• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,553
354
अध्याय - 118
━━━━━━༻♥༺━━━━━━





सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

✮✮✮✮

कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
 

R@ndom_guy

Member
413
654
93
अध्याय - 118
━━━━━━༻♥༺━━━━━━





सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

✮✮✮✮

कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Rupa jaisa prem sach me devi ki bhakti se hi mil skta hai
Aur ye sabit karta hai ki devi ki bhakti or sachcha prem kabhi nishfal ni hota
 

Game888

Hum hai rahi pyar ke
3,353
6,751
158
Interesting update bro
अध्याय - 117
━━━━━━༻♥༺━━━━━━



मोटर साइकिल को स्टार्ट कर के मैंने भाभी को पीछे बैठाया और फिर चल पड़ा। ठंडी हवा चेहरे से टकराई तो एक अलग ही सुकून महसूस हुआ। रास्ते में भाभी मुझसे कई तरह की बातें करती रहीं। वो महसूस करना चाहती थीं कि मेरी हालत में कितना सुधार हुआ है। ख़ैर कुछ ही समय में हम दोनों हवेली पहुंच गए।


अब आगे....


रात खा पी कर सुगंधा देवी जब अपने कमरे में पहुंचीं तो दादा ठाकुर को पलंग पर अधलेटी सी अवस्था में कुछ सोचते हुए पाया। सौभाग्य से आज बिजली गुल नहीं थी इस लिए कमरे में बल्ब का मध्यम प्रकाश था और साथ ही कमरे की छत पर लटक रहा पंखा भी मध्यम गति से चल रहा था।

सुगंधा देवी ने दरवाज़े को अंदर से कुंडी लगा कर बंद किया और फिर जा कर पलंग पर बैठ गईं। उनके आने की आहट से दादा ठाकुर सोचो के भंवर से बाहर आ गए थे किंतु चेहरे के भावों से यही प्रतीत हो रहा था जैसे अभी भी मन में कुछ चल रहा हो।

"क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?" सुगंधा देवी ने उनके चेहरे को ग़ौर से देखते हुए पूछा____"ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कुछ चल रहा है आपके मन में।"

"नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने जैसे लापरवाही से कहा____"बस ऐसे ही मन में इधर उधर की बातें गूंज रहीं थी।"

सुगंधा देवी ने बड़े ध्यान से अपने पति परमेश्वर को देखा। पिछले तीस सालों से वो उनकी जीवन संगिनी बनी हुईं थी। इतना तो वो समझतीं ही थी कि दादा ठाकुर के चेहरे पर उभरने वाले भाव कौन सी कहानी बयां करते थे? ख़ैर उन्होंने उठ कर अपनी रेशमी साड़ी को अपने बदन से अलग किया और फिर उसे सलीके से तह कर के लकड़ी की आलमारी के पास दीवार में लगी लकड़ी की खूंटी पर टांग दिया। उसके बाद वो वापस पलंग की तरफ बढ़ चलीं। अब उनके बदन पर सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज था।

सुगंधा देवी का जिस्म इस उमर में भी ऐसा कसा हुआ और तंदुरुस्त था कि वो जवान औरतों को भी मात देती थीं। एकदम गोरा सफ्फाक़ बदन जिसमें कहीं कोई दाग़ नहीं था। उमर के चलते बदन में थोड़ा भराव ज़रूर हो गया था लेकिन उसे मोटापा हर्गिज़ नहीं कहा जा सकता था। ब्लाउज में कैद बड़ी बड़ी छातियां अभी भी जवान औरतों की तरह तनी हुईं थी। उसके नीचे हल्का निकला हुआ गोरा सफ्फाक़ पेट जिसके बीच में गहरी किंतु खूबसूरत नाभी थी।

दादा ठाकुर ने एक भरपूर नज़र उनके जिस्म पर डाली और फिर सुगंधा देवी की आंखों की तरफ देखा। सुगंधा देवी तब तक पलंग के पास पहुंच कर पलंग में बैठ चुकीं थी।

"ऐसे क्या देख रहे हैं?" दादा ठाकुर को अपलक अपनी तरफ देखता देख सुगंधा देवी के चेहरे पर सहसा लाज की सुर्खी उभर आई, फिर बोलीं____"इरादे तो नेक हैं ना आपके?"

"अभी तक तो नेक ही थे।" दादा ठाकुर पहले तो हड़बड़ाए फिर हल्के से मुस्कुरा कर बोले____"मगर लगता है आज आप हमें गुस्ताख़ी करने पर मजबूर कर देंगी।"

"तो इतनी देर से अकेले में यही सोचते बैठे रहे थे आप?" सुगंधा देवी आंखों में थोड़ा हैरत के भाव ला कर बोलीं____"हमें लगा था कोई गंभीर बात थी।"

"अरे! ऐसी बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने जैसे ख़ुद को सम्हाला____"असल में अभी जब हमने आपको इस अवस्था में देखा तो बस यूं ही मज़ाक में कह दिया आपसे।"

"अच्छा जी मज़ाक में कहा है आपने?" सुगंधा देवी ने बनावटी हैरानी दिखाई____"हमें तो लगा था कि एक मुद्दत बाद आज किसी अन्य दिशा से सूर्य निकल आया है।"

"ऐसा क्यों कहती हैं आप?" दादा ठाकुर के माथे पर सहसा शिकन उभर आई।

"ख़ैर जाने दीजिए।" सुगंधा देवी ने बेचैनी से पहलू बदला____"वैसे सच सच बताइए इतनी देर से किन ख़यालों में खोए हुए थे आप?"

दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ ना बोले। कुछ देर तक वो ध्यान से सुगंधा देवी के चेहरे पर मौजूद भावों को समझने की कोशिश करते रहे, फिर एक दीर्घ सांस लेने के बाद बोले____"हम असल में रागिनी बहू और वैभव के बारे में सोच रहे थे।"

"उन दोनों के बारे में??" सुगंधा देवी अनायास ही चौंकीं____"ये क्या कह रहे हैं आप?"

"आज शाम जब हम और किशोरी लाल जी बैठक में बैठे हुए थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"उसी समय बाहर से रागिनी बहू और वैभव को आते देखा था। हम ये सोच कर थोड़ा चौंके थे कि जाते समय तो आप उसके साथ थीं तो वापसी में वो वैभव के साथ क्यों आई थी?"

"वो दरअसल बात ये है कि वापसी में हम अपने बेटे के पास गए थे।" सुगंधा देवी ने बताया____"सोचा था उसे भी अपने साथ ही हवेली ले आएंगे लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया था। हमारे बहुत ज़ोर देने कर वो माना लेकिन कहने लगा वो बाद में आएगा। अब आपको तो पता ही है कि इस समय वो जिस तरह की हालत में है उसमें हम उस पर ज़्यादा ज़ोर ज़बरदस्ती अथवा दबाव नहीं डाल सकते। इस लिए हमने रागिनी से कहा कि चलो हम लोग चलते हैं तब रागिनी ने ही कहा कि वो भी वैभव के पास कुछ देर वहीं बैठेगी और फिर उसे ले कर ही हवेली आएगी। वैसे, उसको वैभव के साथ आया देख आप इतना सोच में क्यों पड़ गए थे? कहीं आपके मन में उसके चरित्र के प्रति कोई संदेह तो नहीं पैदा हो गया?"

"नहीं नहीं, ऐसा तो हम सोच भी नहीं सकते सुगंधा।" दादा ठाकुर ने झट से कहा____"उसके चरित्र पर संदेह करना पाप करने के समान है। हम तो उस वक्त उन दोनों को साथ देख कर कुछ और ही सोचने लगे थे।"

"क्या मतलब है आपका?" सुगंधा देवी जैसे उलझ सी गईं____"आप क्या सोचने लगे थे?"

"उन दोनों को देख कर हम गुरु जी द्वारा कही गई बातें सोचने लगे थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"उनके अनुसार हमारे बेटे के जीवन में ऐसी दो औरतों का योग था जो उसकी पत्नी बनेंगी। अनुराधा की हत्या हो जाने से पहले तक हम यही सोच रहे थे कि उसके जीवन में उसकी पत्नी के रूप में जो दो औरतें आएंगी वो रूपा और अनुराधा ही होंगी। ये अलग बात है कि हम अपनी बहू रागिनी को हमेशा खुश देखने और उसके जैसी बहू की चाहत में उसका ब्याह भी वैभव से कर देने की सोच रहे थे। अब जबकि उस मासूम लड़की अनुराधा की मौत हो चुकी है तो अनायास ही हम ये सोचने लगे थे कि कहीं वो दूसरी औरत हमारी बहू रागिनी तो नहीं थी?"

सुगंधा देवी के मनो मस्तिष्क में एकाएक जैसे धमाका सा हुआ। पलक झपकते ही उनके ज़हन में भी ये बात बैठती चली गई। चेहरे पर हैरत के भाव लिए वो दादा ठाकुर को देखने लगीं।

"अरे! हां ये तो सही कह रहे हैं आप।" फिर उन्होंने उसी हैरत के साथ कहा____"अभी तक ये बात हमारे मन में आई ही नहीं थी। आती भी कैसे? हालात ही ऐसे बने हुए हैं कि इस तरफ हमारा ध्यान ही नहीं गया।"

"यानि अब आप भी इस बात को मानती हैं कि जिन दो औरतों की बात गुरु जी ने कही थी उनमें से एक रूपा है तो दूसरी हमारी बहू रागिनी है।" दादा ठाकुर के चेहरे पर अजीब से भाव थे।

"निःसंदेह।" सुगंधा देवी ने सिर हिलाया____"अब तो यही लग रहा है ठाकुर साहब और शायद इसी लिए उन्होंने ये भी कहा था कि अगर हम चाहते हैं कि रागिनी बहू हमेशा के लिए हमारे पास ही बहू के रूप में रहे तो हम उसकी शादी वैभव से कर दें।"

"बिल्कुल ठीक कहा आपने।" दादा ठाकुर ने उत्साहित भाव से कहा____"हालाकि ज़ाहिर तौर पर उन्होंने दो औरतों में रागिनी की बात नहीं कही थी। यानि कहीं न कहीं उन्हें भी इस बात का अंदेशा था कि इस तरह की कोई घटना घटेगी और फिर अंततः रागिनी उन दो औरतों की गिनती में आ जाएगी।"

"इसका मतलब तो ये भी हुआ कि उन्हें अनुराधा की हत्या वाली घटना होने का पहले से ही अंदेशा था।" सुगंधा देवी ने सोच पूर्ण भाव से कहा____"और बताया इस लिए नहीं क्योंकि उनके अनुसार वो विधि के विधान में कोई हस्ताक्षेप नहीं करना चाहते थे?"

"हां शायद यही बात हो सकती है।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"सिद्ध पुरुष लोग कभी भी दैवी विधान पर कोई बाधा उत्पन्न नहीं करते।"

"तो अब क्या सोचा है आपने?" सुगंधा देवी ने सहसा गहरी सांस ले कर पूछा।

"उन दोनों को साथ में आया देख हम यही सब सोचने लगे थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर हमने फ़ैसला कर लिया है कि अब हम जल्द से जल्द इस बारे में समधी जी से बात करेंगे।"

"वो तो ठीक है ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"लेकिन हमें लगता है कि इस मामले में अभी हमें ज़ल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। हमारा मतलब है कि अभी तो हमारा बेटा भी ऐसी मानसिक हालत में नहीं है कि वो ये सब ठंडे दिमाग़ से सुन सके या इस पर विचार कर सके।"

"उसका दिमाग़ ठंडा करने का भी इंतज़ाम हो गया है ठकुराईन।" दादा ठाकुर के होठों पर सहसा रहस्यपूर्ण मुस्कान उभर आई____"और वो इंतज़ाम ऐसा है कि अब हमें वैभव की ऐसी मानसिक हालत की कोई चिंता ही नहीं रही।"

"बड़ी हैरतअंगेज बातें कर रहे हैं आप?" सुगंधा देवी एकाएक चकित भाव से बोलीं____"आख़िर ऐसा क्या हो गया है जिसके चलते आप हमारे बेटे के लिए एकदम से निश्चिंत हो गए हैं?"

"असल में साहूकार गौरी शंकर हमसे मिलने आया था।" दादा ठाकुर ने कहा____"वो भी अपने होने वाले दामाद की ऐसी मानसिक हालत के लिए चिंतित था। ख़ैर अपने दामाद को इस स्थिति से बाहर निकालने का उसने हमें एक ऐसा अद्भुत उपाय बताया जिसे सुन कर हम चकित रह गए थे।"

"ऐसा कौन सा उपाय बताया था उसने?" सुगंधा देवी और भी ज़्यादा चकित नज़र आईं।

उनके पूछने पर दादा ठाकुर ने उन्हें गौरी शंकर की सारी बातें बता दी। जिसे सुन कर सुगंधा देवी बहुत ज़्यादा हैरान हुईं। कुछ देर तक वो जाने क्या सोचती रहीं।

"बड़ी ही दिलचस्प बात है ये।" फिर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हमें तो यकीन ही नहीं हो रहा कि गौरी शंकर इस मामले में इतनी बड़ी बात सोच सकता है और उस पर अमल भी कर सकता है। ख़ैर तो आपने क्या जवाब दिया उसे?"

"अब क्योंकि ये उसका ही सुझाव था और इसमें कोई बुराई भी नहीं थी तो हमने फ़ौरन ही उसे मंजूरी दे दी।" दादा ठाकुर ने कहा____"आख़िर हम भी तो यही चाहते हैं कि हमारा बेटा जल्द से जल्द इस मानसिक अवस्था से बाहर निकल आए और फिर वो उसी तरह अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने लगे जैसे इसके पहले वो निभा रहा था।"

"क्या आपको लगता है कि गौरी शंकर की भतीजी हमारे बेटे को उसकी ऐसी मानसिक हालत से निकालने में कामयाब होगी?" सुगंधा देवी ने कहा____"सीधी सी बात है कि जब वो लड़की इसके पहले अपना सब कुछ सौंप कर भी हमारे बेटे के दिल में अपने प्रति प्रेम की भावना नहीं जगा सकी थी तो क्या अब वो ऐसे हालात में ऐसा कुछ कर पाएगी?"

"आपकी बात अपनी जगह सही हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो पहले नहीं हो सका वो कभी नहीं हो पाएगा। आप भी जानती हैं कि पहले में और अब में बहुत फ़र्क आ चुका है। पहले आपका बेटा क्या था और अब क्या बन गया है। इसी आधार पर हम ये बात इतने यकीन के साथ कह रहे हैं कि जो पहले नहीं हो सका वो अब ज़रूर होगा। वैसे भी पहले तो उस लड़की में बहुत सी पाबंदियां थी जबकि अब ऐसा नहीं है। वो अपने होने वाले पति की बेहतरी के लिए पूरी आज़ादी से कुछ भी करेगी।"

"शायद आप ठीक कह रहे हैं।" सुगंधा देवी ने सिर हिलाया____"ख़ैर ये सब तो ठीक है लेकिन अब हमारी बहू का क्या? हमारा मतलब है कि उसे इस बात के लिए कैसे राज़ी किया जाए कि वो अपने ही देवर से ब्याह कर ले?"

"हां ये ज़रूर सोचने का विषय है अब।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"ये आसान नहीं होगा लेकिन अगर गुरु जी की बातों को सच मान कर चलें तो संभव है कि उसे राज़ी करने में हमें इतनी मुश्किल भी न आए। ख़ैर, फिलहाल तो इस बारे में हम सबसे पहले समधी साहब से बात करेंगे। उनकी रज़ामंदी के बाद ही सोचेंगे कि उसे कैसे राज़ी किया जाए?"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं फिर दोनों ही चादर ओढ़ कर लेट गए। दोनों का ज़हन जाने कैसे कैसे विचारों में उलझा हुआ था और फिर जाने कब नींद ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया।

✮✮✮✮

सुबह हुई।
साहूकार गौरी शंकर के घर में काफी चहल पहल थी। सब हंसी खुशी जल्दी जल्दी अपने अपने कामों में लगे हुए थे। आज काफी समय बाद इस घर के लोगों के चेहरों पर खुशी की चमक नज़र आ रही थी। आज से पहले जिस लड़की से कोई बात करना तो दूर उसकी तरफ देखना तक गवारा नहीं करता था आज सब उसे अपनी पलकों पर लिए हुए थे।

रूपा के कमरे का आलम ही अलग था। ऐसा लग रहा था जैसे आज उसकी वैसे ही विदाई की तैयारियां हो रहीं थी जैसे ब्याह के बाद होती हैं। रूपा से उमर में जो बड़ी बहनें थी वो उसे खुशी खुशी सजाने के लिए आईं थी। उसकी दोनों भाभियां भी थीं। सब की सब उसे छेड़े जा रहीं थी। ऐसी ऐसी बातें बोल कर हंसने लगतीं थी कि रूपा बेचारी शर्म से पानी पानी हो जाती थी। कमरे के दरवाज़े की ओट में खड़ी उसकी मां ललिता देवी नम आंखों से अपनी बेटी की खुशी और उसका शर्म से पानी पानी होना देख रही थी। सहसा जाने क्या सोच कर उसकी एक आंख से आंसू का एक कतरा छलक पड़ा और गोरे गाल से होते हुए नीचे ज़मीन पर जा गिरा। उसने हड़बड़ा कर अपने आंसू पोछे और फिर पलट कर बाहर चली गई।

कुछ देर में फूलवती कमरे में दाख़िल हुई। उसने जब सबको इस तरह से रूपा को छेड़ते देखा तो झूठा गुस्सा दिखाते हुए सबको डांटना शुरू कर दिया। उसकी डांट सुन कर सब चुप हो गईं। फूलवती इस परिवार की थोड़ी सख़्त महिला थीं जिनके सामने बाकी औरतें और लड़कियां कम ही बोलती थीं। बहरहाल फूलवती ने सबको डांटते हुए कहा कि वो रूपा को सामान्य तरीके से ही तैयार करें। क्योंकि वो अभी सचमुच की दुल्हन बन कर नहीं जा रही है बल्कि एक ज़रूरी काम से जा रही है।

फूलवती की इन बातों से सभी लड़कियों का और दोनों भाभियों का चेहरा उतर गया। उनकी इच्छा यही थी कि वो सब रूपा को किसी दुल्हन की तरह तैयार कर के ही विदा करें। ख़ैर जल्दी ही सबको ये समझ आ गया कि सच में रूपा को दुल्हन की तरह नहीं सजाना चाहिए।

कुछ ही देर में सबने रूपा को सामान्य तरीके से तैयार कर दिया। एक थैले में उसकी ज़रूरत के हिसाब से कपड़े डाल दिए और वो सब सामान भी जो लड़कियां प्रयोग करती हैं।

सुबह के आठ बज रहे थे। ललिता देवी ने अपने हाथों से और बड़े प्यार से अपनी बेटी रूपा को खाना खिलाया। रूपा खाना कम खा रही थी रो ज़्यादा रही थी। आज काफी समय के बाद उसे अपनी मां का इतना स्नेह और प्यार मिल रहा था। अपनी बेटी को यूं आंसू बहाते देख ललिता देवी की भी आंखें बरस रहीं थी। ये सोच कर कि उसने इतने समय तक अपनी बेटी का कितनी कठोरता से दिल दुखाया था। ख़ैर किसी तरह रूपा ने खाना खाया। सब उसको घेरे हुए थीं।

रूपचंद्र बैठक में गौरी शंकर के पास बैठा हुआ था। रेखा ने आ कर उससे कहा कि रूपा अब जाने को तैयार है तो वो उठ कर अंदर की तरफ चल पड़ा। जल्दी ही वो अंदर आंगन में पहुंच गया। उसकी नज़र रूपा पर पड़ी। आज उसे अपनी बहन अलग ही नज़र आ रही थी। जब हर तरफ से इंसान को प्यार और खुशी मिलती है तो चेहरा अलग ही नज़र आने लगता है। रूपा के अलग नज़र आने का यही कारण था। अचानक ही रूपा को कुछ याद आया तो वो एकदम से उस तरफ बढ़ चली जिस तरफ परिवार के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति का कमरा था, यानि चंद्रमणि का।

"दादू, देखिए रूपा दीदी आपसे मिलने आई हैं।" शिव शंकर की दूसरी बेटी मोहिनी ने पलंग पर पड़े चंद्रमणि को आवाज़ लगाते हुए कहा।

चंद्रमणि के कमज़ोर जिस्म में हलचल हुई। वो करवट लिए लेटा हुआ था। आवाज़ सुन कर वो धीरे से पलटा तो एकाएक उसकी निगाह उसकी दो नातिनों पर पड़ी।

"मैं जा रही हूं दादू।" रूपा ने सहसा आगे बढ़ कर चंद्रमणि के क़रीब आ कर भारी गले से कहा____"आप अपना ख़याल रखिएगा।"

"अ..अरे! कहां जा रही है मेरी बच्ची?" चंद्रमणि ने अपनी कमज़ोर आवाज़ में पूछा।

रूपा को समझ न आया कि वो क्या जवाब दे? उसे एकाएक शर्म महसूस होने लगी। मोहिनी उसे चुप देख हल्के से मुस्कुराई फिर आगे बढ़ कर उसने चंद्रमणि को संक्षेप में सब कुछ बता दिया। सच जान कर चंद्रमणि के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। कुछ देर वो जाने क्या सोचता रहा फिर सहसा उसके चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई। कमज़ोर आंखों में एकाएक आंसू तैरते नज़र आए।

"ई..ईश्वर मेरी बच्ची को सदा खुश रखे।" फिर उसने कांपते स्वर में कहा____"भगवान तेरा कल्याण करे बेटी। अब तू ही इस परिवार की डूबती नैया को बचा सकती है। तेरे ही हाथों इस परिवार के लोगों का भला निहित है।"

"ये आप क्या कह रहे हैं दादू?" रूपा का गला रुंध गया।

"त...तुझे क्या लगता है मुझ बूढ़े को कुछ पता नहीं है?" चंद्रमणि के सूखे होठों पर सहसा मुस्कान उभरी____"अरे! मैं सब जानता हूं मेरी बच्ची। मैं जानता हूं कि तू दादा ठाकुर के बेटे से प्रेम करती है और....और मैं ये भी जानता हूं कि इसके लिए इन सबने तुझे बहुत बुरा भला कहा होगा। तुझे बहुत कष्ट दिए होंगे इन कंजरों ने। अपनी औलाद को अच्छी तरह जानता हूं मैं। आज अगर तू इस उद्देश्य से जा रही है तो मैं समझ गया हूं कि इन लोगों ने तुझे अपना झूठा प्यार दिखा कर ही जाने की अनुमति दी होगी।"

"द...दादू।" रूपा से सहन न हुआ तो वो झपट कर चंद्रमणि से लिपट गई और फूट फूट कर रो पड़ी।

चंद्रमणि ने उसके सिर पर बड़े स्नेह से हाथ फेरा और फिर अपनी कमज़ोर आवाज़ में कहा____"तेरा इस तरह से बिलख बिलख कर रोना बता रहा है कि मैंने जो कहा वो सच है। पत्थर दिल वाले तुझे समझ नहीं सके मेरी बच्ची लेकिन...लेकिन मैं समझता हूं तुझे। मैं समझता हूं कि ईश्वर क्या खेल खेलना चाहता था। ख़ैर तू रो मत मेरी बहादुर बच्ची। तेरे दादू का आशीर्वाद और दुआएं मेरे मरने के बाद भी हमेशा तेरे साथ रहेंगी। तू जा....खुशी खुशी जा। ऊपर वाला तुझे हर पथ पर कामयाब करे और हमेशा खुशियां दे।"

दरवाज़े के पास घर का हर सदस्य खड़ा बातें सुन रहा था और ये सोच कर खुद को कोस रहा था कि अब से पहले क्यों उन लोगों ने रूपा को इतना दुख दिया और उसे नहीं समझा? बहरहाल, रूपा अपने दादू का आशीर्वाद और उनकी दुआएं ले कर बाहर निकली।

एक एक कर के वो सबसे मिली और फिर रूपचंद्र के पीछे पीछे घर से बाहर की तरफ बढ़ चली। सचमुच ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो अपने ससुराल जा रही है। फ़र्क सिर्फ़ इतना ही था कि बेटी जब पहली बार विदा होती है तो वो हद से ज़्यादा रोती है और अपने रुदन से हर व्यक्ति को रुला देती है लेकिन यहां फिलहाल रुदन जैसा माहौल नहीं था। जल्दी ही सब बाहर चौगान में आ गए।

रूपचंद्र अपनी बहन का थैला जीप में रख कर जीप की स्टेयरिंग सम्हाले बैठ गया था। रूपा सबसे मिलने के बाद चुपचाप आ कर जीप में रूपचंद्र के बगल से बैठ गई।

"बेटा, उस मकान को अच्छे से देख लेना।" फूलवती ने रूपचंद्र से कहा____"और जिस किसी भी चीज़ की वहां कमी दिखे तो उसे दूर कर देना।"

"फ़िक्र मत कीजिए बड़ी मां।" रूपचंद्र ने कहा____"मेरे रहते मेरी बहन को किसी भी चीज़ की ना तो कमी होगी और ना ही कोई बाधा आएगी।"

कहने के साथ ही रूपचंद्र ने मन ही मन ईश्वर का नाम लिया और फिर जीप को आगे बढ़ा दिया। पीछे खड़े हर व्यक्ति ने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के सब कुछ अच्छा करने और होने की प्रार्थना की।

सारे रास्ते रूपचंद्र अपने बगल से सोचो में गुम बैठी अपनी बहन को ये समझाता रहा कि वो किसी बात की चिंता न करे। सब कुछ अच्छा ही होगा और ऊपर वाला कभी भी उसके सच्चे प्रेम का निरादर नहीं होने देगा। रूपचंद्र की बातें रूपा के मानस पटल पर टकरा तो ज़रूर रहीं थी लेकिन वो कुछ बोल नहीं रही थी। उसके मन में तो बस यही चल रहा था कि क्या कभी कहीं ऐसा हुआ होगा जो आज उसके साथ होने जा रहा था? क्या किसी के घर वालों ने बिना ब्याहे अपनी बेटी अथवा बहन को इस तरह से विदा किया होगा? क्या किसी लड़की को इस तरह से अपने प्रेम के चलते ऐसा कुछ करना पड़ा होगा?

रूपा ऐसे न जाने कितने ही सवालों के भंवर में उलझी हुई थी। उसे पता ही न चला कि कब रास्ता गुज़र गया और मंज़िल आ गई। जीप के रुकने पर जब रूपचंद्र ने उसे पुकारा तभी वो वर्तमान में आई। उसने चौंक कर इधर उधर देखा तब उसे एहसास हुआ कि वो उस जगह पहुंच गई है जहां पर रह कर उसे अपने होने वाले पति की मानसिक हालत को सुधार कर उसे सामान्य हालत में लाना था। एकाएक उसके ज़हन में कई सवाल चकरा उठे____'क्या वो ऐसा कर पाएगी? क्या उसका यहां पर रहना वैभव को क़बूल होगा? क्या वैभव को ये पसंद आएगा कि वो उसे उसकी मानसिक हालत से बाहर निकालने का प्रयास करे?'

"क्या हुआ?" जीप से उतर कर जब रूपचंद्र ने रूपा को वैसे ही बैठे देखा तो पूछा____"क्या सोच रही है? अरे! अब कुछ मत सोच पागल। चल आ, बेवजह फालतू की बातें सोच कर खुद को हल्कान मत कर।"

रूपा ख़ामोशी से नीचे उतरी। तब तक रूपचंद्र ने जीप से उसका थैला निकाल कर अपने हाथ में ले लिया था। उधर मकान के बाहर किसी जीप के आने की आहट सुन मकान के अंदर मौजूद कुछ ऐसे लोग बाहर निकल आए जो मकान की रखवाली करते थे। बाहर रूपचंद्र और एक लड़की को देख उन सबके चेहरों पर चौंकने वाले भाव उभर आए।

रूपचंद्र जानता था कि उन लोगों को कुछ पता नहीं है इस लिए उसने सीधे सीधे भुवन के बारे में पूछा तो उनमें से एक ने बताया कि भुवन तो छोटे कुंवर के खेतों पर होगा। यूं तो रूपचंद्र को सब पहचानते थे और ये भी जानते थे कि मौजूदा समय में रूपचंद्र से उनके छोटे कुंवर के बेहतर संबंध हैं। बहरहाल रूपचंद्र ने उन सबको बताया कि अब से यहां पर वैभव और उसकी होने वाली पत्नी यानि रूपा इसी मकान में रहेंगे। अतः जल्द से जल्द मकान की साफ सफाई शुरू करवाओ।

पहले तो उन सबको बड़ी हैरानी हुई लेकिन फिर जल्दी ही वो लोग मकान की साफ सफाई में लग गए। इधर रूपा चुपचाप खड़ी इधर उधर देख रही थी। तभी सहसा उसकी घूमती हुई निगाह उस जगह पर जा कर ठहर गई जिस जगह पर अनुराधा का अंतिम संस्कार किया गया था। यहां से भी वो जगह साफ नज़र आ रही थी। रूपा के जिस्म में झुरझुरी सी हुई और फिर वो इस तरह उस तरफ बढ़ चली जैसे कोई अज्ञात ताक़त उसे अपनी तरफ खींचने लगी हो।




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
 

Kuresa Begam

Member
243
711
108
अध्याय - 117
━━━━━━༻♥༺━━━━━━



मोटर साइकिल को स्टार्ट कर के मैंने भाभी को पीछे बैठाया और फिर चल पड़ा। ठंडी हवा चेहरे से टकराई तो एक अलग ही सुकून महसूस हुआ। रास्ते में भाभी मुझसे कई तरह की बातें करती रहीं। वो महसूस करना चाहती थीं कि मेरी हालत में कितना सुधार हुआ है। ख़ैर कुछ ही समय में हम दोनों हवेली पहुंच गए।


अब आगे....


रात खा पी कर सुगंधा देवी जब अपने कमरे में पहुंचीं तो दादा ठाकुर को पलंग पर अधलेटी सी अवस्था में कुछ सोचते हुए पाया। सौभाग्य से आज बिजली गुल नहीं थी इस लिए कमरे में बल्ब का मध्यम प्रकाश था और साथ ही कमरे की छत पर लटक रहा पंखा भी मध्यम गति से चल रहा था।

सुगंधा देवी ने दरवाज़े को अंदर से कुंडी लगा कर बंद किया और फिर जा कर पलंग पर बैठ गईं। उनके आने की आहट से दादा ठाकुर सोचो के भंवर से बाहर आ गए थे किंतु चेहरे के भावों से यही प्रतीत हो रहा था जैसे अभी भी मन में कुछ चल रहा हो।

"क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?" सुगंधा देवी ने उनके चेहरे को ग़ौर से देखते हुए पूछा____"ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कुछ चल रहा है आपके मन में।"

"नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने जैसे लापरवाही से कहा____"बस ऐसे ही मन में इधर उधर की बातें गूंज रहीं थी।"

सुगंधा देवी ने बड़े ध्यान से अपने पति परमेश्वर को देखा। पिछले तीस सालों से वो उनकी जीवन संगिनी बनी हुईं थी। इतना तो वो समझतीं ही थी कि दादा ठाकुर के चेहरे पर उभरने वाले भाव कौन सी कहानी बयां करते थे? ख़ैर उन्होंने उठ कर अपनी रेशमी साड़ी को अपने बदन से अलग किया और फिर उसे सलीके से तह कर के लकड़ी की आलमारी के पास दीवार में लगी लकड़ी की खूंटी पर टांग दिया। उसके बाद वो वापस पलंग की तरफ बढ़ चलीं। अब उनके बदन पर सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज था।

सुगंधा देवी का जिस्म इस उमर में भी ऐसा कसा हुआ और तंदुरुस्त था कि वो जवान औरतों को भी मात देती थीं। एकदम गोरा सफ्फाक़ बदन जिसमें कहीं कोई दाग़ नहीं था। उमर के चलते बदन में थोड़ा भराव ज़रूर हो गया था लेकिन उसे मोटापा हर्गिज़ नहीं कहा जा सकता था। ब्लाउज में कैद बड़ी बड़ी छातियां अभी भी जवान औरतों की तरह तनी हुईं थी। उसके नीचे हल्का निकला हुआ गोरा सफ्फाक़ पेट जिसके बीच में गहरी किंतु खूबसूरत नाभी थी।

दादा ठाकुर ने एक भरपूर नज़र उनके जिस्म पर डाली और फिर सुगंधा देवी की आंखों की तरफ देखा। सुगंधा देवी तब तक पलंग के पास पहुंच कर पलंग में बैठ चुकीं थी।

"ऐसे क्या देख रहे हैं?" दादा ठाकुर को अपलक अपनी तरफ देखता देख सुगंधा देवी के चेहरे पर सहसा लाज की सुर्खी उभर आई, फिर बोलीं____"इरादे तो नेक हैं ना आपके?"

"अभी तक तो नेक ही थे।" दादा ठाकुर पहले तो हड़बड़ाए फिर हल्के से मुस्कुरा कर बोले____"मगर लगता है आज आप हमें गुस्ताख़ी करने पर मजबूर कर देंगी।"

"तो इतनी देर से अकेले में यही सोचते बैठे रहे थे आप?" सुगंधा देवी आंखों में थोड़ा हैरत के भाव ला कर बोलीं____"हमें लगा था कोई गंभीर बात थी।"

"अरे! ऐसी बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने जैसे ख़ुद को सम्हाला____"असल में अभी जब हमने आपको इस अवस्था में देखा तो बस यूं ही मज़ाक में कह दिया आपसे।"

"अच्छा जी मज़ाक में कहा है आपने?" सुगंधा देवी ने बनावटी हैरानी दिखाई____"हमें तो लगा था कि एक मुद्दत बाद आज किसी अन्य दिशा से सूर्य निकल आया है।"

"ऐसा क्यों कहती हैं आप?" दादा ठाकुर के माथे पर सहसा शिकन उभर आई।

"ख़ैर जाने दीजिए।" सुगंधा देवी ने बेचैनी से पहलू बदला____"वैसे सच सच बताइए इतनी देर से किन ख़यालों में खोए हुए थे आप?"

दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ ना बोले। कुछ देर तक वो ध्यान से सुगंधा देवी के चेहरे पर मौजूद भावों को समझने की कोशिश करते रहे, फिर एक दीर्घ सांस लेने के बाद बोले____"हम असल में रागिनी बहू और वैभव के बारे में सोच रहे थे।"

"उन दोनों के बारे में??" सुगंधा देवी अनायास ही चौंकीं____"ये क्या कह रहे हैं आप?"

"आज शाम जब हम और किशोरी लाल जी बैठक में बैठे हुए थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"उसी समय बाहर से रागिनी बहू और वैभव को आते देखा था। हम ये सोच कर थोड़ा चौंके थे कि जाते समय तो आप उसके साथ थीं तो वापसी में वो वैभव के साथ क्यों आई थी?"

"वो दरअसल बात ये है कि वापसी में हम अपने बेटे के पास गए थे।" सुगंधा देवी ने बताया____"सोचा था उसे भी अपने साथ ही हवेली ले आएंगे लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया था। हमारे बहुत ज़ोर देने कर वो माना लेकिन कहने लगा वो बाद में आएगा। अब आपको तो पता ही है कि इस समय वो जिस तरह की हालत में है उसमें हम उस पर ज़्यादा ज़ोर ज़बरदस्ती अथवा दबाव नहीं डाल सकते। इस लिए हमने रागिनी से कहा कि चलो हम लोग चलते हैं तब रागिनी ने ही कहा कि वो भी वैभव के पास कुछ देर वहीं बैठेगी और फिर उसे ले कर ही हवेली आएगी। वैसे, उसको वैभव के साथ आया देख आप इतना सोच में क्यों पड़ गए थे? कहीं आपके मन में उसके चरित्र के प्रति कोई संदेह तो नहीं पैदा हो गया?"

"नहीं नहीं, ऐसा तो हम सोच भी नहीं सकते सुगंधा।" दादा ठाकुर ने झट से कहा____"उसके चरित्र पर संदेह करना पाप करने के समान है। हम तो उस वक्त उन दोनों को साथ देख कर कुछ और ही सोचने लगे थे।"

"क्या मतलब है आपका?" सुगंधा देवी जैसे उलझ सी गईं____"आप क्या सोचने लगे थे?"

"उन दोनों को देख कर हम गुरु जी द्वारा कही गई बातें सोचने लगे थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"उनके अनुसार हमारे बेटे के जीवन में ऐसी दो औरतों का योग था जो उसकी पत्नी बनेंगी। अनुराधा की हत्या हो जाने से पहले तक हम यही सोच रहे थे कि उसके जीवन में उसकी पत्नी के रूप में जो दो औरतें आएंगी वो रूपा और अनुराधा ही होंगी। ये अलग बात है कि हम अपनी बहू रागिनी को हमेशा खुश देखने और उसके जैसी बहू की चाहत में उसका ब्याह भी वैभव से कर देने की सोच रहे थे। अब जबकि उस मासूम लड़की अनुराधा की मौत हो चुकी है तो अनायास ही हम ये सोचने लगे थे कि कहीं वो दूसरी औरत हमारी बहू रागिनी तो नहीं थी?"

सुगंधा देवी के मनो मस्तिष्क में एकाएक जैसे धमाका सा हुआ। पलक झपकते ही उनके ज़हन में भी ये बात बैठती चली गई। चेहरे पर हैरत के भाव लिए वो दादा ठाकुर को देखने लगीं।

"अरे! हां ये तो सही कह रहे हैं आप।" फिर उन्होंने उसी हैरत के साथ कहा____"अभी तक ये बात हमारे मन में आई ही नहीं थी। आती भी कैसे? हालात ही ऐसे बने हुए हैं कि इस तरफ हमारा ध्यान ही नहीं गया।"

"यानि अब आप भी इस बात को मानती हैं कि जिन दो औरतों की बात गुरु जी ने कही थी उनमें से एक रूपा है तो दूसरी हमारी बहू रागिनी है।" दादा ठाकुर के चेहरे पर अजीब से भाव थे।

"निःसंदेह।" सुगंधा देवी ने सिर हिलाया____"अब तो यही लग रहा है ठाकुर साहब और शायद इसी लिए उन्होंने ये भी कहा था कि अगर हम चाहते हैं कि रागिनी बहू हमेशा के लिए हमारे पास ही बहू के रूप में रहे तो हम उसकी शादी वैभव से कर दें।"

"बिल्कुल ठीक कहा आपने।" दादा ठाकुर ने उत्साहित भाव से कहा____"हालाकि ज़ाहिर तौर पर उन्होंने दो औरतों में रागिनी की बात नहीं कही थी। यानि कहीं न कहीं उन्हें भी इस बात का अंदेशा था कि इस तरह की कोई घटना घटेगी और फिर अंततः रागिनी उन दो औरतों की गिनती में आ जाएगी।"

"इसका मतलब तो ये भी हुआ कि उन्हें अनुराधा की हत्या वाली घटना होने का पहले से ही अंदेशा था।" सुगंधा देवी ने सोच पूर्ण भाव से कहा____"और बताया इस लिए नहीं क्योंकि उनके अनुसार वो विधि के विधान में कोई हस्ताक्षेप नहीं करना चाहते थे?"

"हां शायद यही बात हो सकती है।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"सिद्ध पुरुष लोग कभी भी दैवी विधान पर कोई बाधा उत्पन्न नहीं करते।"

"तो अब क्या सोचा है आपने?" सुगंधा देवी ने सहसा गहरी सांस ले कर पूछा।

"उन दोनों को साथ में आया देख हम यही सब सोचने लगे थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर हमने फ़ैसला कर लिया है कि अब हम जल्द से जल्द इस बारे में समधी जी से बात करेंगे।"

"वो तो ठीक है ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"लेकिन हमें लगता है कि इस मामले में अभी हमें ज़ल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। हमारा मतलब है कि अभी तो हमारा बेटा भी ऐसी मानसिक हालत में नहीं है कि वो ये सब ठंडे दिमाग़ से सुन सके या इस पर विचार कर सके।"

"उसका दिमाग़ ठंडा करने का भी इंतज़ाम हो गया है ठकुराईन।" दादा ठाकुर के होठों पर सहसा रहस्यपूर्ण मुस्कान उभर आई____"और वो इंतज़ाम ऐसा है कि अब हमें वैभव की ऐसी मानसिक हालत की कोई चिंता ही नहीं रही।"

"बड़ी हैरतअंगेज बातें कर रहे हैं आप?" सुगंधा देवी एकाएक चकित भाव से बोलीं____"आख़िर ऐसा क्या हो गया है जिसके चलते आप हमारे बेटे के लिए एकदम से निश्चिंत हो गए हैं?"

"असल में साहूकार गौरी शंकर हमसे मिलने आया था।" दादा ठाकुर ने कहा____"वो भी अपने होने वाले दामाद की ऐसी मानसिक हालत के लिए चिंतित था। ख़ैर अपने दामाद को इस स्थिति से बाहर निकालने का उसने हमें एक ऐसा अद्भुत उपाय बताया जिसे सुन कर हम चकित रह गए थे।"

"ऐसा कौन सा उपाय बताया था उसने?" सुगंधा देवी और भी ज़्यादा चकित नज़र आईं।

उनके पूछने पर दादा ठाकुर ने उन्हें गौरी शंकर की सारी बातें बता दी। जिसे सुन कर सुगंधा देवी बहुत ज़्यादा हैरान हुईं। कुछ देर तक वो जाने क्या सोचती रहीं।

"बड़ी ही दिलचस्प बात है ये।" फिर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हमें तो यकीन ही नहीं हो रहा कि गौरी शंकर इस मामले में इतनी बड़ी बात सोच सकता है और उस पर अमल भी कर सकता है। ख़ैर तो आपने क्या जवाब दिया उसे?"

"अब क्योंकि ये उसका ही सुझाव था और इसमें कोई बुराई भी नहीं थी तो हमने फ़ौरन ही उसे मंजूरी दे दी।" दादा ठाकुर ने कहा____"आख़िर हम भी तो यही चाहते हैं कि हमारा बेटा जल्द से जल्द इस मानसिक अवस्था से बाहर निकल आए और फिर वो उसी तरह अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने लगे जैसे इसके पहले वो निभा रहा था।"

"क्या आपको लगता है कि गौरी शंकर की भतीजी हमारे बेटे को उसकी ऐसी मानसिक हालत से निकालने में कामयाब होगी?" सुगंधा देवी ने कहा____"सीधी सी बात है कि जब वो लड़की इसके पहले अपना सब कुछ सौंप कर भी हमारे बेटे के दिल में अपने प्रति प्रेम की भावना नहीं जगा सकी थी तो क्या अब वो ऐसे हालात में ऐसा कुछ कर पाएगी?"

"आपकी बात अपनी जगह सही हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो पहले नहीं हो सका वो कभी नहीं हो पाएगा। आप भी जानती हैं कि पहले में और अब में बहुत फ़र्क आ चुका है। पहले आपका बेटा क्या था और अब क्या बन गया है। इसी आधार पर हम ये बात इतने यकीन के साथ कह रहे हैं कि जो पहले नहीं हो सका वो अब ज़रूर होगा। वैसे भी पहले तो उस लड़की में बहुत सी पाबंदियां थी जबकि अब ऐसा नहीं है। वो अपने होने वाले पति की बेहतरी के लिए पूरी आज़ादी से कुछ भी करेगी।"

"शायद आप ठीक कह रहे हैं।" सुगंधा देवी ने सिर हिलाया____"ख़ैर ये सब तो ठीक है लेकिन अब हमारी बहू का क्या? हमारा मतलब है कि उसे इस बात के लिए कैसे राज़ी किया जाए कि वो अपने ही देवर से ब्याह कर ले?"

"हां ये ज़रूर सोचने का विषय है अब।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"ये आसान नहीं होगा लेकिन अगर गुरु जी की बातों को सच मान कर चलें तो संभव है कि उसे राज़ी करने में हमें इतनी मुश्किल भी न आए। ख़ैर, फिलहाल तो इस बारे में हम सबसे पहले समधी साहब से बात करेंगे। उनकी रज़ामंदी के बाद ही सोचेंगे कि उसे कैसे राज़ी किया जाए?"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं फिर दोनों ही चादर ओढ़ कर लेट गए। दोनों का ज़हन जाने कैसे कैसे विचारों में उलझा हुआ था और फिर जाने कब नींद ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया।

✮✮✮✮

सुबह हुई।
साहूकार गौरी शंकर के घर में काफी चहल पहल थी। सब हंसी खुशी जल्दी जल्दी अपने अपने कामों में लगे हुए थे। आज काफी समय बाद इस घर के लोगों के चेहरों पर खुशी की चमक नज़र आ रही थी। आज से पहले जिस लड़की से कोई बात करना तो दूर उसकी तरफ देखना तक गवारा नहीं करता था आज सब उसे अपनी पलकों पर लिए हुए थे।

रूपा के कमरे का आलम ही अलग था। ऐसा लग रहा था जैसे आज उसकी वैसे ही विदाई की तैयारियां हो रहीं थी जैसे ब्याह के बाद होती हैं। रूपा से उमर में जो बड़ी बहनें थी वो उसे खुशी खुशी सजाने के लिए आईं थी। उसकी दोनों भाभियां भी थीं। सब की सब उसे छेड़े जा रहीं थी। ऐसी ऐसी बातें बोल कर हंसने लगतीं थी कि रूपा बेचारी शर्म से पानी पानी हो जाती थी। कमरे के दरवाज़े की ओट में खड़ी उसकी मां ललिता देवी नम आंखों से अपनी बेटी की खुशी और उसका शर्म से पानी पानी होना देख रही थी। सहसा जाने क्या सोच कर उसकी एक आंख से आंसू का एक कतरा छलक पड़ा और गोरे गाल से होते हुए नीचे ज़मीन पर जा गिरा। उसने हड़बड़ा कर अपने आंसू पोछे और फिर पलट कर बाहर चली गई।

कुछ देर में फूलवती कमरे में दाख़िल हुई। उसने जब सबको इस तरह से रूपा को छेड़ते देखा तो झूठा गुस्सा दिखाते हुए सबको डांटना शुरू कर दिया। उसकी डांट सुन कर सब चुप हो गईं। फूलवती इस परिवार की थोड़ी सख़्त महिला थीं जिनके सामने बाकी औरतें और लड़कियां कम ही बोलती थीं। बहरहाल फूलवती ने सबको डांटते हुए कहा कि वो रूपा को सामान्य तरीके से ही तैयार करें। क्योंकि वो अभी सचमुच की दुल्हन बन कर नहीं जा रही है बल्कि एक ज़रूरी काम से जा रही है।

फूलवती की इन बातों से सभी लड़कियों का और दोनों भाभियों का चेहरा उतर गया। उनकी इच्छा यही थी कि वो सब रूपा को किसी दुल्हन की तरह तैयार कर के ही विदा करें। ख़ैर जल्दी ही सबको ये समझ आ गया कि सच में रूपा को दुल्हन की तरह नहीं सजाना चाहिए।

कुछ ही देर में सबने रूपा को सामान्य तरीके से तैयार कर दिया। एक थैले में उसकी ज़रूरत के हिसाब से कपड़े डाल दिए और वो सब सामान भी जो लड़कियां प्रयोग करती हैं।

सुबह के आठ बज रहे थे। ललिता देवी ने अपने हाथों से और बड़े प्यार से अपनी बेटी रूपा को खाना खिलाया। रूपा खाना कम खा रही थी रो ज़्यादा रही थी। आज काफी समय के बाद उसे अपनी मां का इतना स्नेह और प्यार मिल रहा था। अपनी बेटी को यूं आंसू बहाते देख ललिता देवी की भी आंखें बरस रहीं थी। ये सोच कर कि उसने इतने समय तक अपनी बेटी का कितनी कठोरता से दिल दुखाया था। ख़ैर किसी तरह रूपा ने खाना खाया। सब उसको घेरे हुए थीं।

रूपचंद्र बैठक में गौरी शंकर के पास बैठा हुआ था। रेखा ने आ कर उससे कहा कि रूपा अब जाने को तैयार है तो वो उठ कर अंदर की तरफ चल पड़ा। जल्दी ही वो अंदर आंगन में पहुंच गया। उसकी नज़र रूपा पर पड़ी। आज उसे अपनी बहन अलग ही नज़र आ रही थी। जब हर तरफ से इंसान को प्यार और खुशी मिलती है तो चेहरा अलग ही नज़र आने लगता है। रूपा के अलग नज़र आने का यही कारण था। अचानक ही रूपा को कुछ याद आया तो वो एकदम से उस तरफ बढ़ चली जिस तरफ परिवार के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति का कमरा था, यानि चंद्रमणि का।

"दादू, देखिए रूपा दीदी आपसे मिलने आई हैं।" शिव शंकर की दूसरी बेटी मोहिनी ने पलंग पर पड़े चंद्रमणि को आवाज़ लगाते हुए कहा।

चंद्रमणि के कमज़ोर जिस्म में हलचल हुई। वो करवट लिए लेटा हुआ था। आवाज़ सुन कर वो धीरे से पलटा तो एकाएक उसकी निगाह उसकी दो नातिनों पर पड़ी।

"मैं जा रही हूं दादू।" रूपा ने सहसा आगे बढ़ कर चंद्रमणि के क़रीब आ कर भारी गले से कहा____"आप अपना ख़याल रखिएगा।"

"अ..अरे! कहां जा रही है मेरी बच्ची?" चंद्रमणि ने अपनी कमज़ोर आवाज़ में पूछा।

रूपा को समझ न आया कि वो क्या जवाब दे? उसे एकाएक शर्म महसूस होने लगी। मोहिनी उसे चुप देख हल्के से मुस्कुराई फिर आगे बढ़ कर उसने चंद्रमणि को संक्षेप में सब कुछ बता दिया। सच जान कर चंद्रमणि के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। कुछ देर वो जाने क्या सोचता रहा फिर सहसा उसके चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई। कमज़ोर आंखों में एकाएक आंसू तैरते नज़र आए।

"ई..ईश्वर मेरी बच्ची को सदा खुश रखे।" फिर उसने कांपते स्वर में कहा____"भगवान तेरा कल्याण करे बेटी। अब तू ही इस परिवार की डूबती नैया को बचा सकती है। तेरे ही हाथों इस परिवार के लोगों का भला निहित है।"

"ये आप क्या कह रहे हैं दादू?" रूपा का गला रुंध गया।

"त...तुझे क्या लगता है मुझ बूढ़े को कुछ पता नहीं है?" चंद्रमणि के सूखे होठों पर सहसा मुस्कान उभरी____"अरे! मैं सब जानता हूं मेरी बच्ची। मैं जानता हूं कि तू दादा ठाकुर के बेटे से प्रेम करती है और....और मैं ये भी जानता हूं कि इसके लिए इन सबने तुझे बहुत बुरा भला कहा होगा। तुझे बहुत कष्ट दिए होंगे इन कंजरों ने। अपनी औलाद को अच्छी तरह जानता हूं मैं। आज अगर तू इस उद्देश्य से जा रही है तो मैं समझ गया हूं कि इन लोगों ने तुझे अपना झूठा प्यार दिखा कर ही जाने की अनुमति दी होगी।"

"द...दादू।" रूपा से सहन न हुआ तो वो झपट कर चंद्रमणि से लिपट गई और फूट फूट कर रो पड़ी।

चंद्रमणि ने उसके सिर पर बड़े स्नेह से हाथ फेरा और फिर अपनी कमज़ोर आवाज़ में कहा____"तेरा इस तरह से बिलख बिलख कर रोना बता रहा है कि मैंने जो कहा वो सच है। पत्थर दिल वाले तुझे समझ नहीं सके मेरी बच्ची लेकिन...लेकिन मैं समझता हूं तुझे। मैं समझता हूं कि ईश्वर क्या खेल खेलना चाहता था। ख़ैर तू रो मत मेरी बहादुर बच्ची। तेरे दादू का आशीर्वाद और दुआएं मेरे मरने के बाद भी हमेशा तेरे साथ रहेंगी। तू जा....खुशी खुशी जा। ऊपर वाला तुझे हर पथ पर कामयाब करे और हमेशा खुशियां दे।"

दरवाज़े के पास घर का हर सदस्य खड़ा बातें सुन रहा था और ये सोच कर खुद को कोस रहा था कि अब से पहले क्यों उन लोगों ने रूपा को इतना दुख दिया और उसे नहीं समझा? बहरहाल, रूपा अपने दादू का आशीर्वाद और उनकी दुआएं ले कर बाहर निकली।

एक एक कर के वो सबसे मिली और फिर रूपचंद्र के पीछे पीछे घर से बाहर की तरफ बढ़ चली। सचमुच ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो अपने ससुराल जा रही है। फ़र्क सिर्फ़ इतना ही था कि बेटी जब पहली बार विदा होती है तो वो हद से ज़्यादा रोती है और अपने रुदन से हर व्यक्ति को रुला देती है लेकिन यहां फिलहाल रुदन जैसा माहौल नहीं था। जल्दी ही सब बाहर चौगान में आ गए।

रूपचंद्र अपनी बहन का थैला जीप में रख कर जीप की स्टेयरिंग सम्हाले बैठ गया था। रूपा सबसे मिलने के बाद चुपचाप आ कर जीप में रूपचंद्र के बगल से बैठ गई।

"बेटा, उस मकान को अच्छे से देख लेना।" फूलवती ने रूपचंद्र से कहा____"और जिस किसी भी चीज़ की वहां कमी दिखे तो उसे दूर कर देना।"

"फ़िक्र मत कीजिए बड़ी मां।" रूपचंद्र ने कहा____"मेरे रहते मेरी बहन को किसी भी चीज़ की ना तो कमी होगी और ना ही कोई बाधा आएगी।"

कहने के साथ ही रूपचंद्र ने मन ही मन ईश्वर का नाम लिया और फिर जीप को आगे बढ़ा दिया। पीछे खड़े हर व्यक्ति ने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के सब कुछ अच्छा करने और होने की प्रार्थना की।

सारे रास्ते रूपचंद्र अपने बगल से सोचो में गुम बैठी अपनी बहन को ये समझाता रहा कि वो किसी बात की चिंता न करे। सब कुछ अच्छा ही होगा और ऊपर वाला कभी भी उसके सच्चे प्रेम का निरादर नहीं होने देगा। रूपचंद्र की बातें रूपा के मानस पटल पर टकरा तो ज़रूर रहीं थी लेकिन वो कुछ बोल नहीं रही थी। उसके मन में तो बस यही चल रहा था कि क्या कभी कहीं ऐसा हुआ होगा जो आज उसके साथ होने जा रहा था? क्या किसी के घर वालों ने बिना ब्याहे अपनी बेटी अथवा बहन को इस तरह से विदा किया होगा? क्या किसी लड़की को इस तरह से अपने प्रेम के चलते ऐसा कुछ करना पड़ा होगा?

रूपा ऐसे न जाने कितने ही सवालों के भंवर में उलझी हुई थी। उसे पता ही न चला कि कब रास्ता गुज़र गया और मंज़िल आ गई। जीप के रुकने पर जब रूपचंद्र ने उसे पुकारा तभी वो वर्तमान में आई। उसने चौंक कर इधर उधर देखा तब उसे एहसास हुआ कि वो उस जगह पहुंच गई है जहां पर रह कर उसे अपने होने वाले पति की मानसिक हालत को सुधार कर उसे सामान्य हालत में लाना था। एकाएक उसके ज़हन में कई सवाल चकरा उठे____'क्या वो ऐसा कर पाएगी? क्या उसका यहां पर रहना वैभव को क़बूल होगा? क्या वैभव को ये पसंद आएगा कि वो उसे उसकी मानसिक हालत से बाहर निकालने का प्रयास करे?'

"क्या हुआ?" जीप से उतर कर जब रूपचंद्र ने रूपा को वैसे ही बैठे देखा तो पूछा____"क्या सोच रही है? अरे! अब कुछ मत सोच पागल। चल आ, बेवजह फालतू की बातें सोच कर खुद को हल्कान मत कर।"

रूपा ख़ामोशी से नीचे उतरी। तब तक रूपचंद्र ने जीप से उसका थैला निकाल कर अपने हाथ में ले लिया था। उधर मकान के बाहर किसी जीप के आने की आहट सुन मकान के अंदर मौजूद कुछ ऐसे लोग बाहर निकल आए जो मकान की रखवाली करते थे। बाहर रूपचंद्र और एक लड़की को देख उन सबके चेहरों पर चौंकने वाले भाव उभर आए।

रूपचंद्र जानता था कि उन लोगों को कुछ पता नहीं है इस लिए उसने सीधे सीधे भुवन के बारे में पूछा तो उनमें से एक ने बताया कि भुवन तो छोटे कुंवर के खेतों पर होगा। यूं तो रूपचंद्र को सब पहचानते थे और ये भी जानते थे कि मौजूदा समय में रूपचंद्र से उनके छोटे कुंवर के बेहतर संबंध हैं। बहरहाल रूपचंद्र ने उन सबको बताया कि अब से यहां पर वैभव और उसकी होने वाली पत्नी यानि रूपा इसी मकान में रहेंगे। अतः जल्द से जल्द मकान की साफ सफाई शुरू करवाओ।

पहले तो उन सबको बड़ी हैरानी हुई लेकिन फिर जल्दी ही वो लोग मकान की साफ सफाई में लग गए। इधर रूपा चुपचाप खड़ी इधर उधर देख रही थी। तभी सहसा उसकी घूमती हुई निगाह उस जगह पर जा कर ठहर गई जिस जगह पर अनुराधा का अंतिम संस्कार किया गया था। यहां से भी वो जगह साफ नज़र आ रही थी। रूपा के जिस्म में झुरझुरी सी हुई और फिर वो इस तरह उस तरफ बढ़ चली जैसे कोई अज्ञात ताक़त उसे अपनी तरफ खींचने लगी हो।




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
आप चुनिंदा कुछ ऐसे लेखको में से हैं, जिनकी लेखनी पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे आंखों के सामने घटनाएं चल रही है । सलाम है मेरा आपकी लेखनी को । 🙏💕धन्यवाद🙏💕
 

Game888

Hum hai rahi pyar ke
3,353
6,751
158
अध्याय - 118
━━━━━━༻♥༺━━━━━━





सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

✮✮✮✮

कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Behtareen updates
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
21,385
44,907
259
कैसी असमंजस वाली स्तिथि में डाल दिया है आने वैभव को, और ऐसा लगता है कि इस स्तिथि से अब भाभी ही निकाल सकती है उसे।

वैसे ये किशोरी लाल का कैरेक्टर धीरे धीरे बहुत इंपोर्टेंट होता जा रहा है, और कहीं कजरी फिर से तो नही आयेगी वैभव की दिनचर्या में?
 
Top