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jass_Nav

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Story: Ajeeb Dastan hai ye
Writer: jass_Nav

Story Line:
based on a incest plot, it contains some horror plot too. Story of a young girl who visits her Mama and finds out that her mother has illicit relation with her own brother, and she also got attracted towards her mama, make relations with him.

Treatment: वैसे मैं incest पढ़ता नही, तो सेक्स पोर्शन नही पढ़ा, लेकिन कहानी का बिल्टअप अच्छा था।

Positive Points: एंडिंग इसका सबसे अच्छा पार्ट है, क्योंकि सेक्स तो यहां लगभग हर स्टोरी में है, और 90% में incest.

Negative Points: सेक्स पर ज्यादा जोर दिया गया है, बल्कि एंड का ट्विस्ट ज्यादा अच्छा इंप्रेशन डालता।

Sugesstion: लास्ट वाला प्लांट ज्यादा ध्यान दे कर एक अच्छी हॉरर स्टोरी लिखी जा सकती थी।

Rating: 7/10
shuukiriyaaa
 
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Kala Nag

Mr. X
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" चौबीस घंटे "


9 P.M.

लंदन का ' ओरिएंटल गोल्डन स्टार ' शिप मुंबई के बंदरगाह पर एक घंटा पहले लग चुका था और लगभग सभी यात्री सैर सपाटे के लिए जहाज पर से कूच कर चुके थे । यह एक यात्रीवाहक जहाज था । जीत डैक पर दांये - बांये निगाह दौड़ाते हुए आगे की तरह बढ़ा तभी कैप्टन ने उसे नाम लेकर पुकारा ।
जीत छ फुट से भी ऊपर कद का खूब मोटा व्यक्ति था । वह अभी केवल छब्बीस वर्ष का था लेकिन वजन मे वह एक सौ किलो से भी अधिक था । उसके विशाल आकार की वजह से लोग उसे रोलरोवर , बुलडोजर भी कहते थे ।

" चौबीस घंटे " - कैप्टन बोला - " सिर्फ चौबीस घंटे रूकने वाला है हमारा जहाज इस बंदरगाह पर ।"
" मुझे मालूम है " - जीत बड़े अदब से बोला।
" अभी मालूम है । लेकिन विस्की का गिलास हाथ आते ही सब भूल जाओगे ।"
" ऐसा नही होगा सर ।"
" पिछली बार की तरह इस बार मै तुम्हारा इन्तजार नही करने वाला । इसलिए याद रखना सिर्फ चौबीस घंटे । इसी वक्त रात को नौ बजे जहाज यहां से रवाना हो जाएगा। "
" यस सर। "
" आइन्दा इस दरम्यान तुम शराब पीते हो या उसमे गोते लगाते हो , यह तुम्हारा जाती मामला है लेकिन कोशिश करना इतना होश रहे कि टाइम पर जहाज पर पहुंच सको। "
" यस सर। "

जीत भारतीय मूल का लंदन निवासी था । उसकी मां का देहांत उसके बचपन मे ही हो गई थी । उसके पिता ने तब दूसरी शादी कर ली थी । उसके पिता लंदन के एक बड़ी कंपनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स मे से एक थे । जीत इश्क मे खता खाया हुआ नौजवान था। एक लड़की ने ऐसा दिल तोड़ा कि वो अपनी जान दे देना चाहता था। किसी तरह खुद को तो सम्भाला पर अपने जेहन से उसे निकाल नही सका। फिर उसने शराब का सहारा लिया लेकिन यह भी कारगर सिद्ध न हुआ। आखिर उसने अपने पिता के सिफारिश पर उनके एक रईस दोस्त की शिपिंग कंपनी मे नौकरी ज्वाइन कर लिया। उसे लगता था कि जहाज की नौकरी मे खुद को व्यस्त भी रख सकेगा और देश - दुनिया का भ्रमण कर लड़की की यादों को कुछ हद तक मिटा भी देगा।
वैसे जहाज जब सफर पर होता था तो वहां की रौनक मे उसका दिल लगा रहता था। जहाज बंदरगाह पर लगता था तो फिर उसके कदम बंदरगाह पर पड़ते ही - फिर होती थी बोतल उसके हाथ मे और वो बोतल मे।

--

10 P.M.

जीत अबतक के चार साल की नौकरी मे यह बखूबी जान चुका था कि हर बंदरगाह के इलाके मे बार बहुतायत मे होते है। ऐसा ही एक बार बंदरगाह कुछ दूर वह तलाश कर चुका था।
उस बार का नाम डिमेलो बार था और उस वक्त वह ग्राहको से खचाखच भरा हुआ था। सिगरेट के धूंए और शोर - शराबे से वह पुरी तरह रचा बसा था। ये उसके पसंद की जगह निकली थी। चेतना पर हावी हो जाने वाला शोर- शराबा । तन्हाई का दुश्मन शोर । किसी गम, किसी याद को घोलकर पी जाने के लिए हासिल शराब।
कोई आठ पैग विस्की पी चुका था।

भयंकर नशे की तरफ वह निरंतर अग्रसर हो रहा था।लेकिन फिर भी उसको देखकर यह कहना मुहाल था कि वह नशे मे था।

जीत के बगल की मेज पर तीन आदमी किसी बात पर बहस कर रहे थे। कभी-कभार उनकी आवाज बहुत ऊंची हो जाती थी। ऐसे ही एक अवसर पर उनकी आवाज से आकर्षित होकर जीत ने उनकी तरफ देखा तो पाया कि एक भारी भरकम लेकिन ठिगना व्यक्ति था और दूसरा दुबला - पतला, बांस जैसा लम्बा था। तीसरा व्यक्ति एक साधारण कद काठ का लगभग साठ वर्षीय व्यक्ति था। उनके वार्तालाप से जीत ने यह भी जाना था कि पतले से व्यक्ति का नाम टोनी , मोटे का भीमराव और बुजुर्ग का नाम जीवनलाल था।

जीत को अचानक सिगरेट की तलब महसूस हुई । उसने अपने कोट के जेब मे हाथ डाला तो पाया कि सिगरेट तो मौजूद था पर लाइटर वहां नही था।
" शायद जहाज पर ही रह गया है " जीत ने सोचा और फिर वो बगल वाले मेज पहुंच कर बोला - " भाई साहब , आपलोगों मे से किसी के पास लाइटर है क्या ? मेरा लाइटर शायद जहाज पर छूट गया है। "
तीनो ने चौंककर उसकी तरफ देखा । उसकी वर्दी उसके सेलर होने की बयां कर रही थी।

" जाओ अपना काम करो!" - टोनी सख्ती से बोला।
" ठीक है "- जीत तनिक आहत भाव से बोला और फिर उसने उनकी तरफ से पीठ फेर ली।
तभी जीवनलाल ने उसे रोका और अपने जेब से लाइटर निकाल कर दे दिया।
" थैंक्यू भाई । मै अभी वापस करता हूं " जीत कृतज्ञता पूर्वक बोला।
" कोई बात नही। तुम इसे रख सकते हो "- जीवनलाल ने मुस्कराते हुए कहा।

जीत अपनी सीट पर वापस लौटा , सिगरेट सुलगाया और अपनी शराबखोरी मे मशगूल हो गया । और कई पैग पी चुकने के बाद उसने बगल के मेज पर सरसरी निगाह दौड़ाई तो पाया कि वो मेज खाली था। उसे ख्याल ही नही आया कि तीनो ने कब वहां से पलायन किया।
वो पेमेंट कर बार से बाहर निकला। आखिर उसे एक होटल भी ढूंढना था जहां अपनी रात गुजार सके।

11.30 P.M.

वह झूमता हुआ बार से बाहर निकला तभी एक लड़की उससे टकराई । " स..सारी "- जीत बिना लड़की की तरफ निगाह उठाए होठों मे बुदबुदाया और सड़क पर आगे बढ़ गया।

लड़की अपने फोन से किसी को काॅल कर रही थी । उधर से " हैलो" की आवाज आते ही बोली -
" हेल्लो राज , मै वर्षा बोल रही हूं। "
" वर्षा !"- दूसरी ओर से आवाज आई -" इस वक्त कहां से बोल रही हो ?"
" डिमेलो बार के बगल से ।आज एक इमर्जेंसी मिटिंग की वजह से देर हो गई। अब लौटने मे दिक्कत आ रही है। कोई टैक्सी भी नजर नही आ रही है। शुक्र है तुम फोन पर मिल गए। अब बराय मेहरबानी तुम अपनी कार पर यहां आकर मुझे ले जाओ। "
" वर्षा , तुम ऐसा करो , बार के सामने ही एक गली है, तुम उस गली को पार कर मेन रोड पर आ जाओ। "
" वहां क्यों?"
" क्योंकि जहां पर तुम हो , वहां आजकल सड़क मरम्मत के लिए रास्ता बंद है। मुझे काफी लम्बा चक्कर काट कर आना पड़ेगा। तुम वह जरा सी गली पार करके एम जी रोड पर आओगी तो हम जल्दी घर पहुंच जाएंगे। "
" ठीक है । मै आती हूं। "

---


टोनी और भीमराव बंदरगाह इलाके के छटे हुए बदमाश थे। चोरी , डकैती , स्मगलिंग इनका मेन धंधा था। जीवनलाल से दोस्ती इनकी ताजा ताजा हुई थी। जीवनलाल मुंबई के अंडरवर्ल्ड के एक बड़े डाॅन का एक साधारण सा बंदा था जिसका काम ड्रग्स खपाने का था। वो अमूमन रोजाना चार पांच लाख रुपए का ड्रग्स कैरी करता और उसे बेचने का प्रयास करता। लेकिन संयोगवश आज की रात उसके पास करीब बीस लाख रुपए का ड्रग्स मौजूद था और इसके लिए टोनी और भीमराव ने उसे एक मालदार आसामी से सौदा कराने का आश्वासन दिया था।
जबकि टोनी और भीमराव के इरादे कुछ और ही थे और वो बहुत ही खतरनाक थे।

--

वर्षा गली के मध्य मे पहुंच गई तो उसे लगा कि वह गली का एकलौता राहगुज़र नही थी। अपने पीछे से किसी के कदमो के आवाज उसे निरंतर सुनाई दे रही थी। उस सुनसान गली मे उसके पीछे निश्चय कोई था।
उसने एक बार सावधानी से घूमकर अपने पीछे निगाह दौड़ाई तो उसे अंधेरी गली मे कोई दिखाई नही दिया।
जरूर उसे पीछे घूमता पाकर वह किसी पेड़ के पीछे छुप गया था। उसने जल्दी जल्दी गली पार कर जाना ही मुनासिब समझा। उसके दोबारा चलना शुरू करते ही पीछे से कदमो की आहट फिर से सुनाई देने लगी।
वह और भी भयभीत हो उठी। उसने एक बार फिर घूम कर पीछे देखा। उसी क्षण पीछे आता व्यक्ति एक स्ट्रीट लाइट के नीचे से गुजरा ।

---

जीवनलाल के साथ टोनी और भीमराव जब खंडहर इमारत मे दाखिल हुआ तो जीवनलाल सकपकाते हुए बोला -" यह तुम कहां ले आए हो मुझे?"
" कस्टमर के पास "- टोनी बोला।
" यहां ? इस खंडहर मे?"
" उसने मिलने के लिए यही जगह चुनी थी। "
" वह भीतर है?"
" हां। "
" मुझे तो नही लगता भीतर कोई है। "
" वह पिछवाड़े मे है। "

जीवनलाल को अब खतरे का अंदेशा लगने लगा था।
वह एक कदम पीछे हटा और वापिस घूमा।

" मोटे "- टोनी सांप की तरह फुंफकारा -" पकड़ हरामजादे को। "
भीमराव ने फौरन उसे दबोच लिया।
टोनी के हाथ मे कोई एक फुट का लोहे का रड प्रकट हुआ। उसका हाथ हवा मे उठा और फिर वह गाज की तरह जीवनलाल की खोपड़ी पर गिरा।

---


वर्षा ने देखा कि वह एक हाथी जैसा विशालकाय व्यक्ति था। वह घबराकर आगे बढ़ी। सर्वत्र सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं कोई आवाज नही थी सिवाय उन कदमो की आहट के जो वर्षा को अपने पीछे से आ रही थी।

सामने कोने मे एक खंडहरनुमा इमारत थी। किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर आगे बढ़ने के स्थान पर वह इमारत के कंपाउंड के टूटे फाटक के भीतर दाखिल हो गई। दबे पांव वह इमारत के बरामदे तक पहुंची और स्तब्ध खड़ी पंजो के बल उचक कर बाहर गली मे देखने लगी।

साया गली मे उसके सामने एक साया प्रकट हुआ।
वर्षा हड़बड़ाकर भीतर गलियारे मे सरक गई।

इमारत के सामने साया ठिठका। वह सहमकर दो कदम पीछे हट गई। साया अनिश्चित सा गली मे खड़ा आंधी मे हिलते ताड़ के पेड़ की तरह झूम रहा था।

तभी इमारत के भीतर कहीं हल्की सी आहट हुई। वर्षा को अपनी सांस रूकती सांस महसूस हुई।

क्या भीतर भी कोई था? अब उसे इमारत मे कदम रखना अपनी महामूर्खता लगने लगी थी।
कौन था भीतर ? कोई जानवर या...
उसे दहशत होने लगी।

भीतर फिर आहट हुई। वह आंखे फाड़ फाड़कर गलियारे मे देखने लगी। यह उसकी खुशकिस्मती थी कि गलियारे मे वह दो कदम और आगे नही बढ़ आई थी वर्ना जीवनलाल के साथ साथ उसका भी काम तमाम हो जाना था।

जहां वो खड़ी थी, उस गलियारे के सिरे पर विशाल हाल था और हाल से पार फिर गलियारा था। उस परले गलियारे मे वर्षा को एक साया दिखाई दिया।
" हो गया काम "- पिछले गलियारे से एक दबी हुई आवाज आई।
" हां। "
" तो फिर हिलता क्यों नही यहां से?"
" मै देख रहा था कि इसका क्या हाल है?
" अब इसका हाल इसका बनाने वादा देखेगा। इसे छोड़ और चल यहां से।"
भीतर से टोनी और भीमराव बरामदे मे प्रकट हुए और वर्षा के बहुत करीब से गुजरते हुए फाटक से बाहर निकले।

---

" भाई साहब!"

दोनो चौंके।
जीत , जो वहीं नीचे बैठा हुआ था, उन्हे देखकर खड़ा हुआ और झूमता हुआ उन दोनो के करीब पहुंचा।
टोनी का हाथ तत्काल कोट की जेब मे पड़े लोहे की रड से लिपट गया।

" भाई साहब "- जीत की जुबान नशे से लड़खड़ा रही थी और बड़ी कठिनाई से बोल पा रहा था -" आप कहां है?"
" क्या मतलब "- टोनी तीखे स्वर मे बोला।
" मेरा मतलब , मै "- जीत ने झूमते हुए एक हाथ से अपनी छाती ठोंकी -"मै कहां हूं?"
" यह टुन्न है "- भीमराव फुसफुसाया -" इसे छोड़ो , इसे इस वक्त खुद की खबर नही ।"
" तुम "- टोनी बोला-" जमीन के ऊपर हो और आसमान के नीचे हो ।"
" जमीन कहां है, भाई साहब ?"
" जमीन आसमान के नीचे है और आसमान जमीन के ऊपर है और तुम दोनो के बीच हो। "
" वाह! वाह, भाई साहब! क्या पता बताया है आपने। मेहरबानी आपकी। एक आखिरी बात और बताते जाइए। "
" पूछो। "
" यह "- जीत ने खंडहर इमारत की तरफ संकेत किया-" कोई होटल है ?"
" हां "- टोनी बोला-" यह होटल ताज है ।"

भीमराव ने टोनी को बांह पकड़कर घसीटा और वहां से चलते बना।

--

गली खाली हो गई तो वर्षा की जान मे जान आई। तभी पीछे इमारत से एक अजीब आवाज आई। किसी के कराहने की आवाज थी। कराह मे ऐसी बेवसी थी कि फौरन वहां से भाग निकलने को तत्पर वर्षा के पांव जड़ हो गए। भीतर जो कोई था , बहुत तकलीफ मे था।

वह वापस गलियारे मे दाखिल हुई । अंधेरे मे अन्दाजन चलते हुए गलियारे के पीछे एक कमरे मे पहुंची । उसने बहुत गौर से देखा तो पाया कि वह एक इंसानी जिस्म था।

" कौन है ?"- वो आतंकित भाव से बोली।

कोई उत्तर नही मिला। फर्श पर पड़ा व्यक्ति मर चुका था।
फिर एकाएक वर्षा की सारी हिम्मत दगा दे गई । वो चिखती - चिल्लाती तुफानी रफ्तार से खंडहर के मलवे और कुडे करकट से उलझती , गिरती - पड़ती वापिस भागी ।
जब ही वो मेन रोड पर पहुंची तो वहां राज को कार मे बैठे पाया।

" राज "- वर्षा के मुंह से चैन की सांस निकली।
" क्या हुआ?"- राज बोला।
" उस..उस खंडहर इमारत मे..एक आदमी मरा पड़ा है ।"
" आदमी मरा पड़ा है ! तुम्हे कैसे मालूम?"
" मैने उसे देखा था। "
राज ने उसे हैरत भरी नजरो से देखा ।
" तुम वहां क्या करने गई थी ?"

वर्षा ने सबकुछ बताया कि क्या हुआ था। राज के जोर देने पर वो पैदल खंडहर इमारत पर वापिस लौटे लेकिन वहां कोई लाश नही थी ।

राज ने अपने लाइटर की रोशनी फर्श पर डाली ।

" यहां खून तो दिखाई दे रहा है "- राज धीरे से बोला -" खून ताजा भी है ।" - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला-" वर्षा, वह शख्स मरा नही होगा, वह सिर्फ घायल हुआ होगा और तुम्हारे यहां से कूच करने के बाद यहां से उठकर चला गया होगा । कोई मुर्दा यहां से आनन फानन गायब नही हो सकता ।"
वर्षा खामोश रही।

---

" माई डियर फ्रैंड "- नशे मे धूत जीत कह रहा था-" विस्की खतम हो गई। अफसोस है। लेकिन कहीं तो और मिलती होगी। अबी तलाश कर लेंगे दोनो शराबी भाई। तुम जरा संभलकर चलो। मेरे ऊपर ही मत गिरते जाओ "
जीवनलाल की एक बांह जीत की गर्दन के गिर्द थी और जीत की बांह उसकी कमर मे लिपटी हुई थी । एक तरह से जीत उसे उठाए उठाए गली मे चल रहा था।

नशे मे जीत खंडहर इमारत मे दाखिल हुआ था जिसके बारे मे अभी कोई भला आदमी उसे बताकर गया था कि वह ताजमहल होटल था। वहां कमरे मे उसने जीवनलाल को अचेत पड़ा देखा था । नीचे एक पर्स भी पड़ा था जिसे उठा कर अपने जेब मे डाल लिया और फिर जीवनलाल को वहां से उठाया और उसे यह समझाता हुआ पिछवाड़े के रास्ते से बाहर गली मे ले आया था कि यह कोई होटल नही था , जरूर उसी की तरह किसी ने उसके साथ भी मजाक किया था ।

" घबराओ नही, मेरे भाई "- जीत फिर उसे आश्वासन देने लगा-" अभी हम कोई अच्छा-सा होटल तलाश कर लेंगे और फिर दोनो शराबी भाई वहां पड़ जायेंगे। "

उस वक्त वह एक अंधेरे मैदान से गुजर रहा था जहा कई खस्ताहाल गाड़ियां खड़ी थी।

" अब अपने आप चल, मेरे भाई। "- जीत रूका और उसने जीवनलाल की कमर से बांह निकाल ली।
जीवनलाल धड़ाम से जमीन पर गिरा।

" अरे!"- जीत फिर उसे उठाने का उपक्रम करने लगा-" तु..तो अपने पैरो पर खड़ा भी नही हो सकता। इतनी क्यों पीता है, मेरे भाई? क्या तुने भी कलेजे पर चोट खाई है? किसी छोकरी ने दिल तोड़ा तेरा ! तु बोलता क्यों नही दोस्त? मत बोल! मै जानता हूं । जरूर यही बात है। तभी तो इतना पीता है। मेरे भाई, हम दोनो एक ही राह के राही है इसलिए मै तुझे यूं बेसहारा नही छोड़ सकता। मै तेरी मदद करूंगा। तु उठ। उठकर खड़ा हो। इधर आराम से बैठ जा। "

जीत ने उसे एक टूटी हुई, बिना दरवाजे की, कार की पिछली सीट पर ढेर कर दिया।
" घबराना नही "- जीत उसे आश्वासन देता हुआ बोला-" मै होटल की तलाश मे जाता हूं और तेरे लिए एक कमरा ठीक करके वापिस आता हूं। घबराना नही डियर, मै गया और आया। "

12.20 A.M.

पन्द्रह मिनट बाद जीत एक साधारण होटल के एक कमरे मे था। चल -चलकर थका हुआ वो थोड़ी देर के लिए पलंग पर बैठ गया। बैठा तो लेट गया। लेटा तो सो गया। सोया तो जैसे उसके लिए दीन दुनिया खत्म हो गई।
उसे याद भी न रहा कि वह वहां अपने कथित फ्रैंड के लिए रैन बसेरा तलाश करने आया था और तलाश मुकम्मल हो जाने के बाद उल्टे पांव वापिस लौटना था।

--

वर्षा बंदरगाह एरिया से लगभग दो किलोमीटर दूर एक पेइंग गेस्ट के तौर पर रहती थी। वो एक मल्टीनेशनल कंपनी मे जाॅब करती थी और वहीं राज भी एक बड़ी कंपनी का एच आर था । दोनो एक दूसरे से मोहब्बत करते थे और फ्यूचर मे शादी की भी प्लानिंग थी। वर्षा के मां-बाप पूना मे रहते थे । राज की बहुत ख्वाहिश थी कि वर्षा उसके परिवार के साथ बांद्रा मे रहे लेकिन वर्षा की जिद थी कि वह एक ही बार वहां कदम रखेगी और वो शादी के बाद।

राज के साथ वर्षा जब अपने घर पहुंची तो उसने पाया कि उसका पर्स उसके पास नही था। वो मन ही मन बड़े संशक भाव से सोच रही थी कि कहीं पर्स उसी खंडहर मे तो नही गिरा आई वो । या फिर कंपनी के आफिस मे छुट गया हो।

--

इधर टोनी और भीमराव ने जीवनलाल के कब्जे से हासिल हुए माल का बंटवारा कर लिया था। लेकिन भीमराव को बार-बार इस बात का डर सता रहा था कि कहीं जीवनलाल किसी करिश्मे से बच गया हो तो उनके इस कारनामे की खबर उसके बाॅस को लगनी ही लगनी थी। और फिर चौबीस घंटे के भीतर उनकी लाश मुंबई के समुद्र मे तैरते हुए नजर आयेगी।

---

अगला दिन- 10.A.M.

सुबह जब जीत की नींद खुली तो उसने पाया कि पिछली रात वह ओवरकोट और जूते समेत पलंग पर ढेर हो गया था।
उसने कपड़े उतारे और बाथरूम मे दाखिल हो गया।

जब से वह जागा था, उसके भीतर से बार बार कोई पुकार उठ रही थी कि जिसे वह समझ नही पा रहा था।
कल रात उसके साथ कोई था।
कोई ऐसा शख्स जिसे उसकी मदद की जरूरत थी ।
कहां गया उसका साथी?
कहां मिला था वह उसे? कहां बिछुड़ा था वह उससे? क्यों उसे किसी की मदद की जरूरत थी? क्या हुआ था उसे?

जीत ने अपना सिर अपने दोनो हाथो मे थाम लिया और उन सवालों के जवाब सोचने लगा।
उसे कुछ भी न सूझा।

" उसे ढूंढना होगा "- उसकी अंतरात्मा कह रह थी -" उसे मेरे मदद की जरूरत थी। मुमकिन है वह अभी भी मेरा इन्तजार कर रहा हो। "
वह कमरे से फिर होटल से बाहर निकल आया।

जीत को धीरे धीरे इतना याद आ गया था कि उसने अपना अधिकतर वक्त एक ऐसे बार मे गुजारा था जो बंदरगाह इलाके के बिल्कुल करीब था। उस शिनाख्त को जेहन मे रखकर उसने बंदरगाह इलाके के हर बार मे घूमना आरंभ किया।

11 A.M.

आखिरकार वो डिमेलो बार मे पहुंचा । उस वक्त बार मे कोई दस बारह लोग ही मौजूद थे ।
वह सीधा काउन्टर पर पहुंचा और बारमैन को ड्रिंक का आर्डर दिया।
शराब पीने के दौरान वो बारमैन से सम्बोधित हुआ और इस दरम्यान वह यह जाना कि बारमैन को उसके पिछली रात के बार मे आने की खबर याद थी और इसका कारण उसका विशाल शरीर , शरीर पर सेलर की वर्दी और कई पैग विस्की पीना था । बारमैन से उसे यह भी मालूम हुआ कि वह एक बार के लिए अपने बगल के मेज पर गया था जहां पर तीन आदमी बैठे हुए थे।
जीत के पूछने पर बारमैन ने उन आदमियों का हुलिया बताया जिनमे एक मोटा और ठिगना व्यक्ति था और दूसरा लम्बा और पतला था । तीसरा शख्स साधारण कद का अधेड व्यक्ति था ।
जीत को यह याद तो नही आया लेकिन एक मोटे और एक पतले व्यक्ति का जिक्र आने से उसे कुछ कुछ याद आने लगा कि ऐसे ही दो लोगों से वो किसी उजाड़ इमारत के सामने मिला था ।
" एक अंधेरी गली । एक उजाड़ इमारत । शायद मै भटक गया हुआ था और मैने उन दोनो से रास्ता पूछा था " - जीत स्वयं से बोला ।
टोनी और भीमराव करीब ही एक मेज पर बैठे थे और कान लगाये बारमैन और जीत का वार्तालाप सुन रहे थे। जीत को उन्होने पहचान लिया था लेकिन जीत की आखिरी बात सुनकर दोनो के छक्के छुट गए ।

" वह बहुत बड़ा मकान था "- जीत कहे जा रहा था-" लेकिन खंडहर लग रहा था और..."

" यह मरवाएगा " - भीमराव घबराकर बोला-" इसे चुप कराओ। "
टोनी ने चिंतित भाव से सहमति मे सिर हिलाया।

जीत ने सिगरेट पीने के मकसद से अपने ओवरकोट के जेबों मे हाथ डाला तो उसके दायें हाथ की उंगलियां जेब मे पड़ी एक अपरिचित चीज से टकराई । उसने वह चीज बाहर निकाली तो पाया कि वह एक जनाना पर्स था।
वह अपलक उस पर्स को देखता रहा ।
उसे कुछ बातें याद आ रही थी।

---

1 P.M.

जीत ने वर्षा के घर के बाहर दस्तक दिया । पर्स मे से बरामद हुए पते के सहारे वो वर्षा के एड्रेस तक पहुंचा था।
दरवाजा खुला।

चौखट पर जो युवती प्रकट हुई , उसे देखते ही जीत के नेत्र फट पड़े। पलक झपकते ही उसका सारा नशा काफूर हो गया।
" शनाया!"- वह भौचक्का-सा बोला।
" शनाया "- युवती हैरानी से बीली-" कौन शनाया?"
" तुम यहां ? मुंबई मे!"
" मिस्टर, यह क्या बड़बड़ा रहे हो तुम ? किससे मिलना है तुम्हे?"
" मिलना तो मुझे मिस वर्षा गौतम से है लेकिन , शनाया, तुम यहां?"
" यहां कोई शनाया नही रहती। और मै ही वर्षा गौतम हूं। "
" तुम "- जीत मन्त्रमुग्ध-सा बोला-" शनाया नही हो। "
" नही। कहा न मेरा नाम वर्षा गौतम है। "
" कमाल है। ऐसा कैसे हो सकता है?"
" क्या कैसे हो सकता है?"
" दो सूरतों मे इतनी समानता। "
" तुम्हारा मतलब है मेरी सूरत किसी शनाया से मिलती है। "
" मिलती क्या , हूबहू मिलती है। कहीं कोई फर्क नही। "
" शनाया कौन है?"
" अगर आप शनाया नही है तो वह है कोई। "
" और तुम कौन हो?"
" मेरा नाम जीत है। जीत सिंह। जहाज पर सेलर हूं और आज रात नौ बजे तक ही मुंबई मे हूं। "
"मुझसे क्या काम था?"
जीत ने ओवरकोट की जेब मे से पर्स निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया।
" यह तुम्हारा है?"
" हां "- वर्षा ने झपटकर पर्स उसके हाथ से ले लिया-" तुम्हे कहां मिला यह?"
" यह तो तुम मुझे बताओ?"
" मतलब?"
" जहां यह पर्स तुमने छोड़ा होगा, वहीं से मैने इसे उठाया होगा। अगर तुम मुझे बताओगी कि तुमने इसे कहां खोया था तो मुझे मालूम हो जाएगा कि कल रात मै कहां था। "
" तुम्हे नही मालूम कि कल रात तुम कहां थे?"
" नही "- जीत के स्वर मे खेद का पुट था-" दरअसल कल रात मै नशे मे था। "
" नशे मे तो तुम अब भी हो। "
" कल रात मै हद से ज्यादा नशे मे था। "
" मूझे तो याद नही कि पर्स मैने कहां गिराया था। "
" ओह!"
जीत चेहरे पर निराशा का भाव लिए अनिश्चित सा खड़ा रहा।
" वैसे तुम जानना क्यों चाहते हो कि कल रात तुम कहां थे?"

वर्षा ने उसे अंदर बुलाया और बड़े सब्र के साथ जीत की सारी कहानी सुनी।
" तुम उस आदमी को जानते नही , तुमने ठीक से उसकी सूरत तक नही देखी, तुम्हे यह तक पता नही कि वह तुम्हे कहां मिला था लेकिन तुम उसकी तलाश कर रहे हो। "
" हां। "
" क्यों?"
" क्योंकि कल रात मैने जहां उसे देखा था , वह बेचारा अभी भी वहीं पड़ा हो सकता है। वह बेचारा घायल था। चलने फिरने से लाचार था। हो सकता है अभी भी वह उसी हालत मे कहीं पड़ा हो और मेरी मदद का इन्तजार कर रहा हो। "

साधारणतया वर्षा अजनबियों से बहुत परहेज करती थी और शराबी आदमी से तो उसे वहशत होती थी । जीत मे दोनो खामियां थी लेकिन पता नही क्यों उसे वह आदमी बहुत ही नेक और शरीफ लग रहा था।
उसने कुछ क्षण सोचा और अपनी पिछली रात की सारी घटनाएं उसे सुना दी।

" खंडहर मकान !"- जीत सोचता हुआ बोला-" जिसकी सिर्फ दीवारें खड़ी थी और तकरीबन छतें गिर चुकी थी। "
" हां। "
" तुम्हारे ख्याल से वहां दो आदमी और थे। "
" हां। "
" जीत कुछ देर तक सोचता रहा। फिर बोला-" दो आदमी फिर से । हो सकता है उस खंडहर इमारत को देखकर मुझे बहुत सी भूली बातें याद आ जाए। क्या आप मुझे वो खंडहर दिखा सकती है?"
" साॅरी । यह मुमकिन नही । मैने अभी कहीं जाना है इसीलिए तो आज ड्युटी तक नही गई। "
" ओह!"- जीत ने गहरी सांस ली और उठता हुआ बोला-" तुम वहां का एड्रेस ही बता दो। "
वर्षा ने एड्रेस बताया।
वर्षा दरवाजे तक उसके साथ आई।
" पर्स लौटाने के लिए शुक्रिया "- वह बोली।
जीत केवल मुस्कराया।
इतने विशाल आदमी के चेहरे पर वह बच्चों जैसी मुस्कराहट वर्षा को बहुत अच्छी लगी।
" यह शनाया "- वर्षा बोली-" शक्ल मे जिसकी तुम्हे मै डुप्लीकेट लगी थी , तुम्हारी कोई सगे वाली है?"
जीत ने बड़े अवसादपूर्ण ढंग से इंकार मे सिर हिलाया।
" थी?"- वर्षा बोली।
" हो सकती थी लेकिन हुई नही। "
" क्यों?"
" क्योंकि वतौर पति मेरी कल्पना करने से उसे दहशत होती थी। हाथी - हिरणी या फिर गेंडा - मेमने की जोड़ी कहीं जंचती है?"
" ऐसा उसने कहा था?"
" हां। "
" कहां रहती थी?"
" लंदन मे। "
" तुम उससे प्यार करते थे?"
" बहुत ज्यादा । ऐसा जैसा किसी ने किसी से न किया होगा। "
" वो लड़की ..."
" छोड़ो । उसके जिक्र से भी मेरे दिल के जख्म हरे हो जाते है। पहले ही तुम्हारी सूरत देखकर कलेजा मुंह को आने लगा था। "
वर्षा खामोश रही।
जीत भारी कदमो से चलता हुआ वहां से विदा हुआ।

---

आज राज और वर्षा का तफरीह का प्रोग्राम था। लेकिन ऐन मौके पर राज को अपनी कंपनी मे एक इमर्जेंसी मिटिंग की वजह से प्लान मुल्तवी करना पड़ा।
उसने फोन कर वर्षा को यह जानकारी दी।
इसी दौरान वर्षा ने भी उसे अपने पर्स की वापिसी की दास्तान सुनाई।
" कमाल है "- राज बोला-" उसकी किसी गर्लफ्रेंड की शक्ल तुम्हारे से मिलती थी। "
" उसके अनुसार , हूबहू मिलती थी। "
" देखने मे कैसा था वो?"
" बड़ा अच्छा , खुबसूरत, खानदानी लेकिन इतना विशाल जैसे किसी आम आदमी को मैग्नीफाइंग ग्लास मे से देखा जा रहा हो। "
" इतने गुण लेकिन बोतल का इतना रसिया कि टून्न होकर वह भूल जाता था कि वह कहां पर था?"
" लगता था जैसे बेचारा कोई गम कम करने के लिए पीता हो। मुझे तो रहम आ रहा था उसपर। "
" वैसे तुम्हे उसके साथ खंडहर इमारत जाना चाहिए था। "
" कैसे चली जाती ? तुम जो आने वाले थे। "- वर्षा आहत भाव से बोली।
" आखिर वह बेचारा तुम्हारा पर्स लौटाने आया था । अब तो हमारा प्लान भी खटाई मे पड़ गया है सो अभी भी तुम जा सकती हो। "
वर्षा खामोश रही।
" जो शख्स आपके काम आए, आपको भी उसके काम आना चाहिए। " - राज उसे प्यार से समझाया।

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2 P.M.

जीत जीवनलाल की ही दी हुई लाइटर जलाकर खंडहर इमारत के भीतर मुआयना कर रहा था ।

लेकिन उसे इस बात की जरा भी भनक नही थी कि टोनी और भीमराव उसका पीछा डिमेरो बार से ही लगातार कर रहे थे।

जीत को आधे घंटे से ऊपर हो गए पर उसे कुछ सुझ नही रहा था कि आखिर उस घायल व्यक्ति को कहां छोड़ा था उसने।
तभी किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा।

" तुम यहां!"- जीत तनिक हैरानी से बोला।
" हां। "- वर्षा बोली-" हमारा प्लान कैंसिल हो गया है इसलिए मुझे लगा तुम्हारी मदद करनी चाहिए। "

वर्षा ने उसे बताया कि उसने उस घायल व्यक्ति को कहां देखा था। और शायद उसका पर्स भी यहीं कंही तब गिरा होगा जब वो आनन फानन बदहवास भाग रही थी।

" लेकिन तुम्हारा पर्स मेरे ओवरकोट मे कैसे पहुंच गया?"- जीत बोला।
" यह तो तुम्हे मालूम होना चाहिए। लेकिन जैसी हालत तुम अपनी पिछली रात की बता रहे हो तो हो सकता है तुमने स्वयं जमीन से पर्स उठाकर अपने जेब मे रख लिया हो और फिर नशे की हालत मे भुल गए हो। "
" शायद ऐसा ही हुआ हो "- जीत को ऐसा सम्भव लग भी रहा था -" वैसे अगर मुझे यह मालूम हो जाए कि यहां से निकलने और अपने होटल पहुंचने के बीच मै कहां-कहां गया था तो मेरा ख्याल है कि यह मिस्ट्री हल हो सकती है। "
वर्षा कुछ देर तक सोचती रही फिर निर्णयात्मक स्वर से बोली- " ओके , यहां से चलो । ढूंढते है तुम्हारे आदमी को। "

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टोनी और भीमराव उनसे कुछ दुरी बनाए , उनकी नजरो मे आए वगैर सबकुछ देख रहे थे , सबकुछ सुन रहे थे । लेकिन उन्हे लगता था अबतक पानी सिर के ऊपर नही गया है।
इसलिए वेट एंड वाच करना ही उन्हे मुनासिब लगा।

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जीत और वर्षा हर उस जगह गए जहां जीत की मौजूदगी इस दरम्यान सम्भव हो सकती थी। डाॅक , जहां जहाज खड़ा था , खंडहर के सामने वाले हिस्से से होटल तक पहुंचने के रास्ते तक । लेकिन कोई माकूल नतीजा नही निकला।

6. P.M.

इलाके के पांच बार घुम चुकने के बाद वे डिमेलो बार पहुंचे।
जीत ने अपने लिए विस्की और वर्षा के लिए कोल्ड ड्रिंक का आर्डर दिया।

जीत के तीसरे पैग पर वर्षा ने कहा-" तुम बहुत ज्यादा पीते हो। "
जीत खेदपूर्ण ढंग से मुस्कराया।
" क्यों पीते हो इतना ?"
जीत ने उत्तर नही दिया।
" उस लड़की की बेवफाई की वजह से जिसकी शक्ल मेरे से मिलती है ?"
जीत फिर भी चुप रहा।
" मुझे उसके बारे मे कुछ और बताओ?"
" यह एक लम्बी कहानी है , फिर कभी सुनाउंगा। "
" फिर कब सुनाओगे ? अब से तीन घंटे बाद तो तुम यहां से चले जाओगे और फिर पता नही जिंदगी मे वापिस मुंबई लौटेगे या नही। "
" एक बात बताओ?"
" पूछो। "
" तुम पढ़ी - लिखी, समझदार, बालिग लड़की हो, इसलिए सोच समझकर जबाव देना , मेरी भावनाओं का ख्याल करके झूठ न बोलना। "
" अच्छा। पूछो, क्या पूछना चाहते हो?"
" अगर तुम शनाया होती तो क्या तुम मेरे प्यार को सिर्फ इसलिए ठुकरा देती क्योंकि मै मोटा हूं और यह तुम्हारी मेरी जोड़ी नही जंचती ?"
" नही। "
" क्यों नही?"
" क्योंकि प्यार का रिश्ता दिल से होता है। दिल का सौदा दिल से होता है, जिस्म के आकार से नही , तुम सिर्फ मो...विशालकाय हो, प्यार करने वाले को तो अंधे, काने, लूले-लंगड़े , दरिद्र , फकीर कोई भी नामंजूर नही होते है। "
" ओह!"
" किसी ने मजनू से कहा था कि तेरी लैला रंग की काली है तो उसने कहा था कि देखने वालों की निगाह मे नुक्स था। "
" काश!"- जीत के मुंह से एक सर्द आह निकल गई -" जैसी समानता खुदा ने शनाया और तुम्हारी सूरत है, वैसी तुम दोनो के ख्याल मे भी बनाई होती "
वर्षा चुप रही।
" ज्यादा अफसोस की बात यह है "- जीत बड़े दयनीय स्वर मे बोला-" कि मर्द की बावत अपनी पसंद से मुझे वाकिफ कराने मे उसने दो साल लगाया। दो साल लगाया उसने मुझे यह बताने मे कि गेंडा और मेमना की जोड़ी नही चल सकती। जब मै उसे अपने दिलोजान की जीनत मान चुका था तो उसने कहा हम सिर्फ अच्छे मित्र ही बन सकते थे, जीवन साथी नही। यह बात उसने शुरुआत मे ही जता दी होती तो क्यों...क्यों. "
जीत खामोश हो गया। उसका गला रूंध गया और आंखे डबडबा आई।
" उसकी शादी हो गई?"
" हां। कब को। उसने किसी और से शादी करनी थी, इसीलिए तो मुझे ठुकराया था। "
" ओह!"
" शनाया की शादी के बाद मै लंदन छोड़ नही देता तो या तो मै पागल हो जाता या खुदकुशी कर लेता। "


उस घड़ी वर्षा के मन मे उस देव समान व्यक्ति के लिए बहुत अनुराग उमड़ा। उस वक्त जीत उसे उस अबोध शिशु की तरह लगा जिसे अपनी मां के गोद की सुरक्षा की जरूरत थी। उस घड़ी उसके मन मे जज्बात का ऐसा लावा उमड़ा कि वह घबराकर परे देखने लगी ।
क्यों उसका दिल चाह रहा था कि वह उससे कहे कि वह कितना ही बड़ा शराबी और नाकामयाब आदमी क्यों न हो, पर उसे पसंद था।
क्या उसके भीतर उस शख्स के लिए कोई प्यार मुहब्बत का जज्बा पनप रहा था !
" नही नही , ऐसा कैसे हो सकता है । "- उसने घबराकर सोचा।
जो शख्स आज ही उससे मिला था और आज रात को ही हमेशा के लिए मुंबई से रुखसत हो जाने वाला था, उसके प्रति यह सम्मोहन क्यों !

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" उठो "- वर्षा अचानक से खड़ी होती हुई बोली।
" क्या हुआ ?"- जीत हैरान होते हुए बोला।
" मुझे लगता है कि तुम खंडहर के सामने के रास्ते से नही बल्कि पिछवाड़े के रास्ते से निकले होगे । एक बार यह भी चेक कर लेते है। "

वापस वो दोनो खंडहर पहुंचे और इमारत मे प्रवेश किए।
पिछवाड़े के कमरे से होते हुए इस बार उन्होने ऐन वही रास्ता पकड़ा जिसपर अपने नशे की हालत मे पिछली रात जीत जीवनलाल को सम्भाले चला था।
रास्ते मे खस्ताहाल कारों का कब्रिस्तान लगने वाला अंधेरा मैदान भी आया लेकिन वे वहां से न होकर उसके पहलू से होकर आगे बढ़ गए। नतीजा फिर कुछ न मिला।

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7. P.M.

सिर्फ दो घंटे बाद जीत को शिप पर सवार होना था । वो सोच रहा था क्या उसका कल रात का राही और वर्षा सबकुछ पीछे रह जाएगा । क्या वो राही वास्तव मे उसे मिल पाएगा !
फिर कभी वर्षा को याद करेगा तो मृगतृष्णा के रूप मे ही याद करेगा और फिर उसे दारू पी पीकर जान दे - देने का एक नया बहाना हासिल हो जाएगा। उसकी वही सूरत शनाया जैसी लेकिन उसका कोऑपरेटिव नेचर , उसकी बातें उसे भा गई थी । वो वर्षा को चाहने लगा था ।
सिर्फ दो घंटे की बात थी। फिर वो शिप पर होगा और सबकुछ , सबकुछ पीछे छूटता जा रहा होगा ।

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दो घंटे बचे थे जहाज के छूटने की । उसे अब वापिस जहाज पर पहुंचना था।
जीत वर्षा के साथ वापिस खंडहर पहुंचा क्योंकि यहीं से एक रास्ता डिमेलो बार होते हुए बंदरगाह तक जाता था और विपरीत रास्ता मेन रोड होते हुए वर्षा के घर की तरफ ।

जीत ने भारी मन से वर्षा को अलविदा कहा और मन मन के डग भरता हुआ आगे बढ़ गया।
वर्षा वहीं खड़ी अनुराग दृष्टि से उसे देखती रही ।


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टोनी और भीमराव को बड़ी राहत हुई कि सेलर से उनका पीछा छूट गया । सेलर से अब उन्हे किसी तरह का खतरा नही था। लेकिन वर्षा को वो कैसे छोड़ सकते है ! आखिर यह उस रात की चश्मदीद गवाह जो थी ।

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जीत डिमेलो बार के नजदीक पहुंचा तो सोचा जहाज पर चढ़ने से पहले आखिरी बार एकाध ड्रिंक कर ले ।
वो बार मे प्रवेश किया और सीधे काउंटर पहुंचकर विस्की का आर्डर दिया।
उसके भीतर उस घड़ी एक तुफान उठ रहा था। उसका दिल पुकार पुकार कर दुहाई दे रहा था कि उसे वर्षा से मोहब्बत हो गई थी। लेकिन वो यह भी जानता था कि वर्षा किसी हाल मे उसकी नही हो सकती। शायद वह किसी और से मोहब्बत करती है।
तभी उसकी नजर काउंटर पर रखी आज के अखबार के ईवनिंग संस्कर के फ्रंट पेज पर पड़ी । उसकी निगाह अखबार मे छपी एक तस्वीर पर अटक कर रह गई। उस तस्वीर मे बिना दरवाजे की कार दिखाई दे रही थी ।

बिना दरवाजे की कार !!
जीत के जेहन मे एकाएक जैसे बिजली कौंध गई । कार की उस तस्वीर ने उसके लिए बिजली के उस स्विच जैसा काम किया था जो पहले नही चलता था और अब एकाएक चल पड़ा था और रोशनी की जगमग जगमग हो गई थी।

उसे सबकुछ याद आ गया था ।

जीत ने टाइम देखा । अब भी डेढ़ घंटे बाकी थे जहाज के रवाना होने मे।
वो तुरंत खड़ा हुआ और वापिस खंडहर इमारत के पीछे के रास्ते से उस जगह तक पहुंचने का फैसला किया जहां वो घायल व्यक्ति को एक कबाड़ी और खटारा कार के पिछ्ली सीट पर छोड़ आया था।

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जीत जैसे ही खंडहर के करीब पहुंचा , उसे एक लड़की के चीख की आवाज सुनाई दी। वो भागते हुए अंदर प्रवेश किया और पिछवाड़े मे स्थित कमरे के पास पहुंचा।
सामने जो दिखाई दिया उसे देखकर उसके क्रोध का ठिकाना न रहा । उसके आंखो मे खून उतर गए।
टोनी और भीमराव वर्षा की इज्ज़त लूटने की प्रयास कर रहे थे । वर्षा बदहवास रो रोकर उनसे अपने इज्ज़त की भीख मांग रही थी।
टोनी और भीमराव की नजर सिर्फ वर्षा के जिस्म पर थी इसलिए वो यह जान ही नही पाए कि जीत उनके ठीक पीछे आ खड़ा हुआ था। जीत ने एक हाथ से टोनी की गर्दन पकड़ा और उसे दूर फेंक दिया और फिर भीमराव को पकड़कर वापस अपनी तरफ घुमाया और एक करारा प्रहार उसके पेट पर किया। भीमराव अपना पेट पकड़कर वहीं जमीन पर लेट गया ।

वर्षा के चेहरे पर खुशी और राहत भरे भाव आए । वो जीत से लिपटकर रोने लगी ।
" ये दोनो यहीं छिपे हुए थे "- वर्षा रोते हुए बोले जा रही थी-" तुम्हारे जाते ही इन्होने मुझे धर दबोच लिया था। इन्होने ही कल रात एक आदमी का खून किया था। "
" हां , ये वही दोनो हैं । मुझे सबकुछ याद आ गया है "- जीत ने उसे ढ़ांढस देते हुए कहा।
वो वर्षा को ढांढस देने मे इतना मशगूल हो गया कि उसे पता तक नही चला कि टोनी कब खड़ा हुआ और कब उसके सिर पर सवार हो आया । टोनी ने लोहे के रड से उसके सिर पर जोरदार प्रहार किया ।
और फिर तभी भीमराव जो अपना पेट पकड़े जमीन पर पड़ा हुआ था , उठकर उसके पेट मे एक धारदार खंजर भोंक दिया ।
जीत धड़ाम से जमीन पर गिर गया ।
वर्षा हैरत और अविश्वसनीय फटी फटी आंखो से जीत को जमीन पर गिरते देख रही थी । उसकी आंखे गंगा यमुना बन गई थी।

" अब कहां से बचेगी , साली ! तुझे तो मरना ही था । कल रात के हमारे जुर्म की तू ही तो साक्षी है पर अच्छा हुआ यह साला सेलर भी खुद चलकर यहां मरने आ गया "- टोनी कहर भरे स्वर मे बोला -" मौका मिला था इसे यहां से वापस जाने का लेकिन कुता फिर भी वापस आ गया ।"

टोनी और भीमराव उसकी ओर बढ़े।
वर्षा को अपनी मौत साक्षात नजर आने लगी थी ।
वो दम लगाकर चिखी ।

चीख की तीखी आवाज से जीत की तन्द्रा टूटी । अब भी उसकी चंद सांसे बाकी थी। उसने उठने की कोशिश की तो पाया कि वह खून से नहाया हुआ था। धूंधली आंखो लिए अंधो की तरह टटोलता वह अपने पैर पर खड़ा हुआ।

अंधो की तरह टटोलता , आंखे मिचमिचाता , झूमता , लड़खड़ाता वह फिर उनके पीछे जा खड़ा हुआ और पुरी ताकत लगाकर अपनी दोनो भुजाओं से उन दोनो की गर्दनें दबोच लिया और तबतक दबाता रहा जबतक उनके प्राण पखेरू उड़ नही गए।
जैसे ही जीत की चेतना खोने लगी, दोनो भरभराकर जमीन पर गिर गए।
टोनी और भीमराव मर चुके थे।
जीत अपने होश खोने लगा था। वह कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा ।
वर्षा दौड़कर उसके करीब पहुंची।
" जीत "- वर्षा रूंधे स्वर मे बोली।
जीत की पलकें फड़फड़ाई। उसका खून से लथपथ चेहरा तनिक वर्षा की तरफ घूमा । उसके होंठो पर एक क्षणिक मुस्कराहट आई ।
" तुम्हे कुछ नही होगा , जीत "- वर्षा जीत को अपने सीने से लगाते हुए , रोते हुए बोली।
" तुम..ठीक. हो न.. !"- जीत के मुंह से निकला।
" हां "- वर्षा आंसुओं मे डूबे स्वर मे बोली -" मै ठीक हूं जीत और तुम्हे भी कुछ नही होने दूंगी ।"
" मेरे. जाने का वक्त.. आ गया है , वर्षा. "- जीत रूक-रूक कर , टूटे- फूटे स्वर मे बड़ी मुश्किल से बोला -" कैसा अजीब है न , नाम जीत.. पर.. जीवन मे सब समय.. हार । मां का चेहरा.. याद नही । पिता का साया.. होकर भी.. बाप का स्नेह.. प्यार नही , स्कूल..कालेज मे.. शरीर की
. वजह से कोई कदर नही , लड़की की.. मुहब्बत नसीब मे.. नही और.. आखिर मे तुम्हारा भी.. साथ नही ।"

वर्षा ने रोते हुए उसे अपने सीने से कस लिया।
जब जीत की आवाज कुछ क्षण तक नही आई तो उसने घबराकर जीत के चेहरे को देखा ।
जीत की सांसे थम चुकी थी । उसकी आत्मा परमात्मा मे विलिन हो चुकी ।
" जीत "- वर्षा पछाड़ खाकर उसके ऊपर गिर गई।
ऐन उसी वक्त राज वहां पहुंचा।

---

वर्षा जीत को कभी भूल नही सकती थी । जीत नाम के फरिश्ते का नाम उसके दिल मे इतने गहरे अक्षरो मे गुद गया था कि उसकी आने वादी जिंदगी मे कोई भी उसे मिटाना तो दूर , धुंधला भी नही कर सकता था।

---

9.30 P.M.

ओरिएंटल गोल्डन स्टार का कैप्टन गुस्से मे लाल पिला हुए जीत को जहान भर की गालियों से अलंकृत करते हुए बोला जा रहा था -" गधा , गैरजिम्मेदार , बर्दाश्त की भी हद होती है। अब मै जीत का और इन्तजार नही कर सकता। जहां है वहीं मरा खपा रहे । मै चला। "

जीत के अंजाम से बेखबर गोल्डन स्टार अपने इन चार सफर मे पहली बार जीत के बिना बंदरगाह छोड़ चला।
वाह वाह क्या बात है
मुझे मालुम था आप ग़ज़ब के लेखक हैं
पर ऐसा क्यूँ के आप सिर्फ़ प्रतियोगिता में लिखते हैं
खैर प्रतियोगिता ही सही क्या ग़ज़ब लिखे हैं
चौबीस घंटे
दो व्यक्तित्व के परिस्थिति अनुसार मनोदशा सम्वेदना और अनुराग को कितनी सुंदर भाव के साथ प्रस्तुत किया है

साधु साधु साधु
मैं निःसंदेह 10 में से 9.5 देना चाहूँगा
 

Kala Nag

Mr. X
Prime
4,343
17,121
144
पूर्ण अपूर्ण

“मिन्टू, महाबलेश्वर पहुँचते ही फ़ोन कर देना... नहीं तो तुम्हारी माँ चिंता करेंगी...” मामा जी ने चलते-चलते हिदायद दे दी थी।
“जी मामा जी...” मनीष ने कहा था।
वो तो माँ और मामा जी ने ज़िद पकड़ ली, नहीं तो मनीष का मन बिलकुल नहीं था महाबलेश्वर जाने का। लेकिन कभी-कभी कुछ काम मन मार कर भी करने पड़ते हैं।
यह यात्रा वैसा ही काम था।
‘माँ भी न! मेरी एक शादी से उनका मन नहीं भरा, जो इस दूसरी शादी के लिए मामा से कहला-कहला कर मुझको मज़बूर कर दिया उन्होंने!’
मामा जी इस दरमियान उसको बड़ी चतुराई से समझाते रहे, और बार-बार कहते रहे कि, ‘मिन्टू तू ये मत सोचना कि तुझे वहाँ शादी करने के लिए भेज रहे हैं... वहाँ मेरे दोस्त, ब्रिगेडियर कुशवाहा का फार्महाउस है... वहाँ तू उसकी फैमिली के साथ कुछ दिन छुट्टियाँ बिताने भेज रहे हैं... तुझे याद नहीं होगा, लेकिन कुशवाहा ने तुझे छुटपन में देखा था। उसी ने बहुत कह के बुलाया है! तेरे पहुँचने के अगले ही हफ़्ते मैं आ जाऊँगा!’
मामा जी चाहे जितनी भी कहानी बना लें, लेकिन मनीष अच्छी तरह समझता था कि यह सारा खेल उसकी दूसरी शादी कराने के लिए ही रचा गया है!
‘दूसरी शादी! हुँह!’
यह सोच कर ही मनीष का मन कड़वाहट से भर गया... उसका दिल जलने लगा! उस अपमान की याद आते ही वो खिन्न हो गया। नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी!
शादी... सात जन्मों का साथ! ऐसा साथ जिसको कोर्ट में दलीलों द्वारा ‘नल एंड वॉयड’ सिद्ध करने का प्रयास किया! तलाक़ तक भी ठीक था, लेकिन उस दौरान जो नंगा नाच हुआ... उसके कारण मनीष का मन मर गया था! उसको अब हर स्त्री केवल छलावा लगती!
पूरे दस साल हो गये थे उस हादसे को। लेकिन दिल पर लगे हुए घाव यूँ थोड़े ही भर जाते हैं! बात-बात पर वो फिर से ताज़े हो जाते हैं।
आख़िर जो कुछ हुआ, उसमें उसका अपराध ही क्या था!
*
उसकी विधवा माँ को कितनी मुश्किलें हुई थीं उसको पालने में! स्कूल में टीचर की नौकरी कर के उसे पाला, अच्छे संस्कार दिए, और जीवन में कुछ कर दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया। माँ की ही मेहनत का परिणाम था, कि वो एनडीए में सेलेक्ट हुआ। उसके ग्रेजुएशन के दिन माँ कैसी खुश थीं! और फिर जैसा होता है, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए, अनेकों रिश्तों में से एक रिश्ता चुना था उसके लिये! आईएएस की बेटी, पल्लवी। मनीष की माँ इतनी सीधी और सरल थीं, कि वो घर-बार और मेहमान-नवाज़ी देख कर, और पल्लवी की सुंदरता पर मोहित हो गईं।
‘ऐसा रिश्ता कहाँ मिलेगा बेटा?’ उन्होंने कहा था, ‘...सब रिश्ते ईश्वर के घर पर बनाए जाते हैं...’
सभी ने ज़ोर दिया, इसलिए मनीष और पल्लवी, घर के एकांत में बस थोड़ी ही देर के लिए मिले। बस एक-दो शब्दों का आदान-प्रदान! उसके बाद वो अचानक ही उठ कर चली दी थी... मनीष को लगा कि शायद पल्लवी शरमा गई है! उस दिन के बाद भी किन्ही कारणों से उन दोनों की बातें न हो सकीं, और न ही मुलाकातें। चट लड़की दिखाई, और पट ब्याह! और फिर माँ की जल्दबाज़ी के कारण भी समय नहीं मिल सका।
शादी के ताम-झाम के बाद जब उसको अपनी अर्धांगिनी को इत्मीनान से जानने समझने का अवसर मिला, तो फूलों से सजी सुहाग-सेज पर उसको लाल जोड़े में सजी अपनी दुल्हन नहीं मिली... बल्कि शलवार कुर्ते में, पैर सिकोड़ कर सोती हुई पल्लवी मिली। उस समय पल्लवी की यह अदा बड़ी ‘क्यूट’ लगी थी उसको! लेकिन यह भ्रम कुछ ही घण्टों में टूट गया।
सुबह उसके जागते ही, उसको अपनी तरफ सर्द नज़रों से देखती हुई पल्लवी दिखी।
पल्लवी ने भावनाशून्य तरीके से कहा था, ‘मुझे छूना मत... ये शादी मेरी मर्ज़ी की नहीं है मनीष! ये बस एक कॉम्प्रोमाइज़ है।’
‘कॉम्प्रोमाइज़? कैसा?’ उसको समझ ही नहीं आया।
‘मैं अभी इस बारे में बात नहीं करना चाहती...’
मनीष को काटो खून नहीं, ‘अरे मेरे साथ शादी नहीं करनी थी, तो तभी मना क्यों नहीं कर दिया?’
‘किया था... बहुत बार मना किया था! लेकिन कोई माना नहीं।’
‘तो? ...अब?’
‘अब क्या? कुछ भी नहीं! मैं यहाँ नहीं रहूँगी...’ उसने कहा था।
उसका सुन्दर सा चेहरा कैसा ज़हर भरा हो गया था!
वो दिन बोझिल सा बीता। अगले ही दिन पल्लवी अपने मायके लौट गई।
अगले हफ़्ते उसकी जगह आया उसकी शादी को ‘नल एंड वॉयड’ करने का कोर्ट का नोटिस!
आरोप? आरोप यह कि मनीष इम्पोटेंट है।
इम्पोटेंट? नपुंसक! पौरुषहीन! वो, भारतीय सेना का जाँबाज़, एक नपुंसक है! पत्थर होकर रह गया था वो कुछ समय के लिए।
माँ, मामा जी, और पल्लवी के घरवालों के साथ कहा-सुनी के दौरान होने वाला अपमान उसको भीतर तक जलाता रहा। आरोप सिद्ध न होना था, तो न हो सका। लेकिन मनीष का मन इतना खट्टा हो गया, कि वो स्वयं ही यह सम्बन्ध नहीं चाहता था। उसने खुद ही तलाक़ कबूल लिया!
दस साल हो गए उस बात को!
वो जान बूझ कर, लगातार फ़ील्ड में एक्टिव पोस्टिंग लेता रहा... कभी लेह, कभी कारगिल, तो कभी सोपियां...
माँ को बीच-बीच में उसके ब्याह की बात सालती... अपने पोता-पोती होने की कल्पना उनको भी होती! लेकिन मनीष दूसरी शादी की बात टालता रहता। लेकिन पिछले साल उसकी पोस्टिंग जोधपुर हो गई। हाई-कमान भी लगातार किसी को एक्टिव पोस्टिंग नहीं देता। थोड़ी शांति हुई, तो माँ की ज़िद बढ़ गई। मनीष उनकी बात कैसे मना कर दे? और कितनी बार?
हर बार तो बस वही बहस...
‘माँ...’ उसने दलील दी थी, ‘अगले महीने पैंतीस का हो जाऊँगा... ये कोई उम्र होती है शादी करने की?’
‘फ़ालतू बात न कर... पैंतीस क्या उम्र है आजकल?’
*
दरअसल कुछ हफ़्तों से मामा जी ही माँ को महाबलेश्वर वाली पट्टी पढ़ा रहे थे। इसलिए माँ ने भी हठ पकड़ लिया, इसलिए वो उनकी बात टाल न सका। कम से कम उनका मन रखने के लिए ही वो महाबलेश्वर चला जाना चाहता था।
इस बार माँ और मामा जी दोनों ही बहुत सतर्क थे। वो चाहते थे कि मनीष लड़की और उसके परिवार के साथ कुछ समय बिता ले, और उनको ठीक से समझ ले। ब्रिगेडियर कुशवाहा वैसे भी मामा जी के साथ ही आर्मी में थे। दोनों एक दूसरे को जानते थे, और उनकी अच्छी दोस्ती थी। परिवार की तरफ़ से कोई परेशानी नहीं थी। उनकी एक छोटी बहन थी, जो अनब्याही थी। उसने किन्हीं कारणों से अभी तक शादी नहीं करी थी। यह बंदोबस्त उन्ही दोनों के लिए था।
महाबलेश्वर सुन्दर जगह है, लेकिन वहाँ जाने को लेकर मनीष उत्साहित नहीं था। उसने सोचा था कि इस बार छुट्टी ले कर माँ के साथ अधिक से अधिक समय बिताएगा, और उनको चार धामों की यात्रा भी करा देगा। लेकिन माँ तो माँ ही हैं! उन्होंने कह दिया कि सारे तीर्थ यूँ ही हो जाएँगे, अगर उसकी शादी हो जाए!
सब सोच कर मनीष का मन भारी हो गया। वो बस की खिड़की से बाहर झाँकता है। शाम हो रही थी, लेकिन उसकी रंगत आनी बाकी थी। पहाड़ी के घुमावदार रास्तों में बस आराम से चल रही थी, और अनेकों पक्षियों के झुण्ड, शोर मचाते हुए अपने-अपने घोंसलों और बसेरों को लौटने लगे थे। वो सामने वाली सीट की ओर देखता है - एक छोटी बच्ची उसको देख कर मुस्कुरा रही थी। उसकी निश्छल मुस्कान देख कर वो भी बिना मुस्कुराए नहीं रह सका। बच्ची की मुस्कान को देख कर उसके दिल को थोड़ी ठंडक आती है। अचानक से ही कड़वे, दुःखदायक विचार छू-मंतर हो जाते हैं, और उसका मन हल्का हो जाता है।
‘आज़ादी में कितना सुकून है...’ एक नया ख़याल उसके मन आया, ‘जीवन के पैंतीस बसंत आज़ाद रह कर मैं शादी की बेड़ी में कैसे बँध जाऊँ!’
हमारा समाज भी तो अजीब है! जैसे अनब्याही लड़की को लोग संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं, वैसे ही अनब्याहे पुरुष को भी! कोई आपको चैन से बैठने नहीं देता। पिछले कुछ समय से वो सोच रहा था कि, बीस साल नौकरी कर के वो रिटायर हो जाए... फ़िर कहीं बाहर जा कर बस जाए! वैसे भी, उसकी स्किल-सेट से उसको बहुत सी नौकरियाँ विदेशों में भी मिल जाएँगी। फिर क्यों शादी-वादी के जंजाल में फंसना? बेकार का झंझट!
उसकी नजर फिर से बच्ची की तरफ़ चली गई। वो अभी भी उसकी तरफ़ ही देख रही थी। दोनों फ़िर से मुस्कुरा उठे।
‘कितनी प्यारी सी बच्ची है!’
उसके मन में एक और विचार आया कि, काश, उसकी भी ऐसी ही प्यारी सी संतान होती!
शाम अब गहरी होने लगी थी।
‘रात आठ बजे से पहले नहीं पहुँचने वाले महाबलेश्वर’, किसी सहयात्री ने टिप्पणी करी।
‘आठ बजे?’ उसने सोचा, ‘ठीक है... आज रात किसी होटल में ठहर जाऊँगा, और ब्रिगेडियर साहब से सवेरे ही मिलूँगा!’
न जाने क्यों उसको ठण्ड लगने लगी!
‘लेह, कारगिल के शेर को वेस्टर्न-घाट में ठण्ड लग रही थी! धिक्कार है!’ उसने मन ही मन सोचा, और मुस्कुरा उठा।
बस की खिड़की के बाहर लगातार अँधेरा फैल रहा था। पहाड़ियों और वृक्षों की आकृतियाँ, अँधेरे में घुलने लगी थीं। और उसी पसरते अँधेरे के साथ उसके मन में वापस अन्धकार घिरने लगा।
उसने सामने देखा... शायद बच्ची अभी भी उसको देख रही हो! लेकिन बच्ची शायद अपनी माँ की गोदी में सो गई थी।
‘क्यों जा रहा है वो वहाँ बेवजह! ...केवल सभी का टाइम-वेस्ट होगा, बस! क्या शादी से ज़रूरी और कोई काम नहीं? ...क्यों बनाई गई है ये फ़िज़ूल व्यवस्था? ...मुझे करनी ही नहीं है शादी! कोई क्यों नहीं समझता ये बात?’
उसके मन में फिर से चिढ़ उठने लगी। वो गहरी साँस ले कर महाबलेश्वर पहुँचने का इंतज़ार करने लगा।
*
आठ नहीं, बस साढ़े आठ बजे पहुँची महाबलेश्वर!
बस-स्टॉप पर उतर कर वो अपना सामान निकलवा ही रहा था कि उसको अपने कन्धे पर एक हाथ महसूस हुआ,
“हेल्लो जेन्टलमैन,” उसको एक जोशीली, रौबदार आवाज़ सुनाई दी, तो वो पीछे घूम गया, “आई एम ब्रिगेडियर कुशवाहा...”
“गुड ईवनिंग सर!” उसने कहा और पूरी गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया।
“वेलकम टू महाबलेश्वर माय डियर!”
“थैंक यू सो मच सर! लेकिन आपने आने की तकलीफ़ क्यों करी? मैं कल आ जाता...”
“नॉनसेंस! तुम हमारे मेहमान हो, और जेन्टलमैन भी!” फिर अपने ड्राइवर की तरफ़ मुखातिब होते हुए, “तेजसिंह, साहब का सामान गाड़ी में रखो।”
“जी साहब!”
“मनीष, तुम्हारे रहने का इंतजाम हमारे साथ ही है... बँगले में!”
“लेकिन सर...”
“लेकिन क्या भाई?”
जिस अंदाज़ में ब्रिगेडियर साहब ने यह सवाल किया, मनीष ने अपना सवाल ही बदल दिया,
“आपने मुझे इतने लोगों में पहचान कैसे लिया?”
“ओह... हा हा हा! अरे यार, सिवीलियन्स की भीड़ में एक जेन्टलमैन ऑफ़िसर को पहचानना क्या मुश्किल काम है!”
ऐसे ही बातचीत करते, अँधेरे में डूबे पहाड़ी रास्तों से होते हुए, ब्रिगेडियर कुशवाहा के फार्महाउस पहुँचने में कोई पंद्रह मिनट लग गए। रास्ते में सारी बातें ब्रिगेडियर साहब ही करते रहे... मनीष केवल ‘हाँ हूँ’ कर के सुनता रहा। उनकी प्रॉपर्टी में प्रवेश करते ही मनीष को समझ में आ गया कि एक बहुत बड़े भूखण्ड में उनका फार्महाउस है। अन्दर पहुँच कर जहाँ तेजसिंह मनीष का सामान उसके कमरे में रखने चला गया, वहीं कुशवाहा साहब घर के अन्दर जा कर कहीं गायब हो गए। मेहमान-कक्ष की साज-सज्जा बड़ी ही सुरुचिपूर्ण थी। अनगिनत सुन्दर पेन्टिंग्स... देखने में लग रहा था कि सभी एक ही पेंटर ने बनाई हैं।
मनीष कक्ष का जायज़ा ले ही रहा था, कि पर्दों के पीछे से एक सुन्दर सा चेहरा झाँकता हुआ सा दिखा - एक पल मनीष को लगा कि वो भी कोई पेंटिंग है। लेकिन जब उस चेहरे पर मुस्कान आई तो समझा कि पेंटिंग नहीं, लड़की है।
मनीष के चेहरे पर आते जाते भावों को देख कर वो भी हँसने लगी।
“नॉटी गर्ल...” इतने में ब्रिगेडियर साहब भी पर्दे के पीछे से वापस प्रकट हुए, और अपने साथ उस लड़की को भी लेते आए...
वो बोले, “मनीष, ये मेरी बेटी है... चित्रांगदा... बीएससी सेकण्ड ईयर में पढ़ रही है।”
“हेल्लो!”
“हेल्लो!” चित्रांगदा ने अल्हड़पन से कहा।
“चित्रा बेटा, जाओ मम्मी को यहाँ बुला लो, और किचन में चाय और स्नैक्स के लिए बोल दो!”
“जी पापा!”
“एक सेकंड बेटा, ...मनीष... ड्रिन्क्स?”
“ओह? नो सर!”
“नहीं पीते?”
“सर... ऐसा नहीं है... लेकिन...”
“मतलब मेरे साथ नहीं?”
“नो सर... आई मीन, ओके सर, आई विल हैव वन...”
“गुड मैन...” कुशवाहा जी प्रसन्न होते हुए बोले, “बेटा, केवल स्नैक्स के लिए कहना!”
स्नैक्स तुरंत ही आ गए। साथ ही श्रीमति कुशवाहा भी! वो एक सुन्दर और सभ्रान्त महिला थीं - फौजी की पत्नी! उनके अंदर वही रुआब था, लेकिन बातचीत में वो माँ जैसी ही लगीं। अच्छी बात थी!
ड्रिंक्स की औपचारिकता के बाद मनीष को पहली मंज़िल पर बने गेस्टरूम में ले आया गया। गेस्टरूम क्या, वो दरअसल एक छोटा सा, सुविधा-युक्त फ्लैट था।
बहुत सुकून था यहाँ। मनीष अब समझ रहा था कि ब्रिगेडियर साहब ने ऐसा जीवन जीना क्यों चुना। अनावश्यक रोशनियाँ नहीं थीं, इसलिए आकाशगंगा साफ़ दिखाई दे रही थी! आनंद आ गया उसको। फिर उसको याद आया कि दस बजे रात्रिभोज के लिए कहा था कुशवाहा साहब ने। वो जल्दी से तैयार हो कर नीचे उतरा।
“मनीष... मेरी वाईफ और बेटी से तुम मिल ही चुके हो... अब इनसे मिलो, शोभा... मेरी छोटी बहन। सर जेजे स्कूल ऑफ़ आर्टस में फाईन-आर्टस की प्रोफ़ेसर हैं... मुंबई में रहती हैं, लेकिन आज कल यहाँ आई हैं, हमारे साथ छुट्टियाँ बिताने... और ये है मेरा बेटा, अतुल... आईआईटी बॉम्बे में इंजीनियरिंग कर रहा है... और ये हैं मेजर मनीष सिंह... मेरे दोस्त लेफ्टीनेंट कर्नल सेंगर के भाँजे! ये हमारे साथ छुट्टियाँ बिताने आए हैं!”
इस औपचारिक परिचय की ज़रुरत नहीं थी, क्योंकि सभी को पता था मनीष के बारे में! हाँ, मनीष को अवश्य ही सबके बारे में अभी पता चला। ख़ास कर शोभा के बारे में। इन्ही के साथ उसके विवाह की बात हो रही थी।
परिचय के बाद भोजन आरम्भ हुआ, और फिर अनौपचारिक बातें होने लगीं। पता चला कि अतुल कल सवेरे ही वापस मुंबई चला जाएगा।
“शोभा...” कुशवाहा साहब ने अपनी बहन से पूछा, “तुम रुकोगी न कुछ दिन?”
“जी भैया... लेकिन दो दिन बाद मेरे स्टूडेंट्स की एक एक्सहिबीशन थी...”
“ओह बुआ!” चित्रांगदा ने मनुहार करते हुए कहा, “रूक जाओ न कुछ दिन! भैया कल चले जायेंगे... और आप तो बस अभी-अभी आई हैं! ...ये क्या बात हुई भला!”
“ठीक है...” शोभा ने मुस्कुराते हुए कहा।
मनीष ने पहली बार शोभा को ग़ौर से देखा।
गेहुँआ-गोरा रंग, बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ, बस थोड़े से चौड़े नथुने, और स्निग्ध त्वचा! बहुत लम्बे बाल नहीं, लेकिन जुड़े में बंधे हुए। पूरा व्यक्तित्व बहुत परिपक्व, प्रभावशाली, और सौम्य! भरा हुआ, लेकिन समानुपातिक जिस्म! बेडौल कत्तई नहीं। आज-कल के फैशन के जैसे, आधी जाँघ तक का कुर्ता और जींस पहने हुए। बातचीत कर के ऐसा ही लगता कि ठहरी हुई, बुध्दिजीवी महिला हो।
फिर उसकी नज़र चित्रांगदा पर पड़ी। आँखें अपने पिता जैसी, लेकिन होंठ और नाक अपनी माँ जैसी ही सुन्दर सुगढ़। दुबली-पतली सी लड़की, लेकिन क़द में ऊँची... आँखों में चंचलता...
वो देख ही रहा था कि चित्रांगदा बोल पड़ी, “क्या देख रहे हैं आप? पापा देखिए न... आपके मेहमान तो कुछ खा ही नहीं रहे!”
“ओह हाँ... अरे मनीष... भई, और लो न!”
*
सुबह वो बड़ी जल्दी ही उठ गया। यात्रा की थकावट से नींद नहीं आई, और फिर बंगले ने नीचे चहल-पहल से जो कच्ची सी नींद थी, वो टूट गई। नीचे देखा कि पूरा परिवार अतुल को विदाई देने जमा था। मनीष भी भाग कर नीचे आया और अतुल को अलविदा कहा।
दोबारा नींद नहीं आई। इसलिए वो नहा-धो कर नीचे आ गया।
चित्रांगदा भी जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर के कॉलेज जाने की तैयारी में थी। मनीष के लिए चाय वहीं आ गई।
“मेरा तो मन ही नहीं कर रहा कॉलेज जाने का... लेकिन आज मेरा एक प्रैक्टिकल है! मिस नहीं कर सकती! ...बाहर बुआ पेन्टिंग बना रही हैं... घर में जो भी पेंटिंग्स हैं, सब उन्ही ने बनाई है!” उसने चंचलता से बताया, “साथ में बैठ जाईये उनके... बोर नहीं होंगे। ...और हाँ, शाम को जब वापस आऊँगी, तब घूमने चलेंगे। ओके?”
चित्रांगदा की बातों पर वो हँस दिया। बिना हँसे रहा भी कैसे जाए? वो है ही ऐसी चंचल!
चाय पी कर वो बाहर आया... शोभा सचमुच पेन्टिंग बनाने में व्यस्त थी।
वो उसके पीछे जा कर खड़ा हो गया।
“ओह... आप!” जब शोभा को एहसास हुआ कि कोई उसके पीछे खड़ा है, तो वो उसको देख कर बोली।
“जी...” वो शोभा की प्रतिभा से प्रभावित था, “बहुत सुन्दर पेंटिंग है!”
शोभा मुस्कुराई, और फिर अपने हाथ पोंछ कर उठने लगी।
“अरे, आपने इसको अधूरा क्यों छोड़ दिया? पूरा कर लीजिए न?”
“लगता नहीं कि ये कभी पूरी होगी... पंद्रह महीनों से काम चल रहा है इस पर... लेकिन ये है कि पूरी ही नहीं हो पा रही है!”
“...फिर तो ये ज़रूर ही आपकी मास्टरपीस होने वाली है!”
इस बात पर दोनों ही हँस दिए।
उसने नोटिस किया कि हँसती हुई शोभा बहुत सुन्दर लगती है।
उसने पेन्टिंग को ध्यान से देखा... लगा कि चित्रांगदा की तस्वीर है! हाँलाकि पेंटिंग में चेहरा अभी भी अधूरा था, लेकिन उसकी आँखें, नाक और होंठ... बालों का बिखराव... हाँ, उसी की तस्वीर है!
“ये चित्रांगदा की तस्वीर है?” उसने पूछ ही लिया।
“वैरी गुड!” शोभा ने हँसते हुए, आश्चर्य से कहा।
हँसते हुए ही उसने अपने बालों से जूड़ा पकड़ने वाला काँटा निकाला... उसके बाल उसकी कमर से ऊपर तक बिखर गए, और बयार में उड़ने लगे। ऐसे में वो गौर से देखे बिना न रह सका शोभा को! उधर शोभा ने उसकी जाँच-पड़ताल को नज़रअंदाज़ किया, और नाश्ता वहीं बाहर लॉन में लगवाने चली गई। जब नाश्ता लग गया, तो परिवार के सदस्य भी वहीं आ गए। ब्रिगेडियर कुशवाहा भी अतुल को गाड़ी में चढ़ा कर वापस आ गए थे। नाश्ते पर उन्होंने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी... ऐसी बातचीत लम्बी चलती है। शोभा कोई शायद इस बात में कोई इंटरेस्ट नहीं था। वो उठ कर अंदर चली गई।
शायद इसी मौके की तलाश थी ब्रिगेडियर साहब को! तो तुरंत ही मुद्दे पर आ गए।
“तो मनीष... शोभा के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?”
मनीष अचकचा गया। क्या कहे वो इस बारे में!
“मनीष, बेटा... देखो... हमको तुम्हारे बारे में सब मालूम है! शोभा को भी! ...हम तुमसे बड़े हैं, और तुम दोनों का भला चाहते हैं! ...समय निकल रहा है, इसलिए अब तुम दोनों को ही शादी के बारे में डिसिशन ले लेना चाहिए! ...बस यूँ समझ लो कि गृहस्थी के स्टेशन तक जाने वाली ये आख़िरी गाड़ी है... जाना है, तो पकड़ लो! नहीं तो इस सफर को ही टाल दो!”
“जी...”
और क्या बोले वो?
“शोभा तुमसे उम्र में बड़ी है... यह बात तुम्हारी माँ और मामा जी को पता है। ...लेकिन वो इतनी बड़ी भी नहीं कि तुम दोनों अपना परिवार न बना सको!”
वो बोल रहे थे और मनीष सुन रहा था, समझ रहा था,
“आई नो दैट इट इस टू अर्ली! इसलिए मैं चाहता हूँ तुम दोनों जितना पॉसिबल हो, साथ में टाइम बिता कर, अपना डिसिशन हमको बता दो।”
*
शाम तक वो अपने कमरे में पड़ा इसी विषय पर सोचता रहा।
‘शोभा अच्छी दिखती है... सुलझी हुई लगती है... आर्मी वाली फैमिली से है... कैरियर वुमन है... क्या हाँ कह दूँ?’
“हेल्लो!” एक चहकती हुई आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई, “...क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में सोच रहे थे न?”
“अरे चित्रांगदा... आप कब आईं?”
“इतना लम्बा नाम लेने की ज़रुरत नहीं! आप मुझे चित्रा कह कर बुला सकते हैं!” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “सभी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं!”
“अरे चित्रा... आप कब आईं?”
मनीष को खुद पर विश्वास नहीं हुआ कि वो उसके साथ इतना खुला कैसे महसूस करने लगा।
“कब से तो आकर खड़ी हूँ आपके लिए चाय ले कर!” वो हँसती हुई बोली, “लेकिन आप हैं कि बुआ जी की यादों में गुम हैं!”
मनीष ने उसकी बात को नज़रअंदाज़ किया, “कॉलेज कैसा था?”
“एस युसुअल...”
उसने नोटिस किया कि शलवार कुर्ते में चित्रा अपनी उम्र से बड़ी लगती है।
दोनों ने चाय पी ली, तो चित्रा ने उसकी बाहें पकड़ कर उसे खींचना शुरू कर दिया, “चलिए... जल्दी से चेंज कर लीजिए न! हमको घूमने भी तो चलना है!”
“हमको? कौन-कौन है ‘हम’ में?”
“पापा मम्मी तो चाहते है कि केवल आप और बुआ जी जाएँ... लेकिन जाना तो मुझे भी है!” फिर मनुहार करती हुई वो बोली,
“प्लीज़ मनीष अंकल... आप मम्मी से कहिए न कि चित्रा भी साथ चलेगी!”
“अंकल?” मनीष ने उसकी बात पर चोटिल होने का नाटक करते हुए कहा, “इतना उम्रदराज़ लगता हूँ क्या?”
“लगते तो नहीं... लेकिन क्या कहूँ आपको?” फिर एक क्षण सोच कर बोली, “‘मनीष जी’ चलेगा?”
“चलेगा!”
*
चित्रा को उन दोनों के साथ चलने की इज़ाज़त मिल गई।
शोभा भी चाहती थी कि चित्रा साथ रहे, और मनीष भी।
दोनों ही एक दूसरे से अकेले में मिलना टाल रहे थे।
एक उम्र के बाद, अधिकतर लोगों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है किसी से प्रेम करना, उसको अपनाना, और उसके साथ अपना जीवन बिताने का प्रण लेना!
‘उसकी ही तरह शोभा को भी अपनी स्वतंत्रता की आदत हो गई होगी।’ मनीष सोच रहा था, ‘शोभा बहुत अच्छी तो है! लेकिन... फिर भी... इतनी जल्दी कैसे हाँ कर दे वो?’
“मनीष जी? चलें?” चित्रा ने उसका हाथ पकड़ लिया।
एक उत्साह से भरा स्पर्श!
“आपकी बुआ जी कहाँ हैं?”
“इतनी जल्दी कहाँ? उन्हें तो तैयार होने में बहुत टाइम लगता है!” वो हँसने लगी।
इतने में शोभा भी बाहर आ गई। साड़ी पहनी हुई थी उसने। हर परिधान में वो अनूठी लगती!
“मैं ड्राईव करूँ?” चित्रा ने कहा।
“नॉट येट चित्रा! तुम्हारा अभी भी लर्नर्स है!” कह कर शोभा ने स्टीयरिंग सम्हाली।
पूरे रास्ते भाई चित्रा ही बोलती रही। मनीष और शोभा दोनों ही ख़ामोश थे! अपने अपने ख़यालों में डूबे हुए। कुछ देर बाद, एक मंदिर के सामने ले जा कर शोभा ने गाड़ी रोक दी।
“मैं अभी आई...” उसने कहा और मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
“आपकी बुआ जी बहुत धार्मिक लगती हैं!”
“उम्... उतनी नहीं। फिलहाल वो इस मंदिर में अपने एक स्केच के लिये फोटो लेने गई हैं।”
“ओह!”
“आपने क्या सोचा कि वो यहाँ मन्नत माँगने आई हैं कि, ‘हे भगवान, इस हैण्डसम फौजी से मेरी शादी करा ही दो’!” चित्रा ठहाके मार कर हँसने लगी, “इस ग़लतफ़हमी में न रहिएगा मनीष जी! ...अभी तक मेरी बुआ ही सभी प्रोपोज़ल्स को रिजेक्ट करती आई हैं! नहीं तो उनकी शादी तो कब की हो जाती।”
सच में, इस खुलासे पर मनीष की अकल ठिकाने आ गई।
“जानते हैं?” चित्रा ने एक राज़ की बात कही, “वो मिस बॉम्बे भी रह चुकी हैं!”
इस बात पर मनीष चुप ही रहा - हाँ, ज़रूर रही होंगी मिस बॉम्बे!
“आपने मेरी बात का बुरा तो नहीं माना न?”
“कमऑन चित्रा... बच्चों की बात का क्या बुरा मानना!”
“बाई द वे मनीष जी, मैं बच्ची नहीं हूँ... आपको एक बार ‘अंकल’ क्या बोल दिया, आपने तो मुझे बच्चा ही मान लिया!”
“अच्छा मिस चित्रांगदा, आप बच्चा नहीं हैं... प्लीज़ मुझे माफ़ कर दें!” मनीष उसके सामने हाथ जोड़ कर बोला।
“श्श्श्शशः... बुआ आ गई।” कह कर चित्रा ने मनीष का हाथ दबा दिया।
कुछ अलग ही बात थी उसके स्पर्श में!
मनीष न चाह कर भी चित्रा के बारे में सोचने लगा। शोभा के बगल बैठ कर भी, पिछली सीट पर बैठी चित्रा के बारे में सोचता रहा। वेन्ना लेक पहुँचते हुए थोड़ी शाम हो गई... कोई अन्य टूरिस्ट नहीं दिखे। ये लोग ही आखिरी थे, शायद! शोभा को नाव में चढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी! इसलिए वो झील के किनारे ही एक बेंच पर बैठ गई। मनीष न चाह कर भी चित्रा के साथ बोटिंग करने चला गया।
“आपको पता है? सनसेट में सभी की आँखों का रंग बदल जाता है... देखो...”
बोल कर उसने अपने चेहरा मनीष के सामने कर दिया।
मनीष ने जो देखा, उसने उसके होश उड़ा दिए। चित्रा की आँखें! ओफ्फ़!
“मनीष जी?”
“हम्म?”
“क्या देख रहे थे?”
‘सच बोल दूँ क्या?’
“... यही कि तुम बहुत सुन्दर हो...” जैसे अपने ही शब्दों पर से उसका नियंत्रण हट गया हो।
“हाँ... हूँ... तो? क्या फ़र्क़ पड़ता है? नेचर में तो हर चीज सुन्दर है... मुझे तो हर चीज सुन्दर लगती है!”
वो मुस्कुराया, “हाँ... जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे भी सब सुन्दर लगता था।”
“और अब?”
“अब? अब अपने अंदर कुछ बदल गया है। ...रियलिटी अलग होती है, यह सीख मिल गई है।”
“रियलिटी अलग होती है? क्या ये लेक रियल नहीं है? वो बत्तखों का झुंड रियल नहीं है?”
“है चित्रा... रियल है!” उसने गहरा निःश्वास भरा।
“मनीष जी...” उसने बात पलटते हुए कहा, “पापा से सुना था कि आप कविताएँ लिखते हैं! लिखते हैं, या नहीं?”
“तुमको इंटरेस्ट है?”
“हाँ... बहुत!”
“हम्म... अब नहीं लिखता!”
“पर क्यों?”
“वही बात...”
“रियलिटीज़?” चित्रा ने कहा, तो मनीष की फ़ीकी सी हँसी निकल आई।
मनीष के मन में अलग ही तार छिड़ गया।
‘चित्रा... अगर तुम जैसी कोई इंस्पिरेशन होती, तो शायद कविताएँ लिखता रहता... ज़िन्दगी बहुत कुत्ती चीज़ होती है... यह सब बातें तुमसे कैसे कहूँ? तुम्हें ये सब कह कर डराना नहीं चाहता... भगवान करे कि तुम्हें ज़िन्दगी के ब्यूटीफुल ट्रुथ्स देखने को मिलें!’
“मनीष जी, उतरिए न! किनारा आ गया... आप हमेशा किस सोच में पड़ जाते हैं?”
तब तक शोभा भी किनारे पर आ गई थी, “कैसी रही बोटिंग, मनीष जी?”
“इंटरेस्टिंग...”
*
बोटिंग के बाद वो सभी एक ज्यूलरी की दुकान पर आ गए जहाँ अधिकतर नकली (मतलब चाँदी पर सोने की परत चढ़ी हुई, और अन्य सेमी-प्रेशियस स्टोन्स वाली) ज्यूलरी मिलती थी।
“अरे शोभा जी! नमस्ते! कैसी हैं आप? भैया भाभी कैसे हैं?”
“हम सब अच्छे हैं, गुप्ता जी... अच्छा, इस बार मेरे लिये क्या ख़ास है?”
“बहुत दिनों बाद आई हैं आप... आपने जो पेंडेंट डिज़ाइन किया था न, वो फॉरेनर्स को बहुत पसंद आया है... और ख़ूब बिका है!”
“हम्म... मतलब आपने मेरी डिज़ाइन कॉमन कर दी, गुप्ता जी।” ये कोई शिकायत नहीं थी।
मनीष और चित्रा स्टोर के बाहर ही बैठ गए।
“तुम्हें ज्यूलरी में इन्टरेस्ट नहीं है?”
“है न! लेकिन बुआ की जैसी ज्यूलरी में नहीं... वो न जाने कहाँ-कहाँ से अतरंगी डिज़ाइन कॉपी कर कर के पहनती हैं। ...मेरा तो मन करता है कि फूल पहनूँ... सुन्दर सुन्दर... रंग बिरंगे!”
“ओह... वनकन्या...?”
उस बात पर दोनों हँस दिए।
“वैसे...” मनीष ने थोड़ा सा हिचकते हुए कहा, “सुन्दर लड़कियों को ज्यूलरी की ज़रुरत ही कहाँ है?”
“हाँ न! जैसे... मुझे!”
दोनों फिर से हँसने लगे।
चित्रा बोली, “मनीष जी, जब से आप आए हैं, तब से हम कितना हँसने लगे हैं! है न? ...कभी-कभी तो लगता है कि घर में हँसना ही मना है! सब सीरियस रहते हैं...”
“चित्रा...” अचानक ही शोभा बाहर आती है।
“हाँ बुआ...”
“ये नेकलेस देख... तेरे जॉर्जेट वाले सूट के साथ बढ़िया लगेगा...”
“हाँ... अच्छा है बुआ।”
फिर शोभा मनीष की तरफ़ मुखातिब हो कर बोली, “मनीष जी... और, ये आपके लिए है...”
उसने एक छोटा सा डब्बा उसकी तरफ़ बढ़ाया।
“मेरे लिए? क्या है ये?” उसने उत्सुकता से पूछा।
“देख लीजिए न...”
मनीष ने बच्चों जैसी उत्सुकता दिखाते हुए वो डब्बा खोला... उसमें सुन्दर से कफलिंक्स थे। सुन्दर तोहफा था। एक लंबा अर्सा हो गया था किसी से कोई तोहफा मिले उसको।
“थैंक यू सो मच...” मनीष ने सच्चे मन से शोभा के लिए आभार दिखाया।
फिर उसने कुछ नया देखा - पहली बार शोभा की आँखों में आत्मीयता थी... इसलिए उसकी मुस्कान भी आत्मीयतापूर्ण थी।
‘सुन्दर तो बहुत है शोभा...’ उसके मन में विचार आया, ‘हाँ कह दूँ?’
*
मनीष को महाबलेश्वर आए हुए चार दिन बीत गए थे अब।
शोभा से बात करने के बहुत से अवसर मिले उसको और अब उसको शोभा का साथ अच्छा लगने लगा था। उधर चित्रा के साथ आत्मीयता भी बहुत बढ़ गई थी... लगभग दोस्तों की तरह आत्मीयता!
आज डिनर के बाद दोनों साथ ही मनीष के कमरे के बाहर बैठे हुए थे।
“जानते हैं? अगर मैं बुआ की जगह होती न, तो आपसे मिलते ही आपसे शादी के लिये हाँ कर देती...”
“हा हा...”
“मनीष जी,”
“हम्म?”
“आपके बारे में कुछ सुना था।” उसने हिचकते हुए कहा।
“जो सुना है, वो सच ही होगा।”
फिर से थोड़ी हिचक, “वो लड़की कैसी होगी न... बिना आपको जाने... उसने वो सब...”
“चित्रा, छोड़ो न उस बात को... ये सोचो न... शायद उसकी कोई मजबूरी रही हो...”
“क्या मजबूरी हो सकती है? ...क्या वो किसी और को चाहती थी?”
“हो सकता है...”
थोड़ा सोचती हुई, “... ऐसा क्यों होता है, मनीष जी? ...कम से कम शादी तो जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए न! ...जो मन से न हुई, वो कैसी शादी? वो आप से प्यार नहीं करती थी, लेकिन आप से ब्याह दी गई... फिर वो सारा तमाशा! क्या फ़ायदा हुआ? कम से कम प्यार के लिए तो शादी करनी ही चाहिए... है न?”
मनीष एक फ़ीकी सी हँसी दे कर बोला, “तुम अभी छोटी हो चित्रा... लाइफ बहुत अलग होती है... यू नो... प्यार से अलग एक बहुत बड़ी दुनिया है... समाज में... संसार में हम सभी के अपने अपने रोल्स होते हैं, जो इमोशंस पर नहीं डिपेंड करते...”
“आई नो...” चित्रा ने बुझी हुई आवाज़ में कहा, फिर अचानक से चहकती हुई, “... अच्छा... आप बुआ जी से शादी करेंगे?”
“पता नहीं चित्रा... सच कहूँ? मैं शादी करने का सोच कर आया ही नहीं यहाँ... मेरे... मेरे मामा... उन्होंने मुझे अपने बेटे की तरह पाला है... उनकी बात को मैं टाल नहीं सका! माँ की भी ज़िद थी...”
“आप बहुत इमोशनल हैं... बुआ बहुत प्रैक्टिकल...”
“मैं इमोशनल हूँ?”
“और नहीं तो क्या?”
“कैसे जाना?”
“आप बहुत अच्छे हैं...” चित्रा ने कुछ देर चुप रह कर कहा।
उसकी आँखों में लाल डोरे दिख रहे थे। उसके होंठ थोड़े से खुले हुए और काँप रहे थे। उसकी नाईट-सूट के ढीले-ढाले कुर्ते से उसकी धड़कन, रात की ख़ामोशी में सुनाई देने लगी थी।
मनीष से कुछ कहते न बना। माहौल अचानक ही बहुत तनावग्रस्त हो गया।
“चित्रा...” मनीष ने अपने ख़ुश्क होते हुए गले से कहा, “...बहुत रात हो गई है... अब जाओ।”
यह एक तरह से विनती थी।
“कॉफी...?” चित्रा से और कुछ कहते न बना।
“नहीं...”
“गुड नाईट...” चित्रा ने ख़ामोशी से कहा।
चित्रा के जाते देख मनीष का मन अनजानी आशंका और डर से काँप उठा। रात में ठण्डक थी... लेकिन फिर भी उसका शरीर पसीने से नहा गया।
रात बहुत भारी बीती।
*
वो सुबह देर से उठा।
नित्य-क्रिया से निवृत्त हो कर जब वो बाहर आया, तो सामने शोभा को चाय और नाश्ता लिए खड़ा देखा।
“बड़ी देर तक सोए आज आप... देर रात तक ये नॉवेल पढ़ते रहे?”
शोभा ने उसके बिस्तर पर पड़ा नॉवेल उठा कर एक नज़र देखा, और फिर वापस रख दिया।
मनीष चकित रह गया।
‘नॉवेल? ये कहाँ से आया!’
उसने आभारपूर्वक चाय नाश्ता शोभा के हाथों से ले लिया।
“सवेरे आपके मामा जी का फोन आया था... कह रहे थे कि आज रात यहाँ आ जाएँगे...” शोभा ने कहा।
“ओह? ...अच्छी बात है...”
मनीष और शोभा ने साथ में चाय पी! चुपचाप। ब्रेकफास्ट भी!
यह चुप्पी शोभा ने ही तोड़ी, “आज हम दोनों से पूछा जाएगा... आपने कुछ सोचा है?”
“जी? जी... मैंने तो कुछ नहीं सोचा...”
शोभा को थोड़ी निराशा हुई... उसने धीरे से कहा, “... तो फिर... सोच लीजिए... कोई जवाब तो देना ही पड़ेगा। इसीलिए आपको यहाँ बुलाया गया है, और मुझे भी!”
“शोभा... मैं क्या कहूँ? ...हम अभी जानते ही क्या हैं एक दूसरे के बारे में?”
“जानने की मोहलत तो बस इतनी ही थी, मनीष जी...” शोभा ने मुस्कुराते हुए कहा, “ज़िन्दगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं एक दूसरे के बारे में?”
बात तो सही ही थी।
“आपने मेरे बारे में सुना ही होगा...”
“हाँ... हम सभी ने सुना है! बिलीव मी, हम में से कोई भी उस बात पर भरोसा नहीं करता... और... वैसे भी, वो सब पास्ट की बातें हैं, मनीष... सभी का पास्ट होता है कुछ न कुछ... वो सब भुला दीजिए...”
“जी... लेकिन एक बात बताईए... क्या आपको ठीक लगेगा... इतने दिनों की आज़ाद ज़िन्दगी के बाद यूँ बंधना?”
“आपको जान कर ऐसा तो नहीं लगता कि आप मुझे बाँध कर रखेंगे... आपकी ही तरह मैं भी पर्सनल फ़्रीडम में बिलीव करती हूँ...”
“और आपकी जॉब?”
“अपनी जॉब तो मैं नहीं छोड़ूँगी, मनीष... वो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है! ...लेकिन अगर शादी की बात आगे बढ़ती है, तो मैं लम्बी छुट्टी ज़रूर ले सकती हूँ...”
“तो... आपने डिसाइड कर लिया?”
“हाँ... मनीष... देखो... मैं थक गई हूँ! रियली! थक गई हूँ लोगों के क्वेशन्स से... उनकी सिम्पथी से!”
“थक तो मैं भी गया हूँ शोभा... लेकिन, क्या ये कॉम्प्रोमाइज़ नहीं है?”
“ये भी तो हो सकता है कि हम एक दूसरे को सच में पसन्द करने लगें?” शोभा ने मुस्कुरा कर कहा, और कप और प्लेटें उठाने लगी।
मनीष बस उसको देखता रह गया।
“... तो,” शोभा ने ही आगे कहा, “आज शाम को डिनर से पहले तुम डिसाइड कर लेना... कुछ भी हो, लेकिन डिसाइड ज़रूर कर लेना! एंड डोंट वरी... चाहे अफरमेटिव हो, या नेगेटिव... मेरी तरफ़ से तुमको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी...”
शोभा बोली और सामान ले कर बाहर चली गई।
उसके बाहर जाते ही मनीष ने नॉवेल उठाया। मिल्स एंड बून्स का एक रोमांटिक नॉवेल था! ऐसी किताबें वो कभी पढ़ता ही नहीं! उसने नॉवेल को उलट-पलट कर देखा, और पन्ने पलटे। नॉवेल के अन्दर एक अलग सा ही कागज़ मोड़ कर रखा हुआ था... नॉवेल के अन्य पन्नों से अलग। मनीष उस कागज़ को निकाल कर न जाने किस प्रेरणा से पढ़ने लगा,
‘मुझे नहीं पता कि क्या हो रहा है मेरे साथ... ऐसा लग रहा है कि मैं कहीं बही जा रही हूँ! किधर... पता नहीं। लेकिन जब से आप यहाँ आए हैं, मुझे अच्छा लगने लगा है। अपने खुद के होने पर अच्छा लगने लगा है। आप मुझसे बहुत बड़े हैं... न जाने ये सब पढ़ कर आप क्या सोचें! लेकिन, अगर मैं ये सब आपको न बताती, तो घुट के मर जाती... आई ऍम इन लव विद यू... मैं खुद पर हैरान हूँ... लेकिन न जाने क्या बात है कि मैं आपकी तरफ़ खिंची जा रही हूँ... कल रात न जाने क्या हुआ मन में... ऐसा लगा कि अपना सब कुछ सौंप दूँ आपको... लेकिन...’
‘चित्रा!!’
वो ख़त पढ़ कर मनीष के मन में तूफ़ान उमड़ आया।
‘अगर ये लेटर शोभा पढ़ लेती, तो? ...क्या सोचती वो? कितना बखेड़ा हो जाता!’
मनीष का गला सूख गया!
बड़ी घबराहट में, तैयार होकर वो बाहर निकला। मन अशांत था उसका। खुद को संयत करने के लिए वो बहुत दूर तक पैदल ही चलता गया। लेकिन प्रकृति उसको आराम न दे सकी। बहुत चलने से थकावट भी हो गई। थक कर रास्ते के किनारे बैठ कर वो सुस्ताने लगा। थोड़ा सुकून पा कर जब उसने अपनी आँख मूँदी, तो आँखों के अँधेरे पटल पर चित्रा का चेहरा उभर आया!
उसकी सुन्दर, मासूम सी आँखें... वो चंचल सी मुस्कान...
उसका मन भारी हो चला... जो वो पिछले एक-दो दिनों से महसूस कर रहा था, वो सच था!
चित्रा उसको चाहने लगी थी... और... और... वो भी तो...!
नियति कितनी क्रूर हो सकती है!
चित्रा... वो अल्हड़ सी लड़की... मानों सोने का अनगढ़ पिण्ड हो... जिसको वो जैसा चाहे, गढ़ सकता था!
चित्रा के साथ अपनी सम्भावना की बात सोच कर ही उसका दिल दहल गया।
उसने सोचा कि यह सब जो हो रहा था, ठीक नहीं हो रहा था। ब्रिगेडियर साहब का विश्वास... मामा जी का भरोसा... माँ के दिए हुए संस्कार... इन सभी के साथ वो विश्वासघात कैसे कर दे?
मनीष ने सोचा कि वो कल ही महाबलेश्वर से चला जाएगा! आज रात जब मामा जी यहाँ आएँगे, तो वो शोभा के साथ रिश्ते को मना कर देगा। इस विचार से उसको थोड़ा सम्बल मिला।
वन्य रास्तों में बहुत देर भटकने के बाद वो वापस लौटने लगा। ब्रिगेडियर कुशवाहा के बँगले की तरफ़ मुड़ने वाले रस्ते पर कदम पड़े ही थे, कि उसको चित्रा आती दिखाई दी। साइकिल पर...
देखने से परेशान लग रही थी।
मनीष को देखते ही बोली, “क्या हो गया आपको? कहाँ थे? पता है, मम्मी, पापा और बुआ... सभी परेशान थे!”
मनीष कुछ न बोला।
उसकी चुप्पी का कारण वो समझ गई।
“मनीष जी, आपको परेशान करने का इन्टेशन नहीं था मेरा... लेकिन मैं आपके लिए अपनी फ़ीलिंग्स कन्फेस किए बिना नहीं रह सकती थी...”
मनीष के गले में जैसे फाँस पड़ गई हो... भर्राए गले से बोला, “...और मैं किससे कन्फेस करूँ? हम्म?”
“आप... आप... ओह्ह... फ़िलहाल अभी यहाँ से चलिए... घर नहीं... मुझे आपसे बात करनी है एक बार...”
कोई पाँच मिनट बाद दोनों वृक्षों के पीछे एकांत की पनाह में बैठे हुए थे।
चित्रा ने मनीष को देखा - उसकी आँखों में आँसू थे।
“मनीष जी... मैंने जो कुछ भी लिखा है, वो सब सच है! ...आप मेरा फर्स्ट क्रश... नहीं... क्रश नहीं, प्यार हैं। शायद... शायद मैं आपसे ये सब कभी न कहती... लेकिन कल रात... आपके इतने क़रीब बैठ कर... ओह मनीष... आई लव यू...”
“चित्रा... चित्रा... आई कांट अंडरस्टैंड एनीथिंग... क्या करूँ मैं अब!”
“नहीं जानती... लेकिन मनीष... मैं करती भी तो क्या?”
“कुछ भी नहीं चित्रा... मैं कल जा रहा हूँ यहाँ से... शायद यही ठीक रहेगा... मेरे लिए... तुम्हारे लिए... हमारे लव्ड वन्स के लिए... इतनी हिम्मत नहीं है मुझमें कि इतने लोगों का भरोसा तोड़ दूँ...”
“लेकिन बुआ जी...”
“अब आ रहा है बुआ जी का ख़याल? ...अरे बेवक़ूफ़ लड़की, अगर वो लेटर उनके हाथ लग जाता, तो जानती है क्या होता?” मनीष बुरी तरह से झल्ला गया था, “...न बाबा... मुझे नहीं करनी कोई शादी वादी... बेकार ही फँस गया बैठे बिठाए...”
वो तड़प कर बोला और सर पकड़ कर धम्म से ज़मीन पर बैठ गया।
उसका वो रूप देख कर चित्रा भी रोने लगी।
मनीष का दिल भी उसको रोते देख कर टूट गया... वो उसके पास आ कर, उसके हाथों को थाम कर बोला,
“मैं क्या करूँ, चित्रा? ...जैसे मैं तुम्हारे मन में बस गया, वैसे ही तुम भी तो मेरे मन में बस गई हो... लेकिन ये सही नहीं है... मेरा जो होना हो, वो हो, लेकिन तुम पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए। इसलिए मुझे यहाँ से जाना ही होगा।”
चित्रा उसकी बाँह को पकड़ कर, रोते हुए बोली, “आप कहीं मत जाओ... आप बुआ जी से शादी कर लो... आप आज यूँ बिना बताए घर से चले गए न, तो मैंने उनको पहली बार टूटते हुए देखा है... वो पापा से कह रही थीं कि, ‘भैया... मनीष को देख कर पहली बार लगा है कि शादी कर लेनी चाहिए... और मेरी किस्मत देखो... मैं उसको पसन्द ही नहीं... वो यूँ बिना कुछ कहे सुने चला गया’”
मनीष के दिल में ये सब सुन कर टीस उठ गई।
“और... तुम....”
“मैं? मेरा क्या?” उसने बुझी हुई आवाज़ में कहा।
मनीष ने लपक कर चित्रा को अपने सीने में छुपा लिया।
‘ओह... ये लड़कियाँ... इनको समझा भी कैसे जाए!’
चित्रा ने भी उसको कस कर पकड़ लिया।
कुछ समय बाद मनीष ने चित्रा को अपने से अलग किया, “बस चित्रा... अब शांत हो जाओ! घर चलते हैं अब... वहाँ जा कर मैं क्या करूँगा, मुझे खुद ही पता नहीं... लेकिन तुम प्रॉमिस करो, कि कोई बेवकूफी वाला काम नहीं करोगी।”
*
कुछ समय पहले मनीष वापस नहीं जाना चाहता था, और अब चित्रा नहीं जाना चाहती थी। मनीष उसकी बाँह पकड़ कर, लगभग खींचते हुए उसको वापस घर लाया।
दोनों जब घर पहुँचे, तो सभी लोग चित्रा की रोई हुई, लाल आँखें देख कर, और मनीष को भीषण तनाव में देख कर चुप ही रहे।
उन्होंने क्या सोचा होगा, पता नहीं। लेकिन किसी ने उन दोनों से कुछ भी पूछा और न उनसे कुछ कहा।
शाम को जब मामा जी वहाँ आए, तो सभी लोग घर के माहौल को जितना सामान्य दिखा सकते थे, दिखा रहे थे। रात्रि-भोज के समय टेबल पर न तो शोभा ही थी, और न ही चित्रा!
जैसा सभी को पूर्वानुमान था, मामा जी ने मनीष से उसके निर्णय के बारे में पूछा। उनके सामने बैठ कर मनीष ‘न’ नहीं कह सका। उसने बस ‘हाँ’ में सर हिला दिया।
*
शोभा से शादी के लिए रज़ामंदी देने के बाद समय मानों पंख लगा कर उड़ गया। मनीष को ऐसा लगा कि जैसे वो अपनी ही शादी की प्रक्रिया में दर्शक मात्र था! जैसे वहाँ वो नहीं, उसकी जगह कोई अन्य व्यक्ति था।
शोभा के साथ सगाई हुई... और फिर कुछ ही दिनों बाद शादी!
हर तरफ ख़ुशी का माहौल था। रस्मों-रिवाज़ों का आनंद, और परिवारजनों की खिलखिलाहट हर तरफ़ फ़ैली हुई थी। लेकिन मनीष चित्रा की हँसी में छुपे दर्द को महसूस कर पा रहा था! आखिरकार, वही दर्द उसका भी तो था!
*
कुछ दिनों पहले वो जिस कमरे में मेहमान बन कर रहा था, अब वही कमरा उसका और शोभा का हो गया था। सुहागरात के प्रथम मिलन के बाद मनीष की बाँहों में आलस्य से मचलती शोभा, उसका हाथ खींच अपने स्तन पर रख लेती है। मनीष को भी अच्छा लग रहा था; वो भी संतुष्ट था! लेकिन फिर भी कुछ था जो उसको भीतर ही साल रहा था।
रात के कोई तीन बज रहे होते हैं, जब उसकी नींद टूटती है। बिस्तर से उठ कर खिड़की के पास बैठ जाता है... वहाँ से उसको चित्रा का कमरा दिखता है।
कमरे में बत्ती जल रही है...
कुछ टूट जाता है उसके मन में...
अनायास ही उसको चित्रा के शब्द याद आ जाते हैं, ‘मन का क्या है मनीष जी... टूट गया, तो फ़िर जुड़ जाएगा...’
*
इस फोरम में आप सदेव मेरे पसंदीदा लेखक रहे हैं
मेरा एक मित्र है जिसकी जिंदगी की कहानी बिल्कुल की मनीष के जैसी है हाँ यह बात और है तलाक के बाद आज तक उसने विवाह नहीं किया
आपने उसके आगे की कहानी लिखा है
मनीष के मन के भीतर उमड़ रहे भावनाओ के चलते दोराहे पर पहुँच जाता है फिर द्वंद की भंवर में फंस जाता है l आवेग में स्वयं पर काबु रखा पर जैसा कि होता है उसने किसी की भावनाओं का आदर किया तो किसी की भावना को ठेस पहुँचाया l यहाँ तक अपनी भावनाओं का तिलांजलि भी दिया l
बहुत ही कड़वा व तिक्त उपलब्धी रहा

बहुत ही ज़बरदस्त कहानी लिखा है आपने l मेरी शुभकामनाएँ

10 में से 9.5
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
20,908
44,585
259
Story: भूल भुल्लैया
Writer: Adirshi

Stroy Line: मानसिक अवस्था और पारलौकिक घटनाओं पर आधारित ये कहानी एक ऐसे लड़के की है जो अपने मां बाप के कारण अपने सपने को मार देता है, लेकिन बाद में सच्चाई और सपनों के बीच ऐसा उलझता है कि उसकी जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है।

Treatment: लेखक वैसे ही मंझे हुए हैं तो इनकी कहानी भी वैसी ही मंझे हुए तरीके से लिखी हुई है, बढ़िया फ्लो में चलती कहानी अपने आखिरी के ट्विस्ट के लिए हमेशा याद रखी जायेगी। कहानी पढ़ते हुए पाठक कहीं भी भटकता या अटकता नही है।

Positive points: जबरदस्त पटकथा, शानदार भाषा शैली और किरदारों से जुड़ाव।

Negative points: कुछ जगह वर्तनी की गलतियां हैं, लेकिन ऐसी शानदार कहानी के लिए उसे नजरंदाज किया जा सकता है।

Sugesstion: :bow:

Rating: 9.5/10 (वर्तनी वाली गलती के 😛)
 

Adirshi

Royal कारभार 👑
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Story: भूल भुल्लैया
Writer: Adirshi

Stroy Line
: मानसिक अवस्था और पारलौकिक घटनाओं पर आधारित ये कहानी एक ऐसे लड़के की है जो अपने मां बाप के कारण अपने सपने को मार देता है, लेकिन बाद में सच्चाई और सपनों के बीच ऐसा उलझता है कि उसकी जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है।

Treatment: लेखक वैसे ही मंझे हुए हैं तो इनकी कहानी भी वैसी ही मंझे हुए तरीके से लिखी हुई है, बढ़िया फ्लो में चलती कहानी अपने आखिरी के ट्विस्ट के लिए हमेशा याद रखी जायेगी। कहानी पढ़ते हुए पाठक कहीं भी भटकता या अटकता नही है।

Positive points: जबरदस्त पटकथा, शानदार भाषा शैली और किरदारों से जुड़ाव।

Negative points: कुछ जगह वर्तनी की गलतियां हैं, लेकिन ऐसी शानदार कहानी के लिए उसे नजरंदाज किया जा सकता है।

Sugesstion: :bow:

Rating: 9.5/10 (वर्तनी वाली गलती के 😛)
इस जबरदस्त समीक्षा के लिए बहुत बहुत शुक्रिया भाई, कोशिश करूंगा आगे गलती ना करू , अभी अभी देवनागरी मे लिखना शुरू किया है सीख ही रहा हु :D
 

Samar_Singh

Conspiracy Theorist
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Amezing Samar puri kahani twice se bhari hui thi. Jo darwna seen aap ne create kiya vo amezing tha. Fir bhi kon katil he. Ye redars bar bar gumrah jarur hue honge. Police ke darwne chahere se lekar driver ke cortege ke bahar jate mushkurate wakt kulhadi vale seen me bhi. Aage jese katal hona. Fir bachne ki kosis me Priya ki kahani ka samne aane. Aur kabir ko sab samaz aane ke bad uske vapas lotna. Car me kabir ko samaz aa gaya tha ki vo sab mare hue he. Amezing creativity.. superb. Jitni tarif karu kam he.
Thanks Shetan ji, ek purn kahani likhne ka pehla prayas tha ye. Isse pehle kabhi koi kahani likhkar puri nah ki. Mujhe Khushi hui ki aapko ye pasand aayi.

Kahani me itne twist isliye hai kyoki mere idea me hi twist bhare hue the, iss kahani ke scene aur ending baar baar alag soch rha tha main.

Mtlb agar ek din pehle yaa ek din baad iss story ko post karta to iski ending me jameen aasman ka antar hota🤣🤣.

Phir pareshan hokar maine jo likha use post karna hi sahi samjha.

And for your clarification end me Kabir ko ye samjh aata hai jo kuch hua vo uska ek sapna tha jo sach hone vala hai, mtlb vo mare hue nahi marne vale hai.


Thanks for your kind words.
 
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Shetan

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Thanks Shetan ji, ek purn kahani likhne ka pehla prayas tha ye. Isse pehle kabhi koi kahani likhkar puri nah ki. Mujhe Khushi hui ki aapko ye pasand aayi.

Kahani me itne twist isliye hai kyoki mere idea me hi twist bhare hue the, iss kahani ke scene aur ending baar baar alag soch rha tha main.

Mtlb agar ek din pehle yaa ek din baad iss story ko post karta to iski ending me jameen aasman ka antar hota🤣🤣.

Phir pareshan hokar maine jo likha use post karna hi sahi samjha.

And for your clarification end me Kabir ko ye samjh aata hai jo kuch hua vo uske ek sapna tha jo sach hone vala hai, mtlb vo mare hue nahi marne vale hai.


Thanks for your kind words.
Aap amezing ho. Aap ko mere khayal se scandal, ya gang war crime story likhne ki kosis karni chahiye. Jis tarah ki aap ki skill he. Aap scandal gotalo par achha likh sakte ho. Kabhi ho sake to gor kijiyega. Usme bhi bahot maza he. Aap twis yaad rakh sakte ho. Plotting achha bethega. Bas ho sake to koi topic chuno.
Iske alava heist par bhi story likhna bhi romanchak rahega. Ho sake to kosis kijiye.
 

Samar_Singh

Conspiracy Theorist
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Aap amezing ho. Aap ko mere khayal se scandal, ya gang war crime story likhne ki kosis karni chahiye. Jis tarah ki aap ki skill he. Aap scandal gotalo par achha likh sakte ho. Kabhi ho sake to gor kijiyega. Usme bhi bahot maza he. Aap twis yaad rakh sakte ho. Plotting achha bethega. Bas ho sake to koi topic chuno.
Iske alava heist par bhi story likhna bhi romanchak rahega. Ho sake to kosis kijiye.
Thanks, this so kind of you.
Kabhi socha nahi, lekin koshish karunga.
Philhal ek aur story aayegi 10 March tak patriotic theme par, vo bhi devnagri me.
 

Shetan

Well-Known Member
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Thanks, this so kind of you.
Kabhi socha nahi, lekin koshish karunga.
Philhal ek aur story aayegi 10 March tak patriotic theme par, vo bhi devnagri me.
Aap meri 3rd story ko padh ke dekho. Maza aaega. Contest se bahar he. Comedy story he.
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
20,908
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Story: Cltr+z
Writer: Mak

Story line:
Time Machine technology पर आधारित ये बेहतरीन कहानी एक ऐसे लड़के की है जो एक टाइम मशीन के जैसी डिवाइस बनाता है और एक लड़की को पाने के लिए उसका बात बात इस्तेमाल करता है, बस उसमे एक झोल ये है कि मशीन का उपयोग मौत के बाद ही होता है। और यही इस कहानी का ट्रैप भी साबित होता है।

Treatmet: Dejavu (फिल्म) के जैसी ये कहानी बहुत ही जबरदस्त पटकथा लिए हुए है। लेखक ने कोई कसर नहीं छोड़ी है इसे इंट्रेस्टिंग बनाने में, और मेरे ख्याल से ये इनकी पहली कहानी से ज्यादा इंट्रेस्टिंग है।

Positive Points: साइंस फिक्शन होने के बावजूद भी इसमें आपने डेस्टिनी वाली बात को न सिर्फ जोड़ा बल्कि कहानी में दिखाया भी है, वो इसका मुख्य आकर्षण है।

Negative Points: मुझे तो ऐसा कुछ नही दिखा सिवाय एक दो एडिटिंग मिस्टेक्स के।

Sugesstion: जबरदस्त लेखक हैं आप, रेगुलर लिखा करें।

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