एक
यह राजस्थान की एक अक्टूबर की दुपहर है।
ग़मगीन! गाँव में रेवड़ चराने वाला सोलह-सत्रह साल का एक लड़का मर गया। टाँके में डूबने से। लाश अभी-अभी आई है। चारों तरफ़ मातम पसरा है। भीगी-नम आँखें एक रेखीय होकर श्मशान की तरफ़ बढ़ रही है। अंतिम क्रियाएँ हुईं। लोग लौटे, इस लौटती भीड़ का हिस्सा मैं भी था। उदास और शोकमग्न लेकिन घर पहुँचते-पहुँचते फोन में
नोटिफ़िकेशन आया। चैक किया। दिल थम गया। यह दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाख़िले का रिजल्ट था।
उस समय सूतक पर गहरा विश्वास रखने वाला लड़का भला कैसे इस रिजल्ट को चैक कर लेता! घर आया। नहाया। रिजल्ट देखा—लगा कि सपना पूरा हो गया। मनचाहे कॉलेज में एडमिशन। मनचाहा—मतलब सिर्फ़ मनचाहा। कॉलेज देखना तो दूर, मैं तब तक कभी दिल्ली भी नहीं आया था। शाम होते-होते एडमिशन कंफ़र्म हुआ। पिता ने मज़दूरी से कमाएँ कुछ हज़ार दिए। सॉरी! उनकी आय के हिसाब से ‘कुछ’ नहीं बल्कि ‘बहुत कुछ हज़ार’। ई-मित्र पर फ़ीस जमा हुई। एडमिशन कंफ़र्म! लेकिन, ऐसा भी कभी होता है कि सपने आसानी से पूरे हो जाए।
इस केस में भी ऐसा ही होना था। एक कठिनाई बाक़ी थी, जो दूसरे दिन उगते सवेरे के साथ आई। एडमिशन-पोर्टल की ओर से एक और नोटिफ़िकेशन—‘Your admission has been cancelled!’. यह परेशानी भर नहीं बल्कि आँखों में नमी का निमंत्रण भी था। आनन-फ़ानन में कॉल हुए। पँद्रह बाई दस का बड़ा मकान मेरे लिए रणभूमि बन गया।
फ़ाइनली, कॉलेज एडमिशन के इंचार्ज़ से बात हुई और फिर डिपार्टमेंट की टीआईसी से। एक डॉक्यूमेंट की कमी थी। उस दिन पहली बार मेल किया। वो भी इंग्लिश में—कॉलेज ने एडमिशन से पहले ही एक कला सिखा दी। व्हाट्सऐप से पीछे की यह कला, मुझे उस दिन व्हाट्सऐप से बहुत आगे की जान पड़ी। शाम आते-आते सब ठीक हुआ। एडमिशन हो गया।
लेकिन यह क्या? क्लासेज़ तो ऑनलाइन ही होनी हैं। ख़ुशी थोड़ी कम हो गई। एक उम्मीद थी कि कभी तो कॉलेज खुलेगा। तब जाएँगे।
सबसे ख़ास बात—उस दिन पहली बार मैंने मम्मी-पापा को उदास देखा। क्यों? इसका जबाब तो आगे मिलना था।
जारी है .......