R@ndom_guy
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Badi bhari vidambna hoti h aise palon me kaise khud sambhle or kaise dusro ka khyal rkheअध्याय - 121
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बेमन से ही सही लेकिन रूपा के ज़ोर देने पर मुझे सारे सामान को उसकी बताई हुई जगह पर रखने में लग जाना पड़ा। वो ख़ुद भी मेरे साथ लग गई थी। कुछ ही देर में अंदर का मंज़र अलग सा नज़र आने लगा मुझे। मैंने देखा रूपा एक तरफ रसोई का निर्माण करने में लगी हुई थी जिसमें एक अधेड़ उमर का आदमी उसकी मदद कर रहा था। वो आदमी बाहर से ईंटें ले आया था और उससे चूल्हे का निर्माण कर रहा था। दूसरी तरफ रूपा रसोई का सामान दीवार में बनी छोटी छोटी अलमारियों में सजा रही थी। ये देख मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं और बाहर निकल गया।
अब आगे....
दोपहर हो गई थी।
रूपचंद्र अपनी जीप ले कर घर से चल पड़ा था। जीप में उसके बगल से एक थैला रखा हुआ था जिसमें दो टिफिन थे। दोनों टिफिन में उसकी बहन रूपा और उसके होने वाले बहनोई के लिए खाना था। उसके घर की औरतों ने बड़े ही जतन से और बड़े ही चाव से भोजन बना कर टिफिन सजाए थे। रूपचंद्र जब जीप ले कर चल दिया था तो सभी औरतों ने आंखें बंद कर के ऊपर वाले से यही प्रार्थना की थी कि सब कुछ अच्छा ही हो।
रूपचंद्र ख़ामोशी से जीप चला रहा था लेकिन उसका मन बेहद अशांत था। उसके मन में तरह तरह की आशंकाएं जन्म ले रहीं थी जिसके चलते वो बुरी तरह विचलित हो रहा था। चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुईं थी। सबसे ज़्यादा उसे इस बात की चिंता थी कि वैभव जिस तरह की मनोदशा में है उसमें कहीं वो उसकी बहन पर कोई उल्टी सीधी हरकत ना कर बैठे। उल्टी सीधी हरकत से उसका आशय ये नहीं था कि वैभव उसकी बहन की इज्ज़त पर हाथ डालेगा बल्कि ये आशय था कि कहीं वो गुस्से में आ कर उसकी बहन का कोई अपमान न करे जिसके चलते उसकी मासूम बहन का हृदय छलनी हो जाए। वो जानता था कि उसकी बहन ने प्रेम के चलते अब तक कितने कष्ट सहे थे इस लिए अब वो अपनी बहन को किसी भी तरह का कष्ट सहते नहीं देख सकता था।
रूपचंद्र ये भी सोच रहा था कि क्या उसकी बहन ने उसके जाने के बाद वैभव को अपने साथ रहने के लिए राज़ी कर लिया होगा? उसे यकीन तो नहीं हो रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसे भरोसा भी था कि उसकी बहन वैभव को ज़रूर राज़ी कर लेगी। यही सब सोचते हुए वो जल्द से जल्द अपनी बहन के पास पहुंचने के लिए जीप को तेज़ रफ़्तार में दौड़ाए जा रहा था। कुछ ही समय में जीप वैभव के मकान के बाहर पहुंच गई। उसने सबसे पहले जीप में बैठे बैठे ही चारो तरफ निगाह घुमाई। चार पांच लोग उसे मकान के बाहर लकड़ी की बल्लियों द्वारा चारदीवारी बनाते नज़र आए। उसकी घूमती हुई निगाह सहसा एक जगह जा कर ठहर गई। मकान के बाएं तरफ उसे वैभव किसी सोच में डूबा खड़ा नज़र आया जबकि उसकी बहन उसे कहीं नज़र ना आई। ये देख रूपचंद्र एकाएक फिक्रमंद हो उठा। वो जल्दी से जीप से नीचे उतरा और लगभग भागते हुए वैभव की तरफ लपका।
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मैं मकान के बाएं तरफ खड़ा उस रूपा की तरफ देखे जा रहा था जो कुछ ही दूरी पर बने कुएं से पानी निकाल कर उसे मिट्टी के एक मटके में डाल रही थी। अपने दुपट्टे को उसने सीने में लपेटने के बाद कमर में घुमा कर बांध लिया था। जब वो पानी से भरा मटका अपने सिर पर रख कर मकान की तरफ आने लगी तो सहसा मेरी तंद्रा भंग हो गई और मैं हल्के से चौंका। चौंकने का कारण था मटके से छलकते हुए पानी की वजह से उसका भींगना। खिली धूप में उसका दूधिया चेहरा चमक रहा था किंतु पानी के छलकने से उसका वही चेहरा भींगने लगा था। जाने क्यों उसे इस रूप में देख कर मेरे अंदर एक हूक सी उठी।
रूपा मेरी मनोदशा से बेख़बर इसी तरफ चली आ रही थी। उसके भींगते चेहरे पर दुनिया भर की पाकीज़गी और मासूमियत थी। तभी सहसा मुझे अपने क़रीब ही किसी आहट का आभास हुआ तो मैं हौले से पलटा।
रूपचंद्र को अपने पास भागते हुए आया देख मैं चौंक सा गया। वो मुझे अजीब तरह से देखे जा रहा था। उसकी सांसें भाग कर आने की वजह से थोड़ा उखड़ी हुईं थी।
"र...रूपा कहां है वैभव?" फिर उसने अपनी सांसों को सम्हालते हुए किंतु बेहद ही चिंतित भाव से मुझसे पूछा____"कहीं....कहीं तुमने किसी बात पर नाराज़ हो कर डांट तो नहीं दिया है उसे?"
"अरे! भैया आ गए आप??" मेरे कुछ बोलने से पहले ही रूपचंद्र को अपने पीछे से उसकी बहन की आवाज़ सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही फिरकिनी की मानिंद घूम गया।
रूपा के सिर पर पानी से भरा मटका देख और उसका चेहरा पानी से भीगा देख रूपचंद्र बुरी तरह उछल पड़ा। भौचक्का सा आंखें फाड़े देखता रह गया उसे। उधर रूपा भी थोड़ा असहज हो गई। उसने फ़ौरन ही आगे बढ़ कर मटके को अपने सिर से उतार कर मकान के चबूतरे पर बड़े एहतियात से रख दिया। उसके बाद अपने दुपट्टे को खोल कर उसे सही तरह से अपने सीने पर डाल लिया। उसे शर्म भी आने लगी थी। मटके का पानी छलक कर उसके चेहरे को ही बस नहीं भिंगोया था बल्कि बहते हुए वो उसके गले और सीने तक आ गया था। रूपचंद्र को एकदम से झटका सा लगा तो वो लपक कर अपनी बहन के पास पहुंचा।
"य....ये क्या हालत बना ली है तूने?" रूपचंद्र अभी भी बौखलाया सा था, बोला____"और ये सब क्या है? मेरा मतलब है कि सिर पर पानी का मटका?"
"हां तो इसमें कौन सी बड़ी बात है भैया?" रूपा ने शर्म के चलते थोड़ा धीमें स्वर में कहा____"पीने के लिए पानी तो लाना ही पड़ेगा ना?"
"ह...हां ये तो सही कहा तूने।" रूपचंद्र ने अपनी हालत पर काबू पाते हुए कहा____"पर तुझे खुद लाने की क्या ज़रूरत थी भला? यहां इतने सारे लोग थे किसी से भी पानी मंगवा लेती।"
"सब अपने काम में व्यस्त हैं भैया।" रूपा ने कहा____"और वैसे भी अब जब मुझे यहीं रहना है तो अपने सारे काम पूरी ईमानदारी से मुझे ख़ुद ही करने होंगे ना? क्या आप ये समझते हैं कि मैं यहां आराम से रहने आई हूं?"
रूपचंद्र को कोई जवाब न सूझा। उसके कुंद पड़े ज़हन में एकाएक धमाका सा हुआ और इस धमाके के साथ ही उसे वस्तुस्थिति का आभास हुआ। सच ही तो कह रही थी उसकी बहन। यहां वो ऐश फरमाने के लिए नहीं आई है बल्कि अपने होने वाले पति को उसकी ऐसी मानसिक अवस्था से निकालने आई है। इसके लिए उसे क्या क्या करना पड़ेगा इसका तो उसे ख़ुद भी कोई अंदाज़ा नहीं है लेकिन हां इतना ज़रूर पता है कि वो अपने वैभव को बेहतर हालत में लाने के लिए कुछ भी कर जाएगी।
"तू...तूने अभी कहा कि यहीं रहना है तो अपने सारे काम खुद ही करने होंगे इसका मतलब।" रूपचंद्र को अचानक से जैसे कुछ आभास हुआ तो वो मारे उत्साह के बोल पड़ा____"इसका मतलब तूने वैभव को राज़ी कर लिया है। मैं सच कह रहा हूं ना रूपा?"
रूपा ने हौले से हां में सिर हिला दिया। ये देख रूपचंद्र की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसका दिल कह रहा था कि उसकी बहन वैभव को राज़ी कर लेगी और उसने सच में कर लिया था। रूपचंद्र को अपनी बहन और उसके प्रेम पर बड़ा गर्व सा महसूस हुआ। उसका जी चाहा कि वो उसे खींच कर अपने गले से लगा ले किंतु फिर वो अपने जज़्बातों को काबू रखते हुए पलटा।
"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने वैभव की तरफ बढ़ते हुए खेदपूर्ण भाव से कहा____"कुछ पल पहले जब मैंने यहां रूपा को नहीं देखा तो एकदम घबरा ही गया था। तुम्हें अकेला ही यहां खड़ा देख मैं ये सोच बैठा था कि तुमने गुस्से में शायद मेरी बहन को डांट दिया होगा और शायद उसे यहां से चले जाने को भी कह दिया होगा।"
"तुम्हें मुझसे माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने भावहीन लहजे से कहा____"तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इस लिए उसके लिए फिक्रमंद हो जाना स्वाभाविक था।"
"मैं तो एक भाई होने के नाते अपनी बहन की खुशी ही चाहता हूं वैभव।" रूपचंद्र ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"और मेरी बहन को असल खुशी तुम्हारे साथ रहने में ही नहीं बल्कि हमेशा के लिए तुम्हारी बन जाने में है। कुछ समय पहले तक मैं अपनी बहन के इस प्रेम संबंध को ग़लत ही समझता आया था और इस वजह से हमेशा उससे नाराज़ रहा था। नाराज़गी और गुस्सा कब तुम्हारे प्रति नफ़रत में बदल गया इसका पता ही नहीं चला था मुझे। उसके बाद उस नफ़रत में मैंने क्या क्या बुरा किया इसका तुम्हें भी पता है। आज जब अपने उन बुरे कर्मों के बारे में सोचता हूं तो ख़ुद से घृणा होने लगती है मुझे। ख़ैर ये बहुत अच्छा हुआ कि देर से ही सही लेकिन ऊपर वाले ने मेरी अक्ल के पर्दे खोल दिए और मुझे हर बात का शिद्दत से एहसास हो गया। अब तो बस एक ही हसरत है कि मेरी बहन का जीवन तुम्हारे साथ हमेशा खुशियों से भरा रहे और जिसे वो बेइंतेहां प्रेम करती है ऊपर वाला उसे लंबी उमर से नवाजे।"
रूपचंद्र की इतनी लंबी चौड़ी बातों के बाद मैंने कुछ न कहा। ये अलग बात है कि मुझे अपने अंदर एक अजीब सा एहसास होने लगा था। कुछ दूरी पर खड़ी रूपा अपने दुपट्टे से अपनी छलक आई आंखों को पूछने लगी थी।
"अरे! मैं भी न ये कैसी बातें ले कर बैठ गया?" रूपचंद्र एकदम से चौंका और मुस्कुराते हुए बोल पड़ा____"दोपहर हो गई है और तुम दोनों को भूख लगी होगी। जाओ हाथ मुंह धो कर आओ तुम दोनों। तब तक मैं जीप से खाने का थैला ले कर आता हूं।"
कहने के साथ ही रूपचंद्र बिना किसी के जवाब की प्रतीक्षा किए बाहर खड़ी जीप की तरफ दौड़ पड़ा। इधर उसकी बात सुन रूपा ने पहले तो अपने भाई की तरफ देखा और फिर जब वो जीप के पास पहुंच गया तो उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा____"ऐसे क्यों खड़े हो? भैया ने कहा है कि हम दोनों हाथ मुंह धो लें तो चलो जल्दी।"
रूपा कहने के साथ ही शरमाते हुए मकान के अंदर बढ़ गई जबकि मैं अजीब से भाव लिए अपनी जगह खड़ा रहा। मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था। जीवन में ऐसे भी दिन आएंगे मैंने कभी कल्पना नहीं की थी। तभी रूपा अंदर से बाहर आई। उसके हाथ में एक लोटा था। मटके से उसने लोटे में पानी भरा और फिर उसने लोटे को मेरी तरफ बढ़ा दिया। लोटा बढ़ाते वक्त वो बार बार अपने भाई की तरफ देख रही थी। शायद अपने भाई की मौजूदगी में वो ना तो मुझसे कोई बात करना चाहती थी और ना ही मेरे क़रीब आना चाहती थी। ज़ाहिर है अपने भाई की मौजूदगी में शरमा रही थी वो।
रूपचंद्र जल्दी ही थैला ले कर आ गया और फिर वो मकान के बरामदे में रखे लकड़ी के तखत पर जा कर बैठ गया। रूपा उसके आने से पहले ही मुझसे दूर हो गई थी। इधर मैंने लोटे को उठा कर उसके पानी से हाथ धोया और जा कर तखत पर बैठ गया। मेरे बैठते ही रूपचंद्र ने थैले से एक टिफिन निकाल कर थैले को रूपा की तरफ बढ़ा दिया।
कुछ ही देर में रूपचंद्र ने टिफिन को खोल कर मेरे सामने रख दिया और फिर मुझे खाने का इशारा किया तो मैं ख़ामोशी से खाने लगा। दूसरी तरफ रूपा थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चली गई थी। मेरे खाना खाने तक रूपचंद्र ने कोई बात नहीं की। शायद वो नहीं चाहता था कि उसकी किसी बात से मेरा मन ख़राब हो जाए इस लिए वो चुप ही रहा। जब मैं खा चुका तो रूपचंद्र ने टिफिन के सारे जूठे बर्तन को समेट कर थैले में डाल दिया। इधर मैं उठ कर लोटे के पानी से हाथ मुंह धोने लगा।
"अच्छा वैभव अब तुम आराम करो।" मैं हाथ मुंह धो कर जब वापस आया तो रूपचंद्र तखत से उठते हुए बोला____"मैं चलता हूं अब। वो क्या है ना मुझे खेतों पर जाना है। तुम्हें तो पता ही है कि गोली लगने की वजह से गौरी शंकर काका का एक पैर ख़राब हो गया है जिसकी वजह से वो ज़्यादा चल फिर कर काम नहीं कर पाते। अतः सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता है। ख़ैर जब भी समय मिलेगा तो मैं यहां आ जाया करूंगा तुम लोगों का हाल चाल देखने के लिए। एक बात और, ये हमेशा याद रखना कि चाहे जैसी भी परिस्थिति हो मैं हर दम तुम दोनों का साथ दूंगा। मैं जानता हूं कि तुमसे मेरा ताल मेल हमेशा ही ख़राब रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है। अपने बुरे कर्मों के लिए मैं पहले भी तुमसे माफ़ी मांग चुका हूं और अब भी मांगता हूं। अब तो मेरी बस एक ही इच्छा है कि तुम जल्द से जल्द पहले की तरह ठीक हो जाओ और अपने तथा अपने घर वालों के लिए अपने कर्म से एक ऐसी मिसाल क़ायम करो जिसे लोग वर्षों तक याद रखें।"
मुझे समझ न आया कि मैं रूपचंद्र की इन बातों का क्या जवाब दूं? अपने अंदर एक अजीब सी हलचल महसूस की मैंने। उधर रूपचंद्र कुछ देर मुझे देखता रहा और फिर मकान के अंदर चला गया। क़रीब दो मिनट बाद वो बाहर आया और फिर अपनी जीप की तरफ बढ़ गया। कुछ ही पलों में वो जीप में बैठा जाता नज़र आया।
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सरोज गुमसुम सी बरामदे में बैठी हुई थी। सूनी आंखें जाने किस शून्य को घूरे जा रहीं थी। कुछ देर पहले उसने अपने बेटे अनूप को खाना खिलाया था। खाना खाने के बाद अनूप तो अपने खिलौनों में व्यस्त हो गया था किंतु वो वैसी ही बैठी रह गई थी।
अनुराधा को गुज़रे हुए आज इक्कीस दिन हो गए थे लेकिन इन इक्कीस दिनों में ज़रा भी बदलाव नहीं आया था। सरोज को रात दिन अपनी बेटी की याद आती थी और फिर उसकी आंखें छलक पड़ती थीं। अगर कहीं कोई आहट होती तो वो एकदम से चौंक पड़ती और फिर हड़बड़ा कर ये देखने का प्रयास करती कि क्या ये आहट उसकी बेटी अनू की वजह से आई है? क्या अनू उसको मां कहते हुए आई है? इस आभास के साथ ही वो एकदम से व्याकुल हो उठती किंतु जब वो आहट बेवजह हो जाती और कहीं से भी अनू की आवाज़ न आती तो उसका हृदय हाहाकार कर उठता। आंखों से आंसू की धारा बहने लगती।
उसका बेटा अनूप यूं तो खिलौनों में व्यस्त हो जाता था लेकिन इसके बाद भी दिन में कई बार वो उससे अपनी दीदी अनुराधा के बारे पूछता कि उसकी दीदी कहां गई है और कब आएगी? सरोज उसके सवालों को सुन कर तड़प उठती। उसे समझ में न आता कि अपने बेटे को आख़िर क्या जवाब दे? बड़ी मुश्किल से दिल को पत्थर कर के वो बेटे को कोई न कोई बहाना बना कर चुप करा देती और फिर रसोई अथवा कमरे में जा कर फूट फूट कर रोने लगती। ना उसे खाने पीने का होश रहता था और ना ही किसी और चीज़ का। जब उसका बेटा भूख लगे होने की बात करता तब जा कर उसे होश आता और फिर वो खुद को सम्हाल कर अपने बेटे के लिए खाना बनाती।
सरोज की जैसे अब यही दिनचर्या बन गई थी। दिन भर वो अपनी बेटी के ख़यालों में खोई रहती। दिन तो किसी तरह गुज़र ही जाता था लेकिन बैरन रात न गुज़रती थी। अच्छी भली नज़र आने वाली औरत कुछ ही दिनों में बड़ी अजीब सी नज़र आने लगी थी। चेहरा निस्तेज, आंखों के नीचे काले धब्बे, होठों में रेगिस्तान जैसा सूखापन। सिर के बालों को न जाने कितने दिनों से कंघा नसीब न हुआ था जिसके चलते बुरी तरह उलझ गए थे।
इसके पहले जब उसके पति मुरारी की मौत हुई थी तब उसने किसी तरह खुद को सम्हाल लिया था लेकिन बेटी की मौत ने उसे किसी गहरे सदमे में डुबा दिया था। पति की मौत के बाद उसकी बेटी ने ही उसे सम्हाला था लेकिन अब तो वो भी नहीं थी। कदाचित यही वजह थी कि वो इस भयावह हादसे को भुला नहीं पा रही थी।
सरोज बरामदे में गुमसुम बैठी किसी शून्य में खोई ही थी कि तभी बाहर का दरवाज़ा किसी ने शांकल के द्वारा बजाया जिसके चलते उसकी तंद्रा भंग हो गई और वो एकदम से चौंक पड़ी।
"अ...अनू???" सरोज हड़बड़ा कर उठी। मुरझाए चेहरे पर पलक झपकते ही खुशी की चमक उभर आई। लगभग भागते हुए वो दरवाज़े की तरफ बढ़ी।
अभी वो दरवाज़े के क़रीब भी न पहुंच पाई थी कि तभी दरवाज़ा खुल गया और अगले कुछ ही पलों में जब दरवाज़ा पूरी तरह खुल गया तो जिन चेहरों पर उसकी नज़र पड़ी उन्हें देख उसका सारा उत्साह और सारी खुशी एक ही पल में ग़ायब हो गई।
खुले हुए दरवाज़े के पार खड़े दो व्यक्तियों को वो अपलक देखने लगी थी। हलक में फंसी सांसें जैसे एहसान सा करते हुए चल पड़ीं थी। उधर उन दोनों व्यक्तियों ने जब सरोज की हालत को देखा तो एक के अंदर हुक सी उठी। पलक झपकते ही उसकी आंखें भर आईं।
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रूपचंद्र को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि रूपा बाहर निकली। मैं चुपचाप तखत पर बैठा हुआ था। दिलो दिमाग़ में अनुराधा का ख़याल था और आंखों के सामने अनायास ही उसका चेहरा चमक उठता था।
"ऐसे कब तक बैठे रहोगे?" रूपा की आवाज़ से मैं ख़यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा। उधर उसने कहा____"क्या तुमने कुछ भी नहीं सोचा कि आगे क्या करना है?"
"म...मतलब??" मैं पहले तो उलझ सा गया फिर जैसे अचानक ही मुझे कुछ याद आया तो जल्दी से बोला____"हां वो...तुमने कहा था ना कि हम कुछ सोचेंगे? क्या तुमने सोच लिया? बताओ मुझे।"
"तुम अभी भी खुद को शांत करने की कोशिश नहीं कर रहे हो।" रूपा ने जैसे हताश हो कर कहा____"अगर ऐसा करोगे तो कैसे तुम अनुराधा के लिए कुछ कर पाओगे, बताओ?"
"मैं क्या करूं रूपा?" मैं एकदम से दुखी हो गया, रुंधे गले से बोला____"मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि मैं अपनी अनुराधा के लिए क्या करूं? हर वक्त बस उसी का ख़याल रहता है। हर पल बस उसी की याद आती है।"
"हां मैं समझती हूं।" रूपा ने अधीरता से कहा____"वो इतनी प्यारी थी कि उसे कोई नहीं भूल सकता। मुझे भी उसकी बहुत याद आती है लेकिन सिर्फ याद करने से ही तो सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा न?"
"फिर कैसे ठीक होगा?" मैंने कहा____"तुमने कहा था कि तुम मेरी मदद करोगी तो बताओ ना कि मैं क्या करूं?"
"अगर तुम सच में अनुराधा के लिए कुछ करना चाहते हो और ये भी चाहते हो कि उसकी आत्मा को शांति मिले।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"तो उसके लिए सबसे पहले तुम्हें खुद को पूरी तरह से शांत करना होगा।"
"मैं कोशिश कर रहा हूं।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"लेकिन उसका ख़याल दिलो दिमाग़ से जाता ही नहीं है।"
"हां मैं जानती हूं कि ये इतना आसान नहीं है लेकिन इसके लिए ज़रूरी यही है कि तुम अपने दिमाग़ को उसके अलावा कहीं और लगाओ।" रूपा ने कहा____"या फिर किसी काम में लगाओ। अगर तुम यूं अकेले चुपचाप बैठे रहोगे तो उसका ख़याल अपने दिलो दिमाग़ से नहीं निकाल पाओगे।"
मैं रूपा की बात सुन कर कुछ बोल ना सका। बस उसकी तरफ देखता रहा। उधर उसने कहा____"अच्छा चलो हम अनुराधा के घर चलते हैं।"
"अ...अनुराधा के घर???" मैं चौंका।
"हां और क्या?" रूपा मेरे इस तरह चौंकने पर खुद भी चौंकी, फिर पूछा उसने____"क्या तुम अनुराधा के घर नहीं जाना चाहते?"
"मगर वहां अनुराधा तो नहीं मिलेगी न।" मैंने उदास भास से कहा।
"हां लेकिन अनुराधा की मां तो मिलेगी न।" रूपा ने कहा____"तुम्हारी तरह वो भी तो अपनी बेटी के लिए दुखी होंगी। क्या ये तुम्हारा फर्ज़ नहीं है कि तुम्हारे रहते तुम्हारी अनुराधा की मां को किसी भी तरह का कोई दुख न होने पाए?"
रूपा की इस बात ने मेरे मनो मस्तिष्क में धमाका सा किया। मैं एकदम से सोच में पड़ गया।
"तुम्हारी तरह अगर अनुराधा की मां भी खुद को दुखी किए होंगी।" उधर रूपा ने कहा____"तो ज़रा सोचो अनुराधा की आत्मा को इससे कितना दुख पहुंच रहा होगा। ये तुम्हारा फर्ज़ है वैभव कि अनुराधा के जाने के बाद तुम उसकी मां और उसके भाई का हर तरह से ख़याल रखो और उन्हें किसी भी तरह का कोई कष्ट न होने दो।"
"स....सही कह रही हो तुम।" मैं एकदम से बोल पड़ा____"म....मैं अपनी अनुराधा की मां को और उसके छोटे भाई को तो भूल ही गया था। वो दोनों सच में बहुत दुखी होंगे। हे भगवान! मैं उन्हें कैसे भूल गया? उन दोनों को दुख में डूबा देख सच में मेरी अनुराधा को बहुत तकलीफ़ हो रही होगी।"
"चलो अब बैठे न रहो।" रूपा ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा____"हमें अनुराधा के घर जाना होगा। वहां पर अनुराधा की मां और उसके भाई को सम्हालना है। अगर वो दुखी हों तो हमें उनका दुख बांटना है। तभी अनुराधा की भी तकलीफ़ दूर होगी।"
"हां हां चलो जल्दी।" मैं झट तखत से नीचे उतर आया।
इस वक्त मेरे दिलो दिमाग़ में एकदम से तूफ़ान सा चल पड़ा था। अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा था कि मैं अपनी अनुराधा की मां और उसके भाई को कैसे भूल बैठा था?
मैं और रूपा पैदल ही अनुराधा के घर की तरफ चल पड़े थे। मेरे मन में जाने कैसे कैसे विचार उछल कूद मचाए हुए थे। आत्मग्लानि में डूबा जा रहा था मैं। रूपा मेरे बगल से ही चल रही थी और बार बार मेरे चेहरे को देख रही थी। शायद वो मेरे चेहरे पर उभरते कई तरह के भावों को देख समझने की कोशिश कर रही थी कि मेरे अंदर क्या चल रहा है? सहसा उसने मेरे एक हाथ को पकड़ लिया तो मैं चौंक पड़ा और उसकी तरफ देखा।
"इतना हलकान मत हो।" उसने कहा____"देर से ही सही तुम्हें अपनी भूल का एहसास हो गया है। इंसान को जब अपनी भूल का एहसास हो जाए और वो अच्छा कार्य करने चल पड़े तो समझो फिर वो बेकसूर हो जाता है।"
"क्या तुम सच कह रही हो?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए बड़ी अधीरता से पूछा।
"क्या मैंने कभी तुमसे झूठ बोला है?" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा तो मैं कुछ बोल ना सका।
कुछ ही देर में हम अनुराधा के घर पहुंच गए। दरवाज़े के पास पहुंच कर हम दोनों रुक गए। मेरी हिम्मत न हुई कि मैं दरवाज़ा खटखटाऊं। जाने क्यों एकाएक मैं अपराध बोझ से दब सा गया था। शायद रूपा को मेरी हालत का अंदाज़ा था इस लिए उसने ही दरवाज़े को शांकल की मदद से बजाया। कुछ पलों की प्रतीक्षा के बाद भी जब अंदर से कोई आवाज़ न आई तो रूपा ने फिर से दरवाज़े को बजाना चाहा किंतु तभी दरवाज़े पर हल्का ज़ोर पड़ गया जिसके चलते वो हौले से अंदर की तरफ ढुलक सा गया।
ज़ाहिर है वो अंदर से कुंडी द्वारा बंद नहीं था। ये देख रूपा ने दरवाज़े पर हाथ का ज़ोर बढ़ाया तो दरवाज़ा खुलता चला गया। जैसे ही दरवाज़ा खुला तो सामने सरोज काकी पर हमारी नज़र पड़ी। उसकी हालत देख मैं बुत सा बना खड़ा रह गया जबकि उसे देख रूपा की आंखें भर आईं।
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Ye bohot peedadayi samay hai
Chahe ye ek kahani matra ho logo ke liye lekin anuradha ka charitra uska bholapan dil me ghar kar gya hai yr