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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,553
354
Aaj k update me bhi mujhe Arjun singh pe sandeh AA Raha hai .
Puri mehfil me iske bolne Aisa laga .
Ki ye kisi to baat se vaibhav se irsha rakhta hai
Mujhe Aisa lagta hai iske pariwar me kisi mahila ke sath to vaibhav ne kand Kiya hai
Maybe aisa hi ho...
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,553
354
अध्याय - 121
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


बेमन से ही सही लेकिन रूपा के ज़ोर देने पर मुझे सारे सामान को उसकी बताई हुई जगह पर रखने में लग जाना पड़ा। वो ख़ुद भी मेरे साथ लग गई थी। कुछ ही देर में अंदर का मंज़र अलग सा नज़र आने लगा मुझे। मैंने देखा रूपा एक तरफ रसोई का निर्माण करने में लगी हुई थी जिसमें एक अधेड़ उमर का आदमी उसकी मदद कर रहा था। वो आदमी बाहर से ईंटें ले आया था और उससे चूल्हे का निर्माण कर रहा था। दूसरी तरफ रूपा रसोई का सामान दीवार में बनी छोटी छोटी अलमारियों में सजा रही थी। ये देख मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं और बाहर निकल गया।


अब आगे....


दोपहर हो गई थी।
रूपचंद्र अपनी जीप ले कर घर से चल पड़ा था। जीप में उसके बगल से एक थैला रखा हुआ था जिसमें दो टिफिन थे। दोनों टिफिन में उसकी बहन रूपा और उसके होने वाले बहनोई के लिए खाना था। उसके घर की औरतों ने बड़े ही जतन से और बड़े ही चाव से भोजन बना कर टिफिन सजाए थे। रूपचंद्र जब जीप ले कर चल दिया था तो सभी औरतों ने आंखें बंद कर के ऊपर वाले से यही प्रार्थना की थी कि सब कुछ अच्छा ही हो।

रूपचंद्र ख़ामोशी से जीप चला रहा था लेकिन उसका मन बेहद अशांत था। उसके मन में तरह तरह की आशंकाएं जन्म ले रहीं थी जिसके चलते वो बुरी तरह विचलित हो रहा था। चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुईं थी। सबसे ज़्यादा उसे इस बात की चिंता थी कि वैभव जिस तरह की मनोदशा में है उसमें कहीं वो उसकी बहन पर कोई उल्टी सीधी हरकत ना कर बैठे। उल्टी सीधी हरकत से उसका आशय ये नहीं था कि वैभव उसकी बहन की इज्ज़त पर हाथ डालेगा बल्कि ये आशय था कि कहीं वो गुस्से में आ कर उसकी बहन का कोई अपमान न करे जिसके चलते उसकी मासूम बहन का हृदय छलनी हो जाए। वो जानता था कि उसकी बहन ने प्रेम के चलते अब तक कितने कष्ट सहे थे इस लिए अब वो अपनी बहन को किसी भी तरह का कष्ट सहते नहीं देख सकता था।

रूपचंद्र ये भी सोच रहा था कि क्या उसकी बहन ने उसके जाने के बाद वैभव को अपने साथ रहने के लिए राज़ी कर लिया होगा? उसे यकीन तो नहीं हो रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसे भरोसा भी था कि उसकी बहन वैभव को ज़रूर राज़ी कर लेगी। यही सब सोचते हुए वो जल्द से जल्द अपनी बहन के पास पहुंचने के लिए जीप को तेज़ रफ़्तार में दौड़ाए जा रहा था। कुछ ही समय में जीप वैभव के मकान के बाहर पहुंच गई। उसने सबसे पहले जीप में बैठे बैठे ही चारो तरफ निगाह घुमाई। चार पांच लोग उसे मकान के बाहर लकड़ी की बल्लियों द्वारा चारदीवारी बनाते नज़र आए। उसकी घूमती हुई निगाह सहसा एक जगह जा कर ठहर गई। मकान के बाएं तरफ उसे वैभव किसी सोच में डूबा खड़ा नज़र आया जबकि उसकी बहन उसे कहीं नज़र ना आई। ये देख रूपचंद्र एकाएक फिक्रमंद हो उठा। वो जल्दी से जीप से नीचे उतरा और लगभग भागते हुए वैभव की तरफ लपका।

✮✮✮✮

मैं मकान के बाएं तरफ खड़ा उस रूपा की तरफ देखे जा रहा था जो कुछ ही दूरी पर बने कुएं से पानी निकाल कर उसे मिट्टी के एक मटके में डाल रही थी। अपने दुपट्टे को उसने सीने में लपेटने के बाद कमर में घुमा कर बांध लिया था। जब वो पानी से भरा मटका अपने सिर पर रख कर मकान की तरफ आने लगी तो सहसा मेरी तंद्रा भंग हो गई और मैं हल्के से चौंका। चौंकने का कारण था मटके से छलकते हुए पानी की वजह से उसका भींगना। खिली धूप में उसका दूधिया चेहरा चमक रहा था किंतु पानी के छलकने से उसका वही चेहरा भींगने लगा था। जाने क्यों उसे इस रूप में देख कर मेरे अंदर एक हूक सी उठी।

रूपा मेरी मनोदशा से बेख़बर इसी तरफ चली आ रही थी। उसके भींगते चेहरे पर दुनिया भर की पाकीज़गी और मासूमियत थी। तभी सहसा मुझे अपने क़रीब ही किसी आहट का आभास हुआ तो मैं हौले से पलटा।

रूपचंद्र को अपने पास भागते हुए आया देख मैं चौंक सा गया। वो मुझे अजीब तरह से देखे जा रहा था। उसकी सांसें भाग कर आने की वजह से थोड़ा उखड़ी हुईं थी।

"र...रूपा कहां है वैभव?" फिर उसने अपनी सांसों को सम्हालते हुए किंतु बेहद ही चिंतित भाव से मुझसे पूछा____"कहीं....कहीं तुमने किसी बात पर नाराज़ हो कर डांट तो नहीं दिया है उसे?"

"अरे! भैया आ गए आप??" मेरे कुछ बोलने से पहले ही रूपचंद्र को अपने पीछे से उसकी बहन की आवाज़ सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही फिरकिनी की मानिंद घूम गया।

रूपा के सिर पर पानी से भरा मटका देख और उसका चेहरा पानी से भीगा देख रूपचंद्र बुरी तरह उछल पड़ा। भौचक्का सा आंखें फाड़े देखता रह गया उसे। उधर रूपा भी थोड़ा असहज हो गई। उसने फ़ौरन ही आगे बढ़ कर मटके को अपने सिर से उतार कर मकान के चबूतरे पर बड़े एहतियात से रख दिया। उसके बाद अपने दुपट्टे को खोल कर उसे सही तरह से अपने सीने पर डाल लिया। उसे शर्म भी आने लगी थी। मटके का पानी छलक कर उसके चेहरे को ही बस नहीं भिंगोया था बल्कि बहते हुए वो उसके गले और सीने तक आ गया था। रूपचंद्र को एकदम से झटका सा लगा तो वो लपक कर अपनी बहन के पास पहुंचा।

"य....ये क्या हालत बना ली है तूने?" रूपचंद्र अभी भी बौखलाया सा था, बोला____"और ये सब क्या है? मेरा मतलब है कि सिर पर पानी का मटका?"

"हां तो इसमें कौन सी बड़ी बात है भैया?" रूपा ने शर्म के चलते थोड़ा धीमें स्वर में कहा____"पीने के लिए पानी तो लाना ही पड़ेगा ना?"

"ह...हां ये तो सही कहा तूने।" रूपचंद्र ने अपनी हालत पर काबू पाते हुए कहा____"पर तुझे खुद लाने की क्या ज़रूरत थी भला? यहां इतने सारे लोग थे किसी से भी पानी मंगवा लेती।"

"सब अपने काम में व्यस्त हैं भैया।" रूपा ने कहा____"और वैसे भी अब जब मुझे यहीं रहना है तो अपने सारे काम पूरी ईमानदारी से मुझे ख़ुद ही करने होंगे ना? क्या आप ये समझते हैं कि मैं यहां आराम से रहने आई हूं?"

रूपचंद्र को कोई जवाब न सूझा। उसके कुंद पड़े ज़हन में एकाएक धमाका सा हुआ और इस धमाके के साथ ही उसे वस्तुस्थिति का आभास हुआ। सच ही तो कह रही थी उसकी बहन। यहां वो ऐश फरमाने के लिए नहीं आई है बल्कि अपने होने वाले पति को उसकी ऐसी मानसिक अवस्था से निकालने आई है। इसके लिए उसे क्या क्या करना पड़ेगा इसका तो उसे ख़ुद भी कोई अंदाज़ा नहीं है लेकिन हां इतना ज़रूर पता है कि वो अपने वैभव को बेहतर हालत में लाने के लिए कुछ भी कर जाएगी।

"तू...तूने अभी कहा कि यहीं रहना है तो अपने सारे काम खुद ही करने होंगे इसका मतलब।" रूपचंद्र को अचानक से जैसे कुछ आभास हुआ तो वो मारे उत्साह के बोल पड़ा____"इसका मतलब तूने वैभव को राज़ी कर लिया है। मैं सच कह रहा हूं ना रूपा?"

रूपा ने हौले से हां में सिर हिला दिया। ये देख रूपचंद्र की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसका दिल कह रहा था कि उसकी बहन वैभव को राज़ी कर लेगी और उसने सच में कर लिया था। रूपचंद्र को अपनी बहन और उसके प्रेम पर बड़ा गर्व सा महसूस हुआ। उसका जी चाहा कि वो उसे खींच कर अपने गले से लगा ले किंतु फिर वो अपने जज़्बातों को काबू रखते हुए पलटा।

"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने वैभव की तरफ बढ़ते हुए खेदपूर्ण भाव से कहा____"कुछ पल पहले जब मैंने यहां रूपा को नहीं देखा तो एकदम घबरा ही गया था। तुम्हें अकेला ही यहां खड़ा देख मैं ये सोच बैठा था कि तुमने गुस्से में शायद मेरी बहन को डांट दिया होगा और शायद उसे यहां से चले जाने को भी कह दिया होगा।"

"तुम्हें मुझसे माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने भावहीन लहजे से कहा____"तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इस लिए उसके लिए फिक्रमंद हो जाना स्वाभाविक था।"

"मैं तो एक भाई होने के नाते अपनी बहन की खुशी ही चाहता हूं वैभव।" रूपचंद्र ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"और मेरी बहन को असल खुशी तुम्हारे साथ रहने में ही नहीं बल्कि हमेशा के लिए तुम्हारी बन जाने में है। कुछ समय पहले तक मैं अपनी बहन के इस प्रेम संबंध को ग़लत ही समझता आया था और इस वजह से हमेशा उससे नाराज़ रहा था। नाराज़गी और गुस्सा कब तुम्हारे प्रति नफ़रत में बदल गया इसका पता ही नहीं चला था मुझे। उसके बाद उस नफ़रत में मैंने क्या क्या बुरा किया इसका तुम्हें भी पता है। आज जब अपने उन बुरे कर्मों के बारे में सोचता हूं तो ख़ुद से घृणा होने लगती है मुझे। ख़ैर ये बहुत अच्छा हुआ कि देर से ही सही लेकिन ऊपर वाले ने मेरी अक्ल के पर्दे खोल दिए और मुझे हर बात का शिद्दत से एहसास हो गया। अब तो बस एक ही हसरत है कि मेरी बहन का जीवन तुम्हारे साथ हमेशा खुशियों से भरा रहे और जिसे वो बेइंतेहां प्रेम करती है ऊपर वाला उसे लंबी उमर से नवाजे।"

रूपचंद्र की इतनी लंबी चौड़ी बातों के बाद मैंने कुछ न कहा। ये अलग बात है कि मुझे अपने अंदर एक अजीब सा एहसास होने लगा था। कुछ दूरी पर खड़ी रूपा अपने दुपट्टे से अपनी छलक आई आंखों को पूछने लगी थी।

"अरे! मैं भी न ये कैसी बातें ले कर बैठ गया?" रूपचंद्र एकदम से चौंका और मुस्कुराते हुए बोल पड़ा____"दोपहर हो गई है और तुम दोनों को भूख लगी होगी। जाओ हाथ मुंह धो कर आओ तुम दोनों। तब तक मैं जीप से खाने का थैला ले कर आता हूं।"

कहने के साथ ही रूपचंद्र बिना किसी के जवाब की प्रतीक्षा किए बाहर खड़ी जीप की तरफ दौड़ पड़ा। इधर उसकी बात सुन रूपा ने पहले तो अपने भाई की तरफ देखा और फिर जब वो जीप के पास पहुंच गया तो उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा____"ऐसे क्यों खड़े हो? भैया ने कहा है कि हम दोनों हाथ मुंह धो लें तो चलो जल्दी।"

रूपा कहने के साथ ही शरमाते हुए मकान के अंदर बढ़ गई जबकि मैं अजीब से भाव लिए अपनी जगह खड़ा रहा। मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था। जीवन में ऐसे भी दिन आएंगे मैंने कभी कल्पना नहीं की थी। तभी रूपा अंदर से बाहर आई। उसके हाथ में एक लोटा था। मटके से उसने लोटे में पानी भरा और फिर उसने लोटे को मेरी तरफ बढ़ा दिया। लोटा बढ़ाते वक्त वो बार बार अपने भाई की तरफ देख रही थी। शायद अपने भाई की मौजूदगी में वो ना तो मुझसे कोई बात करना चाहती थी और ना ही मेरे क़रीब आना चाहती थी। ज़ाहिर है अपने भाई की मौजूदगी में शरमा रही थी वो।

रूपचंद्र जल्दी ही थैला ले कर आ गया और फिर वो मकान के बरामदे में रखे लकड़ी के तखत पर जा कर बैठ गया। रूपा उसके आने से पहले ही मुझसे दूर हो गई थी। इधर मैंने लोटे को उठा कर उसके पानी से हाथ धोया और जा कर तखत पर बैठ गया। मेरे बैठते ही रूपचंद्र ने थैले से एक टिफिन निकाल कर थैले को रूपा की तरफ बढ़ा दिया।

कुछ ही देर में रूपचंद्र ने टिफिन को खोल कर मेरे सामने रख दिया और फिर मुझे खाने का इशारा किया तो मैं ख़ामोशी से खाने लगा। दूसरी तरफ रूपा थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चली गई थी। मेरे खाना खाने तक रूपचंद्र ने कोई बात नहीं की। शायद वो नहीं चाहता था कि उसकी किसी बात से मेरा मन ख़राब हो जाए इस लिए वो चुप ही रहा। जब मैं खा चुका तो रूपचंद्र ने टिफिन के सारे जूठे बर्तन को समेट कर थैले में डाल दिया। इधर मैं उठ कर लोटे के पानी से हाथ मुंह धोने लगा।

"अच्छा वैभव अब तुम आराम करो।" मैं हाथ मुंह धो कर जब वापस आया तो रूपचंद्र तखत से उठते हुए बोला____"मैं चलता हूं अब। वो क्या है ना मुझे खेतों पर जाना है। तुम्हें तो पता ही है कि गोली लगने की वजह से गौरी शंकर काका का एक पैर ख़राब हो गया है जिसकी वजह से वो ज़्यादा चल फिर कर काम नहीं कर पाते। अतः सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता है। ख़ैर जब भी समय मिलेगा तो मैं यहां आ जाया करूंगा तुम लोगों का हाल चाल देखने के लिए। एक बात और, ये हमेशा याद रखना कि चाहे जैसी भी परिस्थिति हो मैं हर दम तुम दोनों का साथ दूंगा। मैं जानता हूं कि तुमसे मेरा ताल मेल हमेशा ही ख़राब रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है। अपने बुरे कर्मों के लिए मैं पहले भी तुमसे माफ़ी मांग चुका हूं और अब भी मांगता हूं। अब तो मेरी बस एक ही इच्छा है कि तुम जल्द से जल्द पहले की तरह ठीक हो जाओ और अपने तथा अपने घर वालों के लिए अपने कर्म से एक ऐसी मिसाल क़ायम करो जिसे लोग वर्षों तक याद रखें।"

मुझे समझ न आया कि मैं रूपचंद्र की इन बातों का क्या जवाब दूं? अपने अंदर एक अजीब सी हलचल महसूस की मैंने। उधर रूपचंद्र कुछ देर मुझे देखता रहा और फिर मकान के अंदर चला गया। क़रीब दो मिनट बाद वो बाहर आया और फिर अपनी जीप की तरफ बढ़ गया। कुछ ही पलों में वो जीप में बैठा जाता नज़र आया।

✮✮✮✮

सरोज गुमसुम सी बरामदे में बैठी हुई थी। सूनी आंखें जाने किस शून्य को घूरे जा रहीं थी। कुछ देर पहले उसने अपने बेटे अनूप को खाना खिलाया था। खाना खाने के बाद अनूप तो अपने खिलौनों में व्यस्त हो गया था किंतु वो वैसी ही बैठी रह गई थी।

अनुराधा को गुज़रे हुए आज इक्कीस दिन हो गए थे लेकिन इन इक्कीस दिनों में ज़रा भी बदलाव नहीं आया था। सरोज को रात दिन अपनी बेटी की याद आती थी और फिर उसकी आंखें छलक पड़ती थीं। अगर कहीं कोई आहट होती तो वो एकदम से चौंक पड़ती और फिर हड़बड़ा कर ये देखने का प्रयास करती कि क्या ये आहट उसकी बेटी अनू की वजह से आई है? क्या अनू उसको मां कहते हुए आई है? इस आभास के साथ ही वो एकदम से व्याकुल हो उठती किंतु जब वो आहट बेवजह हो जाती और कहीं से भी अनू की आवाज़ न आती तो उसका हृदय हाहाकार कर उठता। आंखों से आंसू की धारा बहने लगती।

उसका बेटा अनूप यूं तो खिलौनों में व्यस्त हो जाता था लेकिन इसके बाद भी दिन में कई बार वो उससे अपनी दीदी अनुराधा के बारे पूछता कि उसकी दीदी कहां गई है और कब आएगी? सरोज उसके सवालों को सुन कर तड़प उठती। उसे समझ में न आता कि अपने बेटे को आख़िर क्या जवाब दे? बड़ी मुश्किल से दिल को पत्थर कर के वो बेटे को कोई न कोई बहाना बना कर चुप करा देती और फिर रसोई अथवा कमरे में जा कर फूट फूट कर रोने लगती। ना उसे खाने पीने का होश रहता था और ना ही किसी और चीज़ का। जब उसका बेटा भूख लगे होने की बात करता तब जा कर उसे होश आता और फिर वो खुद को सम्हाल कर अपने बेटे के लिए खाना बनाती।

सरोज की जैसे अब यही दिनचर्या बन गई थी। दिन भर वो अपनी बेटी के ख़यालों में खोई रहती। दिन तो किसी तरह गुज़र ही जाता था लेकिन बैरन रात न गुज़रती थी। अच्छी भली नज़र आने वाली औरत कुछ ही दिनों में बड़ी अजीब सी नज़र आने लगी थी। चेहरा निस्तेज, आंखों के नीचे काले धब्बे, होठों में रेगिस्तान जैसा सूखापन। सिर के बालों को न जाने कितने दिनों से कंघा नसीब न हुआ था जिसके चलते बुरी तरह उलझ गए थे।

इसके पहले जब उसके पति मुरारी की मौत हुई थी तब उसने किसी तरह खुद को सम्हाल लिया था लेकिन बेटी की मौत ने उसे किसी गहरे सदमे में डुबा दिया था। पति की मौत के बाद उसकी बेटी ने ही उसे सम्हाला था लेकिन अब तो वो भी नहीं थी। कदाचित यही वजह थी कि वो इस भयावह हादसे को भुला नहीं पा रही थी।

सरोज बरामदे में गुमसुम बैठी किसी शून्य में खोई ही थी कि तभी बाहर का दरवाज़ा किसी ने शांकल के द्वारा बजाया जिसके चलते उसकी तंद्रा भंग हो गई और वो एकदम से चौंक पड़ी।

"अ...अनू???" सरोज हड़बड़ा कर उठी। मुरझाए चेहरे पर पलक झपकते ही खुशी की चमक उभर आई। लगभग भागते हुए वो दरवाज़े की तरफ बढ़ी।

अभी वो दरवाज़े के क़रीब भी न पहुंच पाई थी कि तभी दरवाज़ा खुल गया और अगले कुछ ही पलों में जब दरवाज़ा पूरी तरह खुल गया तो जिन चेहरों पर उसकी नज़र पड़ी उन्हें देख उसका सारा उत्साह और सारी खुशी एक ही पल में ग़ायब हो गई।

खुले हुए दरवाज़े के पार खड़े दो व्यक्तियों को वो अपलक देखने लगी थी। हलक में फंसी सांसें जैसे एहसान सा करते हुए चल पड़ीं थी। उधर उन दोनों व्यक्तियों ने जब सरोज की हालत को देखा तो एक के अंदर हुक सी उठी। पलक झपकते ही उसकी आंखें भर आईं।

✮✮✮✮

रूपचंद्र को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि रूपा बाहर निकली। मैं चुपचाप तखत पर बैठा हुआ था। दिलो दिमाग़ में अनुराधा का ख़याल था और आंखों के सामने अनायास ही उसका चेहरा चमक उठता था।

"ऐसे कब तक बैठे रहोगे?" रूपा की आवाज़ से मैं ख़यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा। उधर उसने कहा____"क्या तुमने कुछ भी नहीं सोचा कि आगे क्या करना है?"

"म...मतलब??" मैं पहले तो उलझ सा गया फिर जैसे अचानक ही मुझे कुछ याद आया तो जल्दी से बोला____"हां वो...तुमने कहा था ना कि हम कुछ सोचेंगे? क्या तुमने सोच लिया? बताओ मुझे।"

"तुम अभी भी खुद को शांत करने की कोशिश नहीं कर रहे हो।" रूपा ने जैसे हताश हो कर कहा____"अगर ऐसा करोगे तो कैसे तुम अनुराधा के लिए कुछ कर पाओगे, बताओ?"

"मैं क्या करूं रूपा?" मैं एकदम से दुखी हो गया, रुंधे गले से बोला____"मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि मैं अपनी अनुराधा के लिए क्या करूं? हर वक्त बस उसी का ख़याल रहता है। हर पल बस उसी की याद आती है।"

"हां मैं समझती हूं।" रूपा ने अधीरता से कहा____"वो इतनी प्यारी थी कि उसे कोई नहीं भूल सकता। मुझे भी उसकी बहुत याद आती है लेकिन सिर्फ याद करने से ही तो सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा न?"

"फिर कैसे ठीक होगा?" मैंने कहा____"तुमने कहा था कि तुम मेरी मदद करोगी तो बताओ ना कि मैं क्या करूं?"

"अगर तुम सच में अनुराधा के लिए कुछ करना चाहते हो और ये भी चाहते हो कि उसकी आत्मा को शांति मिले।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"तो उसके लिए सबसे पहले तुम्हें खुद को पूरी तरह से शांत करना होगा।"

"मैं कोशिश कर रहा हूं।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"लेकिन उसका ख़याल दिलो दिमाग़ से जाता ही नहीं है।"

"हां मैं जानती हूं कि ये इतना आसान नहीं है लेकिन इसके लिए ज़रूरी यही है कि तुम अपने दिमाग़ को उसके अलावा कहीं और लगाओ।" रूपा ने कहा____"या फिर किसी काम में लगाओ। अगर तुम यूं अकेले चुपचाप बैठे रहोगे तो उसका ख़याल अपने दिलो दिमाग़ से नहीं निकाल पाओगे।"

मैं रूपा की बात सुन कर कुछ बोल ना सका। बस उसकी तरफ देखता रहा। उधर उसने कहा____"अच्छा चलो हम अनुराधा के घर चलते हैं।"

"अ...अनुराधा के घर???" मैं चौंका।

"हां और क्या?" रूपा मेरे इस तरह चौंकने पर खुद भी चौंकी, फिर पूछा उसने____"क्या तुम अनुराधा के घर नहीं जाना चाहते?"

"मगर वहां अनुराधा तो नहीं मिलेगी न।" मैंने उदास भास से कहा।

"हां लेकिन अनुराधा की मां तो मिलेगी न।" रूपा ने कहा____"तुम्हारी तरह वो भी तो अपनी बेटी के लिए दुखी होंगी। क्या ये तुम्हारा फर्ज़ नहीं है कि तुम्हारे रहते तुम्हारी अनुराधा की मां को किसी भी तरह का कोई दुख न होने पाए?"

रूपा की इस बात ने मेरे मनो मस्तिष्क में धमाका सा किया। मैं एकदम से सोच में पड़ गया।

"तुम्हारी तरह अगर अनुराधा की मां भी खुद को दुखी किए होंगी।" उधर रूपा ने कहा____"तो ज़रा सोचो अनुराधा की आत्मा को इससे कितना दुख पहुंच रहा होगा। ये तुम्हारा फर्ज़ है वैभव कि अनुराधा के जाने के बाद तुम उसकी मां और उसके भाई का हर तरह से ख़याल रखो और उन्हें किसी भी तरह का कोई कष्ट न होने दो।"

"स....सही कह रही हो तुम।" मैं एकदम से बोल पड़ा____"म....मैं अपनी अनुराधा की मां को और उसके छोटे भाई को तो भूल ही गया था। वो दोनों सच में बहुत दुखी होंगे। हे भगवान! मैं उन्हें कैसे भूल गया? उन दोनों को दुख में डूबा देख सच में मेरी अनुराधा को बहुत तकलीफ़ हो रही होगी।"

"चलो अब बैठे न रहो।" रूपा ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा____"हमें अनुराधा के घर जाना होगा। वहां पर अनुराधा की मां और उसके भाई को सम्हालना है। अगर वो दुखी हों तो हमें उनका दुख बांटना है। तभी अनुराधा की भी तकलीफ़ दूर होगी।"

"हां हां चलो जल्दी।" मैं झट तखत से नीचे उतर आया।

इस वक्त मेरे दिलो दिमाग़ में एकदम से तूफ़ान सा चल पड़ा था। अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा था कि मैं अपनी अनुराधा की मां और उसके भाई को कैसे भूल बैठा था?

मैं और रूपा पैदल ही अनुराधा के घर की तरफ चल पड़े थे। मेरे मन में जाने कैसे कैसे विचार उछल कूद मचाए हुए थे। आत्मग्लानि में डूबा जा रहा था मैं। रूपा मेरे बगल से ही चल रही थी और बार बार मेरे चेहरे को देख रही थी। शायद वो मेरे चेहरे पर उभरते कई तरह के भावों को देख समझने की कोशिश कर रही थी कि मेरे अंदर क्या चल रहा है? सहसा उसने मेरे एक हाथ को पकड़ लिया तो मैं चौंक पड़ा और उसकी तरफ देखा।

"इतना हलकान मत हो।" उसने कहा____"देर से ही सही तुम्हें अपनी भूल का एहसास हो गया है। इंसान को जब अपनी भूल का एहसास हो जाए और वो अच्छा कार्य करने चल पड़े तो समझो फिर वो बेकसूर हो जाता है।"

"क्या तुम सच कह रही हो?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए बड़ी अधीरता से पूछा।

"क्या मैंने कभी तुमसे झूठ बोला है?" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा तो मैं कुछ बोल ना सका।

कुछ ही देर में हम अनुराधा के घर पहुंच गए। दरवाज़े के पास पहुंच कर हम दोनों रुक गए। मेरी हिम्मत न हुई कि मैं दरवाज़ा खटखटाऊं। जाने क्यों एकाएक मैं अपराध बोझ से दब सा गया था। शायद रूपा को मेरी हालत का अंदाज़ा था इस लिए उसने ही दरवाज़े को शांकल की मदद से बजाया। कुछ पलों की प्रतीक्षा के बाद भी जब अंदर से कोई आवाज़ न आई तो रूपा ने फिर से दरवाज़े को बजाना चाहा किंतु तभी दरवाज़े पर हल्का ज़ोर पड़ गया जिसके चलते वो हौले से अंदर की तरफ ढुलक सा गया।

ज़ाहिर है वो अंदर से कुंडी द्वारा बंद नहीं था। ये देख रूपा ने दरवाज़े पर हाथ का ज़ोर बढ़ाया तो दरवाज़ा खुलता चला गया। जैसे ही दरवाज़ा खुला तो सामने सरोज काकी पर हमारी नज़र पड़ी। उसकी हालत देख मैं बुत सा बना खड़ा रह गया जबकि उसे देख रूपा की आंखें भर आईं।



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TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,553
354
अध्याय - 122
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सरोज काकी अपलक हम दोनों को देखे जा रही थी और फिर अचानक ही उसके चेहरे के भाव बदलते नज़र आए। अगले कुछ ही पलों में उसका चेहरा घोर पीड़ा से बिगड़ गया और आंखों ने आंसुओं का मानों समंदर उड़ेल दिया। उसकी ये हालत देख हम दोनों ही खुद को रोक न सके। बिजली की सी तेज़ी से मैं आगे बढ़ा और सरोज काकी को सम्हाला। रूपा तो उसकी हालत देख सिसक ही उठी थी।

"य....ये क्या हालत बना ली है तुमने काकी?" मैं उसे लिए आंगन से होते हुए बरामदे की तरफ बढ़ा।

इधर रूपा भागते हुए अंदर बरामदे में गई और वहां रखी चारपाई को बिछा दिया। मैंने काकी को हौले से चारपाई पर बैठाया और फिर उसके पास ही नीचे ज़मीन पर एड़ियों के बल बैठ गया। उसके दोनों हाथ पकड़ रखे थे मैंने। सरोज काकी के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। यही हाल रूपा का भी था। हम लोगों को आया देख अनूप भी अपने खिलौने छोड़ कर हमारे पास आ गया था। अपनी मां को रोते देख वो भी रोने लगा था।

"चुप हो जाओ काकी।" मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"ऐसे मत रोओ तुम और....और मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हारी ज़रा भी सुध नहीं ली। जबकि ये मेरी ज़िम्मेदारी थी कि मैं तुम्हारा और अनूप का हर तरह से ख़याल रखूं। मुझे माफ़ कर दो काकी।"

कहने के साथ ही मैंने रोते हुए सरोज के घुटनों में अपना सिर रख दिया। सरोज काकी ने सिसकते हुए ही मेरे सिर पर अपना कांपता हाथ रखा और फिर बोली____"मेरी बेटी को ले आओ वैभव। मुझे उसकी बहुत याद आती है। उसके बिना एक पल भी जिया नहीं जा रहा मुझसे।"

"काश! ये मेरे बस में होता काकी।" मैं उसकी अथाह पीड़ा में कही बात को सुन रो पड़ा, बोला____"काश! अपनी अनुराधा को वापस लाने की शक्ति मुझमें होती तो पलक झपकते ही उसे ले आता और फिर कभी उसे कहीं जाने ना देता।"

सरोज मेरी बात सुन और भी सिसक उठी। रूपा से जब ये सब न देखा गया तो वो भी उसके सामने घुटनों के बल बैठ गई और मेरे हाथ से उसका हाथ ले कर करुण भाव से बोली____"मैं आपकी अनुराधा तो नहीं बन सकती लेकिन यकीन मानिए आपकी बेटी की ही तरह आपको प्यार करूंगी और आपका ख़याल रखूंगी। मुझे अपनी बेटी बना लीजिए मां।"

रूपा की बात सुन सरोज उसे कातर भाव से देखने लगी। उसके चेहरे पर कई तरह के रंग आते जाते नज़र आए। रूपा झट से खड़ी हो गई और सरोज के आंसू पोंछते हुए बोली____"मैं भले ही साहूकार हरि शंकर की बेटी रूपा हूं लेकिन आज से आपकी भी बेटी हूं मां। क्या आप मुझे अपनी बेटी नहीं बनाएंगी?"

रूपा की बात सुन सरोज ने मेरी तरफ देखा। मुझे समझ न आया कि उसके यूं देखने पर मैं क्या कहूं। उधर थोड़ी देर मुझे देखने के बाद सरोज वापस रूपा को देखने लगी। रूपा की आंखों में आंसू और अपने लिए असीम प्यार तथा श्रद्धा देख उसकी आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं।

"तू मेरी बेटी ही है बेटी।" सरोज रुंधे गले से बोली और फिर झपट कर उसे अपने सीने से लगा लिया____"आ मेरे कलेजे से लग जा ताकि मेरे झुलसते हुए हृदय को ठंडक मिल जाए।"

रूपा ने भी सरोज को कस कर अपने गले से लगा लिया। दोनों की ही आंखें बरस रहीं थी। इधर अनूप बड़ी मासूमियत से ये सब देखे जा रहा था। उसका रोना तो बंद हो गया था लेकिन अब उसकी आंखों में जिज्ञासा के भाव थे। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि ये सब क्या हो रहा है?

बहरहाल, काफी देर तक रूपा और सरोज एक दूसरे के गले लगी रहीं उसके बाद अलग हुईं। सरोज अब बहुत हद तक शांत हो गई थी। रूपा अभी भी सरोज की हालत देख दुखी थी किंतु उसके चेहरे पर मौजूद भावों से साफ पता चल रहा था कि उसके मन में बहुत कुछ चलने लगा था। वो फ़ौरन ही पलटी और इधर उधर निगाह घुमाने लगी। जल्दी ही उसकी निगाह रसोई की तरफ ठहर गई। वो फ़ौरन ही उस तरफ बढ़ चली। जल्दी ही वो रसोई में दाखिल हो गई। कुछ देर में वो वापस आई और फिर सरोज से बोली____"उठिए मां और हाथ मुंह धो लीजिए। मैं आपके लिए खाना लगाती हूं और फिर अपने हाथों से आपको खाना खिलाऊंगी।"

रूपा की बात सुन कर सरोज कुछ पलों तक उसकी तरफ देखती रही फिर रूपा के ही ज़ोर देने पर उठी। रूपा को कुछ ही दूरी पर पानी से भरी बाल्टी रखी नज़र आई। बरामदे में एक तरफ लोटा रखा था जिसे वो ले आई और फिर बाल्टी से पानी निकाल कर उसने सरोज को दिया।

कुछ ही देर में आलम ये था कि बरामदे में एक चटाई पर बैठी सरोज को रूपा अपने हाथों से खाना खिला रही थी। सरोज खाना कम खा रही थी आंसू ज़्यादा बहा रही थी जिस पर रूपा उसे बार बार पूर्ण अधिकार पूर्ण भाव से आंसू बहाने से मना कर रही थी। मैं और अनूप ये मंज़र देख रहे थे। जहां एक तरफ अनूप ये सब बड़े ही कौतूहल भाव से देखे जा रहा था वहीं मैं ये सोच कर थोड़ा खुश था कि रूपा ने कितनी समझदारी से सरोज को सम्हाल लिया था और अब वो उसकी बेटी बन कर उसे अपने हाथों से खाना खिला रही थी। इतने दिनों में आज पहली बार मुझे अपने अंदर एक खुशी का आभास हो रहा था।

सरोज के इंकार करने पर भी रूपा ने जबरन सरोज को पेट भर के खाना खिलाया। सरोज जब खा चुकी तो रूपा ने जूठी थाली उठा कर नर्दे के पास रख दिया।

"तू रहने दे बेटी मैं बाद में ये सब धो मांज लूंगी।" सरोज ने रूपा से कहा तो रूपा ने कहा____"क्यों रहने दूं मां? आप आराम से बैठिए और मुझे अपना काम करने दीजिए।"

रूपा की बात सुन सरोज को अजीब तो लगा किंतु फिर उसके होठों पर दर्द मिश्रित फीकी सी मुस्कान उभर आई। उधर रूपा एक बार फिर रसोई में पहुंची और कुछ देर बाद जब वो बाहर आई तो उसके हाथों में ढेर सारे जूठे बर्तन थे। उन बर्तनों को ला कर उसने नर्दे के पास रखा और फिर पानी की बाल्टी को भी उठा कर वहीं रख लिया। इधर उधर उसने निगाह घुमाई तो उसे एक कोने में बर्तन मांजने वाला गुझिना दिख गया जिसे वो फ़ौरन ही उठा लाई। उसके बाद उसने बर्तन मांजना शुरू कर दिया।

सरोज उसे मना करती रह गई लेकिन रूपा ने उसकी बात न मानी और बर्तन धोती रही। इधर मैं भी उसके इस कार्य से थोड़ा हैरान था किंतु जाने क्यों मुझे उसका ये सब करना अच्छा लग रहा था। सरोज को जब एहसास हो गया कि रूपा उसकी कोई बात मानने वाली नहीं है तो उसने गहरी सांस ले कर उसे मना करना ही बंद कर दिया। तभी अचानक वो हुआ जिसकी हममें से किसी को भी उम्मीद नहीं थी।

"अले! ये तुम त्या तल लही हो?" रूपा को बर्तन मांजते देख अनूप एकदम से अपनी तोतली भाषा में बोल पड़ा____"मेली अनू दीदी आएगी तो बल्तन धोएगी। थोलो तुम, मेली दीदी बल्तन धोएगी।"

अनूप की इस बात से रूपा एकदम से चौंक पड़ी। इधर सरोज की आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं। उधर कुछ देर मासूम अनूप को देखते रहने के बाद रूपा ने अपनी नम आंखों से उसकी तरफ देखते हुए बड़े प्यार से कहा____"पर ये सारे बर्तन धोने के लिए तो मुझे तुम्हारी अनू दीदी ने ही कहा है बेटू।"

"अत्था।" अनूप के चेहरे पर आश्चर्य उभर आया, फिर उत्सुकता से बोला____"त्या तुम थत कह लही हो? त्या तुम मिली हो मेली अनू दीदी थे? तहां है वो? मुधे देथना है दीदी तो।"

"ठीक है।" रूपा ने अपनी रुलाई को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए कहा____"लेकिन तुम्हारी अनू दीदी ने ये भी कहा है कि वो तुमसे नाराज़ है। क्योंकि तुम पढ़ाई नहीं करते हो न। दिन भर बस खेलते ही रहते हो।"

"नहीं थेलूंगा अब।" अनूप ने झट से अपने हाथ में लिया खिलौना फेंक दिया, फिर बोला_____"अबथे पल्हूंगा मैं।"

"फिर तो ये अच्छी बात है।" रूपा ने प्यार से कहा____"अगर तुम रोज़ पढ़ोगे तो तुम्हारी दीदी को बहुत अच्छा लगेगा।"

"फिल तो मैं जलूल पल्हूंगा।" अनूप ने कहा, किंतु फिर सहसा मायूस सा हो कर बोला____"पल मैं पल्हूंगा तैथे? मेले पाथ पहाला ही न‌ई है।"

"ओह!" रूपा ने कहा____"तो पहले तुम्हारी दीदी कैसे पढ़ाती थी तुम्हें?"

"न‌ई पल्हाती थी।" अनूप ने मासूमियत से कहा____"पहाला ही न‌ई था तो न‌ई पल्हाती थी दीदी।"

रूपा को समझते देर न लगी कि सच क्या है। मतलब कि अनूप सच कह रहा था। पढ़ाई लिखाई तो ऊंचे और संपन्न घरों के बच्चे ही करते थे। ग़रीब के बच्चे तो अनपढ़ ही रहते थे और बड़े लोगों के खेतों में मेहनत मज़दूरी करते थे। यही उनका जीवन था।

"ठीक है तो अब से मैं पढ़ाऊंगी तुम्हें।" फिर रूपा ने कुछ सोचते हुए कहा____"तुम पढ़ोगे न अपनी इस दीदी से?"

"त्या तुम भी मेली दीदी हो?" अनूप ने आश्चर्य से आंखें फैला कर पूछा।

"हां, जैसे अनू तुम्हारी दीदी थी वैसे ही मैं भी तुम्हारी दीदी हूं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा___"अब से तुम मुझे भी दीदी कहना, ठीक है ना?"

"थीक है।" अनूप ने सिर हिलाया____"फिल तुम भी मुधे दीदी दैथे दुल देना।"

"दुल????" रूपा को जैसे समझ न आया तो उसने फ़ौरन ही सरोज की तरफ देखा।

"ये गुड़ की बात कर रहा है बेटी।" सरोज ने भारी गले से कहा____"जब भी ये रूठ जाता था तो अनू इसे गुड़ दे कर मनाया करती थी।"

सरोज की बात सुन रूपा के अंदर हुक सी उठी। उसने डबडबाई आंखों से अनूप की तरफ देखा। फिर अपनी हालत को सम्हालते हुए उसने अनूप से कहा कि हां वो भी उसे गुड़ दिया करेगी। उसके ऐसा कहने से भोले भाले अनूप का चेहरा खिल गया। फिर वो रूपा के कहने पर अपने खिलौनों के साथ जा कर खेलने लगा।

उसके बाद रूपा ने फिर से बर्तन मांजना शुरू कर दिया। इधर मैं ख़ामोशी से ये सब देख सुन रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि साहूकार हरि शंकर की लड़की रूपा एक मामूली से किसान के घर में इतने प्यार से और इतने लगाव से बर्तन मांज रही थी। वाकई उसका हृदय बहुत बड़ा था।

कुछ देर में जब सारे बर्तन धुल गए तो रूपा उन्हें ले जा कर रसोई में रख आई।

"आपके और अनूप के कपड़े कहां हैं मां?" फिर उसने सरोज के पास आ कर पूछा____"लाइए मैं उन सारे कपड़ों को भी धुल देती हूं।"

"अरे! ये सब तू रहने दे बेटी।" सरोज एकदम से हड़बड़ा उठी थी, बोली____"मैं धो लूंगी कपड़े। वैसे भी ज़्यादा नहीं हैं।"

"मैं आपकी बेटी हूं ना?" रूपा ने अपनी कमर में दोनों हाथ रख कर तथा बड़े अधिकार पूर्ण लहजे से कहा____"जैसे अनुराधा आपके और अनूप के सारे कपड़े धोती थी वैसे ही मैं भी धो दूंगी तो क्या हो जाएगा?"

सरोज हैरान परेशान देखती रह गई उसे। हैरत से तो मेरी भी आंखें फट पड़ीं थी लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं। मैं तो इस बात से ही चकित था कि रूपा ये सब कितनी सहजता से बोल रही थी। ऐसा लगता था जैसे वो सच में सरोज की ही बेटी हो और जैसे अनुराधा अपनी मां से पूर्ण अधिकार से बातें करती रही थी वैसे ही इस वक्त रूपा कर रही थी।

"और आप इस तरह चुप क्यों बैठे हैं?" तभी रूपा एकदम से मेरी तरफ पलट कर बोली तो मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। वो मुझे आप कहते हुए आगे बोली____"ऐसे चुप हो कर मत बैठिए यहां। जाइए और दुकान से कपड़े धोने के लिए निरमा खरीद कर ले आइए।"

रूपा की बात सुन कर पहले तो मुझे कुछ समझ में ही न आया किंतु जल्दी ही मेरे ज्ञान चक्षु खुले। मैं फ़ौरन ही उठा और अभी लाता हूं कह कर दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। उधर सरोज अभी भी हैरान परेशान हालत में बैठी थी। फिर जैसे उसने खुद को सम्हाला और फिर रूपा से बोली____"बेटी, ये सब रहने दे ना और क्या ज़रूरत थी वैभव को दुकान भेजने की? मैं कपड़े धो लूंगी।"

"अब से आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है मां।" रूपा ने सरोज के सामने पहले की तरह एड़ियों के बल बैठते हुए गंभीरता से कहा____"अगर सच में आप मुझे अनुराधा की ही तरह अपनी बेटी मानती हैं तो मुझे बेटी का फर्ज़ निभाने दीजिए।"

सरोज की आंखें छलक पड़ीं। जज़्बात जब बुरी तरह मचल उठे तो उसने फिर से रूपा को उठा कर खुद से छुपका लिया और सिसक उठी।

"ऊपर वाला मुझे कैसे कैसे दिन दिखाएगा?" फिर उसने सिसकते हुए कहा____"एक बेटी की जगह और कितनी बेटियां बना कर मेरे सामने लाएगा?"

"ये आप कैसी बातें कर रहीं हैं मां?" रूपा ने उससे अलग हो कर रुंधे गले से कहा।

"यही सच है बेटी।" सरोज ने कहा____"तुझे पता है इसके पहले जब अनु जीवित थी तो एक दिन इस घर में वैभव के साथ दादा ठाकुर की बहू आईं थी। उन्होंने भी यही कहा था कि वो मेरी बड़ी बेटी हैं और अनुराधा मेरी छोटी बेटी है। उस दिन तो बड़ा खुश हुई थी मैं लेकिन नहीं जानती थी कि बड़ी बेटी के मिलते ही मैं अपनी छोटी बेटी को हमेशा के लिए खो दूंगी।"

कहने के साथ ही सरोज फूट फूट कर रो पड़ी। रूपा भी सिसक उठी लेकिन उसने खुद को सम्हाल कर सरोज को शांत करने की कोशिश की____"मत रोइए मां, रागिनी दीदी को भी कहां पता रहा होगा कि ऐसा कुछ हो जाएगा।"

"ईश्वर ही जाने कि वो क्या चाहता है?" सरोज ने कहा____"लेकिन इतना तो अब मैं समझ गई हूं कि जिस दिन वैभव के क़दम इस घर की दहलीज़ पर पड़े थे उसी दिन इस घर के लोगों की किस्मत भी बदल गई थी।"

"ये क्या कह रही हैं मां?" रूपा का समूचा वजूद जैसे हिल सा गया।

"सच यही है बेटी।" सरोज ने दृढ़ता से कहा____"दादा ठाकुर का बेटा हमारे जीवन में क्या आया मानों हम सबकी बदकिस्मती के दिन ही शुरू हो गए। पहले मेरे पति की हत्या हो गई और फिर मेरी बेटी को मार डाला गया। मैं जानती हूं कि मेरी ये बातें तुम्हें बुरी लगेंगी लेकिन कड़वा सच यही है। दादा ठाकुर का बेटा बड़ा ही मनहूस है बेटी। उसी के कुकर्मों की वजह से मैंने अपने पति और बेटी को खोया है। वरना तू खुद ही सोच कि मेरे मरद की और मेरी बेटी की किसी से भला क्या दुश्मनी थी जिससे कोई उन दोनों की हत्या कर दे?"

रूपा अवाक सी देखती रह गई सरोज को। मनो मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि सरोज वैभव के बारे में ऐसा भी बोल सकती है। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो सरोज का ऐसा सोचना कहीं न कहीं वाजिब भी था लेकिन इस कड़वी सच्चाई का एहसास होने के बाद भी रूपा उसकी तरह वैभव के बारे में ऐसा ख़याल तक अपने ज़हन में नहीं लाना चाहती थी। आख़िर वैभव से वो बेपनाह प्रेम करती थी। उसे अपना सब कुछ मानती थी। फिर भला कैसे वो वैभव के बारे में उल्टा सीधा सोच लेती?

"ये सब बातें मेरे मन में इसके पहले नहीं आईं थी।" उधर सरोज मानों कहीं खोए हुए भाव से कह रही थी____"ये तो.....ये तो अब जा कर मेरे मन में आईं हैं। अपने मरद की हत्या को मैंने हादसा समझ लिया था और फिर जब बेटी की हत्या हुई तो अभी कुछ दिन पहले ही अचानक से मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेटी और मेरा मरद तो असल में वैभव के कुकर्मों की वजह से मारे गए। ना मेरे मरद की किसी से ऐसी दुश्मनी थी और ना ही मेरी बेटी की तो ये साफ ही है ना कि वो दोनों वैभव के कुकर्मों की वजह से ही मौत के मुंह में चले गए। उसी के दुश्मनों ने मेरे मरद और मेरी बेटी की हत्या कर के उससे अपनी दुश्मनी निकाली है।"

रूपा को समझ ना आया कि वो सरोज की इन बातों का क्या जवाब दे? अभी भी उसके समूचे जिस्म में अजीब सी सिहरन दौड़ रही थी। उसे सरोज के मुख से वैभव के बारे में ऐसा सुनने से बुरा तो लग रहा था लेकिन वो ये भी जानती थी कि सरोज की इस सोच को और उसके द्वारा कही गई बातों को नकारा नहीं जा सकता था।

"तू भी वैभव से प्रेम करती है ना?" सहसा सरोज ने जैसे विषय बदलते हुए रूपा की तरफ देखा, फिर बोली_____"वैभव ने बताया था मुझे तेरे बारे में। मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि वैभव जैसे लड़के को मेरी बेटी में ऐसा क्या नज़र आया था जो वो उससे प्रेम करने लगा था और तो और मेरी बेटी भी उससे प्रेम करने लगी थी। जिस दिन उसे पता चला कि वैभव उससे ब्याह करेगा उस दिन बड़ा खुश हुई थी वो। मेरे सामने अपनी खुशी ज़ाहिर करने में शर्मा रही थी इस लिए भाग कर अपने कमरे में चली गई थी। मुझे मालूम है वो अपने कमरे में खुशी से उछलती रही होगी। उस नादान को क्या पता था कि उसकी वो खुशी और वो खुद महज चंद दिनों की ही मेहमान थी? जिसे वो प्रेम करने लगी थी उसी का कोई दुश्मन उसकी बेरहमी से हत्या करने वाला था। आंखों के सामने अभी भी वो मंज़र चमकता है। पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश आंखों के सामने से ओझल ही नहीं होती कभी।"

कहने के साथ ही सरोज आंसू बहाते हुए सिसक उठी। उसकी वेदनायुक्त बातें रूपा को अंदर तक झकझोर गईं। पलक झपकते ही उसकी आंखें भी भर आईं। उसकी आंखों के सामने भी अनुराधा की लाश चमक उठी। उसने अपनी आंखें बंद कर के बड़ी मुश्किल से अपने मचल उठे जज़्बातों को काबू किया और फिर सरोज को धीरज देते हुए शांत करने का प्रयास करने लगी। सरोज काफी देर तक सिसकती रही। जब उसका गुबार निकल गया तो शांत हो गई।

"तुझे पता है।" फिर उसने अनूप की तरफ देखते हुए अधीर भाव से कहा_____"हर बार मुझे इस नन्ही सी जान का ख़याल आ जाता है इस लिए अपनी जान लेने से ख़ुद को रोक लेती हूं। वरना सच कहती हूं जीने की अब ज़रा सी भी इच्छा नहीं है।"

"ऐसा मत कहिए मां।" रूपा ने तड़प कर कहा____"मैं मानती हूं कि आपके अंदर जो दुख है वो बहुत असहनीय है लेकिन फिर भी किसी न किसी तरह अपने आपको सम्हालना ही होगा। इस नन्ही सी जान के लिए आपको मजबूत बनना होगा। वैसे भी अब से आप अकेली नहीं हैं। आपकी ये बेटी आपको अब दुखी नहीं रहने देगी।"

"फ़िक्र मत कर बेटी।" सरोज ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"मैं अपना भले ही ख़याल न रख सकूं लेकिन इस नन्ही सी जान का ख़याल ज़रूर रखूंगी। आख़िर इसका मेरे सिवा इस दुनिया में है ही कौन? इसके लिए मुझे जीना ही पड़ेगा। तू मेरी चिंता मत कर और मेरे लिए अपना समय बर्बाद मत कर। तेरी अपनी दुनिया है और तेरे अपने भी कुछ कर्तव्य हैं। तू अपना देख बेटी....मैं किसी तरह इस नन्ही सी जान के साथ जी ही लूंगी।"

"नहीं मां।" रूपा ने झट से कहा____"मैं आपको अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी। अगर मैंने ऐसा किया तो मेरी छोटी बहन अनुराधा मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी।"

अभी सरोज कुछ कहने ही वाली थी कि तभी मैं आ गया। मेरे हाथ में निरमा का पैकेट तो था ही साथ में कुछ और भी ज़रूरी सामान था। मैंने वो सब सामान रूपा को पकड़ा दिया। एक छोटे से पैकेट में मैं अनूप के लिए गुड़ और नमकीन ले आया था। रूपा ने अनूप को बुला कर उसे वो पैकेट पकड़ा दिया जिसे ले कर वो बड़ा ही खुश हुआ।

रूपा ने बाकी सामान का मुआयना किया और फिर निरमा एक तरफ रख कर बाकी के समान को अंदर रख आई। फिर उसने सरोज से कपड़ों के बारे में पूछा तो सरोज को मजबूरन बताना ही पड़ा। उसके बताने पर रूपा उसके और अनूप के सारे गंदे कपड़े ले कर आंगन में आ गई। कुएं के बारे में जब उसने पूछा तो मैंने उसे दूसरे दरवाज़े से पीछे की तरफ जाने का इशारा किया तो वो कपड़ों के साथ निरमा और बाल्टी ले कर चली गई।

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क्षितिज पर मौजूद सूरज पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ रहा था। क़रीब दो या ढाई घण्टे का दिन रह गया था। आसमान में काले काले बादल नज़र आने लगे थे। बारिश होने के आसार नज़र आ रहे थे। मैं वापस अपने मकान में आ गया था जबकि रूपा सरोज के यहां ही रुक गई थी। असल में वो सरोज तथा उसके बेटे के लिए रात का खाना बना देना चाहती थी ताकि सरोज को कोई परेशानी न हो। सरोज ने इसके लिए उसे बहुत मना किया था मगर रूपा नहीं मानी थी। मैं ये कह कर चला आया था कि मैं शाम को उसे लेने आ जाऊंगा।

जब मैं मकान में पहुंचा था तो कुछ ही देर में भुवन भी आ गया था। आज काफी दिनों बाद मैंने उसे देखा था। कुछ बुझा बुझा सा था वो। ज़ाहिर है अपनी छोटी बहन अनुराधा की मौत के सदमे से अभी भी नहीं उबरा था वो।

"मैंने तो किसी तरह खुद को सम्हाल लिया है छोटे कुंवर।" उसने कहा____"आप भी खुद को सम्हाल लीजिए। आख़िर कब तक आप हर किसी से विरक्त हो कर रहेंगे?"

"मेरी अनुराधा मेरी वजह से आज इस दुनिया में नहीं है भुवन।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"मेरे कुकर्मों की वजह से उसकी हत्या हुई है। मैं उसका अपराधी हूं। जी करता है खुदकुशी कर लूं और पलक झपकते ही उसके पास पहुंच जाऊं।"

"भगवान के लिए ऐसा मत सोचिए कुंवर।" भुवन ने हड़बड़ा कर कहा____"माना कि अनुराधा की हत्या के लिए कहीं न कही आप भी ज़िम्मेदार हैं लेकिन ये भी सच है कि हर चीज़ का कर्ता धर्ता ऊपर वाला ही होता है। आपने ये तो नहीं चाहा था ना कि ऐसा हो जाए?"

"तर्क वितर्क कर के सच को झुठलाया नहीं जा सकता भुवन।" मैंने दुखी भाव से कहा____"और सच यही है कि अनुराधा का असल हत्यारा मैं हूं। ना मैं उसके जीवन में आता और ना ही उसके साथ ये सब होता। इतने बड़े अपराध का बोझ ले कर मैं कैसे जी सकूंगा भुवन? मैं तो अब अपनी ही नज़रों में गिर चुका हूं।"

"खुद को सम्हालिए छोटे कुंवर।" भुवन ने अधीरता से कहा____"इस तरह से खुद को कोसना अथवा हीन भावना से ग्रसित रहना उचित नहीं है। अगर आप ये सब सोच कर इस तरह खुद को दुखी रखेंगे तो ऊपर कहीं मौजूद अनुराधा की आत्मा भी दुखी हो जाएगी। कम से कम उसके बारे में तो सोचिए।"

"आज उसके घर गया था मैं।" मैंने एक गहरी सांस ले कर कहा____"उसकी मां अपनी बेटी के लिए बहुत ज़्यादा दुखी है। तुम्हें पता है, वो भी मानती है कि उसकी बेटी की हत्या मेरे ही कुकर्मों की वजह से हुई है। मेरे कुकर्म आज मेरे लिए अभिषाप बन गए हैं भुवन। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मुझे ये सब देखना पड़ेगा और ये सब सहना पड़ेगा। काश! ऊपर वाले ने मुझे सद्बुद्धि दी होती तो मैं कभी भूल से भी ऐसे कुकर्म न करता।"

"भूल जाइए छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"जो हो चुका है उसे ना तो वापस लाया जा सकता है और ना ही मिटाया जा सकता है। उस सबके बारे में सोच कर सिर्फ और सिर्फ दुख ही होगा, जबकि आपको सब कुछ भुला कर आगे बढ़ना चाहिए। आख़िर आपका जीवन सिर्फ आपका ही तो बस नहीं है। आपके इस जीवन में आपके परिवार वालों का भी हक़ है। उनके बारे में सोचिए।"

भुवन की बातें सुन कर मैं कुछ बोल ना सका। भुवन काफी देर तक मुझे समझाता रहा और फिर ये भी बताया कि आज कल खेतों में काम काज कैसा चल रहा है। आख़िर में वो ये कहते हुए दुखी हो गया कि जब से अनुराधा गुज़री है तब से वो उसके घर नहीं गया। ऐसा इस लिए क्योंकि उसकी हिम्मत ही नहीं होती सरोज के सामने जाने की। वो सरोज के सवालों के जवाब नहीं दे सकेगा किंतु आज वो जाएगा।

भुवन के जाने के बाद मैं फिर से ख़यालों में गुम हो गया। मेरे ज़हन में जाने कैसे कैसे ख़याल उभर रहे थे जो मुझे आहत करते जा रहे थे। मन बहुत ज़्यादा व्यथित हो गया था। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं उठा और अपनी अनुराधा की चिता की तरफ चल पड़ा। वहीं पर मुझे थोड़ा सुकून मिलता था।




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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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क्या ही कहें इन दोनो अपडेट्स के बारे में, व्यथा की पराकाष्ठा है इसमें।

न सरोज का सोचना गलत है, न खुद वैभव का खुद को दोष देना। ये सच है कि व्यक्ति के कर्म कहीं न कहीं उसके सामने आते हैं, और उसकी परिणिति उसके ही अपनों के साथ होती है।

खैर अब सबको इस दुख से आगे बढ़ना जरूरी है।

रूपा इस पूरी कहानी में सबसे समझदार किरदार है जो बस जोड़ना जानती है। ऐसे किरदार अब बस कहानियों में ही मिलते हैं।

उम्दा अपडेट शुभम भाई।
 

Suraj13796

💫THE_BRAHMIN_BULL💫
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सरोज का ऐसा सोचना की सब वैभव की वजह से हुआ है ये एक partial myth की तरह है। बिल्कुल मुरारी और अनुराधा की हत्या का सबसे बड़ा कारण वैभव ही है।

लेकिन जब उसका दिमाग शांत हो जाए तो उसे सोचना चाहिए कि वैभव उनकी जिंदगी में जबरदस्ती तो आया नही था, लेकर तो वही आई थी, यदि उसने खुद का चरित्र ठीक रखा होता तो इसके वैभव का संबंध उससे बनता ही नहीं।

ये तो तब तक की बात थी जब तक वैभव को घर और गांव से निकाला नही गया था। गांव से निकालने के बाद मुरारी ही उसे घर लेकर आया था उसकी मदद के लिए, वैभव तो मदद लेने मना कर रहा था

और इसके पीछे भी मुरारी का अपना ही स्वार्थ था। मुरारी जानता था की अपनी बेटी की शादी करा पाने में वो सक्षम नहीं है अतः वो चाहता था की कैसे भी करके वैभव उसकी बेटी से शादी कर ले।

ताली कभी भी एक हांथ से नही बजती है न

पर जिस तरह से रूपा ने सरोज को सम्हाला, गौरी शंकर का रूपा को वैभव के पास भेजने का फैसला एकदम सही प्रतीत होता नजर आ रहा है।

वैसे हो सकता है की मैं overthinking कर रहा हू, लेकिन जब सफेद नकाबपोश ने दादा ठाकुर की हवेली से चंदन को भगा के ले गया था तब से मुझे लग रहा की कोई घरवाला भी शायद उसके साथ है, पर ऐसा कोई नजर नहीं आता जो उसका साथ देगा।

बहरहाल इंतजार है इस बात की कब वैभव वापस से ठीक होगा। कितना वक्त लगेगा उसे सम्हलने में।

I wish की काश अनुराधा इस कहानी में अभी भी रहती। मतलब कहानी में कितना ही suspense क्यों ना आ जाता था, लेकिन जब वो आती थी तो कहानी का suspense कही पीछे छूट जाता था, और उस suspence पर उसका innocence और simplicity भारी पड़ जाते थे

ये उसके character का aura था, जिसकी भरपाई इस कहानी के बाकी सारे character मिल कर भी नहीं कर सकते।

मेरे नजरिए उसकी हत्या कहानी को थोड़ा dull कर गई, अगर वो कहानी में रहती तो ज्यादा better रहता, और ये मैं इसलिए नही कह रहा की मुझे या बाकी सब को उसके character से लगाव था, ये बस इसलिए कह रहा की जब आप suspnse थ्रिलर लिखते है तो एक character चाहिए होता है जो बीच बीच में कहानी में सबका mind थोड़ा divert कर सके।


I hope इसे गलत तरीके से नहीं लिया जाएगा। मैं लेखक को ये नही कह रहा की उसे कहानी इस तरह या उस तरह चलाना चाहिए। मैं तो बस कुछ thoughts share कर रहा था जो भी मैंने पिछले 8–10 सालो में online offline कहानियां पढ़ के experience gain किया।
हो सकता है की दूसरो के opinion different हो and i respect that.

उम्दा अपडेट भाई, प्रती
क्षा अगले अपडेट की ❣️✨



 
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