• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Thriller ✧ Double Game ✧(Completed)

aalu

Well-Known Member
3,073
13,057
158
आप की इस कहानी ने मुझे अपने कोर्स की एक उपन्यास की याद दिला दी जब मैं बारहवीं में पढ़ता था ।
राजेन्द्र यादव जी की बहुत ही बेहतरीन उपन्यास " सारा आकाश " ।
इस उपन्यास का प्रमुख नायक " समर " कूंठित व्यक्तित्व वाले युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है । वह एम ए करके प्रोफेसर बनना चाहता था परंतु बारहवीं में ही उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कर दिया जाता है । उसके सुनहले सपने टूट जाते हैं । पत्नी प्रभा के साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा आप के इस स्टोरी का नायक कर रहा है ।
बहुत ही मर्म स्पर्शी रचना थी राजेंद्र यादव जी की यह ।

इस उपन्यास के बारे में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में - उपन्यासकार ने निम्न मध्यवर्ग की एक ऐसी वेदना का इतिहास लिखा है , जिसे हममें से अधिक लोगों ने भोगा है ।


इस अपडेट के साथ आप ने एक बार फिर से अपने लेखन कला का लोहा मनवा लिया । नायक की कूंठा बिल्कुल वास्तविक लगी । और यह प्रायः हर मध्यवर्गीय परिवार की सोच है । पहले शादियां मां बाप के द्वारा फिक्स होती थी । अरेंज मैरिज का जमाना था । लड़के और लड़कियों की शादी बिना देखे हुआ करती थी ।
शुरुआत में दिक्कतें तो आती ही थी पर बाद में एडजस्टमेंट हो ही जाया करता था ।

इस स्टोरी का नायक जैसा कि अमूमन होता है सुंदरता का पुजारी है । कुरूपता उसे बिल्कुल भी नहीं पसंद है । और इसी वजह से उसने अपनी पत्नी को कभी अपना पत्नी माना ही नहीं ।
लेकिन काश ! एक बार हम उस लड़की के जगह पर खुद को रखकर देखें ।
काश ! एक बार उस लड़की के जगह अपनी बेटी या बहन को मानकर चलें ।
काश ! उस लड़की की मनोदशा को समझने की कोशिश करें ।

फिर तो कोई समस्या ही नहीं होती ।

बहुत ही खूबसूरत कहानी है शुभम भाई । और अपडेट भी हमेशा की तरह आप का खुबसूरत ही रहता है ।

आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
जगमग जगमग अपडेट ।


BOL-WO-RAHE-HAI-LEKIN-SHABD-HUMARE-HAI
 
10,458
48,833
258
वैसे भाई , आपके रेभो का मैं भी कायल हूं । बहुत ही बेहतरीन रेभो होती है आपकी । हमलोग कई कहानियों में साथ साथ हैं और इस वजह से आप का रेभो पढ़ ही लेता हुं ।
हंसी मजाक हो या संवेदनशील मामले हो , हर जगह आप अपने रेभो से छाप छोड़ ही जाते हो ।
ऐसे ही राइटर्स को मोटिवेट करते रहिए भाई ।
 
10,458
48,833
258
यह स्टोरी मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस पर आधारित है । इसलिए एक डर बना हुआ है कहीं मर्डर बीवी का तो नहीं होने वाला है !
अगर ऐसा है तो मुझे बहुत ही बुरा लगेगा ।

लेकिन यह भी सच है , एक रचनाकार की प्रतिभा ऐसी ही कहानियों से उभर कर सामने आती है । रीडर्स के इमोशन से खेलना ही तो एक अच्छे राइटर की उपलब्धि होती है ।
 

aalu

Well-Known Member
3,073
13,057
158
वैसे भाई , आपके रेभो का मैं भी कायल हूं । बहुत ही बेहतरीन रेभो होती है आपकी । हमलोग कई कहानियों में साथ साथ हैं और इस वजह से आप का रेभो पढ़ ही लेता हुं ।
हंसी मजाक हो या संवेदनशील मामले हो , हर जगह आप अपने रेभो से छाप छोड़ ही जाते हो ।
ऐसे ही राइटर्स को मोटिवेट करते रहिए भाई ।
aaplogo se hi seekha hoon bhai.. aapki sahitya pe pakar lajawab hain.... aapka review main jaroor se padhta hoon,,, kahani ka saaransh aapke jaise kuchh hi reader kar paate hain...
 

andyking302

Well-Known Member
6,277
14,544
189
✧ Double Game ✧
________________________

Chapter - 01
[ Plan & Murder ]
-----------------------------------


Update - 01
____________________





हीन भावना कभी कभी ऐसा भी रूप ले लेती है जिसका अंजाम ख़तरनाक भी हो सकता है। हम जैसा सोचते हैं या जैसा चाहते हैं वैसा होता ही नहीं है। दुनियां में दुःख का एक कारण ये भी है। हम चाहते हैं कि हमारे पास जो चीज़ हो वो सबसे ख़ास हो और वैसी चीज़ किसी और के पास हर्गिज़ न हो लेकिन ऐसा होता नहीं है। इंसान के जीवन में ऐसी बहुत सी चीज़ें होती हैं जिनके बारे में हमारे ख़याल कुछ ऐसे ही होते हैं लेकिन ऐसी चीज़ों पर हमारा कोई ज़ोर नहीं होता।

एक इंसान वो होता है जो वक़्त के साथ चीज़ों से समझौता कर लेता है और ख़ुद को झूठी ही सही लेकिन तसल्ली दे लेता है, लेकिन एक इंसान वो भी होता है जो किसी भी चीज़ से समझौता नहीं करना चाहता, बल्कि वो हर हाल में यही चाहता है कि उसकी हर चीज़ ख़ास ही हो और वैसी चीज़ किसी और के पास हर्गिज़ न हो। ऐसा इंसान इसके लिए हर वो कोशिश करता है जो कदाचित उसके बस से भी बाहर होता है।

किसी को भी अपने जीवन में सब कुछ नहीं मिल जाया करता। ये बात कहने के लिए तो बहुत ही ख़ूबसूरत है लेकिन असल ज़िन्दगी में इसकी ख़ूबसूरती का पता नहीं चलता या कहें कि इसकी खू़बसूरती दिखती ही नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने जो कुछ करने का मंसूबा बनाया है वो किसी भी तरह से सही नहीं है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा करना मेरी मज़बूरी बन गई है। मज़बूरी इस लिए क्योंकि मैं वो इंसान हूं जिसे अपनी हर चीज़ ख़ास की सूरत में चाहिए। जिसकी किसी भी चीज़ को देख कर कोई ये न कह सके कि यार ये तो बहुत ही भद्दी है या ये तुम पर शूट नहीं करती है।

मैंने बहुत सोच समझ कर ये फैसला किया है कि मैं अपने पास मौजूद ऐसी उस एक मात्र चीज़ को अपने से दूर कर दूंगा, जिसकी वजह से मुझे लगता है कि उसके रहने से मुझे हमेशा अटपटा सा महसूस होता है और मैं ये तक सोच लेता हूं कि उसकी वजह से मेरी ज़िन्दगी में कोई रौनक ही नहीं है।

मैं अक्सर सोचता था कि जब मेरे पास मौजूद हर चीज़ बेहतर है तो एक वो चीज़ बेहतर क्यों नहीं है? अपने नसीब पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था वरना क्या ऐसा हो पाता? हर्गिज़ नहीं, मैं दुनियां को आग लगा देता लेकिन ऐसा होने नहीं देता किन्तु मेरा नसीब और मेरी नियति मुझसे कहीं ज़्यादा प्रबल थे। नसीब या नियति ने भले ही मेरे साथ ऐसा मज़ाक किया था लेकिन मेरे बस में अब ये तो था कि उस मज़ाक बनाने वाली चीज़ को अपने से हमेशा के लिए दूर कर दूं। मैं जानता हूं कि ऐसा करना किसी भी तरह से सही नहीं है, बल्कि अपराध है लेकिन क्या करूं...मैं वो इंसान हूं जिसे अपनी हर चीज़ ख़ास वाली सूरत में ही चाहिए।

पिछले चार साल से मैं उस चीज़ को अपने जीवन में एक बोझ सा बनाए शामिल किए हुए हूं लेकिन अब और नहीं। अब और मैं उस चीज़ को अपनी आँखों के सामने नहीं देखना चाहता। दुनियां की नज़र में भले ही उस चीज़ में कोई कमी न हो या उसमें कोई खोट न हो लेकिन मेरी नज़र में उसमें खोट के अलावा कुछ है ही नहीं।

मैं अक्सर सोचा करता हूं कि उसके माँ बाप ने आख़िर क्या सोच कर उसका नाम रूपा रखा रहा होगा? आख़िर रूप जैसी उसमें कौन सी बात थी जिसकी वजह से उसका नाम उसके माँ बाप ने रूपा रखा था? सच तो ये है कि उसका नाम रूपा नहीं बल्कि कुरूपा रखना चाहिए था जो कि उसके रंग रूप पर एकदम से फिट बैठता।

करूपा, ओह सॉरी..आई मीन रूपा, जी हां रूपा। मेरी बीवी का नाम रूपा है लेकिन जैसा कि मैंने बताया रूप जैसी उसमें कहीं पर भी कोई बात नहीं है। मुझे ईश्वर से सिर्फ एक ही शिकायत रही है कि उसने ऐसे कुरूप प्राणी को मेरी बीवी क्यों बना दिया था? शादी के बाद जब पहली बार मैंने उसे देखा था तो मेरा मन किया था कि या तो मैं खुद को ही जान से मार दूं या फिर उसका गला घोंट कर उसे इस संसार सागर से विदा कर दूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा न कर सका था।

आप समझ सकते हैं कि मेरे जैसे इंसान ने ऐसे कुरूप प्राणी को अपनी ज़िन्दगी में जोड़ कर चार साल कैसे बिताए होंगे? चार सालों में ऐसा कोई दिन या ऐसा कोई पल नहीं गुज़रा जब मैंने अपनी किस्मत को कोसा न हो और उस कुरूप प्राणी के मर जाने की दुआ न की हो।

मेरी बीवी से मेरे सम्बन्ध कभी भी अच्छे नहीं रहे और इसका सबूत ये था कि मैंने सुहागरात वाली रात से ले कर आज तक उसके जिस्म की तरफ देखा तक नहीं था उसे छूने की तो बात ही दूर है। सुहागरात में उसकी कुरूपता को देखते ही मुझे उससे बे-इन्तहां नफ़रत सी हो गई थी। उसके बाद मैंने उससे कभी कोई मतलब नहीं रखा।

मेरी तरह गांव देहात की ही लड़की थी वो और मेरे माता पिता ने उसे सिर्फ इस बात पर मेरे लिए पसंद कर लिया था कि उसका बाप दहेज़ में दो लाख रुपया, एक मोटर साइकिल, ढेर सारा फर्नीचर और दो बीघे का खेत देने को तैयार था। मुझे नहीं पता था कि मेरे माता पिता इस सबके लालच में मेरी इस तरह से ज़िन्दगी बर्बाद कर देंगे, अगर मुझे ज़रा सी भी इस बात की कहीं से भनक लग जाती तो मैं खुद ख़ुशी कर लेने में ज़रा भी देरी न करता। ख़ैर, अब भला क्या हो सकता था? कुछ तो पिता जी का आदर सम्मान और कुछ उनके ख़ौफ की वजह से मैं उस औरत को छोड़ देने का इरादा नहीं बना सका था, लेकिन इतना ज़रूर सोच लिया था कि पिता जी चाहे मुझे अपनी हर चीज़ से बेदखल कर दें लेकिन मैं उस औरत के पास कभी नहीं जाऊंगा जिसे मैं देखना भी पसंद नहीं करता।

मैंने एमएससी तक की पढ़ाई की थी इस लिए मैंने पूरी कोशिश की थी कि इस झमेले से बचने के लिए दूर किसी शहर में रह कर नौकरी करूं और मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब भी हो गया था। मैंने शहर में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी शुरू कर दी थी और वहीं रहने लगा था। शहर में रहते हुए न तो मैं कभी घर वालों को फ़ोन करता था और ना ही घर जाने का सोचता था। शादी के दो साल तक तो मैं घर गया भी नहीं था लेकिन फिर एक दिन पिता जी किसी के साथ शहर में मेरे पास आ धमके और मुझे खूब खरी खोटी सुनाई। जिसका नतीजा ये निकला कि मुझे घर जाना ही पड़ा। घर गया भी तो मैंने उस औरत की तरफ देखना ज़रूरी नहीं समझा जिसे ज़बरदस्ती मेरे गले से बाँध दिया गया था। वैसे एक बात बड़ी आश्चर्यजनक थी कि वो औरत ख़ुद भी मुझसे कभी बात करने की कोशिश नहीं करती थी और ना ही किसी बात की वो मुझसे शिकायत करती थी। जैसे वो अच्छी तरह समझती थी कि मैं उसे पसंद नहीं करता हूं और उससे कोई मतलब नहीं रखना चाहता हूं। उसने जैसे खुद को इस बात के लिए अच्छी तरह समझा लिया था कि अब जो उसके जीवन में लिखा होगा वो हर तरह से उसे स्वीकार है। हालांकि मैंने उसे समझने की कभी कोशिश भी नहीं की और ना ही मैंने ये सोचा कि वो क्या सोचती होगी अपने इस जीवन के बारे में लेकिन मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि उसकी तरफ से मैं एक आज़ाद पंक्षी की तरह था।

मेरे माता पिता ने बहुत कोशिश की थी कि मैं उस औरत से सम्बन्ध रखूं लेकिन इस मामले में मैंने उनसे साफ़ कह दिया था कि वो औरत सिर्फ उनकी बहू है ना कि मेरी बीवी। यानी जिस औरत को मैं अपना कुछ समझता ही नहीं हूं उससे किसी तरह का समबन्ध रखने का सवाल ही नहीं पैदा होता। पिता जी ने मुझे हर तरह की धमकी दी और हर तरह से समझाने की भी कोशिश की लेकिन मैं इस मामले में जैसे पत्थर की लकीर था।

चार साल ऐसे ही गुज़र ग‌ए। मैं शहर में नौकरी करता और अपने में ही खोया रहता। अब तक मेरे माता पिता को भी समझ आ गया था कि उन्होंने धन के लालच में अपने बेटे के साथ कितना बड़ा गुनाह कर दिया था लेकिन अब पछताने से भला क्या हो सकता था? वैसे मैं खुद भी कभी कभी सोचता था कि चलो छोड़ो अब जो हो गया सो हो गया और मुझे अपने भाग्य से समझौता कर के उस औरत के साथ जीवन में आगे बढ़ना चाहिए लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाता था। हर बार मेरी सोच इस बात पर आ कर ठहर जाती कि आख़िर क्यों? जब मेरी हर चीज़ ख़ास है तो वो औरत ख़ास क्यों नहीं हुई? भगवान ने मेरे जीवन में एक ऐसी चीज़ को क्यों शामिल कर दिया जिसकी वजह से मेरी बाकी की सारी ख़ास चीज़ें भी फीकी पड़ गईं हैं? मैं अपनी ज़िन्दगी की इस ट्रेजडी को हजम ही नहीं कर पा रहा था और फिर गुज़रते वक़्त के साथ जैसे ये बात मेरे दिलो दिमाग़ पर बैठती ही चली गई थी।

रूपा के मायके वाले भी इस सबसे बेहद परेशान और दुखी थे। उन्हें भी इस बात का एहसास हो चुका था कि उन्होंने धन का लालच दे कर जो कुछ किया था वो सही नहीं था और इसके लिए वो कई बार मुझसे माफियां भी मांग चुके थे लेकिन मेरी डिक्शनरी में माफ़ी वाला शब्द जैसे था ही नहीं। मैंने उनसे साफ़ कह दिया था कि उन्हें अगर अपनी बेटी के भविष्य की इतनी ही फ़िक्र है तो वो उसे वापस ले जाएं और किसी और से उसकी शादी कर दें। शुरू शुरू में उन्हें मेरी ये बातें फ़िज़ूल टाइप लगती थीं। उन्हें लगता था कि अभी मैं इस सबसे नाराज़ हूं इस लिए ऐसा बोल रहा हूं लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ मेरी सोच और मेरे ख़यालात बदल जाएंगे। वो तो उन्हें बाद में एहसास हुआ कि मेरी सोच और मेरे ख़यालात इस जीवन में कभी बदलने वाले नहीं हैं और इस चक्कर में उनकी बेटी का जीवन बर्बाद ही हो गया है। अब वो अपनी बेटी की शादी किसी और से करना भी चाहते तो कोई नहीं करता, फिर चाहे भले ही वो किसी को धन का कितना भी लालच देते। बेटी अगर सुन्दर होती तो इस बारे में सोचा भी जा सकता था लेकिन ब्राह्मण समाज की लड़की अगर एक बार ससुराल में इतने साल रह जाए तो ऐसी सिचुएशन में फिर उससे कोई शादी नहीं कर सकता। मेरे गांव तरफ तो ऐसा चलन है कि शादी होने के बाद लड़की अगर चार दिन ससुराल में रह जाए और अगर इस बीच वो विधवा हो जाए तो फिर उसे सारी ज़िन्दगी ससुराल में ही रहना पड़ता है। ब्राह्मण समाज का ये नियम कानून बाकी जाति वालों से बहुत शख़्त है।

ईश्वर के खेल बड़े निराले होते हैं। वो कब क्या कर डाले अथवा वो क्या करने वाला होता है इसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। मेरे इस रवैये की वजह से जब चार साल ऐसे ही गुज़र गए तो मेरे माता पिता को इन सब बातों ने इतना ज़्यादा चिंतित वो दुखी कर दिया कि वो बीमार पड़ ग‌ए। धीरे धीरे उनकी तबीयत और भी बिगड़ती गई। मुझे पता चला तो मैंने उनके इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन उनकी सेहत में कोई सुधार न हुआ। उनकी बहू अपनी क्षमता से ज़्यादा उनकी सेवा करती थी और इस बात को मैं बेझिझक स्वीकार भी करता हूं। चार साल हो गए थे और मैं अक्सर ये सोच कर हैरान हो जाता था कि ये किस मिट्टी की बनी है कि मेरी इतनी बेरुखी के बाद भी वो पूरे मन से अपने सास ससुर की सेवा करती रहती है। मैं जब भी घर जाता था तो मैंने ऐसा कभी नहीं सुना था कि उसने किसी चीज़ के लिए मना किया हो या उसने किसी बात पर उनसे सवाल जवाब किया हो। चाभी से चलने वाली किसी कठपुतली की तरह थी वो। जिस तरफ और जिस तरीके से उसे घुमा दो वो उसी तरफ और उसी तरीके से घूम जाती थी। उसमें और चाभी से चलने वाले खिलौने में सिर्फ इतना ही फ़र्क था कि चाभी से चलने वाला खिलौना चलने से आवाज़ करने लगता है जबकि वो एकदम ख़ामोशी से चलती रहती थी। ऐसा लगता था जैसे वो गूंगी हो। वैसे चार साल तक मैं भी उसे गूंगी ही समझा था।

मेरे बहुत इलाज़ करवाने के बावजूद मेरे माता पिता की सेहत पर सुधार न हुआ था और फिर एक दिन उनका अंत समय आ गया। अपने आख़िरी समय में उन दोनों ने मुझसे बस एक ही बात कही थी कि उनके जाने के बाद अब उनकी बहू का कोई सहारा नहीं होगा इस लिए अगर मेरे दिल में ज़रा सा भी उसके प्रति रहम या दया है तो मैं उसे अपना लूं और जहां भी रहूं उसे अपने साथ ही रखूं।

मैंने देखा था कि मेरे माता पिता के अंतिम समय में वो औरत ऐसे रो रही थी कि यकीनन उसके करुण क्रंदन से आसमान का कलेजा भी छलनी हो गया रहा होगा। माता पिता के गुज़र जाने के बाद मैंने विधि पूर्वक उनकी अंतिम क्रियाएं की और फिर शहर की तरफ रुख किया किन्तु इस बार वो औरत भी मेरे साथ थी। समय बदल गया था, ईश्वर ने जैसे मुझे बेबस सा कर दिया था। हालांकि जब मैंने इस सबके बाद पहली बार उससे शहर चलने को कहा था तो उसने साफ़ शब्दों में कह दिया था कि उसे मेरे सहारे की ज़रूरत नहीं है। उसमें अभी इतना साहस और इतनी क्षमता है कि इतने बड़े घर में वो अपने जीवन का बाकी समय गुज़ार सकती है।

मुझे उस औरत की भावनाओं से कोई मतलब नहीं था, बल्कि मैं तो बस अपने माता पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहता था और ये भी कि कोई ये न कहे कि सास ससुर के गुज़र जाने के बाद पति ने उसे अकेले मरने के लिए छोड़ दिया और खुद शहर में ऐशो आराम से रह रहा है।

मैं रूपा को ले कर शहर आ गया था। उसके अपने माता पिता और भाई इस बात से बेहद खुश हुए थे। यकीनन उन्होंने इसके लिए भगवान का लाख लाख धन्यवाद दिया होगा। उन्हें नहीं पता था कि मैं इसके बावजूद उसे अपनी बीवी नहीं मानता था, बल्कि वो मेरे लिए एक ऐसी अंजान औरत थी जिसके साथ न तो मेरा कोई रिश्ता था और ना ही उसके लिए मेरे अंदर कोई जज़्बात थे। हालांकि वो औरत आज भी मुझे अपना पति परमेश्वर ही मानती थी और इसका सबूत ये था कि उसकी मांग में पड़े सिन्दूर की लम्बाई कुछ ज़्यादा ही गहरी दिखती थी।

शहर में रूपा मेरे साथ रहने लगी थी। मैंने दो कमरे का एक फ्लैट ले रखा था इस लिए हम दोनों के ही कमरे अलग अलग थे। न मैं उसके कमरे में जाता था और ना ही उसे मेरे कमरे में आने की इजाज़त थी। मैं गांव में भी उससे बात नहीं करता था और यहाँ शहर में भी हमारे बीच ख़ामोशी ही कायम थी। इतना ज़रूर था कि मैं सारा ज़रूरत का सामान खुद ही ला कर रख देता था और अगर कोई ऐसा सामान उसे लेना होता था जो मेरी जानकारी में नहीं होता था तो हम दोनों ही कागज़ में लिख कर पर्ची छोड़ देते थे। कितनी अजीब बात थी न कि एक ही छत के नीचे रहते हुए हम एक दूसरे से कोई बात नहीं करते थे। मैं सिर्फ उसके हाथ का बना हुआ खाना खा लेता था बाकी मैं अपने कपड़े खुद ही धो लेता था। शहर में आने के बाद न उसने कभी बात करने की कोशिश की और ना ही मैंने। मेरे लिए तो वो वैसे भी न के बराबर ही थी।

शहर आए हुए छः महीने गुज़र चुके थे और हमारे बीच ज़िन्दगी गहरी ख़ामोशी के साथ गुज़र रही थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि दुनियां के किसी हिस्से पर दो ऐसे प्राणी रहते हैं जो कहने को तो पति पत्नी हैं लेकिन उनके बीच पति पत्नी जैसा कुछ भी नहीं है। प्रकृति का ऐसा सिस्टम है कि अगर कोई दुश्मन भी अपने दुश्मन के पास दो पल के लिए रह जाए तो वो एक दूसरे से बिना बात किए रह नहीं सकते लेकिन हम दोनों तो जैसे प्रकृति के इस सिस्टम के अपवाद थे।

हर चीज़ का आदि और अंत होता है और हर चीज़ ख़ास वक़्त पर अपने बदलने का सबूत देती है। समय बदलता है तो समय के साथ साथ उससे जुड़ी हुई हर चीज़ भी बदलती है। समय कभी एक जैसा नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे वो खुद भी अपनी सिचुएशन से ऊब जाता है इसी लिए तो अगले ही पल वो एक नए रूप और एक नए अंदाज़ में हमें दिखने लगता है।

शहर में अकेला रहता था तो इतना ज़्यादा नहीं सोचता था लेकिन जब से मैं उस औरत की मौजूदगी अपने पास महसूस करने लगा था तब से ज़हन में बड़े अजीब अजीब से ख़याल उभरने लगे थे। अकेले कमरे में मैं अक्सर सोचता था कि क्या यही अपनी ज़िन्दगी है? क्या इस जीवन में इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए? क्या मेरे सपने, मेरी ख़्वाहिशें सब कुछ ख़त्म हो चुकी हैं? इस दुनियां में अनगिनत लोग हैं जो अपने जीवन में न जाने क्या क्या हासिल करते हैं और न जाने क्या क्या करते हैं लेकिन क्या मुझे अपने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं करना है? क्या मुझे अब किसी भी चीज़ की चाहत नहीं है? ऐसे न जाने कितने ही ख़याल मेरे ज़हन में उभरते रहते थे। हर रोज़ मैं इन ख़यालों में डूब जाता और मुझे उसका छोर न मिलता लेकिन एक दिन अचानक जैसे मैंने सोच लिया कि नहीं नहीं...मेरा जीवन सिर्फ इतने में ही नहीं सिमट सकता। मेरी चाहतें ऐसे ही ख़त्म नहीं हो सकतीं। हर किसी की तरह मुझे भी इस जीवन में बहुत कुछ हासिल करना है।

मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पनौती वो औरत थी। वो जब से मेरे जीवन में आई थी तब से मेरी ज़िन्दगी जैसे किसी उजड़े हुए चमन का हिस्सा बन चुकी थी। मैं हमेशा से ही अपनी हर चीज़ ख़ास चाहता था लेकिन उस औरत की वजह से मेरे जीवन का हर पहलू जैसे फ़िज़ूल और बेरंग सा हो गया था।

मैंने सोचा था कि मैं ऐसा क्या करूं कि मेरा जीवन फिर से रंगीन और खुश हाल हो जाए? ख़ैर बहुत सोच विचार करने के बाद मैंने फैसला किया कि जिसकी वजह से मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हुई पड़ी है उसको अपनी ज़िन्दगी से इतना दूर कर दूंगा कि फिर कभी उसका साया भी मुझ तक न पहुंच सके।

✧✧
शानदार जबरदस्त भाई
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,518
354
Bhai story ki prologue to bahat hi alag hi he but me sochta tha ki app is bar ek fantasy story hi likhenge q ki dimag hi alag he apke. Cholo koi ni. App Ki dimag sochta to dusra he but app kuch likhte different hi. But mere hisab se panga le hi lena chahiye tab to maza sabko ayega? Dar ke age jit hi he😜
Agar koi fantasy story zahen me aayegi to zarur likhuga bhai, aakhir likhna to apna shauk hai. Baaki kisi ke chaahne se ya sochne se kaha kuch hota hai?? Hota to wahi hai na jo upar baitha vidhata chaahta hai. Khair shukriya is pratikriya ke liye,,,,:dost:
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
53,022
173
✧ Double Game ✧
________________________

Chapter - 01
[ Plan & Murder ]
-----------------------------------


Update - 01
____________________





हीन भावना कभी कभी ऐसा भी रूप ले लेती है जिसका अंजाम ख़तरनाक भी हो सकता है। हम जैसा सोचते हैं या जैसा चाहते हैं वैसा होता ही नहीं है। दुनियां में दुःख का एक कारण ये भी है। हम चाहते हैं कि हमारे पास जो चीज़ हो वो सबसे ख़ास हो और वैसी चीज़ किसी और के पास हर्गिज़ न हो लेकिन ऐसा होता नहीं है। इंसान के जीवन में ऐसी बहुत सी चीज़ें होती हैं जिनके बारे में हमारे ख़याल कुछ ऐसे ही होते हैं लेकिन ऐसी चीज़ों पर हमारा कोई ज़ोर नहीं होता।

एक इंसान वो होता है जो वक़्त के साथ चीज़ों से समझौता कर लेता है और ख़ुद को झूठी ही सही लेकिन तसल्ली दे लेता है, लेकिन एक इंसान वो भी होता है जो किसी भी चीज़ से समझौता नहीं करना चाहता, बल्कि वो हर हाल में यही चाहता है कि उसकी हर चीज़ ख़ास ही हो और वैसी चीज़ किसी और के पास हर्गिज़ न हो। ऐसा इंसान इसके लिए हर वो कोशिश करता है जो कदाचित उसके बस से भी बाहर होता है।

किसी को भी अपने जीवन में सब कुछ नहीं मिल जाया करता। ये बात कहने के लिए तो बहुत ही ख़ूबसूरत है लेकिन असल ज़िन्दगी में इसकी ख़ूबसूरती का पता नहीं चलता या कहें कि इसकी खू़बसूरती दिखती ही नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने जो कुछ करने का मंसूबा बनाया है वो किसी भी तरह से सही नहीं है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा करना मेरी मज़बूरी बन गई है। मज़बूरी इस लिए क्योंकि मैं वो इंसान हूं जिसे अपनी हर चीज़ ख़ास की सूरत में चाहिए। जिसकी किसी भी चीज़ को देख कर कोई ये न कह सके कि यार ये तो बहुत ही भद्दी है या ये तुम पर शूट नहीं करती है।

मैंने बहुत सोच समझ कर ये फैसला किया है कि मैं अपने पास मौजूद ऐसी उस एक मात्र चीज़ को अपने से दूर कर दूंगा, जिसकी वजह से मुझे लगता है कि उसके रहने से मुझे हमेशा अटपटा सा महसूस होता है और मैं ये तक सोच लेता हूं कि उसकी वजह से मेरी ज़िन्दगी में कोई रौनक ही नहीं है।

मैं अक्सर सोचता था कि जब मेरे पास मौजूद हर चीज़ बेहतर है तो एक वो चीज़ बेहतर क्यों नहीं है? अपने नसीब पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था वरना क्या ऐसा हो पाता? हर्गिज़ नहीं, मैं दुनियां को आग लगा देता लेकिन ऐसा होने नहीं देता किन्तु मेरा नसीब और मेरी नियति मुझसे कहीं ज़्यादा प्रबल थे। नसीब या नियति ने भले ही मेरे साथ ऐसा मज़ाक किया था लेकिन मेरे बस में अब ये तो था कि उस मज़ाक बनाने वाली चीज़ को अपने से हमेशा के लिए दूर कर दूं। मैं जानता हूं कि ऐसा करना किसी भी तरह से सही नहीं है, बल्कि अपराध है लेकिन क्या करूं...मैं वो इंसान हूं जिसे अपनी हर चीज़ ख़ास वाली सूरत में ही चाहिए।

पिछले चार साल से मैं उस चीज़ को अपने जीवन में एक बोझ सा बनाए शामिल किए हुए हूं लेकिन अब और नहीं। अब और मैं उस चीज़ को अपनी आँखों के सामने नहीं देखना चाहता। दुनियां की नज़र में भले ही उस चीज़ में कोई कमी न हो या उसमें कोई खोट न हो लेकिन मेरी नज़र में उसमें खोट के अलावा कुछ है ही नहीं।

मैं अक्सर सोचा करता हूं कि उसके माँ बाप ने आख़िर क्या सोच कर उसका नाम रूपा रखा रहा होगा? आख़िर रूप जैसी उसमें कौन सी बात थी जिसकी वजह से उसका नाम उसके माँ बाप ने रूपा रखा था? सच तो ये है कि उसका नाम रूपा नहीं बल्कि कुरूपा रखना चाहिए था जो कि उसके रंग रूप पर एकदम से फिट बैठता।

करूपा, ओह सॉरी..आई मीन रूपा, जी हां रूपा। मेरी बीवी का नाम रूपा है लेकिन जैसा कि मैंने बताया रूप जैसी उसमें कहीं पर भी कोई बात नहीं है। मुझे ईश्वर से सिर्फ एक ही शिकायत रही है कि उसने ऐसे कुरूप प्राणी को मेरी बीवी क्यों बना दिया था? शादी के बाद जब पहली बार मैंने उसे देखा था तो मेरा मन किया था कि या तो मैं खुद को ही जान से मार दूं या फिर उसका गला घोंट कर उसे इस संसार सागर से विदा कर दूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा न कर सका था।

आप समझ सकते हैं कि मेरे जैसे इंसान ने ऐसे कुरूप प्राणी को अपनी ज़िन्दगी में जोड़ कर चार साल कैसे बिताए होंगे? चार सालों में ऐसा कोई दिन या ऐसा कोई पल नहीं गुज़रा जब मैंने अपनी किस्मत को कोसा न हो और उस कुरूप प्राणी के मर जाने की दुआ न की हो।

मेरी बीवी से मेरे सम्बन्ध कभी भी अच्छे नहीं रहे और इसका सबूत ये था कि मैंने सुहागरात वाली रात से ले कर आज तक उसके जिस्म की तरफ देखा तक नहीं था उसे छूने की तो बात ही दूर है। सुहागरात में उसकी कुरूपता को देखते ही मुझे उससे बे-इन्तहां नफ़रत सी हो गई थी। उसके बाद मैंने उससे कभी कोई मतलब नहीं रखा।

मेरी तरह गांव देहात की ही लड़की थी वो और मेरे माता पिता ने उसे सिर्फ इस बात पर मेरे लिए पसंद कर लिया था कि उसका बाप दहेज़ में दो लाख रुपया, एक मोटर साइकिल, ढेर सारा फर्नीचर और दो बीघे का खेत देने को तैयार था। मुझे नहीं पता था कि मेरे माता पिता इस सबके लालच में मेरी इस तरह से ज़िन्दगी बर्बाद कर देंगे, अगर मुझे ज़रा सी भी इस बात की कहीं से भनक लग जाती तो मैं खुद ख़ुशी कर लेने में ज़रा भी देरी न करता। ख़ैर, अब भला क्या हो सकता था? कुछ तो पिता जी का आदर सम्मान और कुछ उनके ख़ौफ की वजह से मैं उस औरत को छोड़ देने का इरादा नहीं बना सका था, लेकिन इतना ज़रूर सोच लिया था कि पिता जी चाहे मुझे अपनी हर चीज़ से बेदखल कर दें लेकिन मैं उस औरत के पास कभी नहीं जाऊंगा जिसे मैं देखना भी पसंद नहीं करता।

मैंने एमएससी तक की पढ़ाई की थी इस लिए मैंने पूरी कोशिश की थी कि इस झमेले से बचने के लिए दूर किसी शहर में रह कर नौकरी करूं और मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब भी हो गया था। मैंने शहर में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी शुरू कर दी थी और वहीं रहने लगा था। शहर में रहते हुए न तो मैं कभी घर वालों को फ़ोन करता था और ना ही घर जाने का सोचता था। शादी के दो साल तक तो मैं घर गया भी नहीं था लेकिन फिर एक दिन पिता जी किसी के साथ शहर में मेरे पास आ धमके और मुझे खूब खरी खोटी सुनाई। जिसका नतीजा ये निकला कि मुझे घर जाना ही पड़ा। घर गया भी तो मैंने उस औरत की तरफ देखना ज़रूरी नहीं समझा जिसे ज़बरदस्ती मेरे गले से बाँध दिया गया था। वैसे एक बात बड़ी आश्चर्यजनक थी कि वो औरत ख़ुद भी मुझसे कभी बात करने की कोशिश नहीं करती थी और ना ही किसी बात की वो मुझसे शिकायत करती थी। जैसे वो अच्छी तरह समझती थी कि मैं उसे पसंद नहीं करता हूं और उससे कोई मतलब नहीं रखना चाहता हूं। उसने जैसे खुद को इस बात के लिए अच्छी तरह समझा लिया था कि अब जो उसके जीवन में लिखा होगा वो हर तरह से उसे स्वीकार है। हालांकि मैंने उसे समझने की कभी कोशिश भी नहीं की और ना ही मैंने ये सोचा कि वो क्या सोचती होगी अपने इस जीवन के बारे में लेकिन मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि उसकी तरफ से मैं एक आज़ाद पंक्षी की तरह था।

मेरे माता पिता ने बहुत कोशिश की थी कि मैं उस औरत से सम्बन्ध रखूं लेकिन इस मामले में मैंने उनसे साफ़ कह दिया था कि वो औरत सिर्फ उनकी बहू है ना कि मेरी बीवी। यानी जिस औरत को मैं अपना कुछ समझता ही नहीं हूं उससे किसी तरह का समबन्ध रखने का सवाल ही नहीं पैदा होता। पिता जी ने मुझे हर तरह की धमकी दी और हर तरह से समझाने की भी कोशिश की लेकिन मैं इस मामले में जैसे पत्थर की लकीर था।

चार साल ऐसे ही गुज़र ग‌ए। मैं शहर में नौकरी करता और अपने में ही खोया रहता। अब तक मेरे माता पिता को भी समझ आ गया था कि उन्होंने धन के लालच में अपने बेटे के साथ कितना बड़ा गुनाह कर दिया था लेकिन अब पछताने से भला क्या हो सकता था? वैसे मैं खुद भी कभी कभी सोचता था कि चलो छोड़ो अब जो हो गया सो हो गया और मुझे अपने भाग्य से समझौता कर के उस औरत के साथ जीवन में आगे बढ़ना चाहिए लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाता था। हर बार मेरी सोच इस बात पर आ कर ठहर जाती कि आख़िर क्यों? जब मेरी हर चीज़ ख़ास है तो वो औरत ख़ास क्यों नहीं हुई? भगवान ने मेरे जीवन में एक ऐसी चीज़ को क्यों शामिल कर दिया जिसकी वजह से मेरी बाकी की सारी ख़ास चीज़ें भी फीकी पड़ गईं हैं? मैं अपनी ज़िन्दगी की इस ट्रेजडी को हजम ही नहीं कर पा रहा था और फिर गुज़रते वक़्त के साथ जैसे ये बात मेरे दिलो दिमाग़ पर बैठती ही चली गई थी।

रूपा के मायके वाले भी इस सबसे बेहद परेशान और दुखी थे। उन्हें भी इस बात का एहसास हो चुका था कि उन्होंने धन का लालच दे कर जो कुछ किया था वो सही नहीं था और इसके लिए वो कई बार मुझसे माफियां भी मांग चुके थे लेकिन मेरी डिक्शनरी में माफ़ी वाला शब्द जैसे था ही नहीं। मैंने उनसे साफ़ कह दिया था कि उन्हें अगर अपनी बेटी के भविष्य की इतनी ही फ़िक्र है तो वो उसे वापस ले जाएं और किसी और से उसकी शादी कर दें। शुरू शुरू में उन्हें मेरी ये बातें फ़िज़ूल टाइप लगती थीं। उन्हें लगता था कि अभी मैं इस सबसे नाराज़ हूं इस लिए ऐसा बोल रहा हूं लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ मेरी सोच और मेरे ख़यालात बदल जाएंगे। वो तो उन्हें बाद में एहसास हुआ कि मेरी सोच और मेरे ख़यालात इस जीवन में कभी बदलने वाले नहीं हैं और इस चक्कर में उनकी बेटी का जीवन बर्बाद ही हो गया है। अब वो अपनी बेटी की शादी किसी और से करना भी चाहते तो कोई नहीं करता, फिर चाहे भले ही वो किसी को धन का कितना भी लालच देते। बेटी अगर सुन्दर होती तो इस बारे में सोचा भी जा सकता था लेकिन ब्राह्मण समाज की लड़की अगर एक बार ससुराल में इतने साल रह जाए तो ऐसी सिचुएशन में फिर उससे कोई शादी नहीं कर सकता। मेरे गांव तरफ तो ऐसा चलन है कि शादी होने के बाद लड़की अगर चार दिन ससुराल में रह जाए और अगर इस बीच वो विधवा हो जाए तो फिर उसे सारी ज़िन्दगी ससुराल में ही रहना पड़ता है। ब्राह्मण समाज का ये नियम कानून बाकी जाति वालों से बहुत शख़्त है।

ईश्वर के खेल बड़े निराले होते हैं। वो कब क्या कर डाले अथवा वो क्या करने वाला होता है इसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। मेरे इस रवैये की वजह से जब चार साल ऐसे ही गुज़र गए तो मेरे माता पिता को इन सब बातों ने इतना ज़्यादा चिंतित वो दुखी कर दिया कि वो बीमार पड़ ग‌ए। धीरे धीरे उनकी तबीयत और भी बिगड़ती गई। मुझे पता चला तो मैंने उनके इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन उनकी सेहत में कोई सुधार न हुआ। उनकी बहू अपनी क्षमता से ज़्यादा उनकी सेवा करती थी और इस बात को मैं बेझिझक स्वीकार भी करता हूं। चार साल हो गए थे और मैं अक्सर ये सोच कर हैरान हो जाता था कि ये किस मिट्टी की बनी है कि मेरी इतनी बेरुखी के बाद भी वो पूरे मन से अपने सास ससुर की सेवा करती रहती है। मैं जब भी घर जाता था तो मैंने ऐसा कभी नहीं सुना था कि उसने किसी चीज़ के लिए मना किया हो या उसने किसी बात पर उनसे सवाल जवाब किया हो। चाभी से चलने वाली किसी कठपुतली की तरह थी वो। जिस तरफ और जिस तरीके से उसे घुमा दो वो उसी तरफ और उसी तरीके से घूम जाती थी। उसमें और चाभी से चलने वाले खिलौने में सिर्फ इतना ही फ़र्क था कि चाभी से चलने वाला खिलौना चलने से आवाज़ करने लगता है जबकि वो एकदम ख़ामोशी से चलती रहती थी। ऐसा लगता था जैसे वो गूंगी हो। वैसे चार साल तक मैं भी उसे गूंगी ही समझा था।

मेरे बहुत इलाज़ करवाने के बावजूद मेरे माता पिता की सेहत पर सुधार न हुआ था और फिर एक दिन उनका अंत समय आ गया। अपने आख़िरी समय में उन दोनों ने मुझसे बस एक ही बात कही थी कि उनके जाने के बाद अब उनकी बहू का कोई सहारा नहीं होगा इस लिए अगर मेरे दिल में ज़रा सा भी उसके प्रति रहम या दया है तो मैं उसे अपना लूं और जहां भी रहूं उसे अपने साथ ही रखूं।

मैंने देखा था कि मेरे माता पिता के अंतिम समय में वो औरत ऐसे रो रही थी कि यकीनन उसके करुण क्रंदन से आसमान का कलेजा भी छलनी हो गया रहा होगा। माता पिता के गुज़र जाने के बाद मैंने विधि पूर्वक उनकी अंतिम क्रियाएं की और फिर शहर की तरफ रुख किया किन्तु इस बार वो औरत भी मेरे साथ थी। समय बदल गया था, ईश्वर ने जैसे मुझे बेबस सा कर दिया था। हालांकि जब मैंने इस सबके बाद पहली बार उससे शहर चलने को कहा था तो उसने साफ़ शब्दों में कह दिया था कि उसे मेरे सहारे की ज़रूरत नहीं है। उसमें अभी इतना साहस और इतनी क्षमता है कि इतने बड़े घर में वो अपने जीवन का बाकी समय गुज़ार सकती है।

मुझे उस औरत की भावनाओं से कोई मतलब नहीं था, बल्कि मैं तो बस अपने माता पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहता था और ये भी कि कोई ये न कहे कि सास ससुर के गुज़र जाने के बाद पति ने उसे अकेले मरने के लिए छोड़ दिया और खुद शहर में ऐशो आराम से रह रहा है।

मैं रूपा को ले कर शहर आ गया था। उसके अपने माता पिता और भाई इस बात से बेहद खुश हुए थे। यकीनन उन्होंने इसके लिए भगवान का लाख लाख धन्यवाद दिया होगा। उन्हें नहीं पता था कि मैं इसके बावजूद उसे अपनी बीवी नहीं मानता था, बल्कि वो मेरे लिए एक ऐसी अंजान औरत थी जिसके साथ न तो मेरा कोई रिश्ता था और ना ही उसके लिए मेरे अंदर कोई जज़्बात थे। हालांकि वो औरत आज भी मुझे अपना पति परमेश्वर ही मानती थी और इसका सबूत ये था कि उसकी मांग में पड़े सिन्दूर की लम्बाई कुछ ज़्यादा ही गहरी दिखती थी।

शहर में रूपा मेरे साथ रहने लगी थी। मैंने दो कमरे का एक फ्लैट ले रखा था इस लिए हम दोनों के ही कमरे अलग अलग थे। न मैं उसके कमरे में जाता था और ना ही उसे मेरे कमरे में आने की इजाज़त थी। मैं गांव में भी उससे बात नहीं करता था और यहाँ शहर में भी हमारे बीच ख़ामोशी ही कायम थी। इतना ज़रूर था कि मैं सारा ज़रूरत का सामान खुद ही ला कर रख देता था और अगर कोई ऐसा सामान उसे लेना होता था जो मेरी जानकारी में नहीं होता था तो हम दोनों ही कागज़ में लिख कर पर्ची छोड़ देते थे। कितनी अजीब बात थी न कि एक ही छत के नीचे रहते हुए हम एक दूसरे से कोई बात नहीं करते थे। मैं सिर्फ उसके हाथ का बना हुआ खाना खा लेता था बाकी मैं अपने कपड़े खुद ही धो लेता था। शहर में आने के बाद न उसने कभी बात करने की कोशिश की और ना ही मैंने। मेरे लिए तो वो वैसे भी न के बराबर ही थी।

शहर आए हुए छः महीने गुज़र चुके थे और हमारे बीच ज़िन्दगी गहरी ख़ामोशी के साथ गुज़र रही थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि दुनियां के किसी हिस्से पर दो ऐसे प्राणी रहते हैं जो कहने को तो पति पत्नी हैं लेकिन उनके बीच पति पत्नी जैसा कुछ भी नहीं है। प्रकृति का ऐसा सिस्टम है कि अगर कोई दुश्मन भी अपने दुश्मन के पास दो पल के लिए रह जाए तो वो एक दूसरे से बिना बात किए रह नहीं सकते लेकिन हम दोनों तो जैसे प्रकृति के इस सिस्टम के अपवाद थे।

हर चीज़ का आदि और अंत होता है और हर चीज़ ख़ास वक़्त पर अपने बदलने का सबूत देती है। समय बदलता है तो समय के साथ साथ उससे जुड़ी हुई हर चीज़ भी बदलती है। समय कभी एक जैसा नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे वो खुद भी अपनी सिचुएशन से ऊब जाता है इसी लिए तो अगले ही पल वो एक नए रूप और एक नए अंदाज़ में हमें दिखने लगता है।

शहर में अकेला रहता था तो इतना ज़्यादा नहीं सोचता था लेकिन जब से मैं उस औरत की मौजूदगी अपने पास महसूस करने लगा था तब से ज़हन में बड़े अजीब अजीब से ख़याल उभरने लगे थे। अकेले कमरे में मैं अक्सर सोचता था कि क्या यही अपनी ज़िन्दगी है? क्या इस जीवन में इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए? क्या मेरे सपने, मेरी ख़्वाहिशें सब कुछ ख़त्म हो चुकी हैं? इस दुनियां में अनगिनत लोग हैं जो अपने जीवन में न जाने क्या क्या हासिल करते हैं और न जाने क्या क्या करते हैं लेकिन क्या मुझे अपने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं करना है? क्या मुझे अब किसी भी चीज़ की चाहत नहीं है? ऐसे न जाने कितने ही ख़याल मेरे ज़हन में उभरते रहते थे। हर रोज़ मैं इन ख़यालों में डूब जाता और मुझे उसका छोर न मिलता लेकिन एक दिन अचानक जैसे मैंने सोच लिया कि नहीं नहीं...मेरा जीवन सिर्फ इतने में ही नहीं सिमट सकता। मेरी चाहतें ऐसे ही ख़त्म नहीं हो सकतीं। हर किसी की तरह मुझे भी इस जीवन में बहुत कुछ हासिल करना है।

मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पनौती वो औरत थी। वो जब से मेरे जीवन में आई थी तब से मेरी ज़िन्दगी जैसे किसी उजड़े हुए चमन का हिस्सा बन चुकी थी। मैं हमेशा से ही अपनी हर चीज़ ख़ास चाहता था लेकिन उस औरत की वजह से मेरे जीवन का हर पहलू जैसे फ़िज़ूल और बेरंग सा हो गया था।

मैंने सोचा था कि मैं ऐसा क्या करूं कि मेरा जीवन फिर से रंगीन और खुश हाल हो जाए? ख़ैर बहुत सोच विचार करने के बाद मैंने फैसला किया कि जिसकी वजह से मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हुई पड़ी है उसको अपनी ज़िन्दगी से इतना दूर कर दूंगा कि फिर कभी उसका साया भी मुझ तक न पहुंच सके।

✧✧
Jabardast agaj kiya hai mitr nayi update sang ish katha ka
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,518
354
आप की इस कहानी ने मुझे अपने कोर्स की एक उपन्यास की याद दिला दी जब मैं बारहवीं में पढ़ता था ।
राजेन्द्र यादव जी की बहुत ही बेहतरीन उपन्यास " सारा आकाश " ।
इस उपन्यास का प्रमुख नायक " समर " कूंठित व्यक्तित्व वाले युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है । वह एम ए करके प्रोफेसर बनना चाहता था परंतु बारहवीं में ही उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कर दिया जाता है । उसके सुनहले सपने टूट जाते हैं । पत्नी प्रभा के साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा आप के इस स्टोरी का नायक कर रहा है ।
बहुत ही मर्म स्पर्शी रचना थी राजेंद्र यादव जी की यह ।

इस उपन्यास के बारे में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में - उपन्यासकार ने निम्न मध्यवर्ग की एक ऐसी वेदना का इतिहास लिखा है , जिसे हममें से अधिक लोगों ने भोगा है ।
Novel to maine bhi padhe hain bhaiya ji lekin zyadatar aise jo jasusi thriller the. Kuch samajik novel bhi padhe hain. Pahle padhne ka bada shauk tha lekin ab to yaad bhi nahi ki aakhiri baar kab maine koi novel padha tha. Khair main ye samajhta hu ki jab jaisa pariwesh tha us samay ke lekhako ne us pariwesh ke anusaar kahaniya, upanyaas, kavitaaye, naatak, ekaanki aadi saari chhezo ki rachnaye ki. Study time hindi subject me jab main aise lekhako ki aisi rachnaaye padhta tha to man gadgad ho jata tha. Dheere dheere aisa hua ki hindi mera sabse favourite subject ban gaya jo aaj bhi hai. Chhayawadi kaviyo ki kavitaaye mujhe bahut pasand thi aur main khud koshish karta tha usi tarah ki kavitaaye likhne ki aur maine likhi bhi thi waisi kavitaaye. Khair aaj main ye anubhav karta hu ki apni rachnaao me jo marm aur jo dukh dard byakt karne ki kala pahle ke writers me thi wo aaj ke writers me sahaj hi dekhne ko nahi milti. Ho sakta hai ki iski vajah aaj ka parivesh ho ya fir kuch aur,,,,:dazed:
इस अपडेट के साथ आप ने एक बार फिर से अपने लेखन कला का लोहा मनवा लिया । नायक की कूंठा बिल्कुल वास्तविक लगी । और यह प्रायः हर मध्यवर्गीय परिवार की सोच है । पहले शादियां मां बाप के द्वारा फिक्स होती थी । अरेंज मैरिज का जमाना था । लड़के और लड़कियों की शादी बिना देखे हुआ करती थी ।
शुरुआत में दिक्कतें तो आती ही थी पर बाद में एडजस्टमेंट हो ही जाया करता था ।
Main kyoki shuddh gaav dehaat ka insaan hu is liye mujhe gaav dehaat wali kahaniya kuch zyada hi pasand hain. Pahle ke samay me yakeenan aisa hi hota tha aur aaj bhi kahi kahi aisa dekhne ko milta hai. Shadi chaahe maa baap ki ichha dwara ho ya apni pasand se yaani love marriage, lekin dono situation me ek cheez common hai ki agar dono ke beech achha taal mel, samajhdaari aur vishwaas na ho to aapas me rishte kabhi thik nahi rah sakte. Maine aise bhi love marriage wale log dekhe hain jinki life jhand bani hoti hai aur maine bahut se aise arrange marriage walo ko dekha hai jinke beech achha khasa pyar, samanjasya, aur samajhdaari hoti hai. Khair story ki baat karu to bas yahi kahuga ki ek din yu hi zahen me kuch khayaal aaye to socha isko apne tareeke se likhu. Baaki meri koshish aur meri soch kaha tak sahi hogi ye to aap sab hi batayenge,,,,:D
इस स्टोरी का नायक जैसा कि अमूमन होता है सुंदरता का पुजारी है । कुरूपता उसे बिल्कुल भी नहीं पसंद है । और इसी वजह से उसने अपनी पत्नी को कभी अपना पत्नी माना ही नहीं ।
लेकिन काश ! एक बार हम उस लड़की के जगह पर खुद को रखकर देखें ।
काश ! एक बार उस लड़की के जगह अपनी बेटी या बहन को मानकर चलें ।
काश ! उस लड़की की मनोदशा को समझने की कोशिश करें ।

फिर तो कोई समस्या ही नहीं होती ।
Lekin kaash, ye to aise vichaar hain bhaiya ji jo tabhi zahen me aate hain jab hamara man shaant ho aur ham sahi galat ko sochne ki sthiti me hote hain. Jinke zahen me aisi kunthit bhaavna ne ghar kar liya hota hai wo agar kaash shabd ki taraf dhyaan de to shayad kahaniya itni sahajta se na ban paaye,,,,:D
बहुत ही खूबसूरत कहानी है शुभम भाई । और अपडेट भी हमेशा की तरह आप का खुबसूरत ही रहता है ।

आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
जगमग जगमग अपडेट ।
Shukriya bhaiya ji aapki is khubsurat sameeksha aur pratikriya ke liye,,,,:hug:
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,518
354
यह स्टोरी मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस पर आधारित है । इसलिए एक डर बना हुआ है कहीं मर्डर बीवी का तो नहीं होने वाला है !
अगर ऐसा है तो मुझे बहुत ही बुरा लगेगा ।
Ab jab okhli me sir de hi diya hai aapne to moosal se dar kaisa??? :lol1:
Baaki jo bhi hona hoga wo to hoga hi,,,, :D
लेकिन यह भी सच है , एक रचनाकार की प्रतिभा ऐसी ही कहानियों से उभर कर सामने आती है । रीडर्स के इमोशन से खेलना ही तो एक अच्छे राइटर की उपलब्धि होती है ।
Aur writer ke emotions se khelna readers ka jaise shauk hota hai,,,,:lol1:
 
Top