जाते थे। उनका स्कूल दोपहर में समाप्त हो जाता था तो वे दोपहर ढलने तक गाँव वापस आते थे।

पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं कल्लू के साथ खेलूं।
वह ऐसी-ऐसी गालियाँ देता, जिन्हें सुनना भी हमारे यहाँ पाप माना जाता।

वैसे भी उसे पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं थी, क्योंकि उसे तो बड़े होकर अपने पिताजी की दुकान ही संभालनी थी।

लेकिन मेरे पिताजी मुझे पढ़ा-लिखा कर अफ़सर बनाने का सपना संजोए बैठे थे।

मास्टर जी बहुत सीधे-सादे आदमी थे, अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे।
वह थी ही प्यार करने लायक … बड़ी प्यारी और बड़ी मोहिनी।

मेरे पिताजी तो सारे दिन घर में होते नहीं थे। माँ घर के कामकाज में लगी रहती थीं। तब हम गाँव के ही छोटे से स्कूल में ही पढ़ते थे।

स्कूल खत्म होते ही हम तीनों खेल में जुट जाते, तरह-तरह के खेल खेला करते।

कल्लू को गुड्डे-गुडियों के खेल पसंद नहीं थे, ताश-लूडो खेलना हम जानते नहीं थे। तो हम घर-घर खेलते।

कल्लू हमेशा ही पति बनता, वो पत्नी और मैं नौकर। कभी कल्लू बन्ना बनता, वह बन्नो बनती और मैं पंडित बनता।

कल्लू किसी खेल की बारी कभी नहीं चुकाता था। खेलता, फिर बैग उठाता और चल देता।
वह हमेशा उसी की पत्नी या बन्नो बनकर रह जाती।
मेरी बारी तो कभी आती ही नहीं थी और मैं चूतिया की तरह हमेशा नौकर बनकर रह जाता।
मुझे गुस्सा तो बहुत आता, लेकिन कल्लू इतना अकड़ू था कि उससे लड़ने की हिम्मत मैं कभी जुटा नहीं पाया।

एक दिन हम शादी-शादी खेल रहे थे। हमेशा की तरह कल्लू बन्ना बना हुआ था और वह बन्नो।

पंडित ने दोनों की शादी की रस्म पूरी कराई ही थी कि कल्लू अपने घर चल दिया।
मैं तिलमिला गया।

मैंने हिम्मत जुटाई और चिल्लाया- मेरा बारी देकर जा!

उसने मुझे पलट कर भी नहीं देखा, बस चलते-चलते ही चिल्ला कर बोला- नहीं देता जा!

उस दिन मैं बदला लेने को आमादा था, इसलिए पूरी ताकत लगा कर कहा- बारी नहीं देगा तो तेरी बन्नो मैं रख लूंगा!

वह फिर भी नहीं मुड़ा, वैसे ही हवा में हाथ उड़ाता सा बोला- जा रख ले!

मैं रुआंसा हो आया, हाथ-पैर कांपने लगे।
तभी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसने अपने कोमल हाथों से मेरे गालों पर ढुलक आए आँसू पौंछे और बोली- कोई बात नहीं, आज से मैं तेरी बन्नो! खुश हो जा।

मैं शायद खुश हो भी गया था।

धीरे-धीरे हम बड़े हो गए।
हमारी पढ़ाई गाँव में जितनी होनी थी, हो गई थी।

जैसा कि तय था, कल्लू अपने पिताजी की दुकान पर बैठने लगा और मेरे पिताजी ने मेरा दाखिला शहर के स्कूल में करवा दिया।

मैं रोज सुबह उठता, तैयार होकर भारी बैग पीठ पर लाद कर छः किलोमीटर दूर स्कूल के लिए चल पड़ता।
जब तक घर वापस आता, सांझ ढलने को होती।

मैं पस्त हो जाता, लेकिन पिताजी मेरा हौंसला बढ़ाते रहते, वो मुझसे कहते- तुम्हें तो अफसर बनना है।

मास्टर जी ने अपनी बेटी को शहर के उसी स्कूल में प्रवेश दिला दिया, जिसमें वे पढ़ाते थे।
वे उसे अपने साथ साइकिल पर ले जाते और साथ वापस लाते।

रास्ता तो एक ही था। मुलाकात भी होती, लेकिन कुछ ऐसे कि मैं धीरे-धीरे पैदल जा रहा होता और मेरे बाजू से मास्टर जी की साइकिल गुजर रही होती। पता नहीं वह मेरी ओर देखती या नहीं, लेकिन मैं उसकी ओर देखने का साहस नहीं जुटा पाता।

हम बड़े होते जा रहे थे। हमारे वयस्क होने के चिह्न उभरने लगे थे।
आयु के इस मोड़ पर कभी हमारा सामना होता भी तो मेरे पैर कांपने लग जाते और वह लजा कर भाग जाती।

तब हमारे शहर में कॉलेज नहीं था।
पिताजी ने आगे की पढ़ाई के लिए मुझे महानगर में मामा के पास भेज दिया।

पीछे मुड़ कर देखने का अवसर नहीं था, फिर भी कभी-कभार मुझे आज से मैं तेरी बन्नो वाली बात याद आती और मन में सिहरन का अनुभव होने लगता।

तीज-त्यौहार पर जब कभी गाँव आना-जाना होता तो आँखें अनायास उसे ढूंढने लगतीं।

कभी आमना-सामना होता तो इस स्थिति में कि वह छत पर खड़ी होती और मैं गली में। हम एक-दूसरे को ठीक तरह से देख ही नहीं पाते क्योंकि यदा-कदा जब हमारी आँखें मिलतीं तो पल-दो पल में ही शर्म से झुक जातीं।

हमारे संस्कार ही ऐसे थे और ऊपर से बड़े-बुजुर्गों का डर भी बना रहता था।
समय के साथ-साथ आयु में वर्ष जुड़ रहे थे, अतीत धुंधलाने लगा था।
मैं वकालत कर रहा था, जज बनने के सपने मेरे मस्तिष्क में अपनी जड़ें गहरी बनाते जा रहे थे।
गर्मी की छुट्टियाँ हुई, हर बार की तरह इस बार भी मैं छुट्टियाँ बिताने गाँव आया।
अब माता-पिताजी और घर के अलावा गाँव की अन्य चीजों से पहले जैसा लगाव बाकी नहीं रह गया था।

घर पहुँचते ही पता चला कि उसकी शादी होने वाली है।
जाने-अनजाने अन्तर्मन में कुछ टूटने की आवाज हुई और मैं यह समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों हुआ था।

उसके यहाँ शादी की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं।
मुझे भी जिम्मेदार व्यक्ति की तरह काम सौंपे गए थे, लिहाजा मन में खासा उत्साह था। सुबह से रात तक किसी न किसी काम में लगा रहता।

धीरे-धीरे शादी का दिन आ गया।
गाँव-कस्बे के बड़े-बुजुर्ग, मुखिया तो सुबह से ही आकर जम गए थे। उनके लिए लस्सी-पानी का प्रबंध करते रहना भी बड़ा काम था। ऊपर से साज-सजावट, शाम के भोज की व्यवस्था … दम मारने की फुरसत नहीं मिल पा रही थी।

दिन कब बीत गया, पता नहीं चला।
अब तो बारात आने की बेला पास आ रही थी। स्त्रियां सज-संवर चुकी थीं।
ऊपर के कमरे में उसे दुल्हन बनाया जा रहा था।

खूब चहल-पहल थी।
मैं किन्हीं कामों में व्यस्त था कि तभी उसकी छोटी बहन आई, फुसफुसाते हुए बोली- दीदी आपको ऊपर कमरे में बुला रही है।

मैंने उस निर्देश को भी अन्य कामों की तरह ही लिया और सीधा ऊपर कमरे की ओर बढ़ चला।

कमरे का दरवाजा भिड़ा हुआ था और वहाँ उस समय कोई नहीं था।
मैं आगे बढ़ा और तनिक सहमते हुए दरवाजा खोला।

अंदर वह अकेली थी, लाल रंग की साड़ी और सुनहरे आभूषणों से सजी-संवरी वह एक ज्वाला की तरह लग रही थी।
मुझे वह एक अभिसारिका की तरह आकुल व उत्कंठित प्रतीत हुई।
जीवन का यह पहला अवसर था, जब मैं सजी-संवरी दुल्हन के इतने पास खड़ा था।

मैं निस्तब्ध था।

वह अचानक मेरे करीब आ गई।
अब हम एक-दूसरे की तेज चलती सांसों की आहट सुन पा रहे थे।
उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा लिया और बोली- कैसी लग रही है तुम्हारी बन्नो?

मैं चौंका, घबराया और लड़खड़ाते हुए बोला- सुंदर, बहुत सुंदर!
वह तपाक से बोली- तो अपनाया क्यों नहीं?
अपनी बात पूरी करते-करते उसका गला भर आया था।

“मतलब?” मैंने कहा।

“मतलब क्या? भूल गए? मैंने कभी तुमसे वादा किया था कि मैं केवल तुम्हारी बन्नो बन कर रहूँगी।”
उसकी आवाज में अधीरता थी।

“वे तो बचपन की बातें थीं!” मैंने कहा।

तो वह बोली- जवानी बचपन से ही निकल कर आती है, आसमान से तो नहीं टपकती। बचपन के वादे जवानी में निभाने चाहिए या नहीं? बोलो?

मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, चुप रहा।

वह फिर बोल उठी- मैंने तो बहुत प्रतीक्षा की। शायद कभी न कभी तुम कुछ कदम आगे बढ़ाओ, धीरे-धीरे मैं निराश हो गई। क्या करती, मैंने शादी के लिए हाँ कर दी।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ!

लेकिन मुँह से निकला- अब क्या हो सकता है?
उत्तर में वह बोली- चलो भाग चलते हैं।

“धत् … ऐसा कुछ नहीं हो सकता।” मेरे मुँह से अनायास ही निकला।

वह तनिक और आगे बढ़ आई और बोली- तुमसे कुछ नहीं हो सकता। पर मुझसे जो हो सकता वह तो मैं करूँगी।

वह मेरे और करीब आ गई और मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लिया।

हमारी सांसें तेज चल रही थीं।

उसकी उत्तेजना में …

तो मेरी घबराहट में!

वह किसी मदोन्मत्त की तरह मेरे आगोश में थी.

अब यह बखान करना तो बेमानी होगा कि उस समय जो कुछ हुआ वह क्या और कैसा था।
किस कमबख्त को ऐसे पलों में होश रहता है।

लेकिन मेरा पूरा शरीर आंधी में किसी पेड़ से लगे पत्ते की भान्ति कांप रहा था।
कोई देख न ले, यह शाश्वत भय न जाने कितने अवसर चूकने को मजबूर करता है।

मैंने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

अभी मैं छत से नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा था कि किसी ने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ लिया।

मैंने घबरा कर देखा तो वह भाभी थीं, सगी नहीं, परिवार-खानदान के रिश्ते वाली भाभी।

मेरी हमउम्र थीं और सच कहूँ तो वह हमारे परिवार की रौनक थीं।

मेरा हाथ पकड़े-पकड़े भाभी ने अपने आंचल से मेरे होंठ और गालों को रगड़ कर पौंछ डाला।

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और स्तब्ध खड़ा था।

आज पहली बार भाभी ऐसा कुछ करते हुए हंस नहीं रही थीं, वह गंभीर थीं, धीरे से बोलीं- लाली लगी थी, पौंछ दी है। इस हालत में नीचे जाते तो दोनों फांसी पर लटके मिलते।

मैं सिहर उठा।
वक्त की नजाकत को समझने में मुझसे भूल हुई थी।

भाभी बोलीं- जाओ, भूल जाओ उसे!

इस वक्त एकाएक अपना कुछ खोने जैसी कसक दिल में चुभती सी महसूस हुई।
आँखें नम हो आई।

फिर भी, मैंने खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हुए कहा- वो अब तक बचपन की बातें सहेज कर बैठी है।

भाभी धीरे से बोलीं- होता है … प्यार तो कच्ची उम्र में ही होता है।

“कच्ची उम्र नहीं भाभी …” मैंने कहा- वो सब बचपन की बातें हैं।

वह बोलीं- तुम सचमुच भाग्यवान हो। कोई तुम्हें बचपन से प्यार करता है।

मैंने उनकी बात पर ध्यान न देते हुए अपने को तनिक व्यवस्थित किया और कहा- बिना सोचे समझे यह कर डाला।

भाभी ने गहरी सांस ली और बोली- जो नासमझी में हो जाए वही प्यार है। सोच-समझ कर तो सौदा किया जाता है।

भाभी जो कुछ भी कह रही थीं वह उनके चिर-परिचित स्वभाव के नितांत विपरीत था।

मुझे उनके स्वर में टीस का आभास हो रहा था, मैं खुद को रोक नहीं पाया और मैंने उनसे बिंदास प्रश्न किया- भाभी, आपके साथ भी कुछ ऐसा.. मेरा मतलब, कभी आपने भी किसी से.. मैं प्रश्न पूरा कर पाता उससे पहले भाभी नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर जा चुकी थीं।

वह सीढ़ियाँ उतरते-उतरते बोलीं- स्त्रियाँ अपने विफल प्यार के किस्से नहीं सुनाया करतीं।

मैं अवाक खड़ा रह गया था।
दो आँसू जो मेरी आंख से ढलके उन्हे मैने अपनी हथेली से पोंछ लिया था ,उसकी चाहत की बदनामी ना हो शायद इसीलिए।
बेहतरीन कहानी

बचपन के सच्चे मन की निश्चलता में जो हो वही सच्चे जज्बात, बाकी सब सौदे, एकदम सच्ची बात बोली भाभी ने।

रेटिंग:9/10
 

Rajizexy

❣️and let ❣️
Supreme
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avsji

Weaving Words, Weaving Worlds.
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बन्नो

हमारे गाँव में कल्लू के पिताजी की करियाने की दुकान थी।
वह अपने पिताजी की तरह मोटू व अकड़ू था।

मेरे पिताजी गांव के पचांयतघर में क्लर्क थे, रोज साइकिल चला कर दफ़्तर जाते और शाम को घर लौटते।
कल्लू के अतिरिक्त हमारे साथ में वह भी खेलती थी- पड़ोस की हमउम्र नाजुक-नरम सी लड़की।

उसके पिताजी शहर के सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। वे भी साइकिल से शहर जाते थे। उनका स्कूल दोपहर में समाप्त हो जाता था तो वे दोपहर ढलने तक गाँव वापस आते थे।

पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं कल्लू के साथ खेलूं।
वह ऐसी-ऐसी गालियाँ देता, जिन्हें सुनना भी हमारे यहाँ पाप माना जाता।

वैसे भी उसे पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं थी, क्योंकि उसे तो बड़े होकर अपने पिताजी की दुकान ही संभालनी थी।

लेकिन मेरे पिताजी मुझे पढ़ा-लिखा कर अफ़सर बनाने का सपना संजोए बैठे थे।

मास्टर जी बहुत सीधे-सादे आदमी थे, अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे।
वह थी ही प्यार करने लायक … बड़ी प्यारी और बड़ी मोहिनी।

मेरे पिताजी तो सारे दिन घर में होते नहीं थे। माँ घर के कामकाज में लगी रहती थीं। तब हम गाँव के ही छोटे से स्कूल में ही पढ़ते थे।

स्कूल खत्म होते ही हम तीनों खेल में जुट जाते, तरह-तरह के खेल खेला करते।

कल्लू को गुड्डे-गुडियों के खेल पसंद नहीं थे, ताश-लूडो खेलना हम जानते नहीं थे। तो हम घर-घर खेलते।

कल्लू हमेशा ही पति बनता, वो पत्नी और मैं नौकर। कभी कल्लू बन्ना बनता, वह बन्नो बनती और मैं पंडित बनता।

कल्लू किसी खेल की बारी कभी नहीं चुकाता था। खेलता, फिर बैग उठाता और चल देता।
वह हमेशा उसी की पत्नी या बन्नो बनकर रह जाती।
मेरी बारी तो कभी आती ही नहीं थी और मैं चूतिया की तरह हमेशा नौकर बनकर रह जाता।
मुझे गुस्सा तो बहुत आता, लेकिन कल्लू इतना अकड़ू था कि उससे लड़ने की हिम्मत मैं कभी जुटा नहीं पाया।

एक दिन हम शादी-शादी खेल रहे थे। हमेशा की तरह कल्लू बन्ना बना हुआ था और वह बन्नो।

पंडित ने दोनों की शादी की रस्म पूरी कराई ही थी कि कल्लू अपने घर चल दिया।
मैं तिलमिला गया।

मैंने हिम्मत जुटाई और चिल्लाया- मेरा बारी देकर जा!

उसने मुझे पलट कर भी नहीं देखा, बस चलते-चलते ही चिल्ला कर बोला- नहीं देता जा!

उस दिन मैं बदला लेने को आमादा था, इसलिए पूरी ताकत लगा कर कहा- बारी नहीं देगा तो तेरी बन्नो मैं रख लूंगा!

वह फिर भी नहीं मुड़ा, वैसे ही हवा में हाथ उड़ाता सा बोला- जा रख ले!

मैं रुआंसा हो आया, हाथ-पैर कांपने लगे।
तभी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसने अपने कोमल हाथों से मेरे गालों पर ढुलक आए आँसू पौंछे और बोली- कोई बात नहीं, आज से मैं तेरी बन्नो! खुश हो जा।

मैं शायद खुश हो भी गया था।

धीरे-धीरे हम बड़े हो गए।
हमारी पढ़ाई गाँव में जितनी होनी थी, हो गई थी।

जैसा कि तय था, कल्लू अपने पिताजी की दुकान पर बैठने लगा और मेरे पिताजी ने मेरा दाखिला शहर के स्कूल में करवा दिया।

मैं रोज सुबह उठता, तैयार होकर भारी बैग पीठ पर लाद कर छः किलोमीटर दूर स्कूल के लिए चल पड़ता।
जब तक घर वापस आता, सांझ ढलने को होती।

मैं पस्त हो जाता, लेकिन पिताजी मेरा हौंसला बढ़ाते रहते, वो मुझसे कहते- तुम्हें तो अफसर बनना है।

मास्टर जी ने अपनी बेटी को शहर के उसी स्कूल में प्रवेश दिला दिया, जिसमें वे पढ़ाते थे।
वे उसे अपने साथ साइकिल पर ले जाते और साथ वापस लाते।

रास्ता तो एक ही था। मुलाकात भी होती, लेकिन कुछ ऐसे कि मैं धीरे-धीरे पैदल जा रहा होता और मेरे बाजू से मास्टर जी की साइकिल गुजर रही होती। पता नहीं वह मेरी ओर देखती या नहीं, लेकिन मैं उसकी ओर देखने का साहस नहीं जुटा पाता।

हम बड़े होते जा रहे थे। हमारे वयस्क होने के चिह्न उभरने लगे थे।
आयु के इस मोड़ पर कभी हमारा सामना होता भी तो मेरे पैर कांपने लग जाते और वह लजा कर भाग जाती।

तब हमारे शहर में कॉलेज नहीं था।
पिताजी ने आगे की पढ़ाई के लिए मुझे महानगर में मामा के पास भेज दिया।

पीछे मुड़ कर देखने का अवसर नहीं था, फिर भी कभी-कभार मुझे आज से मैं तेरी बन्नो वाली बात याद आती और मन में सिहरन का अनुभव होने लगता।

तीज-त्यौहार पर जब कभी गाँव आना-जाना होता तो आँखें अनायास उसे ढूंढने लगतीं।

कभी आमना-सामना होता तो इस स्थिति में कि वह छत पर खड़ी होती और मैं गली में। हम एक-दूसरे को ठीक तरह से देख ही नहीं पाते क्योंकि यदा-कदा जब हमारी आँखें मिलतीं तो पल-दो पल में ही शर्म से झुक जातीं।

हमारे संस्कार ही ऐसे थे और ऊपर से बड़े-बुजुर्गों का डर भी बना रहता था।
समय के साथ-साथ आयु में वर्ष जुड़ रहे थे, अतीत धुंधलाने लगा था।
मैं वकालत कर रहा था, जज बनने के सपने मेरे मस्तिष्क में अपनी जड़ें गहरी बनाते जा रहे थे।
गर्मी की छुट्टियाँ हुई, हर बार की तरह इस बार भी मैं छुट्टियाँ बिताने गाँव आया।
अब माता-पिताजी और घर के अलावा गाँव की अन्य चीजों से पहले जैसा लगाव बाकी नहीं रह गया था।

घर पहुँचते ही पता चला कि उसकी शादी होने वाली है।
जाने-अनजाने अन्तर्मन में कुछ टूटने की आवाज हुई और मैं यह समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों हुआ था।

उसके यहाँ शादी की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं।
मुझे भी जिम्मेदार व्यक्ति की तरह काम सौंपे गए थे, लिहाजा मन में खासा उत्साह था। सुबह से रात तक किसी न किसी काम में लगा रहता।

धीरे-धीरे शादी का दिन आ गया।
गाँव-कस्बे के बड़े-बुजुर्ग, मुखिया तो सुबह से ही आकर जम गए थे। उनके लिए लस्सी-पानी का प्रबंध करते रहना भी बड़ा काम था। ऊपर से साज-सजावट, शाम के भोज की व्यवस्था … दम मारने की फुरसत नहीं मिल पा रही थी।

दिन कब बीत गया, पता नहीं चला।
अब तो बारात आने की बेला पास आ रही थी। स्त्रियां सज-संवर चुकी थीं।
ऊपर के कमरे में उसे दुल्हन बनाया जा रहा था।

खूब चहल-पहल थी।
मैं किन्हीं कामों में व्यस्त था कि तभी उसकी छोटी बहन आई, फुसफुसाते हुए बोली- दीदी आपको ऊपर कमरे में बुला रही है।

मैंने उस निर्देश को भी अन्य कामों की तरह ही लिया और सीधा ऊपर कमरे की ओर बढ़ चला।

कमरे का दरवाजा भिड़ा हुआ था और वहाँ उस समय कोई नहीं था।
मैं आगे बढ़ा और तनिक सहमते हुए दरवाजा खोला।

अंदर वह अकेली थी, लाल रंग की साड़ी और सुनहरे आभूषणों से सजी-संवरी वह एक ज्वाला की तरह लग रही थी।
मुझे वह एक अभिसारिका की तरह आकुल व उत्कंठित प्रतीत हुई।
जीवन का यह पहला अवसर था, जब मैं सजी-संवरी दुल्हन के इतने पास खड़ा था।

मैं निस्तब्ध था।

वह अचानक मेरे करीब आ गई।
अब हम एक-दूसरे की तेज चलती सांसों की आहट सुन पा रहे थे।
उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा लिया और बोली- कैसी लग रही है तुम्हारी बन्नो?

मैं चौंका, घबराया और लड़खड़ाते हुए बोला- सुंदर, बहुत सुंदर!
वह तपाक से बोली- तो अपनाया क्यों नहीं?
अपनी बात पूरी करते-करते उसका गला भर आया था।

“मतलब?” मैंने कहा।

“मतलब क्या? भूल गए? मैंने कभी तुमसे वादा किया था कि मैं केवल तुम्हारी बन्नो बन कर रहूँगी।”
उसकी आवाज में अधीरता थी।

“वे तो बचपन की बातें थीं!” मैंने कहा।

तो वह बोली- जवानी बचपन से ही निकल कर आती है, आसमान से तो नहीं टपकती। बचपन के वादे जवानी में निभाने चाहिए या नहीं? बोलो?

मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, चुप रहा।

वह फिर बोल उठी- मैंने तो बहुत प्रतीक्षा की। शायद कभी न कभी तुम कुछ कदम आगे बढ़ाओ, धीरे-धीरे मैं निराश हो गई। क्या करती, मैंने शादी के लिए हाँ कर दी।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ!

लेकिन मुँह से निकला- अब क्या हो सकता है?
उत्तर में वह बोली- चलो भाग चलते हैं।

“धत् … ऐसा कुछ नहीं हो सकता।” मेरे मुँह से अनायास ही निकला।

वह तनिक और आगे बढ़ आई और बोली- तुमसे कुछ नहीं हो सकता। पर मुझसे जो हो सकता वह तो मैं करूँगी।

वह मेरे और करीब आ गई और मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लिया।

हमारी सांसें तेज चल रही थीं।

उसकी उत्तेजना में …

तो मेरी घबराहट में!

वह किसी मदोन्मत्त की तरह मेरे आगोश में थी.

अब यह बखान करना तो बेमानी होगा कि उस समय जो कुछ हुआ वह क्या और कैसा था।
किस कमबख्त को ऐसे पलों में होश रहता है।

लेकिन मेरा पूरा शरीर आंधी में किसी पेड़ से लगे पत्ते की भान्ति कांप रहा था।
कोई देख न ले, यह शाश्वत भय न जाने कितने अवसर चूकने को मजबूर करता है।

मैंने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

अभी मैं छत से नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा था कि किसी ने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ लिया।

मैंने घबरा कर देखा तो वह भाभी थीं, सगी नहीं, परिवार-खानदान के रिश्ते वाली भाभी।

मेरी हमउम्र थीं और सच कहूँ तो वह हमारे परिवार की रौनक थीं।

मेरा हाथ पकड़े-पकड़े भाभी ने अपने आंचल से मेरे होंठ और गालों को रगड़ कर पौंछ डाला।

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और स्तब्ध खड़ा था।

आज पहली बार भाभी ऐसा कुछ करते हुए हंस नहीं रही थीं, वह गंभीर थीं, धीरे से बोलीं- लाली लगी थी, पौंछ दी है। इस हालत में नीचे जाते तो दोनों फांसी पर लटके मिलते।

मैं सिहर उठा।
वक्त की नजाकत को समझने में मुझसे भूल हुई थी।

भाभी बोलीं- जाओ, भूल जाओ उसे!

इस वक्त एकाएक अपना कुछ खोने जैसी कसक दिल में चुभती सी महसूस हुई।
आँखें नम हो आई।

फिर भी, मैंने खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हुए कहा- वो अब तक बचपन की बातें सहेज कर बैठी है।

भाभी धीरे से बोलीं- होता है … प्यार तो कच्ची उम्र में ही होता है।

“कच्ची उम्र नहीं भाभी …” मैंने कहा- वो सब बचपन की बातें हैं।

वह बोलीं- तुम सचमुच भाग्यवान हो। कोई तुम्हें बचपन से प्यार करता है।

मैंने उनकी बात पर ध्यान न देते हुए अपने को तनिक व्यवस्थित किया और कहा- बिना सोचे समझे यह कर डाला।

भाभी ने गहरी सांस ली और बोली- जो नासमझी में हो जाए वही प्यार है। सोच-समझ कर तो सौदा किया जाता है।

भाभी जो कुछ भी कह रही थीं वह उनके चिर-परिचित स्वभाव के नितांत विपरीत था।

मुझे उनके स्वर में टीस का आभास हो रहा था, मैं खुद को रोक नहीं पाया और मैंने उनसे बिंदास प्रश्न किया- भाभी, आपके साथ भी कुछ ऐसा.. मेरा मतलब, कभी आपने भी किसी से.. मैं प्रश्न पूरा कर पाता उससे पहले भाभी नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर जा चुकी थीं।

वह सीढ़ियाँ उतरते-उतरते बोलीं- स्त्रियाँ अपने विफल प्यार के किस्से नहीं सुनाया करतीं।

मैं अवाक खड़ा रह गया था।
दो आँसू जो मेरी आंख से ढलके उन्हे मैने अपनी हथेली से पोंछ लिया था ,उसकी चाहत की बदनामी ना हो शायद इसीलिए।

बेहद सुंदर, सच्ची, और भोली कहानी। और वैसी ही सच्ची भोली भाषा का प्रयोग! बहुत सुंदर 👌
भई वाह!! यहां तो देवनागरी में लिखने वाले भाइयों ने कमाल कर दिया है। सब कहानियां एक से बढ़कर एक 👏👏👏👌👍
 
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