अध्याय – 3
चारों ओर घना अंधेरा छाया हुआ था, आस – पास क्या कुछ था ये देखना भी संभव न था। मैं धीमे कदमों से उस अंधेरे में आगे बढ़ रहा था, मेरे कदमों के नीचे आ रही लकड़ियों और पत्तों के कुचले जाने से तीक्ष्ण स्वर भी उत्पन्न हो रहा था जो उस सन्नाटे को चीर रहा था। मैं नही जानता था कि मैं कहां था, क्यों था और यहां कब आया। मैं जानता था तो बस इतना कि यहां से निकलने का मार्ग मुझे बिल्कुल नज़र नहीं आ रहा था। परंतु कहीं न कहीं मुझे ये सब कुछ एक भ्रम समान ही प्रतीत हो रहा था। हर बीतते पल के साथ मानो अंधेरा और भी गहरा होने लगा था। अभी मैं एक ही दिशा में आगे बढ़ रहा था और तभी मुझे ऐसा लगा जैसे कोई ठीक मेरे पीछे खड़ा हो। मेरी सांसें अचानक ही तीव्र हो गई और माथे पर छलक रहा पसीना मेरे गालों से होते हुए नीचे गिरने लगा। मैंने अपना हृदय मज़बूत किया और एक दम धीरे से पीछे पलटा और पलटते ही मेरे मुख से स्वयं ही निकल गया, “तुम"!
वहां एक लड़की खड़ी थी जिसने पीले रंग की पोशाक पहनी हुई थी। वो पोशाक क्या थी, ये मैं ठीक से देख नही पाया। उसका चेहरा भी अंधेरे में खो सा गया था परंतु उसकी आंखें मैं साफ देख पा रहा था और उन्हीं आंखों को देख कर मैं हैरान सा हो गया था और मेरे मुख से वो शब्द फूट पड़ा। ना जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो आंखें किसी और की नही अपितु मेरी ही थीं। मेरी आंखों की पुतलियों का रंग काला ना होकर भूरा था, और बचपन से ही जिससे भी मैं मिलता वो एक बार तो ज़रूर कहा करता कि तुम्हारी आंखों में कुछ तो अलग है। उन आंखों को देखकर मुझे भी कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। मैं जानता था कि कहीं तो मैंने ये आंखें देखी थी, परंतु कहां ये स्मरण नही हो रहा था। खैर, अभी मैं उन आंखों की कशिश की चपेट में था कि तभी उस लड़की की आवाज़ मुझे सुनाई दी जिसने मेरा वजूद हिलाकर रख दिया।
उसके शब्द, “छोड़ गए ना तुम मुझे इस जंगल में, मरने के लिए"... ये शब्द मुझे झकझोर रहे थे। नहीं जानता था वो कौन थी, और ना ही ये जानता था कि उसके शब्दों का अर्थ क्या था, परंतु उसके स्वर में झलक रही पीड़ा मुझे हिला कर रख देने के लिए पर्याप्त थी। उसकी आवाज़ सुनकर भी मुझे वही अनुभूति हुई जो उसकी आंखें देखकर हुई थी। जैसे कहीं तो, कभी तो उसे सुना हो मैंने। उसके स्वर से मैं चौंका ही था कि तभी एक तेज़ गुर्राहट मेरे कानों में पड़ी। ये ध्वनि मेरे दाईं ओर से ही आई थी, मैंने उस तरफ जैसे ही देखा, वो जीव उस लड़की के ऊपर झपट पड़ा और,
“नहींहींहींहींहींहींहींहींहीं"...
एक साथ ही उस लड़की की और मेरी चीख निकल गई। जहां वो लड़की उस जीव का ग्रास बन चुकी थी वहीं मैं अपने बिस्तर से उठकर बैठ गया। मैंने अपने चेहरे को छुआ तो वो पूरी तरह से पसीने से तर था, तभी मुझे अनुभव हुआ कि मेरे हाथ बुरी तरह कांप रहे थे और ये देखकर स्वतः ही मेरे मुख से निकल गया, “आज.. आज फिर यही सपना"। तीन बरस हो चुके थे मुझे उज्जैन आए हुए और तीन ही बरस से यही सपना मुझे परेशान करता। इस सपने के बाद, सुबह जब भी मैं जागता, मेरे हाथ बुरी तरह से कांप रहे होते। पहले तो हफ्ते – दस दिन में एक दफा ये सपना आया करता परंतु पिछले आठ दिन से लगातार, हर रात मुझे यही स्वप्न परेशान किए जा रहा था। खैर, इसके बारे में अधिक ना सोचकर मैं उठा और कमरे से ही जुड़े स्नानघर में घुस गया। ठंडे पानी के छींटे जब मैंने अपने मुंह पर मारे तब जाकर मुझे कुछ बेहतर लगा।
आज मुझे कॉलेज भी जाना था और उसके पश्चात नौकरी पर भी। इसीलिए मैं जल्दी से नित्य क्रिया से फुर्सत होकर रसोईघर में पहुंच गया, नाश्ता बनाने के लिए। परंतु तभी मुझे घर का दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी और अचानक ही सुबह से मेरे दिल में चल रही सारी परेशानी गायब हो गई। क्योंकि मैं पहचान गया था कि दरवाज़े पर कौन था। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला मेरा अंदाज़ा सही साबित हो गया। ये अस्मिता ही थी, और मैं जानता था की वो इतनी सुबह यहां क्यों आई होगी। मैंने उसे देखकर कुछ नहीं कहा, बस मुस्कुराकर अपना दाहिना हाथ आगे की तरफ कर दिया। उसने भी मुस्कुराते हुए उसमें एक छोटा डिब्बा रख दिया फिर बिन कुछ कहे मुझे दो पल देखकर वहां से चल दी।
मैं कुछ देर तक उसे जाते देखता रहा और फिर अंदर आकर खाने की मेज पर बैठ गया। मैंने जैसे ही वो डिब्बा खोला मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गई, क्योंकि ये वही सुगंध थी जिसका मैं दीवाना था। बचपन से ही मुझे पोहा खाना कुछ ज़्यादा पसंद नही था परंतु जब पहली बार मैंने अस्मिता के हाथ का बना पोहा खाया था, तबसे ही मैं इस व्यंजन का दीवाना हो गया था। अस्मिता भी इस बात से परिचित थी, इसीलिए जब भी वो सुबह नाश्ते के लिए पोहा बनाती,याद से मुझे दे जाया करती। खैर, मैंने अपनी आदत अनुसार जल्दी – जल्दी खाना शुरू किया और कुछ ही पलों में वो डिब्बा खाली हो चुका था। मैं उठा और अपना बस्ता लेकर बाहर निकल आया, जब मैं बाहर मुख्य दरवाजे (जो लोहे का बना था) उसपर ताला लगा रहा था तभी अस्मिता भी अपने घर से बाहर निकली। मैं ताला लगाते हुए भी उसके दरवाज़े को ही ताक रहा था, फलस्वरूप जैसे ही वो बाहर निकली हमारी नज़रें मिल गईं। आज अस्मिता का चेहरा और दिनों के मुकाबले अधिक खिला – खिला सा लग रहा था जिसका कारण मैं जानता था।
कल रात...
अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...
जैसे ही अस्मिता ने मुझसे ये शब्द कहे मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव गर्दिश करने लगे। हां, मैं और अस्मिता, हम दोनों ही एक – दूसरे के प्रति कुछ भाव अपने – अपने दिलों में रखते थे, वो जानती थी मेरे भावों को और मैं जानता था उसके विचारों को। परंतु आज से पहले उसने यूं खुलकर अपने दिल का हाल कभी बयान नही किया था। मैं तो फिर भी कभी – कभी उसे अपनी बातों और क्रियाओं से छेड़ दिया करता था परंतु अस्मिता.. कभी नहीं। शायद, दादी और मेरी बातों का कुछ गहरा असर पड़ा था उस पर। खैर, जैसे ही उसने अपनी बात खत्म की और मेरे चेहरे पर उभरी हैरानी से वो वाकिफ हुई, तभी उसके गालों पर लाली आने लगी।
वो कह तो गई थी परंतु क्यों और कैसे, ये शायद वो खुद भी नही जानती थी। इसीलिए वो अगले ही पल पलटकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई और मेरे कदम भी कुछ पलों बाद ठीक उसके पीछे ही चल दिए। वो गैस स्टोव की सामने खड़ी थी और आटे की लोई बनाकर उसे बेलने में लगी थी। मैं ठीक उसके बगल में खड़ा हो गया और एक टक उसके चेहरे को देखने लगा। उसे मेरे आगमन की अनुभूति हो चुकी थी पर वो अपने काम में ही लगी रही। पता नही कैसे पर मेरा हाथ स्वयं ही उसके चेहरे की तरफ बढ़ा, और उसकी विचलित होती सांसों के बीच उसके दाएं गाल पर मेरी उंगलियां स्पर्श हो गई। मैंने अपनी उंगलियों पर थोड़ा ज़ोर दिया तो उसका चेहरा मेरी तरफ मुड़ गया और एक दफा फिर उसके गालों पर लालिमा ने घेरा डाल लिया। अब भी उसकी नज़रें नीचे झुकी हुई थी और वो मुझे देखने से कतरा रही थी।
मैं : आशु, देखो मेरी तरफ...
परंतु अभी भी वो नीचे ही देख रही थी, मैंने एक दफा फिर उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और उसकी ठुड्डी को अपनी उंगलियों से सहारे ऊपर की तरफ उठा दिया। बस उसी पल उसकी आंखें पुनः मेरी आंखों से मिल गई, और प्रथम बार वो भाव उसकी आंखों में छलका जो देखने हेतु मैं ना जाने कबसे आतुर था। केवल और केवल प्रेम, केवल यही भाव था उसकी आंखों में जो वो मुझसे छुपाना चाहती थी परंतु छुपा नही पाई। उसके शरीर में हल्की सी कम्पन भी मैं महसूस कर पा रहा था और इसीलिए मैंने उसके हाथों को अपने हाथों में थामा और उसकी आंखों में प्रेम भाव से देखते हुए कहा,
मैं : देखना, एक दिन तुम्हें अपनी बना लूंगा मैं...
बस, मुझे लगा कि शायद इससे अधिक कुछ कहना कहीं ज़्यादा ना हो जाए, इसीलिए मैं पलटकर रसोई घर से बाहर की तरफ बढ़ गया पर तभी उसकी मधुर आवाज़ मेरे कानों में पड़ी,
अस्मिता : मैं इंतज़ार करूंगी!
मेरे होंठों पर स्वतः ही एक मुस्कुराहट आ गई और फिर मैं दोबारा दादी के कमरे में चला गया। खैर, उसके बाद अस्मिता के हाथों से बना भोजन हम तीनों ने साथ में किया, और सही मायेनों में, उसे ग्रहण कर मेरी आत्मा तक तृप्त हो गई।
वर्तमान समय...
यही कारण था अस्मिता के चेहरे पर दिखाई दे रही उस खुशी का जो आज से पहले मैंने कभी नहीं देखी थी। वो मेरी ही तरफ आई पर मुझसे बिना कुछ कहे मुस्कुराते हुए आगे भी बढ़ गई। मैं अब तक ताला लगा चुका था और उसे जाते देखकर सर हिलाता हुआ मैं भी उसके पीछे ही चल दिया। तभी उसकी चलने की गति थोड़ी धीमी हो गई और इससे अनजान होने के कारण मैं हल्के से उससे टकरा गया। परंतु इस झटके के कारण मेरा बटुआ जिसे मैं अभी अपनी जेब में रख ही रहा था, मेरे हाथ से गिर पड़ा। अस्मिता उस झटके के कारण एक दम से पलटी और उसकी नज़र भी मेरे बटुए पर पड़ गई और उसी क्षण उसकी खुशी शायद गुस्से में परिवर्तित हो गई।
उसने एक दफा मेरी ओर देखा और फिर झुककर मेरा बटुआ उठा लिया। उसके भीतर एक लड़की की तस्वीर लगी हुई थी, और यही कारण था उसके बदले भावों का।
अस्मिता : कौन है ये?
उसने सीधे मुझसे सवाल किया और उसका स्वर आज पहली बार मुझे क्रोधपूर्ण लग रहा था। मैं हल्का सा मुस्कुराया और उसे परेशान करने के लिए,
मैं : जिससे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करता हूं, वो...
अस्मिता की आंखें बड़ी हो गई और वो मानो मुझपर झपट ही पड़ी। हम दोनों पगडंडी के छोर पर खड़े थे और उसे आस – पास की कोई फिक्र थी ही नहीं। वैसे वहां कोई फिलहाल था भी नही परंतु होता भी तो अस्मिता को क्या ही फर्क पड़ना था। उसने एक दम से मेरे गिरेबान को अपने हाथों में भींच लिया और अपनी जलती हुई निगाहों के ताप से मेरे चेहरे को जलाते हुए बोली,
अस्मिता : फिर से कहना..
वैसे तो मैं उसे परेशान ही कर रहा था परंतु उसका ये रूप देखकर सत्य में मेरे भी प्राण सूख गए।
मैं : आ.. आरोही की तस्वीर ह.. है ये।
अपने आप ही मेरी आवाज लड़खड़ा सी गई थी, जाने क्यों उसके बदले रूप ने अचानक ही मुझे डरा दिया था। परंतु मेरी बात सुनकर वो एक दम से मुझसे अलग हो गई और कुछ पल मुझे देखती रही। मेरे घबराए चेहरे को देखकर अचानक ही वो खिलखिलाकर हंसने लगी और उसकी हंसी देखकर मैं भी शांत हो गया।
अस्मिता : बहुत बुरे हो तुम।
उसने इतना कहकर मुस्कुराते हुए ही मेरा बटुआ मुझे वापिस थमा दिया और आगे की ओर चल दी। मैं भी चुप – चाप उसके पीछे ही चल दिया, पर जब काफी देर तक वो कुछ नहीं बोली तो,
मैं : नाराज़ हो क्या?
उसने एक अदा से मेरी ओर देखा और,
अस्मिता : मुझे तो आज ही पता चला की आप डरते भी हैं मुझसे।
मैंने उसकी बात सुनकर अपनी नजरें फिरा ली पर उसकी हंसी की आवाज़ दोबारा मुझे सुनाई देने लगी।
अस्मिता : वैसे.. तुम्हारी और आरोही की आंखें बिल्कुल एक जैसी हैं।
जैसे ही उसके शब्द मेरे कानों में पड़े, मेरे कदम वहीं थम गए और अचानक से ही वो स्वप्न पुनः मेरी आंखों के आगे आ गया...
यशपुर, हरिद्वार से कुछ 50 किलोमीटर दूर बसा है ये गांव। पहाड़ियों से कुछ ही दूर होने के कारण यहां मौसम अक्सर सुहावना सा ही रहता है। यशपुर की पूर्वी सरहद से लगभग 2 – 3 किलोमीटर दूर एक बेहद ही घना जंगल भी है। आम तौर पर ग्रामवासी इस जंगल की जाने से कतराते हैं क्योंकि यशपुर और पास के 18 गावों में एक ही बात फैली हुई है कि इस जंगल में किसी प्रेत आत्मा का निवास है। जो लोग प्रेतों में विश्वास करते हैं वो केवल इस जंगल का नाम सुनकर ही डरने लगते हैं और जो प्रेतों और आत्माओं को मिथ्या मानते हैं, वो जंगली जानवरों के भय से इस जंगल में नही जाते। अभी 4–5 बरस पहले की ही बात है, एक लकड़हारों का समूह लकड़ी काटने के प्रयोजन से इस जंगल में गया था पर वहां से यदि कुछ लौटा तो वो थी उनकी चींखें और जानवरों के गुर्राने का शोर। फलस्वरूप, ग्रामवासियों ने इस जंगल में ना जाने का निश्चय कर लिया।
यशपुर के मध्य में एक बेहद ही विशालकाय हवेली,या कहूं महल, बना हुआ है। ये हवेली सूर्यकांत सिंह राजपूत की है और वो इस हवेली में अपने परिवार के साथ रहते हैं। इसी हवेली में यशपुर के कुछ ग्रामवासी नौकरों और श्रमिकों के रूप में कार्यरत भी हैं और उन सभी की पूर्ण निष्ठा है सूर्यकांत सिंह के प्रति। इसका कारण, सूर्यकांत सिंह और उनके स्वर्गवासी पिता का दयालु और कृपालु स्वभाव है। सूर्यकांत सिंह वर्षों से यशपुर के निवासियों की आर्थिक तौर पर और उसके अतिरिक्त भी कई मुसीबतों में सहायता करते आए हैं।
इसी हवेली के एक कमरे की खिड़की पर एक लड़की गुमसुम सी होकर खड़ी थी। उसकी नज़रें सामने बहुत दूर नज़र आ रही पहाड़ियों पर गड़ी हुई थी। पहाड़ियों की श्रृंखला हवेली से काफी दूर थी पर ये उनकी विराटता ही थी कि हवेली से भी उन्हें देखा जा सकता था। इस दूरी के ही कारण, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बादलों के एक समूह ने इन पहाड़ियों को चारों तरफ से घेरा हुआ हो। फलस्वरूप, पहाड़ियों का वो दृश्य बेहद ही रमणीय था। वो लड़की जाने कबसे खड़ी उन पहाड़ियों को ताकते हुए कुछ स्मरण करने का प्रयास कर रही थी। परंतु ये उसके विचलित से मन का ही प्रभाव था कि जैसे ही उसकी यादों में वो तस्वीर पनपने लगती, अचानक से ही वो धुंधली हो जाती।
कुछ पलों बाद वो लड़की खिड़की के निचले हिस्से से पीठ लगाकर ज़मीन पर ही बैठ गई। उसने अपने दोनों घुटनों को मोड़ा हुआ था और दोनो हाथों के मध्य अपना सर टिकाया हुआ था। नतीजतन, उसका चेहरा, या कहूं कि उदासी भरा चेहरा कमरे के दरवाज़े से ही दिखाई पड़ रहा था। वो लड़की वहां मायूस बैठी अपनी सोचों में गुम थी कि तभी उसके कानों में एक आवाज़ पड़ी, “क्या हुआ आरोही"? उसने अपनी नज़रें उठाकर देखा तो उसके सामने एक नवयुवती खड़ी थी। असल में ये युवती आरोही के कमरे के पास से गुज़र रही थी कि तभी इनकी नज़र आरोही पर पड़ गई और इसके चेहरे पर झलक रही उदासी इसकी नज़रों से नही बच पाई। आरोही ने उसे देखकर जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की और कहा,
आरोही : कुछ नहीं भाभी...
शुभ्रा, अर्थात आरोही की भाभी उसके पास ही ज़मीन पर बैठ गई और उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए बोली,
शुभ्रा : कम से कम मुझसे तो झूठ मत बोलो आरोही।
ये सुनकर एक फीकी सी मुस्कान, जोकि व्यंग्यात्मक भी थी, आरोही के चेहरे पर उभर आई।
आरोही : झूठ? जब झूठ ज़रूरी बन जाए तो उसे संभाल कर रखना पड़ता है भाभी।
आरोही की बात सुनकर एक पल को तो शुभ्रा हैरान हो गई पर फिर,
शुभ्रा : लेकिन झूठ को ज़रूरत बनाने की ज़रूरत ही क्या है?
आरोही : आप नही जानती भाभी, इस झूठ को तीन बरस से अपने अंदर पाले बैठी हूं मैं। ना तो मैं कभी आपको इसकी उपयोगिता समझा पाऊंगी और ना आप समझ पाओगी। क्योंकि अगर इस झूठ का सच सामने आ गया, तो जाने कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी...
आरोही की बात सुनकर शुभ्रा पूरी तरह से हैरान हो गई। तीन बरस पहले शुभ्रा की शादी इस परिवार में हुई थी। शादी के कुछ ही दिन बाद उसे पता चल गया था कि उसके पति विक्रांत के छोटे भाई विवान को इस घर से एक महीना पहले ही निकल दिया गया था। यहां तक की सूर्यकांत सिंह ने यशपुर से विवान का हुक्का – पानी बंद कर दिया था और यशपुर के सभी निवासियों को चेतावनी दी थी कि जो भी उसे आसरा देगा या उसकी सहायता करेगा उसे भी यही सज़ा मिलेगी। शुभ्रा इस हैरतंगेज तथ्य का कारण कभी नहीं जान पाई। हां, उसने गांव की कुछ महिलाओं के मुंह से सुना ज़रूर था कि एक लड़की की इज्ज़त के खातिर एक दादा को अपने पोते को इतनी कड़ी सज़ा देनी पड़ी थी, परंतु वो इस घटना की असली और पूर्ण वजह कभी नहीं जान पाई।
शुभ्रा ने हवेली के लगभग सभी लोगों से पूछा, परंतु हर कोई उसकी बात को टाल देता। शुभ्रा आरोही से भी ज़रूर पूछती और शायद आरोही उसे बता भी देती, परंतु शुभ्रा ने देखा था कि जब भी आरोही के सामने विवान का जिक्र होता उसका व्यवहार असामान्य सा हो जाता। कभी वो खुदको दो – दो दिन तक अपने कमरे में बंद कर लेती तो कभी खाना – पीना छोड़ देती। एक बात शुभ्रा भली – भांति समझ गई थी कि इस हवेली का हर शख्स कुछ न कुछ रहस्य अपने भीतर दबाए हुए था और अब आरोही की बात ने उसे और भी अधिक हैरान कर दिया था।
शुभ्रा : आरोही तुम मुझे बता सकती हो, शायद मैं तुम्हारी मदद...
आरोही : मेरी मदद? अगर मैने आपको सच्चाई बता दी तो आपकी मदद कौन करेगा भाभी? इस झूठ का सच यदि बाहर आया तो सबसे बड़ा घाव आपके ही जीवन पर लगेगा। इसीलिए यही सही होगा कि ये झूठ ऐसे ही चलता रहे, वैसे भी अब मुझे आदत हो गई है।
इतना कहकर आरोही अपनी भीगी हुई आंखों के साथ कमरे से ही जुड़े स्नानघर में चली गई और इधर शुभ्रा हैरानी से मुंह खोले उसे जाते देखती रही...
X––––––––––X