S M H R
TERE DAR PE SANAM CHALE AYE HUM
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Nice updateअध्याय - 122
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सरोज काकी अपलक हम दोनों को देखे जा रही थी और फिर अचानक ही उसके चेहरे के भाव बदलते नज़र आए। अगले कुछ ही पलों में उसका चेहरा घोर पीड़ा से बिगड़ गया और आंखों ने आंसुओं का मानों समंदर उड़ेल दिया। उसकी ये हालत देख हम दोनों ही खुद को रोक न सके। बिजली की सी तेज़ी से मैं आगे बढ़ा और सरोज काकी को सम्हाला। रूपा तो उसकी हालत देख सिसक ही उठी थी।
"य....ये क्या हालत बना ली है तुमने काकी?" मैं उसे लिए आंगन से होते हुए बरामदे की तरफ बढ़ा।
इधर रूपा भागते हुए अंदर बरामदे में गई और वहां रखी चारपाई को बिछा दिया। मैंने काकी को हौले से चारपाई पर बैठाया और फिर उसके पास ही नीचे ज़मीन पर एड़ियों के बल बैठ गया। उसके दोनों हाथ पकड़ रखे थे मैंने। सरोज काकी के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। यही हाल रूपा का भी था। हम लोगों को आया देख अनूप भी अपने खिलौने छोड़ कर हमारे पास आ गया था। अपनी मां को रोते देख वो भी रोने लगा था।
"चुप हो जाओ काकी।" मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"ऐसे मत रोओ तुम और....और मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हारी ज़रा भी सुध नहीं ली। जबकि ये मेरी ज़िम्मेदारी थी कि मैं तुम्हारा और अनूप का हर तरह से ख़याल रखूं। मुझे माफ़ कर दो काकी।"
कहने के साथ ही मैंने रोते हुए सरोज के घुटनों में अपना सिर रख दिया। सरोज काकी ने सिसकते हुए ही मेरे सिर पर अपना कांपता हाथ रखा और फिर बोली____"मेरी बेटी को ले आओ वैभव। मुझे उसकी बहुत याद आती है। उसके बिना एक पल भी जिया नहीं जा रहा मुझसे।"
"काश! ये मेरे बस में होता काकी।" मैं उसकी अथाह पीड़ा में कही बात को सुन रो पड़ा, बोला____"काश! अपनी अनुराधा को वापस लाने की शक्ति मुझमें होती तो पलक झपकते ही उसे ले आता और फिर कभी उसे कहीं जाने ना देता।"
सरोज मेरी बात सुन और भी सिसक उठी। रूपा से जब ये सब न देखा गया तो वो भी उसके सामने घुटनों के बल बैठ गई और मेरे हाथ से उसका हाथ ले कर करुण भाव से बोली____"मैं आपकी अनुराधा तो नहीं बन सकती लेकिन यकीन मानिए आपकी बेटी की ही तरह आपको प्यार करूंगी और आपका ख़याल रखूंगी। मुझे अपनी बेटी बना लीजिए मां।"
रूपा की बात सुन सरोज उसे कातर भाव से देखने लगी। उसके चेहरे पर कई तरह के रंग आते जाते नज़र आए। रूपा झट से खड़ी हो गई और सरोज के आंसू पोंछते हुए बोली____"मैं भले ही साहूकार हरि शंकर की बेटी रूपा हूं लेकिन आज से आपकी भी बेटी हूं मां। क्या आप मुझे अपनी बेटी नहीं बनाएंगी?"
रूपा की बात सुन सरोज ने मेरी तरफ देखा। मुझे समझ न आया कि उसके यूं देखने पर मैं क्या कहूं। उधर थोड़ी देर मुझे देखने के बाद सरोज वापस रूपा को देखने लगी। रूपा की आंखों में आंसू और अपने लिए असीम प्यार तथा श्रद्धा देख उसकी आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं।
"तू मेरी बेटी ही है बेटी।" सरोज रुंधे गले से बोली और फिर झपट कर उसे अपने सीने से लगा लिया____"आ मेरे कलेजे से लग जा ताकि मेरे झुलसते हुए हृदय को ठंडक मिल जाए।"
रूपा ने भी सरोज को कस कर अपने गले से लगा लिया। दोनों की ही आंखें बरस रहीं थी। इधर अनूप बड़ी मासूमियत से ये सब देखे जा रहा था। उसका रोना तो बंद हो गया था लेकिन अब उसकी आंखों में जिज्ञासा के भाव थे। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि ये सब क्या हो रहा है?
बहरहाल, काफी देर तक रूपा और सरोज एक दूसरे के गले लगी रहीं उसके बाद अलग हुईं। सरोज अब बहुत हद तक शांत हो गई थी। रूपा अभी भी सरोज की हालत देख दुखी थी किंतु उसके चेहरे पर मौजूद भावों से साफ पता चल रहा था कि उसके मन में बहुत कुछ चलने लगा था। वो फ़ौरन ही पलटी और इधर उधर निगाह घुमाने लगी। जल्दी ही उसकी निगाह रसोई की तरफ ठहर गई। वो फ़ौरन ही उस तरफ बढ़ चली। जल्दी ही वो रसोई में दाखिल हो गई। कुछ देर में वो वापस आई और फिर सरोज से बोली____"उठिए मां और हाथ मुंह धो लीजिए। मैं आपके लिए खाना लगाती हूं और फिर अपने हाथों से आपको खाना खिलाऊंगी।"
रूपा की बात सुन कर सरोज कुछ पलों तक उसकी तरफ देखती रही फिर रूपा के ही ज़ोर देने पर उठी। रूपा को कुछ ही दूरी पर पानी से भरी बाल्टी रखी नज़र आई। बरामदे में एक तरफ लोटा रखा था जिसे वो ले आई और फिर बाल्टी से पानी निकाल कर उसने सरोज को दिया।
कुछ ही देर में आलम ये था कि बरामदे में एक चटाई पर बैठी सरोज को रूपा अपने हाथों से खाना खिला रही थी। सरोज खाना कम खा रही थी आंसू ज़्यादा बहा रही थी जिस पर रूपा उसे बार बार पूर्ण अधिकार पूर्ण भाव से आंसू बहाने से मना कर रही थी। मैं और अनूप ये मंज़र देख रहे थे। जहां एक तरफ अनूप ये सब बड़े ही कौतूहल भाव से देखे जा रहा था वहीं मैं ये सोच कर थोड़ा खुश था कि रूपा ने कितनी समझदारी से सरोज को सम्हाल लिया था और अब वो उसकी बेटी बन कर उसे अपने हाथों से खाना खिला रही थी। इतने दिनों में आज पहली बार मुझे अपने अंदर एक खुशी का आभास हो रहा था।
सरोज के इंकार करने पर भी रूपा ने जबरन सरोज को पेट भर के खाना खिलाया। सरोज जब खा चुकी तो रूपा ने जूठी थाली उठा कर नर्दे के पास रख दिया।
"तू रहने दे बेटी मैं बाद में ये सब धो मांज लूंगी।" सरोज ने रूपा से कहा तो रूपा ने कहा____"क्यों रहने दूं मां? आप आराम से बैठिए और मुझे अपना काम करने दीजिए।"
रूपा की बात सुन सरोज को अजीब तो लगा किंतु फिर उसके होठों पर दर्द मिश्रित फीकी सी मुस्कान उभर आई। उधर रूपा एक बार फिर रसोई में पहुंची और कुछ देर बाद जब वो बाहर आई तो उसके हाथों में ढेर सारे जूठे बर्तन थे। उन बर्तनों को ला कर उसने नर्दे के पास रखा और फिर पानी की बाल्टी को भी उठा कर वहीं रख लिया। इधर उधर उसने निगाह घुमाई तो उसे एक कोने में बर्तन मांजने वाला गुझिना दिख गया जिसे वो फ़ौरन ही उठा लाई। उसके बाद उसने बर्तन मांजना शुरू कर दिया।
सरोज उसे मना करती रह गई लेकिन रूपा ने उसकी बात न मानी और बर्तन धोती रही। इधर मैं भी उसके इस कार्य से थोड़ा हैरान था किंतु जाने क्यों मुझे उसका ये सब करना अच्छा लग रहा था। सरोज को जब एहसास हो गया कि रूपा उसकी कोई बात मानने वाली नहीं है तो उसने गहरी सांस ले कर उसे मना करना ही बंद कर दिया। तभी अचानक वो हुआ जिसकी हममें से किसी को भी उम्मीद नहीं थी।
"अले! ये तुम त्या तल लही हो?" रूपा को बर्तन मांजते देख अनूप एकदम से अपनी तोतली भाषा में बोल पड़ा____"मेली अनू दीदी आएगी तो बल्तन धोएगी। थोलो तुम, मेली दीदी बल्तन धोएगी।"
अनूप की इस बात से रूपा एकदम से चौंक पड़ी। इधर सरोज की आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं। उधर कुछ देर मासूम अनूप को देखते रहने के बाद रूपा ने अपनी नम आंखों से उसकी तरफ देखते हुए बड़े प्यार से कहा____"पर ये सारे बर्तन धोने के लिए तो मुझे तुम्हारी अनू दीदी ने ही कहा है बेटू।"
"अत्था।" अनूप के चेहरे पर आश्चर्य उभर आया, फिर उत्सुकता से बोला____"त्या तुम थत कह लही हो? त्या तुम मिली हो मेली अनू दीदी थे? तहां है वो? मुधे देथना है दीदी तो।"
"ठीक है।" रूपा ने अपनी रुलाई को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए कहा____"लेकिन तुम्हारी अनू दीदी ने ये भी कहा है कि वो तुमसे नाराज़ है। क्योंकि तुम पढ़ाई नहीं करते हो न। दिन भर बस खेलते ही रहते हो।"
"नहीं थेलूंगा अब।" अनूप ने झट से अपने हाथ में लिया खिलौना फेंक दिया, फिर बोला_____"अबथे पल्हूंगा मैं।"
"फिर तो ये अच्छी बात है।" रूपा ने प्यार से कहा____"अगर तुम रोज़ पढ़ोगे तो तुम्हारी दीदी को बहुत अच्छा लगेगा।"
"फिल तो मैं जलूल पल्हूंगा।" अनूप ने कहा, किंतु फिर सहसा मायूस सा हो कर बोला____"पल मैं पल्हूंगा तैथे? मेले पाथ पहाला ही नई है।"
"ओह!" रूपा ने कहा____"तो पहले तुम्हारी दीदी कैसे पढ़ाती थी तुम्हें?"
"नई पल्हाती थी।" अनूप ने मासूमियत से कहा____"पहाला ही नई था तो नई पल्हाती थी दीदी।"
रूपा को समझते देर न लगी कि सच क्या है। मतलब कि अनूप सच कह रहा था। पढ़ाई लिखाई तो ऊंचे और संपन्न घरों के बच्चे ही करते थे। ग़रीब के बच्चे तो अनपढ़ ही रहते थे और बड़े लोगों के खेतों में मेहनत मज़दूरी करते थे। यही उनका जीवन था।
"ठीक है तो अब से मैं पढ़ाऊंगी तुम्हें।" फिर रूपा ने कुछ सोचते हुए कहा____"तुम पढ़ोगे न अपनी इस दीदी से?"
"त्या तुम भी मेली दीदी हो?" अनूप ने आश्चर्य से आंखें फैला कर पूछा।
"हां, जैसे अनू तुम्हारी दीदी थी वैसे ही मैं भी तुम्हारी दीदी हूं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा___"अब से तुम मुझे भी दीदी कहना, ठीक है ना?"
"थीक है।" अनूप ने सिर हिलाया____"फिल तुम भी मुधे दीदी दैथे दुल देना।"
"दुल????" रूपा को जैसे समझ न आया तो उसने फ़ौरन ही सरोज की तरफ देखा।
"ये गुड़ की बात कर रहा है बेटी।" सरोज ने भारी गले से कहा____"जब भी ये रूठ जाता था तो अनू इसे गुड़ दे कर मनाया करती थी।"
सरोज की बात सुन रूपा के अंदर हुक सी उठी। उसने डबडबाई आंखों से अनूप की तरफ देखा। फिर अपनी हालत को सम्हालते हुए उसने अनूप से कहा कि हां वो भी उसे गुड़ दिया करेगी। उसके ऐसा कहने से भोले भाले अनूप का चेहरा खिल गया। फिर वो रूपा के कहने पर अपने खिलौनों के साथ जा कर खेलने लगा।
उसके बाद रूपा ने फिर से बर्तन मांजना शुरू कर दिया। इधर मैं ख़ामोशी से ये सब देख सुन रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि साहूकार हरि शंकर की लड़की रूपा एक मामूली से किसान के घर में इतने प्यार से और इतने लगाव से बर्तन मांज रही थी। वाकई उसका हृदय बहुत बड़ा था।
कुछ देर में जब सारे बर्तन धुल गए तो रूपा उन्हें ले जा कर रसोई में रख आई।
"आपके और अनूप के कपड़े कहां हैं मां?" फिर उसने सरोज के पास आ कर पूछा____"लाइए मैं उन सारे कपड़ों को भी धुल देती हूं।"
"अरे! ये सब तू रहने दे बेटी।" सरोज एकदम से हड़बड़ा उठी थी, बोली____"मैं धो लूंगी कपड़े। वैसे भी ज़्यादा नहीं हैं।"
"मैं आपकी बेटी हूं ना?" रूपा ने अपनी कमर में दोनों हाथ रख कर तथा बड़े अधिकार पूर्ण लहजे से कहा____"जैसे अनुराधा आपके और अनूप के सारे कपड़े धोती थी वैसे ही मैं भी धो दूंगी तो क्या हो जाएगा?"
सरोज हैरान परेशान देखती रह गई उसे। हैरत से तो मेरी भी आंखें फट पड़ीं थी लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं। मैं तो इस बात से ही चकित था कि रूपा ये सब कितनी सहजता से बोल रही थी। ऐसा लगता था जैसे वो सच में सरोज की ही बेटी हो और जैसे अनुराधा अपनी मां से पूर्ण अधिकार से बातें करती रही थी वैसे ही इस वक्त रूपा कर रही थी।
"और आप इस तरह चुप क्यों बैठे हैं?" तभी रूपा एकदम से मेरी तरफ पलट कर बोली तो मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। वो मुझे आप कहते हुए आगे बोली____"ऐसे चुप हो कर मत बैठिए यहां। जाइए और दुकान से कपड़े धोने के लिए निरमा खरीद कर ले आइए।"
रूपा की बात सुन कर पहले तो मुझे कुछ समझ में ही न आया किंतु जल्दी ही मेरे ज्ञान चक्षु खुले। मैं फ़ौरन ही उठा और अभी लाता हूं कह कर दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। उधर सरोज अभी भी हैरान परेशान हालत में बैठी थी। फिर जैसे उसने खुद को सम्हाला और फिर रूपा से बोली____"बेटी, ये सब रहने दे ना और क्या ज़रूरत थी वैभव को दुकान भेजने की? मैं कपड़े धो लूंगी।"
"अब से आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है मां।" रूपा ने सरोज के सामने पहले की तरह एड़ियों के बल बैठते हुए गंभीरता से कहा____"अगर सच में आप मुझे अनुराधा की ही तरह अपनी बेटी मानती हैं तो मुझे बेटी का फर्ज़ निभाने दीजिए।"
सरोज की आंखें छलक पड़ीं। जज़्बात जब बुरी तरह मचल उठे तो उसने फिर से रूपा को उठा कर खुद से छुपका लिया और सिसक उठी।
"ऊपर वाला मुझे कैसे कैसे दिन दिखाएगा?" फिर उसने सिसकते हुए कहा____"एक बेटी की जगह और कितनी बेटियां बना कर मेरे सामने लाएगा?"
"ये आप कैसी बातें कर रहीं हैं मां?" रूपा ने उससे अलग हो कर रुंधे गले से कहा।
"यही सच है बेटी।" सरोज ने कहा____"तुझे पता है इसके पहले जब अनु जीवित थी तो एक दिन इस घर में वैभव के साथ दादा ठाकुर की बहू आईं थी। उन्होंने भी यही कहा था कि वो मेरी बड़ी बेटी हैं और अनुराधा मेरी छोटी बेटी है। उस दिन तो बड़ा खुश हुई थी मैं लेकिन नहीं जानती थी कि बड़ी बेटी के मिलते ही मैं अपनी छोटी बेटी को हमेशा के लिए खो दूंगी।"
कहने के साथ ही सरोज फूट फूट कर रो पड़ी। रूपा भी सिसक उठी लेकिन उसने खुद को सम्हाल कर सरोज को शांत करने की कोशिश की____"मत रोइए मां, रागिनी दीदी को भी कहां पता रहा होगा कि ऐसा कुछ हो जाएगा।"
"ईश्वर ही जाने कि वो क्या चाहता है?" सरोज ने कहा____"लेकिन इतना तो अब मैं समझ गई हूं कि जिस दिन वैभव के क़दम इस घर की दहलीज़ पर पड़े थे उसी दिन इस घर के लोगों की किस्मत भी बदल गई थी।"
"ये क्या कह रही हैं मां?" रूपा का समूचा वजूद जैसे हिल सा गया।
"सच यही है बेटी।" सरोज ने दृढ़ता से कहा____"दादा ठाकुर का बेटा हमारे जीवन में क्या आया मानों हम सबकी बदकिस्मती के दिन ही शुरू हो गए। पहले मेरे पति की हत्या हो गई और फिर मेरी बेटी को मार डाला गया। मैं जानती हूं कि मेरी ये बातें तुम्हें बुरी लगेंगी लेकिन कड़वा सच यही है। दादा ठाकुर का बेटा बड़ा ही मनहूस है बेटी। उसी के कुकर्मों की वजह से मैंने अपने पति और बेटी को खोया है। वरना तू खुद ही सोच कि मेरे मरद की और मेरी बेटी की किसी से भला क्या दुश्मनी थी जिससे कोई उन दोनों की हत्या कर दे?"
रूपा अवाक सी देखती रह गई सरोज को। मनो मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि सरोज वैभव के बारे में ऐसा भी बोल सकती है। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो सरोज का ऐसा सोचना कहीं न कहीं वाजिब भी था लेकिन इस कड़वी सच्चाई का एहसास होने के बाद भी रूपा उसकी तरह वैभव के बारे में ऐसा ख़याल तक अपने ज़हन में नहीं लाना चाहती थी। आख़िर वैभव से वो बेपनाह प्रेम करती थी। उसे अपना सब कुछ मानती थी। फिर भला कैसे वो वैभव के बारे में उल्टा सीधा सोच लेती?
"ये सब बातें मेरे मन में इसके पहले नहीं आईं थी।" उधर सरोज मानों कहीं खोए हुए भाव से कह रही थी____"ये तो.....ये तो अब जा कर मेरे मन में आईं हैं। अपने मरद की हत्या को मैंने हादसा समझ लिया था और फिर जब बेटी की हत्या हुई तो अभी कुछ दिन पहले ही अचानक से मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेटी और मेरा मरद तो असल में वैभव के कुकर्मों की वजह से मारे गए। ना मेरे मरद की किसी से ऐसी दुश्मनी थी और ना ही मेरी बेटी की तो ये साफ ही है ना कि वो दोनों वैभव के कुकर्मों की वजह से ही मौत के मुंह में चले गए। उसी के दुश्मनों ने मेरे मरद और मेरी बेटी की हत्या कर के उससे अपनी दुश्मनी निकाली है।"
रूपा को समझ ना आया कि वो सरोज की इन बातों का क्या जवाब दे? अभी भी उसके समूचे जिस्म में अजीब सी सिहरन दौड़ रही थी। उसे सरोज के मुख से वैभव के बारे में ऐसा सुनने से बुरा तो लग रहा था लेकिन वो ये भी जानती थी कि सरोज की इस सोच को और उसके द्वारा कही गई बातों को नकारा नहीं जा सकता था।
"तू भी वैभव से प्रेम करती है ना?" सहसा सरोज ने जैसे विषय बदलते हुए रूपा की तरफ देखा, फिर बोली_____"वैभव ने बताया था मुझे तेरे बारे में। मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि वैभव जैसे लड़के को मेरी बेटी में ऐसा क्या नज़र आया था जो वो उससे प्रेम करने लगा था और तो और मेरी बेटी भी उससे प्रेम करने लगी थी। जिस दिन उसे पता चला कि वैभव उससे ब्याह करेगा उस दिन बड़ा खुश हुई थी वो। मेरे सामने अपनी खुशी ज़ाहिर करने में शर्मा रही थी इस लिए भाग कर अपने कमरे में चली गई थी। मुझे मालूम है वो अपने कमरे में खुशी से उछलती रही होगी। उस नादान को क्या पता था कि उसकी वो खुशी और वो खुद महज चंद दिनों की ही मेहमान थी? जिसे वो प्रेम करने लगी थी उसी का कोई दुश्मन उसकी बेरहमी से हत्या करने वाला था। आंखों के सामने अभी भी वो मंज़र चमकता है। पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश आंखों के सामने से ओझल ही नहीं होती कभी।"
कहने के साथ ही सरोज आंसू बहाते हुए सिसक उठी। उसकी वेदनायुक्त बातें रूपा को अंदर तक झकझोर गईं। पलक झपकते ही उसकी आंखें भी भर आईं। उसकी आंखों के सामने भी अनुराधा की लाश चमक उठी। उसने अपनी आंखें बंद कर के बड़ी मुश्किल से अपने मचल उठे जज़्बातों को काबू किया और फिर सरोज को धीरज देते हुए शांत करने का प्रयास करने लगी। सरोज काफी देर तक सिसकती रही। जब उसका गुबार निकल गया तो शांत हो गई।
"तुझे पता है।" फिर उसने अनूप की तरफ देखते हुए अधीर भाव से कहा_____"हर बार मुझे इस नन्ही सी जान का ख़याल आ जाता है इस लिए अपनी जान लेने से ख़ुद को रोक लेती हूं। वरना सच कहती हूं जीने की अब ज़रा सी भी इच्छा नहीं है।"
"ऐसा मत कहिए मां।" रूपा ने तड़प कर कहा____"मैं मानती हूं कि आपके अंदर जो दुख है वो बहुत असहनीय है लेकिन फिर भी किसी न किसी तरह अपने आपको सम्हालना ही होगा। इस नन्ही सी जान के लिए आपको मजबूत बनना होगा। वैसे भी अब से आप अकेली नहीं हैं। आपकी ये बेटी आपको अब दुखी नहीं रहने देगी।"
"फ़िक्र मत कर बेटी।" सरोज ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"मैं अपना भले ही ख़याल न रख सकूं लेकिन इस नन्ही सी जान का ख़याल ज़रूर रखूंगी। आख़िर इसका मेरे सिवा इस दुनिया में है ही कौन? इसके लिए मुझे जीना ही पड़ेगा। तू मेरी चिंता मत कर और मेरे लिए अपना समय बर्बाद मत कर। तेरी अपनी दुनिया है और तेरे अपने भी कुछ कर्तव्य हैं। तू अपना देख बेटी....मैं किसी तरह इस नन्ही सी जान के साथ जी ही लूंगी।"
"नहीं मां।" रूपा ने झट से कहा____"मैं आपको अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी। अगर मैंने ऐसा किया तो मेरी छोटी बहन अनुराधा मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी।"
अभी सरोज कुछ कहने ही वाली थी कि तभी मैं आ गया। मेरे हाथ में निरमा का पैकेट तो था ही साथ में कुछ और भी ज़रूरी सामान था। मैंने वो सब सामान रूपा को पकड़ा दिया। एक छोटे से पैकेट में मैं अनूप के लिए गुड़ और नमकीन ले आया था। रूपा ने अनूप को बुला कर उसे वो पैकेट पकड़ा दिया जिसे ले कर वो बड़ा ही खुश हुआ।
रूपा ने बाकी सामान का मुआयना किया और फिर निरमा एक तरफ रख कर बाकी के समान को अंदर रख आई। फिर उसने सरोज से कपड़ों के बारे में पूछा तो सरोज को मजबूरन बताना ही पड़ा। उसके बताने पर रूपा उसके और अनूप के सारे गंदे कपड़े ले कर आंगन में आ गई। कुएं के बारे में जब उसने पूछा तो मैंने उसे दूसरे दरवाज़े से पीछे की तरफ जाने का इशारा किया तो वो कपड़ों के साथ निरमा और बाल्टी ले कर चली गई।
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क्षितिज पर मौजूद सूरज पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ रहा था। क़रीब दो या ढाई घण्टे का दिन रह गया था। आसमान में काले काले बादल नज़र आने लगे थे। बारिश होने के आसार नज़र आ रहे थे। मैं वापस अपने मकान में आ गया था जबकि रूपा सरोज के यहां ही रुक गई थी। असल में वो सरोज तथा उसके बेटे के लिए रात का खाना बना देना चाहती थी ताकि सरोज को कोई परेशानी न हो। सरोज ने इसके लिए उसे बहुत मना किया था मगर रूपा नहीं मानी थी। मैं ये कह कर चला आया था कि मैं शाम को उसे लेने आ जाऊंगा।
जब मैं मकान में पहुंचा था तो कुछ ही देर में भुवन भी आ गया था। आज काफी दिनों बाद मैंने उसे देखा था। कुछ बुझा बुझा सा था वो। ज़ाहिर है अपनी छोटी बहन अनुराधा की मौत के सदमे से अभी भी नहीं उबरा था वो।
"मैंने तो किसी तरह खुद को सम्हाल लिया है छोटे कुंवर।" उसने कहा____"आप भी खुद को सम्हाल लीजिए। आख़िर कब तक आप हर किसी से विरक्त हो कर रहेंगे?"
"मेरी अनुराधा मेरी वजह से आज इस दुनिया में नहीं है भुवन।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"मेरे कुकर्मों की वजह से उसकी हत्या हुई है। मैं उसका अपराधी हूं। जी करता है खुदकुशी कर लूं और पलक झपकते ही उसके पास पहुंच जाऊं।"
"भगवान के लिए ऐसा मत सोचिए कुंवर।" भुवन ने हड़बड़ा कर कहा____"माना कि अनुराधा की हत्या के लिए कहीं न कही आप भी ज़िम्मेदार हैं लेकिन ये भी सच है कि हर चीज़ का कर्ता धर्ता ऊपर वाला ही होता है। आपने ये तो नहीं चाहा था ना कि ऐसा हो जाए?"
"तर्क वितर्क कर के सच को झुठलाया नहीं जा सकता भुवन।" मैंने दुखी भाव से कहा____"और सच यही है कि अनुराधा का असल हत्यारा मैं हूं। ना मैं उसके जीवन में आता और ना ही उसके साथ ये सब होता। इतने बड़े अपराध का बोझ ले कर मैं कैसे जी सकूंगा भुवन? मैं तो अब अपनी ही नज़रों में गिर चुका हूं।"
"खुद को सम्हालिए छोटे कुंवर।" भुवन ने अधीरता से कहा____"इस तरह से खुद को कोसना अथवा हीन भावना से ग्रसित रहना उचित नहीं है। अगर आप ये सब सोच कर इस तरह खुद को दुखी रखेंगे तो ऊपर कहीं मौजूद अनुराधा की आत्मा भी दुखी हो जाएगी। कम से कम उसके बारे में तो सोचिए।"
"आज उसके घर गया था मैं।" मैंने एक गहरी सांस ले कर कहा____"उसकी मां अपनी बेटी के लिए बहुत ज़्यादा दुखी है। तुम्हें पता है, वो भी मानती है कि उसकी बेटी की हत्या मेरे ही कुकर्मों की वजह से हुई है। मेरे कुकर्म आज मेरे लिए अभिषाप बन गए हैं भुवन। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मुझे ये सब देखना पड़ेगा और ये सब सहना पड़ेगा। काश! ऊपर वाले ने मुझे सद्बुद्धि दी होती तो मैं कभी भूल से भी ऐसे कुकर्म न करता।"
"भूल जाइए छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"जो हो चुका है उसे ना तो वापस लाया जा सकता है और ना ही मिटाया जा सकता है। उस सबके बारे में सोच कर सिर्फ और सिर्फ दुख ही होगा, जबकि आपको सब कुछ भुला कर आगे बढ़ना चाहिए। आख़िर आपका जीवन सिर्फ आपका ही तो बस नहीं है। आपके इस जीवन में आपके परिवार वालों का भी हक़ है। उनके बारे में सोचिए।"
भुवन की बातें सुन कर मैं कुछ बोल ना सका। भुवन काफी देर तक मुझे समझाता रहा और फिर ये भी बताया कि आज कल खेतों में काम काज कैसा चल रहा है। आख़िर में वो ये कहते हुए दुखी हो गया कि जब से अनुराधा गुज़री है तब से वो उसके घर नहीं गया। ऐसा इस लिए क्योंकि उसकी हिम्मत ही नहीं होती सरोज के सामने जाने की। वो सरोज के सवालों के जवाब नहीं दे सकेगा किंतु आज वो जाएगा।
भुवन के जाने के बाद मैं फिर से ख़यालों में गुम हो गया। मेरे ज़हन में जाने कैसे कैसे ख़याल उभर रहे थे जो मुझे आहत करते जा रहे थे। मन बहुत ज़्यादा व्यथित हो गया था। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं उठा और अपनी अनुराधा की चिता की तरफ चल पड़ा। वहीं पर मुझे थोड़ा सुकून मिलता था।
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