• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Fantasy देवत्व - एक संघर्ष गाथा

Jay66

New Member
32
38
18
अध्याय - 3

आचार्य याग्नेश के द्वारा एक असहाय महिला की हत्या का समाचार अब आश्रम के ही किसी कर्मचारी के द्वारा जिसने यह कृत्य चुपके से देख लिया था पूरे नगर में फैल गया था।
आचार्य याग्नेश के बलिदान के फल स्वरुप वहां के अनुयाई और सारी प्रजा अब उसके विरुद्ध हो गई थी, उसे वहां आचार्य के पद से निष्काशित कर दिया गया था, और यहीं से शुरू हुआ था उसके मानो से दान हो बनने का चक्र

अब आगे -----


अपने अतीत में खोए हुए याग्नेश की तंद्रा आकाश में होने वाली गर्जना ने भंग की । उस टीले पर लेटे लेटे उसे बहुत वक्त हो गया था। एक बार उसने उस नगर के ऊपर नजर डाली और अपने कपड़ों को झाड़ता होगा खड़ा हुआ।
आकाश में बादल और घने हो गए थे, बिजली के कड़कने की आवाज और तेज चलती हुई आंधी , ने वहां का मौसम भयावह बना दिया था ।

अचानक हुए मौसम में इस बदलाव को देखकर , याग्नेश मन में कुछ सोचते हुए अपने घोड़े की तरफ गया घोड़े पर बैठकर लगाम थामी और अपना घोड़ा वहां से आगे दौड़ा दिया ।


घोड़ा भी थोड़ा आगे चला ही था कि उसके पैर वहीं जम गए और भय के कारण घोड़ा जोर जोर से हिनहिना ने लगा तभी याग्नेश ने आकाश से दो विशाल पंखों वाले किसी जीव को बड़ी तेजी से अपनी तरफ आते हुए देखा।

जैसे ही घोड़ा रुका, धूल का एक बादल उमड़ पड़ा। अपने तरफ तेजी से आते हुए विशाल और अजीब से जीव को देखकर याग्नेश की सांसे तेज हो गई , घोड़ा भी अपने आगे के दोनों पैर उठाकर जोर-जोर से हीनहीनाने लगा । पंख वाला प्राणी उनके पांच मीटर से भी कम दूरी पर उतरा था।
घोडे ने कई बार लात मारी और दौड़ने से पहले याग्नेश को अपनी पीठ से फेंक दिया। याग्नेश कंधे के बल नीचे गीरा , और थोडी दूर तक लूढकता चला गया , उसके कंधे मे तेज दर्द होने लगा ।

बडी कठीनाई से अपने आप को संभालते हुए वो खडा हुआ और अपनी आंखो को मलते हुए उस जीव को देखने लगा , जैसे ही उसने अपने सामने खड़े प्राणी पर नजर डाली, वह दर्द के बारे में सब भूल गया।

सामने वह अजीब सा जीव अब एक सुंदर तेजोमय नौजवान में परिवर्तित हो चुका था। दो श्वेत पंख , अद्भुत तेज, दिव्य आभूषण के साथ वह किसी देवता के समान प्रतीत हो रहा था ,उसके लंबे सुनहरे बाल हवा में उड़ रहे थे और उनकी चमकीली पीली आँखें रात में लगभग चमक रही थीं।


न जाने क्यों उसका वह सुंदर रुप और अद्भुत व्यक्तित्व याग्नेश को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था । न जाने क्यों उसे सामने खड़ा वह तेजोमय पुरुष अपना सा लगने लगा था उसकी वह अद्भुत मुस्कान देखकर याग्नेश के ह्रदय में कई प्रकार की भावनाएं प्रगट हो रही थी वह सब कुछ भूल कर बस एकटक उस तेजोमय पुरुष को देख रहा था।

तभी आकाश में घर गर्जना हुई जिस कारण याग्नेश उस तेजोमय पुरुष के मोहपाश से बाहर आया।

याग्नेश - कौन हो तुम ? और इस प्रकार मेरा मार्ग का क्या कारण हैं ? तुम्हारे इस जादुई खेल का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा इसलिए अपना यह जादुई प्रयोग बंद करो , और सीधी तरह मेरा मार्ग अवरुद्ध करने का कारण बताओ।

तेजोमय पुरुष -- ओह ! मेरे आने मात्र से आपकी यह दशा हो गई फिर भी आप का अहंकार गया नहीं आपको अपनी शक्तियों पर इतना अहंकार है तो चलो पहले उन शक्तियों का प्रयोग करके मुझे बांधकर दिखाओ।

याग्नेश - मैं हूं आचार्य याग्नेश ।। कई जादुई शक्तियों का मालिक , क्या समझते हो तुम कि तुम अपनी इस हरकत से मुझे डरा दोगे , मैं डरने वालों में से नहीं हूं इतना कहकर याग्नेश ने काली शक्तियों का आह्वान किया , परंतु उसे घोर आश्चर्य हुआ क्यों उसकी कोई भी शक्ति वहां काम नहीं कर रही थी ।।

याग्नेश की बातें सुनकर वह दिव्य पुरुष जोर जोर से हंसने लगा उसकी हंसी याग्नेश के कानों को किसी गर्म पिघले हुए शीशे की तरह लग रही थी अपनी हंसी को रोक कर वह दिव्य पुरुष बोल उठा।

दिव्य पुरुष - क्या कहा आपने आचार्य याग्नेश शायद आप भूल गए हो अब आप आचार्य नहीं रहे धर्म के प्रति किए गए विश्वासघात और शक्तियों को पाने की होड़ में किए गए क्रूर कर्मो ने आपसे आचार्य पद कब का छीन लिया है ।

जिन काली शक्तियों को पाने के लिए आपने इतने लोगों की बलि दी वह सब मेरे सामने व्यर्थ है , ध्यान रहे आचार्य अंधेरा जितना प्रबल और घना हो वह प्रकाश के समक्ष नही टीक सकता।

मैं यहां आपको कोई दंड देने नहीं आया, आपके द्वारा पूर्व मे किये गये अच्छे कर्मो के कारण , बस अंतीम चेतावनी देने आया हूं कि अभी भी समय है संभल जाइए अपने पापों का प्रायश्चित करें और वापस सन्मार्ग पर लग जाए तो हो सकता है आपको क्षमा मिल जाए।


याग्नेश - कहीं आप वह तो नहीं जो मैं सोच रहा हूं हां लगता है शायद आप वही हो जिसकी मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था

दिव्य पुरुष - मैं वह नहीं जो आप सोच रहे हो मैं नहीं हूं मैं तो केवल उस परम सत्ता ईश्वर का जिनके आधीन होकर संपूर्ण देवता कार्य करते है उनका एक छोटा सा सेवक हूं । जो आपको अंतिम बार सचेत करने आया हूं

याग्नेश - आखिर मेरा अपराध क्या है, क्यों मुझसे मेरा सब कुछ छीन लिया गया , मेरे अपने , मेरी शक्तियां सब कुछ मेरा आचार्य पद। हमने कई पीढीयो से देवताओ की पूरे तन मन लगाकर उपासना की है , परंतु उसका परिणाम क्या निकला, क्या प्राप्त हुआ मुझे इतनी उपासना श्रद्धा और आस्था से केवल दुख । तुम्हारे ईश्वर ने मेरा सब कुछ मुझसे छीन लिया अब तुम यहां मुझे उपदेश देने आए हो, तब कहा गया था तुम्हारा ईश्वर , जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा आवश्यक्ता थी, चले जाओ यहां से।।

दिव्य पुरुष - आपसे आपका आचार्य पद आपकी शक्तियां और आपके अपनों को आपसे दूर कर दिया गया इसका कारण कोई और नहीं केवल आप है केवल आप ।

आपने धर्म के प्रति विश्वासघात किया है अपनी शरण में आए हुए एक लाचार महिला का बलिदान के नाम पर बड़ी क्रूरता से उसकी हत्या कर दी ,
आपकी इस जघन्य अपराध के कारण ही देवताओं ने आपकी सारी दैवीय शक्तियां वापस ले ली याग्नेश,


वही आपके माता-पिता और बहनों के साथ जो हुआ , वह क्यों हुआ ? क्या कभी आपने यह जानने का प्रयत्न किया है, ईश्वर कभी भी किसी के साथ अन्याय नहीं करता उसके लिए सभी जीव एक बराबर है।
सुख और दुख तो व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही प्राप्त करता है। परंतु मनुष्य से भूलकर सुख को अपना श्रेय देता है और दुखो का दोष ईश्वर को देता है।

याग्नेश - मैंने कोई गलत नहीं किया मैंने वही किया जो आप के देवता उपासना पद्धति के ग्रंथों में लिखा गया है, मैंने उसी में से बलिदान की पद्धति को अपनाया तो बताओ मैं कहां गलत हुआ।

दिव्य पुरुष - आप शायद भूल गए हैं, कि बलिदान किसे कहते हैं । बलिदान उस त्याग को कहते हैं जो दूसरों की भलाई के लिए अपने किसी प्रिय वस्तु का त्याग करें आपने तो बलिदान के नाम पर न जाने कितने मासूम लोगों की क्रूरता पूर्वक हत्या की है उसी घोर पाप का दंड आप भुगत रहे हो इसलिए कह रहा हूं के अभी भी संभल जाइए।।

इतना कह कर उस दिव्य पुरुष के पंख फिर से प्रकट हो गए, और वह मुड़ गया, उड़ान भरने के लिए । उडान भरने से पहले उसने याग्नेश की तरफ फिर से देखा और कहा,

"हमने वह किया जो हम मदद कर सकते थे, लेकिन आपके परिवार ने रास्ता गलत चूना और उनसे भी बढकर आप बहुत दूर चले गए, और मेरी कही बातो पर ध्यान दिजीए, आप फिर कभी किसी को चोट न पहुँचाएँ। अपने अपराधो का प्रायश्चीत कजिए।

इतना कह कर वह दिव्य पुरुष उड गया और आकाश मे फिर कहीं खो गया


उसके जाने के बाद याग्नेश थोड़ी देर वही खड़ा रहा उसका चेहरा पहले से और कठोर हो गया शायद उसने मन ही मन कुछ फैसला लिया था वह वापस अपने घोड़े पर बैठा और अपनी गुफा की तरफ निकल पड़ा

जब याग्नेश अपनी गुफा में पहुंचा तो वहां का हाल देख कर वह स्तब्ध रह गया, क्रोध के कारण उसके जबड़े भींच गए सारी गुफा तहस-नहस हो गई थी, गुफा का सारा सामान बिखरा पड़ा था।
उसकी यज्ञ वेदी टूटी हुई थी , उसके लगभग 10 अनुयाई जमीन पर क्षत-विक्षत हालत में जमीन पर पड़े हुए थे शायद सब मृत्यु को प्राप्त हो गए थे ।

याग्नेश अपनी गुफा को देख ही रहा था कि उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी , उसका एक अनुयाई अपनी अंतिम सांसे ले रहा था याग्नेश तुरंत उसके पास पहुंचा और उसे आवाज देकर जगाने का प्रयत्न करने लगा ।

याग्नेश की आवाज सुनकर उसने हल्की सी अपनी आंखें खोली सामने अपने मालिक को देख कर उसने थोड़ी राहत की सांस ली और टूटे फूटे शब्दों में वहां क्या हुआ वह सब बता दिया और अंतिम हिचकी के साथ अपने प्राण त्याग दिए।


अपनी गुफा में घटित इस वीभत्स पूर्ण घटना को देखकर याग्नेश की आंखें लाल हो गई उसका क्रोध चरम सीमा पर पहुंच गया उसका अंतर्मन जो अभी भी थोड़ा जागृत था जो उसे कभी कभी सन्मार्ग पर लाने की सलाह देता था वह भी अब कहीं छुप गया इस घटना ने उसके भीतर के दरिंदे को जगा दिया ।

आज उसे आर या पार की लड़ाई लड़नी थी उसने अपने मन में दृढ़ निश्चय किया और चल पड़ा गुफा के पीछे जहां एक तहखाने में उसका गुप्त कक्ष था।

उस गुप्त तहखाने में एक और एक काला बड़ा सा क्रिस्टल था और दूसरी ओर एक छोटी सी कैद में कुछ कन्याएं बंधी हुई थी जो वहां किसी विशेष बलि के लिए लाई हुई थी
याग्नेश ने अपने कदम उसी तहखाने में बने हुए कैद की तरफ बढ़ाएं और भीतर प्रवेश कर गया।

उन सभी कन्याओं में एक कन्या ऐसी थी जो गुमसुम की एक कोने में बैठी थी, उसके सारे शरीर पर लाल निशान थे वर कन्या अपना सिर दोनों घुटनों के बीच में रखकर आंसू बहा रही थी याग्नेश उस कन्या के आगे जाकर रुका।

याग्नेश - चलो सुलेखा अब तुम्हारा समय आ गया है , तुम्हारे पिता विक्रम सिंह को तो अपने किए की सजा मिली, वह मूर्ख क्या समझता था कि वह अपनी बलि तुम्हें ठीक करने के लिए दे रहा है। " हा हा हा हा "( एक क्रूर हसी के साथ ) बेचारा अपनी अंतिम सांस तक यही समझता रहा कि मैं उसकी मदद कर रहा हूं ।

मदद तो मैं अपनी कर रहा था अपने प्रतिशोध का प्रथम चरण पूरा करने के लिए परंतु जब तक तुम जीवित हो मेरा वह प्रतिशोध का प्रथम चरण पूर्ण नहीं हो सकता।


इतना कहकर याग्नेश ने उसके बाल पकड़कर उसका सिर ऊपर उठाया, अपने पिता के मृत्यु के बारे में सुनकर सुलेखा का मानो ह्रदय फटने को हो गया था वह चीखना चाहती थी चिल्लाना चाहती थी , परंतु उसके मुख से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था ।

उसके नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी, उस मृगनयनी के सुंदर नेत्र लाल हो गए थे ,उसने कातर नेत्रों से याग्नेश को देखा उसके नेत्रों को देखते ही याग्नेश को एक जोरदार झटका लगा उसके हाथ सुलेखा के बालों से हट गए याग्नेश ने आगे बढ़कर फिर से उसे पकडना चाहा परंतु हुआ फिर वही एक जोरदार झटका।


ना जाने वह कौन सी शक्ति थी जो उसे सुलेखा के पास आने से रोक रही थी

सुलेखा उसी व्यक्ति विक्रम सिंह की कन्या थी जिस की बलि का उल्लेख इस कहानी के प्रथम अध्याय में किया गया है । विक्रम सिंह कौन था याग्नेश उसे किस बात का बदला लेना चाहता था यह सब आगे कहानी में पता चलेगा ।

याग्नेश को आज अपना संकल्प पूरा करना था जो उसने गुफा में हुई घटना को देखकर लिया था, इसलिए उसने सुलेखा के प्रकरण को कुछ दिन डालने का निश्चय करके , उसी कैद में मौजूद दूसरी कन्या को पकड़ लिया वह कन्या चीखती रही चिल्लाती रही
बार-बार अपने को छोड़ने की प्रार्थना करने लगी , परंतु याग्नेश के कठोर ह्रदय पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ ।

उस कन्या को बालों से घसीट कर याग्नेश उस बड़े से काले क्रिस्टल के सामने लाया और दहाड़ा


याग्नेश -- हे मेरे मालिक कितने दिनों से मैंने तुम्हें इतनी बलिया दी, लेकिन फिर भी मैं तुम्हारी शक्तियों से दूर ---
क्या प्राप्त हुआ मुझे इतने वर्षों की आप की उपासना करके, देवताओं से धोखा खाने के बाद मैंने सोचा शायद आप ही वह हो जो मेरी मदद कर सकते हो , परंतु सब व्यर्थ रहा आज व्यक्ति से जो अपने आप को देवताओं का दूत कह रहा था, उसके सामने मैं विवश हो गया।


मेरी एक भी शक्ति उसके सामने नहीं चल पाई , आखिर क्यों ? आज मुझे आपसे अपने प्रश्नों का उत्तर चाहिए यदि आज भी आपकी साधना बेकार गई तो आज मैं भी अपना जीवन ही समाप्त कर दूंगा क्या फायदा है ऐसी जीवन का जो शक्तिहीन हो असहाय ।

उस काले क्रिस्टल को देखकर वह कन्या समझ गई कि उसके साथ क्या होने वाला है उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर याग्नेश को कातर दृष्टी से देखा और अपने आप को बचाने का आखरी प्रयास किया ,

परंतु अब याग्नेश कोई मानव नहीं दरिंदा बन गया था। उसने उस कन्या के सारे वस्त्र बड़ी निर्दयता पूर्वक फाड़ दिए और उसे पूरा निर्वस्त्र कर दिया उस कन्या ने एक हाथ से अपने स्तन और दूसरे हाथ से अपनी योनि को ढक कर अपनी लाज बचाने का प्रयास किया , परंतु याग्नेश के इरादे कुछ और थे ।

आज के लिए इतना ही, अब देखते हैं आगे इस कहानी के किरदार इस कहानी को किस दिशा और काल में ले जाते हैं ।
अगला अध्याय जल्द ही ।

आप सब पाठकों का साथ देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद । खुश रहिए और स्वस्थ रहिए कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव जरूर दें ।


आपका अपना मित्र ---- अभिनव 🔥
बहुत ही बेहतरीन अपडेट भाई 👏👏👏
वह दिव्य पुरुष कौन था जो याग्नेश को एक अवसर देने आया था और याग्नेश ने भी उसके इतना समझाने पर भी सही मार्ग का चयन नहीं किया ।
उसका अहंकार ही इसमें बाधक बना ,जो आगे अनेक कठिनाईया पैदा करेगा
बहुत ही बढ़िया लिख रहे हो 👏👏👏👏👏👏👏👏
 
  • Like
Reactions: jaggi57

jaggi57

Abhinav
238
703
94
बहुत ही बेहतरीन jaggi57 भाई अपडेट याग्नेश ने अपने जीवन में बहुत कुछ सहा है और उसी के कारण उसने गलत रास्ता चुना बहुत अच्छे लिख रहे हो आप ऐसे ही लिखते रहिए 👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹👏👏
Thanku soo much frnd for your support and review , pls stay tunned 🙏🌹🌹
 

jaggi57

Abhinav
238
703
94
बहुत ही बेहतरीन अपडेट भाई 👏👏👏
वह दिव्य पुरुष कौन था जो याग्नेश को एक अवसर देने आया था और याग्नेश ने भी उसके इतना समझाने पर भी सही मार्ग का चयन नहीं किया ।
उसका अहंकार ही इसमें बाधक बना ,जो आगे अनेक कठिनाईया पैदा करेगा
बहुत ही बढ़िया लिख रहे हो 👏👏👏👏👏👏👏👏
Thanku bhai for your support & review 🌹🌹
 

Jay66

New Member
32
38
18
अध्याय - 4

परंतु अब याग्नेश कोई मानव नहीं दरिंदा बन गया था। उसने उस कन्या के सारे वस्त्र बड़ी निर्दयता पूर्वक फाड़ दिए और उसे पूरा निर्वस्त्र कर दिया उस कन्या ने एक हाथ से अपने स्तन और दूसरे हाथ से अपनी योनि को ढक कर अपनी लाज बचाने का प्रयास किया , परंतु याग्नेश के इरादे कुछ और थे ।

अब आगे--------



याग्नेश ने अपनी मजबूत बांहों से उस कन्या को उठाकर वहां बड़े क्रिस्टल के ऊपर लोहे के एक बड़े से हुक में उल्टा लटका दिया ।

लोहे के उस पैने हुक के शरीर मे धसते ही, वह कन्या छटपटाने लगी जोर जोर से चीखने लगी ,

याग्नेश ने उसकी गर्दन को पकडकर स्थिर कि फिर उसकी आंखों में देखकर कुछ बुबुदबुदाया न जाने कोई मंत्र शक्ति थी या कोई सम्मोहन , वह कन्या एकदम स्थिर हो गई।


याग्नेश ने अब वहां पड़ा एक बड़ा सा खंजर उठाया उस क्रिस्टल के आगे घुटनों पर बैठकर उसने उस खंजर को अपने पति से लगाया और कुछ मंत्र पढ़े और वह खंजर लेकर खड़ा हो गया।

बाएं हाथ के उसने उस कन्या के बाल पकड़े और दाहिने हाथ से अभिमंत्रित किया हुआ खंजर उसने उस कन्या की गर्दन पर चला दिया, धीरे-धीरे गर्दन काटता हुआ वह कुछ मंत्र बुदबुदाने लगा ।

उस कन्या की गर्दन से रिस्ता हुआ लाल रक्त काले बड़े क्रिस्टल पर गिरने लगा , अब गर्दन उसके धड़ से अलग हो चुकी थी ,

उसके सिर कटे हुए धड़ से तेज रक्त प्रवाह उस क्रिस्टल को भिगो रहे थे जैसे-जैसे रक्त उस क्रिस्टल पर पड रहा था वह क्रिस्टल एक बैंगनी रंग के प्रकाश से जगमगाने लगा ।
याग्नेश थोड़ी देर उस क्रिस्टल के आगे 1 आसन पर बैठकर कुछ मंत्र पढ़ने लगा , जब उसने देखा कि उस कन्या का सारा रक्त उस क्रिस्टल पर गिर चुका है तो वो खंजर लेकर एक बार फिर खड़ा हुआ ।

वहां आश्चर्य की एक बात और हुई कि उस कन्या के शरीर से इतना इतना रक्त बहा कि वहां चारों तरफ रक्त होना चाहिए था, परंतु वहां उस कन्या के रक्त की एक भी बूंद नजर नहीं आ रही थी । सारा रक्त वह क्रिस्टल अपने भीतर सोख चुका था।

याग्नेश एक बार फिर खड़ा हुआ उसने वह खंजर उस कन्या के धड़ के पेड़ से लेकर सीने तक चलाया और पूरा चीर डाला, उसने उस कन्या की सारी पेट की आंतडियां बाहर निकाल ली फिर उन आंतडियों का हार बना कर उसने उस क्रिस्टल को पहना दिया ।

उसके बाद उसने उस कन्या के सीने में हाथ घुसा कर उसका ह्रदय भी बाहर निकाला और उस हृदय को अपने हाथों से निचोड़ कर उसमें बचा कुचा रक्त भी उसने उस क्रिस्टल पर चढ़ा दिया ऐसा करते ही उस क्रिस्टल का बैंगनी प्रकाश और ज्यादा बढ़ गया और एक अजीब सी आवाज वहां गूंजने लगी जिसको यदि कोई और सुन ले तो उसकी रीढ़ की हड्डी तक सिरहन दौड़ जाए परंतु उस आवाज को सूनकर याग्नेश की प्रसन्नता का कोई ठीकाना न था ,

यह आवाज थी अंधेरे के राजा शैतान इब्लीस की ।

याग्नेश -- ए मेरे मालिक , अंधेरों के राजा परम शक्तिशाली इब्लीस मेरा आपको कोटि-कोटि नमन, आज आपको इतने वर्षों बाद अपने समक्ष पाकर मैं धन्य हो गया ।

इब्लीस -- कहो मुझे क्यों याद किया।


याग्नेश -- ए मेरे आका , इतने वर्षों से मैंने लगातार आप की आराधना की है , मैंने अपने भीतर की मानवता को मार कर हर वह काम किया है जो आपको प्रिय हो , परंतु अभी मैं आपकी शक्तियों से दूर हूं ।
एक अदना सा देवदूत भी मुझे आकर धमका कर चला जाता है और मैं कुछ नहीं कर पाता हूं, ऐसा क्यों ??

आखिर क्या कमी रह गई मेरी आराधना में, आज मेरे शत्रु प्रबल है, वह मेरी गुफा को और मेरी पूजा स्थल को तहस-नहस करके चले गए , मेरे अनुयायियों को निर्ममता पूर्वक मौत के घाट उतार दिया और मैं विवश शक्तिहीन उनका कुछ भी बिगाड़ने में असमर्थ हूं , कृपया मेरी सहायता करें मेरे मालिक ।


इब्लीस -- इसका कारण भी तुम ही हो याग्नेश। तुम अब तक दो नावों पर सवारी करते आए हो जो कभी भी मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती। एक और तो तुम देवताओं की भी शक्ति प्राप्त करना चाहते हो और दूसरी ओर मेरी काली शक्तियां भी ।

तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए अंधेरा और उजाला कभी एक साथ नहीं रह सकता , तुमने सफेद क्रिस्टल में मेरी शक्तियों से भरपूर काले क्रिस्टल को मिलाने का प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप मेरा वह काला क्रिस्टल भी शक्तिहीन हो गया यदि तुम मेरी काली शक्तियां प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें मेरे प्रति संपूर्ण समर्पण करना होगा अपनी आत्मा मुझे समर्पित करनी होगी।

याग्नेश -- क्षमा करें मेरे मालिक क्षमा करें , मैंने विचार किया था कि यदि देवताओं की शक्ति और आपकी काली शक्तियां दोनों मुझे प्राप्त हो जाए तो मैं इस संसार कर सर्वशक्तिमान बन जाऊंगा इसी विचार से मैं इतने वर्षों तक यह गलतियां करता रहा।


इब्लीस - देवताओं की शक्तियां भी तुम प्राप्त कर सकते हो उसके लिए अभी समय है । उससे पहले तुम्हे मेरी काली शक्तियां अपने भीतर समानी होगी , जब तुम पूर्णतया मेरी शक्तिया प्राप्त कर लोगे तब देवताओ की शक्तियां प्राप्त करने का मार्ग भी तुम्हे प्राप्त हो जाएगा । तूम्हे यह याद रखना होगा एक समय पर एक ही रास्ते पर चलकर अपनी मंजिल तक पहुंचा जा सकता है।

याग्नेश -- मेरे पुर्व के सारे अपराध क्षमा करें मेरे मालिक अब मैं अपने आप को और अपनी आत्मा को , आप के सुपुर्द करता हूं , इसे स्वीकार करें।।

इतना कहकर याग्नेश ने खंजर उठाया और अपने सीने पर जहां दिल होता है ठीक उसी जगह प्रहार किया उसके ह्रदय में वो खंजर घुस गया और बहने लगी लाल रक्त की एक धारा
अपनी असहनीय पीड़ा को सहते हुए, ह्रदय में खंजर धसा होने के बावजूद भी , याग्नेश ने अपनी पूरी शक्ति एकत्रित करके आपने अंजलि में हृदय से बहते हुए रक्त को लिया और उस काले क्रिस्टल पर चढ़ा दिया, इसी के साथ याग्नेश का शरीर एक और लुढ़क गया।

जैसे ही याग्नेश का शरीर एक और लुढ़क गया उसी समय काले क्रिस्टल से एक बैंगनी रंग का प्रकाश याग्नेश के शरीर में प्रवेश करने लगा और आश्चर्यजनक रूप से देखते ही देखते उसके ह्रदय में धंसा हुआ खंजर अपने आप बाहर निकल आया। उसके घाव भरने लगे उसका शरीर पहले से और ज्यादा ताकतवर और सुदृढ़ बनने लगा । धीरे धीरे याग्नेश की आंखें खोल दी उसकी आंखों का रंग अब बिल्कुल काला हो गया था ।

बाहर गुफा के ऊपर घने बादलों की गर्जना और बिजली कड़कने की भयंकर आवाज से वातावरण और भी भयावह हो गया था वन के पशु सभी न जाने सभी ना जाने किस अनिष्ट की आशंका से शोर मचा रहे थे और वहां तहखाने के भीतर याग्नेश अब पूरी तरह होश में आ गया था ।

अब वह पहले वाला याग्नेश नहीं रहा था , इब्लीस ने उसे पृथ्वी पर मौजूद सभी काली शक्तियों का स्वामी बना दिया था अब उसकी आत्मा इब्लीस से जुड़ चुकी थी , याग्नेश ने अपने दोनों हाथ जोड़े और अपना सिर नीचे करके उस क्रिस्टल के आगे बैठ गया।

इब्लीस -- पुत्र अब तुम मेरा अंश बन चुके हो तुम्हारे भीतर अब वह असीम शक्ति समा गई है , जिसका संसार में कोई भी सामना नहीं कर सकता। परंतु ध्यान रहे तुम्हें केवल खतरा उसी से है जो तुम्हारा ही कोई अंश होगा और उसने अच्छाई और बुराई दोनों शक्तियों का संतुलन बना लिया हो।


कितना कहकर इब्लीस वहां से चला गया। इब्लीस के जाने के बाद याग्नेश इब्लीस के अंतिम शब्दों पर गौर करने लगा कि उसका ही कोई अंश उसके लिए खतरा बन सकता है।

उसका अंश यानी उसका पुत्र जिसको उसकी आंखों के सामने नगर वालों ने उसके सारे परिवार के साथ जलाकर राख कर दिया था ।

याग्नेश ने सिर झटक कर इन सब विचारों को छोड़ा , अब उसका प्रथम कार्य था प्रतिशोध अपने भीतर प्रलय को समेटे हुए याग्नेश तहखाने से बाहर निकला और अपने घोड़े पर बैठकर अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा।

बिजली की सी तेज गति से याग्नेश अपने घोड़े को दौड़ाते हुए नगर के बाहरी दीवार तक पहुंच गया उसने अपना घोड़ा वही एक पेड़ से बांध दिया नगर की ऊंची दीवार को एक ही छलांग में पार करके नगर के भीतर प्रवेश कर गया, वह अब नगर के खुले चौक में पहुंचे।

अंधेरा अभी भी बहुत घना था, इस समय रात के कोई 3 बज रहे होंगे , चौक और गलियां पूरी तरह सुनसान थी घनी अंधेरी काली और सर्द रात्रि में सभी अपने अपने घरों में आराम से सोए हुए थे याग्नेश आराम से चौक से होते हुए नगर के मध्य स्थित मुख्य आश्रम जहां कभी वह आचार्य था के द्वार तक पहुंचा।

याग्नेश ने आश्रम के द्वार को देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ के द्वार पर कोई भी रक्षक नहीं था । अपनी शक्तियों का प्रयोग करके उसने द्वार के भीतर देखा तो वहां भी आश्रम का कोई भी योद्धा या सैनिक नहीं था।

उसने विचार किया कि यदि यहां के नए आचार्य और उनके योद्धाओं ने उसकी गुफा में तबाही मचाई है , तो उन्हें अंदेशा होना चाहिए के याग्नेश यहां पर प्रतिशोध लेने जरूर आएगा , फिर भी उसे रोकने के लिए इस समय यहां आश्रम के योद्धाओं की सेना उसे रोकने के नही थी ।

फिर उसके मन में दूसरा विचार भी आया के हो सकता है उसे फंसाने के लिए यह कोई जाल हो सभी विचारों को झटक ते हुए वह आश्रम के बंद द्वार की ओर बढ़ा उसके नेत्रों से निकलती हुई बैंगनी किरणों ने आश्रम के विशाल द्वार को पल भर में ध्वस्त कर दिया द्वार टूटने की आवाज इतनी ज्यादा थी के आश्रम में सोए हुए लगभग सभी अनुयाई और कर्मचारी जाग गए थे।

आश्रम के योद्धा किसी अनहोनी की आशंका से तुरंत अपने कक्षो से निकलकर द्वार की तरफ दौड़े , उन्हें वहां याग्नेश आश्रम के भीतर आता हुआ नजर आया । लंबे काले वस्त्रों , सर्द चेहरा और बैंगनी प्रकाश से चमकते ही उसकी आंखें कुल मिलाकर वह आज कोई मौत का दूत नजर आ रहा था ।

आश्रम के योद्धा उसे देख कर पंक्ति बद्ध तरीके से उसके आगे खड़े हो गए। उन्हें अपना रास्ता रोके देख कर याग्नेश का क्रोध और बढ़ गया।।


याग्नेश -- हट जाओ मेरे रास्ते से , वरना तुम सब के सब मारे जाओगे , आज मेरे और तुम्हारे आचार्य के बीच जो भी आएगा वह बहुत बुरी तरह मारा जाएगा, यदी अपने प्राण बचाना चाहते हो तो आखरी बार कह रहा हुं हट जाओ।।

योद्धाओं का प्रमुख -- हम तुम्हें किसी भी कीमत पर भीतर नहीं जाने दे सकते आप हमारे लिए आदरणीय हो इसलिए अभी तक हमने आप पर कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाया परंतु जब हमारे आचार्य की रक्षा की बारी आएगी तब हम आप पर भी वार करने से नहीं चुकेंगे , इसलिए कहते हैं कृपया यहां से चले जाइए।।

याग्नेश -- तो तुम सब ऐसे नहीं मानोगे , अब अपनी मृत्यु के लिए सब तैयार हो जाओ , आज मुझे कोई भी नहीं रोक सकता ।
इतना कहकर याग्नेश ने अपने हाथ को उन योद्धाओं की तरफ कर दिए , जिस से निकलती हुई बैंगनी किरणों ने किसी पाश की तरह उन सारे योद्धाओं को एक साथ बांध दिया , उसने उन सब को समाप्त करने के लिए अपनी तलवार निकाली ही थी कि वहां एक गंभीर आवाज उभरी जो यहां के मौजूद आचार्य विजयानंद की थी , जो किसी समय याग्नेश का प्रिय शिष्य हुआ करता था।।


आज के लिए इतना ही , अगला प्रकरण बहुत जल्द ही प्रकाशित होगा ।
आप सभी पाठकों का बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏🙏 ऐसे ही अपना साथ बनाए रखें और अपने सुझाव और प्रतिक्रिया देते रहें ।स्वस्थ रहे खुश रहे ।।


आपका अपना मित्र -- अभिनव🔥
Bahut hi khatarnak aur jabardast update hai bhai , Excellent 👏👏👏👏👏
 
  • Like
Reactions: jaggi57

Ajju Landwalia

Well-Known Member
4,296
16,596
159
अध्याय - 22

परंतु अभी उसकी प्राथमिकता उसके पिता का उपचार था । राजवैद्य ने कामरान की नाडी का परीक्षण किया और शरीर में विश्व फैलने के बारे में बताया ।
कामरान के उपचार के लिए राजवैद्य को लेकर सभी शीघ्र राजमहल पहुंचे । कंक और उसके साथियों को भी बेडियो में जकड़ कर कारागृह में डाल दिया गया ।

अब आगे -------


कामरान का उपचार दो दिनों से चल रहा था , राज वैद्य अपनी सारी विद्या का उपयोग करके कामरान को स्वस्थ करने का प्रार्थना कर रहे थे , क्योंकि कंक द्वारा रचे गये षडयंत्र मे वह भी सहभागी था , एक तरफ तो ग्लानि तो दूसरी ओर मृत्यु दंड का भय । विरूपाक्ष भी रजवैद्य पर अपनी कडी नजर बनाए हुए था ।


इन दो दिनों में विरुपाक्ष द्वारा राजकुमारी अमृता को सब कुछ ज्ञात हुआ और साथ ही साथ यह भी के किस प्रकार सारे षड्यंत्र को उजागर करने में गजेंद्र ने सहायता की हैं ।
जिस प्रकार ध्यान में गजेंद्र को राजकुमारी अमृता की छवि दिखाई दी थी । उसी प्रकार कई दिनों से राजकुमारी अमृता को भी गजेंद्र की छवि दिखाई दे रही थी ।


युद्ध भूमि में जब वह गजेंद्र से टकराई थी , उस समय अपने पिता की चिंता के कारण वह उसे सही तरह से देख नहीं पाई थी ।
परंतु जब दोनो के नेत्र मिले थे तब से ही एक प्रकार का आकर्षण का उसे
आभास हो रहा था ।

कामरान के जीवन पर छाया संकट समाप्त हुआ और उसका उपचार शुरू हुआ । उस समय गजेंद्र भी उसी कक्ष में था ।


उसने ध्यान से देखा कि यह युवक कौन हैं , तब वह पहचान गई के यह युवक वही है , जिसे वह कई दिन से स्वप्न में तथा ध्यान में देख रही थी ।

उसका मन गजेंद्र की ओर आकर्षित हो रहा था , उसकी नज़रें सदैव गजेन्द्र को ढूंढती रहती । गजेंद्र की ओर देखते ही हृदय गति तीव्र हो जाती थी । यह सब क्यों हो रहा है , वह अब भी इस बात को समझ नहीं पा रही थी । बारंबार उसके मन में केवल गजेंद्र को देखने की इच्छा प्रकट होने लगी थी ।


यहां जो भाव कुमारी अमृत के मन में चल रहे थे वही भावनाएं गजेंद्र के मन में भी उत्पन्न होने लगी थी । दोनों और प्रेम का अंकुर फूट चुका था ।
और जब से विरुपाक्ष से उसने यह सुना था किस प्रकार गजेंद्र ने इस नगर में चल रहे षड्यंत्र को समाप्त करने की योजना बनाई तो उसके मन में गजेंद्र के प्रति आदर भाव भी बढ़ गया । राजकुमारी के आग्रह करने पर
गजेंद्र की भी व्यवस्था महल में ही एक कक्ष में कर दी गई थी ।


इन दो दिनों में अपने पिता की देखभाल के साथ-साथ राजकुमारी अमृता गजेंद्र के
भी कक्षा में भोजन देने जाया करती थी , जिस कारण अब दोनों में थोड़ी बहुत बात चीत भी शुरू हो गयी थी ।

कंक और उसके साथियों को कारागृह में कड़ी सुरक्षा में रखा गया था ।

दो दिनों के पश्चात प्रातः काल जब सभी कक्षा में उपस्थित थे , उसी समय कामरान ने अपने नेत्र खोले राजवैद्य ने नाडी परीक्षण करते हुए घोषणा की के महाराज अब बिल्कुल स्वस्थ है उनके शरीर से सारा विष निकाल दिया गया है । एक-दो दिन में यह पूर्ण रूप से अपनी शक्ति को प्राप्त कर लेंगे ।

अपने पिता को होश में आया हुआ देखकर और स्वस्थ का समाचार सुनकर राजकुमारी अमृता अत्यंत प्रसन्न हो गई , और अपने पिता को पुकारती हुई कामरान के गले लग गई , कामरान ने भी स्नेह से अपनी पुत्री के सिर पर हाथ फेरते हुए कहाँ ।

कामरान - रो मत पुत्री ! रो मत ! मैं तुम्हारे अश्रु नहीं देख सकता , तुम्हें पता है , देखो अब मैं बिल्कुल स्वस्थ हूं । और अमृता के अश्रु पोंछते हुए मेरी पुत्री के नेत्रों में अश्रु नहीं प्रसन्नता ही अच्छी लगती है ।

कामरान स्वयं तो अपनी पुत्री के अश्रु पोंछ रहा था , परंतु उसके स्वयं के नेत्र से भी अश्रु धारा बह रही थी ।

जिसे देखकर राजकुमार अमृता अपने पिता के अश्रु पोंछते हुए ।

राजकुमारी अमृता - यह क्या पिता श्री ! आप तो स्वयं रो रहे हो और मुझे चुप करा रहे हो । जिस प्रकार मेरे नेत्रों में अश्रु शोभा नहीं देते , उसी प्रकार आपको भी रोना शोभा नहीं देता ।
पता है मैं कितनी भयभीत हो गई थी , जब मैंने आपको भूमि पर उस अवस्था में पड़े हुए देखा । ईश्वर का बहुत-बहुत धन्यवाद जो उन्होंने मेरी मेरी प्रार्थना सुन ली और आप स्वस्थ हो गए ।

अपने निकट खड़े विरुपाक्ष पर जब कामरान की दृष्टि पड़ी , तो उसकी ओर देखकर दोनों हाथ जोड़कर कामरान उठने का प्रयत्न करने लगा ।

यह देखकर विरूपाक्ष ने दौड़कर कामरान को सहारा देकर फिर से बिस्तर पर लिटा दिया ।


विरुपाक्ष - अरे !अरे ! महाराज ! यह क्या कर रहे हो आप । मेरे जैसे एक छोटे से सेवक के सम्मुख आप इस प्रकार हाथ क्यों जोड़ रहे हो , ऐसा करना आपको शोभा नहीं देता महाराज ।

कामरान - ऐसा मत कहो मेरे भाई ! मुझे क्षमा कर दो ! मैने तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं किया तुमने सदैव एक छोटे भाई बनकर मेरी सहायता की है , तथा मेरी और मेरी पुत्री की रक्षा की है ।
यह राज्य भी तूम्हारे द्वारा कुबेर जी की प्रार्थना करने के कारण ही प्राप्त हुआ है । तुम्हारे उपकार को भूलकर केवल उसे देखा जो मुझे उन षडयंत्रकारीयो द्वारा दिखाया गया ।

तुम्हारे संपूर्ण उपकारों को भूलकर मैंने उन पर विश्वास करके तुम्हें दंड दिया और तुम्हारा अपमान किया , फिर भी तुमने अपने मुख से एक शब्द भी मेरी विरुद्ध नहीं कहा ,
चुपचाप राज्य की सेवा करते रहे । मैं निरंतर तुम्हें भरे दरबार में कई बार अपमानित करता रहा , परंतु तुम चुपचाप सहते रहे , क्षमा कर दो मेरे मित्र ! मेरे भाई ।


विरुपाक्ष - महाराज इस प्रकार आप क्षमा मत मांगिये । मैनै सदैव आपको अपने बड़े भाई के रूप में ही देखा है और राजकुमारी अमृता को अपनी पुत्री के रूप में ।
आपको अपनी भूल का एहसास हो गया मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है , आप इस प्रकार मेरे सामने हाथ जोड़कर मुझे लज्जित ना कीजिए ।

गजेंद्र - थोड़ी दूरी पर खड़े रहकर यह सब देख रहा था और सोच रहा था की मन की भावनाएं व्यक्ति को कितना नचाती हैं । यदि जीवन में सफल होना है इस मन को वश में रखना होगा यदि मन वश में होगा तभी सही और गलत का निर्णय करने में विवेक सक्षम होगा और भविष्य में इस प्रकार की परिस्थिति जीवन में कभी नहीं आएगी ।

कामरान - क्षमा तो मुझे तुम्हारे इस मित्र से भी मांगनी है जिसे मैंने बिना जाने ही मृत्यु दंड की सजा सुना दी थी । परंतु फिर भी उसी ने मेरी रक्षा की ।
( फिर गजेंद्र कि ओर देखकर दोनों हाथ जोड़कर )
मुझे क्षमा कर दो युवक ! मैंने तुम्हें दंड दिया और तुमने मेरे राज्य के षड्यंत्रकारी द्वारा रक्षा की उसके लिए तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद ।


कामरान के ऐसा कहने पर गजेंद्र आगे आता हुआ कामरान के निकट पहुंचकर --

गजेंद्र - क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहीं महाराज ! बस आगे से आप इतना ध्यान रखिए के न्याय केवल एक पक्ष का सुनकर नहीं होता , दोनों पक्षों को और साक्षी को भली भांति परख कर और स्थिति समझकर किया जाता है । आप राजा है आपके ऊपर इस संपूर्ण राज्य की जिम्मेदारी है , आपको इतना ध्यान रखना चाहिए यदि कोई बिना कारण आपकी चापलूसी करता है और आपको भोग विलास की ओर लगता है तो वह सर्वथा आपका मित्र नहीं हो सकता।

कामरान - तुम उचित कह रहे हो युवक! मैं अब आगे से इस बात का अवश्य ध्यान रखूंगा । परंतु अब तक आपने अपना परिचय नहीं दिया है । यदि आपको कोई आपत्ती ना हो तो कृपया आप अपने बारे में बताइए ।

कामरान के इस प्रकार नम्रता पूर्वक पूछने पर गजेंद्र ने अपनी उत्पत्ति और साथ में अपने लक्ष्य के बारे में सब कुछ बता दिया ।
साक्षात महादेव तथा संपूर्ण देवताओं की तपो ऊर्जा तथा प्रकृति संयोग से गजेंद्र की उत्पत्ति सुनकर सभी के मस्तक अपने आप गजेंद्र के प्रति श्रद्धा भाव से झुक गए ।

अनलासुर के अंत के लिए गजेंद्र की उत्पत्ति की बात सुनकर कामरान , विरुपाक्ष तथा राजकुमारी अमृता अत्यधिक प्रसन्न हुई क्योंकि वह अनलासुर ही था जिसने उनके परिवार को समाप्त किया था ।

कामरान - हमें क्षमा कर दीजिए गजेंद्र जी ! अनजाने में हमसे आपके प्रति जो धृष्टता हुई है उसके लिए । आप जैसे दिव्य पुरुष का हमारे नगर में आना हमारे लिए अत्यन्त गौरव की बात है , हम भी आपके लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए आपका संपूर्ण साथ देंगे ।

जितना दोषी अनलासुर है उतने ही दोषी हम भी हैं । हम ने हीं उसका पूर्व में साथ दिया था , अब प्रायश्चित के तौर पर भी हम उसके अंत के लिए आपका हर प्रकार से सहयोग करने के लिए तत्पर है ।

गजेंद्र - बहुत-बहुत धन्यवाद महाराज ! मुझे प्रसन्नता हुई यह देखकर के आपको अपने किए हुए अपराधों का बोध है तथा आप उसके प्रायश्चित के लिए तत्पर है ।
( फिर राजकुमारी अमृत की ओर देखते हुए ) मुझे लगता है के आपकी सहायता के बिना मै अपने लक्ष तक न पहुँच पाऊँगा , इसलिए , आपसे मुझे जो सहायता चाहिए वो मै आवश्य माँगूगा ।


राजकुमारी अमृता गजेंद्र की बात का अर्थ समझ चुकी थी इसलिए लज्जावाश उसका चेहरा एकदम लाल हो गया था । शर्म के मारे उसकी पालकें नीचे झुक गई थी , उसका हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा था ।

कामरान - मुझे बहुत प्रसन्नता होगी गजेंद्र जी ! आदेश दिजीए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ।

गजेंद्र - महाराज अनलासुर का सामना करने से पूर्व , मुझे कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करना है । इस नगर में आकर मुझे लगता है कि मेरी एक लक्ष्य की खोज यहाँ पूरी हो गई है । आपसके पास कुछ ऐसा है जिसे प्राप्त कर मै पूर्णता को प्राप्त हो जाऊंगा ।
सो तो मै आपसे आवश्य माँगुगा ।
अभी मुझे अपने अगले लक्ष्य की ओर जाना है । लक्ष्य को प्राप्त करने के पश्चात मैं फिर से वापसी में आपके इस नगरी मे आऊंगा , और उसे बारे में आपसे वार्ता करूंगा ।


गजेंद्र की पहली बात सुनकर राजकुमारी अमृता अती प्रसन्न हो गई , लज्जावश सर झुका कर ही मुस्कुराते हुए अपनी चुनरी को अपनी उंगलियों में फंसा कर घूमने लगी ।
परंतु जब उसने गजेन्द्र से जाने की बात सुनी तो उसके शरीर की हलचल एकदम से रुक गई । चेहरे पर उदासी के भाव आ गए तथा नेत्रों में अश्रु आ गए । अमृता के इन सब भावों को विरूपाक्ष खड़े-खड़े सब देख रहा था और परख रहा था


गजेंद्र और राजकुमारी के मध्य नेत्र ही नेत्रों में जो बातें हो रही थी तथा राजकुमारी अमृत के चेहरे के बदलते भावों को देखकर विरुपाक्ष सब समझ गया था ।

कामरान - मैं अभी भी नहीं समझा मेरा पास ऐसा क्या है जिसे आपका लक्ष्य पूर्ण हो सके कृपया स्पष्ट रूप से कहिए ।

विरुपाक्ष - मैं समझ गया महाराज यह किस विषय में बात कर रहे हैं ! अब आप उत्सव की तैयारिया शुरू करवा दिजिए । क्यों बेटा अमृता ! क्यों मित्र ! मैं सही कह रहा हूं ना ?

कामरान - विरुपाक्ष अब तुम भी पहेलियां में बात कर रहे हो यदि और कैसा उत्सव , तुम समझ ही चुके हो तुम मुझे भी समझा दो ।

विरुपाक्ष - महाराज आप अभी भी नहीं समझे ? मेरा मित्र गजेंद्र राजकुमारी अमृत के वाषय में बात कर रहे हैं ।
ये दो लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यात्रा में निकले हैं , एक जीवन संगिनी और दूसरा वहान । इन्होने यह कहा कि उनकी एक खोज यहां पर आकर पूरी हो गई । वहान तो यहां इन्हें प्राप्त नहीं , हुआ परंतु अमृता को देखकर लगता है इन्हें अपने जीवन संगिनी आवश्य प्राप्त हो गई और जहां तक मैं देख रहा हूं राजकुमारी अमृता को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है । क्यों बेटा अमृता में सही कह रहा हूं ना ।

विरुपाक्ष के ऐसा कहने पर कामरान ने राजकुमार अमृता की तरफ देखा जो विरुपाक्ष और कामरान की बातें सुन रही थी जब विरुपाक्ष ने सारी बातें स्पष्ट कर दी तो उसने फिर से लज्जावश सर झुका लिया ।

विरुपाक्ष की बात करने पर गजेंद्र भी लज्जावश सर झुका कर खड़ा हो गया दोनों को इस प्रकार सर झुका कर खड़े हुए देखकर कामरान सब समझ गया ।


कामरान - परंतु विरुपाक्ष दोनों को देखकर मुझे तो नहीं लगता यह दोनों को इस विषय में कोई रुचि है देखो दोनों कैसे सर झुकाए खड़े हुए हैं मुझे नहीं लगता की राजकुमारी अमृता और गजेंद्र जी एक दूसरे को पसंद करते हो ।

कामरान की बात सुनकर गजेंद्र और राजकुमारी अमृता दोनों के मुख से एक साथ निकाला - नहीं ! नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है ।

एक साथ दोनों बोल उठे फिर एक दूसरे की तरफ देखकर फिर चुप हो गए
दोनों को इस प्रकार देखकर कामरान और विरुपाक्ष ठहाके लगाकर हंसने लगे।

विरुपाक्ष - देखा महाराज आपने , हमारी बिटिया अब बड़ी हो गई है ।

कामरान - हां हां भाई देख भी लिया और सब समझ भी लिया । गजेंद्र जी को अपने जामाता के रूप में पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी । मुझे सतत चिंता सताती रहती थी मेरी अमृता के योग्य वर कहां प्राप्त होगा अब मेरी भी खोज संपूर्ण हुई । अब मेरी बेटी के विरह की वेला भी आ गयी , मै किस प्रकार इसके बिना रह पाऊंगा ।

राजकुमारी अमृता - नहीं पिता श्री ! मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी , मुझे नही करना कोई विवाह , यदि मैं चली गई तो आप अकेले रह जाओगे ।

कामरान - ऐसा नहीं कहते पुत्री ! हर पिता की यही इच्छा होती है उसकी पुत्री को योग्यवर प्राप्त हो । अपनी पुत्री को दुल्हन के जोड़े में देखें उसका कन्यादान कर सके , अपनी आंखों के सामने अपने बच्चों का घर बसते हुए देखें ।
वारूपाक्ष मुझे उठकर बिठाओ मैं दोनों को अपने सीने से लगाना चाहता हूं ।

विरुपाक्ष ने सहारा देकर कामरान को बिठा दिया , कामरान के इशारे पर राजकुमारी अमृता और गजेंद्र दोनों कामरान के गले मिले । कामरान ने उन दोनों के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया ।

उसके पश्चात कई बातों पर वहां चर्चा हुई जहां यह तय हुआ गजेंद्र के वापस आने पर दोनों का विवाह संपन्न कराया जाएगा । अभी अपराधियों को दंड देने का कार्य भी रह गया था , सो गजेंद्र को कामरान ने 1 दिन के लिए रुकने का आग्रह किया ।

तो यह तय हुआ कि कल दरबार में सारी बातें स्पष्ट होने के पश्चात गजेंद्र अपनी अगली यात्रा पर निकलेगा , थोड़ी देर यूं ही बातें चलती रही उसके पश्चात गजेंद्र अपने कक्ष में चला गया ।

आज के लिए इतना ही -------

अगला अध्याय शीघ्र ही --------

सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ।
धन्यवाद 🙏🌹🌹

स्वस्थ रहे ------प्रसन्न रहे

आपका मित्र --- अभिनव🌹🌹

Sabhi updates ek se badhkar ek he jaggi57 Bhai,

Gajender ne badi hi khubi ke se sath kank aur anay shadayantrakariyo ki parast kar diya................sathi hi sath Kamran ko bhi akal aa gayi.........

Amrita ke se gajender ka vivah to nishchit ho gaya he...............ek khoj to puri huyi gajender ki...lekin dusri khoj vahan ki abhi bhi baki he........

Keep posting Bhai
 
  • Like
Reactions: jaggi57 and Jay66

Jay66

New Member
32
38
18
अध्याय -- 5

याग्नेश ने उन सब को समाप्त करने के लिए अपनी तलवार निकाली ही थी कि वहां एक गंभीर आवाज उभरी जो यहां के मौजूद आचार्य विजयानंद की थी , जो किसी समय याग्नेश का प्रिय शिष्य हुआ करता था।।

अब आगे --


विजयानंद - रुक जाईये गुरुदेव , इन्हें क्षमा कर दीजिए , यह तो केवल मेरी रक्षा का अपना दायित्व निभा रहे थे ।आप यहां मुझे अपना शत्रु मान कर आए हुए हो, तो लिजीए मैं आज आपके सामने प्रस्तुत हूं , परंतु कृपया इन्हें छोड़ दीजिए।

विजयानंद को अपने सामने देखकर याग्नेश ने सभी योद्धाओं को अपने पाश से मुक्त कर दिया , अपने आचार्य का इशारा पाकर आश्रम के सभी योद्धा एक तरफ हट गए याग्नेश ने देखा के वीजयानंद उसके समक्ष अपने यह दोनों हाथ जोड़े हुए खड़ा है।

याग्नेश -- बंद करो अपना यह झूठा दिखावा विजय , मैं खूब जानता हूं , एक तरफ तो तुम अपने हाथ जोड़ कर मुझे अपना गुरुदेव कह रहे हो और दूसरी तरफ अपने योद्धाओं के साथ मेरे निवास स्थान को तहस-नहस करके आए हो अब तुम्हारा यह अच्छाई का मुखौटा मुझे भ्रमित नहीं कर सकता।

विजयानंद -- गुरुदेव , आप क्या कह रहे हैं मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा ।आप किस घटना का यहां उल्लेख कर रहे हो ,उसमें मेरा तनिक भी हाथ नहीं है । आशा है क्या आप मुझे अपनी बात रखने का अवसर प्रदान करेंगे। परंतु पहले भीतर चलिए
क्योंकि जिस तरह आपने बताया मुझे किसी षड्यंत्र का अंदेशा हो रहा है , इसलिए इस बारे में बात करना यहां उचित नहीं है कृपया करके भीतर चले, यदि आपको मेरी बात सुनने के बाद भी ऐसा लगे इस घटना में मेरा कोई भी हाथ है तो निसंदेह आप मेरा वध कर देना।


याग्नेश को भी विजयानंद की बात उचित लगी और वह भीतर आश्रम के आचार्य के लिए बने विशेष कक्ष की तरफ चल दिया।

यह वही का स्थान था जहां वह अपने दादा से मिलने कई बार आता था , इसी कक्ष में उसने अपने दादा का क्षत-विक्षत मृत देह देखा था । आचार्य बनने के पश्चात इसी कक्षा में रहकर उसने इस नगर के वासियों की बहुत सहायता की थी । कक्ष के भीतर पहुंचकर विजयानंद ने याग्नेश को आसन पर बिठाया और खुद उनके सामने एक आसन पर बैठ गया।


विजयानंद -- अब बताइए गुरुदेव आप किस घटना के बारे में बता रहे थे कृपया करके मुझे विस्तार से बताएं।।

याग्नेश -- यह तुम मुझे बार-बार गुरुदेव कहना बंद करो , मैं कोई तुम्हारा गुरु नहीं रहा , अब हमारे रास्ते भिन्न है और यह बात जितना शिघ्र समझ जाओ उतना अच्छा है ।।
ये अच्छा बनने का दिखावा भी मेरे सामने मत करो , मैं आज तक कभी तुम्हारे रास्ते में नहीं आया , परंतु तुमने मेरी गुफा मेरे निवास स्थान को तहस-नहस करके और मेरे अनुयायियों को आहत करके मुझे अपना शत्रु बना लिया है , अभी तक मैं यह तुम्हारा सारा आश्रम ध्वस्त कर देता, परंतु मैंने अपना बचपन यहां गुजारा है इसलिए तुम्हें अपनी सफाई का एक मौका देना चाहता हूं।।


विजयानंद -- चाहे हमारे मार्ग भीन्न हो गए हो , परंतु मैं यह कैसे भूल सकता हूं आज मैं जो कुछ भी हूं, जो कुछ भी जानता हूं वह सब कुछ आप ही की देन है । आप मेरे गुरु हो मेरे पिता समान हो इसलिए गुरुदेव कहने का अधिकार कृपया मुझसे ना छीने ।
आप जिस घटना के बारे में बता रहे हैं मैं अपने आराध्य , अपने देवता गजेंद्र की शपथ लेकर कहता हूं उस घटना में मेरे आश्रम के किसी भी योद्धा का कोई हाथ नहीं है । यह कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र प्रतीत होता है जो आपके ही किसी शत्रु ने रचाया है। गुरुदेव मैं इस आश्रम में आचार्य के पद पर आसीन हूं, इसलिए मैं अपनी देवता गजेंद्र की झूठी शपथ कभी नहीं खाऊंगा यदि फिर भी आपको मेरी बात पर जरा भी संदेह है तो लिजीए मेरा सिर आपके सामने समर्पित है।।


याग्नेश -- यदि यह बात सत्य है तो मैं इस बात का पता आवश्य लगा लूंगा । परंतु यदि तुम्हारा या इस आश्रम के किसी भी सदस्य का इसमें कोई हाथ होगा तो सावधान , तुम्हारा यह आश्रम मैं पल भर में राख के ढेर में बदल दूंगा और तुम्हारा देवता गजेंद्र भी मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा।।

इतना कहकर याग्नेश जाने के लिए खड़ा हुआ परंतु खुद सोच कर फिर रुक गया और विजयानंद की तरफ देख कर बोला

याग्नेश -- यदि तुम मेरा इतना ही आदर करते हो , तो मैं तुम्हें जाते-जाते एक सलाह देता हूं कि छोड़ दो यह सत्यता का मार्ग इस गजेंद्र की उपासना इससे तुम्हें कुछ हासिल ही नहीं होगा । यह सदैव अपने मानने वालों को ही दुख प्रदान करता है आज मैं जिस परिस्थिति में हूं यदि तुम इस परिस्थिति में नहीं आना चाहते तो इस देवता और आश्रम का साथ छोड़ के मेरे साथ आ जाओ।

विजयानंद -- क्षमा करें गुरुदेव मैं आपके ही सिखाये हुए पाठ और सीख पर चल रहा हूं , और जानता हूं कि सत्यता का मार्ग बड़ा कठिन है इसका पालन करने वालो बहुत से त्याग और बलिदान देने पड़ते हैं , और मै इसके लिए प्रस्तुत भी हुं ।।
मानवता का भी यही धर्म है और यही धर्म सबसे श्रेष्ठ है । यही मार्ग हैं आत्मोन्नति का और मुक्ति का साधन है ।। छोटा मुंह बड़ी बात मैं तो आपसे भी कह रहा हूं कि आप यह पापूर्ण मार्ग का त्याग करें प्रायश्चित करें और लौट आए गुरुदेव ।। आपको पुनः अपनी शक्तियां और पद प्राप्त हो जाएगा।।


याग्नेश -- तुम मुझे ज्ञान देने का प्रयत्न ना करो विजयानंद , यदि तुम्हें अपने देवता गजेंद्र पर इतना ही विश्वास है तो मैं तुम्हें पूर्ण 1 वर्ष देता हूं । इस 1 वर्ष में तुम अपने देवता की शक्ति जितनी प्राप्त करना चाहते हो प्राप्त कर लो फिर 1 वर्ष के पश्चात तुम्हारा सामना मुझसे होगा यदि तुम उस समय हार गए तो तुम्हारा सारा आश्रम सारे अनुयायी और नगरवासी सब मेरे मालिक को ही अपना भगवान मानेंगे , क्या तुम मेरी इस चुनौती को स्वीकार करते हो।। यदि तुम्हें अपने देवता गजेंद्र पर इतना विश्वास और श्रद्धा है तो अवश्य तुम मेरी चुनौती को स्वीकार करोगे , क्योंकि यदि मैं हार गया तो मैं प्रायश्चित भी करूंगा और जो भी तुमको कहोगे वह सब मैं कर लूंगा।।

विजयानंद -- मैं तैयार हूं गुरुदेव। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूं , परंतु यह आप भी जानते हैं कि मेरे पास देवता का दिव्य क्रिस्टल नहीं है , जो अनेक दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण था और श्वेत उर्जा का स्रोत था , वह तो क्रिस्टल आप ले गए थे, फिर भी मैं प्रयत्न करूंगा, सत्य के पथ पर मेरा सर्वस्व न्योछावर हो जाए तो भी मुझे प्रसन्नता ही होगी ।।

याग्नेश अपनी जेब से सफेद क्रिस्टल निकालते हुए विजय आनंद की ओर बढ़ा देता है

याग्नेश -- हा हा हा हा ( जोर से हसते हुए ) तुम क्या सोचते हो कि तुम मुझे इस सफेद क्रिस्टल की शक्तियों से मुझे हरा दोगे तो यह लो अपना क्रिस्टल भी तुम ही रख लो अब मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।।

विजयानंद क्रिस्टल को दोनों हाथों से थाम लेता है और अपने माथे से लगाकर उसे देखता है

विजयानंद -- धन्यवाद गुरुदेव । जो आज आपने इस आश्रम की धरोहर वापस की है , जानता हूं कि इस समय यह क्रिस्टल पूर्ण रूप से शक्तिहीन हो गया है, परंतु मुझे अपने देवता गजेंद्र पर पूर्ण विश्वास है शीघ्र ही में अपने तप और आराधना से इस क्रिस्टल को पूर्ववत दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण कर दुंगा। इतना कहकर विजयानंद यग्नेश को प्रणाम करता है ।।

याग्नेश एक नजर विजयानंद को देखता है , उसे आज भी उस में कहीं ना कहीं वह छोटा विजय नजर आता हैं, जो कभी बाबा बाबा कहते हुए नहीं थकता था । याग्नेश भी उसे बहुत अधिक प्रेम करता था एक गहरी सांस छोड़ कर विजय को देखकर उमड़े हुए भावनाओं के वेग को अपने भीतर दबाए याग्नेश मुड़ गया और तेज कदमों से आश्रम के बाहर निकल गया।।

याग्नेश आश्रम से निकलकर चौक से होते हुए नगर के पूर्व दिशा की ओर बढ़ गया , यहां था नगर के राजा सुजान सिंह का विशाल राज भवन ।

याग्नेश को उसके मरते हुए अनुयाई ने गुफा के हमलावरों की जो पहचान बताई थी उसके अनुसार उसे यह तो पता हो गया था की वह हमलावर आश्रम के ही किसी सेना ने किया था यदि इस हमले में विजयानंद का कोई हाथ नहीं था तो आश्रम की ही दूसरी टुकड़ी जो राजा सुजान सिंह आदेशों पर , काम करती थी जिसका निर्माण आश्रम को बाहरी हमलों से बचाने के लिए हुआ था ।

विजयानंद की बातें सुनकर याग्नेश को पूर्ण रूप से विश्वास हो गया था उसकी गुफा में हुए हमले के पीछे सुजान सिंह का ही हाथ है । हो ना हो सुजान सिंह के कहने पर ही उस दूसरी टुकड़ी ने उसके निवास स्थान को तहस-नहस कर दिया था ।

आज याग्नेश जिस परिस्थिति में था उसमे बहुत बड़ा हाथ राजा सुजान सिंह का था । जो अपने लोभ के कारण आश्रम की अकूत संपत्ति और दिव्य वस्तुएं को प्राप्त करना चाहता था। राजा सुजान सिंह ने याग्नेश और उसके परिवार के विरुद्ध कौन सा षड्यंत्र रचा था यह सब आगे कहानी में पता चलेगा
याग्नेश सुजान सिंह के रचे हुए षड्यंत्र को अब भलीभांति जान चुका था।।

यह राज महल नगर के पूर्व दिशा में स्थित था। राज महल के चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें और विशाल द्वार उसकी शोभा बढ़ाते हैं । राज महल के भीतर किसी कक्ष में राजा अपने मंत्रियों के साथ बैठा अपने षड्यंत्र के अंतिम चरण पर विचार कर रहा था।

राजा सुजान सिंह -- हा हा हा हा अब बहुत ही शीघ्र मेरा वर्षों का सपना पूरा होने जा रहा है अब आश्रम की संपूर्ण संपत्ति और नगर इन सब पर केवल हमारी ही सत्ता होगी।
हमारे पूर्वजों द्वारा जो गलती हुई थी , उसे हम सुधरेंगे नगर का राजा होने के पश्चात भी यहां के आधे से ज्यादा अधिकार आश्रम के पद आसीन आचार्य के पास होते थे । परंतु अब ऐसा नहीं होगा, अब ना होगा कोई आश्रम और ना होगा कोई आचार्य , अब नगर की संपूर्ण सत्ता केवल हमारे ही हाथों में होगी।

अब तक तो आचार्य विजयानंद याग्नेश के हाथों मारा जा चुका होगा । विजयानंद के बाद आचार्य के पद को संभालने योग्य हमने कोई योग्य शिष्य छोड़ा ही नहीं इस परिस्थिति में अब आश्रम के संपूर्ण अधिकार हमारे होंगे।

आइए जानते हैं राजा सुजान सिंह के मंत्रिमंडल और कुछ विश्वास पात्रों के बारे में जिनका इस कहानी के भूतकाल वर्तमान काल और भविष्य काल में महत्वपूर्ण भूमिका होगी


राजा सुजान सिंह -- एक ऐसा राजा जो अपनी महत्वकांक्षा, लोभ और अहंकार की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इसे शुरू से ही आश्रम के गद्दी खटकती थी यह किसी भी प्रकार आश्रम की परंपरा को समाप्त करके इस नगर पर अपना एक छत्र राज्य चाहता था।।

सेनापति समर सिंह -- एक ऐसा ही योद्धा जो शूरवीर , नेक दिल और मातृभूमि के लिए कुछ भी कर गुजरने की भावना रखता था। सेनापति समर सिंह राज महल की सेना के साथ साथ आश्रम की सेना के भी सेनानायक थे ।

सेनानायक के साथ-साथ यह आश्रम के योद्धाओं को और विद्यार्थियों को युद्ध कला और शस्त्र विद्या की भी शिक्षा देते थे याग्नेश को भी हर प्रकार की युद्ध कला और शस्त्र विद्या की शिक्षा देने वाले समर सिंह ही थे एक तरह से कहा जाए समर सिंह याग्नेश के शास्त्र विद्या के गुरु थे ।।


राजगुरु विद्याधर -- ये इस राज परिवार के राजगुरु थे , अपने से ज्यादा सम्मान और अधिकार आश्रम के आचार्य को प्राप्त होता देखकर इनके भीतर ईर्ष्या और जलन ने जन्म लिया जिसके कारण इन्होंने सुजान सिंह के अहंकार को अपनी कुटिल बुद्धि और षड्यंत्र की हवा दी सुजान सिंह के द्वारा किए गए सारे षड्यंत्र के पीछे मुख्य हाथ और मस्तीष्क राजगुरु विद्याधर का ही था।

महामंत्री विमलाक्ष -- यह एक ऐसा पात्र है जो बहुत ही कुटिल चालाक चापलूस और गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला है

विक्रम सिंह -- जिसकी बली कहानी के प्रथम अध्याय में याग्नेश के द्वारा दी गई इसका संबंध याग्नेश के भूतकाल से है जो कहानी मैं आगे पता चलेगा।


युद्धवीर सिंह -- विक्रम सिंह का बेटा जो स्वभाव से अति क्रूर और कामवासना से भरा हुआ था

इस कहानी में और भी अनेक पात्र है जिनका विवरण जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ेगी वैसे-वैसे होगा

राजा की बातें राजगुरु पूरी गंभीरता पूर्वक सुनते हुए कुछ विचार कर रहा था राजा की बात समाप्त होते ही राजगुरु बोल पड़ा

राजगुरु महाराज -- यदि आप से अभय प्राप्त हो तुम्हें एक बात आपके सामने रखना चाहता हूं।।

सुजान सिंह -- कहो क्या कहना चाहते हो।

राजगुरु -- महाराज आपकी चाल तो अति उत्तम है परंतु यदि याग्नेश ने विजयानंद पर कोई वार ना किया और उसे हमारी सच्चाई पता चली तब उस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए इस पर भी हमें विचार करना होगा।।

सुजान सिंह -- राजगुरु तुम मुझे क्या समझते हो , इन सब बातों पर मैं पहले ही विचार कर चुका हूं । यदि याग्नेश को हमारी चाल का पता भी लग गया और वह यहां पर हमसे अपना प्रतिशोध लेने आया तो उसका भी प्रबंध हमने कर दिया है यहां उसका सामना होगा उसके अपने ही गुरु से यदि वो उससे भी बच गया तो उसके लिए हमने और भी जाल बिछाए हैं जिन से आज तक कोई बच नहीं पाया आज किसी भी प्रकार से हमें याग्नेश नाम के इस कांटे को निकालना ही हैं और रही बात विजयानंद की तो उसके लिए भी हमने कुछ सोच रखा है ध्यान रहे राजगुरु जहां शत्रुओं की सोच समाप्त होती है वैसे हमारी सोच शुरू होती है

युद्धवीर सिंह तुम शीघ्र ही समर सिंह से जाकर मिलो और उन्हें तैयार रहने को बोलो , आज किसी भी कीमत पर याग्नेश यहां से बचकर नहीं जाना चाहिए

युद्धवीर सिंह -- जी महाराज, मैं भी याग्नेश को शीघ्र ही समाप्त करना चाहता हूं । जिसने अंधविश्वास के नाम पर मेरे पिता की बलि चढ़ाई है और मेरी बहन को न जाने कहां छुपा रखा है इतना कहकर युद्धवीर सिंह अपने आसन से खड़ा हुआ और सुजान सिंह को प्रणाम करते हुए समर सिंह की ओर निकल पड़ा।।

महामंत्री -- वाह महाराज वाह आपने क्या खूब जाल बिछाया है , आज तो उस याग्नेश की कहानी खत्म आपके रची हुए व्यू का सामना याग्नेश तो क्या संसार का बड़े से बड़ा योद्धा भी नहीं कर सकता , इसलिए तो मैं कहता हूं कि आप ही हमारे भगवान हैं सर्वश्रेष्ठ हो।।

अभी यहां यह लोग बातें कर ही रहे थे के ताभी महल के मुख्य द्वार से एक जोरदार धमाके की आवाज आई
ऽऽधडाम् 💥💥💥💥💥


आज के लिए इतना ही , अगला अध्याय शीघ्र ही आशा करता हूं यह कहानी आपको अच्छी लग रही हो
आप सभी पाठकों का साथ देने के लिए ह्रदय से धन्यवाद, खुश रहें स्वस्थ रहें।
आपका
मित्र 👉 अभिनव🔥
Bahut hi behtareen update bhai 👏👏
 

jaggi57

Abhinav
238
703
94
अध्याय - 23

उसके पश्चात कई बातों पर वहां चर्चा हुई जहां यह तय हुआ गजेंद्र के वापस आने पर दोनों का विवाह संपन्न कराया जाएगा ।
अभी अपराधियों को दंड देने का कार्य भी रह गया था , सो गजेंद्र को कामरान ने 1 दिन के लिए रुकने का आग्रह किया ।
तो यह तय हुआ कि कल दरबार में सारी बातें स्पष्ट होने के पश्चात गजेंद्र अपनी अगली यात्रा पर निकलेगा , थोड़ी देर यूं ही बातें चलती रही उसके पश्चात गजेंद्र अपने कक्ष में चला गया ।

अब आगे ---


वह दिन भी लगभग बीत चुका था गजेंद्र संध्या वंदन करने के पश्चात ध्यान करने के लिए बैठ गया । ध्यान में उसे अपने अगले लक्ष्य की ओर बढ़ने के चिन्ह दिखाई देने लगे ।

ध्यान करते-करते काफी समय बीत गया था । राजकुमारी अमृता रात्रि का भोजन लेकर दासियों के साथ जब गजेंद्र के कक्ष में पहुंची तब गजेंद्र को इस प्रकार ध्यान करते हुए देखकर वह उसे आप्लाक निहारने लगी ।

गजेंद्र को ध्यान में बैठा हुआ देखकर अमृता ने दासियों को थोड़ी देर के पश्चात भोजन लाने का कहकर उन्हें भेज दिया और स्वयं गजेंद्र के ध्यान से उठने की प्रतीक्षा करने लगी ।
गजेंद्र के साथ भावी जीवन की कल्पना करते हुए उसके चेहरे पर शर्म की लाली और मुस्कान झलकने लगी ।

गजेंद्र ने जब ध्यान से अपने नेत्र खोले तो अपने सामने राजकुमारी अमृता को निहारते हुए पाया ।
राजकुमारी अमृता का अनुपम सौंदर्य और उसके नेत्रों में गजेंद्र के लिए प्रेम , गजेंद्र को अपनी और आकर्षित कर रहा था वह भी सौंदर्य मूर्ति को देखने में जैसा खो ही गया ।
दोनों उपलक बस एक दूसरे को निहारने लगे , दोनों की तंद्रा तब टूटी जब एक दासीयां भोजन लेकर आयी ।

अमृता ने भोजन के थाल रखवाकर दासियों को वापस भेज दिया और भोजन के लिए आसान बिछाकर , चुपचाप सिर निचे करके थाली में भोजन परोसने लगी सारी तैयारी होने के बाद ।

अमृता - आईये भोजन कर लीजिए ।
इतना कहकर वह फिर चुप हो गई

राजकुमारी अमृता को सिर नीचे झुका कर चुपचाप बैठे हुए देखकर गजेंद्र उसके निकट गया ।

गजेंद्र - क्या बात है राजकुमारी जी , आज आप मुझसे कुछ रूष्ट दिखाई दे रही हो आप ऐसे चुपचाप क्यों हो ,क्या मुझसा कोई अपराध हो गया ।

अमृता - आप भोजन कर लीजिए , अन्यथा भजन ठंडा हो जाएगा ।

गजेंद्र - भोजन तो मैं कर लूंगा , परंतु आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नही दिया । मुझे तो लग रहा है कि आप हमारे विवाह संबंध की बात से प्रसन्न नहीं है । यदि आपको इसमें कोई आपत्ति है तो आप मना कर सकती हैं ।

गजेंद्र के ऐसा कहने पर राजकुमारी अमृता ने अपना सेर उपर उठाया और गजेंद्र को देखने लगी ।
अमृता के नेत्रों से अश्रु धारा बह रही थी ।

गजेंद्र ने इस प्रकार अमृता के नेत्रों से अश्रु बहते हुए देखे तो उसके हृदय में एक टिस सी उठी , उसने आगे आकर उसने अमृता के नेत्रों से अश्रु पोंछने का प्रयास किया , परंतु अमृता ने उसे रोक दिया ।

अमृता - हटिये आप ! पहले तो स्वयं रुलाते हो , फिर अश्रु पोंछने आ जाते हो , आपने यह कैसे कह दिया के इस संबंध से मैं प्रसन्न नहीं हूं क्या आपको मेरे नेत्रों में आपके प्रति प्रेम दिखाई नहीं देता , मेरे व्यवहार से आपको पता नहीं चलता कि मैं आपको अपना मान चुकी हूं फिर भी इस प्रकार कहते हो ।

अमृता के ऐसा कहने पर गजेंद्र फिर पास आते हुए अपने हाथों से उसके अश्रु पोंछते हुए

गजेंद्र - मैं तो बस परिहास कर रहा था । तुम जो इतनी चुपचाप थी कोई बात भी नहीं कर रही थी और मेरी तरफ देख भी नहीं रही थी । तुम्हारे प्रेम पर तो कोई शंका नहीं है परंतु अब तक तुमने स्वीकार भी तो नहीं किया ।

अमृता - स्वीकार नहीं किया ? हर बात कही जाए यह जरूरी नहीं है । कुछ बातें समझ भी लेना चाहिए , और मैं तो स्त्री हूं लज्जा वश कह नही पायी , परंतु आपको तो स्वीकार करना चाहिए । आपने भी तो अपना प्रेम प्रकट नहीं किया मुझसे कुछ कहा भी नहीं और मुझे दोष दे रहे हो ।

अमृता के ऐसे कहने पर गजेंद्र ने दोनों हथेलियां के मध्य अमृता का चेहरा लेकर प्रेम से उसके नेत्रों में देखते हुए

गजेंद्र - मैं पहले अपने हृदय के भावों को प्रकट नहीं कर पाया , परंतु अब करता हूं , अमृता जब युद्ध भूमि में मैंने तुम्हें प्रथम बार देखा था तभी तुम मेरे हृदय में बस गई थी , प्रे क्या हैं यह मुझे नही पता , परंतु इतना जानता हूं कि मैं तुम्हारे बिना अपने आगे के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता , यही प्रेम है तो हां मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूं क्या तुम मेरी जीवन संगिनी बनोगी ।

गजेंद्र के द्वारा प्रेम की स्वीकृत करने पर ----
राजकुमारी अमृता - मैं तो कब से इसी क्षण की प्रतीक्षा में थी । मैंने आपको कई बार अपने सपनों में देखा , तब से ही मैं आपसे मिलने के लिए व्याकुल थी । आज आपसे मिलकर तथा आपके मुख से प्रेम की स्वीकृति सुनकर मेरी सारी व्याकुलता समाप्त हो गई ।

इतना कहकर राजकुमारी अमृता ने अपना मुख गजेंद्र के सीने में छुपा लिया गजेंद्र ने भी अपने दोनों बाँहों की कैद में उसे भरकर आलिंगनबद्ध कर लिया ।

दोनों इसी प्रकार एक दूसरे के आलिंगन में बंधे खड़े थे , दोनों की हृदय की धड़कने एक दूसरे से बाते कर रही थी , शरीर में प्रेम की तरंगे संचार कर रही थी , वासना रहित उस आलिंगन में केवल प्रेम ही प्रेम था ।

गजेंद्र ने अमृता की ठुड्डी को पकड़ कर धीरे से उसका चेहरा ऊपर किया , अमृता के नेत्र बंद थे , वह बस प्रेम के उस क्षण को महसूस कर रही थी , उसके लाल लाल रसभरे होंठ कांप रहे थे ।
गजेंद्र ने धीरे -धीरे अपने होंठ अमृता के सिर की तरफ ले जाते हुए , उसके मस्तक पर अपने प्रेम का पहला चुंबन दिया । अपने मस्तक पर गजेंद्र के होंठो का स्पर्श पाकर अमृता के पूरे शरीर में एक विद्युत लहर सी दौड़ पड़ी उसने अपने नेत्र खोलकर उसने गजेंद्र की ओर देखा ।
गजेंद्र भी उसके नेत्रों में देख रहा था दोनों के नेत्र आपस में मानो मूक भाषा में बातें करने लगे । अमृता को अपने आलिंगन में प्रकार गजेंद्र के शरीर में भी प्रेम की लहरें दौड़ने लगी थी । दोनों एक दूसरे की सांसों की सुगंध को महसूस कर रहे थे ।

धीरे-धीरे दोनों के होंठ पास आते गए और इतने पास आ गये की दोनों एक दूसरे के होठों की गर्मी को महसूस कर सकते थे

गजेंद्र - ( धीरे से फुसफुसाते हुए ) अमृता !!!!
गजेंद्र के इस प्रकार उसका नाम लेने से अमृता ने भी अपने होंठ आगे करके उसे मौन स्वीकृति देदी ।

अब दोनों के होंठ आपस में मिल गए , एक दूसरे के होठों का स्पर्श पाकर दोनों मानो खो से गए , दोनों धीरे-धीरे एक दूसरे के होठों को चूमने लगे ।
होठों को चूमते हुए दोनों एक दूसरे के प्रेम को महसूस करने लगे , चुम्मन के साथ ही उन दोनों का प्रेम और भी गहरा होता गया । एक दूसरे के होंठो का रसपान करते हुए जैसे दोनों की आत्माएं एक साथ जुड़ रही हो । उस चुंबन में कोई भी वासना नहीं थी , था तो बस केवल प्रेम ही प्रेम ।

बड़ी देर तक एक दूसरे के होठों को चूमते हुए दोनों ने एक दूसरे को आलिंगनबद्ध किया हुआ था । जहां गजेंद्र के हाथ अमृता के कमर में कसे हुए थे तों वही अमृता की बाँहे गजेन्द्र की पीठ को सहला रही थी ।

विवाह से पूर्व इसके आगे बढ़ना गजेंद्र को उचित नहीं लगा इसलिए चुंबन रोकते हुए अमृता के चेहरे की ओर देखने लगा ।

चुम्बन रुक जाने के कारण अमृता ने नेत्र खोले और प्रश्नवाचक दृष्टि से गजेंद्र की ओर देखने लगी , उसके मनोभाव को समझते हुए ------
गजेंद्र - अमृता !!! अब हमें यही रुक जाना चाहिए । विवाह के बंधन में बांधने से पूर्व हमें अपनी मर्यादा का ध्यान आवश्य रखना चाहिए ।
अमृता - मेरे स्वामी !!!! मैंने तो अब अपने आपको आपके सुपुर्द कर दिया है । आपका कहना भी उचित है ऐसी स्थिति में भी आपने अपना विवेक नहीं खोया , मुझे आप पर गर्व है आपको पाकर में धन्य हो गई , परंतु --------

गजेंद्र - परंतु क्या प्रिये ?????

अमृता - आपका इस प्रकार मुझे छोड़ कर जाना , मुझे व्यथित कर रहा है यदि जाना आवश्यक है आप मुझे भी अपने साथ ले चलिए , अब मैं आपसे अलग नहीं रह पाऊंगी ।

गजेंद्र - तुमसे अलग होने का तो मेरा भी मन नहीं है प्रिये । परंतु कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते हुए हमें अपनी इच्छाओं का परित्याग करना ही पड़ता है । चिंता मत करो मैं तुम्हें वचन देता हूं मैं अपना लक्ष्य शीघ्र ही प्राप्त कर तुम्हें अपना बनाने के लिए आऊंगा ।

थोड़ी देर तक दोनों के मध्य ऐसे ही प्रेम की वार्ता चली उसके पश्चात दोनों ने साथ में भोजन किया । अमृता के आग्रह पर गजेंद्र और अमृता एक दूसरे को बाहों में भरकर वही सो गए ।

दूसरे दिन राज दरबार खचाखच भरा हुआ था , कामरान अपने सिंहासन पर विराजमान था तो वही विरुपाक्ष गजेंद्र विश्वकसेन और राजकुमारी अमृता भी उपस्थित थे ।

कामरान के आदेश पर सैनिक कंक को बेडियो में जकड़ कर लाए थे

बेडियो में जकड़े हुए कंक को अपने बचाव का कोई भी मार्ग नहीं दिख रहा था । कामरान के कहने पर इस आशा के साथ के सब कुछ बता देने के पश्चात हो सकता है उसे प्राण दंड ना मिले वह सब कुछ शुरू से बताता चला गया ।

बात उस समय शुरू हुई थी जब कामरान अनलासुर के साथ मिलकर भोगों में संलिप्त था और उसी के कारण उसके साथी अधिकारी भी भोगलोलुप हो गए थे । इनमें से ही एक था कंक ।
कामरान के वैभव को देखकर उसके मन में वह सब कुछ पाने की इच्छा जागृत हुई । उसी समय कामरान के परिवार की हत्या हुई और असुरों के कारण कामरान को अपना नगर त्याग कर जाना पड़ा । कुबेर जी की सहायता से कामरान ने इस भूखंड में विरुपाक्ष के साथ में मिलकर नए नगर का निर्माण किया ।

प्राण बचाने के कारण विरुपाक्ष कामरान के बहुत निकट हो गया था । कामरान भी उसे अपने छोटे भाई की तरह मानने लगा था ।
विरूपाक्ष राजकुमारी अमृता को अपनी पुत्री की भांति स्नेह करने लगा था । राजकुमारी अमृता भी विरूपाक्ष को अपने पिता स्वरूप ही मानने लगी ।

कामरान के कहने पर विरुपाक्ष राजकुमारी अमृता को यक्ष विद्या , योगविद्या और शस्त्रविद्या के बारे में शिक्षण देने लगा ।

राज दरबार की जब स्थापना हुई तब विरुपाक्ष को महामंत्री का पद दिया गया और सेनापति का पद विश्वकसेन को

विश्वकसेन कामरान की पत्नी महारानी शलाका के काका श्री थे पिता की मृत्यु के पश्चात उन्होने ही उसे पाल पोसकर बड़ा किया था , माता के ना होने के कारण अमृता का भी अधिक समय उन्ही के घर व्यतीत होता था ।

एक तरह से विश्वकसेन कामरान के ससुर भी लगते थे । उनकी वीरता भी उस समय सर्वप्रसिद्ध थी ।

विश्वकसेन की एक कन्या थी जिसका नाम था चंचला । चंचला और विरुपाक्ष दूसरे से प्रेम करते थे । वही कंक की भी बुरी नजर चंचला पर थी । वह कुछ भी करके उसे पाना चाहता था ।

कामरान की चापलूसी करके उसने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने का बड़ा प्रयत्न किया परंतु विरुपाक्ष और विश्वक सेन के कारण वह कर नहीं पाया और दूसरी ओर दूसरी ओर उसने चंचला को पाने के बहुत प्रयास किये परंतु विरूपाक्ष के कारण सभी विफल रहे ।
इसलिए उसने अब लोभी और लालची लोगों को एकत्रित करके विरूपाक्ष , विश्वक सेन और कामरान के विरुद्ध षडयंत्र करने की योजना बनाई।

यह बात उस समय की है जब अमृता 12 वर्ष की थी तब तक कंक और सतपाल कामरान को काफी हद तक अपने वश में करने में सफल हो गए थे ।

उन्होंने राज वैद्य को लोभ मे फसाकर कामरान के भजन में निरंतर ऐसी औषधी का प्रयोग करना शुरू किया जिससे कामवासना अपने चरम पर पहुंचती थी ।

जिस कारण कामरान कामवासना से अत्यधिक त्रस्त होने लगा और उसके कामवासना की पूर्ति नई नई युवतियाँ को लाकर कंक और सतपाल पूरी करने लगे ।

कामरान को नई युवतियों का और मदिरा पान का चस्का लग गया , अब वह कंक और सतपाल को ही अपना सच्चा हितैशी मानने लगा जो वह कहते उसे ही सत्य मानने लगा ।
एक समय जब कंक ने चंचला का बलात्कार करने का प्रयत्न किया तो उस समय विरुपाक्ष ने चंचला की रक्षा की । तथा कंक को बहुत बुरी तरह से मारा था ।

कंक ने अपने आपको निर्दोश बताते हुए महाराराज की निकटता के कारण ईर्श्या वश विरूपाक्ष ने ऐसा किया है , झूठे साक्ष्य से यह सिद्ध कर ।

अपनी पुत्री के अपराधी का पक्ष लेने पर विश्वकसेन ने कामरान के न्याय पर प्रश्न उठाए । ससुर होने के नाते कामरान को कंक और सतपाल से दूर रहने के लिए भी कहा , और साथ ही भोग वासना और व्यसन से दूर रहने की का भी परामर्श दिया ।

एक पिता की तरह बहुत बातें समझाई परंतु इसका प्रभाव उल्टा ही हुआ कामरान के मन में विश्वक सेन के प्रति भी दुर्भावना प्रकट हुई ।

ऐसे ही एक दिन जब नगर में महायक्षिणी देवी के मंदिर की स्थापना थी । उस दिन मंदिर के प्रांगण में भव्य उत्सव था सारे नगर वासी तथा राज्य के सभी अधिकारी वहां उपस्थित थे एक तरफ जहां सभी के लिए महाप्रसाद बन रहा था दूसरी तरफ देवी की प्रतिमा स्थापना की तैयारी शुरू थी ।

विरूपाक्ष को धोके से कंक ने राजवैद्य द्वारा ऐसी औषधि मिला हुआ जल दीया के उसे पीने से विरुपाक्ष मदिरा पान किए हुए की भांति झूमने लगा ।

औषधि के प्रभाव से उसका क्रोध भी बढ़ने लगा । उसी समय उस तक यह खबर पहुंचाई गई की महाप्रसाद में विष मिलाया गया है । औषधि के प्रभाव में सोचने समझने की शक्ति विरुपाक्ष गवा बैठा था उसके ध्यान में बस इतना था कि महाप्रसाद में विष मिलाया गया है , उसे विष मिले प्रसाद को नष्ट करना है , वहां जाकर सारा महाप्रसाद फेंकने लगा ।
जब वहां लोगों ने उसे रोकने का प्रयत्न किया तो महाप्रसाद बनाने वाले सभी को उसने बड़ी बुरी तरह से मारा । जब सैनिक रोकने आए तो सैनिकों की को भी बड़ी बुरी तरीके से मारा ।
वहां सब इतना शोर होते हुए देखकर कामरान सभी अधिकारियों के सहित पहुंचा , तो देखा विरूपाक्ष क्रोधित होकर वहां उत्पाद मचाए हुए हैं । विरुपाक्ष ने कहा कि महाप्रसाद में विष मिला हुआ है , तो कांक ने महाप्रसाद का परीक्षण करने की का सुझाव दिया , परीक्षण करने पर पता चला कि महाप्रसाद में कोई भी विष नहीं है । औषधि के कारण विरुपाक्ष ऐसा लग रहा था जैसे खूब मदिरापान करके आया हो ।

इस प्रकार के अभद्र व्यवहार के कारण विरूपाक्ष को तुरंत महामंत्री पद से निष्कासित किया गया ।

इस प्रकार के अभद्र व्यवहार के कारण विरूपाक्ष को तुरंत महामंत्री पद से निष्कासित किया गया । जब कुछ दिन पश्चात कुबेर जी नगर देखने आए तो सारी स्थिति समझकर वह विरुपाक्ष से मिलने गए ।

इस बात का गलत अर्थ निकालकर कंक ने कामरान के मन में यह बात बिठा दी विरुपाक्ष कुबेर जी की सहायता से उसे राजगद्दी से हटकर स्वयं में राजा बनना चाहता है ।
ऐसे ही अनेक प्रकार की षडयंत्र रचते हुए और झूठे साक्ष्य कामरान के सामने पेश करते हुए सतपाल और कांकने विरुपाक्ष और कामरान के मध्य में एक गहरी खाई उत्पन्न कर दी थी ।

साथ ही साथ राजवैद्य के द्वारा कामरान को भी ऐसी जडी दी जाने लगी जिससे उसकी शक्तियां समाप्त होने लगी । जिससे वक्त आने पर कंक कामरान को समाप्त कर स्वयं राजगद्दी पर बैठे ।
अब तक वह यह कर भी चुका होता परंतु विश्वकसेन उसके दल और विरुपाक्ष के भय के कारण उसने अब तक ऐसा नहीं किया ।

धीरे-धीरे कामरान कंक के षडयंत्रों में फसता गया और उसने सतपाल को महामंत्री और कंक को सेनापति पद दे दिया ।

सारी बातें स्पष्ट होने के पश्चात कंक को मृत्युदंड की सजा दी गई ।

कंक के मृत्यु दंड के पश्चात गजेंद्र ने कामरान और विरुपाक्ष से विदाई ली । राजकुमारी

अमृता से मिलकर शीघ्र वापस आने का वचन देकर वहां से विदा ली और अपने अगले लक्ष्य को प्राप्त करने की यात्रा पर निकल पडा ।

आज के लिए इतना ही ---------
अगला अध्याय शीघ्र ही --------

सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें -

धन्यवाद 🙏🌹🌹

स्वस्थ रहे --- प्रसन्न रहे


आपका मित्र - अभिनव 🔥
 
  • Love
Reactions: Ajju Landwalia

jaggi57

Abhinav
238
703
94
Sabhi updates ek se badhkar ek he jaggi57 Bhai,

Gajender ne badi hi khubi ke se sath kank aur anay shadayantrakariyo ki parast kar diya................sathi hi sath Kamran ko bhi akal aa gayi.........

Amrita ke se gajender ka vivah to nishchit ho gaya he...............ek khoj to puri huyi gajender ki...lekin dusri khoj vahan ki abhi bhi baki he........

Keep posting Bhai
Bahut bahut dhnywad Ajju Landwalia bhai aapke behtareen support k liye
Aise hi apna saath banaye rakhe 🙏🌹🌹
 
  • Like
Reactions: Ajju Landwalia
Top