♡ एक नया संसार ♡
अपडेट..........《 28 》
अब तक,,,,,,,
"पहले तो नहीं कर रहा था।" नैना ने अधीरता से कहा__"फिर जब मैंने ये कहा कि मेरे भइया भाभी खुद भी एक वकील हैं और वो जब आपको कोर्ट में घसीट कर ले जाएॅगे तब पता चलेगा उन्हें। कोर्ट में सबके सामने मैं चीख चीख कर बताऊॅगी कि आदित्य सिंह नामर्द है और बच्चा पैदा नहीं कर सकता तब तुम्हारी इज्जत दो कौड़ी की भी नहीं रह जाएगी। बस मेरे इस तरह धमकाने से उसने फिर तलाक के पेपर्स पर अपने साइन किये थे।"
"लेकिन मुझे ये समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हें इस बात का पता पहले क्यों नहीं चला कि आदित्य नामर्द है?" प्रतिमा ने उलझन में कहा__"बल्कि ये सब अब क्यों हुआ? क्या आदित्य का पेनिस बहुत छोटा है या फिर उसके पेनिस में इरेक्शन नहीं होता? आख़िर प्राब्लेम क्या है उसमें?"
"और सबकुछ ठीक है भाभी।" नैना ने सिर झुकाते हुए कहा__"लेकिन मुझे लगता है कि उसके स्पर्म में कमी है। जिसकी वजह से बच्चा नहीं हो पा रहा है। मैंने बहुत कहा कि एक बार वो डाक्टर से चेक अप करवा लें लेकिन वो इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं।"
"ओह, चलो कोई बात नहीं।" प्रतिमा ने उसके चेहरे को सहलाते हुए कहा__"अब तुम फ्रेश हो जाओ तब तक मैं तुम्हारे लिए गरमा गरम खाना तैयार कर देती हूॅ।"
नैना ने सिर को हिला कर हामी भरी। जबकि प्रतिमा उठ कर कमरे से बाहर निकल गई। बाहर आते ही वह चौंकी क्योंकि अजय सिंह दरवाजे की बाहरी साइड दीवार से चिपका हुआ खड़ा था। प्रतिमा को देख कर वह अजीब ढंग से मुस्कुराया और फिर प्रतिमा के साथ ही नीचे चला गया।
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अब आगे,,,,,,,
गौरी को एक दम से चुप और कुछ सोचते हुए देख अभय सिंह से रहा न गया। उसके चेहरे पर बेचैनी और उत्सुकता प्रतिपल बढ़ती ही चली जा रही।
"आप चुप क्यों हो गईं भाभी?" अभय ने अधीरता से कहा__"बताइये न, मेरे मन में वो सब कुछ जानने की तीब्र उत्सुकता जाग उठी है। मैं जल्द से जल्द सब कुछ आपसे जानना चाहता हूॅ।"
अभय की उत्सुकता और बेचैनी देख गौरी के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे तथा गुलाब की कोमल कोमल पंखुड़ियों जैसे होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई। उसने अभय की तरफ देखने के बाद अपने सामने कहीं शून्य में देखने लगी।
"तुम मेरे बच्चों की तरह ही हो।" गौरी शून्य में घूरते हुए ही बोली__"और कोई भी माॅ अपने बच्चों के सामने या फिर खुद बच्चों से ऐसी बातें नहीं कर सकती जिन्हें कहने के लिए रिश्ते और मर्यादा इसकी इज़ाज़त ही न दे। लेकिन फिर भी कहूॅगी अभय। वक्त और हालात हमारे सामने कभी कभी ऐसा रूप लेकर आ जाते हैं कि हम फक़त बेबस से हो जाते हैं। हमें वो सब कुछ करना पड़ जाता है जिसे करने के बारे में हम कभी कल्पना भी नहीं करते। ख़ैर, अब जो कुछ भी मैं कहने जा रही हूॅ उसमें कई सारी बातें ऐसी भी हैं जिन्हें मैं स्पष्ट रूप से तुम लोगों के सामने नहीं कह सकती, किन्तु हाॅ तुम लोग उन बातों का अर्थ ज़रूर समझ सकते हो।"
इतना कह कर गौरी ने एक गहरी साॅस ली और फिर से उसी तरह शून्य में घूरते हुए कहने लगी__"ये सब तब से शुरू हुआ था जब मैं ब्याह कर अपने पति यानी विजय सिंह जी के घर आई थी। उस समय हमारा घर घर जैसा ही था आज की तरह हवेली में तब्दील नहीं था। मैं एक ग़रीब घर की लड़की थी। मेरे माॅ बाप ग़रीब थे, खेती किसानी करते थे। अपने माता पिता की मैं अकेली ही संतान थी। मेरा ना तो कोई भाई था और ना ही कोई बहन। ईश्वर ने मेरे सिवा मेरे माॅ बाप को दूसरी कोई औलाद दी ही नहीं थी। इसके बाद भी मेरे माॅ बाप को भगवान से कोई शिकायत नहीं थी। वो मुझे दिलो जान से प्यार व स्नेह करते थे। जब मैं बड़ी हुई तो सभी बच्चों की तरह मुझे भी मेरे माॅ बाप ने गाॅव के स्कूल में पढ़ने के लिए मेरा दाखिला करा दिया। मैं खुशी खुशी स्कूल जाने लगी थी। किन्तु एक हप्ते बाद ही मेरा स्कूल में पढ़ना लिखना बंद हो गया। दरअसल मैं छोटी सी बच्ची ही तो थी। एक दिन मास्टर जी ने मुझसे क ख ग घ सुनाने को कहा तो मैं सुनाने लगी। लेकिन मुझे आता नहीं था इस लिए जैसे आता वैसे ही सुनाने लगी तो मास्टर जी मुझे ज़ोर से डाॅट दिया। उनकी डाॅट से मैं डर कर रोने लगी। मैं अपने माॅ बाप इकलौती लाडली बेटी थी। मेरे माॅ बाप ने कभी मुझे डाॅटा नहीं था शायद यही वजह थी कि जब मास्टर जी ने मुझे ज़ोर से डाॅटा तो मुझे बेहद दुख व अपमान सा महसूस हुआ और मैं रोने लगी थी। मुझे रोते देख मास्टर जी ने मुझे चुप कराने के लिए फिर से ज़ोर से डाॅटा। उनके द्वारा फिर से डाॅटे जाने से मैं और भी तेज़ तेज़ रोने लगी थी। मास्टर जी ने देखा कि मैं चुप नहीं हो रही हूॅ तो उन्होंने मुझ पर छड़ी उठा दी। दो तीन छड़ी लगते ही मेरा रोना जैसे चीखों में बदल गया। पूरे स्कूल में मेरा रोना चिल्लाना गूॅजने लगा। मेरे इस तरह रोने और चिल्लाने से मास्टर जी बहुत ज्यादा गुस्से में आ गए। उसी वक्त एक दूसरे मास्टर जी मेरा रोना और चिल्लाना सुन कर आ गए। दूसरे मास्टर जी को देख कर पहले वाले मास्टर जी रुक गए और इस बीच मैं रोते हुए ही स्कूल से भाग कर अपने घर आ गई। घर में उस वक्त मेरे पिता जी भोजन कर रहे थे। मुझे इस तरह रोता बिलखता देख वो चौंके। मैं रोते हुए आई और अपने पिता जी से लिपट गई। मेरे पिता मुझसे पूछने लगे कि किसने मुझे रुलाया है तो मैंने रोते रोते सब कुछ बता दिया। सारी बात सुन कर मेरे पिता जी बड़ा गुस्सा हुए लेकिन माॅ के समझाने पर शान्त हो गए। लेकिन इस सबसे हुआ ये कि मेरे पिता जी ने दूसरे दिन से मुझे स्कूल नहीं भेजा। उन्होंने साफ कह दिया था कि जिस स्कूल में मेरी बेटी मार कर रुलाया गया है उस स्कूल में मेरी बेटी अब कभी नहीं पढ़ेगी। बस इसके बाद मैं घर में ही पलती बढ़ती रही। उस समय मेरी उमर पन्द्रह साल थी जब एक दिन बाबू जी(गजेन्द्र सिंह बघेल) हमारे घर आए। बाबू जी को आस पास के सभी गाॅव वाले जानते थे। उन्हें कहीं से पता चला था कि इस गाॅव में हेमराज सिंह(पिता जी) की बेटी है जो बहुत ही सुंदर व सुशील है। बाबू जी अपने मॅझले बेटे विजय सिंह जी के लिए लड़की देखने आए थे। मेरे पिता जी ने बाबू जी को बड़े आदर व सम्मान के साथ बैठाया। घर में जो भी रुखे सूखे जल पान की ब्यवस्था उन्होंने वो सब बाबू जी के लिए किया। बाबू जी ने मेरे पिता जी का मान रखने के लिए थोड़ा बहुत जल पान किया उसके बाद उन्होने अपनी बात रखी। मेरे पिता ये जान कर बड़ा खुश हुए कि ठाकुर साहब अपने बेटे के लिए उनकी लड़की का हाॅथ खुद ही माॅगने आए हैं। भला कौन बाप नहीं चाहेगा कि उसकी बेटी इतने बड़े घर में न ब्याही जाए? और फिर रिश्ता जब खुद ही चलकर उनके द्वार पर आया था तो इंकार का सवाल ही नहीं था। किन्तु पिता जी की आर्थिक स्थित अच्छी नहीं थी इस लिए लेने देने वाली बात से घबरा रहे थे। बाबू जी जानते थे इस बात को इस लिए उन्होंने साफ कह दिया था कि हेमराज हमें सिर्फ तुम्हारी लड़की चाहिए जिसे हम अपनी बेटी और बहू बना सकें। बस फिर क्या था। सब कुछ तय हो गया और एक अच्छे व शुभ मुहूर्त को मेरी शादी हो गई। मुझे नहीं पता था कि मैं किस तरह के घर में और किस तरह के लोगों के बीच आ गई हूॅ? माॅ बाप ने बस यही सीख दी थी कि अपने पति को परमेश्वर मानना। अपने सास ससुर की मन से सेवा करना। बड़ों का आदर व सम्मान करना तथा छोटों को प्यार व स्नेह देना।
एक लड़की का नसीब कितना अजीब होता है कि बचपन से जवानी तक अपने माॅ बाप के पास हॅसी खुशी से रहती है और फिर शादी हो जाने के बाद वह एक नये घर में अपने पति के साथ एक नया संसार बनाने के लिए चली जाती है। अपने माॅ बाप के घर में उनका निश्छल प्यार और स्नेह पा कर पली बढ़ी वो लड़की एक दिन उन सबसे दूर चली जाती है।
शादी के बाद जब मैं इस घर में आई तो मेरे मन में डर व भय के सिवा कुछ न था। अपने माॅ बाप से यूॅ अचानक ही दूर हो जाने से हर पल बस रोना ही आ रहा था। पर ये सब तो हर लड़की की नियति होती है। हर लड़की के साथ एक दिन यही होता है। ख़ैर, रात हुई तो एक ऐसे इंसान से मिलना हुआ जो किसी फरिश्ते से कम न था। उन्होंने मुझे प्यार दिया इज्जत दी और इस क़ाबिल बनाया कि जब सुबह हुई तो मुझे लगा जैसे ये घर शदियों से मेरा ही था। मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं किसी दूसरे के घर में किसी अजनबी के पास आ गई हूॅ। राज के पिता ऐसे थे कि उन्होने मुझे इतना बदल दिया था। मुझे उनसे प्रेम हो गया और मैं जानती थी कि उन्हें भी मुझसे उतना ही प्रेम हो गया था।
मेरी दोनो ननदें यानी सौम्या और नैना दिन भर मेरे पास ही जमी रहती थी। उन्होने ये एहसास ही नहीं होने दिया कि वो दोनो मेरे लिए अजनबी हैं। माॅ बाबू बड़ा खुश थे। आख़िर उनकी पसंद की लड़की उनकी बहू बन कर उस घर में आई थी। ऐसे ही एक हप्ता गुज़र गया। इन एक हप्तों में मेरे मन से पूरी तरह डर व झिझक जा चुकी थी। मुझे घर के सभी लोग अच्छे लगने लगे थे। विजय जी से इतना प्रेम हो गया था कि उनके बिना एक पल भी नहीं रहा जाता था। वो दिन भर खेतों पर काम में ब्यस्त रहते और शाम को ही घर आते। जब वो कमरे में मेरे पास आते तो मुझे रूठी हुई पाते। फिर वो मुझे मनाते। हर दिन मेरे लिए छुपा कर फूलों का गजरा खुद बना कर लाते और मेरे बालों में खुद ही लगाते। आईने के सामने ले जाकर मुझे खड़ा कर देते और मेरे पीछे खड़े होकर तथा आईने में देखते हुए मुझसे कहते "मैं सारे संसार के सामने चीख चीख कर ये कह सकता हूॅ कि इस संसार में तुमसे खूबसूरत दूसरा कोई नहीं। मैं तो बेकार व निकम्मा था जाने किन पुन्य प्रतापों का ये फल था जो तुम मुझे मिली हो" उनकी इन बातों से मैं गदगद हो जाती। मुझे ध्यान ही न रहता कि मैं उनसे रूठी हुई थी। सब कुछ जैसे भूल जाती मैं।
इस बीच मैंने महसूस किया था कि बड़े भइया और बड़ी दीदी इन दोनो का ब्यौहार सबसे अलग था। बड़े भइया विजय जी से ज्यादा बात नहीं करते थे। उसी तरह प्रतिमा दीदी मुझसे ज्यादा बात नहीं करती थी। हलाॅकि वो उस समय शहर में ही रहते थे। पर जब भी वो दोनो आते तो उनका ब्यौहार ऐसा ही होता हम दोनो से।
ऐसे ही चलता रहा। हम सब खुश थे किन्तु ये सच था कि बड़े भइया और दीदी विजय जी और मुझसे हमेशा से ही उखड़े से रहते। मैने अक्सर देखा था कि बड़े भइया किसी न किसी बात पर विजय जी को उल्टा सीधा बोलते रहते थे। ये अलग बात थी कि विजय जी उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते थे और ना ही पलट कर कोई जवाब देते थे।
एक दिन की बात है मैं अपने कमरे में नहाने के बाद कपड़े पहन रही थी, मुझे ऐसा लगा जैसे छिप कर कोई मुझे कपड़े पहनते हुए देख रहा है। मैंने पलट कर देखा तो कहीं कोई नहीं था। मैंने इसे अपना वहम समझ कर फिर से कपड़े पहनने लगी। तभी कमरे के बाहर से मेरी बड़ी ननद सौम्या की आवाज़ आई। वो कह रही थी "बड़े भइया आप यहाॅ, भाभी के कमरे के दरवाजे के पास छिप कर क्यों खड़े हैं?" सौम्या की इस बात को सुन कर मैं सन्न रह गई। ये जान कर मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई कि जेठ जी छिप कर मुझे कपड़े पहनते हुए देख रहे थे। मुझे ध्यान ही नहीं था कि मेरे कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। मेरी हालत ऐसी हो गई जैसे काटो तो एक बूद भी खून न निकले। फिर जब मुझे होश आया तो अनायास ही जाने किस भावना के तहत मुझे रोना आ गया। सौम्या जब मेरे कमरे में आई तो उसने मुझे रोता पाया। वह मुझे रोते देख हैरान रह गई। उसे किसी अनिष्ट की आशंका हुई। उसने तो देखा ही था कि उसका बड़ा भाई मेरे कमरे के बाहर दरवाजे के पास छिप कर खड़ा था। उसे समझते देर न लगी कि कुछ तो हुआ है। उसने तुरंत ही मुझे शान्त करने की कोशिश की और पूछने लगी क्या हुआ है? मैंने रोते हुए यही कहा कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि कौन दरवाजे के पास छिपकर मुझे कपड़े पहनते देख रहा है, वो तो तब पता चला जब तुमने बाहर जेठ जी से वो सब कहा था। मेरी बातें सुन कर सौम्या भी स्तब्ध रह गई। फिर उसने कहा कि ये बात मैं किसी से न कहूॅ क्यों कि घर में हंगामा हो जाएगा। इस लिए इस बात को भूल जाऊॅ लेकिन आइंदा से ये ख़याल ज़रूर रखूॅ कि दरवाजा खुला न रहे।
उस दिन के बाद जेठ जी का मुझे देखने का नज़रिया बदल चुका था। वो किसी न किसी बहाने मुझे देख ही लेते। मैं पन्द्रह साल की नासमझ ही थी। मुझे सिर पर साड़ी द्वारा घूॅघट करने का भूल जाता था। जेठ जी मुझे देखते और जब मेरी नज़र उन पर पड़ती तो वो बस मुस्कुरा देते। मुझे ये सब बड़ा अजीब लगता और मैं इस सबसे डर भी जाती।
उधर विजय जी खेतों में दिन रात मेहनत करते और ज्यादा से ज्यादा मात्रा में फसल उगाते। शहर में बेंच कर जो भी मुनाफा होता वो उस सारे पैसों को बाबू जी के हाॅथ में पकड़ा देते। उन पर तो जैसे पागलपन सवार था खेतों में दिन रात मेहनत करने का। उनकी मेहनत व लगन से अच्छा खासा मुनाफा भी होता। मैं अक्सर उनके पास खेतों में उन्हें खाना देने के बहाने चली जाती। मुझे उनके साथ रहना अच्छा लगता था फिर चाहे वो किसी भी जगह हों। हम दोनो खेतों में नये नये पौधे लगाते और खूब सारी बातें करते।
समय गुज़रता रहा। समय के साथ साथ उनका स्वभाव जो पहले से ही बदला हुआ था वो और ज्यादा बदल गया था। जेठ जी जब भी बड़ी दीदी के साथ शहर से आते तो उनका बस एक ही काम होता था...मुझे ज्यादा से ज्यादा देखना। घर में अगर कोई न होता तो वो मुझसे बातें करने की कोशिश भी करते। किन्तु मैं उनकी किसी बात को कोई जवाब न देती बल्कि अपने कमरे में आकर दरवाजा अंदर से लगा लेती। जैसा की गाॅवों में होता है कि जेठ व ससुर के सामने घूॅघट करके ही जाना है और उनके सामने कोई आवाज़ नहीं निकालना है, बात करने की तो बात दूर। इस लिए जेठ जी जब खुद ही मुझसे बातें करने और करवाने की कोशिश करते तो मैं डर जाती और भाग कर अपने कमरे में जाकर अंदर से दरवाजा बंद कर लेती। इतना तो मैं समझ गई थी कि जेठ जी की नीयत मेरे प्रति सही नहीं है। मगर किसी से कह भी नहीं सकती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से घर में कोई कलह शुरू हो जाए।
उधर विजय जी की मेहनत से घर में ढेर सारा पैसा आने लगा था। बाबू जी अपने इस बेटे से बड़ा खुश थे। मुझसे भी खुश थे क्योंकि मैं उनकी नज़र में एक आदर्श बहू थी। एक बार जेठ जी फिर आए शहर से। किन्तु इस बार वो पैसों के लिए आए थे क्योंकि उन्हें शहर में खुद का कारोबार करना था। उन्होने बाबू जी से इस बारे में बात की और उनसे पैसे मागे। इस बाबूजी नाराज़ भी हुए। पैसों के बारे में उन्होने यही कहा कि ये सब पैसे विजय की मेहनत का नतीजा है इस लिए उससे पूछना पड़ेगा। बाबू जी की इस बात ने जेठ जी के मन में विजय जी के लिए और भी ज़हर भर गया। मुझे आज भी नहीं पता कि ऐसी क्या वजह थी जिसकी वजह से जेठ जी के मन में अपने इस भाई के लिए इतना ज़हर भरा हुआ था? जबकि सब जानते थे कि विजय जी हमेशा उनका आदर व सम्मान करते थे। उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते थे। ख़ैर, पैसा लेकर जेठ जी शहर चले गए। इस बार जब वो आए थे तो किसी भी दिन उन्होंने वो हरकतें नहीं की जो इसके पहले करते थे मुझे देखने की। शहर में जेठ जी ने खुद का कारोबार शुरू कर लिया। इधर विजय जी के ज़ेहन में ये भूत सवार हो गया था कि घर को तुड़वा कर इसे नये सिरे से बनवा कर हवेली का रूप दिया जाए। उन्होने बाबू की सहमति से हवेली की बुनियाद रखी। हवेली को तैयार करने में भारी पैसा खर्च हुआ। यहाॅ तक की बाद में हवेली का बाॅकी काम कर्ज लेकर करना पड़ा। जेठ जी ने पैसा देने से इंकार कर दिया।
इस बीच बड़ी दीदी को एक बेटी हुई। इसका पता भी हम सबको बाद में चला था। ख़ैर, जब वो शहर से आए तो बाबू जी इस खबर से नाराज़ तो हुए किन्तु फिर हमेशा की तरह ही चुप रह गए।
मैं इस बात से खुश थी कि जेठ जी अब चोरी छिपे मुझे देखने वाली हरकतें करना बंद कर दिये थे। इस बीच अभय ने भी अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली। बाबू जी इस बात से नाराज़ हुए लेकिन कर भी क्या सकते थे? लेकिन करुणा का आचरण बहुत अच्छा था, वो पढ़ी लिखी थी लेकिन उसमें संस्कार भी थे। मैं उसे अपनी छोटी बहन बना कर खुश थी। हम दोनों का आपस में बड़ा प्रेम था। कोई कह ही नहीं सकता था कि वो मेरी देवरानी है। अभय गुस्सैल स्वाभाव के ज़रूर थे किन्तु उनके अंदर अपने से बड़ों का आदर सम्मान करने की भावना थी। प्रेम के चक्कर में छोटी ऊम्र ही उन्होने शादी कर ली थी। लेकिन बाबू जी शायद इस लिए चुप रह गए थे क्योंकि वो अपने पैरों पर खड़े थे। गाॅव के ही सरकारी स्कूल में अध्यापक थे वो।
इधर हवेली बन कर तैयार हो चुकी थी। कर्ज़ भी काफी हो गया था लेकिन विजय जी के लिए तो जैसे ये कर्ज़ कोई मायने ही नहीं रखता था। बाबू जी ने हवेली के तैयार होने पर बड़े धूमधाम से गृह प्रवेश का उत्सव मनाया। शहर से बड़े भइया और दीदी भी आईं। हवेली देख कर वो दोनो ही हैरान थे किन्तु प्रत्यक्ष में हमेशा की तरह ही ग़लतियाॅ बता रहे थे। बाबू जी सब जानते भी थे और समझते भी थे किन्तु हमेशा चुप रहते।
ऐसे ही चार साल गुज़र गए और मुझे एक बेटा हुआ। मेरे बेटे के जन्म के चार दिन बाद बड़े भइया और दीदी को फिर से एक बेटी हुई। बाबू जी ने अपने पोते के जन्म पर बड़े धूमधाम से उत्सव मनाया। बड़े भइया और दीदी इससे नाराज़ हुए। उनका कहना था कि उनकी बेटियों के जन्म उत्सव नहीं मनाया जबकि विजय के बेटे के जन्म पर बड़ा उत्सव मना रहे हैं आप। उनकी इन बातों से बाबू जी का गुस्सा उस दिन जैसे फट पड़ा था। उन्होंने गुस्से में बहुत कुछ सुना दिया उन दोनो को। बात भी सही थी। दरअसल वो दोनो खुद को हम सबसे अलग कर लिए थे। शहर में खुद का कारोबार और बड़ा सा एक घर था उनके पास। शायद इसी का घमंड होने लगा था उन्हें। वो सोचते थे कि कहीं हम लोग उनके कारोबार और शहर के मकान में हिस्सा न मागने लगें इस लिए वो हमेशा हम सबसे कटे कटे से रहते। जबकि यहा हवेली और ज़मीन जायदाद में अपना हक़ समझते थे।
गौरी कुछ पल के लिए रुकी और गहरी साॅसें लेने लगी। सब लोग साॅस बाधे उसकी बातें सुन रहे थे।
"मैं जानती हूॅ अभय कि मैने अभी जो कुछ कहा उस सबको तुम जानते हो।" गौरी ने कहा__"तुम सोच रहे होगे कि मैं ये सब तुम्हें क्यों बता रही हूॅ जबकि मुझे तो सिर्फ वो सब बताना चाहिए जो इन लोगों ने मेरे और मेरे पति के साथ किया था। ख़ैर, ये सब बताने का मतलब यही था कि जो कुछ हुआ उसकी बुनियाद उसकी शुरूआत यहीं से हुई थी। ज़हर के बीज यहीं से बोना शुरू हुए थे।
राज जब दो साल का हुआ तो मेरी बड़ी ननद सौम्या की शादी की बात चली। बाबू जी ने बड़े भइया को संदेश भेजवाया और कहा कि वो अपनी बहन की शादी के लिए अपनी तरफ से क्या खर्चा कर सकते हैं? बाबू जी बात से बड़े भइया ने पैसा देने से साफ इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि उनका कारोबार आजकल बहुत घाटे में चल रहा है इस लिए वो पैसे नहीं पाएॅगे। बाबू जी उनकी इस बात से बेहद दुख हुआ। बाबू जी के दुख का जब विजय जी को पता चला तो वो खेतों से आकर हवेली में बाबू जी से मिले। उन्होने बाबू जी से कहा कि आप किसी बात की फिक्र न करें, सौम्या की शादी बड़े धूमधाम से ही होगी। बाबू जी जानते थे कि हवेली बनाने में जो कर्जा हुआ था उसे विजय जी ने कितनी मेहनत करके चुकाया था। इसके बाद कहीं फिर से न कर्ज़ा हो जाए। खैर, सौम्या की शादी हुई और वैसे ही धूमधाम से हुई जैसा कि विजय जी ने बाबू जी से कहा था। शहर से बड़े भइया और दीदी भी थे, वो दोनो हैरान थे किन्तु सामने पर यही कहते फिलते बाबू जी से कि इतना खर्च करने की क्या ज़रूरत थी? इससे जो कर्ज़ हुआ है उसे मेरे सिर पर मत मढ़ दीजिएगा। बाबू जी इस बात से बेहद गुस्सा हुए। कहने लगे कि तुम तो वैसे ही खुद को सबसे अलग समझते हो, तुम्हें किसी बात की चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मेरे दो दो सपूत अभी बाॅकी हैं जो मेरा हर तरह से साथ देंगे और दे भी रहे हैं। सौम्या की शादी के तीसरे दिन बड़े भइया ने बाबू जी से कहा कि अगर आप ये समझते हैं कि मैं आप सबसे खुद को अलग समझता हूॅ तो आप मुझे सचमुच ही अलग कर दीजिए। ये रोज रोज की बेज्जती मुझसे नहीं सुनी जाती। बाबू जी ने कहा कि तुम तो अलग ही हो अब किस तरह अलग करें तुम्हें? तो बड़े भइया ने कहा कि मेरे हिस्से में जो भी आता हो उसे मुझे दे दीजिए। हवेली में और ज़मीनों में जो भी मेरा हिस्सा हो। बाबू जी उनकी इस बात पर गुस्सा हो गए। कहने लगे कि तुम्हारा हवेली में तभी हिस्सा हो सकता है जब तुम अपने हिस्से की कीमत दोगे। क्योंकि हवेली में तुमने अपनी तरफ से एक रुपया भी नहीं लगाया। हवेली में जो भी रुपया पैसा लगा और जो भी कर्ज़ा हुआ उस सबको अकेले विजय ने चुकता किया है। हाॅ अगर विजय चाहे तो अपनी मर्ज़ी से तुम्हें बिना कीमत चुकाए हवेली में हिस्सा दे सकता है।
बाबू जी की बात से बड़े भइया नाराज़ हो गए। कहने लगे कि विजय होता कौन है मुझे हिस्सा देने वाला। उस मजदूर के सामने मैं हाॅथ फैलाने नहीं जाऊॅगा। मुझे आपसे हिस्सा चाहिए। उनकी इन बातों से बाबू जी भी गुस्सा हो गए। कहने लगे कि अगर ऐसी बात है तो तुम्हें भी अपने कारोबार और शहर के मकान में दोनो भाइयों को हिस्सा देना होगा। तुम्हारा कारोबार तो वैसे भी विजय के ही पैसों की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। बाबू जी इस बात से बड़े भइया ने साफ कह दिया कि मेरे कारोबार और शहर के मकान में किसी का कोई हिस्सा नहीं है। तो बाबू जी ने भी कह दिया कि फिर तुम भी ये भूल जाओ कि तुम्हारा इस हवेली में और ज़मीनों में कोई हिस्सा है।
बाबू जी की इस बात से बड़े भइया गुस्सा हो गए। कहने लगे कि ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं। आप बाप होकर भी अपने बेटों के बीच पक्षपात कर रहे हैं। बाबू जी ने कहा कि तुम अपने आपको होशियार समझते हो कि तुम सबके हिस्सा ले लो और तुमसे कोई न ले। ये कहाॅ का न्याय कर रहे हो तुम? अरे तुम तो बड़े भाई हो, तुम्हें तो खुद सोचना चाहिए कि तुम अपने छोटे भाइयों का भला करो और भला ही सोचो।
बाबू जी की इन बातों से बड़े भइया कुछ न बोले और पैर पटकते हुए वापस शहर चले गए। उधर ये सारी बातें जब विजय जी को पता चलीं तो वो बाबू जी से बोले कि आपको बड़े भइया से ऐसा नहीं कहना चाहिए था। भला क्या ज़रूरत थी उनसे ये कहने की कि हवेली में हिस्सा तभी मिलेगा जब वो अपने हिस्से की कीमत चुकाएॅगे? मैने ये सोच कर ये सब नहीं किया था कि बाद में मैं अपने ही भाइयों से हवेली की कीमत वसूल करूॅ। बाबू जी बोले इतना महान मत बनो बेटे। ये दुनिया बहुत बुरी है, यहाॅ बड़े खुदगर्ज़ लोग रहते हैं। समय के साथ खुद को भी बदलो बेटा। वरना ये दुनिया तुम जैसे नेक और सच्चे ब्यकित को जीने नहीं देगी। बाबू जी की इस बात पर विजय जी बोले जैसे सूरज अपना रोशनी फैलाने वाला स्वभाव नहीं बदल सकता वैसे ही मेरा स्वभाव भी नहीं बदल सकता। आप और माॅ की सेवा करूॅ छोटे भाई के लिए खुद की सारी खुशियाॅ निसार कर दूॅ। भला क्या लेकर जाऊॅगा इस दुनियाॅ से? सब यहीं तो रह जाएगा न बाबू जी। इंसान की सबसे बड़ी दौलत व पूॅजी तो वो है जिसे पुन्य कहते हैं। एक यही तो लेकर जाता है वह भगवान के पास।
विजय जी की इन बातों से बाबू जी अवाक् रह गए। कुछ देर बाद बोले तू तो कोई फरिश्ता है बेटे। मन से बैरागी है तू। तुझे किसी धन दौलत का मोह नहीं है। जब तू पढ़ता लिखता नहीं था न तो दिन रात कोसता था तुझे। सोचता था कि कैसा निकम्मा बेटा दिया था मुझे भगवान ने लेकिन भला मुझे क्या पता था कि वही निकम्मा बेटा एक दिन इतना महान निकलेगा। मुझे तुझपे गर्व है बेटे। लेकिन मेरी एक बात हमेशा याद रखना कि दूसरों खुश रखने के लिए खुद का बने रहना भी ज़रूरी होता है।
बाबू जी की इस बात को सुन कर विजय जी मुस्कुराए और फिर से अपनी कर्मभूमि यानी खेतों पर चले गए। बाबू जी की बातों में छुपे किसी अर्थ को शायद विजय जी समझ नहीं पाए थे। लेकिन बाबू जी को शायद भविष्य दिख गया था।
उधर शहर में बड़े भइया और दीदी इस बार कुछ और ही खिचड़ी पका रहे थे। सौम्या की शादी को एक महीना हो गया था जब बड़े भइया और दीदी को तीसरी औलाद के रूप में एक बेटा हुआ था। वो दोनो शहर से आए थे घर। इस बार बाबू जी ने उनके बेटे के जन्म पर राज के जन्मोत्सव से भी ज्यादा उत्सव मनाया कारण यही था कि बड़े भइया और दीदी को ये न लगे कि हमें कोई खुशी नही हुई है उनके बेटे के जन्म पर। बड़े भइया खुद भी उत्सव में खूब पैसा बहा रहे थे। वो दिखाना चाहते थे कि वो किसी से कम नहीं हैं। ख़ैर, इस बार एक नई चीज़ देखने को मिली। वो ये थी कि बड़े भइया और दीदी हम सब से बड़े अच्छे तरीके से मिल जुल रहे थे। विजय जी से भी उन्होने अच्छे तरीके से बातें की। एक दिन बड़े भइया खेतों पर घूमने गए। वहाॅ पर उन्होने देखा कि ज़मीनों पर काफी अच्छी फसल उगी हुई थी। बगल से जो बंज़र सा पहले बड़ा सा मैदान हुआ करता था अब वहाॅ पर अच्छे खासे पेढ़ लगाए जा चुके थे। खेतों पर एक तरफ बड़ा सा मकान भी बन रहा था। खेतों पर बहुत से मजदूर काम कर रहे थे। विजय जी ने बड़े भइया को वहाॅ पर देखा तो वो भाग कर उनके पास आए और बड़े आदर व सम्मान से उन्हें खेतों के बारें में तथा फसलों से होने वाली आमदनी के के बारे में बताने लगे। उन्होंने ये भी बताया कि दूसरी तरफ जो बीस एकड़ की खाली ज़मीन पड़ी थी उसमें मौसमी फलों के बाग़ लगाने की तैयारी हो रही है। उससे काफी ज्यादा आमदनी होगी।
ऐसे ही बातें चलती रही फिर बातों ही बातों में जब हवेली का ज़िक्र आया तो विजय जी ने खुद कहा कि हवेली में सबका बराबर का हिस्सा है वो जब चाहें ले सकते हैं। उन्हें कोई कीमत नहीं चाहिए। ये सब अपनो के लिए ही तो बनाया गया है। विजय जी की इन बातों से बड़े भइया खुश हो गए। किन्तु उनके मन में शायद कुछ और ही था जो उस वक्त समझ नहीं आया था।
ऐसे ही वक्त गुज़रता रहा। इसी बीच मुझे एक बेटी हुई और दस दिन बाद करुणा ने भी एक सुंदर सी बच्ची को जन्म दिया। राज उस वक्त चार साल का हो गया था। वो दिन भर अपनी उन दोनो बहनों के साथ ही रहता, और उनके साथ ही हॅसता खेलता। शहर से बड़े भइया और दीदी भी आए थे। सबके लिए कपड़े भी लाए थे। हम सब बेहद खुश थे इस सबसे।
इस बीच एक परिवर्तन ये हुआ कि बड़े भइया शहर से हप्ते में एक दो दिन के लिए हवेली आने लगे थे। माॅ बाबू जी से वो बड़े सम्मान से बातें करते और खेतों पर भी जाते। वहाॅ देखते सुनते सब। मैं और करुणा घर के सारे काम करती। उसके बाद मैं खेत चली जाती विजय जी के पास। खेतों में जो मकान बन रहा था वो बन गया था।
इस बीच बच्चे भी बड़े हो रहे थे। राज पाॅच साल का हुआ तो उसका स्कूल में दाखिला करा दिया अभय ने। गर्मियों में जब स्कूल की छुट्टियाॅ होती तो बड़े भइया और दीदी के बच्चे भी शहर से गाॅव हवेली में आ जाते। सब बच्चे एक साथ खेलते और खेतों में जाते। बड़े भइया की बड़ी बेटी रितू अपनी माॅ पर गई थी। वो ज्यादा हम लोगों से घुलती मिलती नहीं थी। शिवा अपने बाप पर ही गया था। वह अपनी चीज़ें किसी को नहीं देता था और दूसरों की चीज़ें लड़ झगड़ कर ले लेता था। राज से अक्सर उसकी लड़ाई हो जाती थी। बच्चे तो नासमझ होते हैं उन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान कहाॅ होता है। इस लिए अगर इनकी आपस में कभी लड़ाई होती तो जेठानी जी अक्सर नाराज़ हो जाती थीं। बड़ी मुश्किल से गर्मियों की छुट्टियाॅ कटती और जेठानी जी अपने बच्चों को लेकर शहर चली जातीं।
दोस्तो, अपडेट हाज़िर है,,,,,,
अगले अपडेट से फ्लैशबैक को शार्ट करके लिखूॅगा,