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मैंने एक बार फिर से तकिये को सूंघा उसमें से गुड्डी के बालों की महक आ रही थी।
तो?
कहीं वो आदमी पलंग के नीचे तो नहीं छुपा था और जब गुड्डी आकर सो गई हो तो,....
बत्ती बंद हुए 20 मिनट हो चुके थे और 20 मिनट काफी होता है।
मैंने एक बार फिर चारों ओर देखा सारे दरवाजे सिवाय जिधर से मैं आया था अन्दर से बंद। कमरा खाली तो अगर कोई और भी आया तो गया कहाँ।
एक बार फिर मैंने पलंग के नीचे देखा और मेरी रूह काँप गई। मेरे दिमाग से उतर गया था। इस कमरे के नीचे एक छोटा सा तहखाना था। वो हमेशा बंद रहता था। उसमें सिर्फ कूड़ा कबाड़ भरा रहता था। वो दरवाजा हल्का सा खुला था।
वो दरवाजा हल्का सा खुला था।
तहखाने के दरवाजे के ऊपर मैंने सब साफ किया और मोबाइल की रोशनी में अन्दर देखा। अन्दर पूरा अँधेरा था, कुछ नहीं दिख रहा था। दूर दरवाजा खींचने से भी नहीं खुल रहा था। सिर्फ एक हिस्सा लकड़ी के दरवाजे का थोड़ा सा खुला था। तभी मेरी चमकी। दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा था।
भाभी ने एक चिट्ठी में लिखा था की उन लोगों ने तहखाना चिनवा दिया है। लकड़ी थोड़ी टेढ़ी हो गई थी इसलिए लग रहा था की दरवाजा खुला हुआ है।
मेरा दिल जोर जोर से धड़क रहा था, बस मना रहा था गुड्डी को कुछ न हो, बस उसे कुछ न हो, एक बार आज सही सलामत मिल जाए, बस मैं उसे तंग भी नहीं करूँगा, सोने दूंगा, बस देखता रहूंगा
बस गुड्डी को कुछ न हो, दरवाजे सारे बंद लेकिन गुड्डी गयी कहाँ, और मम्मी क्या कहेंगी, अपनी बेटी भेजी थी तेरे साथ और पहली रात ही,कुछ समझ में नहीं आ रहा था, किसी से कुछ कह भी नहीं सकता था, परेशनी के मारे बुरा हाल था। अंत में हार के मैं अपने कमरे में,
और सीधे बिस्तर में।
गुड्डी चद्दर के अंदर थी।
और सिर्फ गुड्डी, बिना किसी आवरण के। और मिनट भर में मैं भी उसी की तरह हो गया।
मैंने कुछ पूछने की कोशिश की तो उसने मेरे होंठों पे उंगली रखकर मना कर दिया और मुझे बांहों में भींच लिया और मैंने भी। हम लोग पता नहीं कितनी देर उसी तरह पड़े रहे, सिर्फ साँसों की सरगम, दिल की धड़कन और घड़ी की टिकटिक।
और मैं गायब हो गया, मेरे सारे सवाल, सब परेशानी, सिर्फ गुड्डी, उसकी देह की महक उसकी सांसो का संगीत,
जब सजनी पास होती है तो पास बस वही होती है
और मैं सवाल पूछ भी नहीं सकता था, मेरे होंठ उसके होंठों ने बंद कर दिए थे, बस चुप्पी थी एक खूब मीठी सी चुप्पी, हम दोनों उस चुप्पी के जाल से बंधे बिधे
जैसे कोई स्टुडेंट बहुत देर तक एक्जामिनेशन हाल में बैठा रहे परचा लिए हुए। कुछ ना समझ में आये और अचानक सब कुछ याद आये।
जो कुछ मैंने सोचा था चंदा भाभी ने जो सिखाया पढ़ाया था, सब कुछ। मेरे कितने होंठ कितनी उंगलियां उग आई पता नहीं।
मेरे होंठों ने पहले तो उन नयनों से हाल चाल पूछी, जिनसे मेरी आँखें चार हुई थी, जिनमें मेरे सपने तिरते थे। और वो न शंर्मायें, न लजाएं इसलिए उन्हें चूम के बंद कर दिया।
फिर तो।
गोरे गुलाबी गाल, लजीले मीठे रसीले होंठ। पहले कहाँ। होंठ भी ठिठक रहे थे।
आज सब तुम्हारा है पूरी की पूरी गुड्डी और पूरी की पूरी ये फागुन की रात।
कपोलों के चुम्बन के बाद मेरे होंठ गुड्डी के रसीले होंठों से चिपक गए। पहले तो एक-दो छोटी-छोटी किस्सी, फिर मेरे होंठों ने उसके रस से भरे निचले होंठ को पकड़कर कस-कसकर चूसना शुरू कर दिया।
मेरे हाथ भी खाली नहीं बैठ थे। पहले तो कसकर मेरी बाहों ने उसे भींचा, मेरे एक हाथ की उंगलियां उसके कंधे से लेकर नीचे तक हल्के-हल्के सहला रही थी, जैसे कोई कब से सोये सितार को उठाकर उसके तार छेड़ दे। और फिर कुछ देर में वो सितार के तार भी उसकी उंगलियों के साथ झंकृत होने लगें।
जैसे कोई किशोरी एक अलसाई सुस्ताती झील के किनारे बैठ उस में हल्के से पैर डालकर हिला दे और हजार हजार लहरें हिल उठें। मेरा दूसरा हाथ उसके किशोर नितम्बों को दबा रहा था, मेरे नाखून इस ना भूलने वाली रात के निशान बना रहे थे।
उसके गदराये किशोर गुदाज उभार मेरे सीने के नीचे दबे हुए थे, वो योवन कमल जिनके आस पास हमेशा मेरी आँखों के भौंरे मंडराया करते थे।
मैंने अपनी दोनों पैर उसकी लम्बी टांगों के बीच फैलाकर पूरी तरह खोल दिया था और मेरा उत्थित चरम दंड अपने लक्ष्य के आस पास था, फुंफकारता हुआ बैचैन, बेताब।
मेरी नदीदी उंगलियों से नहीं रहा गया।
जिस हाथ ने गुड्डी के भरे-भरे नितम्बों को दबोच रखा था, वो फिसल कर उसकी जांघ के ऊपरी हिस्से पे पहुँच गई और हल्के-हल्के काम समीर बहाने लगी, आनंद के कूप के एकदम पास और जो उंगलियां पीठ पे थी वो सीधे रस कलश पे। पहले तो थोड़ी देर उन पहाड़ियों के नीचे वो रही और फिर एक झटके में मुट्टी में।
मेरे अंगूठे और उंगली के बीच में जब उसके योवन कलश के शिखर, उसके निपल आये और मैंने हल्के से मसल दिया तो गुड्डी की मदमाती सिसकी निकल गई। और उसे रोकने के लिए मेरे दोनों होंठों ने गुड्डी के होंठों को जकड़ लिया। भींच लिया जैसे बरसों बाद किसी प्रिय को प्रियतमा मिले।
बरस तो हो ही गए थे मुझे इस रात के सपने संजोये। और फिर मेरी जीभ ने उसके मुँह में सेंध लगा दी। ये। उसका मुँह मेरी जीभ को चूस रहा था। मेरा एक हाथ उसके जोबन को रगड़ मसल रहा था और दूसरा उसकी रस से भरी योनि से इंच भर दूर जांघों को मसलता रगड़ता मदन पवन बहाता।
मेरी नदीदी उंगलियों से नहीं रहा गया। जिस हाथ ने गुड्डी के भरे-भरे नितम्बों को दबोच रखा था, वो फिसल कर उसकी जांघ के ऊपरी हिस्से पे पहुँच गई और हल्के-हल्के काम समीर बहाने लगी। आनंद के कूप के एकदम पास। और जो उंगलियां पीठ पे थी वो सीधे रस कलश पे। पहले तो थोड़ी देर उन पहाड़ियों के नीचे वो रही और फिर एक झटके में मुट्टी में। मेरे अंगूठे और उंगली के बीच में जब उसके योवन कलश के शिखर, उसके निपल आये और मैंने हल्के से मसल दिया तो गुड्डी की मदमाती सिसकी निकल गई।
और उसे रोकने के लिए मेरे दोनों होंठों ने गुड्डी के होंठों को जकड़ लिया। भींच लिया जैसे बरसों बाद किसी प्रिय को प्रियतमा मिले।
बरस तो हो ही गए थे मुझे इस रात के सपने संजोये। और फिर मेरी जीभ ने उसके मुँह में सेंध लगा दी। ये पहला मौका नहीं था, गलती गुड्डी की ही थी, आदत उसी ने लगायी थी।
पिछली रात बनारस में जब मैंने मना किया था पान खाने को तो उसकी जीभ मेरे मुँह में आई थी, और आज गुड्डी ने वही किया जो मैंने कल किया था। उसका मुँह मेरी जीभ को चूस रहा था। मेरा एक हाथ उसके जोबन को रगड़ मसल रहा था और दूसरा उसकी रस से भरी योनि से इंच भर दूर जांघों को मसलता रगड़ता मदन पवन बहाता।
हम दोनों करवटलेटे थे, एक दूसरे को पकड़े, मैंने उसे अब पीठ के बल कर दिया और मैं अब उसके सीधे ऊपर।
मुझसे अब रहा नहीं रहा जा रहा था।
मेरे प्यासे होंठ अब गुड्डी के उभारों पे थे।
पहले मैंने उरोजों की चुम्बन परिक्रमा की और उसके बाद छलांग कर सीधे। गुड्डी के कम से आधे इंच लम्बे उत्तेजित इरेक्ट निपलों पे, मैंने जीभ से निपल को फ्लिक किया, होंठों से उसे रगड़ा, फिर जीभ से निपल के बेस से ऊपर तक, ऊपर से नीचे तक बार-बार लिक किया और अचानक उसे मुँह में लेकर कस-कसकर चूसने लगा।
गुड्डी का दूसरा जोबन मेरे हाथ से मसला रगड़ा जा रहा था। इस रगड़ाई मसलाई और चूसने से गुड्डी की दोनों चूचियां उत्तेजित होकर पत्थर की हो रही थी।
मेरा दूसरा हाथ जो गुड्डी की जांघ को सहला रहा था अब उसने सीधे उसकी योनि को दबोच लिया और हल्के-हल्के दबाने लगा। वह रस रस से हल्की-हल्की गीली हो रही थी। मेरा मन तो बहुत कर रहा था की बस अब चढ़ाई कर दूँ।
लेकिन एक तो चंदा भाभी ने समझाया था, मर्द के पास सिर्फ एक अंग नहीं होता, उसकी उंगली, उसके होंठ जीभ उसी तरह मजा देते हैं और लेडिज कम फर्स्ट। पहले उसे मस्ती से इतना पागल कर दो की वो खुद बोले,
हाँ,... हाँ,....आओ न, उफ्फ्फ,... ओह्ह, बदमाश,..... क्या करते हो, ....करो न, ओह्ह्ह ,...करो डाल दो न,
और वो जब मस्ती से पागल हो जाए, खुद जाँघे फैलाने लगे, देह से देह रगड़ने लगे, बिल उसकी गीली हो जाये, एकदम लसलसी तब शुरू करो।
दूसरी बात ये भी थी की,.... मुझे गुड्डी की चूचियों में भी उतना ही रस आ रहा था।
शर्म अभी भी गुड्डी को घेरे हुए थी।
वो बार-बार अपनी जांघें भींच लेती, अपने हाथ से मेरे हाथ को अपनी योनि से हटाने की कोशिश करती।
मैंने अपने दोनों हाथों से गुड्डी की जांघें कसकर फैला दी और उसके नितम्बों के नीचे एक तकिया लगा दिया। मेरे दोनों घुटने भी उसके घुटनों के बीच आ गए। उसकी लम्बी-लम्बी टांगें मैंने अपने दोनों कंधे पे रख ली।
अब वो लाख कोशिश करती जांघें सिकोड़ नहीं सकती थी।
मेरी तरजनी ने उसके योनि द्वार को खोअलने की कोशिश की लेकिन उसके गुलाबी कसे हुए भगोष्ठ ऐसे सिकुड़े हुए अपने अन्दर मदन कूप का रस अमृत छुपाये, जैसे कोई नई नवेली दुल्हन बार-बार घूँघट खींच ले बस उसी तरह।
लेकिन आज तक कौन घूंघट सुहागरात के दिन किसी दुल्हे का रास्ता रोक पाया है।
कभी मेरा अंगूठा कभी मेरी उंगली की टिप,.... बार-बार वहां सहलाती, रगड़ती, मनाती, रिझाती तरजनी की आधी पोर अन्दर घुसने में कामयाब हो गई।
कभी-कभी गोल कभी ऊपर-नीचे।
उधर मेरे होंठ दोनों जोबन का रस ले रहे थे कभी बारी-बारी कभी साथ। कभी वो निपल को चूसते, कभी चूचियों पे हल्के से काट लेते और गुड्डी सिसक उठती। होंठ वहां से सरकते हुए नीचे की ओर आ गये।
एक पल के लिए वो उसकी गहरी नाभि पर ठिठके लेकिन नीचे रसीले योवन कूप का लालच उन्हें सीधे खींच लाया।
पहला चुम्बन सीधे भगोष्ठ पर।
और गुड्डी कनकना गई। और उसके बाद जीभ की टिप भगोष्ठ के बाहरी ओर, थोड़ी देर मेरे दोनों अंगूठों ने उसके भगोष्ठ पूरी ताकत से फैला दिए और अब जीभ की टिप उनके बीच। कभी गोल-गोल कभी ऊपर-नीचे। मस्ती के मारे गुड्डी की आँखें बंद हो रही थी। वो मेरे सिर को पकड़कर अपनी ओर खींच रही थी। और फिर जीभ की जगह होंठों ने ले ली।
अब तो गुड्डी मारे जोश के पागल हो रही थी उसके नाखून मेरे कंधे में धस रहे थे वो जोर-जोर से मेरे बाल पकड़कर अपनी और खींच रही थी। ओह्ह… ओह्ह… करो न प्लीज ओह्ह… हाँ बहुत मस्त लग रहा है। अब मैंने गुड्डी की चूत चूसने की रफ्तार और तेज कर दी।
सच में बनारस की पढ़ाई उस बनारस वाली पे बहुत काम आ रही थी, जो रात भर चंदा भाभी ने पढ़ाया, सिखाया, देह का भूगोल समझाया, और अगले दिन बाथरूम में संध्या भाभी ने इम्तहान लिया, वह सब अब काम आ रहा था,
मेरे तरकश में एक तीर और था।
मैंने जीभ से गुड्डी की क्लिट फ्लिक कर दी।
फिर तो जैसे मस्ती का तूफान आ गया हो। मैं इसी का इन्तजार कर रहा था।
जब मैंने तकिया गुड्डी के चूतड़ के नीचे लगाया था तभी मुझे वहां वैसलीन की शीशी दिख गई थी।
मैंने अपने मस्ताये फूले पहाड़ी आलू ऐसे मोटे सुपाड़े पे अच्छी तरह क्रीम लिथड़ ली थी। और अब अपने होंठों को हटाकर गुड्डी की चूत के मुहाने पे भी ढेर सारी क्रीम लगा दी।
एक बार फिर से मैंने गुड्डी की लम्बी टांगें अपने कंधे पे सेट की एक हाथ से उसकी पतली कमर को पकड़ा और दूसरे उसके उरोज पे और थोड़ा सा पुश किया।
कुछ नहीं हुआ। बस हल्का सा।
मुझे चंदा भाभी का गरियाना याद आ गया, "
लाला, तेरी माँ का भोंसड़ा नहीं है, ताल पोखर ऐसा, ....एकदम कच्ची कली है टाइट, बिना बेरहमी के जोर जबरदस्ती के न तो घुसेगा न उसकी फटेगी, दर्द वर्द की परवाह किये बिना अपना पूरा जांगर लगा के पेल देना, ...पूरी ताकत से धक्का मारना होगा,
और मम्मी की सीख जो उन्होंने गुड्डी के सामने दी थी,
' पटाओ मत, सीधे पेल दो वो भी पूरी ताकत से "
गुड्डी ने आँखें बंद कर ली थी, सुपाड़ा हल्के खुले निचले गुलाबी होंठों में फँसा था, जांघें पूरी तरह फैली और उठी हुई थी।
मैंने हचक कर पूरी ताकत से धक्का मारा।
गुड्डी ने दोनों हाथों से चद्दर को कसकर दबोच लिया, होंठों को उसने कसकर अपने दांत से दबाने की कोशिश की लेकिन तभी भी हल्की सी चीख निकल गई। बिना रुके मैंने अपने दोनों होंठों से उसके होंठों को कसकर दबा दिया और अपनी जुबान उसके मुँह में घुसेड़ दी।
बिना रुके मैंने 3-4 धक्के और उसी तरह पूरी तेजी से मारे। फागुनी मौसम में भी हल्का सा पसीना गुड्डी के चेहरे पे आ गया था।
पूरा शरीर दर्द से तर बतर लग रहा था।
मैंने धक्के मारना छोड़कर अब हल्के-हल्के पुश करना शुरू किया। बहुत मुश्किल से सूत-सूत कुछ अन्दर घुसा फिर रुक गया।
मैंने हल्के से उससे पूछा- “बहुत दर्द हो रहा है…”
वो कुछ नहीं बोली लेकिन उसके चेहरे से साफ लग रहा था।
“निकाल लूं, बाद में फिर कभी…” मैंने परेशान होकर पूछा और जवाब में उसने अपनी दोनों बाहों से मुझे भींच लिया और अपनी ओर खींचा।
दर्द से लबरेज उसके होंठों पे एक अजब सी मुश्कान थी। और वह मेरी कमजोरी जानती थी, उसने अपनी कोमल उँगलियों से उसको दर्द देते मोटे मुस्टंडे को पकड़ कर अपनी ओर, अपने अंदर खींचा।
मुझे मेरा जवाब मिल गया।
नारी जीवन में तो सारे सुख दर्द में लिपटे आते हैं, प्रथम मिलन का सुख,
प्रजनन का सुख,
तभी तो वह सृष्टि की वाहिका है, नौ महीने तक अगली पीढ़ी को कोख में लिए रहती है
दोनों हाथों से कसकर उसकी कमर पकड़ी, एक बार फिर से अपने दोनों होंठों के बीच उसके होंठों को भींचा और फिर एक पल रुक के। पहले से भी ज्यादा ताकत से। पूरी जोर से एक के बाद एक 7-8 धक्के मारे, वो दर्द से कसमसा रही थी। लेकिन कसकर उसने अपनी बान्हे मेरी देह में भींच रखी थी उसके लम्बे नाखून मेरे कन्धों में पैबस्त हो रहे थे।
अब जब मैं रुका तो आधे से ज्यादा मेरा लिंग अन्दर घुस चुका था।
लेकिन उसके थोड़ी देर पहले, जब सुपाड़ा अंदर था, और बस थोड़ा सा और लेकिन लग रहा था की अब और मूसल नहीं जा पायेगा, मैं सोच रहा था की बस अब बहुत दर्द होगा उसे,
जान वह भी रही थी, जान मैं भी रहा था, क्या होने वाला है, पर उसकी आँखे निहोरा कर रही थीं, पूरे ढाई साल से
इन्तजार सिर्फ बादल नहीं करता सावन के आने का झकझोर के बरसने का, जेठ बैसाख की तपती धरती भी करती है, उसका सोलहवां सावन बिन बरसे ही निकल गया था, और खुद मुंह उठा के उसने मुझे चूम लिया, एक हाथ से अपनी ओर पकड़ के खींच लिया मुझे अपने अंदर
और बस सजनी का हुकुम,
जैसे कोई धनुर्धर, प्रत्यंचा को एकदम पीछे कान तक खींचे, तीर को साधे और हिरणी को बेध दे, बस वैसे ही मैंने लिंग को करीब करीब बाहर निकालकर, एक बार फिर सजनी की लम्बी टाँगे अपने कंधे पे सेट की, एक हाथ से कमर को कस के पकड़ा, दूसरा हाथ उसके जोबन पे एयर मेरी आँखे मुंद गयीं,
गुड्डी ने अपने दोनों हाथों से कस के चादर को पकड़ लिया, और जीवन के पहले और एक मात्र बार होने वाले अनुभव के लिए तैयार कर लिया
मैंने पूरी ताकत से बाण मारा, हिरणी बिंध गयी, रक्तरंजित, टप टप चूता रक्त स्त्राव
लेकिन मेरी आँखे बंद थी, मैंने हथोड़ा दूसरी बार चलाया, तीसरी बार, चौथी बार,
गुड्डी की सिसकियाँ हलकी चीखों में बदल गयी थीं, दांतों से होंठों को उसने काट लिया था लेकिन तब भी चीख निकल गयी
और जब मैंने आँखे खोलीं लिंग अंदर धंसा, थोड़ा बहुत रक्त स्नात, योनि भी जवाकुसुम के फूलों के रंग की सजी और गुड्डी ने अपने होंठों मेरी आँखे बंद कर दी और उसकी मुस्कराहट कह रही थी
बुद्धू ये तो होना ही था, मैं तो ढाई साल पहले तैयार थी, पहल भी की थी, पर तुम्ही डरपोक थे, निरे बुद्धू
थोड़ी देर में गुड्डी ने अपनी आँखें खोली एक अजब सी खुशी एक चमक उनमें थी। मैंने उसके होंठों को छोड़ा तो उसने खुद मेरे होंठों पे एक छोटी सी किस ले ली।
“दर्द बहुत हुआ ना…” मैंने डरते-डरते पूछा।
“बुद्धू।"
वो हल्के से मुश्कुराकर बोली- “कभी न कभी तो होता ही। अच्छा हुआ जो तुम्हारे साथ हुआ जो मेरा। मेरा सपना था…”
और ये कहकर उसने फिर से मुझे चूम लिया।
बस मेरी तो लाटरी लग गई। मेरे होंठ कभी उसके गालों पे कभी उसके जोबन पे। मैंने उसका एक निपल कस-कसकर चूस रहा था। दूसरे निपल को मेरी एक उंगली कभी पुल करती कभी फ्लिक करती।
एक उंगली ने गुड्डी की क्लिट को ढूँढ़ लिया था ,...कभी वो उसे सहलाती कभी दबाती।
थोड़ी ही देर में फिर वो उसी तरह मस्त सिसकियां भरती, मुझे बाहों में भींचती, और अब मैंने लिंग को फिर थोड़ा सा बाहर निकालकर हल्के-हल्के धक्के लगाने शुरू कर दिए।
मैंने तकिये को एक बार फिर सेट किया और अब दोनों हाथ उसके नितम्बों पे रखकर एक बार फिर पहले की तरह 7-8 करारे धक्के मारे। अब ⅔ से ज्यादा लिंग गुड्डी की योनि में था। जब मैं उसकी क्लिट छेड़ता तो वो खुद अपने चूतड़ उछलती बोलती।–
“करो ना। रुक क्यों गए। ओह्ह… हाँ। ओह्ह…”
मैंने तिहरा हमला शुरू कर रखा था। मेरे दोनों हाथ कभी उसकी चूचियों पे, कभी क्लिट और साथ में मेरे होंठ। कसी कुँवारी कच्ची चूत में रगड़ता घिसटता लण्ड। तीन बार मैं उसे किनारे तक ले गया और तीन बार मैंने रोक दिया।
मस्ती के मारे गुड्डी पागल हो रही थी। और चौथी बार। जब वो झड़ने के करीब हुई, उसकी देह कांपने लगी, अपने आप आँखें मुंदने लगी। तो मैंने लण्ड आलमोस्ट पूरा बाहर निकल लिया। मेरे होंठ कस-कसकर उसके निपल को चाट रहे थे चूस रहे थे फ्लिक कर रहे थे। एक हाथ से मैंने उसकी पतली कमर को जोर से पकड़ रखा था और एक हाथ से अंगूठे और तरजनी के बीच उसकी क्लिट को दबाकर रगड़ रहा था।
ओह्ह… ओह्ह… ओह्ह… आह्ह… अह्ह्ह… नहिन्न्न।
गुड्डी बोलने के साथ चूतड़ उछाल रही थी और मैंने पूरी ताकत के साथ लण्ड उसकी कुँवारी चूत में ठेल दिया। और अबकी लगभग पूरा लण्ड अन्दर समां गया।
ओह्ह… ओह्ह… ओह्ह… आह्ह… अह्ह्ह… हाँ हाँ हननं। वो जोर-जोर से झड़ रही थी उसके नाखून मेरी देह में धंसे हुए थे। साँसें लम्बी-लम्बी चल रही थी, एक-दो मिनट रुक करके मैंने फिर बिना रुके जोर-जोर से धक्के मारने शुरू कर दिए। मुझे लग रहा था की मेरा होने वाला हैं लेकिन बिना रुके 10-20-30- और गुड्डी एक बार फिर मेरा साथ दे रही थी।
मैंने गुड्डी को लगभग दुहरा कर दिया था जब मैंने झड़ना शुरू किया।
हम दोनों साथ-साथ झड़े।
गुड्डी की टांगें मेरे ऊपर लिपटी थी।
जैसे कब की प्यासी धरती सूखे के बाद बादल की एक हर बूँद रोप ले, 5 मिनट तक हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में वैसे ही भींचे पड़े रहे। फिर जब अलग हुए तो एक दूसरे की ओर देखकर मुश्कुरा दिए। गुड्डी दर्द, थकान और आनंद में डूबी थी।
मैं कुछ देर बाद सायास उठा। और गुड्डी के पैरों के बीच, उसकी थकी खुली जाँघों के बीच। खून के कुछ धब्बे। और मेरे वीर्य के एक-दो कतरे। मैंने अपनी रुमाल से उसे पोंछ दिया और एक वहां हल्की सी किस्सी ले ली। गुड्डी ने खींचकर मुझे फिर से अपनी बांहों में भर लिया और मेरे होंठों पे अपने होंठ रख दिए।
थोड़ी देर तक हम दोनों वैसे ही पड़े रहे की एक मेसेज की बीप ने हमारा ध्यान खींचा।
पहले गुड्डी के फोन पे फिर मेरे नान सिक्योर फोन पे।
रीत का मेसेज था। गुड्डी के फोन पे- “हुआ की नहीं या अभी भूमिका ही चल रही है…”
मेरे नान सिक्योर पर्सनल फोन पे- “चुदी की नहीं?”
मैंने और गुड्डी ने फोन एक-दूसरे को दिखाया और बहुत जोर से हँसे।
गुड्डी ने मेरा फोन मुझसे ले लिया और ठसके से मेरी गोद में आकर बैठकर मेरे फोन पे मेसेज का जवाब दे दिया-
“हाँ चुद गई…”
उधर से रीत का मेसेज आया।
"सूखे सूखे या क्रीम लगाकर।"
गुड्डी कुछ उल्टा सीधा जवाब देती उसके पहले मैंने उसे से फोन लेकर रीत को मेसेज दिया- “यार मेरे फोन से गुड्डी मेसेज दे रही है…”
“मुझे पता है। उससे बोलना ये ट्रिक मैं भी पहले कर चुकी हूँ…” रीत का जवाब आया।
फोन अब तक फिर गुड्डी के हाथ में था- “और अब तक कहाँ जग रही है…”
गुड्डी ने मेसेज दिया- “तू क्या समझती है की तू ही फागुन के मजे लूट सकती है। मैं भी गुलछर्रे उड़ा के आ रही हूँ। थक गई हूँ सुबह पूरा किस्सा बताऊँगी…”
इतना इशारा मेरे लिए काफी था। उसकी रिपोर्ट में था की वो लेट नाईट डी॰बी॰ के साथ जायेगी। जब गुड्डी गोद में हो तो। मेरे हाथ दूसरे काम में लग गए थे। और मेसेज का काम गुड्डी कर रही थी।
रीत का एक और मेसेज आ गया- “हे वो दूबे भाभी वाला काम मत भूलना। अपनी नाम राशि का। उसे ले आने का और उसका…”
गुड्डी ने मुझे दिखाया और मुश्कुराकर पूछा- “क्या जवाब दूं बोल न…”
जवाब में मैंने गुड्डी का गाल कसकर कचाक से काट लिया और निपल पिंच कर लिया-
“यार हम लोगों के आने से पहले चार बार फोन आ चुका था बिचारी का। इत्ती जोर से खुजली मच रही है उसकी…” गुड्डी ने जवाबी मेसेज भेजा।
“अरे तो चारा खिला देना। बिचारी को। चारा तो तेरे पास है ही। अकेले अकेले कितना मुँह मारेगी तू। पेट खराब हो जायगा- “जवाब पढ़कर हम दोनों हँसने लगे।
रीत तो रीत थी। उससे कौन जीत सकता था पलट कर जवाब आया।
और बात मेरी ममेरी बहन रंजीता के बारे में हो रही थी, गुड्डी की सहेली, घर का नाम उसका भी गुड्डी और वो भी गुड्डी की हम उम्र, गुड्डी की तरह क्लास ११ का इम्तहान देने वाली, बनारस में मैं तीन बार कसम खा के आया था की होली के बाद जब गुड्डी के साथ लौटूंगा तो उसे भी ले आऊंगा और दूबे भाभी ने गुड्डी को काम पकड़ाया था, की बनारस उसे लाने से पहले, गुड्डी उसकी सील तुड़वा के लाये। और किससे? मुझसे। तो बस उसी सिलसिले में और जब मेरे मायकेवालियों की रगड़ाई की बात होती है तो पूरा बनारस तो एक हो ही जाता है यहाँ भी, मेरी भाभी, मंजू और शीला भाभी भी
आखिर मेरी ममेरी बहन उन सब की ननद लगती और ननद से तो बिना अच्छी वाली गारी दिए बिना बात करने से पाप लगता है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं है।
मैंने गुड्डी से इशारा किया की ये अन्ताक्षरी बंद करे।
मेरा फिर से तन्ना रहा था।
लेकिन गुड्डी भी,... उसने बात आगे बढ़ाई। इन लड़कियों के हाथ में मोबाइल आ जाए तो न दिन देखे न रात।
“कल जाऊँगी उसके यहाँ। अब तू इतनी उसकी सिफारिश लगा रही है तो चलो उसके लिए भी चारे का इंतजाम कर ही दूंगी। रही पेट की बात तो। उसकी दवाई मैंने पहले ही खा ली थी…” गुड्डी ने मेसेज दिया।
“ओके सोती हूँ। बेस्ट आफ फक आई मीन लक। फार नेक्स्ट राउंड…” रीत ने मेसेज भेज के फोन काट दिया।
मैंने गुड्डी के हाथ से फोन छीन के अपना और उसका दोनों फोन तकिये के नीचे रख दिए। तकिये के नीचे तभी मुझे फिर वो वैसलीन की शीशी दिखी।
“हे यहाँ ये कैसे किसने…” मेरे समझ में नहीं आ रहा था।
( हालांकि आधी वैसलीन की शीशी मैंने ही थोड़ी देर पहले खाली कर दी थी उसकी आधी अपने मुस्टंडे पे और आधी गुड्डी की राजदुलारी पे लगा के और ये शीशी खरीदी भी बनारस में मेरे सामने गयी थी, मेरे ही कार्ड से )
गलती की कि पूछ लिया और ऐसा करने पे जो होता है वो हुआ। डांट पड़ी।
“तुमने रखी थी…” घुड़क कर गुड्डी ने पूछा।
“नहीं, लेकिन…” मैं हल्के से बोला।
“तो। अगर मैं तुम्हारा कुछ प्लान न करूँ न तो तुम ऐसे ही रह जाओ। बुद्धू…” वो बोली।
मेरा एक हाथ उसके उभार पे था और दूसरा नीचे। एक उंगली आधी अन्दर। धीमे-धीमे अन्दर-बाहर। आग सुलगाती।
“हे बात बहुत हो गई अब काम…”
“एकदम…”
और मेरे कुछ करने के पहले उसने सिर पीछे घुमाया और उसके होंठ मेरे होंठों पे और उसकी जीभ मेरे मुँह के अन्दर।
जैसे थोड़ी देर पहले मैं उसके होंठों को चूस रहा था अब वो मेरे होंठों को सक कर रही थी। चाट रही थी, जिस तरह मेरी उंगली उसकी बुर के अन्दर चारों और घूम रही थी उसी तरह उसकी जुबान मेरे मुँह में। उसने अपने दोनों हाथों से मेरे सिर को भी कसकर पकड़ लिया और अपनी ओर खींच लिया।
कुछ देर बाद उसने मेरे होंठ छोड़े और बोली बस एक मिनट।
अब वो मेरी गोद में मेरी ओर मुँह करके बैठ गई थी और अपने दोनों पैर मेरी कमर के चारों ओर लपेट लिए। और एक बार फिर मेरे होंठ उसके होंठों के कब्जे में। एक हाथ से वो मेरा सिर पकड़कर अपनी ओर खींचे हुए थी। मेरे दोनों हाथ गुड्डी के किशोर उभारों पे थे कभी हल्के से प्यार से सहलाते और कभी कसकर दबा देते। बहुत तरसाया तड़पाया था इन्होंने।
और मेरे जंगबहादुर एक बार स्वाद पा चुकने के बाद फिर तडफडा रहे थे।
गुड्डी की चुनमुनिया के ठीक ऊपर। एक हाथ की उंगली से पहले गुड्डी शरारत से उसके बेस पे छेड़ रही थी। और फिर हल्के से उसने मेरे लिंग को पकड़ लिया और आगे-पीछे करने लगी। किसी भी इज्जतदार शिश्न को एक गोरी किशोरी अपने कोमल कोमल हाथों में ले आगे-पीछे करे तो क्या होगा।
वही हुआ।
वो जोर से तनमना उठे। ऊपर से गुड्डी ने अपनी उंगली के टिप से उसके सुपाड़े के पी-होल पे सुरसुरी कर दी। अब हालत कंट्रोल से बाहर होती जा रही थी। लेकिन गुड्डी मेरी गोद से उठ गई।
“हे क्या हुआ इससे डर गई क्या?” मैं
ने अपने फिर से पूरी तरह खड़े लिंग की ओर इशारा करके कहा।
वो रुक के लौट आई और झुक के लिंग पकड़कर उसे देखकर कहने लगी-
“इससे क्यों डरूँगी, ये तो मेरे प्यारा सा, सोना सा, मुन्ना :
और खुले सुपाड़े को गुड्डी ने जीभ निकालकर अच्छी तरह चाट लिया और फिर होंठ के बीच पूरा सुपाड़ा गड़प कर, खूब कसकर चूम लिया और अपने मस्त नितम्ब हिलाती, मटकाती चल दी। उसकी पतली सी कमर पे उसके किशोर नितम्ब भी भारी लगते थे।
मेरा मन किया की अगर एक बार मौका मिले तो इसके पिछवाड़े का भी।
गुड्डी ने एक बार मुड़कर पीछे देखा जैसे उसे मेरे मन की बात का पता चल गया हो और मुश्कुरा दी। अलमारी से एक कागज का वो पाकेट लेकर आ गई और फिर से मेरी गोद में बैठकर उसे खोलने लगी।
“मैं भी न तुम्हारी संगत में पड़ के भुलक्कड़ हो रही हूँ, तुमने बोला था ना पान के लिए…” मुश्कुराकर वो बोली।
“हाँ वो…”
कल के पहले मैंने कभी पहले पान खाया भी नहीं था और वो भी बनारस का स्पेशल। कल रात इसी ने सबसे पहले अपने होंठों से। मैं सोच रहा था की गुड्डी ने चांदी के बर्क में लिपटे महकते गमकते दो जोड़े पान निकालकर साइड टेबल पे रख दिए।
“हे ये तो चार हैं…” मैं चौंक के बोला- “मैंने तो दो मेरा मतलब हम दोनों के लिए। दो…”
“अरे बुद्धू चलो कोई बात नहीं। ये पान वैसे भी जोड़े में ही आते हैं…” गुड्डी बोली और एक जोड़ी पान अपने होंठों में लेकर मेरी ओर बढ़ाया।
कल की तरह बजाय नखड़ा दिखाने के मैंने मुँह खोल दिया। और गुड्डी ने दोनों हाथों से मेरा सिर पकड़कर आधे से ज्यादा पान मेरे मुँह में डाल दिया और यही नहीं अपनी जुबान मेरे मुँह में डालकर ठेल भी दिया। थोड़ी देर में पान ने असर दिखलाना शुरू कर दिया। एक अजब सी मस्ती हम दोनों पे छाने लगी। मैं कसकर गुड्डी के जोबन का रस कभी हाथों से कभी होंठों से लेने लगा और गुड्डी भी कभी मुझे चूम लेती कभी होंठों को चूस लेती कभी चूस लेती।
फिर अचानक उसने मुझे पलंग पे गिरा दिया और इशारे से बोली की मैं बस चुपचाप लेटा रहूँ। उसके होंठ मेरे होंठों से सरक के मेरे सीने पे आ गई और पान चूसते चुभलाते उसने मेरे टिट्स पे अपनी जुबान फ्लिक करनी शुरू कर दी जैसे मैं थोड़ी देर पहले उसके निपलों पे कर रहा था। एक टिट पे उसकी जीभ थी और दूसरे पे उसके नाखून। जोश के मारे मेरे नितम्ब अपने आप ऊपर उठ रहे थे।
भाग ४६ - रात बाकी, बात बाकी
तो आगे का किस्सा अगले हिस्से में भाग ४६ में और तक तक इसे पढ़ के लाइक और कमेंट जरूर करें, जितनी जल्दी ज्यादा कमेंट उतनी जल्दी अगला पार्ट