brego4
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superb engrossing story jo ki kissi bahut hi complex jaal mein fasi hui lagti hai
ab e kon naya banda aa gaya jiska pichha karne nikl pade haiभाग ३७)
“एक मिनट ... एक मिनट ....”
कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए बीच में ही हड़बड़ा कर बोल पड़ी मोना..
आज एक अलग कैफ़े में हम दोनों मिले हैं.. जहाँ एक बड़ा सा लॉन है; उस कैफ़े का ही है.. कैफ़े के अंदर वातानुकूलित कमरे में बैठने के अलावा बाहर उस बड़े से लॉन में बैठने की भी सुविधा है.. ग्राहकों को जहाँ मन वहाँ बैठ सकते हैं..
हम दोनों ने बाहर ही बैठने का निर्णय किया था.
काफ़ी अच्छा लग रहा है आज ...
इस तरह बाहर किसी लॉन में किसी ‘ख़ास’ के साथ बैठ कर कॉफ़ी पीना एक अलग ही अनुभूति का संचार करा रहा था मन में..
एक गोल टेबल के आमने सामने कुर्सियाँ लगा कर एक दूसरे के सामने बैठ कर गप्पे लगा रहे थे दोनों..
बातों ही बातों में चाची से संबंधित एक दो बातें उठीं और फ़िर तो उन्हीं से संबंधित ही बातें होने लगीं..
और जब उनके बारे में बात हो ही रही थी तो मैंने उनकी उस कहानी के बारे में भी मोना को बता दिया...
कहानी के एक जगह मुझे अचानक से बीच में ही टोकती हुई मोना बोल पड़ी, कॉफ़ी की चुस्की बीच में ही छोड़ते हुए,
“एक मिनट.. मतलब तुम कह रहे हो की....ओह सॉरी.. आई मीन, तुम्हारी चाची का कहना है की उस दिन उस कमरे में जो कुछ भी हुआ था ; उन लोगों ने उसकी रिकॉर्डिंग कर ली थी...??”
“हम्म.. उनका तो.. मतलब, चाची का तो यही कहना है...”
“ओह.. और उसी रिकॉर्डिंग के आधार पर ही तुम्हारी चाची को वे लोग ब्लैकमेल करते रहे..?”
“करते रहे नहीं मोना... बल्कि अभी भी कर रहे हैं..|”
बड़ी कठिनाई से उचारा मैंने यह वाक्य.. बड़ा कष्ट और लज्जित सा बोध होने लगा अचानक से मुझे --- इस बात को स्वीकार करने में कि वे लोग आज भी चाची को ब्लैकमेल करते हैं..
“हम्म.. और जैसे हालात हैं, तुम तो शायद पुलिस स्टेशन भी नहीं जा सकते..”
मेरे निराश चेहरे को देख मोना ने बातचीत का रूख पलटने की कोशिश की --- और सफ़ल भी रही --- क्योंकि मैं तो ख़ुद ही अपनी असफ़लता पर से ध्यान हटाना चाह रहा था..
“जा क्यों नहीं सकता.. पर जाऊँगा नहीं.. क्योंकि कोई फ़ायदा नहीं होगा ... मैं आलरेडी एक सस्पेक्ट हूँ.. भले ही प्राइम ना सही.. पर हूँ तो... और वैसे भी उस इंस्पेक्टर दत्ता को मेरे किसी भी बात का यकीं न करने का जैसे कहीं से ऑर्डर मिला हो.. या शायद ख़ुद ही यकीं न करने का कसम खाया है..”
“तो ... क्या सोचा है तुमने...?”
“किस बारे में?”
“अरे बाबा.. इस बारे में .... तुम्हारी चाची के केस में... आगे क्या करने का सोचा है?”
तनिक झुँझलाते हुए मोना पूछी ---
मैं - “ओह.. पता नहीं.. पर जल्द ही कुछ करूँगा..”
“हम्म.”
कुछ सोच कर मैं बोला,
“अच्छा मोना, मैंने जो काम कहा था; तुमने किया वो?”
“नहीं..”
बिल्कुल सपाट अंदाज़ में मोना ने उत्तर दिया..
मैं चौंका ..
उत्तेजित हो उठा और उसी अंदाज़ में पूछा,
“क्या कह रही हो यार.. क्यों नहीं की?”
“क्योंकि मैं काम करवाती हूँ... करती नहीं..”
बाएँ हाथ से अपने बालों को सहलाती हुई बोली वो.. भाव खाते ... शेखी बघारते हुए...
“ओफ़्फ़ो.. अच्छा.. ठीक.. तुम काम करवाई..?”
“ऑफ़ कोर्स करवाई...”
लापरवाही से बोली वह..
मैं - “फ़िर...?”
“फ़िर क्या?”
“नतीजा क्या निकला..??”
“बहुत नहीं ...”
“थोड़ा?”
“हाँ !”
“तो देवीजी.. वही उचारिये...”
“अवश्य बालक... सुनो... गोविंद का केस बिल्कुल वैसा ही है जैसा की उसने ने बताया था.. अन्ह्ह्हम्म..क्या नाम था उसका...?!”
“बिंद्रा?”
“हाँ.. बिंद्रा..! उसने सही कहा था तुम्हें गोविंद के बारे में.. उसकी मम्मी के साथ वाकई बुरा हुआ.. सेम केस एज़ योर्स..”
“ओह्ह.. बहुत बुरा हुआ..”
“और भी ख़बर हैं जनाब.. सुनना नहीं चाहेंगे?”
“अरे तो सुनाओ तो सही यार... इतना गोल गोल क्यों घूम रही हो..?”
“इंस्पेक्टर दत्ता और बिंद्रा... दोनों सही आदमी हैं.. पर एक थोड़ा कम सही है और दूसरा थोड़ा ज़्यादा सही है ... अब कौन कितना हैं.. ये नहीं पता.. पर दोनों मिले हुए हो सकते हैं.. मैं ये तो नहीं कहती कि दोनों गलत कामों के लिए मिले हुए हैं.. मतलब, की दोनों अक्सर आपस में हरेक केस के बारे में चर्चा करते रहते हैं.. तुम्हारी चाची के बारे में दत्ता ने ही बिंद्रा को बताया है........”
“पता है...” मैं बीच में बोल पड़ा...
मोना की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गई..
“पता है...!! कैसे?!”
“बस पता है यार... तुम आगे तो बताओ..”
“भई वाह..! कमाल के निकले तुम.. पहले ही पता कर लिया..!”
“पता लगाया मैडम.. पता हो गया... अब कृप्या अपनी कहानी को कंटिन्यू कीजिए...”
मैंने मुस्कराते हुए मनुहार करते हुए बोला..
बदले में वह भी मुस्कराई.. पर सेकंड भर के लिए .. फ़िर संजीदा होते हुए अपनी बात शुरू की,
“देखो अभय, शायद हमारे शहर में आने वाले दिनों में कोई संकट.. कोई बड़ा संकट गहराने वाला है.. तुमने जिस बात को लेकर आशंका जताई थी.. वो गलत नहीं थी.. आई मीन, फ़िलहाल गलत नहीं लगता..”
“क्यों”
“शहर के कई हिस्सों में दूसरे जगहों से अवैध रूप से हथियारों की ख़रीद फ़रोख्त हो रही है.. इस देश को कमज़ोर करने के उद्देश्य से इस देश के भावी पीढ़ी यानि की युवा वर्ग को नशे के दलदल में धकेला जा रहा है.. ड्रग्स के जरिए.. और ये सब बहुत ही सुनियोजित तरीके से हो रहा है..
“ओके....?” मैं असमंजस सा बोला.. थोड़ी नासमझी वाली बात थी...
“तुम समझ रहे हो ना.. मैं जो कुछ भी कह रही हूँ |”
“अं..हम्म ..हाँ...म..मैं...”
“हम्म.. समझी ...”
“क्या...?”
“यही की तुम क्या समझ रहे हो..”
ताना सा देते हुए बोली मोना..
“मैं क्या समझ रहा हूँ?”
“कुछ नहीं!”
झल्लाते हुए बोली वह..
“तो फ़िर ठीक से समझाओ न...”
शिकायत मेरे शब्दों में भी साफ़ झलकी.
थोड़ा रुकी.. एक साँस ली... नया गरमागर्म आया कॉफ़ी का एक घूँट ली.. होंठों पर हल्का सा जीभ फ़ेरी और शुरू हुई..
“देखो अभय, मैं सीधे पॉइंट पर आती हूँ...म..”
“हाँ.. यही सही रहेगा.” उसकी बात को बीच में ही काटते हुए मैं बोला.. क्या करूँ.. बहुत उतावला हुआ जा हूँ.
थोड़ी नाराज़गी वाले अंदाज़ में मेरी ओर देखी --- मुझे अपने भूल का अहसास हुआ और जीभ काटते हुए सॉरी बोला.
वह दोबारा बोला शुरू की,
“अब बीच में मत टोकना... अच्छे से सुनो.. सीधे मतलब की.. पॉइंट की बात... ये सब कुछ जो हो रहा है --- मतलब की जो कुछ तुम्हारे साथ हो रहा है और उस दिन जो कुछ भी तुमने उस बिल्डिंग में देखा, वह सब एक बहुत बड़े आर्गेनाइजेशन के कारोबार का छोटा सा हिस्सा है --- अब इससे पहले की तुम ये पूछो कि कौन सा आर्गेनाइजेशन; तो मैं ये बता दूं की वो आर्गेनाइजेशन किसी का भी हो सकता है पर है वह एक टेररिस्ट गैंग का ही.. वैसे तो टेररिस्ट गैंग्स का भारत से रिश्ता थोड़ा पुराना है पर यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि कुछ ख़ास विदेशी गैंग्स का भारत की ओर झुकाव नब्बे के दशक में हुआ.. सन १९९० में सोवियत रूस का बँटवारा हुआ तो उसके बँटवारे के साथ ही बहुत से छोटे देशों का अभ्युदय हुआ.. एकाएक बने कुछ देशो के लिए तात्कालिक रकम जुटाना बहुत बड़ा चैलेंज था और इस चैलेंज का जवाब उन्होंने कुछ टेररिस्ट गैंग्स को ड्रग्स और हथियार बेचने के रूप में दिया.. और इससे यकीनन ऐसे छोटे देशों को बहुत बहुत फायदा हुआ --- और टेररिस्ट गैंग्स ने भी जम कर चाँदी काटी --- पर जल्द ही अंतरराष्ट्रीय दबाव के वजह से ऐसे गैंग्स का पतन शुरू हो गया.. कई मारे गए --- कई जेल में डाल दिए गए तो कई के तो दिनों क्या महीनों तक कोई ख़बर न मिली; लापता से हो गए.. और जब लंबे समय तक इनके बारे में कोई ख़बर न मिली तो अंतरराष्ट्रीय समूह ने इन्हें मरा हुआ समझ लिया और ‘presumed dead’ की श्रेणी में डाल दिया. पर वास्तव में ये लोग मरे नहीं थे.. अपितु, खुद को गुमनाम रख कर अपने लिए सुरक्षित ठिकाना तलाश कर रहे थे और जल्द ही इनकी ख़ोज समाप्त हुई भारत पर.. हमारा ये देश हमेशा की तरह तब भी राजनीतिक अस्थिरता में उलझा हुआ था.. इन लोगों ने इस बात का बख़ूबी फ़ायदा उठाया और जल्द ही इस देश में अपना कारोबार और साम्राज्य; दोनों स्थापित कर लिया --- जो कुछ भी इनके पास था, हथियारों से कमाया हुआ; उसे यहाँ ड्रग्स के व्यापार में लगाया.. बहुत शातिर थे वे लोग --- ख़ुफ़िया विभाग और पुलिस; यहाँ तक की संबंधित मंत्रालयों तक को ख़बर लग गई थी और इस दिशा में समुचित कदम भी उठाए जाने लगे थे --- पर --- जैसा की मैंने अभी अभी कहा.. वे लोग बहुत ही शातिर थे --- हर विभाग और उनके द्वारा उठाए गए कदमों में पेंच निकालना.. चाहे कसना हो, ढीला करना या सिर्फ़ लगाना --- वे लोग हमेशा दो ; .... नहीं, दो नहीं ... करीब करीब चार कदम आगे रहते | अपना कारोबार फ़ैलाने के लिए केवल बड़े शहर ही नहीं, वरन छोटे शहरों पे भी अपना ध्यान दिया और ड्रग्स के सप्लाई से लेकर मार्किट में बेचने तक बड़े ही सुनियोजित ढंग से किया जाने लगा.. और इसी तरह हमारा शहर भी छोटा शहर होने के बाद भी सुरक्षित न रहा और जल्द ही इनके इस गोरखधंधे में ... इनके ... इनके ‘जाल’ में कसता – फँसता चला गया... |”
इतना कह कर मोना रुकी.. मैं उसकी ओर बहुत ध्यान से देखे जा रहा था जबसे वो बात कहना शुरू की थी..
अंतिम के कुछ वाक्यों को कहते समय उसके चेहरे पर कुछ अलग ही भाव आए थे और जब खत्म की उस समय बहुत बुरा सा मुँह बना ली .. स्पष्ट था की ये सब कहते हुए उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा.. ऐसा होता भी है आम तौर पर.. लडकियाँ ऐसी बातें कहना – सुनना पसंद नहीं करती है. ये भी तो आखिरकार लड़की ही है.. जो कुछ भी बोली, मेरी लिए.. वरना शायद ऐसी बातों की ओर इसका कभी तवज्जो ही नहीं जाता |
“अहह.. मोना..??”
वो सुनी नहीं.. दूर कहीं देखते हुए खोई सी लगी.
मैंने दोबारा पुकारा, तनिक ज़ोर से..
“मोना?!”
“ओह.. हाँ... क्या हुआ..”
वह हडबडा उठी और खुद को संभालते हुए बोली.
मैं थोड़ा मुस्कराया , फ़िर पूछा,
“कहाँ खो गई थी?”
“ऐसे लोगों के कारनामों के बारे में सोचने लगी थी...”
उत्तर तो वह दी पर कुछ ऐसे मानो वह ऐसे प्रश्न से कोई मतलब नहीं रखना चाहती..
“एक बात पूछूँ?”
“पूछो!”
“ये लोग महिलाओं और लड़कियों को अपना मोहरा क्यों बनाते हैं?”
“इजी टारगेट होते हैं इसलिए.”
“इजी टारगेट?”
“हम्म.. इन्हें फंसाना थोड़ा आसान होता है ... किसी तरह कुछेक आपत्तिजनक पिक्चर ले लो.. या परिवार के बारे में कुछ बोल कर इमोशनल करते हुए ब्लैकमेल करो.. नहीं मानी तो सीधे पूरे परिवार को खत्म करने की धमकी दे दो.. इसी तरह के कुछेक बातों से इन्हें .. हमें अपने नियन्त्रण में लेने में आसानी होती है. हम लोग होती ही ऐसी हैं. अपनों से .. अपने परिवार से प्यार करने वाली. उन्हें बिल्कुल भी तकलीफ या ज़रा सी भी खरोंच लगते नहीं देख सकती. साथ ही इमोशनली भी मर्दों के तुलना में थोड़ी सॉफ्ट होती हैं.”
“तो इससे इन लोगों को फ़ायदा?”
“फ़ायदा तो है ही. पुलिस या जाँच टीम कभी भी महिलाओं और लड़कियों पर शक नही करते.. आई मीन, शक की सुई जल्द हम पर नहीं आती. अक्सर शॉपिंग वगैरह करती रहती हैं --- इसलिए ड्रग्स का सामान इनके सामानों के साथ मिला कर या ड्रग्स को ही अच्छे से पैक कर के इन्हें प्लास्टिक बैग्स में दे देते हैं.. कई कई बार तो ऐसी महिलाएँ अपने परिवार के सामने से ही ड्रग्स ले कर निकल जाती हैं और किसी को ज़रा सी भी भनक तक नहीं लगती!”
“माई गॉड! .. ऐसा?”
“हाँ.. बिल्कुल ऐसा.. और साथ ही एक और बात पता चली है..”
मोना ने इस बार पहले से भी अधिक मतलबी सुर में कहा तो मेरा उत्सुकता बढ़ जाना स्वाभाविक था.. और ऐसा हुआ भी.. उसकी बातों को सुनने हेतु और अधिक आतुर हो उठा..
मोना बोली,
“वैसे कुछ खास फ़ायदा होने वाला नहीं होगा.. फ़िर भी कहती हूँ , सुनो..”
“अरे जल्दी बोलो.” मैं व्याकुल होने लगा.
“तुम जिस केस में सस्पेक्ट हो.. मतलब, जयचंद बंसल मर्डर केस ... उसी से रिलेटेड है....”
“वो क्या?”
“उस आदमी की हत्या ‘किम्बर के सिक्स’ गन से हुई है..”
“किम्बर के सिक्स??”
“हम्म.. बहुत ही उम्दा हैण्ड गन है.. चलती है तो मक्खन की तरह.. एक हैण्डगन में सात से बारह गोलियाँ आ जाती हैं.. और लक्ष्य को प्रभावित करने में अद्भुत क्षमता है.”
“तो? ये सब मुझे क्यों बता रही हो... मैं ये जान कर क्या करूँगा?”
“इसमें एक खुशखबरी छुपी है.” एक प्यारी राहत भरी मुस्कान दी मोना ने अब |
“वो क्या?”
“किम्बर के सिक्स जैसे उम्दा क्वालिटी के गन मार्किट में आसानी से नहीं मिलते हैं और आम आदमी के पहुँच और जानकारी ... दोनों से दूर है. हाँ, अगर बेचने वाले, डीलर वगैरह से किसी की अच्छी जान पहचान हो तो ये गन मिलने में देर नहीं. तो इससे इस बात का अंदाज़ा आसानी से लगा सकते हो की ये गन ज़रूर विशिष्ट दर्जे के लोग या संस्था ही अफ्फोर्ड कर सकते हैं --- और तुम्हारे मामले में अगर देखा जाए तो हत्या में प्रयुक्त गन; किम्बर के सिक्स, ज़रूर किसी ऊँची पहुँच वाले अपराधी ने की है.”
“या... शायद किसी टेररिस्ट गैंग ने..?!” मैंने आशंका व्यक्त किया.
“हम्म.. संभव है.”
“यानि की मैं सस्पेक्ट नहीं रह सकता अधिक दिन.” आशा की एक नई किरण दिखी इसलिए मैं ख़ुशी से उछल ही पड़ा लगभग.
“ऐसा?” मोना नाटकीय अंदाज़ में आँखें बड़ी बड़ी कर के पूछी.
“हाँ...”
“क्यों भला... समझाओ ज़रा.”
“अरे यार.. हद हो तुम. अभी अभी तो तुमने कहा न की जैसा गन हत्या में प्रयुक्त हुआ है वह आसानी से मिलता नहीं.... मैं तो ठहरा एक आम आदमी... एक टीचर. मैं कहाँ से लाऊँगा ऐसा गन. राईट? तो इससे मैं तो आसानी से इस संदेह से मुक्त हो जाऊँगा. है न?”
“नहीं बरखुरदार...संदेह के फंदे में थोड़ी सी ढील ज़रूर पड़ी है पर पूरी तरह से छूटे नहीं हो.” एक आह सी भरती हुई बोली मोना.
“क्या?! क्यों? कैसे??!”
उसके निर्णायक बात सुनकर मैं चौंकता हुआ सा हड़बड़ा कर बोला. एक साथ तीन प्रश्न दाग दिया.
“वो ऐसे, मैंने कहा था की ऐसे गन आसानी से मार्किट में नहीं मिलते.. ये नहीं कहा की ये मिलते ही नहीं. दूसरा, मैंने ये भी कहा की गन बेचने वाले या डीलर वगैरह से जान पहचान होने पर भी ऐसे गन्स की मिलकियत आसानी से हासिल हो जाती है. अब चाहे वो आम आदमी हो या कोई ऊँचे दर्जे का आसामी. तीसरे, तुम उस वीडियो फुटेज और तस्वीरों को भूल रहे हो जिनके बारे में तुमने मुझे बताया था की इंस्पेक्टर दत्ता उन्हें एक बहुत अहम सबूत मान रहा है.. और देखा जाए तो वह हैं भी. पहले दो बातों को अगर छोड़ भी दिया जाए तो इस तीसरी बात का क्या जवाब है तुम्हारे पास... बोलो.”
मोना के बात में दम था.
मैंने अपना सिर ही पीट लिया.
हर राह दिखते ही बंद हो जाती है.
अगले कुछ मिनटों तक हम दोनों इधर उधर देखते हुए कुछ सोचते रहे. मोना भी किसी गहरी सोच में डूबी हुई सी लगने लगी. कुछ देर कुछ सोचने के बाद मेरी ओर देख कर कुछ बोलने वाली ही थी की मुझे भी कहीं खोए हुए से देख कर वह रुक गई और अगले ५-१० सेकंड थक मुझे देखते रही. मैं मोना को अच्छे से जानता हूँ. वह बहुत ही होशियार और चालाक लड़की है. बाएँ हाथ से क्या कर रही है ये दाएँ हाथ को पता नहीं लगने देती और दाएँ से क्या कर रही है यह वो बाएँ को पता नहीं लगने देती है.
मेरी ओर अपलक देखते हुए कुछ सोचती रही और अंततः बोली,
“क्या सोच रहे हो?”
“कुछ ख़ास नहीं. बस यही की आगे कोई कदम उठाने से पहले मुझे अपनी चाची पर कुछ दिन नज़र रखना पड़ेगा.”
“वह क्यों?”
“पता नहीं......अरे..!!”
एक ओर देखते हुए मैं अपनी सीट पर लगभग उछलते हुए बोला.
“क्या हुआ?!”
मोना भी चौंकते हुए पूछी.
“ये ... ये ... तो वही है.!”
“कौन... कौन क्या है अभय?”
मोना बेचैनी से पूछी.
मैंने उस समय उसकी बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा. उल्टे उससे पूछा.
“मोना, तुम गाड़ी लायी हो ना?”
“हाँ..” हैरत में ही जवाब दिया मोना ने.
“चलो.. जल्दी चलो.”
“अरे बिल तो देने दो.”
मैंने बिना सोचे पॉकेट में हाथ डाला --- एक साथ कुछ नोट निकाला --- और वहीँ टेबल पर रख कर मोना का हाथ पकड़ कर गेट की ओर तेज़ी से चल पड़ा..
क्रमशः
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bas har bat me ciggarate pilate raho bande koभाग ३९)
आलोक और मनसुख दोनों पूर्ववत सिर से सिर सटा कर आपस में फुसफुसा कर बतियाने लगे.
मैं और मोना भी धीमे स्वर में बात करने लगे पर ध्यान हमारा उधर ही था हालाँकि फ़ायदा कुछ था नहीं क्योंकि उन दोनों की फुसफुसाहट हमारे कानों तक नहीं पहुँच रही थी |
उन दोनों की बातचीत लगभग आधे घंटे तक चली.
और हम दोनों भी आधे घंटे तक आपस में गर्लफ्रेंड – बॉयफ्रेंड वाली रंग बिरंगी बातें करते रहें ताकि उन्हें कोई शक न हो.
आधे घंटे बाद मनसुख अपने जगह से उठा और आलोक को अलविदा कह कर बाहर की भारी कदमों से चल दिया.
दरवाज़े के पास पहुँच कर उसने दाएँ तरफ़ देख कर किसी को आवाज़ दी.
मिनट दो मिनट में ही उसकी एम्बेसडर धीरे धीरे पीछे होते हुए मनसुख के निकट आ कर खड़ी हुई. अपने लंबे कुरते के पॉकेट से एक मुड़ी हुई पान का पत्ता निकाला, खोला और उसमें से पान निकाल कर अपने मुँह में भर लिया. फ़िर, बड़े इत्मीनान से अपने एम्बेसडर का पीछे वाला दरवाज़ा खोल कर उसमें जा बैठा. उसके बैठते ही कार अपने आगे निकल गई.
हम दोनों, मतलब मैं और मोना, दोनों ने ही पूरा घटनाक्रम बहुत अच्छे से देखा पर दाद देनी होगी मोना की भी कि इस दौरान उसने अपनी बातों को बहुत अच्छे से जारी रखी.
थोड़ी ही देर बाद आलोक भी उठा और काउंटर पर पेमेंट कर के चला गया |
जाने से पहले एक बार उसने पलट कर मोना को देखने की कोशिश की पर चंद सेकंड पहले ही मोना अपना सिर झुका कर , थोड़ा तीरछा कर के मेरी ओर घूमा ली थी.. इसलिए बेचारा आलोक मोना के चेहरे को देख नहीं पाया..
और इस कारण उसके ख़ुद के चेहरे पर जो अफ़सोस वाले भाव आए; उन्हें देख कर मुझे हंसी आ गई.
काउंटर पर रखे प्लेट पर से थोड़े सौंफ़ उठाया, मुँह में रखा और चबाते हुए निकल गया दरवाज़े से बाहर.
उसके बाहर निकलते ही मोना ने जल्दी से उस छोटे से उपकरण को उठाया और उसके स्विच को घूमा कर अपने पर्स में रख ली.
रखने के बाद मेरी ओर देख कर बोली,
“अब आगे क्या करना है?”
“पहले ये तो बताओ की ये डिवाइस है क्या?”
“बताऊँगी.. पर यहाँ नहीं.. कार में.”
“हम्म.. यही सही रहेगा.”
“वैसे, तुम्हें वो मोटा आदमी कैसा लगता है...?”
“मतलब?”
“मतलब उसका पेशा क्या हो सकता है?”
“अम्मम्म... मुझे तो कोई बड़ा सेठ टाइप का आदमी लगता है. एक्साक्ट्ली क्या करता है ये कहना तो मुश्किल है पर इतना तय है कि ये एक बिज़नेसमैन है. तुम्हें क्या लगता है?”
“हरामी..”
“अरे?!” मैं थोड़ा चौंका.. ऐसे किसी जवाब के बारे में उम्मीद नहीं किया था.
“ओफ़्फ़ो.. तुम्हें नहीं.. उस आदमी को कह रही हूँ.”
मोना हँसते हुए बोली.
क़रीब १० मिनट तक हम दोनों वहीँ बैठे रहे.
और जब लगा की हमें निकलना चाहिए तब काउंटर पर पेमेंट कर के वहाँ से निकल कर सीधे मोना के कार तक पहुंचे और जल्दी से अंदर बैठने के बाद मोना ने पर्स से वह उपकरण निकाला और २-३ बटन दबाई.
ऐसा करते ही उस छोटे से डिवाइस में ‘क्लिक’ की आवाज़ हुई और उसमें से आवाजें आने लगीं, जो संभवतः उसी रेस्टोरेंट की थी...
शुरुआत में ‘घिच्च – खीच्च’ की आवाजें आती रही --- फ़िर धीरे धीरे क्लियर हो गया.
दो लोगों की आवाजें सुनाई दी..
एक भारी आवाज़ दूसरा थोड़ा हल्का... पतला..
पहचानने में कोई दिक्कत न हुई की ये इन स्वरों के मालिक कौन हैं ---
मनसुख और आलोक!
वाह.. तो मोना ने रिकॉर्ड किया है उनके आपसी बातचीत को ... मन ही मन दाद दिया उसके दिमाग को ... वाकई बहुत , बहुत काम की और अकलमंद लड़की है.
अधिक दाद देने का समय न मिला..
उस डिवाइस में से आती आवाज --- बातचीत के वह अंश --- जो आलोक और मनसुख भाई के बीच हुए थे --- ने बरबस ही मेरा ध्यान अपने ओर खींच लिया.
बातचीत कुछ यूँ थी...
“मनसुख जी...”
“अरे यार... कितनी बार कहा है की या तो मुझे मनसुख ‘भाई’ ही बोला करो या फ़िर मनसुख ‘जी’ ... तुम कभी भाई , कभी जी बोल कर यार मेरे दिमाग की कुल्फी जमा देते हो.. हाहाहा...”
“अब क्या बताऊँ, आपके लिए पर्सनली मेरे दिल में जो सम्मान के भाव हैं, वही वजह है की आपके लिए कभी भाई तो कभी जी निकल जाता है.. अच्छा ठीक है, आज से .. बल्कि अभी से ही मैं आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ मनसुख ‘जी’ कह कर बुला और बोला करूँगा.. ओके? ...”
“हाँ भई, ये ठीक रहेगा... हाहा..”
“वैसे मनसुख जी..”
“हाँ कहो..”
“दिमाग का कुल्फी जमना नहीं... दही जमना कहते हैं...”
“हैं?!.. ऐसा...??”
“जी... कुल्फी तो कहीं और जमती है...”
“कहाँ भई...?”
“वहाँ..”
“वहाँ कहाँ...?”
“वहाँ... “
“कहाँ???”
“ओफ्फ्फ़... मनसुख जी.. आँखों के इशारों को तो समझो...”
“ओह... ओ... वो... वहाँ..?”
“हाँ. जी..”
“हाहाहाहा..”
“हाहाहाहाहाहा”
अगले दो तीन मिनट तक सिर्फ़ हँसने की ही आवाज़ आती रही.
पर मोना और मैं, दोनों को ही उनके मज़ाक और हंसी नहीं, बल्कि आगे होने वाली बातचीत में इंटरेस्ट है.. और पूरा ध्यान वहीँ है.
“अच्छा भई, अब जल्दी से उस ज़रूरी काम के बारे में कुछ उचरो जिसके लिए तुमने मेरे को इतना अर्जेंटली बुलाया है मिलने को.”
“मनसुख जी.. मैं वही बात करने आया हूँ... उसी के बारे में.. क्या सोचा है आपने.. आपने तो कहा था की सोच कर अपना निर्णय सुनाओगे.”
“ओ. वह.. अरे नहीं... अभी तक सोचने का टाइम ही नहीं मिला....”
“मनसुख जी.....” आलोक का शिकायती स्वर ...
“अरे सच में.. आजकल बिज़नेस आसान नहीं रह गया है.. हमेशा उसमें लगे रहना पड़ता है न ...”
“किसी भी तरह का बिज़नेस कभी भी आसान नहीं था मनसुख जी.. न है और न रहेगा.. पर मैं जो डील के बारे में आपसे बात कर रहा हूँ.. ये जो प्रस्ताव है.. ये क्या किसी भी नज़रिए से कम है?”
“नहीं .. कम तो नहीं.. पर...” आवाज़ से लगा मानो मनसुख कुछ स्वीकार करने में हिचकिचा रहा था..
“पर??”
“अब क्या बताऊँ... डील है तो....”
“मनसुख जी... ज़रा ठन्डे दिमाग और एक बिज़नेसमैन के दृष्टिकोण से सोचिये... क्या पचास लाख रुपए कम होते हैं?”
“सोचना क्या है इसमें... बिल्कुल कम नहीं होते...”
“तो फ़िर समस्या क्या है?”
“समस्या यही है की मन नहीं मान रहा है.” ये आवाज़ काफ़ी सपाट सा आया. शायद मनसुख ने भी ऐसे ही सपाट तरीके से ही बोला हो वहाँ.
“अरे! अब ये क्या बात हुई मनसुख जी.. प्रस्ताव पर विचार करने का इरादा है.. विचार कर भी रहे हैं.. पर साथ ही कहते हैं की मन नहीं मान रहा है.?! ऐसे कैसे चलेगा.. और तो और आप स्वयं ये मान रहे हैं कि पचास लाख रुपया कम नहीं होते ... कुछ तो विचार क्लियर रखिए मालिक!”
काफ़ी शिकायती लहजा था ये आलोक की तरफ़ से.
बिल्कुल की छोटे से बच्चे की तरह.
मैं और मोना दोनों इसे सुनकर एक दूसरे की ओर देखते हुए हँस दिए.
“हाँ भई, मैं भी मानता हूँ की निर्णय लेने में थोड़ा विलम्ब हो रहा है मेरी ओर से ...”
“विलम्ब का कारण? .... अब ये फ़िर न कहना की मन नहीं मान रहा है.”
मनसुख की बात को बीच में ही काटते हुए आलोक पूछ बैठा..
“कारण ये है कि ये जो अमाउंट... पचास लाख की बात कर रहे हो... इसकी सिर्फ़ पेशकश हुई है.”
“तो?”
“तो ये.. की ये सिर्फ़ पेशकश है.. हासिल की क्या गारंटी है...?”
“हासिल की??!”
“हाँ भई.. देखो .. साफ़ बात कहता हूँ.. मैं एक बिज़नेसमैन हूँ .. बचपन से ही अपनी पूरी फैमिली को बिज़नेस करते देखा है.. और एक बात मोटे तौर पर सीखी है की बिज़नेस में डील के समय और ख़ुद डील में; हमेशा --- हमेशा पारदर्शिता होनी चाहिए. साथ ही दम होनी चाहिए.”
“ओके.. तो इस डील में ...?”
“इस डील में वैसा दम नहीं ... और अगर मान भी लूँ की दम है.. तो इतनी तो पक्की दिख ही रही है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है.”
“क्या बात कर रहे हो मालिक...!”
“सही बात कर रहा हूँ बच्चे.”
मनसुख के इसबार के वाक्य में अत्यंत ही गम्भीरता का पुट था..
कुछ सेकंड्स की शांति छा गई..
शायद आलोक ने मनसुख की तरफ़ से ऐसी गम्भीरता का कल्पना नहीं किया था इसलिए शायद सहम गया था उन सेकंड्स भर के लिए.
डिवाइस से दोबारा आवाज़ आई,
“मनसुख जी... हासिल की पूरी गारंटी है..”
“कहाँ है गारंटी ... किस तरह का गारंटी...?”
“अरे मालिक... मेरा विश्वास कीजिए.. हासिल की पूरी गारंटी है.. फूलप्रूफ़ प्लान है... फ़ेल होने का सवाल ही नहीं है.”
“हाहाहा ...”
“क्या हुआ ... हँस क्यों रहे हो आप?”
“बताता हूँ.. पहले ये बताओ.. कभी जेल गए हो?”
“नहीं ... अभी तक ऐसा दुर्भाग्य नहीं हुआ है. वैसा भी नया हूँ धंधे में.. अधिक दिन नहीं हुआ है.. पर क्यों पूछा आपने ऐसा?”
“न जाने कितने ही जेल भरे पड़े हैं तुम्हारे जैसे लोगों से जो कभी समझते थे की उनका प्लान पूरा टाइट है .. फूलप्रूफ़ है.. जो कभी फ़ेल नहीं हो सकती!”
“अरे बकलोल रहे होंगे ऐसे लोग...”
“जो की तुम नहीं हो..”
“ना.. कोई सवाल ही नही इसमें.”
“क्या प्रूफ है भई इसका?”
“प्रूफ तो मैं खुद हूँ.. क्या आपको ऐसा लगता है कि मैं किसी ऐसी प्लान का हिस्सा बनूँगा जिससे मुझे जेल जाना पड़े?”
“जितना तुम्हें जान पाया हूँ; उसके आधार पर तो नहीं लगते हो.”
“तो फ़िर.. ?”
“अरे यार... समझो बात को.. पेशकश तुम्हारे हवाले से आया है. जो मास्टरमाइंड है मैं उसे नहीं जानता.. सामने अभी तक आया नहीं.. ऊपर से इतना रिस्की प्लान.. अब तुम्हीं बताओ की मैं कैसे किसी आदमी की कोई ऐसी पेशकश को स्वीकार करूँ जिसे मैं जानता तक नहीं और जो सामने नहीं आता ... यहाँ तक की फ़ोन तक पर वह बात नहीं कर सकता.”
“ओह.. तो ये बात है..”
“हाँ भई... यही बात है.”
“मैं आपको प्लान और नाम .. दोनों बताऊंगा.. पर शर्त यही एक है...”
“क्या शर्त है...?”
“मैं आपको प्लान और नाम दोनों बताऊंगा पर तभी जब आप हामी भरेंगे.”
“हाहाहा... बहुत मजाकिया हो यार.. ख़ुद सोचो.. मेरे हामी भर लेने से अगर तुम मुझे अपना प्लान और नाम --- दोनों बताओगे.. तो कहीं मुसीबत में नहीं फंस जाओगे?”
“वह कैसे?”
“अरे भई... मेरे हामी पर भारत सरकार का मुहर तो नहीं लगा होगा न...? हामी भर के बाद में मैं मुकर गया तो..? और अगर तुम्हारे प्लान के बारे में पुलिस में खबर कर दिया तो??”
“नहीं.. आप ऐसा नहीं करेंगे..”
“हैं??”
“जी.. बल्कि स्पष्ट रूप से कहूँ तो आप ऐसा कर ही नहीं सकते..”
“अच्छा..!! ऐसा कैसे... कौन रोकेगा मुझे?”
“है एक आदमी.”
“कौन.. तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”
“जी.”
“नाम क्या है उसका?”
“इस प्रस्ताव के लिए हामी भर रहे हैं आप?”
“अहहम्म....”
“सोच लीजिए... मैं अपनी तरफ़ से आपको एक सप्ताह और देता हूँ.. एक सप्ताह बाद हम यहीं मिलेंगे..ओके..?”
“और अगर मैं हामी न भरा तो?”
“तो कोई बात नहीं.. आप अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते...”
“और तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”
“वो भी अपने रास्ते.”
“पक्का ना? बाद में मुझे फ़ोर्स तो नहीं किया जाएगा.... अगर मैं मुकर गया तो..?”
“बिल्कुल पक्का... प्रॉमिस.”
“ठीक है भई... तब ठीक एक सप्ताह बाद यहीं मिलते हैं.”
“ओके.. पहले आप.”
“मतलब?”
“पहले आप ..”
“ओह समझा... मतलब मैं पहले जाऊँ?”
“जी.”
“ठीक है.. विदा!”
“जी.. विदा...”
फ़िर..
कुछ खिसकने की आवाज़ आई... चेयर होगा. फ़िर, चलने की आवाज़ और फ़िर थोड़ी निस्तब्धता..
फ़िर चेयर खिसकने की आवाज़...
फ़िर चुप्पी.
इतने पर मोना ने डिवाइस के स्विच को ऑफ कर दिया. मेरी ओर देखी.. मैं आलरेडी गहरी सोच में डूब गया था.
“क्या सोच रहे हो?”
“बहुत कुछ.”
“क्या लगता है तुम्हें .. कौन हो सकता है इनका मास्टर माइंड? और प्लान क्या हो सकता है?”
“प्लान का तो पता नहीं.. वह तो समय आने पर ही पता चलेगा.. पर...”
“पर क्या?”
“पता नहीं मुझे न जाने ऐसा क्यों लग रहा है की जैसे मैं इनके इस.. इस मास्टर माइंड को जानता हूँ.”
“क्या.. सच में?”
“नहीं.. सच में नहीं.. आई मीन, अंदाज़ा है... बल्कि.. अंदाज़ा लगा रहा हूँ...”
“तो.. तुम्हारे अंदाज़े से ऐसा कौन हो सकता है?”
मोना के इस प्रश्न का मैंने कोई उत्तर देने के जगह एक ‘कास्टर’ सुलगा लिया.
क्रमशः
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