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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

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What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

avsji

Weaving Words, Weaving Worlds.
Supreme
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159
सबसे पहले धन्यवाद कि आपने फिर से कहानी शुरू कर दी, और न ही शुरू कर दी, बल्कि बड़ी ही तीव्र गति से आगे भी बढ़ा दी। अच्छी बात है (और जैसा कि आशा थी) कि सभी पाठकों ने तुरंत ही इस पुनर्जीवित कहानी को हाथों-हाथ इसको ले भी लिया! ढेर सारे कमैंट्स और रिएक्शंस देखने को मिले! अच्छा भी लगा। इस लिहाज़ से आपकी शंका और शिकायतें बेबुनियाद साबित हुईं! हाँ, मैं ही पीछे रह गया! लेकिन उसके कई कारण थे। उस पर चर्चा कभी बाद में, या फिर कभी नहीं!

अब आते हैं कहानी के पिछले कई अपडेट्स पर मेरी प्रतिक्रिया पर! :)

कहानी में घटनाक्रम बड़ी तेजी से, लेकिन उम्मीद के अनुरूप ही बदले/बढ़े। ठाकुर साहब ने साहूकार परिवार के लगभग सभी पुरुषों का अंत कर दिया। और यह क़दम प्रतिशोध से प्रेरित था, न्याय से नहीं। एक पुरानी रंजिश का खामियाज़ा ठाकुरों और साहूकारों दोनों ने ही आज उठाया। मैं हमेशा से सोचता था कि कोई भीतरघाती ही है, लिहाज़ा, मुंशी को इस साज़िश के पीछे देख कर बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। फिर भी, अगर उसकी पत्नी स्वयं को सम्हाल नहीं सकती, तो उसका परिणाम अन्य लोगों की हत्या नहीं होना चाहिए। ये निहायत ही गिरी हुई सोच है। स्वयं पर नियंत्रण न हो, और उसका दोष किसी और के मत्थे मढ़ दो! ये तो गज़ब की अदा ठहरी! फिर भी, ठाकुर साहब एक शक्तिशाली व्यक्ति थे, और उनको अपनी शक्ति का ऐसा दुरूपयोग नहीं करना चाहिए था।

फिर पता चला कि साहूकारों की नफ़रत का कारण बड़े ठाकुर द्वारा गायत्री देवी का बलात्कार और शोषण करना था। यह एक ऐसी अमिट चोट होती है, जो शायद ही कोई भुला सके। किन्तु, उसके एवज़ में वैभव के बड़े भाई और चाचा की हत्या करना न्याय-संगत नहीं है। बलात्कारी बड़ा ठाकुर था - तो हत्या भी उसी की होनी चाहिए थी। वो प्रतिशोध भी होता, और न्याय भी। किसी अन्य की हत्या अपराध करना हुआ। दादा ठाकुर ने अपने पिता के कुकृत्य के लिए साहूकारों से क्षमा भी माँगी थी, फिर भी साहूकारों ने ये सब किया! इस लिहाज़ से दादा ठाकुर की कार्यवाई सही साबित प्रतीत होती है। इन सबके बीच सफ़ेदपोश का रहस्य अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। कौन हो सकता / सकती है वो? एक मज़ेदार बात हुई कि एक गाँव में इतने सारे लोगों की हत्या हो गई, लेकिन क़ानून की सुई टस से मस नहीं हुई। न किसी को पकड़ा गया और न किसी को सज़ा हुई! ख़ैर, लगता है कि ईश्वरीय न्याय ही होगा सभी हत्यारों के साथ!

इस बीच वैभव और भाभी के बीच होने वाले संवाद बड़े अनूठे हैं। अगर वैभव के चरित्र पर शक़ न होता, तो संभव है कि हम पाठक इस बारे में अधिक न सोचते। लेकिन, न जाने क्यों, कुछ अनगढ़ सा लग रहा है दोनों के बीच। ऐसा नहीं है कि भाभी-देवर की शादी नहीं होती। बहुत होती है, और सामाजिक तौर पर मान्य भी है। तो देखना है कि इन दोनों का क्या होता है। ख़ास कर तब, जब सफ़ेदपोश का रहस्य ख़तरा अभी भी बना हुआ है।

फिर अचानक ही नई बात आ गई... नई बात, मतलब रूपचंद और कुसुम के विवाह की सम्भावना! पढ़ते ही लगा कि इस बात में कुछ लोचा ज़रूर है। एक दूसरे के खून के प्यासे दो परिवार और वैवाहिक सम्बन्ध! न भाई! फूलवती की इस बात पर भरोसा तो नहीं होता। दोनों परिवारों में सम्बन्ध की अदला-बदली हो, तभी ख़टास में "थोड़ी" कमी आ सकती है, एक-तरफ़ा सम्बन्ध से नहीं। और वैसे भी, अभी तक के सभी अपडेट्स पढ़ कर मुझको ऐसा ही लगा कि केवल दादा ठाकुर ही अपने किए पर दुःखी हैं, साहूकार नहीं। उनमें शायद ही दुःख या पश्चाताप बचा हुआ है। ऐसे में, ठाकुरों का साहूकारों पर विश्वास करना मूर्खता है।

और अंततः आते हैं, सबसे नए, अपडेट #80 पर! सारे शक़ सही हैं मेरे - कोई भी नहीं सुधरा है! सभी नफ़रत का ज़हर जी रहे हैं और उसको अच्छे तरीके से पाल पोस रहे हैं! चंद्रकांत और रघुवीर - दोनों अभी भी वैभव की जान के पीछे पड़े हैं। फूलवती में भी वही घुन्नापन है, जो नफरती औरतों में देखने को मिलता है। कुसुम के रूप में वो अपने हाथ में ठाकुरों के विरुद्ध एक तुरुप का इक्का रखना चाहती थी शायद। लेकिन उसके इस मंसूबे पर पानी पड़ता दिख रहा है। जो एक अच्छी बात है। सफ़ेदपोश कौन है, अभी भी कोई सुराग नहीं उस रहस्य का।

वैभव और भाभी में अकेलेपन / सूनेपन / खुशियों / वैधव्य को ले कर जो बातें होती हैं, वो कहीं उन दोनों के बीच किसी नए सम्बन्ध को जन्म न दे दें! इतना तो तय है कि भाभी उसके साथ किसी नाजायज़ सम्बन्ध में नहीं पड़ने वाली। ऐसे में दोनों के बीच विवाह एक उत्कृष्ट परिणाम हो सकता है। वैसे भी, अनुराधा और रूपा इन अभूतपूर्व परिस्थितियों के कारण बाहर ही दिखाई दे रही हैं। रूपा और वैभव -- कुसुम और रूपचंद का अदला-बदली वाला सम्बन्ध हो जाए, तो अलग बात है! मैंने पहले भी लिखा था कि ठाकुर और साहूकार परिवार के बीच अगर शांति चाहिए, तो रूपा और वैभव का मेल एक वाज़िब हल है। लेकिन अगर वो न हो, तो ऐसे में केवल वैभव की भाभी ही बचती हैं।

अंत में -- बहुत बढ़िया TheBlackBlood भाई! शब्दों और रहस्यों का बढ़िया जाल बुना है आपने! लिखते रहें! आनंद से रहें! :)
 

Sanju@

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अध्याय - 78
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"कोई तो वजह ज़रूर है।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"जिसके चलते वो तुम्हारे खिलाफ़ हो कर उस सफ़ेदपोश व्यक्ति का मोहरा बन गए। ख़ैर सच का पता तो अब उनसे रूबरू होने के बाद ही चलेगा। हमें जल्द ही इस बारे में कोई क़दम उठाना होगा।"


अब आगे....


आसमान में काले बादल मंडरा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे आज बारिश ज़रूर होगी। आज कल काफी गर्मी होती थी। जिसकी वजह से अक्सर लोग बीमार भी पड़ रहे थे। मैं अपनी मोटर साईकिल द्वारा भुवन से मिलने अपने नए बन रहे मकान में आया था। मकान लगभग तैयार ही हो गया था, बस कुछ चीजें शेष थीं जोकि कुछ दिनों में पूरी हो जाएंगी। भुवन किसी काम से कहीं गया हुआ था और मैं उसी का इंतज़ार कर रहा था।

मेरे ज़हन में मकान को देखते हुए कई सारे विचार उभर रहे थे। जिसमें सबसे पहला विचार यही था कि मैंने क्या सोच कर यहां पर ये मकान बनवाया था और अब क्या हो चुका था। ऐसा क्यों होता है कि हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है? मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं अपने चाचा और बड़े भाई को इस तरह से खो दूंगा। यूं तो मुझे दोनों के ही इस तरह चले जाने का बेहद दुख था लेकिन सबसे ज़्यादा दुख अपने भाई के चले जाने का हो रहा था। क्योंकि उनके चले जाने से भाभी का जैसे संसार ही उजड़ गया था।

सुहागन के रूप में कितनी खूबसूरत लगती थीं वो। मैं हमेशा उनके रूप सौंदर्य पर मोहित हो जाता था। अपनी ग़लत आदतों की वजह से मैं हमेशा उनसे दूर ही रहता था। मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि उनके रूप सौंदर्य को देख कर मेरे मन में ग़लती से भी उनके प्रति ग़लत ख़याल आ जाए। हालाकि मेरे ना चाहने पर भी ग़लत ख़याल आ ही जाते थे मगर फिर भी मैं अब तक अपनी कोशिशों में कामयाब ही रहा था और अपनी भाभी के दामन पर दाग़ लगाने से खुद को रोके रखा था। मगर ये जो कुछ हुआ है वो हर तरह से असहनीय है।

जिस भाभी के चेहरे पर हमेशा नूर रहता था उनका वही चेहरा आज विधवा हो जाने के चलते किसी उजड़े हुए चमन का हिस्सा नज़र आने लगा था। मेरा हर सच जानने के बावजूद वो मेरी परवाह करती थीं और हवेली में सबसे बड़ा मेरा मुकाम बना हुआ देखना चाहती थीं। अपने जीवन में मैंने उनके जैसी सभ्य, सुशील, संस्कारी और सबके बारे में अच्छा सोचने वाली नारी नहीं देखी थी। बार बार मेरे मन में एक ही सवाल उभरता था कि इतनी अच्छी औरत को ऊपर वाला इतना बड़ा दुख कैसे दे सकता है? मैंने उन्हें हमेशा खुश रखने का उनसे वादा तो किया था लेकिन मैं खुद नहीं जानता था कि उनके इतने बड़े दुख को मैं कैसे दूर कर सकूंगा और कैसे उन्हें खुशियां दे पाऊंगा? सच तो ये था कि मेरे लिए ऐसा कर पाना बिल्कुल भी आसान नहीं था।

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक ही आसमान में बिजली चमकी और अगले कुछ ही पलों में तेज़ गर्जना हुई। मेरे देखते ही देखते कुछ ही पलों में बूंदा बांदी होने लगी। मकान में काम कर रहे मजबूर बूंदा बांदी होते देख बड़ा खुश हुए। फ़सल काटने के बाद की ये पहली बारिश थी जो होने लगी थी। पहले बूंदा बांदी और फिर एकदम से तेज़ बारिश होने लगी। चारो तरफ एकदम से अंधेरा सा हो गया। मैं मकान के दरवाज़े के बाहर ही बरामदे में बैठा हुआ था। बाहर जो मज़दूर मौजूद थे वो भीगने से बचने के लिए भागते हुए जल्दी ही बरामदे में आ गए। मैं दरवाज़े के पास ही एक लकड़ी के स्टूल पर बैठा हुआ था। तेज़ हवा भी चल रही थी जो बारिश में घुल कर ठंडक का एहसास कराने लगी थी। दरवाज़े के बाहर बरामदे जैसा था इस लिए बारिश के छींटे मुझ तक नहीं पहुंच सकते थे। देखते ही देखते तपती हुई ज़मीन में छलछलाता हुआ पानी नज़र आने लगा। ज़मीन से एक अलग ही सोंधी सोंधी महक आने लगी थी।

बारिश इतनी तेज़ होने लगी थी कि दूर वाले पेड़ पौधे धुंधले से नज़र आने लगे थे। एकाएक मेरी घूमती हुई निगाह एक जगह पर ठहर गई और इसके साथ ही मेरे माथे पर सिलवटें भी उभर आईं। जल्दी ही मेरी नज़र ने उस जगह पर भागते व्यक्ति को पहचान लिया। वो अनुराधा थी जो तेज़ बारिश में दौड़ते हुए इस तरफ ही आ रही थी। अनुराधा को इस तरह यहां आते देख मेरी धड़कनें बढ़ गईं। ज़हन में ख़याल उभरा कि ये यहां क्यों आ रही है?

"अरे! वो तो अनुराधा बिटिया है न रे भीखू?" बरामदे के एक तरफ खड़े एक अधेड़ मज़दूर ने दूसरे आदमी से पूछा____"ये बारिश में यहां कहां भींगते हुए आ रही हैं?"

"अपने भाई भुवन से मिलने आ रही होगी।" दूसरे मज़दूर ने कहा____"लेकिन बारिश में नहीं आना चाहिए था उसे। देखो तो पूरा भीग गई है ये।"

मज़दूरों की बात सुन कर मैं ख़ामोश ही रहा। असल में मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? मैं तो खुद सोच में पड़ गया था कि वो यहां क्यों आ रही है, वो भी बारिश में भींगते हुए। मेरे देखते ही देखते वो जल्दी ही हमारे पास आ गई। गीली और पानी से लबरेज़ मिट्टी पर थल्ल थल्ल पैर जमाते हुए वो बरामदे में आ गई। उसकी नज़र अभी मुझ पर नहीं पड़ी थी। शायद तेज़ बारिश के चलते वो ठीक से सामने का नहीं देख रही थी। मैंने देखा सुर्ख रंग का उसका कुर्ता सलवार पूरी तरह भीग गया था। दुपट्टे को उसने सिर पर ओढ़ा हुआ था जिसे उसने बरामदे में आते ही जल्दी से सीने पर डाल लिया। भीगे होने की वजह से उसके सीने के उभार साफ नज़र आ रहे थे।

"अरे! इतनी तेज़ बारिश में तुम यहां क्यों आई हो अनुराधा?" भीखू ने उससे पूछा____"देखो तो सारे कपड़े गीले हो गए हैं तुम्हारे और ये क्या, तुम्हारा एक चप्पल टूट गया है क्या?"

"हां काका।" अनुराधा ने मासूमियत से कहा____"शायद दौड़ने की वजह से टूट गया है। वैसे उसे टूटना ही था। पुराना जो हो गया था।"

"पर तेज़ बारिश में तुम्हें यहां भींगते हुए आने की क्या ज़रूरत थी?" भीखू ने कहा____"भींगने से बीमार पड़ गई तो?"

"मुझे क्या पता था काका कि इतना जल्दी बारिश होने लगेगी।" अनुराधा ने अपने चप्पल को पैर से निकालते हुए कहा____"जब घर से चली थी तब तो बूंदा बांदी भी नहीं हो रही थी।"

"हां लगता है तुम्हारे घर से निकलने का ही ये बारिश इंतज़ार कर रही थी।" भीखू ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"ख़ैर भुवन तो यहां है ही नहीं। हमारे छोटे कुंवर भी उसी का इंतज़ार कर रहे हैं यहां।"

अनुराधा भीखू के मुख से छोटे कुंवर सुन बुरी तरह चौंकी। उसने फिरकिनी की तरह घूम कर पीछे देखा तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ गई। उफ्फ! भीगने की वजह से कितनी प्यारी लग रही थी वो। मेरे पूरे जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई। मैंने देखा वो अपलक मुझे ही देखने लगी थी। बारिश में भीग जाने की वजह से उसके गीले हो चुके गुलाबी होंठ हल्के हल्के कांप रहे थे। अचानक ही मुझे वस्तिस्थित का एहसास हुआ तो मैंने उससे नज़रें हटा लीं और बाहर बारिश की तरफ देखने लगा। मैंने महसूस किया कि जो लड़की इसके पहले मुझसे नज़रें नहीं मिला पाती थी वो अपलक मुझे ही देखे जा रही थी। एक अलग ही तरह के भाव उसके चेहरे पर उभरे दिखाई दिए थे मुझे।

"अरे! तुम्हें क्या हुआ बिटिया?" भीखू की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी मगर मैंने उसकी तरफ नहीं देखा। उधर वो अनुराधा से बोला____"तुम एकदम से बुत सी क्यों खड़ी हो? हमारे छोटे कुंवर को देखा नहीं था क्या कभी तुमने?"

भीखू की बात सुन कर अनुराधा जैसे आसमान से गिरी। उसने हड़बड़ा कर भीखू की तरफ देखा और फिर खुद को सम्हालते हुए बोली____"देखा था काका। पहले ठीक से पहचानती नहीं थी लेकिन अब पहचान गई हूं। पहले यकीन नहीं होता था पर अब हो चुका है।"

"ये तुम क्या कह रही हो बिटिया?" भीखू को जैसे अनुराधा की बात समझ नहीं आई, अतः बोला____"मैं समझा नहीं तुम्हारी बात को।"

"हर बात इतना जल्दी कहां समझ आती है काका?" अनुराधा ने अजीब भाव से कहा____"समझने में तो वक्त लगता है ना? ख़ैर छोड़िए, मुझे लगता है कि बारिश के चलते भुवन भैया नहीं आएंगे। मुझे भी घर जाना होगा, नहीं तो मां परेशान हो जाएगी। बारिश देख के डांटेगी भी मुझे।"

"हां पर इतनी तेज़ बारिश में कैसे जाओगी तुम?" भीखू ने हैरान नज़रों से अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"ज़्यादा भींगने से बीमार हो जाओगी। कुछ देर रुक जाओ। बारिश रुक जाए तो चली जाना।"

"अरे! मैं तो पहले से ही बीमार हूं काका।" अनुराधा ने कहा____"ये बारिश मुझे भला और क्या बीमार करेगी? अच्छा अब चलती हूं। भैया आएं तो बता देना कि मैं आई थी।"

भीखू ने ही नहीं बल्कि और भी कई लोगों ने अनुराधा को रोका मगर वो न रुकी। तेज़ बारिश में जैसे वो कूद ही पड़ी और पूरी निडरता से ख़राब मौसम में वो बड़े आराम से आगे बढ़ती चली गई। इधर मैं पहले ही उसकी बातों से हैरान परेशान था और अब उसे यूं भींगते हुए जाता देखा तो और भी चिंतित हो उठा। एकाएक ही मेरे मस्तिष्क में जैसे भूचाल सा आ गया। उस दिन भुवन द्वारा कही गई बातें मेरे ज़हन में गूंज उठीं। मतलब अनुराधा ने भीखू से अभी जो बातें की थी उसमें उसका संदेश था। शायद वो ऐसी बातें मुझे ही सुना रही थी और चाहती थी कि मैं समझ जाऊं। मेरे लिए ये बड़े ही आश्चर्य की बात थी कि एक भोली भाली और मासूम सी लड़की में कुछ ही दिनों में इतना ज़्यादा परिवर्तन कैसे आ गया?

"पता नहीं आज क्या हो गया है इस लड़की को?" एक अन्य मज़दूर ने भीखू से कहा____"एकदम पगला ही गई है। देखो तो कैसे भींगते हुए चली जा रही है। देखना पक्का बीमार पड़ेगी ये। भुवन को पता चलेगा तो वो भी परेशान हो जाएगा इसके लिए।"

"अरे! हमारे पास एक छाता था न?" किसी दूसरे मज़दूर ने अचनाक से कहा____"तेज़ धूप से बचने के लिए भुवन लाया था। रुको अभी देखता हूं।"

"हां हां जल्दी ले आ।" भीखू बोल पड़ा____"वो ज़्यादा दूर नहीं गई है अभी। दौड़ कर जल्दी से उसको छाता पकड़ा के आ जाना।"

कुछ ही देर में वो मज़दूर छाता ले आया। इधर मेरे अंदर मानों खलबली सी मच गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं क्या न करूं? सहसा मेरी नज़र एक मज़दूर को छाता ले कर बरामदे से बाहर की तरफ जाते देखा तो मैं हड़बड़ा कर स्टूल से उठ कर खड़ा हो गया।

"रुको।" मैंने उसे पुकारा तो वो एकदम से रुक गया और मेरी तरफ पलट कर देखने लगा।
"इधर लाओ छाता।" मैं उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला____"मैं इसे ले कर जा रहा हूं उसके पास।"

"छ...छोटे कुंवर आप?" उसके साथ बाकी मज़दूर भी हैरानी से मेरी तरफ देखने लगे जबकि मैं उसके क़रीब पहुंचते ही बोला____"हां तो क्या हो गया? काफी दिन हो गए मुरारी काका के घर नहीं गया। इसी बहाने काकी से घर का हाल चाल भी पूछ लूंगा। भुवन आए तो कहना मैं मुरारी काका के घर गया हूं और जल्दी ही वापस आऊंगा।"

अब क्योंकि किसी में भी हिम्मत नहीं थी जो मुझसे कोई और सवाल जवाब करता था इस लिए उस मज़दूर ने फ़ौरन ही मुझे छाता पकड़ा दिया। मैंने जल्दी से छाते को खोला और बाहर हो रही बारिश में जंग का मैदान समझ कर कूद पड़ा। सच कहूं तो मेरे दिल की धड़कनें असमान्य गति से चल रहीं थी। अनुराधा मुझसे क़रीब चालीस पचास क़दम की दूरी पर पहुंच चुकी थी। मैं छाता लिए तेज़ी से उसकी तरफ बढ़ने लगा। बाहर बारिश तो तेज़ हो ही रही थी लेकिन उसके साथ हवा भी चल रही थी जिसके चलते बारिश की बौछारें चारो तरफ अपना रुख बदल लेती थीं। जल्दी ही मेरे घुटने से ऊपर का भी हिस्सा बारिश की बूंदों से भीगता नज़र आया। उधर अनुराधा बिना इधर उधर देखे बड़े आराम से चली जा रही थी। मैं हैरान था कि आते समय वो भींगने से बचने के लिए दौड़ते हुए आई थी जबकि अब वो बड़े आराम से जा रही थी। ज़ाहिर था उसे बारिश से ना तो भीग जाने की परवाह थी और ना ही भीग जाने के चलते बीमार पड़ने की। सही कहा था उस मज़दूर ने कि एकदम पगला गई थी वो।

जब मैं उसके क़रीब पहुंच गया तो मैंने झिझकते हुए उसे आवाज़ दी और अगले ही पल मेरी आवाज़ का उस पर जैसे किसी चमत्कार की तरह असर हुआ। वो अपनी जगह पर इस तरह रुक गई थी जैसे किसी ने जादू से उसको एक जगह पर टिका दिया हो। मुझे समझते देर न लगी कि वो मेरे ही आने का इंतज़ार कर रही थी। तभी तो वो इतना आराम से चल रही थी वरना भला ऐसा कौन मूर्ख होगा जो तेज़ बारिश में इतना आराम से चले?

यूं तो मैंने अनुराधा को वचन दिया था कि अब कभी उसके घर की दहलीज़ पर नहीं आऊंगा और कदाचित ये भी कि उससे बातें भी नहीं करूंगा मगर इस वक्त मुझे अपना ही वचन तोड़ना पड़ रहा था। ऐसा सिर्फ इस लिए क्योंकि मैं किसी भी कीमत पर ये नहीं चाहता था कि उसे कुछ हो जाए।

मैं जल्दी ही उसके क़रीब पहुंच गया और उसको छाते के अंदर ले लिया। मैंने देखा वो थर थर कांप रही थी। ज़ाहिर है बारिश में भीग जाने का असर था और उसके साथ ही शायद इसका भी कि इस वक्त वो मेरे इतने क़रीब थी। मेरी नज़दीकियों में पहले भी उसकी हालत ठीक नहीं रहती थी।

"बारिश के रुकने तक अगर वहां रुक जाती तो काकी खा नहीं जाती तुम्हें।" मैंने सामने की तरफ देखते हुए कहा____"इस तरह भींगने से अगर बीमार पड़ जाओगी तो उन्हें बहुत परेशानी होगी।"

"अ...आपको मां की परेशानी की चिंता है मेरी नहीं?" अनुराधा ने तिरछी नज़रों से मेरी तरफ देखते हुए धीमें से मानों शिकायत की।

"अगर तुम्हारी चिंता न होती तो छाता ले कर तुम्हारे पास नहीं आता।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"वैसे माफ़ करना, आज एक बार फिर से मैंने तुम्हें दिया हुआ अपना वादा तोड़ दिया। मैंने तुमसे वादा किया था कि अब से कभी भी ना तो मैं तुम्हारे घर की दहलीज़ पर क़दम रखूंगा और ना ही तुम्हारे सामने आऊंगा। कितना बुरा इंसान हूं ना जो अपना वादा भी नहीं निभा सकता।"

"न...नहीं, ऐसा मत कहिए।" अनुराधा का गला सहसा भारी हो गया____"सब मेरी ग़लती है। मैं ही बहुत बुरी हूं। मेरी ही ग़लती की वजह से आपने ऐसा वादा किया था मुझसे।"

"नहीं, तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।" मैं सहसा आगे बढ़ा तो वो भी मेरे साथ बढ़ चली। इधर मैंने आगे कहा____"तुमने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। तुमने तो वही कहा था जो सच था और जो मेरी वास्तविकता थी। शायद मैं वाकई में किसी के भरोसे के लायक नहीं हूं। ख़ैर छोड़ो, ये छाता ले लो और घर जाओ।"

"क...क्या मतलब??" अनुराधा ने चौंक कर मेरी तरफ देखा____"क...क्या आप नहीं चलेंगे घर?"

"तुमसे मिलने का और बात करने का वादा तोड़ दिया है मैंने।" मैंने अजीब भाव से कहा____"पर तुम्हारे घर की दहलीज़ पर क़दम न रखने का वादा नहीं तोड़ना चाहता। आख़िर अपने किसी वादे को तो निभाऊं मैं। शायद तब किसी के भरोसे के लायक हो जाऊं।"

मैंने ये कहा और अनुराधा को छाता पकड़ा कर उससे दूर हट कर खड़ा हो गया। मैंने देखा उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े थे। मुझे तकलीफ़ तो बहुत हुई मगर शायद मैं इसी तकलीफ़ के लायक था।

"तुम्हारी आंखों में आसूं अच्छे नहीं लगते।" मैंने तेज़ बारिश में भींगते हुए उससे कहा____"इन आंसुओं को तो मेरा मुकद्दर बनना चाहिए और यकीन मानो ऐसे मुकद्दर से कोई शिकवा नहीं होगा मुझे।"

"न...नहीं रुक जाइए।" मुझे पलट कर जाता देख अनुराधा जल्दी से मानों चीख पड़ी____"भगवान के लिए रुक जाइए।"

"किस लिए?" मैं ठिठक कर उसकी तरफ पलटा।
"म...मुझे आपसे ढेर सारी बातें करनी हैं।" अनुराधा बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हालते हुए बोली____"और, और मुझे आपसे कुछ सुनना भी है।"

"मतलब??" मैं सहसा उलझ सा गया___"मुझसे भला क्या सुनना है तुम्हें?"

"ठ...ठकुराईन।" अनुराधा ने अपनी नज़रें झुका कर भारी झिझक के साथ कहा____"हां मुझे आपसे यही सुनना है। एक बार बोल दीजिए न।"

"क्यों?" मैं अंदर ही अंदर चकित हो उठा था किंतु अपने भावों को ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"ब...बस सुनना है मुझे।" अनुराधा ने पहले की भांति ही नज़रें झुकाए हुए कहा।

"पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं बोल सकता।" मैंने खुद को जैसे पत्थर बना लिया____"अब दिल में चाहत जैसी चीज़ को फिर से नहीं पालना चाहता। तुम्हारी यादें बहुत हैं मेरे लिए।"

कहने के साथ ही मैं पलट गया और फिर बिना उसके कुछ बोलने का इंतज़ार किए बारिश में भींगते हुए अपने मकान की तरफ बढ़ता चला गया। मैं जानता था कि ऐसा कर के मैंने बिल्कुल भी ठीक नहीं किया था क्योंकि अनुराधा को इससे बहुत तकलीफ़ होनी थी मगर मेरा भी तो कोई वजूद था। मेरे अंदर भी तो तूफ़ान चल पड़ा था जिसकी वजह से मैं उसके सामने कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था।

मुझे जल्दी ही वापस आ गया देख बरामदे में खड़े सारे मज़दूर हैरानी से मुझे देखने लगे। शायद ऐसा उनकी कल्पनाओं में भी नहीं था मगर उन्हें भला क्या पता था कि दुनिया में अक्सर ही ऐसा होता है जो किसी की कल्पनाओं में नहीं होता।

"छोटे कुंवर आप तो बड़ा जल्दी वापस आ गए?" एक अधेड़ उम्र का मज़दूर मुझे देखते हुए बोल पड़ा____"आपने तो कहा था कि आप मुरारी के घर जा रहे हैं उस लड़की के साथ? फिर वापस क्यों आ गए और तो और भीग भी गए?"

"हां छोटे कुंवर।" भीखू बोल पड़ा____"अगर आपको अनुराधा बिटिया को छाता ही दे के आ जाना था तो ये काम तो फुलवा भी कर देता। नाहक में ही भीग गए आप।"

"अरे! मैं तो मुरारी काका के घर ही जा रहा था काका।" मैंने कहा____"मगर फिर अचानक से मुझे एक ज़रूरी काम याद आ गया इस लिए वापस आ गया। रही बात भीग जाने की तो कोई बात नहीं।"

✮✮✮✮

मेरे इस तरह चले जाने पर अनुराधा जैसे टूट सी गई थी। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि मैं उससे इस तरह मुंह फेर कर और उसकी कोई बात बिना माने अथवा सुने चला जाऊंगा। हाथ में छाता पकड़े वो बस रोए जा रही थी। आज से पहले भी वो अकेले में रोती थी मगर उसके दुख में आज की तरह पहले इज़ाफ़ा नहीं हुआ था। मेरे चले जाने पर उसे ऐसा लगा था जैसे उसके अंदर से एक झटके में कुछ निकल गया था। उसका कोमल हृदय तड़प उठा था जिसके चलते उसके आंसू रोके नहीं रुक रहे थे। तभी आसमान में तेज़ बिजली कड़की तो वो एकदम से घबरा गई। उसके हाथ से छाता छूटते छूटते बचा। उसने एक नज़र उस तरफ देखा जिधर मैं गया था और फिर वो अपने आंसू पोंछते हुए पलट कर अपने घर की तरफ चल दी।

अनुराधा एक हाथ से छाता पकड़े बढ़ी चली जा रही थी। दिलो दिमाग़ में बवंडर सा चल रहा था। शून्य में खोई वो कब अपने घर पहुंच गई उसे पता ही नहीं चला। चौंकी तब जब एक बार फिर से तेज़ बिजली कड़की। उसने हड़बड़ा कर इधर उधर देखा तो उसकी नज़र सहसा अपने घर के दरवाज़े पर पड़ी।

दरवाज़ा खोल कर अनुराधा जैसे ही अंदर आई तो आंगन के पार बरामदे में बैठी उसकी मां की नज़र उस पर पड़ी। सरोज उसी की चिंता में बैठी हुई थी। अनुराधा को वापस आया देख वो एकदम से उठ कर खड़ी हो गई।

"हाय राम! ये क्या तू भीग कर आई है?" सरोज हैरत से आंखें फाड़ कर बोल पड़ी____"मना किया था न कि मौसम ख़राब है और बारिश कभी भी हो सकती है फिर भी चली गई अपने भाई से मिलने? ऐसा क्या ज़रूरी काम था तुझे उससे जिसके लिए तूने मेरी बात भी नहीं मानी?"

अनुराधा अपनी मां की बातें सुन कर कुछ न बोली। आंगन से चलते हुए वो बरामदे में आई और फिर छाते को बंद कर के अंदर कमरे की तरफ चली गई। उसके जाते ही सरोज जाने क्या क्या बड़बड़ाने लगी।

इधर कमरे में आते ही अनुराधा ने दरवाज़ा बंद किया और फिर दरवाज़े से ही पीठ टिका कर सिसक उठी। अपने अंदर का गुबार उससे सम्हाला न गया। आवाज़ बाहर उसकी मां के कानों तक ना पहुंचे इस लिए उसने अपने मुंह को हथेली से सख़्ती पूर्वक दबा लिया। जाने कितनी ही देर तक वो रोती रही। रोने से जब उसे थोड़ा राहत हुई तो वो आगे बढ़ी और फिर अपने गीले कपड़े उतारने लगी। उसे बेहद ठंड लगने लगी थी। कमरे में चिमनी जल रही थी इस लिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई। जल्दी ही उसने दूसरे कपड़े पहन लिए और अपने गीले बालों को खोल कर उन्हें सुखाने का प्रयास करने लगी।

"अगर बीमार पड़ी तो देख लेना फिर।" वो जैसे ही बाहर आई तो सरोज उसे डांटते हुए बोली____"दवा भी नहीं कराऊंगी। रोज़ रोज़ तेरी बीमारी का इलाज़ करवाने के लिए पैसे नहीं हैं मेरे पास।"

"हां ठीक है मां।" अनुराधा ने संजीदगी से कहा____"मत करवाना मेरी दवा। मैं खुद चाहती हूं कि इस बार मैं ऐसी बीमार पड़ जाऊं कि कोई वैद्य मेरा इलाज़ ही न कर पाए। मर जाऊंगी तो अच्छा ही होगा। कम से कम अपने बापू के पास जल्दी से तो पहुंच जाऊंगी।"

अनुराधा की बातें सुन कर सरोज चौंकी। उसने बड़े ध्यान से अपनी बेटी के चेहरे की तरफ देखा। आज से पहले उसने कभी भी उससे ऐसी बातें नहीं की थी। अगर ये कहा जाए तो ग़लत न होगा कि उसने कभी अपनी मां से ज़ुबान ही नहीं लड़ाया था। उसके चेहरे पर मौजूद संजीदगी को देख कर सरोज के मन में कई तरह के ख़याल उभरे। वो चलते हुए उसके पास आई और उसके दोनो बाजुओं को पकड़ कर अपनी तरफ घुमाया उसे।

"हाय राम! तू रो रही थी?" अनुराधा की सुर्ख और नम आंखों को देख सरोज ने किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा कर पूछा____"क्या बात है अनू? क्या हुआ है तुझे? तू भुवन से मिलने गई थी न? उसने कुछ कहा है क्या तुझे?"

सरोज एक ही सांस में जाने कितने ही सवाल उससे कर बैठी। अपनी बेटी को उसने ऐसी हालत में कभी नहीं देखा था। वो बीमार ज़रूर हो जाती थी लेकिन ऐसी हालत में कभी नज़र नहीं आई थी वो। उधर मां के इतने सारे सवाल सुन कर अनुराधा एकदम से घबरा गई। उसे लगा कहीं मां को सच न पता चल जाए। उसे कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा था।

"क्या हुआ तू चुप क्यों है अनू?" बेटी को कुछ न बोलता देख सरोज और भी घबरा गई, उसने उसे हिलाते हुए पूछा____"बताती क्यों नहीं कि क्या हुआ है? देख मेरा मन बहुत घबरा रहा है। तुझे इस हालत में देख कर मेरे मन में बहुत ही बुरे बुरे ख़याल आ रहे हैं। बता क्या हुआ है तुझे? भुवन ने कुछ कहा है क्या तुझे?"

"न...नहीं मां।" अनुराधा ने खुद को किसी हद तक सम्हालते हुए कहा____"मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा है।"

"तो फिर तू रोई क्यों है?" सरोज का अंजानी आशंका के चलते मानो बुरा हाल हो गया____"तेरी आंखें बता रही हैं कि तू रोई है। ज़रूर कुछ हुआ है तेरे साथ। बता मेरी बच्ची।"

"तुम बेकार में चिंता कर रही हो मां।" अनुराधा ने अब तक खुद को सहज कर लिया था, अतः बोली____"मैं रोई ज़रूर हूं लेकिन उसकी वजह ये नहीं है कि किसी ने मुझे कुछ कहा है। असल में बारिश होने लगी थी तो भींगने से बचने के लिए मैं दौड़ने लगी थी। पता नहीं मेरे पैर को क्या हुआ कि मैं रास्ते में एक जगह गिर गई। बहुत तेज़ दर्द हो रहा था इस लिए रोने लगी थी।"

"तू सच कह रही है ना?" सरोज की जैसे जान में जान आई, फिर एकदम से बैठ कर अनुराधा का पैर देखते हुए बोली____"दिखा मुझे कहां चोट लगी है तुझे?"

अनुराधा ये सुन कर बौखला ही गई। उसने तो अपनी समझ में बढ़िया बहाना बनाया था मगर उसे क्या पता था कि उसकी मां उसको चोट दिखाने को बोलने लगेगी।

"क्या हुआ?" अनुराधा को ख़ामोश देख सरोज ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा____"दिखा क्यों नहीं रही कि कहां चोट लगी है तुझे?"

"चोट नहीं लगी है मां।" अनुराधा ने हड़बड़ा कर जल्दी से कहा____"शायद पैर में मोच आई है। उस समय मैंने भी यही सोच कर देखा था कि शायद चोट लग गई है मुझे मगर चोट नहीं लगी थी।"

"ऊपर वाले का लाख लाख शुक्र है कि तुझे चोट नहीं आई।" सरोज ने कहा____"अच्छा बता कौन से पैर में मोच आई है। जल्दी दिखा मुझे, मोच भी बहुत ख़राब होती है। दर्द के मारे चलते नहीं बनता आदमी से।"

अनुराधा को मजबूरन अपना एक पैर दिखाना ही पड़ा। चिमनी की रोशनी में सरोज ने बड़े ध्यान से अपनी बेटी की बताई हुई जगह पर देखा मगर उसे कुछ समझ न आया। उसने एक बार सिर उठा कर अनुराधा को देखा और फिर उसकी बताई हुई जगह पर अपनी दो उंगलियों से दबा कर पूछा____"कहां दर्द हो रहा है तुझे?"

अनुराधा ने मुसीबत से बचने के लिए झूठ मूठ का ही दर्द का नाटक करते हुए बता दिया कि हां यहीं पर दर्द हो रहा है। सरोज ने उठ कर उसे चारपाई पर बैठाया और फिर तेज़ क़दमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। उसके जाते ही अनुराधा ने राहत की सांस ली। कुछ देर में जब सरोज आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी।

"ये शहद हल्दी और चूना है।" फिर वो अनुराधा के पैर के पास बैठते हुए बोली____"इसे लगा देती हूं जिससे तुझे जल्दी ही आराम मिल जाएगा।"

सरोज कटोरी से निकाल कर शहद हल्दी और चूने के मिश्रण को अनुराधा के पैर में लगाने लगी। उधर अनुराधा को ये सोच कर रोना आने लगा कि उसे अपनी मां से झूठ बोलना पड़ा जिसके चलते उसकी मां उसके लिए कितना चिंतित हो गई है। उसका जी चाहा कि अपनी मां से लिपट कर खूब रोए मगर फिर उसने सख़्ती से अपने जज़्बातों को अंदर ही दबा लिया।



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अध्याय - 79
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सरोज कटोरी से निकाल कर शहद हल्दी और चूने के मिश्रण को अनुराधा के पैर में लगाने लगी। उधर अनुराधा को ये सोच कर रोना आने लगा कि उसे अपनी मां से झूठ बोलना पड़ा जिसके चलते उसकी मां उसके लिए कितना चिंतित हो गई है। उसका जी चाहा कि अपनी मां से लिपट कर खूब रोए मगर फिर उसने सख़्ती से अपने जज़्बातों को अंदर ही दबा लिया।


अब आगे....


क़रीब डेढ़ घंटा लगातार बारिश हुई। हर जगह पानी ही पानी नज़र आने लगा था। बारिश रुक तो गई थी लेकिन मौसम का मिज़ाज ये आभास करा रहा था कि उसका अभी मन भरा नहीं है। बिजली अभी भी चमक रही थी और बादल अभी भी गरज उठते थे। कुछ ही देर में भुवन मोटर साईकिल से आता नज़र आया।

"अरे! छोटे कुंवर आप यहां?" मुझे बरामदे में बैठा देख भुवन हैरानी से बोल पड़ा____"कोई काम था तो मुझे बुलवा लिया होता।"

"नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं थी।" मैंने कहा____"बस यूं ही मन बहलाने के लिए इस तरफ आ गया था। हवेली में अजीब सी घुटन होती है। तुम्हें तो पता ही है कि हम सब किस दौर से गुज़रे हैं।"

"हां जानता हूं।" भुवन ने संजीदगी से कहा____"जो भी हुआ है बिल्कुल भी ठीक नहीं हुआ है छोटे कुंवर।"

"सब कुछ हमारे बस में कहां होता है भुवन।" मैंने गंभीरता से कहा____"अगर होता तो आज मेरे चाचा और मेरे भइया दोनों ही ज़िंदा होते और ज़ाहिर है उनके साथ साथ साहूकार लोग भी। पर शायद ऊपर वाला भी यही चाहता था और आगे न जाने अभी और क्या चाहता होगा वो?"

"फिर से कुछ हुआ है क्या?" भुवन ने फिक्रमंद हो कर पूछा____"इस बार मैं हर पल आपके साथ ही रहूंगा। मेरे रहते आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।"

"तुम्हारी इस वफ़ादारी पर मुझे नाज़ है भुवन।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा___"मैं अक्सर सोचता हूं कि मैंने तुम्हारे ऐसा तो कुछ किया ही नहीं है इसके बावजूद तुम मेरे लिए अपनी जान तक का जोख़िम उठाने से नहीं चूक रहे। एक बात कहूं, अपनों के खोने का दर्द बहुत असहनीय होता है। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहता कि मेरी वजह से तुम्हें कुछ हो जाए और तुम्हारे परिवार के लोग अनाथ हो जाएं।"

"मैं ये सब नहीं जानता छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"मैं तो बस इतना जानता हूं कि मुझे हर हाल में आपकी सुरक्षा करनी है। मुझे अपने परिवार के लोगों की बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं है क्योंकि मुझे पता है कि उनके सिर पर दादा ठाकुर का हाथ है।"

"बेशक है भुवन।" मैंने कहा____"मगर फिर भी यही कहूंगा कि कभी किसी भ्रम में मत रहो। इतना कुछ होने के बाद मुझे ये समझ आया है कि जब ऊपर वाला अपनी करने पर आता है तो उसे कोई नहीं रोक सकता। उसके सामने हर कोई बेबस और लाचार हो जाता है।"

"हां मैं समझता हूं छोटे कुंवर।" भुवन ने सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन अगर ऐसी ही बात है तो फिर मैं भी यही सोच लूंगा कि जो कुछ भी मेरे या मेरे परिवार के साथ होगा वो सब ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होगा। मैं आपका साथ कभी नहीं छोडूंगा चाहे कुछ भी हो जाए।"

अजीब आदमी था भुवन। मेरे इतना समझाने पर भी मेरी सुरक्षा के लिए अड़ा हुआ था। अंदर से फक्र तो हो रहा था मुझे मगर मैं ऐसे नेक इंसान को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहता था। एक अंजाना भय सा मेरे अंदर समा गया था।

"ख़ैर छोड़ो इस बात को।" फिर मैंने विषय को बदलते हुए कहा____"मैं यहां इस लिए भी आया था कि ताकि तुमसे ये कह सकूं कि तुम यहां पर काम कर रहे सभी लोगों का हिसाब किताब एक कागज़ में बना कर मुझे दे देना। काफी दिन हो गए ये सब बेचारे जी तोड़ मेहनत कर के इस मकान को बनाने में लगे हुए हैं। मैं चाहता हूं कि सबका उचित हिसाब किताब बना कर तुम मुझे दो ताकि मैं इन सबको इनकी मेहनत का फल दे सकूं।"

"फ़िक्र मत कीजिए छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"कल दोपहर तक मैं इन सभी का हिसाब किताब बना कर हवेली में आपको देने आ जाऊंगा।"

"मैंने किसी और ही मकसद से इस जगह पर ये मकान बनवाया था।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मगर ये सब होने के बाद अब हर चीज़ से मोह भंग सा हो गया है। ख़ैर जगताप चाचा के न रहने पर अब मुझे ही उनके सारे काम सम्हालने हैं इस लिए मैं चाहता हूं कि इसके बाद उन कामों में भी तुम मेरे साथ रहो।"

"मैं तो वैसे भी आपके साथ ही रहूंगा छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"आपको ये कहने की ज़रूरत ही नहीं है। आप बस हुकुम कीजिए कि मुझे क्या क्या करना है?"

"मुझे खेती बाड़ी का ज़्यादा ज्ञान नहीं है।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इसके पहले मैंने कभी इन सब चीज़ों पर ध्यान ही नहीं दिया था। इस लिए मैं चाहता हूं कि इस काम में तुम मेरी मदद करो या फिर ऐसे लोगों को खोजो जो इन सब कामों में माहिर भी हों और ईमानदार भी।"

"वैसे तो ज़्यादातर गांव के लोग आपकी ही ज़मीनों पर काम करते हैं।" भुवन ने कहा____"मझले ठाकुर सब कुछ उन्हीं से करवाते थे। मेरा ख़याल है कि एक बार उन सभी लोगों से आपको मिल लेना चाहिए और अपने तरीके से सारे कामों के बारे में जांच पड़ताल भी कर लेनी चाहिए।"

"हम्म्म्म सही कहा तुमने।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"यहां इन लोगों का हिसाब किताब करने के बाद किसी दिन मिलते हैं उन सबसे।"

"बिल्कुल।" भुवन ने कहा____"आज बारिश भी अच्छी खासी हो गई है। मौसम का मिज़ाज देख कर लगता है कि अभी और भी बारिश होगी। इस बारिश के चलते ज़मीन में नमी भी आ जाएगी जिससे ज़मीनों की जुताई का काम जल्द ही शुरू करवाना होगा।"

"ठीक है फिर।" मैंने स्टूल से उठते हुए कहा____"अब मैं चलता हूं।"
"बारिश की वजह से रास्ते काफी ख़राब हो गए हैं।" भुवन ने कहा____"इस लिए सम्हल कर जाइएगा।"

मैं बरामदे से निकल कर बाहर आया तो भुवन भी मेरे पीछे आ गया। सहसा मुझे अनुराधा का ख़याल आया तो मैंने पलट कर उससे कहा____"मुरारी काका के घर किसी वैद्य को ले कर चले जाना।"

"य...ये आप क्या कह रहे हैं छोटे कुंवर?" भुवन एकदम से हैरान हो कर बोल पड़ा____"काका के यहां वैद्य को ले कर जाना है? सब ठीक तो है न वहां? आप गए थे क्या काका के घर?"

"नहीं मैं वहां गया नहीं था।" मैंने अपनी मोटर साइकिल में बैठते हुए कहा____"असल में मुरारी काका की बेटी आई थी बारिश में भीगते हुए। शायद तुमसे कोई काम था उसे।"

मेरी बात सुन कर भुवन एकाएक फिक्रमंद नज़र आने लगा। फिर सहसा उसके होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई।

"पूरी तरह पागल है वो।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए उसी फीकी मुस्कान से कहा____"पिछले कुछ समय से लगभग वो रोज़ ही यहां आती है। कुछ देर तो वो मुझसे इधर उधर की बातें करेगी और फिर झिझकते हुए आपके बारे में पूछ बैठेगी। हालाकि वो ये समझती है कि मुझे उसके अंदर का कुछ पता ही नहीं है मगर उस नादान और नासमझ को कौन समझाए कि उसकी हर नादानियां उसकी अलग ही कहानी बयां करती हैं।"

मैंने भुवन की बातों पर कुछ कहा नहीं। ये अलग बात है कि मेरे अंदर एकदम से ही हलचल मच गई थी। तभी भुवन ने कहा____"उसे मुझसे कोई काम नहीं होता है छोटे कुंवर। वो तो सिर्फ आपको देखने की आस में यहां आती है। उसे लगता है कि आप यहां किसी रोज़ तो आएंगे ही इस लिए वो पिछले कुछ दिनों से लगभग रोज़ ही यहां आती है और जब उसकी आंखें आपको नहीं देख पातीं तो वो निराश हो जाती है।"

"अच्छा चलता हूं मैं।" मैंने मोटर साइकिल को स्टार्ट करते हुए कहा____"तुम एक बार हो आना मुरारी काका के घर।"

"मुझे पूछना तो नहीं चाहिए छोटे कुंवर।" भुवन ने झिझकते हुए कहा____"मगर फिर भी पूछने की हिमाकत कर रहा हूं। क्या मैं जान सकता हूं कि आप दोनों के बीच में क्या चल रहा है? क्या आप उसे किसी भ्रम में रखे हुए हैं? कहीं आप उस मासूम की भावनाओं से खेल तो नहीं रहे छोटे कुंवर?"

"इतना सब मत सोचो भुवन।" मैंने उसकी व्याकुलता को शांत करने की गरज से कहा____"बस इतना समझ लो कि अगर मेरे द्वारा उसको कोई तकलीफ़ होगी तो उससे कहीं ज़्यादा मुझे भी होगी।"

कहने के साथ ही मैंने उसकी कोई बात सुने बिना ही मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया। मेरा ख़याल था कि भुवन इतना तो समझदार था ही कि मेरी इतनी सी बात की गहराई को समझ जाए। ख़ैर बारिश के चलते सच में कच्चा रास्ता बहुत ख़राब हो गया था इस लिए मैं बहुत ही सम्हल कर चलते हुए काफी देर में हवेली पहुंचा। मोटर साइकिल के पहियों पर ढेर सारा कीचड़ और मिट्टी लग गई थी इस लिए मैंने एक मुलाजिम को बुला कर मोटर साईकिल को अच्छी तरह धो कर खड़ी कर देने के लिए कह दिया।

✮✮✮✮

दादा ठाकुर की बग्घी जैसे ही साहूकारों के घर के बाहर खुले मैदान में रुकी तो घोड़ों की हिनहिनाहट को सुन कर जल्दी ही घर का दरवाज़ा खुला और रूपचंद्र नज़र आया। उसकी नज़र जब दादा ठाकुर पर पड़ी तो वो बड़ा हैरान हुआ। इधर दादा ठाकुर बग्घी से उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़े। दादा ठाकुर के साथ में शेरा भी था।

"कैसे हो रूप बेटा?" दादा ठाकुर ने बहुत ही आत्मीयता से रूपचंद्र की तरफ देखते हुए कहा____"हम गौरी शंकर से मिलने आए हैं। अगर वो अंदर हों तो उनसे कहो कि हम आए हैं।"

रूपचंद्र भौचक्का सा खड़ा देखता रह गया था। फिर अचानक ही जैसे उसे होश आया तो उसने हड़बड़ा कर दादा ठाकुर की तरफ देखा। पंचायत का फ़ैसला होने के बाद ये पहला अवसर था जब दादा ठाकुर को उसने देखा था और साथ ही ये भी कि काफी सालों बाद दादा ठाकुर के क़दम साहूकारों के घर की ज़मीन पर पड़े थे। रूपचंद्र फ़ौरन ही अंदर गया और फिर कुछ ही पलों में आ भी गया। उसके पीछे उसका चाचा गौरी शंकर भी आ गया। एक पैर से लंगड़ा रहा था वो।

"ठाकुर साहब आप यहां?" गौरी शंकर ने चकित भाव से पूछा____"आख़िर अब किस लिए आए हैं यहां? क्या हमारा समूल विनाश कर के अभी आपका मन नहीं भरा?"

"हम मानते हैं कि हमने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अपराध किया है गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने गंभीरता से कहा____"और यकीन मानो इतना भयंकर अपराध करने के बाद हम जीवन में कभी भी चैन से जी नहीं पाएंगे। हम ये भी जानते हैं कि हमारा अपराध माफ़ी के काबिल नहीं है फिर भी हो सके तो हमें माफ कर देना।"

"ऐसी ही मीठी मीठी बातों के द्वारा आपने लोगों के अंदर अपने बारे में एक अच्छे इंसान के रूप में प्रतिष्ठित किया हुआ है न?" गौरी शंकर ने तीखे भाव से कहा____"वाकई कमाल की बात है ये। हम लोग तो बेकार में ही बदनाम थे जबकि इस बदनामी के असली हक़दार तो आप हैं। ख़ैर छोड़िए, ये बताइए यहां किस लिए आए हैं आप?"

"क्या अंदर आने के लिए नहीं कहोगे हमें?" दादा ठाकुर ने संजीदगी से उसकी तरफ देखा तो गौरी शंकर कुछ पलों तक जाने क्या सोचता रहा फिर एक तरफ हट गया।

कुछ ही पलों में दादा ठाकुर और गौरी शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के साथ बैठक में रखी कुर्सियों पर बैठे नज़र आए। गौरी शंकर को समझ नहीं आ रहा था कि दादा ठाकुर उसके घर किस लिए आए हैं? वो इस बात पर भी हैरान था कि उसने दादा ठाकुर को इतने कटु शब्द कहे फिर भी दादा ठाकुर ने उस पर गुस्सा नहीं किया।

गौरी शंकर ने अंदर आवाज़ दे कर लोटा ग्लास में पानी लाने को कहा तो दादा ठाकुर ने इसके लिए मना कर दिया।

"तुम्हें हमारे लिए कोई तकल्लुफ करने की ज़रूरत नहीं है गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने कहा____"असल में हम यहां पर एक विशेष प्रयोजन से आए हैं। हालाकि यहां आने की हम में हिम्मत तो नहीं थी फिर भी ये सोच कर आए हैं कि न आने से वो कैसे होगा जो हम करना चाहते हैं?"

"क...क्या मतलब?" गौरी शंकर और रूपचंद्र दोनों ही चौंके। किसी अनिष्ट की आशंका से दोनों की ही धड़कनें एकाएक ही तेज़ हो गईं।

"हम चाहते हैं कि तुम हमारी भाभी श्री के साथ साथ बाकी लोगों को भी यहीं बुला लो।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम सबके सामने कुछ ज़रूरी बातें कहना चाहते हैं।"

गौरी शंकर और रूपचंद्र दोनों किसी दुविधा में फंसे नज़र आए। ये देख दादा ठाकुर ने उन्हें आश्वस्त किया कि उन लोगों को उनसे किसी बात के लिए घबराने अथवा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। आश्वस्त होने के बाद गौरी शंकर ने रूपचंद्र को ये कह कर अंदर भेजा कि वो सबको बुला कर लाए। आख़िर थोड़ी ही देर में अंदर से सभी औरतें और बहू बेटियां बाहर आ गईं। गौरी शंकर के पिता चल फिर नहीं सकते थे इस लिए वो अंदर ही थे।

बाहर बैठक में दादा ठाकुर को बैठे देख सभी औरतें और बहू बेटियां हैरान थीं। उनमें से किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि इतना कुछ होने के बाद दादा ठाकुर इस तरह उनके घर आ सकते हैं। बहरहाल, उन सबको आ गया देख दादा ठाकुर कुर्सी से उठे और मणि शंकर की पत्नी फूलवती के पास पहुंचे। ये देख सबकी सांसें थम सी गईं।

"प्रणाम भाभी श्री।" अपने दोनों हाथ जोड़ कर दादा ठाकुर ने फूलवती से कहा____"इस घर में आप हमसे बड़ी हैं। हमें उम्मीद है कि आपका हृदय इतना विशाल है कि आप हमें आशीर्वाद ज़रूर देंगी।"

दादा ठाकुर के मुख से ऐसी बातें सुन जहां बाकी सब आश्चर्य से दादा ठाकुर को देखने लगे थे वहीं फूलवती के चेहरे पर सहसा गुस्से के भाव उभर आए। कुछ पलों तक वो गुस्से से ही दादा ठाकुर को देखती रहीं फिर जाने उन्हें क्या हुआ कि उनके चेहरे पर नज़र आ रहा गुस्सा गायब होने लगा।

"किसी औरत की कमज़ोरी से आप शायद भली भांति परिचित हैं ठाकुर साहब।" फूलवती ने भाव हीन लहजे से कहा____"खुद को हमसे छोटा बना कर हमारा स्नेह पा लेना चाहते हैं आप।"

"छोटों को अपने से बड़ों से इसके अलावा और भला क्या चाहिए भाभी श्री?" दादा ठाकुर ने कहा____"हमारे द्वारा इतना कुछ सह लेने के बाद भी अगर आप हमें आशीर्वाद और स्नेह प्रदान करेंगी तो ये हमारे लिए किसी ईश्वर के वरदान से कम नहीं होगा।"

"क्या आपको लगता है कि ऐसे किसी वरदान के योग्य हैं आप?" फूलवती ने कहा।
"बिल्कुल भी नहीं।" दादा ठाकुर ने कहा____"किंतु फिर भी हमें यकीन है कि सब कुछ भुला कर आप हमें ये वरदान ज़रूर देंगी।"

"इस जन्म में तो ये संभव नहीं है ठाकुर साहब।" फूलवती ने तीखे भाव से कहा____"आप सिर्फ ये बताइए कि यहां किस लिए आए हैं?"

फूलवती की बात सुन कर दादा ठाकुर कुछ पलों तक उसे देखते रहे फिर बाकी सबकी तरफ देखने के बाद वापस आ कर कुर्सी पर बैठ गए। वहां मौजूद हर कोई ये जानने के लिए उत्सुक था कि आख़िर दादा ठाकुर किस लिए आए हैं यहां?

"हमने तो उस दिन भी पंचायत में कहा था कि अगर हमें मौत की सज़ा भी दे दी जाए तो हमें कोई अफ़सोस अथवा तकलीफ़ नहीं होगी।" दादा ठाकुर ने गंभीर भाव से कहा____"क्योंकि हमने जो किया है उसकी सिर्फ और सिर्फ वही एक सज़ा होनी चाहिए थी मगर पंच परमेश्वर ने हमें ऐसी सज़ा ही नहीं दी। हमें आप सबकी तकलीफ़ों का भली भांति एहसास है। अगर आप सबका दुख हमारी मौत हो जाने से ही दूर हो सकता है तो इसी वक्त आप लोग हमारी जान ले लीजिए। हमने बाहर खड़े अपने मुलाजिम को पहले ही बोल दिया है कि अगर यहां पर हमारी मौत हो जाए तो वो हमारी मौत के लिए किसी को भी ज़िम्मेदार न माने और ना ही इसके लिए किसी को कोई सज़ा दिलाने का सोचे। तो अब देर मत कीजिए, हमें इसी वक्त जान से मार कर आप सब अपना दुख दूर कर लीजिए।"

दादा ठाकुर की ये बात सुन कर सब के सब भौचक्के से देखते रह गए उन्हें। रूपचंद्र और गौरी शंकर हैरत से आंखें फाड़े दादा ठाकुर को देखे जा रहे थे। काफी देर तक जब किसी ने कुछ नहीं किया और ना ही कुछ कहा तो दादा ठाकुर ने सबको निराशा की दृष्टि से देखा।

"क्या हुआ आप सब चुप क्यों हैं?" दादा ठाकुर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"अगर हमें जान से मार देने पर ही आप सबका दुख दूर हो सकता है तो मार दीजिए हमें। इतने बड़े अपराध बोझ के साथ तो हम खुद भी जीना नहीं चाहते।" कहने के साथ ही दादा ठाकुर एकाएक गौरी शंकर से मुखातिब हुए____"गौरी शंकर, क्या हुआ? आख़िर अब क्या सोच रहे हो तुम? हमें जान से मार क्यों नहीं देते तुम?"

"ठ...ठाकुर साहब, ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" गौरी शंकर बुरी तरह चकरा गया था। हैरत से आंखें फाड़े बोला____"आपका दिमाग़ तो सही है ना?"

"हम पूरी तरह होश में हैं गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें अच्छी तरह पता है कि हम तुम सबसे क्या कह रहे हैं। हमारा यकीन करो, हम यहां इसी लिए तो आए हैं ताकि तुम सब हमारी जान ले कर अपने दुख संताप को दूर कर लो। हमें भी अपने भाई और अपने बेटे की हत्या हो जाने के दुख से मुक्ति मिल जाएगी।"

"ये...ये कैसी बातें कर रहे हैं आप?" गौरी शंकर मानो अभी भी चकराया हुआ था____"नहीं नहीं, हम में से कोई भी आपके साथ ऐसा नहीं कर सकता। कृपया सम्हालिए खुद को।"

"तुम्हें पता है गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने गंभीरता से कहा____"जब हम दोनों परिवारों के रिश्ते सुधर गए थे तो हमें बेहद खुशी हुई थी। हमें लगा था कि वर्षों पहले दादा ठाकुर बनने के बाद जो हमने तुम्हारे पिता जी से माफ़ी मांगी थी उसको कबूल कर लिया है उन्होंने। मुद्दत बाद ही सही किंतु दो संपन्न परिवारों के बीच के रिश्ते फिर से बेहतर हो गए। हमने जाने क्या क्या सोच लिया था हमारे बेहतर भविष्य के लिए मगर हमें क्या पता था कि हमारी ये खुशियां महज चंद दिनों की ही मेहमान थीं। हम जानते हैं कि हमारे पिता यानि बड़े दादा ठाकुर ने अपने ज़माने में जाने कितनों के साथ बुरा किया था इस लिए उनके बाद जब हम उनकी जगह पर आए तो हमने सबसे पहली क़सम इसी बात की खाई थी कि न तो हम कभी किसी के साथ बुरा करेंगे और ना ही हमारे बच्चे। हां हम ये मानते हैं कि वैभव पर हम कभी पाबंदी नहीं लगा सके, जबकि उसको सुधारने के लिए हमने हमेशा ही उसको सख़्त से सख़्त सज़ा दी है। ख़ैर हम सिर्फ ये कहना चाहते हैं कि इस सबके बाद अगर हमें जीने का मौका मिला है तो क्यों इस मौके को बर्बाद करें? हमारा मतलब है कि आपस का बैर भाव त्याग कर क्यों ना हम सब साथ मिल कर बचे हुए को संवारने की कोशिश करें।"

"क्या आपको लगता है कि हमारे बीच इतना कुछ होने के बाद अब ये सब होना संभव हो सकेगा?" गौरी शंकर ने कहा____"नहीं ठाकुर साहब। ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता।"

"हां ऐसा तभी संभव नहीं हो सकता जब हम खुद ऐसा न करना चाहें।" दादा ठाकुर ने कहा____"अगर हम ये सोच कर चलेंगे कि थाली में रखा हुआ भोजन हमारे हाथ और मुंह का उपयोग किए बिना ही हमारे पेट में पहुंच जाए तो यकीनन वो नहीं पहुंचेगा। वो तो तभी पहुंचेगा जब हम उसे पेट में पहुंचाने के लिए अपने हाथ और मुंह दोनों चलाएंगे।"

"हमारे बीच का मामला थाली में रखे हुए भोजन जैसा नहीं है ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"और फिर एक पल के लिए हम मान भी लें तो ऐसा क्या करेंगे जिससे हमारे बीच के रिश्ते पहले जैसे हो जाएं? क्या आप हमारे अंदर का दुख दूर कर पाएंगे? क्या आप उन लोगों को वापस ला पाएंगे जिन्हें आपने मार डाला? नहीं ठाकुर साहब, ये काम न आप कर सकते हैं और ना ही हम।"

"हम मानते हैं कि हम दोनों न तो गुज़र गए लोगों को वापस ला सकते हैं और ना ही एक दूसरे का दुख दूर कर सकते हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"किंतु क्या ये सोचने का विषय नहीं है कि क्या हम दोनों इसी सब को लिए बैठे रहेंगे जीवन भर? आख़िर इस दुख तकलीफ़ को तो हम दोनों को ही भुलाने की कोशिश करनी होगी और उन लोगों के बारे में सोचने होगा जो हमारे ही सहारे पर बैठे हैं।"

"क्या मतलब है आपका?" गौर शंकर ने संदेहपूर्ण भाव से पूछा।

"तुम इस बारे में क्या सोचते हो और क्या फ़ैसला करते हो ये तुम्हारी सोच और समझ पर निर्भर करता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"किंतु हमने सोच लिया है कि हम वो सब करेंगे जिससे कि सब कुछ बेहतर हो सके।"

"क...क्या करना चाहते हैं आप?" रूपचंद्र ने पहली बार हस्तक्षेप करते हुए पूछा।

"इसे हमारा कर्तव्य समझो या फिर हमारा प्रायश्चित।" दादा ठाकुर ने गंभीरता से कहा____"लेकिन सच ये है कि हमने इस परिवार के लिए बहुत कुछ सोच लिया है। इस परिवार की सभी लड़कियों को हम अपनी ही बेटियां समझते हैं इस लिए हमने सोचा है कि उन सबका ब्याह हम करवाएंगे लेकिन वहीं जहां आप लोग चाहेंगे।"

"इसकी कोई ज़रूरत नहीं है ठाकुर साहब।" सहसा फूलवती बोल पड़ी____"हमारी बेटियां हमारे लिए कोई बोझ नहीं हैं और हम इतने असमर्थ भी नहीं हैं कि हम उनका ब्याह नहीं कर सकते।"

"हमारा ये मतलब भी नहीं है भाभी श्री कि आपकी बेटियां आपके लिए बोझ हैं या फिर आप उनका ब्याह करने में असमर्थ हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें बखूबी इस बात का इल्म है कि आप पूरी तरह सभी कामों के लिए समर्थ हैं किंतु....।"

"किंतु क्या ठाकुर साहब?" फूलवती ने दादा ठाकुर की तरफ देखा।

"यही कि अगर ऐसा पुण्य काम करने का सौभाग्य आप हमें देंगी तो हमें बेहद अच्छा लगेगा।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमारी अपनी तो कोई बेटी है नहीं। हमारे छोटे भाई की बेटी है जिसका कन्यादान उसे खुद ही करना था। हम पहले भी इस बारे में बहुत सोचते थे और हमेशा हमारे ज़हन में इस घर की बेटियों का ही ख़याल आता था। जब हमारे रिश्ते बेहतर हो गए थे तो हमें यकीन हो गया था कि जल्द ही हमारी ये ख़्वाहिश पूरी हो जाएगी। हमने तो ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि ये सब हो जाएगा। ख़ैर जो हुआ उसे लौटाया तो नहीं जा सकता लेकिन फिर से एक नई और बेहतर शुरुआत के लिए अगर हम सब मिल कर ये सब करें तो कदाचित हम दोनों ही परिवार वालों को एक अलग ही सुखद एहसास हो।"

"ठीक है फिर।" फूलवती ने कहा____"अगर आप वाकई में सब कुछ बेहतर करने का सोचते हैं तो हमें भी ये सब मंजूर है लेकिन....।"

"ल...लेकिन क्या भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने उत्सुकता से पूछा। उन्हें फूलवती द्वारा सब कुछ मंज़ूर कर लेने से बेहद खुशी का आभास हुआ था।

"यही कि अगर आप सच में चाहते हैं कि हमारे दोनों ही परिवारों के बीच बेहतर रिश्ते के साथ एक नई शुरुआत हो।" फूलवती ने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"तो हमारा भी आपके लिए एक सुझाव है और हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारा सुझाव पसंद ही नहीं आएगा बल्कि मंज़ूर भी होगा।"

"बिल्कुल भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"आप बताइए क्या सुझाव है आपका?"

"अगर आप अपनी बेटी कुसुम का ब्याह हमारे बेटे रूपचंद्र से कर दें।" फूलवती ने कहा___"तो हमें पूरा यकीन है कि दोनों ही परिवारों के बीच के रिश्ते हमेशा के लिए बेहतर हो जाएंगे और इसके साथ ही एक नई शुरुआत भी हो जाएगी।"

फूलवती की बात सुन कर दादा ठाकुर एकदम से ख़ामोश रह गए। उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि फूलवती उनसे ऐसा भी बोल सकती है। सहसा उन्हें पंचायत में मुंशी चंद्रकांत द्वारा बताई गई बातों का ध्यान आया जब उसने बताया था कि साहूकार लोग उनकी बेटी कुसुम से रूपचंद्र का ब्याह करना चाहते थे।

"क्या हुआ ठाकुर साहब?" फूलवती के होठों पर एकाएक गहरी मुस्कान उभर आई____"आप एकदम से ख़ामोश क्यों हो गए? ऐसा लगता है कि आपको हमारा सुझाव अच्छा नहीं लगा। अगर यही बात है तो फिर यही समझा जाएगा कि आप यहां बेहतर संबंध बनाने और एक नई शुरुआत करने की जो बातें हम सबसे कर रहे हैं वो सब महज दिखावा हैं। यानि आप हम सबके सामने अच्छा बनने का दिखावा कर रहे हैं।"

"नहीं भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने कहा____"आप ग़लत समझ रही हैं। ऐसी कोई बात नहीं है।"

"तो फिर बताइए ठाकुर साहब।" फूलवती ने कुटिलता से मुस्कुराते हुए कहा____"क्या आपको हमारा सुझाव पसंद आया? क्या आप दोनों परिवारों के बीच गहरे संबंधों के साथ एक नई शुरुआत के लिए अपनी बेटी का ब्याह हमारे बेटे रूपचंद्र से करने को तैयार हैं?"

"हमें इस रिश्ते से कोई समस्या नहीं है भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने कहा____"बल्कि अगर ऐसा हो जाए तो ये बहुत ही अच्छी बात होगी।"

दादा ठाकुर की ये बात सुन कर सभी हैरत से उन्हें देखने लगे। किसी को भी यकीन नहीं हो रहा था कि दादा ठाकुर ऐसा भी बोल सकते हैं। उधर रूपचंद्र का चेहरा अचानक ही खुशी से चमकने लगा था। उसे भी यकीन नहीं हो रहा था कि दादा ठाकुर खुद उसके साथ कुसुम का ब्याह करने को राज़ी हो सकते हैं।




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दोनो ही अपडेट बहुत ही शानदार और लाज़वाब है
अनुराधा और वैभव की कहानी की नई शुरुआत हो गई है अब वैभव को भी आगे बढ़ना होगा अनुराधा अपनी की गई गलती पर बहुत ही ज्यादा पछता रही है उसकी इस व्यथा का वैभव और भुवन दोनो को पता है देखते हैं अनुराधा को अपना प्यार मिलता है या नही
ठाकुर साहब का साहूकारो के घर जाना माफी मांगना और फूलमती का कुसुम का हाथ मांगना कहानी में गजब का ट्विस्ट है ठाकुर साहब को अपनी गलती का एहसास है इसलिए वे साहूकारो के घर गए लेकिन साहूकारो को अपनी गलती का एहसास नहीं है हां ये सही है कि बड़े ठाकुर ने गलत किया लेकिन ठाकुर ने उनके साथ कोई गलत नही किया था उनसे माफी भी मांग ली थी लेकिन साहूकार उस बात का नाजायज फायदा उठा रहे हैं लगता है इनके दिमाग अभी भी कुछ खुपारात चल रही है
 
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लगता है साहूकारों की कमान अब फुलवती मैडम के हाथों आ गया है। कुछ भी नही बदला है । सबकुछ पहले जैसा ही है। फर्क सिर्फ ये आ गया है कि पहले मर्दों की चलती थी और अब औरतों की चलने लगी है।
और यही हाल मुंशी और उसके पिल्ले का भी है। पता नही , क्यों इनकी बली नही चढ़ी ! ये जब तक जिंदा रहेंगे ठाकुरों के खिलाफ षडयंत्र करते रहेंगे।
न साहूकार बदले हैं और न ही उनका दलाल मुंशी और उसका छोरा । न ही सफेदपोश का राज खुला है और न ही कोई प्रपंच रचना बंद हुआ है । न ही अनुराधा के दिल को चैन मिला है और न ही रूपा अपने दिलों के अरमान पुरा कर पाई है ।
बदला है कुछ तो भाभी श्री का । पहले सुहागन थी और अब बेवा हो गई है।
कहानी अभी बहुत बाकी है।
बहुत ही खूबसूरत अपडेट शुभम भाई।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग।
 
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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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शुभम भाई, बढ़िया अपडेट दिए आपने।

एक ओर जहां दादा ठाकुर ने अपनी खानदानी निर्दयिता दिखाते हुए लगभग पूरे साहूकार खानदान के मर्दों को समाप्त कर दिया, वहीं वापस से अपनी सहृदयता से वापस खुद को छलवाने उन्ही साहूकारों के पास गए हैं, और उनकेकदमों में बिछ भी रहे हैं।

वहीं फूलमती ही लगता है अब साहूकारों की मुखिया और ठाकुरों के खिलाफ षण्यंत्र रचने वाली बनेगी, जिसका परिचय उसने कुसुम को अपने घर की बहु बनाने के प्रस्ताव जैसी कुटिल चाल से ही दे दिया है।

मुंशी तो वैसे ही घोषित रूप से अपनी दुश्मनी चला रहा है, और वो नकाबपोश भी नही मिला।

मतलब इतना सब गवां कर भी नतीजा वही ढाक के तीन पात है।

इनमे सबसे ज्यादा को भाभी और साहूकारों के घर की औरतें ही पीसी हैं, और शायद आगे भी यही हाल होगा।
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
Prime
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अध्याय - 80
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"हमें इस रिश्ते से कोई समस्या नहीं है भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने कहा____"बल्कि अगर ऐसा हो जाए तो ये बहुत ही अच्छी बात होगी।"

दादा ठाकुर की ये बात सुन कर सभी हैरत से उन्हें देखने लगे। किसी को भी यकीन नहीं हो रहा था कि दादा ठाकुर ऐसा भी बोल सकते हैं। उधर रूपचंद्र का चेहरा अचानक ही खुशी से चमकने लगा था। उसे भी यकीन नहीं हो रहा था कि दादा ठाकुर खुद उसके साथ कुसुम का ब्याह करने को राज़ी हो सकते हैं।



अब आगे....


मुंशी चंद्रकांत का बेटा रघुवीर भागता हुआ अपने घर के अंदर आया और बरामदे में बैठे अपने पिता से बोला____"बापू, मैंने अभी अभी साहूकारों के घर में दादा ठाकुर को जाते देखा है।"

"क...क्या???" चंद्रकांत बुरी तरह चौंका____"ये क्या कह रहे हो तुम?"

"मैं सच कह रहा हूं बापू।" रघुवीर ने कहा____"दादा ठाकुर अपनी बग्घी से आया है। मैंने देखा कि रूपचंद्र ने दरवाज़ा खोला और फिर कुछ देर बाद गौरी शंकर भी आया। दादा ठाकुर ने उससे कुछ कहा और फिर वो लोग अंदर चले गए।"

"बड़े हैरत की बात है ये।" चंद्रकांत चकित भाव से सोचते हुए बोला____"इतना कुछ हो जाने के बाद दादा ठाकुर आख़िर किस लिए आया होगा साहूकारों के यहां?"

"कोई तो बात ज़रूर होगी बापू।" रघुवीर ने कहा____"मैंने देखा था कि गौरी शंकर ने उसे अंदर बुलाया तो वो चला गया। अभी भी वो लोग अंदर ही हैं।"

"हो सकता है दादा ठाकुर अपने किए की माफ़ी मांगने आया होगा उन लोगों से।" चंद्रकांत ने कहा____"पर मुझे पूरा यकीन है कि गौरी शंकर उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।"

"क्यों नहीं करेगा भला?" रघुवीर ने मानों तर्क़ देते हुए कहा____"इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है। मर्द के नाम पर सिर्फ दो लोग ही बचे हैं उनके घर में। ऐसे में अगर वो दादा ठाकुर से अब भी किसी तरह का बैर भाव रखेंगे तो नुकसान उन्हीं का होगा। मुझे तो पूरा भरोसा है बापू कि अगर दादा ठाकुर खुद चल कर माफ़ी मांगने ही आया है तो वो लोग ज़रूर माफ़ कर देंगे उसे। आख़िर उन्हें इसी गांव में रहना है तो भला कैसे वो दादा ठाकुर जैसे ताकतवर आदमी के खिलाफ़ जा सकेंगे?"

"शायद तुम सही कह रहे हो।" चंद्रकांत को एकदम से ही मानों वास्तविकता का एहसास हुआ____"अब वो किसी भी हाल में दादा ठाकुर के खिलाफ़ जाने का नहीं सोच सकते। उन्हें भी पता है कि मर्द के नाम पर अब सिर्फ वो ही दो लोग हैं। ऐसे में अगर उन्हें कुछ हो गया तो उनके घर की औरतों और बहू बेटियों का क्या होगा?"

"ये सब छोड़ो बापू।" रघुवीर ने कुछ सोचते हुए कहा____"अब ये सोचो कि हमारा क्या होगा? मेरा मतलब है कि अगर दादा ठाकुर ने किसी तरह साहूकारों को मना कर अपने से जोड़ लिया तो हमारे लिए समस्या हो जाएगी। हमने तो उस दिन पंचायत में भी ये कह दिया था कि हमें अपने किए का कोई अफ़सोस नहीं है इस लिए मुमकिन है कि इस बात के चलते दादा ठाकुर किसी दिन हमारे साथ कुछ बुरा कर दे।"

"तुम बेवजह ही दादा ठाकुर से इतना ख़ौफ खा रहे हो बेटा।" चंद्रकांत ने कहा____"मैं दादा ठाकुर को उसके बचपन से जानता हूं। वो कभी पंचायत के निर्णय के ख़िलाफ़ जा कर कोई क़दम नहीं उठाएगा। इस लिए तुम इस सबके लिए भयभीत मत हो।"

"और उसके उस बेटे का क्या जिसका नाम वैभव सिंह है?" रघुवीर ने सहसा चिंतित भाव से कहा____"क्या उसके बारे में भी तुम यही कह सकते हो कि वो भी अपने पिता की तरह पंचायत के फ़ैसले के खिलाफ़ जा कर कोई ग़लत क़दम नहीं उठाएगा?"

रघुवीर की बात सुन कर चंद्रकांत फ़ौरन कुछ बोल ना सका। कदाचित उसे भी एहसास था कि वैभव के बारे में उसके बेटे का ऐसा कहना ग़लत नहीं है। वो वैभव की नस नस से परिचित था इस लिए उसे वैभव पर भरोसा नहीं था। वैभव में हमेशा ही उसे बड़े दादा ठाकुर का अक्श नज़र आता था। कहने को तो वो अभी बीस साल का था लेकिन उसके तेवर और उसके काम करने का हर तरीका बड़े दादा ठाकुर जैसा ही था।

"तुम्हारी ख़ामोशी बता रही है बापू कि वैभव पर तुम्हें भी भरोसा नहीं है।" चंद्रकांत को चुप देख रघुवीर ने कहा____"यानि तुम भी समझते हो कि वैभव के लिए पंचायत का कोई भी फ़ैसला मायने नहीं रखता, है ना?"

"लगता तो मुझे भी यही है बेटा।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मगर मुझे इस बात का भी यकीन है कि वो अपने पिता के खिलाफ़ भी नहीं जा सकता। ये सब होने के बाद यकीनन उसके पिता ने उसे अच्छे से समझाया होगा कि अब उसे अपना हर तरीका या तो बदलना होगा या फिर छोड़ना होगा। वैभव भी अब पहले जैसा नहीं रहा जो किसी बात की परवाह किए बिना पल में वही कर जाए जो सिर्फ वो चाहता था। मुझे यकीन है कि वो भी अब कुछ भी उल्टा सीधा करने का नहीं सोचेगा।"

"मान लेता हूं कि नहीं सोचेगा।" रघुवीर ने कहा____"मगर कब तक बापू? वैभव जैसा लड़का भला कब तक अपनी फितरत के ख़िलाफ रहेगा? किसी दिन तो वो अपने पहले वाले रंग में आएगा ही, तब क्या होगा?"

"तो क्या चाहते हो तुम?" चंद्रकांत ने जैसे एकाएक परेशान हो कर कहा।

"इससे पहले कि पंचायत के खिलाफ़ जा कर वो हमारे साथ कुछ उल्टा सीधा करे।" रघुवीर ने एकदम से मुट्ठियां कसते हुए कहा___"हम खुद ही कुछ ऐसा कर डालें जिससे वैभव नाम का ख़तरा हमेशा हमेशा के लिए हमारे सिर से हट जाए।"

"नहीं।" चंद्रकांत अपने बेटे के मंसूबे को सुन कर अंदर ही अंदर कांप गया, बोला____"तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगे। ऐसा सोचना भी मत बेटे वरना अनर्थ हो जाएगा। मत भूलो कि अब हमारे साथ साहूकारों की फ़ौज नहीं है बल्कि इस समय हम अकेले ही हैं। इसके पहले तो किसी को हमसे ये उम्मीद ही नहीं थी कि हम ऐसा कर सकते हैं किंतु अब सबको हमारे बारे में पता चल चुका है। पंचायत के फ़ैसले के बाद अगर हमने कुछ भी उल्टा सीधा करने का सोचा तो यकीन मानो हमारे साथ ठीक नहीं होगा।"

"तुम तो बेवजह ही इतना घबरा रहे हो बापू।" रघुवीर ने कहा____"जबकि तुम्हें तो ये सोचना चाहिए कि जिस लड़के ने हमारे घर की औरतों के साथ हवस का खेल खेला है उसे कुछ भी कर के ख़त्म कर देना चाहिए। वैसे भी हम कौन सा ढिंढोरा पीट कर उसके साथ कुछ करेंगे?"

"मेरे अंदर की आग ठंडी नहीं हुई है बेटे।" चंद्रकांत ने सख़्त भाव से कहा____"उस हरामजादे के लिए मेरे अंदर अभी भी वैसी ही नफ़रत और गुस्सा मौजूद है। मैं भी उसे ख़त्म करना चाहता हूं लेकिन अभी ऐसा नहीं कर सकता। मामले को थोड़ा ठंडा पड़ने दो। लोगों के मन में इस बात का यकीन हो जाने दो कि अब हम कुछ नहीं कर सकते। उसके बाद ही हम उसे ख़त्म करने का सोचेंगे।"

"अगर ऐसी बात है तो फिर ठीक है।" रघुवीर ने कहा____"मैं मामले के ठंडा होने का इंतज़ार करूंगा।"

"यही अच्छा होगा बेटा।" चंद्रकांत ने कहा____"वैसे भी दादा ठाकुर ने हमारी निगरानी में अपने आदमी भी लगा रखे होंगे। ज़ाहिर है हम कुछ भी करेंगे तो उसका पता दादा ठाकुर को फ़ौरन चल जाएगा। इस लिए हमें तब तक शांत ही रहना होगा जब तक कि ये मामला ठंडा नहीं हो जाता अथवा हमें ये न लगने लगे कि अब हम पर निगरानी नहीं रखी जा रही है।"

रघुवीर को सारी बात समझ में आ गई इस लिए उसने ख़ामोशी से सिर हिलाया और फिर उठ कर अंदर चला गया। उसके जाने के बाद चंद्रकांत गहरी सोच में डूब गया। दादा ठाकुर की साहूकारों के घर में मौजूदगी उसके लिए मानों चिंता का सबब बन गई थी।

✮✮✮✮

"अगर आप वाकई में अपनी बेटी का ब्याह हमारे बेटे के साथ करने को तैयार हैं।" फूलवती ने कहा____"तो हमें भी ये मंजूर है कि आप हमारे घर की बेटियों का ब्याह अपने हिसाब से करें। ख़ैर अभी तो साल भर हमारे घरों में ब्याह जैसे शुभ काम नहीं हो सकते इस लिए अगले साल आपकी बेटी के ब्याह के साथ ही हमारे नए संबंधों का तथा नई शुरुआत का शुभारंभ हो जाएगा।"

"बिल्कुल।" दादा ठाकुर ने सहसा कुछ सोचते हुए कहा____"हमें इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन एक बार हमें इस रिश्ते के बारे में अपने छोटे भाई जगताप की धर्म पत्नी से भी पूछना पड़ेगा।"

"उनसे पूछने की भला क्या ज़रूरत है ठाकुर साहब?" फूलवती ने कहा____"हवेली के मुखिया आप हैं। भला कोई आपके फ़ैसले के खिलाफ़ कैसे जा सकता है? हमें यकीन है कि मझली ठकुराईन को भी इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं होगी।"

"अगर हमारा भाई जीवित होता तो बात अलग थी भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने सहसा संजीदा हो कर कहा____"क्योंकि तब हमारा अपने भाई पर ज़्यादा हक़ और ज़्यादा ज़ोर होता किंतु अब वो नहीं रहा। इस लिए उसके बीवी बच्चों के ऊपर हम कोई भी फ़ैसला ज़बरदस्ती नहीं थोप सकते। हम ये हर्गिज़ नहीं चाहते कि उन्हें अपने लिए हमारे द्वारा किए गए किसी फ़ैसले से तनिक भी ठेस पहुंचे अथवा वो उनके मन के मुताबिक न हो। इसी लिए कह रहे हैं कि हमें एक बार उससे इस बारे में पूछना पड़ेगा।"

"चलिए ठीक है।" फूलवती ने कहा____"लेकिन मान लीजिए कि यदि मझली ठकुराईन ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया तब आप क्या करेंगे?"

"ज़ाहिर है तब ये रिश्ता हो पाना संभव ही नहीं हो सकेगा।" दादा ठाकुर ने जैसे स्पष्ट भाव से कहा____"जैसा कि हम बता ही चुके हैं कि पहले में और अब में बहुत फ़र्क हो गया है। हम अपने और अपने बच्चों के लिए हज़ारों दुख सह सकते हैं या उनके लिए कोई भी निर्णय ले सकते हैं मगर अपने दिवंगत भाई के बीवी बच्चों के लिए किसी भी तरह का निर्णय नहीं ले सकते और ना ही उन पर किसी तरह की आंच आने दे सकते हैं।"

"अगर मझली ठकुराईन ने इस रिश्ते को करने से इंकार कर दिया।" फूलवती ने दो टूक लहजे में कहा____"तो फिर बहुत मुश्किल होगा ठाकुर साहब हमारे और आपके बीच नई शुरुआत होना।"

"रिश्तों में किसी शर्त का होना अच्छी बात नहीं है भाभी श्री।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे भी शादी ब्याह जैसे पवित्र रिश्ते तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद से ही बनते हैं। ख़ैर हम इस बारे में बात करेंगे किंतु अगर कुसुम की मां ने इस रिश्ते के लिए इंकार किया तो हम उस पर ज़ोर भी नहीं डालेंगे। रिश्ते तो वही बेहतर होते हैं जिनमें दोनों पक्षों की सहमति और खुशी शामिल हो। ज़बरदस्ती बनाए गए रिश्ते कभी खुशियां नहीं देते।"

रूपचंद्र जो अब तक खुशी से फूला नहीं समा रहा था दादा ठाकुर की ऐसी बातें सुनने से उसकी वो खुशी पलक झपकते ही छू मंतर हो गई। फूलवती ने कुछ कहना तो चाहा लेकिन फिर जाने क्या सोच कर वो कुछ न बोली। दादा ठाकुर उठे और फिर बाहर की तरफ चल दिए। उनके पीछे गौरी शंकर और रूपचंद्र भी चल पड़े। बाहर आ कर दादा ठाकुर ने गौरी शंकर से इतना ही कहा कि उन सबके लिए हवेली के दरवाज़े खुले हैं। वो लोग जब चाहे आ सकते हैं। उसके बाद दादा ठाकुर बग्घी में आ कर बैठे ग‌ए। शेरा ने घोड़ों की लगाम को झटका दिया तो वो बग्घी को लिए चल पड़े।

"आपने तो कमाल ही कर दिया भौजी।" दादा ठाकुर के जाने के बाद गौरी शंकर अंदर आते ही फूलवती से बोल पड़ा____"दादा ठाकुर से शादी जैसे रिश्ते की बात कहने की तो मुझमें भी हिम्मत नहीं थी लेकिन आपने तो बड़ी सहजता से उनसे ये बात कह दी।"

"आप सही कह रहे हैं काका।" रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा____"बड़ी मां को दादा ठाकुर से ऐसी बात कहते हुए ज़रा भी डर नहीं लगा।"

"दादा ठाकुर भी इंसान ही है बेटा।" फूलवती ने सपाट लहजे में कहा____"और इंसान से भला क्या डरना? वैसे भी उसने जो किया है उसकी वजह से वो हमारे सामने सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। फिर जब उसने रिश्ते सुधार कर फिर से नई शुरुआत करने की बात कही तो मैंने भी यही देखने के लिए उससे ऐसा कह दिया ताकि देख सकूं कि वो इस बारे में क्या कहता है?"

"उसने आपकी बात मान तो ली ना भौजी।" गौरी शंकर ने कहा____"उसने तो इस रिश्ते से इंकार ही नहीं किया जबकि मैं तो यही सोच के डर रहा था जाने वो आपकी इन बातों पर क्या कहने लगे?"

"ये उसकी मजबूरी थी जो उसने इस रिश्ते के लिए हां कहा।" फूलवती ने कहा____"क्योंकि वो अपराध बोझ से दबा हुआ है और हर हाल में चाहता है कि हमारे साथ उसके रिश्ते बेहतर हो जाएं। ख़ैर उसने इस रिश्ते के लिए मजबूरी में हां तो कहा लेकिन फिर एक तरह से इंकार भी कर दिया।"

"वो कैसे बड़ी मां?" रूपचंद्र को जैसे समझ न आया।

"अपने छोटे भाई की पत्नी से इस रिश्ते के बारे में पूछने की बात कह कर।" फूलवती ने कहा____"हालाकि एक तरह से उसका ये सोचना जायज़ भी है किन्तु उसे भी पता है कि उसके भाई की पत्नी अपनी बेटी का ब्याह हमारे घर में कभी नहीं करेगी। ज़ाहिर है ये एक तरह से इंकार ही हुआ।"

"हां हो सकता है।" गौरी शंकर ने कहा____"फिर भी देखते हैं क्या होता है? अगर वो सच में हमारे रूपचंद्र से अपने छोटे भाई की बेटी का ब्याह कर के नया रिश्ता बनाना चाहता है तो यकीनन वो हवेली में बात करेगा।"

"अब यही तो देखना है कि आने वाले समय में उसकी तरफ से हमें क्या जवाब मिलता है?" फूलवती ने कहा।

"और अगर सच में ये रिश्ता न हुआ तो?" गौरी शंकर ने कहा____"तब क्या आप उसे यही कहेंगी कि हम उससे अपने रिश्ते नहीं सुधारेंगे?"

"जिस व्यक्ति ने हमारे घर के लोगों की हत्या कर के हमारा सब कुछ बर्बाद कर दिया हो।" फूलवती ने सहसा तीखे भाव से कहा____"ऐसे व्यक्ति से हम कैसे भला कोई ताल्लुक रख सकते हैं? कहीं तुम उससे रिश्ते सुधार लेने का तो नहीं सोच रहे?"

"बड़े भैया के बाद आप ही हमारे परिवार की मालकिन अथवा मुखिया हैं भौजी।" गौरी शंकर ने गंभीरता से कहा____"हम भला कैसे आपके खिलाफ़ कुछ करने का सोच सकते हैं?"

"वाह! बहुत खूब।" फूलवती के पीछे खड़ी उसकी बीवी सुनैना एकदम से बोल पड़ी____"क्या कहने हैं आपके। इसके पहले भी आप सबने इनसे पूछ कर ही हर काम किया था और अब आगे भी करेंगे, है ना?"

गौरी शंकर अपनी बीवी की ताने के रूप में कही गई ये बात सुन कर चुप रह गया। उससे कुछ कहते ना बना था। कहता भी क्या? सच ही तो कहा था उसकी बीवी ने। फूलवती ने सुनैना और बाकी सबको अंदर जाने को कहा तो वो सब चली गईं।

✮✮✮✮

कपड़े बदल कर मैं अपने कमरे में आराम ही कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने जा कर दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर भाभी अपने हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ीं थी। विधवा के लिबास में उन्हें देखते ही मेरे अंदर एक टीस सी उभरी।

"मां जी ने बताया कि तुम भींग गए थे।" भाभी ने कमरे में दाखिल होते हुए कहा____"इस लिए तुम्हारे लिए अदरक वाली गरमा गरम चाय बना कर लाई हूं।"

"आपको ये तकल्लुफ करने की क्या ज़रूरत थी भाभी?" मैंने उनके पीछे आते हुए कहा____"हवेली में इतनी सारी नौकरानियां हैं। किसी को भी बोल देतीं आप।"

"शायद तुम भूल गए हो कि हवेली की किसी भी नौकरानी को तुम्हारे कमरे में आने की इजाज़त नहीं है।" मैं जैसे ही पलंग पर बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ चाय का प्याला बढ़ाते हुए कहा____"ऐसे में भला कोई नौकरानी तुम्हें चाय देने कैसे आ सकती थी? मां जी को सीढियां चढ़ने में परेशानी होती है इस लिए मुझे ही आना पड़ा।"

"और आपकी चाय कहां है?" मैंने विषय बदलते हुए कहा____"क्या आप नहीं पियेंगी?"
"अब जाऊंगी तो मां जी के साथ बैठ कर पियूंगी।" भाभी ने कहा____"वैसे कहां गए थे जो बारिश में भीग कर आए थे?"

"मन बहलाने के लिए बाहर गया था।" मैंने चाय का एक घूंट लेने के बाद कहा____"और कुछ ज़रूरी काम भी था। पिता जी ने कहा है कि अब से मुझे वो सारे काम करने होंगे जो इसके पहले जगताप चाचा करते थे। मतलब कि खेती बाड़ी के सारे काम।"

"अच्छा ऐसी बात है क्या?" भाभी ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"मतलब कि अब ठाकुर वैभव सिंह खेती बाड़ी के काम करेंगे?"

"क्या आप मेरी टांग खींच रही हैं?" मैंने भाभी की तरफ ध्यान से देखा____"क्या आपको यकीन नहीं है कि मैं ये काम भी कर सकता हूं?"

"अरे! मैं कहां तुम्हारी टांग खींच रही हूं?" भाभी ने कहा____"मुझे तो बस हैरानी हुई है तुम्हारे मुख से ये सुन कर। रही बात तुम्हारे द्वारा ये काम कर लेने की तो मुझे पूरा यकीन है कि मेरे देवर के लिए कोई भी काम कर लेना मुश्किल नहीं है।"

जाने क्यों मुझे अभी भी लग रहा था जैसे वो मेरी टांग ही खींच रही हैं किंतु उनके चेहरे पर ऐसे कोई भाव नहीं थे इस लिए मैं थोड़ा दुविधा में पड़ गया था। मुझे समझ ही न आया कि मैं उनसे क्या कहूं।

"चाची और कुसुम लोगों के जाने के बाद आपको अकेलापन तो नहीं महसूस हो रहा भाभी?" मैंने फिर से विषय बदलते हुए पूछा।

"मेरा अकेलापन तो अब कभी भी दूर नहीं हो सकता वैभव।" भाभी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"इस दुनिया में एक औरत के लिए उसका पति ही सब कुछ होता है। जब तक वो उसके पास होता है तब तक वो हर हाल में खुशी से रह लेती है किंतु जब वही पति उसे छोड़ कर चला जाता है तो फिर उस औरत का अकेलापन कोई भी दूर नहीं कर सकता।"

"हां मैं समझता हूं भाभी।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"सच कहूं तो आपको इस लिबास में देख कर मुझे बहुत तकलीफ़ होती है। काश! मेरे बस में होता तो मैं भैया को वापस ला कर फिर से आपको पहले की तरह सुहागन बना देता और आप फिर से हमेशा की तरह खुश हो जातीं।"

"छोड़ो इस बात को।" भाभी ने मुझसे चाय का खाली कप लेते हुए कहा____"अब तुम आराम करो। मैं भी जाती हूं, मां जी अकेली होंगी।"

"अच्छा एक बात कहूं आपसे?" मैंने कुछ सोचते हुए उनसे पूछा।
"हां कहो।" उन्होंने मेरी तरफ देखा।

"मेनका चाची की तरह क्या आपका भी मन है अपनी मां के पास जाने का?" मैंने उनके चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा____"अगर मन है तो आप बेझिझक मुझे बता दीजिए। मैं आपको चंदनपुर ले चलूंगा।"

"मैं मां जी को यहां अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती।" भाभी ने कहा____"वैसे भी वो भी तो मेरी मां ही हैं। उन्होंने सगी मां की ही तरह प्यार और स्नेह दिया है मुझे।"

"फिर भी मन तो करता ही होगा आपका।" मैंने कहा____"अच्छा एक काम करता हूं। जब मेनका चाची यहां वापस आ जाएंगी तब मैं आपको ले चलूंगा। तब तो आप जाना चाहेंगी न?"

"हां तब तो जा सकती हूं।" भाभी ने कुछ सोचते हुए कहा____"मगर सोचती हूं कि अगर इस हाल में जाऊंगी तो मां मुझे देख कर कैसे खुद को सम्हाल पाएगी?"

"हां ये भी है।" मैंने गंभीरता से सिर हिलाया____"आपके भैया को भी इतने सालों बाद पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। इस खुशी में वो बेचारे बड़ा भारी उत्सव भी मनाने जा रहे थे किंतु विधाता ने सब कुछ तबाह कर दिया।"

भाभी मेरी बात सुन कर एकदम से सिसक उठीं। उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। ये देख एकदम से मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। कहां मैं उन्हें खुश करने के लिए कोई न कोई कोशिश कर रहा था और कहां मेरी इस बात से उन्हें तकलीफ़ हो गई।

मैं जल्दी से उठ कर उनके पास गया और उनके दोनों कन्धों को पकड़ कर बोला____"मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी। मेरा इरादा आपको इस तरह रुला देने का हर्गिज़ नहीं था। कृपया मत रोइए। आपके आंसू देख कर मुझे भी बहुत तकलीफ़ होने लगती है।"

मेरी बात सुन कर भाभी ने खुद को सम्हाला और अपने आंसू पोंछ कर बिना कुछ कहे ही कमरे से बाहर निकल गईं। इधर मुझे अपने आप पर बेहद गुस्सा आ रहा था कि मैंने उनसे ऐसी बात ही क्यों कही जिसके चलते उन्हें रोना आ गया? ख़ैर अब क्या हो सकता था। मैं वापस पलंग पर जा कर लेट गया और मन ही मन सोचने लगा कि अब से मैं सिर्फ वही काम करूंगा जिससे भाभी को न तो तकलीफ़ हो और ना ही उनकी आंखों से आंसू निकलें।




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Har taraf afra tafri abhi bhi machi he, jo Vaibhav ke sapne me tha wahi ab bhi samne he, har taraf kohra he aur wo use bhi andar khinch raha he.
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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Awesome update, jaisa andesha tha na to sahukar sudhare hai aur na hi munshi, halanki dada thakur ne abhi to kusum ki ma se puchhne ka bolkr rishte ko tal diya hai, ummid vaise bahut hi kam hai ki kusum ki ma apne pati aur bhatije ke hatyaron ke ghar apni beti ko degi,
Vaibhav aur bhabhi ka secen bhi bahut emotionally banaya aapne,
Thanks...
Jo bhi hoga situation ke base par hi hoga...
 
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