शाम की लाली अब धीरे-धीरे मिट रही थी, पार्क की चांदनी हल्की-हल्की बिछी हुई, लेकिन राजन की सांसें अभी भी भारी थीं। वो गेट के पास खड़ा, हाथ में लाठी थामे, लेकिन आंखें उसी बेंच की तरफ टिकीं—जहां उमेश अपनी बेटी को गोद में बिठाए, चूचियां मसल रहा था, थूक की चिकनाहट उंगलियों पर चमक रही थी । 'उफ्फ... ये टीचर साला, अपनी बेटी के साथ... कितना गर्म हो रहा हूं मैं। लंड तो फड़क रहा है, जैसे सालों बाद जवान हो गया है ।' राजन ने जीभ चाटी, पैंट के अंदर हाथ सरकाया हल्का सा, लेकिन रुक गया—नहीं, अभी नहीं। वो देखता रहा, सिसकारियां दबाईं, जब तक उमेश ने खुशबू को उठाया, सलवार ठीक की, और फुसफुसाते हुए—"चल बेटा, घर चलें... कल फिर।" दोनों साइकिल की तरफ बढ़े, राजन ने गेट खोला, मुस्कुराता हुआ—"साहब, सावधानी से... रास्ता अंधेरा है।" लेकिन मन में हलचल—'साली बेटी... कितनी रसीली, चूचियां लाल हो गईं मसलने से। घर जाकर... उफ्फ, दारू पीनी पड़ेगी, ये आग बुझाने को।'
उमेश-खुशबू चले गए, साइकिल की घंटी की आवाज दूर हो गई, तो राजन ने गेट बंद किया, ताला लगाया। पार्क खाली था अब, सिर्फ पेड़ों की सरसराहट। वो लाठी टेकता हुआ बाहर निकला, लेकिन सीधे घर नहीं—पास के ठेके की तरफ। शाम का ठेका चहल-पहल से भरा, लेकिन राजन को कौन पूछे? "भैया, एक पव्वा दे... तेज वाली।" कांच की बोतल पकड़ी, पैसे फेंके, और बाहर ही एक पेड़ के नीचे बैठ गया—नीम की छाया में, दूर से सड़क की लाइटें झिलमिलातीं। पहला घूंट नीचे उतरा, गले में जलन, लेकिन सीने में वो गर्मी फैल गई—पार्क वाली यादें ताजा हो गईं। 'साला उमेश... बेटी की चूचियां मसल रहा, थूक लगाकर... मैं तो कभी सोचा भी न था ऐसे। लेकिन आज... लंड खड़ा हो गया देखकर।' दूसरा घूंट लिया आंखें बंद—खुशबू की सिसकी गूंज रही मन में, उमेश की फुसफुसाहट। दारू ने सिर भारी कर दिया, लेकिन नीचे की आग और तेज हो गयी । बोतल आधी हो गई, तो राजन उठा—पैर लड़खड़ा रहे थे , लेकिन घर की तरफ। बस सो जाऊंगा। ये नशा... कल तक भूल जाऊंगा।'
घर पहुंचा, छोटा-सा मकान, दीवारें पुरानी, लेकिन अंदर की रोशनी हल्की। दरवाजा खोला, तो सोभा वहां—28 की विधवा, पति को गए दो साल हो गए, लेकिन चेहरा अभी भी ताजा, आंखों में वो उदासी जो कभी-कभी मुस्कान में छिप जाती। वो चोली-पेटीकोट में थी, साधारण सा, लेकिन शाम की गर्मी में पसीना चिपका हुआ—चोली के अगले बटन खुले, चूचियां हल्की उभरीं, पेटीकोट कमर पर लिपटा हुआ । "पापा... इतनी रात को? ठेके गए थे न?" सोभा ने मुस्कुराते हुए पूछा, हाथ में थाली—रात का खाना गर्म कर रही थी शायद । राजन की नजरें ठहर गईं—पहली बार ऐसे, जैसे कोई औरत हो सामने, बेटी नहीं। चोली के नीचे वो गोलाई, पेटीकोट की लाइन जो कूल्हों पर... 'उफ्फ... सोभा... ये क्या सोच रहा हूं? मेरी बेटी... विधवा हो गई, लेकिन इतनी... रसीली?' शर्मिंदगी चढ़ आई गालों पर, नजरें हटाईं, लेकिन दिल धक-धक। "हां बेटा... काम था... थक गया हूं। तू... खाना लगा दे।" आवाज कांपी हल्की, वो अंदर चला गया, लेकिन मन में वो पार्क वाली आग अब सोभा पर शिफ्ट हो गई। 'नहीं राजन... पागल मत हो। ये तो तेरी औलाद... लेकिन दारू ने... उफ्फ, आंखें हट ही नहीं रही।'
रात गहराई, चूल्हे की लौ चटक रही थी —सोभा रोटियां बेल रही थी आटा गूंथते हुए। राजन बाहर बरामदे में बैठा, नशा चढ़ा हुआ, आंखें चूल्हे की तरफ। सोभा झुकी, चोली आगे की तरफ खुली—चूचियां हिल रही उसकी लौ की रोशनी में, निप्पल की छाया साफ दिख रही । हर रोटी पलटने पर वो हलचल, पसीना चोली पर चिपका, गीला सा। राजन का गला सूखा—'आह... कितनी नरम लग रही... हिल रही हैं जैसे... दूध भरी। नशे की वजह से... मन में गंदी तस्वीरें उमड़ी । छू लूं तो क्या... नहीं, बेटी है।' लेकिन नजरें न हटीं, लंड फिर से सरकने लगा, पैंट में दबाव। सोभा ने महसूस किया—पापा की नजरें चूचियों पर ठहरीं है वो मुड़ी, आंखें मिलीं। चेहरा लाल हो गया, शर्म से नीचे देख लिया—"पापा... रोटी... खा लो। गर्म है।" आवाज हल्की, कांपती, लेकिन आंखों में कुछ—वो जानती थी, विधवा की जिंदगी में ये नजरें... पहली बार पापा से। राजन ने सिर हिलाया, "हां... बेटा... अच्छी बनी हैं।" लेकिन मन में आग—'साली... शर्मा क्यों गई? जानती है ना... या...?'
रात और गहरी हो गई थी , सोभा सोने चली गई—अपने कमरे में, साड़ी उतारकर पेटीकोट-चोली में ही। राजन बेचैन, नशा उतर रहा था, लेकिन नीचे की जलन नहीं। बाथरूम की तरफ बढ़ा, दरवाजा बंद किया—अंधेरा, सिर्फ छोटी सी खिड़की से चांदनी। सोभा की धुलाई हुई पैंटी वहां लटकी—सफेद, कॉटन की, लेकिन इस्तेमाल की नमी अभी बची। राजन ने हाथ बढ़ाया, कांपते हुए पकड़ी—नाक से सटा ली। 'उफ्फ... सोभा की... बेटी की महक... गीली... चूत की बू... साली विधवा, कितने दिनों से... ये सोचकर...' सिसकारी निकली, जीभ चाटी—हल्का नम, पसीने और कुछ की। लंड बाहर निकाला, मोटा, नसें फूलीं—हाथ ऊपर-नीचे, तेज। 'रंडी... सोभा रंडी... तेरी चूत की बू... पापा को पागल कर दे रही विधवा साली, चूचियां हिलाती रहीं चूल्हे पर... ले, तेरी पैंटी पर... मेरा रस!' गालियां मन में, लेकिन जोर से फुसफुसाईं—शरीर कांपा, गाढ़ा वीर्य फूट गया , पैंटी पर चिपक गया, गर्म, चिपचिपा। राजन हांफा, शर्म फिर चढ़ आई—'ये क्या किया... बेटी की... कल सुबह... धो लेगी, लेकिन... अगर जान गई तो?' पैंटी वापस लटकाई, बाहर निकला, लेकिन नींद न आई—मन में सिर्फ सोभा की चूचियां घूम रही..
सुबह की पहली किरणें खिड़की से चुपके से घुस रही थीं, लेकिन सोभा की आंखें पहले ही खुल चुकीं—रात की नींद टूटी-फूटी, मन में वो अजीब सी हलचल। वो बिस्तर से उठी, पेटीकोट ठीक किया,
बाहर आकर पापा के कमरे की तरफ बढ़ी—राजन अभी सो रहा, सांसें भारी, चादर नीचे सरकी। सोभा ने हल्के से कंधा झटका, "पापा... उठिए... सुबह हो गई। चाय बना दूं?" आवाज नरम, लेकिन आंखों में चमक—कल की नजरें याद आ रही। राजन की आंखें खुलीं, धीरे से—सुबह की नींद में धुंधली, लेकिन सामने सोभा... चोली में काली-काली चूचियां, निप्पल उभरे हुए, पेटीकोट कमर पर लिपटा। 'उफ्फ... बेटी... ये क्या... इतनी...' बूढ़ा लंड हिल गया, पैंट में तनाव—सुबह की सुस्ती मिट गई, खड़ा होने लगा। नजरें ठहर गईं उन काले गोले पर, जैसे दूध भरी कलियां। शर्म चढ़ आई, नजर हटाई, लेकिन दिल में आग—'नहीं... ये तो सोभा... लेकिन कल रात... पैंटी...' "हां बेटा... उठ रहा हूं। तू... जा, तैयार हो जा।" लेकिन नीचे दबाव बढ़ता जा रहा।
सोभा मुस्कुराई—वो जानती थी, पापा की नजरें कहां ठहरीं। मन में खुशी की लहर, 'पापा... मुझे ऐसे देख रहे... विधवा हूं, लेकिन... आज...' गांड हल्की सी मतका ली, पेटीकोट की लहर—चली गई बाहर, कदमों में शरारत। राजन बिस्तर पर लेटा रहा पल भर, लंड को दबाया, 'साला... बेटी पर... पागल हो गया हूं।' लेकिन उठा, बाहर आया—बरामदे में सोभा झुकी हुई, झाड़ू लगाती। पेटीकोट ऊपर सरका, गांड की गोलाई झलक रही, लेकिन आगे... चोली खुली सी, आधे काले दूध बाहर आने को बेताब हो रहे थे —निप्पल कड़े, लौ की तरह चमकते। हर झाड़ू के झटके पर हिलाव, जैसे बुला रही हों। राजन की सांस अटक गई, 'आह... कितने बड़े... काले... छू लूं तो नरम होंगे।' खड़ा हो गया पूरा लंड, पैंट तन गई। सोभा ने महसूस किया—पीछे से वो नजरें, गर्म हो गयी । अंदर से खुशी उमड़ आई, 'पापा... देख रहे... शर्म क्यों न आएं?' लेकिन कुछ बोली नहीं, बस झुककर और झाड़ू लगाई, चूचियां और हिलाईं।
राजन पास आया, आवाज दबाई, "सोभा... आज ड्यूटी नहीं जाऊंगा। पार्क... छुट्टी लूंगा। तू... चाय बना।" सोभा मुड़ी, मुस्कान—'ड्यूटी नहीं... मतलब... आज घर पर?' "हां पापा... बना दूंगी।" राजन बाहर निकला, मन भटकता—गांव की गली में, ठेके के पास। 'नशा... चाहिए, ये आग बुझाने को।' गंजा लिया, दो-चार तंबाकू के साथ—पीने लगा धीरे-धीरे, धुआं फेफड़ों में। सिर भारी, लेकिन नीचे की भूख और तेज। आते वक्त दुकान से दो चॉकलेट ले ली—पुरानी आदत, बेटी को खुश करने की। 'सोभा... ये लेगी तो मुस्कुराएगी।'
घर लौटा, सोभा चाय देने आयी —चॉकलेट देखते ही आंखें चमक गईं। "पापा... ये... मेरे लिए?" खुशी से चेहरा खिला, विधवा की उदासी मिट गई। "हां बेटा... तू... खा ले।" सोभा ने पैकिंग खोली, बाप के सामने ही चट-चट चाटने लगी—जीभ पर रगड़कर, होंठ चूसकर। 'मम्म... कितना स्वादिष्ट... पापा लाए।' राजन देखता रहा, गंजे का नशा चढ़ने लगा —चॉकलेट की चिकनाहट जीभ पर, सोभा की लार... उफ्फ। "सोभा... एक कौर... दे ना।" आवाज में लालच, नशे की मस्ती। सोभा हंसी, चॉकलेट आगे बढ़ाई—आंखों में चमक, वासना की हल्की सी लहर। . जैसे...' राजन ने हाथ बढ़ाया, लेकिन चॉकलेट छोड़ दी—सीधा मुंह में मुंह डाल दिया, जीभ पर लगे चॉकलेट को चाटने लगा। 'उफ्फ... मीठा... तेरी लार... चिकना...' जीभ घुमाई, चूसने लगा—चॉकलेट और लार का मिक्स
सोभा सिहर गई, हाथ से धकेलने लगी—"पापा... क्या... रुको..." लेकिन कमजोर सा धक्का, मन में सिहरन। राजन नहीं माना, नशे में—जीभ चूसने लगा, लार से चिपचिपी, चॉकलेट के टुकड़े मुंह में आ गए 'आह... बेटा... तेरी जीभ... कितनी नरम... चूसूंगा...' सोभा की सांसें तेज हो गयी , धकेलती लेकिन आंखें बंद—'पापा... ये... गलत... लेकिन... ' कमरा गर्म हो गया, हवा में वो मीठी गंध...
राजन की सांसें अब जानवरों जैसी हो चुकी थीं, गंजे का नशा और सोभा की चूत का वो गर्म, गीला घेरा—सब मिलकर उसे पागल बना रहा था। चाटते-चाटते बस... सहन न हुआ। वो पीछे हटा थोड़ा, पैंट की डोर खींची—बूढ़ा लेकिन मोटा, काला लंड बाहर उछला, नसें फूलीं, सुपाड़ा चमकता हुआ। 'उफ्फ... सोभा... तेरी चूत... ले ले...' बिना सोचे, सीधा पीछे से पकड़ा सोभा का कमर, लंड का सिरा चूत के होंठों पर रगड़ा—गीला था, फिसलन भरा। एक झटके में धकेल दिया, पूरा अंदर... कसाव इतना कि राजन की सिसकारी निकल गई।
सोभा चीखी—"आह्ह्ह... पापा... दर्द... इतना... बड़ा..." शरीर झटका, खाट पकड़ ली जोर से, आंखें नम हो गईं। लेकिन दर्द में वो गर्मी... चूत फटने जैसी, लेकिन सालों की प्यास भरी। राजन रुका नहीं, कमर पकड़कर दे-दाना-दन शॉट मारने लगा—हर धक्के में लंड पूरा अंदर-बाहर, चूत की दीवारें रगड़ रही। सोभा के काले दूध झूलने लगे, आगे-पीछे लहराते, निप्पल हवा काटते। "ले साली कुतिया... हरामी... ले बाप का लंड अपनी बूर में साली!" राजन की आवाज कर्कश, नशे में गालियां फूट पड़ीं—जैसे सालों दबी हुईं, अब बाहर। हर शॉट के साथ कमर का झटका, सोभा की गांड उसके पेट से टकराती, ताली की आवाज।
बाप के मुंह से वो गालियां... सोभा के कान जलने लगे, लेकिन नीचे आग लग गई—चूत और कस गई, लंड को चूसी जैसे। 'पापा... कुतिया कह रहे... लेकिन... कितना गर्म...' शर्म से गाल लाल, लेकिन कमर अपने आप हिलने लगी—पीछे से धक्का देती, गांड ऊपर उठाती। "आह... पापा... हाँ... मारो... गहरा..." सिसकियां अब आनंद की, पानी फिर टपकने लगा, लंड पर चिकना। राजन कराहा—"कितनी गर्म है साली छिनाल ... तेरी बूर... दूध निकाल रही मेरे लंड को... ले... ले..." धक्के तेज हो गए , पसीना टपक रहा दोनों का कमरा गंध से भरा—नशे, पसीने, चूत के रस का। सोभा का शरीर कांपने लगा, चरम पर—"पापा... आ... आ रहा... आह्ह्ह!" और फूट पड़ा, चूत सिकुड़ गई, पानी लंड पर बहा। राजन भी झटका खाया—"हां... रंडी... ले... मेरा रस..." गर्म धार अंदर फेंकी, पूरा भर दिया। दोनों हांफने लगे, राजन का वजन सोभा पर गिरा, लंड अभी भी अंदर..
कुछ पल वैसे ही रुके, सांसें धीमी हुईं—राजन ने धीरे से सोभा को सीधा किया, खाट पर लिटाया, चोली ठीक की हल्के से। चेहरा देखा—नम आंखें, लेकिन मुस्कान किनारों पर। "कैसा लगा बेटी... पापा का लण्ड..?" आवाज अब नरम, लेकिन नशे की मस्ती बची। सोभा मुस्कुराई, होंठ काटे—"पापा... दर्द... लेकिन... अच्छा... बहुत..." शब्द हल्के, शर्म से नीचे देख लिया, लेकिन आंखों में चमक—वो संतुष्टि वाली।
राजन का मन फिर भड़का—ये मुस्कान, ये शर्म... उफ्फ। हाथ उठाया, जोर से एक थप्पड़ गाल पर मारा—चटाक की आवाज। सोभा सिहर गई, गाल लाल, लेकिन आंखें चमक उठीं—मस्त हो गई, शरीर में वो रफ वाली सिहरन। भावनाओं पर काबू रखा उसने लेकिन आवाज कांपी—"मारो नहीं पापा... दर्द होता है ." लेकिन लहजे में वो कामुकता... जैसे बोल रही हो, और मारो, गहरा। राजन हंसा कर्कश से—"ऐसे तो सावित्री दिखती है मादरचोद कुतिया... लेकिन कितनी गर्म है अंदर से... अब तुझे रोज अपनी रंडी बनाकर चोदूंगा, रखैल बना दूंगा..." दो और थप्पड़ मारे, गालों पर—जोर से, लेकिन प्यार भरे। सोभा सिसकी, "आह... पापा..." शर्म से चेहरा छिपा लिया, लेकिन कमर हल्की सी हिली—नीचे फिर गीलापन।
राजन उठा, लंड अभी भी आधा खड़ा, पैंट ठीक की। "चुप... अब आराम कर।" बाहर चला गया, बरामदे में—हवा लेने को। मन में हलचल—'ये क्या हो गया... बेटी को... लेकिन... कितना मजा आया ..' सोभा लेटी रही, गाल सहलाती, मुस्कुराती—शर्म और खुशी से...