“मिन्टू, महाबलेश्वर पहुँचते ही फ़ोन कर देना... नहीं तो तुम्हारी माँ चिंता करेंगी...” मामा जी ने चलते-चलते हिदायद दे दी थी।
“जी मामा जी...” मनीष ने कहा था।
वो तो माँ और मामा जी ने ज़िद पकड़ ली, नहीं तो मनीष का मन बिलकुल नहीं था महाबलेश्वर जाने का। लेकिन कभी-कभी कुछ काम मन मार कर भी करने पड़ते हैं।
यह यात्रा वैसा ही काम था।
‘माँ भी न! मेरी एक शादी से उनका मन नहीं भरा, जो इस दूसरी शादी के लिए मामा से कहला-कहला कर मुझको मज़बूर कर दिया उन्होंने!’
मामा जी इस दरमियान उसको बड़ी चतुराई से समझाते रहे, और बार-बार कहते रहे कि, ‘मिन्टू तू ये मत सोचना कि तुझे वहाँ शादी करने के लिए भेज रहे हैं... वहाँ मेरे दोस्त, ब्रिगेडियर कुशवाहा का फार्महाउस है... वहाँ तू उसकी फैमिली के साथ कुछ दिन छुट्टियाँ बिताने भेज रहे हैं... तुझे याद नहीं होगा, लेकिन कुशवाहा ने तुझे छुटपन में देखा था। उसी ने बहुत कह के बुलाया है! तेरे पहुँचने के अगले ही हफ़्ते मैं आ जाऊँगा!’
मामा जी चाहे जितनी भी कहानी बना लें, लेकिन मनीष अच्छी तरह समझता था कि यह सारा खेल उसकी दूसरी शादी कराने के लिए ही रचा गया है!
‘दूसरी शादी! हुँह!’
यह सोच कर ही मनीष का मन कड़वाहट से भर गया... उसका दिल जलने लगा! उस अपमान की याद आते ही वो खिन्न हो गया। नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी!
शादी... सात जन्मों का साथ! ऐसा साथ जिसको कोर्ट में दलीलों द्वारा ‘नल एंड वॉयड’ सिद्ध करने का प्रयास किया! तलाक़ तक भी ठीक था, लेकिन उस दौरान जो नंगा नाच हुआ... उसके कारण मनीष का मन मर गया था! उसको अब हर स्त्री केवल छलावा लगती!
पूरे दस साल हो गये थे उस हादसे को। लेकिन दिल पर लगे हुए घाव यूँ थोड़े ही भर जाते हैं! बात-बात पर वो फिर से ताज़े हो जाते हैं।
आख़िर जो कुछ हुआ, उसमें उसका अपराध ही क्या था!
*
उसकी विधवा माँ को कितनी मुश्किलें हुई थीं उसको पालने में! स्कूल में टीचर की नौकरी कर के उसे पाला, अच्छे संस्कार दिए, और जीवन में कुछ कर दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया। माँ की ही मेहनत का परिणाम था, कि वो एनडीए में सेलेक्ट हुआ। उसके ग्रेजुएशन के दिन माँ कैसी खुश थीं! और फिर जैसा होता है, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए, अनेकों रिश्तों में से एक रिश्ता चुना था उसके लिये! आईएएस की बेटी, पल्लवी। मनीष की माँ इतनी सीधी और सरल थीं, कि वो घर-बार और मेहमान-नवाज़ी देख कर, और पल्लवी की सुंदरता पर मोहित हो गईं।
‘ऐसा रिश्ता कहाँ मिलेगा बेटा?’ उन्होंने कहा था, ‘...सब रिश्ते ईश्वर के घर पर बनाए जाते हैं...’
सभी ने ज़ोर दिया, इसलिए मनीष और पल्लवी, घर के एकांत में बस थोड़ी ही देर के लिए मिले। बस एक-दो शब्दों का आदान-प्रदान! उसके बाद वो अचानक ही उठ कर चली दी थी... मनीष को लगा कि शायद पल्लवी शरमा गई है! उस दिन के बाद भी किन्ही कारणों से उन दोनों की बातें न हो सकीं, और न ही मुलाकातें। चट लड़की दिखाई, और पट ब्याह! और फिर माँ की जल्दबाज़ी के कारण भी समय नहीं मिल सका।
शादी के ताम-झाम के बाद जब उसको अपनी अर्धांगिनी को इत्मीनान से जानने समझने का अवसर मिला, तो फूलों से सजी सुहाग-सेज पर उसको लाल जोड़े में सजी अपनी दुल्हन नहीं मिली... बल्कि शलवार कुर्ते में, पैर सिकोड़ कर सोती हुई पल्लवी मिली। उस समय पल्लवी की यह अदा बड़ी ‘क्यूट’ लगी थी उसको! लेकिन यह भ्रम कुछ ही घण्टों में टूट गया।
सुबह उसके जागते ही, उसको अपनी तरफ सर्द नज़रों से देखती हुई पल्लवी दिखी।
पल्लवी ने भावनाशून्य तरीके से कहा था, ‘मुझे छूना मत... ये शादी मेरी मर्ज़ी की नहीं है मनीष! ये बस एक कॉम्प्रोमाइज़ है।’
‘कॉम्प्रोमाइज़? कैसा?’ उसको समझ ही नहीं आया।
‘मैं अभी इस बारे में बात नहीं करना चाहती...’
मनीष को काटो खून नहीं, ‘अरे मेरे साथ शादी नहीं करनी थी, तो तभी मना क्यों नहीं कर दिया?’
‘किया था... बहुत बार मना किया था! लेकिन कोई माना नहीं।’
‘तो? ...अब?’
‘अब क्या? कुछ भी नहीं! मैं यहाँ नहीं रहूँगी...’ उसने कहा था।
उसका सुन्दर सा चेहरा कैसा ज़हर भरा हो गया था!
वो दिन बोझिल सा बीता। अगले ही दिन पल्लवी अपने मायके लौट गई।
अगले हफ़्ते उसकी जगह आया उसकी शादी को ‘नल एंड वॉयड’ करने का कोर्ट का नोटिस!
आरोप? आरोप यह कि मनीष इम्पोटेंट है।
इम्पोटेंट? नपुंसक! पौरुषहीन! वो, भारतीय सेना का जाँबाज़, एक नपुंसक है! पत्थर होकर रह गया था वो कुछ समय के लिए।
माँ, मामा जी, और पल्लवी के घरवालों के साथ कहा-सुनी के दौरान होने वाला अपमान उसको भीतर तक जलाता रहा। आरोप सिद्ध न होना था, तो न हो सका। लेकिन मनीष का मन इतना खट्टा हो गया, कि वो स्वयं ही यह सम्बन्ध नहीं चाहता था। उसने खुद ही तलाक़ कबूल लिया!
दस साल हो गए उस बात को!
वो जान बूझ कर, लगातार फ़ील्ड में एक्टिव पोस्टिंग लेता रहा... कभी लेह, कभी कारगिल, तो कभी सोपियां...
माँ को बीच-बीच में उसके ब्याह की बात सालती... अपने पोता-पोती होने की कल्पना उनको भी होती! लेकिन मनीष दूसरी शादी की बात टालता रहता। लेकिन पिछले साल उसकी पोस्टिंग जोधपुर हो गई। हाई-कमान भी लगातार किसी को एक्टिव पोस्टिंग नहीं देता। थोड़ी शांति हुई, तो माँ की ज़िद बढ़ गई। मनीष उनकी बात कैसे मना कर दे? और कितनी बार?
हर बार तो बस वही बहस...
‘माँ...’ उसने दलील दी थी, ‘अगले महीने पैंतीस का हो जाऊँगा... ये कोई उम्र होती है शादी करने की?’
‘फ़ालतू बात न कर... पैंतीस क्या उम्र है आजकल?’
*
दरअसल कुछ हफ़्तों से मामा जी ही माँ को महाबलेश्वर वाली पट्टी पढ़ा रहे थे। इसलिए माँ ने भी हठ पकड़ लिया, इसलिए वो उनकी बात टाल न सका। कम से कम उनका मन रखने के लिए ही वो महाबलेश्वर चला जाना चाहता था।
इस बार माँ और मामा जी दोनों ही बहुत सतर्क थे। वो चाहते थे कि मनीष लड़की और उसके परिवार के साथ कुछ समय बिता ले, और उनको ठीक से समझ ले। ब्रिगेडियर कुशवाहा वैसे भी मामा जी के साथ ही आर्मी में थे। दोनों एक दूसरे को जानते थे, और उनकी अच्छी दोस्ती थी। परिवार की तरफ़ से कोई परेशानी नहीं थी। उनकी एक छोटी बहन थी, जो अनब्याही थी। उसने किन्हीं कारणों से अभी तक शादी नहीं करी थी। यह बंदोबस्त उन्ही दोनों के लिए था।
महाबलेश्वर सुन्दर जगह है, लेकिन वहाँ जाने को लेकर मनीष उत्साहित नहीं था। उसने सोचा था कि इस बार छुट्टी ले कर माँ के साथ अधिक से अधिक समय बिताएगा, और उनको चार धामों की यात्रा भी करा देगा। लेकिन माँ तो माँ ही हैं! उन्होंने कह दिया कि सारे तीर्थ यूँ ही हो जाएँगे, अगर उसकी शादी हो जाए!
सब सोच कर मनीष का मन भारी हो गया। वो बस की खिड़की से बाहर झाँकता है। शाम हो रही थी, लेकिन उसकी रंगत आनी बाकी थी। पहाड़ी के घुमावदार रास्तों में बस आराम से चल रही थी, और अनेकों पक्षियों के झुण्ड, शोर मचाते हुए अपने-अपने घोंसलों और बसेरों को लौटने लगे थे। वो सामने वाली सीट की ओर देखता है - एक छोटी बच्ची उसको देख कर मुस्कुरा रही थी। उसकी निश्छल मुस्कान देख कर वो भी बिना मुस्कुराए नहीं रह सका। बच्ची की मुस्कान को देख कर उसके दिल को थोड़ी ठंडक आती है। अचानक से ही कड़वे, दुःखदायक विचार छू-मंतर हो जाते हैं, और उसका मन हल्का हो जाता है।
‘आज़ादी में कितना सुकून है...’ एक नया ख़याल उसके मन आया, ‘जीवन के पैंतीस बसंत आज़ाद रह कर मैं शादी की बेड़ी में कैसे बँध जाऊँ!’
हमारा समाज भी तो अजीब है! जैसे अनब्याही लड़की को लोग संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं, वैसे ही अनब्याहे पुरुष को भी! कोई आपको चैन से बैठने नहीं देता। पिछले कुछ समय से वो सोच रहा था कि, बीस साल नौकरी कर के वो रिटायर हो जाए... फ़िर कहीं बाहर जा कर बस जाए! वैसे भी, उसकी स्किल-सेट से उसको बहुत सी नौकरियाँ विदेशों में भी मिल जाएँगी। फिर क्यों शादी-वादी के जंजाल में फंसना? बेकार का झंझट!
उसकी नजर फिर से बच्ची की तरफ़ चली गई। वो अभी भी उसकी तरफ़ ही देख रही थी। दोनों फ़िर से मुस्कुरा उठे।
‘कितनी प्यारी सी बच्ची है!’
उसके मन में एक और विचार आया कि, काश, उसकी भी ऐसी ही प्यारी सी संतान होती!
शाम अब गहरी होने लगी थी।
‘रात आठ बजे से पहले नहीं पहुँचने वाले महाबलेश्वर’, किसी सहयात्री ने टिप्पणी करी।
‘आठ बजे?’ उसने सोचा, ‘ठीक है... आज रात किसी होटल में ठहर जाऊँगा, और ब्रिगेडियर साहब से सवेरे ही मिलूँगा!’
न जाने क्यों उसको ठण्ड लगने लगी!
‘लेह, कारगिल के शेर को वेस्टर्न-घाट में ठण्ड लग रही थी! धिक्कार है!’ उसने मन ही मन सोचा, और मुस्कुरा उठा।
बस की खिड़की के बाहर लगातार अँधेरा फैल रहा था। पहाड़ियों और वृक्षों की आकृतियाँ, अँधेरे में घुलने लगी थीं। और उसी पसरते अँधेरे के साथ उसके मन में वापस अन्धकार घिरने लगा।
उसने सामने देखा... शायद बच्ची अभी भी उसको देख रही हो! लेकिन बच्ची शायद अपनी माँ की गोदी में सो गई थी।
‘क्यों जा रहा है वो वहाँ बेवजह! ...केवल सभी का टाइम-वेस्ट होगा, बस! क्या शादी से ज़रूरी और कोई काम नहीं? ...क्यों बनाई गई है ये फ़िज़ूल व्यवस्था? ...मुझे करनी ही नहीं है शादी! कोई क्यों नहीं समझता ये बात?’
उसके मन में फिर से चिढ़ उठने लगी। वो गहरी साँस ले कर महाबलेश्वर पहुँचने का इंतज़ार करने लगा।
*
आठ नहीं, बस साढ़े आठ बजे पहुँची महाबलेश्वर!
बस-स्टॉप पर उतर कर वो अपना सामान निकलवा ही रहा था कि उसको अपने कन्धे पर एक हाथ महसूस हुआ,
“हेल्लो जेन्टलमैन,” उसको एक जोशीली, रौबदार आवाज़ सुनाई दी, तो वो पीछे घूम गया, “आई एम ब्रिगेडियर कुशवाहा...”
“गुड ईवनिंग सर!” उसने कहा और पूरी गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया।
“वेलकम टू महाबलेश्वर माय डियर!”
“थैंक यू सो मच सर! लेकिन आपने आने की तकलीफ़ क्यों करी? मैं कल आ जाता...”
“नॉनसेंस! तुम हमारे मेहमान हो, और जेन्टलमैन भी!” फिर अपने ड्राइवर की तरफ़ मुखातिब होते हुए, “तेजसिंह, साहब का सामान गाड़ी में रखो।”
“जी साहब!”
“मनीष, तुम्हारे रहने का इंतजाम हमारे साथ ही है... बँगले में!”
“लेकिन सर...”
“लेकिन क्या भाई?”
जिस अंदाज़ में ब्रिगेडियर साहब ने यह सवाल किया, मनीष ने अपना सवाल ही बदल दिया,
“आपने मुझे इतने लोगों में पहचान कैसे लिया?”
“ओह... हा हा हा! अरे यार, सिवीलियन्स की भीड़ में एक जेन्टलमैन ऑफ़िसर को पहचानना क्या मुश्किल काम है!”
ऐसे ही बातचीत करते, अँधेरे में डूबे पहाड़ी रास्तों से होते हुए, ब्रिगेडियर कुशवाहा के फार्महाउस पहुँचने में कोई पंद्रह मिनट लग गए। रास्ते में सारी बातें ब्रिगेडियर साहब ही करते रहे... मनीष केवल ‘हाँ हूँ’ कर के सुनता रहा। उनकी प्रॉपर्टी में प्रवेश करते ही मनीष को समझ में आ गया कि एक बहुत बड़े भूखण्ड में उनका फार्महाउस है। अन्दर पहुँच कर जहाँ तेजसिंह मनीष का सामान उसके कमरे में रखने चला गया, वहीं कुशवाहा साहब घर के अन्दर जा कर कहीं गायब हो गए। मेहमान-कक्ष की साज-सज्जा बड़ी ही सुरुचिपूर्ण थी। अनगिनत सुन्दर पेन्टिंग्स... देखने में लग रहा था कि सभी एक ही पेंटर ने बनाई हैं।
मनीष कक्ष का जायज़ा ले ही रहा था, कि पर्दों के पीछे से एक सुन्दर सा चेहरा झाँकता हुआ सा दिखा - एक पल मनीष को लगा कि वो भी कोई पेंटिंग है। लेकिन जब उस चेहरे पर मुस्कान आई तो समझा कि पेंटिंग नहीं, लड़की है।
मनीष के चेहरे पर आते जाते भावों को देख कर वो भी हँसने लगी।
“नॉटी गर्ल...” इतने में ब्रिगेडियर साहब भी पर्दे के पीछे से वापस प्रकट हुए, और अपने साथ उस लड़की को भी लेते आए...
वो बोले, “मनीष, ये मेरी बेटी है... चित्रांगदा... बीएससी सेकण्ड ईयर में पढ़ रही है।”
“हेल्लो!”
“हेल्लो!” चित्रांगदा ने अल्हड़पन से कहा।
“चित्रा बेटा, जाओ मम्मी को यहाँ बुला लो, और किचन में चाय और स्नैक्स के लिए बोल दो!”
“जी पापा!”
“एक सेकंड बेटा, ...मनीष... ड्रिन्क्स?”
“ओह? नो सर!”
“नहीं पीते?”
“सर... ऐसा नहीं है... लेकिन...”
“मतलब मेरे साथ नहीं?”
“नो सर... आई मीन, ओके सर, आई विल हैव वन...”
“गुड मैन...” कुशवाहा जी प्रसन्न होते हुए बोले, “बेटा, केवल स्नैक्स के लिए कहना!”
स्नैक्स तुरंत ही आ गए। साथ ही श्रीमति कुशवाहा भी! वो एक सुन्दर और सभ्रान्त महिला थीं - फौजी की पत्नी! उनके अंदर वही रुआब था, लेकिन बातचीत में वो माँ जैसी ही लगीं। अच्छी बात थी!
ड्रिंक्स की औपचारिकता के बाद मनीष को पहली मंज़िल पर बने गेस्टरूम में ले आया गया। गेस्टरूम क्या, वो दरअसल एक छोटा सा, सुविधा-युक्त फ्लैट था।
बहुत सुकून था यहाँ। मनीष अब समझ रहा था कि ब्रिगेडियर साहब ने ऐसा जीवन जीना क्यों चुना। अनावश्यक रोशनियाँ नहीं थीं, इसलिए आकाशगंगा साफ़ दिखाई दे रही थी! आनंद आ गया उसको। फिर उसको याद आया कि दस बजे रात्रिभोज के लिए कहा था कुशवाहा साहब ने। वो जल्दी से तैयार हो कर नीचे उतरा।
“मनीष... मेरी वाईफ और बेटी से तुम मिल ही चुके हो... अब इनसे मिलो, शोभा... मेरी छोटी बहन। सर जेजे स्कूल ऑफ़ आर्टस में फाईन-आर्टस की प्रोफ़ेसर हैं... मुंबई में रहती हैं, लेकिन आज कल यहाँ आई हैं, हमारे साथ छुट्टियाँ बिताने... और ये है मेरा बेटा, अतुल... आईआईटी बॉम्बे में इंजीनियरिंग कर रहा है... और ये हैं मेजर मनीष सिंह... मेरे दोस्त लेफ्टीनेंट कर्नल सेंगर के भाँजे! ये हमारे साथ छुट्टियाँ बिताने आए हैं!”
इस औपचारिक परिचय की ज़रुरत नहीं थी, क्योंकि सभी को पता था मनीष के बारे में! हाँ, मनीष को अवश्य ही सबके बारे में अभी पता चला। ख़ास कर शोभा के बारे में। इन्ही के साथ उसके विवाह की बात हो रही थी।
परिचय के बाद भोजन आरम्भ हुआ, और फिर अनौपचारिक बातें होने लगीं। पता चला कि अतुल कल सवेरे ही वापस मुंबई चला जाएगा।
“शोभा...” कुशवाहा साहब ने अपनी बहन से पूछा, “तुम रुकोगी न कुछ दिन?”
“जी भैया... लेकिन दो दिन बाद मेरे स्टूडेंट्स की एक एक्सहिबीशन थी...”
“ओह बुआ!” चित्रांगदा ने मनुहार करते हुए कहा, “रूक जाओ न कुछ दिन! भैया कल चले जायेंगे... और आप तो बस अभी-अभी आई हैं! ...ये क्या बात हुई भला!”
“ठीक है...” शोभा ने मुस्कुराते हुए कहा।
मनीष ने पहली बार शोभा को ग़ौर से देखा।
गेहुँआ-गोरा रंग, बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ, बस थोड़े से चौड़े नथुने, और स्निग्ध त्वचा! बहुत लम्बे बाल नहीं, लेकिन जुड़े में बंधे हुए। पूरा व्यक्तित्व बहुत परिपक्व, प्रभावशाली, और सौम्य! भरा हुआ, लेकिन समानुपातिक जिस्म! बेडौल कत्तई नहीं। आज-कल के फैशन के जैसे, आधी जाँघ तक का कुर्ता और जींस पहने हुए। बातचीत कर के ऐसा ही लगता कि ठहरी हुई, बुध्दिजीवी महिला हो।
फिर उसकी नज़र चित्रांगदा पर पड़ी। आँखें अपने पिता जैसी, लेकिन होंठ और नाक अपनी माँ जैसी ही सुन्दर सुगढ़। दुबली-पतली सी लड़की, लेकिन क़द में ऊँची... आँखों में चंचलता...
वो देख ही रहा था कि चित्रांगदा बोल पड़ी, “क्या देख रहे हैं आप? पापा देखिए न... आपके मेहमान तो कुछ खा ही नहीं रहे!”
“ओह हाँ... अरे मनीष... भई, और लो न!”
*
सुबह वो बड़ी जल्दी ही उठ गया। यात्रा की थकावट से नींद नहीं आई, और फिर बंगले ने नीचे चहल-पहल से जो कच्ची सी नींद थी, वो टूट गई। नीचे देखा कि पूरा परिवार अतुल को विदाई देने जमा था। मनीष भी भाग कर नीचे आया और अतुल को अलविदा कहा।
दोबारा नींद नहीं आई। इसलिए वो नहा-धो कर नीचे आ गया।
चित्रांगदा भी जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर के कॉलेज जाने की तैयारी में थी। मनीष के लिए चाय वहीं आ गई।
“मेरा तो मन ही नहीं कर रहा कॉलेज जाने का... लेकिन आज मेरा एक प्रैक्टिकल है! मिस नहीं कर सकती! ...बाहर बुआ पेन्टिंग बना रही हैं... घर में जो भी पेंटिंग्स हैं, सब उन्ही ने बनाई है!” उसने चंचलता से बताया, “साथ में बैठ जाईये उनके... बोर नहीं होंगे। ...और हाँ, शाम को जब वापस आऊँगी, तब घूमने चलेंगे। ओके?”
चित्रांगदा की बातों पर वो हँस दिया। बिना हँसे रहा भी कैसे जाए? वो है ही ऐसी चंचल!
चाय पी कर वो बाहर आया... शोभा सचमुच पेन्टिंग बनाने में व्यस्त थी।
वो उसके पीछे जा कर खड़ा हो गया।
“ओह... आप!” जब शोभा को एहसास हुआ कि कोई उसके पीछे खड़ा है, तो वो उसको देख कर बोली।
“जी...” वो शोभा की प्रतिभा से प्रभावित था, “बहुत सुन्दर पेंटिंग है!”
शोभा मुस्कुराई, और फिर अपने हाथ पोंछ कर उठने लगी।
“अरे, आपने इसको अधूरा क्यों छोड़ दिया? पूरा कर लीजिए न?”
“लगता नहीं कि ये कभी पूरी होगी... पंद्रह महीनों से काम चल रहा है इस पर... लेकिन ये है कि पूरी ही नहीं हो पा रही है!”
“...फिर तो ये ज़रूर ही आपकी मास्टरपीस होने वाली है!”
इस बात पर दोनों ही हँस दिए।
उसने नोटिस किया कि हँसती हुई शोभा बहुत सुन्दर लगती है।
उसने पेन्टिंग को ध्यान से देखा... लगा कि चित्रांगदा की तस्वीर है! हाँलाकि पेंटिंग में चेहरा अभी भी अधूरा था, लेकिन उसकी आँखें, नाक और होंठ... बालों का बिखराव... हाँ, उसी की तस्वीर है!
“ये चित्रांगदा की तस्वीर है?” उसने पूछ ही लिया।
“वैरी गुड!” शोभा ने हँसते हुए, आश्चर्य से कहा।
हँसते हुए ही उसने अपने बालों से जूड़ा पकड़ने वाला काँटा निकाला... उसके बाल उसकी कमर से ऊपर तक बिखर गए, और बयार में उड़ने लगे। ऐसे में वो गौर से देखे बिना न रह सका शोभा को! उधर शोभा ने उसकी जाँच-पड़ताल को नज़रअंदाज़ किया, और नाश्ता वहीं बाहर लॉन में लगवाने चली गई। जब नाश्ता लग गया, तो परिवार के सदस्य भी वहीं आ गए। ब्रिगेडियर कुशवाहा भी अतुल को गाड़ी में चढ़ा कर वापस आ गए थे। नाश्ते पर उन्होंने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी... ऐसी बातचीत लम्बी चलती है। शोभा कोई शायद इस बात में कोई इंटरेस्ट नहीं था। वो उठ कर अंदर चली गई।
शायद इसी मौके की तलाश थी ब्रिगेडियर साहब को! तो तुरंत ही मुद्दे पर आ गए।
“तो मनीष... शोभा के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?”
मनीष अचकचा गया। क्या कहे वो इस बारे में!
“मनीष, बेटा... देखो... हमको तुम्हारे बारे में सब मालूम है! शोभा को भी! ...हम तुमसे बड़े हैं, और तुम दोनों का भला चाहते हैं! ...समय निकल रहा है, इसलिए अब तुम दोनों को ही शादी के बारे में डिसिशन ले लेना चाहिए! ...बस यूँ समझ लो कि गृहस्थी के स्टेशन तक जाने वाली ये आख़िरी गाड़ी है... जाना है, तो पकड़ लो! नहीं तो इस सफर को ही टाल दो!”
“जी...”
और क्या बोले वो?
“शोभा तुमसे उम्र में बड़ी है... यह बात तुम्हारी माँ और मामा जी को पता है। ...लेकिन वो इतनी बड़ी भी नहीं कि तुम दोनों अपना परिवार न बना सको!”
वो बोल रहे थे और मनीष सुन रहा था, समझ रहा था,
“आई नो दैट इट इस टू अर्ली! इसलिए मैं चाहता हूँ तुम दोनों जितना पॉसिबल हो, साथ में टाइम बिता कर, अपना डिसिशन हमको बता दो।”
*
शाम तक वो अपने कमरे में पड़ा इसी विषय पर सोचता रहा।
‘शोभा अच्छी दिखती है... सुलझी हुई लगती है... आर्मी वाली फैमिली से है... कैरियर वुमन है... क्या हाँ कह दूँ?’
“हेल्लो!” एक चहकती हुई आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई, “...क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में सोच रहे थे न?”
“अरे चित्रांगदा... आप कब आईं?”
“इतना लम्बा नाम लेने की ज़रुरत नहीं! आप मुझे चित्रा कह कर बुला सकते हैं!” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “सभी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं!”
“अरे चित्रा... आप कब आईं?”
मनीष को खुद पर विश्वास नहीं हुआ कि वो उसके साथ इतना खुला कैसे महसूस करने लगा।
“कब से तो आकर खड़ी हूँ आपके लिए चाय ले कर!” वो हँसती हुई बोली, “लेकिन आप हैं कि बुआ जी की यादों में गुम हैं!”
मनीष ने उसकी बात को नज़रअंदाज़ किया, “कॉलेज कैसा था?”
“एस युसुअल...”
उसने नोटिस किया कि शलवार कुर्ते में चित्रा अपनी उम्र से बड़ी लगती है।
दोनों ने चाय पी ली, तो चित्रा ने उसकी बाहें पकड़ कर उसे खींचना शुरू कर दिया, “चलिए... जल्दी से चेंज कर लीजिए न! हमको घूमने भी तो चलना है!”
“हमको? कौन-कौन है ‘हम’ में?”
“पापा मम्मी तो चाहते है कि केवल आप और बुआ जी जाएँ... लेकिन जाना तो मुझे भी है!” फिर मनुहार करती हुई वो बोली,
“प्लीज़ मनीष अंकल... आप मम्मी से कहिए न कि चित्रा भी साथ चलेगी!”
“अंकल?” मनीष ने उसकी बात पर चोटिल होने का नाटक करते हुए कहा, “इतना उम्रदराज़ लगता हूँ क्या?”
“लगते तो नहीं... लेकिन क्या कहूँ आपको?” फिर एक क्षण सोच कर बोली, “‘मनीष जी’ चलेगा?”
“चलेगा!”
*
चित्रा को उन दोनों के साथ चलने की इज़ाज़त मिल गई।
शोभा भी चाहती थी कि चित्रा साथ रहे, और मनीष भी।
दोनों ही एक दूसरे से अकेले में मिलना टाल रहे थे।
एक उम्र के बाद, अधिकतर लोगों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है किसी से प्रेम करना, उसको अपनाना, और उसके साथ अपना जीवन बिताने का प्रण लेना!
‘उसकी ही तरह शोभा को भी अपनी स्वतंत्रता की आदत हो गई होगी।’ मनीष सोच रहा था, ‘शोभा बहुत अच्छी तो है! लेकिन... फिर भी... इतनी जल्दी कैसे हाँ कर दे वो?’
“मनीष जी? चलें?” चित्रा ने उसका हाथ पकड़ लिया।
एक उत्साह से भरा स्पर्श!
“आपकी बुआ जी कहाँ हैं?”
“इतनी जल्दी कहाँ? उन्हें तो तैयार होने में बहुत टाइम लगता है!” वो हँसने लगी।
इतने में शोभा भी बाहर आ गई। साड़ी पहनी हुई थी उसने। हर परिधान में वो अनूठी लगती!
“मैं ड्राईव करूँ?” चित्रा ने कहा।
“नॉट येट चित्रा! तुम्हारा अभी भी लर्नर्स है!” कह कर शोभा ने स्टीयरिंग सम्हाली।
पूरे रास्ते भाई चित्रा ही बोलती रही। मनीष और शोभा दोनों ही ख़ामोश थे! अपने अपने ख़यालों में डूबे हुए। कुछ देर बाद, एक मंदिर के सामने ले जा कर शोभा ने गाड़ी रोक दी।
“मैं अभी आई...” उसने कहा और मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
“आपकी बुआ जी बहुत धार्मिक लगती हैं!”
“उम्... उतनी नहीं। फिलहाल वो इस मंदिर में अपने एक स्केच के लिये फोटो लेने गई हैं।”
“ओह!”
“आपने क्या सोचा कि वो यहाँ मन्नत माँगने आई हैं कि, ‘हे भगवान, इस हैण्डसम फौजी से मेरी शादी करा ही दो’!” चित्रा ठहाके मार कर हँसने लगी, “इस ग़लतफ़हमी में न रहिएगा मनीष जी! ...अभी तक मेरी बुआ ही सभी प्रोपोज़ल्स को रिजेक्ट करती आई हैं! नहीं तो उनकी शादी तो कब की हो जाती।”
सच में, इस खुलासे पर मनीष की अकल ठिकाने आ गई।
“जानते हैं?” चित्रा ने एक राज़ की बात कही, “वो मिस बॉम्बे भी रह चुकी हैं!”
इस बात पर मनीष चुप ही रहा - हाँ, ज़रूर रही होंगी मिस बॉम्बे!
“आपने मेरी बात का बुरा तो नहीं माना न?”
“कमऑन चित्रा... बच्चों की बात का क्या बुरा मानना!”
“बाई द वे मनीष जी, मैं बच्ची नहीं हूँ... आपको एक बार ‘अंकल’ क्या बोल दिया, आपने तो मुझे बच्चा ही मान लिया!”
“अच्छा मिस चित्रांगदा, आप बच्चा नहीं हैं... प्लीज़ मुझे माफ़ कर दें!” मनीष उसके सामने हाथ जोड़ कर बोला।
“श्श्श्शशः... बुआ आ गई।” कह कर चित्रा ने मनीष का हाथ दबा दिया।
कुछ अलग ही बात थी उसके स्पर्श में!
मनीष न चाह कर भी चित्रा के बारे में सोचने लगा। शोभा के बगल बैठ कर भी, पिछली सीट पर बैठी चित्रा के बारे में सोचता रहा। वेन्ना लेक पहुँचते हुए थोड़ी शाम हो गई... कोई अन्य टूरिस्ट नहीं दिखे। ये लोग ही आखिरी थे, शायद! शोभा को नाव में चढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी! इसलिए वो झील के किनारे ही एक बेंच पर बैठ गई। मनीष न चाह कर भी चित्रा के साथ बोटिंग करने चला गया।
“आपको पता है? सनसेट में सभी की आँखों का रंग बदल जाता है... देखो...”
बोल कर उसने अपने चेहरा मनीष के सामने कर दिया।
मनीष ने जो देखा, उसने उसके होश उड़ा दिए। चित्रा की आँखें! ओफ्फ़!
“मनीष जी?”
“हम्म?”
“क्या देख रहे थे?”
‘सच बोल दूँ क्या?’
“... यही कि तुम बहुत सुन्दर हो...” जैसे अपने ही शब्दों पर से उसका नियंत्रण हट गया हो।
“हाँ... हूँ... तो? क्या फ़र्क़ पड़ता है? नेचर में तो हर चीज सुन्दर है... मुझे तो हर चीज सुन्दर लगती है!”
वो मुस्कुराया, “हाँ... जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे भी सब सुन्दर लगता था।”
“और अब?”
“अब? अब अपने अंदर कुछ बदल गया है। ...रियलिटी अलग होती है, यह सीख मिल गई है।”
“रियलिटी अलग होती है? क्या ये लेक रियल नहीं है? वो बत्तखों का झुंड रियल नहीं है?”
“है चित्रा... रियल है!” उसने गहरा निःश्वास भरा।
“मनीष जी...” उसने बात पलटते हुए कहा, “पापा से सुना था कि आप कविताएँ लिखते हैं! लिखते हैं, या नहीं?”
“तुमको इंटरेस्ट है?”
“हाँ... बहुत!”
“हम्म... अब नहीं लिखता!”
“पर क्यों?”
“वही बात...”
“रियलिटीज़?” चित्रा ने कहा, तो मनीष की फ़ीकी सी हँसी निकल आई।
मनीष के मन में अलग ही तार छिड़ गया।
‘चित्रा... अगर तुम जैसी कोई इंस्पिरेशन होती, तो शायद कविताएँ लिखता रहता... ज़िन्दगी बहुत कुत्ती चीज़ होती है... यह सब बातें तुमसे कैसे कहूँ? तुम्हें ये सब कह कर डराना नहीं चाहता... भगवान करे कि तुम्हें ज़िन्दगी के ब्यूटीफुल ट्रुथ्स देखने को मिलें!’
“मनीष जी, उतरिए न! किनारा आ गया... आप हमेशा किस सोच में पड़ जाते हैं?”
तब तक शोभा भी किनारे पर आ गई थी, “कैसी रही बोटिंग, मनीष जी?”
“इंटरेस्टिंग...”
*
बोटिंग के बाद वो सभी एक ज्यूलरी की दुकान पर आ गए जहाँ अधिकतर नकली (मतलब चाँदी पर सोने की परत चढ़ी हुई, और अन्य सेमी-प्रेशियस स्टोन्स वाली) ज्यूलरी मिलती थी।
“अरे शोभा जी! नमस्ते! कैसी हैं आप? भैया भाभी कैसे हैं?”
“हम सब अच्छे हैं, गुप्ता जी... अच्छा, इस बार मेरे लिये क्या ख़ास है?”
“बहुत दिनों बाद आई हैं आप... आपने जो पेंडेंट डिज़ाइन किया था न, वो फॉरेनर्स को बहुत पसंद आया है... और ख़ूब बिका है!”
“हम्म... मतलब आपने मेरी डिज़ाइन कॉमन कर दी, गुप्ता जी।” ये कोई शिकायत नहीं थी।
मनीष और चित्रा स्टोर के बाहर ही बैठ गए।
“तुम्हें ज्यूलरी में इन्टरेस्ट नहीं है?”
“है न! लेकिन बुआ की जैसी ज्यूलरी में नहीं... वो न जाने कहाँ-कहाँ से अतरंगी डिज़ाइन कॉपी कर कर के पहनती हैं। ...मेरा तो मन करता है कि फूल पहनूँ... सुन्दर सुन्दर... रंग बिरंगे!”
“ओह... वनकन्या...?”
उस बात पर दोनों हँस दिए।
“वैसे...” मनीष ने थोड़ा सा हिचकते हुए कहा, “सुन्दर लड़कियों को ज्यूलरी की ज़रुरत ही कहाँ है?”
“हाँ न! जैसे... मुझे!”
दोनों फिर से हँसने लगे।
चित्रा बोली, “मनीष जी, जब से आप आए हैं, तब से हम कितना हँसने लगे हैं! है न? ...कभी-कभी तो लगता है कि घर में हँसना ही मना है! सब सीरियस रहते हैं...”
“चित्रा...” अचानक ही शोभा बाहर आती है।
“हाँ बुआ...”
“ये नेकलेस देख... तेरे जॉर्जेट वाले सूट के साथ बढ़िया लगेगा...”
“हाँ... अच्छा है बुआ।”
फिर शोभा मनीष की तरफ़ मुखातिब हो कर बोली, “मनीष जी... और, ये आपके लिए है...”
उसने एक छोटा सा डब्बा उसकी तरफ़ बढ़ाया।
“मेरे लिए? क्या है ये?” उसने उत्सुकता से पूछा।
“देख लीजिए न...”
मनीष ने बच्चों जैसी उत्सुकता दिखाते हुए वो डब्बा खोला... उसमें सुन्दर से कफलिंक्स थे। सुन्दर तोहफा था। एक लंबा अर्सा हो गया था किसी से कोई तोहफा मिले उसको।
“थैंक यू सो मच...” मनीष ने सच्चे मन से शोभा के लिए आभार दिखाया।
फिर उसने कुछ नया देखा - पहली बार शोभा की आँखों में आत्मीयता थी... इसलिए उसकी मुस्कान भी आत्मीयतापूर्ण थी।
‘सुन्दर तो बहुत है शोभा...’ उसके मन में विचार आया, ‘हाँ कह दूँ?’
*
मनीष को महाबलेश्वर आए हुए चार दिन बीत गए थे अब।
शोभा से बात करने के बहुत से अवसर मिले उसको और अब उसको शोभा का साथ अच्छा लगने लगा था। उधर चित्रा के साथ आत्मीयता भी बहुत बढ़ गई थी... लगभग दोस्तों की तरह आत्मीयता!
आज डिनर के बाद दोनों साथ ही मनीष के कमरे के बाहर बैठे हुए थे।
“जानते हैं? अगर मैं बुआ की जगह होती न, तो आपसे मिलते ही आपसे शादी के लिये हाँ कर देती...”
“हा हा...”
“मनीष जी,”
“हम्म?”
“आपके बारे में कुछ सुना था।” उसने हिचकते हुए कहा।
“जो सुना है, वो सच ही होगा।”
फिर से थोड़ी हिचक, “वो लड़की कैसी होगी न... बिना आपको जाने... उसने वो सब...”
“चित्रा, छोड़ो न उस बात को... ये सोचो न... शायद उसकी कोई मजबूरी रही हो...”
“क्या मजबूरी हो सकती है? ...क्या वो किसी और को चाहती थी?”
“हो सकता है...”
थोड़ा सोचती हुई, “... ऐसा क्यों होता है, मनीष जी? ...कम से कम शादी तो जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए न! ...जो मन से न हुई, वो कैसी शादी? वो आप से प्यार नहीं करती थी, लेकिन आप से ब्याह दी गई... फिर वो सारा तमाशा! क्या फ़ायदा हुआ? कम से कम प्यार के लिए तो शादी करनी ही चाहिए... है न?”
मनीष एक फ़ीकी सी हँसी दे कर बोला, “तुम अभी छोटी हो चित्रा... लाइफ बहुत अलग होती है... यू नो... प्यार से अलग एक बहुत बड़ी दुनिया है... समाज में... संसार में हम सभी के अपने अपने रोल्स होते हैं, जो इमोशंस पर नहीं डिपेंड करते...”
“आई नो...” चित्रा ने बुझी हुई आवाज़ में कहा, फिर अचानक से चहकती हुई, “... अच्छा... आप बुआ जी से शादी करेंगे?”
“पता नहीं चित्रा... सच कहूँ? मैं शादी करने का सोच कर आया ही नहीं यहाँ... मेरे... मेरे मामा... उन्होंने मुझे अपने बेटे की तरह पाला है... उनकी बात को मैं टाल नहीं सका! माँ की भी ज़िद थी...”
“आप बहुत इमोशनल हैं... बुआ बहुत प्रैक्टिकल...”
“मैं इमोशनल हूँ?”
“और नहीं तो क्या?”
“कैसे जाना?”
“आप बहुत अच्छे हैं...” चित्रा ने कुछ देर चुप रह कर कहा।
उसकी आँखों में लाल डोरे दिख रहे थे। उसके होंठ थोड़े से खुले हुए और काँप रहे थे। उसकी नाईट-सूट के ढीले-ढाले कुर्ते से उसकी धड़कन, रात की ख़ामोशी में सुनाई देने लगी थी।
मनीष से कुछ कहते न बना। माहौल अचानक ही बहुत तनावग्रस्त हो गया।
“चित्रा...” मनीष ने अपने ख़ुश्क होते हुए गले से कहा, “...बहुत रात हो गई है... अब जाओ।”
यह एक तरह से विनती थी।
“कॉफी...?” चित्रा से और कुछ कहते न बना।
“नहीं...”
“गुड नाईट...” चित्रा ने ख़ामोशी से कहा।
चित्रा के जाते देख मनीष का मन अनजानी आशंका और डर से काँप उठा। रात में ठण्डक थी... लेकिन फिर भी उसका शरीर पसीने से नहा गया।
रात बहुत भारी बीती।
*
वो सुबह देर से उठा।
नित्य-क्रिया से निवृत्त हो कर जब वो बाहर आया, तो सामने शोभा को चाय और नाश्ता लिए खड़ा देखा।
“बड़ी देर तक सोए आज आप... देर रात तक ये नॉवेल पढ़ते रहे?”
शोभा ने उसके बिस्तर पर पड़ा नॉवेल उठा कर एक नज़र देखा, और फिर वापस रख दिया।
मनीष चकित रह गया।
‘नॉवेल? ये कहाँ से आया!’
उसने आभारपूर्वक चाय नाश्ता शोभा के हाथों से ले लिया।
“सवेरे आपके मामा जी का फोन आया था... कह रहे थे कि आज रात यहाँ आ जाएँगे...” शोभा ने कहा।
“ओह? ...अच्छी बात है...”
मनीष और शोभा ने साथ में चाय पी! चुपचाप। ब्रेकफास्ट भी!
यह चुप्पी शोभा ने ही तोड़ी, “आज हम दोनों से पूछा जाएगा... आपने कुछ सोचा है?”
“जी? जी... मैंने तो कुछ नहीं सोचा...”
शोभा को थोड़ी निराशा हुई... उसने धीरे से कहा, “... तो फिर... सोच लीजिए... कोई जवाब तो देना ही पड़ेगा। इसीलिए आपको यहाँ बुलाया गया है, और मुझे भी!”
“शोभा... मैं क्या कहूँ? ...हम अभी जानते ही क्या हैं एक दूसरे के बारे में?”
“जानने की मोहलत तो बस इतनी ही थी, मनीष जी...” शोभा ने मुस्कुराते हुए कहा, “ज़िन्दगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं एक दूसरे के बारे में?”
बात तो सही ही थी।
“आपने मेरे बारे में सुना ही होगा...”
“हाँ... हम सभी ने सुना है! बिलीव मी, हम में से कोई भी उस बात पर भरोसा नहीं करता... और... वैसे भी, वो सब पास्ट की बातें हैं, मनीष... सभी का पास्ट होता है कुछ न कुछ... वो सब भुला दीजिए...”
“जी... लेकिन एक बात बताईए... क्या आपको ठीक लगेगा... इतने दिनों की आज़ाद ज़िन्दगी के बाद यूँ बंधना?”
“आपको जान कर ऐसा तो नहीं लगता कि आप मुझे बाँध कर रखेंगे... आपकी ही तरह मैं भी पर्सनल फ़्रीडम में बिलीव करती हूँ...”
“और आपकी जॉब?”
“अपनी जॉब तो मैं नहीं छोड़ूँगी, मनीष... वो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है! ...लेकिन अगर शादी की बात आगे बढ़ती है, तो मैं लम्बी छुट्टी ज़रूर ले सकती हूँ...”
“तो... आपने डिसाइड कर लिया?”
“हाँ... मनीष... देखो... मैं थक गई हूँ! रियली! थक गई हूँ लोगों के क्वेशन्स से... उनकी सिम्पथी से!”
“थक तो मैं भी गया हूँ शोभा... लेकिन, क्या ये कॉम्प्रोमाइज़ नहीं है?”
“ये भी तो हो सकता है कि हम एक दूसरे को सच में पसन्द करने लगें?” शोभा ने मुस्कुरा कर कहा, और कप और प्लेटें उठाने लगी।
मनीष बस उसको देखता रह गया।
“... तो,” शोभा ने ही आगे कहा, “आज शाम को डिनर से पहले तुम डिसाइड कर लेना... कुछ भी हो, लेकिन डिसाइड ज़रूर कर लेना! एंड डोंट वरी... चाहे अफरमेटिव हो, या नेगेटिव... मेरी तरफ़ से तुमको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी...”
शोभा बोली और सामान ले कर बाहर चली गई।
उसके बाहर जाते ही मनीष ने नॉवेल उठाया। मिल्स एंड बून्स का एक रोमांटिक नॉवेल था! ऐसी किताबें वो कभी पढ़ता ही नहीं! उसने नॉवेल को उलट-पलट कर देखा, और पन्ने पलटे। नॉवेल के अन्दर एक अलग सा ही कागज़ मोड़ कर रखा हुआ था... नॉवेल के अन्य पन्नों से अलग। मनीष उस कागज़ को निकाल कर न जाने किस प्रेरणा से पढ़ने लगा,
‘मुझे नहीं पता कि क्या हो रहा है मेरे साथ... ऐसा लग रहा है कि मैं कहीं बही जा रही हूँ! किधर... पता नहीं। लेकिन जब से आप यहाँ आए हैं, मुझे अच्छा लगने लगा है। अपने खुद के होने पर अच्छा लगने लगा है। आप मुझसे बहुत बड़े हैं... न जाने ये सब पढ़ कर आप क्या सोचें! लेकिन, अगर मैं ये सब आपको न बताती, तो घुट के मर जाती... आई ऍम इन लव विद यू... मैं खुद पर हैरान हूँ... लेकिन न जाने क्या बात है कि मैं आपकी तरफ़ खिंची जा रही हूँ... कल रात न जाने क्या हुआ मन में... ऐसा लगा कि अपना सब कुछ सौंप दूँ आपको... लेकिन...’
‘चित्रा!!’
वो ख़त पढ़ कर मनीष के मन में तूफ़ान उमड़ आया।
‘अगर ये लेटर शोभा पढ़ लेती, तो? ...क्या सोचती वो? कितना बखेड़ा हो जाता!’
मनीष का गला सूख गया!
बड़ी घबराहट में, तैयार होकर वो बाहर निकला। मन अशांत था उसका। खुद को संयत करने के लिए वो बहुत दूर तक पैदल ही चलता गया। लेकिन प्रकृति उसको आराम न दे सकी। बहुत चलने से थकावट भी हो गई। थक कर रास्ते के किनारे बैठ कर वो सुस्ताने लगा। थोड़ा सुकून पा कर जब उसने अपनी आँख मूँदी, तो आँखों के अँधेरे पटल पर चित्रा का चेहरा उभर आया!
उसकी सुन्दर, मासूम सी आँखें... वो चंचल सी मुस्कान...
उसका मन भारी हो चला... जो वो पिछले एक-दो दिनों से महसूस कर रहा था, वो सच था!
चित्रा उसको चाहने लगी थी... और... और... वो भी तो...!
नियति कितनी क्रूर हो सकती है!
चित्रा... वो अल्हड़ सी लड़की... मानों सोने का अनगढ़ पिण्ड हो... जिसको वो जैसा चाहे, गढ़ सकता था!
चित्रा के साथ अपनी सम्भावना की बात सोच कर ही उसका दिल दहल गया।
उसने सोचा कि यह सब जो हो रहा था, ठीक नहीं हो रहा था। ब्रिगेडियर साहब का विश्वास... मामा जी का भरोसा... माँ के दिए हुए संस्कार... इन सभी के साथ वो विश्वासघात कैसे कर दे?
मनीष ने सोचा कि वो कल ही महाबलेश्वर से चला जाएगा! आज रात जब मामा जी यहाँ आएँगे, तो वो शोभा के साथ रिश्ते को मना कर देगा। इस विचार से उसको थोड़ा सम्बल मिला।
वन्य रास्तों में बहुत देर भटकने के बाद वो वापस लौटने लगा। ब्रिगेडियर कुशवाहा के बँगले की तरफ़ मुड़ने वाले रस्ते पर कदम पड़े ही थे, कि उसको चित्रा आती दिखाई दी। साइकिल पर...
देखने से परेशान लग रही थी।
मनीष को देखते ही बोली, “क्या हो गया आपको? कहाँ थे? पता है, मम्मी, पापा और बुआ... सभी परेशान थे!”
मनीष कुछ न बोला।
उसकी चुप्पी का कारण वो समझ गई।
“मनीष जी, आपको परेशान करने का इन्टेशन नहीं था मेरा... लेकिन मैं आपके लिए अपनी फ़ीलिंग्स कन्फेस किए बिना नहीं रह सकती थी...”
मनीष के गले में जैसे फाँस पड़ गई हो... भर्राए गले से बोला, “...और मैं किससे कन्फेस करूँ? हम्म?”
“आप... आप... ओह्ह... फ़िलहाल अभी यहाँ से चलिए... घर नहीं... मुझे आपसे बात करनी है एक बार...”
कोई पाँच मिनट बाद दोनों वृक्षों के पीछे एकांत की पनाह में बैठे हुए थे।
चित्रा ने मनीष को देखा - उसकी आँखों में आँसू थे।
“मनीष जी... मैंने जो कुछ भी लिखा है, वो सब सच है! ...आप मेरा फर्स्ट क्रश... नहीं... क्रश नहीं, प्यार हैं। शायद... शायद मैं आपसे ये सब कभी न कहती... लेकिन कल रात... आपके इतने क़रीब बैठ कर... ओह मनीष... आई लव यू...”
“चित्रा... चित्रा... आई कांट अंडरस्टैंड एनीथिंग... क्या करूँ मैं अब!”
“नहीं जानती... लेकिन मनीष... मैं करती भी तो क्या?”
“कुछ भी नहीं चित्रा... मैं कल जा रहा हूँ यहाँ से... शायद यही ठीक रहेगा... मेरे लिए... तुम्हारे लिए... हमारे लव्ड वन्स के लिए... इतनी हिम्मत नहीं है मुझमें कि इतने लोगों का भरोसा तोड़ दूँ...”
“लेकिन बुआ जी...”
“अब आ रहा है बुआ जी का ख़याल? ...अरे बेवक़ूफ़ लड़की, अगर वो लेटर उनके हाथ लग जाता, तो जानती है क्या होता?” मनीष बुरी तरह से झल्ला गया था, “...न बाबा... मुझे नहीं करनी कोई शादी वादी... बेकार ही फँस गया बैठे बिठाए...”
वो तड़प कर बोला और सर पकड़ कर धम्म से ज़मीन पर बैठ गया।
उसका वो रूप देख कर चित्रा भी रोने लगी।
मनीष का दिल भी उसको रोते देख कर टूट गया... वो उसके पास आ कर, उसके हाथों को थाम कर बोला,
“मैं क्या करूँ, चित्रा? ...जैसे मैं तुम्हारे मन में बस गया, वैसे ही तुम भी तो मेरे मन में बस गई हो... लेकिन ये सही नहीं है... मेरा जो होना हो, वो हो, लेकिन तुम पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए। इसलिए मुझे यहाँ से जाना ही होगा।”
चित्रा उसकी बाँह को पकड़ कर, रोते हुए बोली, “आप कहीं मत जाओ... आप बुआ जी से शादी कर लो... आप आज यूँ बिना बताए घर से चले गए न, तो मैंने उनको पहली बार टूटते हुए देखा है... वो पापा से कह रही थीं कि, ‘भैया... मनीष को देख कर पहली बार लगा है कि शादी कर लेनी चाहिए... और मेरी किस्मत देखो... मैं उसको पसन्द ही नहीं... वो यूँ बिना कुछ कहे सुने चला गया’”
मनीष के दिल में ये सब सुन कर टीस उठ गई।
“और... तुम....”
“मैं? मेरा क्या?” उसने बुझी हुई आवाज़ में कहा।
मनीष ने लपक कर चित्रा को अपने सीने में छुपा लिया।
‘ओह... ये लड़कियाँ... इनको समझा भी कैसे जाए!’
चित्रा ने भी उसको कस कर पकड़ लिया।
कुछ समय बाद मनीष ने चित्रा को अपने से अलग किया, “बस चित्रा... अब शांत हो जाओ! घर चलते हैं अब... वहाँ जा कर मैं क्या करूँगा, मुझे खुद ही पता नहीं... लेकिन तुम प्रॉमिस करो, कि कोई बेवकूफी वाला काम नहीं करोगी।”
*
कुछ समय पहले मनीष वापस नहीं जाना चाहता था, और अब चित्रा नहीं जाना चाहती थी। मनीष उसकी बाँह पकड़ कर, लगभग खींचते हुए उसको वापस घर लाया।
दोनों जब घर पहुँचे, तो सभी लोग चित्रा की रोई हुई, लाल आँखें देख कर, और मनीष को भीषण तनाव में देख कर चुप ही रहे।
उन्होंने क्या सोचा होगा, पता नहीं। लेकिन किसी ने उन दोनों से कुछ भी पूछा और न उनसे कुछ कहा।
शाम को जब मामा जी वहाँ आए, तो सभी लोग घर के माहौल को जितना सामान्य दिखा सकते थे, दिखा रहे थे। रात्रि-भोज के समय टेबल पर न तो शोभा ही थी, और न ही चित्रा!
जैसा सभी को पूर्वानुमान था, मामा जी ने मनीष से उसके निर्णय के बारे में पूछा। उनके सामने बैठ कर मनीष ‘न’ नहीं कह सका। उसने बस ‘हाँ’ में सर हिला दिया।
*
शोभा से शादी के लिए रज़ामंदी देने के बाद समय मानों पंख लगा कर उड़ गया। मनीष को ऐसा लगा कि जैसे वो अपनी ही शादी की प्रक्रिया में दर्शक मात्र था! जैसे वहाँ वो नहीं, उसकी जगह कोई अन्य व्यक्ति था।
शोभा के साथ सगाई हुई... और फिर कुछ ही दिनों बाद शादी!
हर तरफ ख़ुशी का माहौल था। रस्मों-रिवाज़ों का आनंद, और परिवारजनों की खिलखिलाहट हर तरफ़ फ़ैली हुई थी। लेकिन मनीष चित्रा की हँसी में छुपे दर्द को महसूस कर पा रहा था! आखिरकार, वही दर्द उसका भी तो था!
*
कुछ दिनों पहले वो जिस कमरे में मेहमान बन कर रहा था, अब वही कमरा उसका और शोभा का हो गया था। सुहागरात के प्रथम मिलन के बाद मनीष की बाँहों में आलस्य से मचलती शोभा, उसका हाथ खींच अपने स्तन पर रख लेती है। मनीष को भी अच्छा लग रहा था; वो भी संतुष्ट था! लेकिन फिर भी कुछ था जो उसको भीतर ही साल रहा था।
रात के कोई तीन बज रहे होते हैं, जब उसकी नींद टूटती है। बिस्तर से उठ कर खिड़की के पास बैठ जाता है... वहाँ से उसको चित्रा का कमरा दिखता है।
कमरे में बत्ती जल रही है...
कुछ टूट जाता है उसके मन में...
अनायास ही उसको चित्रा के शब्द याद आ जाते हैं, ‘मन का क्या है मनीष जी... टूट गया, तो फ़िर जुड़ जाएगा...’
*