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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.7%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.4%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.5%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 42 22.7%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.8%

  • Total voters
    185

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,744
354
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 25
----------☆☆☆----------




अब तक,,,,,

मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?

अब आगे,,,,,



खाना खाने के बाद हम सब अपने अपने कमरों की तरफ चल दिए। पिता जी जिस तरह से मुझे देख रहे थे उससे मैंने यही सोचा था कि खाना खाने के बाद वो मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता जी जा चुके थे किन्तु जगताप चाचा जी कुर्सी के पास ही खड़े थे। मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ा ही था कि चाचा जी ने मुझे आवाज़ दी।

"क्या तुम अभी भी ये चाहते हो कि।" जगताप चाचा जी ने मेरे पलटने पर मुझसे कहा_____"उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाया जाए?"
"क्या मतलब हुआ इस बात का?" मैंने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"आप मुझसे ये क्यों पूछ रहे हैं?"

"आज जिस तरह तुमने अपने अच्छे बर्ताव से हम सबको आश्चर्य चकित किया था।" चाचा जी ने कहा____"उससे हम सब यही समझे हैं कि अब तुम हवेली में ही रहोगे और अब से तुम अपने हर कर्त्तव्य को दिल से निभाओगे। ऐसे में उस जगह पर मकान बनवाने का कोई मतलब ही नहीं बनता।"

"मतलब बनता है चाचा जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मैंने आपको उस जगह पर मकान बनवाने की वजह भी बताई थी। इस लिए मैं अभी भी यही चाहता हूं कि कल से उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाए और जितना जल्दी हो सके मकान बन कर तैयार भी हो जाए।"

मेरी बात सुन कर जगताप चाचा जी कुछ देर तक मेरी तरफ एकटक देखते रहे उसके बाद गहरी सांस लेते हुए बोले____"ठीक है, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो कल से ही उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाएगा। मैंने बड़े भैया से भी इस बारे में बात की थी तो उन्होंने यही कहा कि अगर तुम यही चाहते हो तो उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया जाए।"

"चाचा भतीजे में ये कैसी बातें हो रही हैं?" तभी माँ ने आते हुए कहा____"और ये किस जगह पर मकान बनवाने की बात हो रही है?"
"भाभी मां।" जगताप चाचा जी ने बड़े अदब से कहा____"वैभव चाहता है कि हम इसके लिए उस जगह पर एक छोटा सा मकान बनवा दें जिस जगह पर ये चार महीने रहा है।"

"लेकिन क्यों?" माँ ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आख़िर उस बियावान जगह पर मकान बनवाने की ज़रूरत क्या है? क्या तू इस हवेली में नहीं रहना चाहता?"

"मैं हवेली में ही रहूंगा मां।" मैंने नम्र भाव से कहा____"लेकिन उस शांत जगह पर भी अपनी शान्ति और सुकून के लिए कुछ वक़्त बिताया करुंगा। इसी लिए मैंने चाचा जी से उस जगह पर मकान बनवा देने के लिए कहा है।"

"मुझे तो समझ ही नहीं आता कि।" माँ ने परेशान भाव से कहा____"तेरे मन में चलता क्या रहता है? भला उस वीरान जगह पर तू रहने का कैसे सोच सकता है?"
"उस जगह पर चार महीने एक झोपड़ा बना कर रह चुका हूं मां।" मैंने कहा____"उन चार महीनों में मुझे एक पल के लिए भी उस जगह पर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि वो जगह तो मुझे ऐसी लगने लगी थी जैसे शादियों से मैं उसी जगह पर रहता आया हूं। आप इतना मत सोचिए और ना ही मेरी फ़िक्र कीजिए।"

मेरी बातें सुन कर माँ और चाचा जी मुझे देखते रहे, जबकि इतना कहने के बाद मैं पलटा और सीढ़ियों पर चढ़ता चला गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कपड़े उतार कर और पंखा चला कर मैं बिस्तर पर लेट गया। उसके बाद अपनी आँखें बंद कर के मैं हर चीज़ के बारे में सोचने लगा। पता ही नहीं चला कि कब मुझे नींद आ गई।

सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। वो मेरे लिए चाय लिए खड़ी थी। मुझे ज़ोर की मुतास लगी थी इस लिए मैंने उससे चाय को मेज पर रख देने के लिए कहा और खुद कमरे से निकल गया। गुसलखाने में हाथ मुँह धो कर मैं वापस अपने कमरे में आ गया। चाय पीते हुए मुझे याद आया कि मैंने सरोज काकी से कहा था कि आज सुबह उसके खेतों की कटाई के लिए दो मजदूर भेज दूंगा। ये याद आते ही मैंने जल्दी जल्दी चाय को ख़त्म किया और कमरे से निकल कर नीचे आ गया।

नीचे आया तो मेरी नज़र आँगन में तुलसी की बेदी के पास पूजा कर रही भाभी पर पड़ी। वो अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखे बंद किए तुलसी को प्रणाम कर रहीं थी। मुझे उनके सामने से हो कर ही जाना था इस लिए मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ चला। मैं चाहता था कि उनकी आँखें खुलने से पहले ही मैं उनके पास से गुज़र जाऊं किन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं तेज़ तेज़ बढ़ते हुए जैसे ही उनके पास पंहुचा तो उन्होंने अपनी आँखें खोल दी। आँखें खुलते ही उनकी नज़र सीधा मुझ पर पड़ी। मैं तो उनकी तरफ ही देख रहा था, इस लिए जैसे ही उनकी नज़र मेरी नज़र से टकराई तो मेरा दिल धक् से रह गया।

"प्रणाम भाभी।" मेरे पास कोई चारा नहीं था इस लिए ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े अदब से उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद के रूप में उनका कोई जवाब सुने बिना ही मैं तेज़ी से आगे बढ़ने ही वाला था कि उन्होंने कहा____"अरे! देवर जी प्रसाद तो ले लीजिए। सुबह सुबह एकदम आंधी तूफ़ान बन के कहां जा रहे हैं?"

भाभी की बात सुन कर मैं अपनी जगह पर एकदम से जाम सा हो गया। हालांकि उनके टोक देने पर मेरे अंदर गुस्सा फूटने लगा था किन्तु मैंने अपने गुस्से को जल्दी ही सम्हाल लिया। भाभी के पूछने पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने आगे बढ़ कर प्रसाद का लड्डू मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने अपने दाएं हाथ की हथेली उनके सामने कर दी।

"मैं जानती हूं कि तुम्हें इस तरह से किसी का टोकना पसंद नहीं है।" भाभी ने प्रसाद मेरी हथेली पर रखते हुए कहा____"लेकिन मैं ये भी जानती हूं कि तुम इतनी तेज़ी से क्यों मेरे सामने से निकले जा रहे थे?"

भाभी ने ये कहा तो मैंने हल्के से चौंक कर उनकी तरफ देखा जबकि उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ठाकुरों का ग़ुरूर अभी भी तुम्हारे अंदर वैसा का वैसा ही है देवर जी। जबकि मैंने तो ये उम्मीद की थी कि वो सब बातें जानने के बाद शायद तुम में कुछ बदलाव आ जाएगा। ख़ैर, एक बात और है और वो ये कि कल जो कुछ तुमने कहा था उन बातों पर तो मुझे तुमसे शख़्त नाराज़ हो जाना चाहिए था किन्तु मैं तुमसे नाराज़ नहीं हुई। जानते हो क्यों? क्योंकि मैं जानती हूं कि अगर तुम मुझे देख कर मेरी तरफ आकर्षित होते हो तो इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। ये तो इस कलियुग का प्रभाव है वैभव। इस कलियुग में इंसान की सोच और उसकी नज़र गंगा मैया की तरह पाक़ नहीं होती। मैं तो बस ये चाहती हूं कि तुम वक़्त की नज़ाक़त को देख कर सम्हल जाओ और उन चीज़ों पर ध्यान दो जिन पर ध्यान देने की आज कल शख़्त ज़रूरत है।"

भाभी की बातें सुन कर मैं कुछ न बोल सका था किन्तु ये जान कर थोड़ी राहत ज़रूर मिली थी कि वो मेरी कल की बातों से नाराज़ नहीं थीं। मैं समझ नहीं पाया कि इतनी सहनशील औरत भला कौन हो सकती है जो मेरी उन बातों को भी ये सब सोच कर सहन कर ले या फिर उसके लिए ये कहे कि उसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है। मेरे दिलो दिमाग़ से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया था। कहां इसके पहले मैं उनके सामने जाने से कतरा रहा था वहीं अब उनकी बातों से मेरे अंदर का डर दूर हो गया था।

"शुक्रिया भाभी।" मैंने बड़े सम्मान भाव से कहा____"आप सच में बहुत अच्छी हैं लेकिन मैं उस सबके लिए अभी भी बहुत शर्मिंदा हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं दिल से ये कभी नहीं चाहता कि मैं आपके बारे में एक पल के लिए भी ग़लत सोचूं लेकिन पता नहीं क्या हो जाता है मुझे कि आपके क़रीब आते ही मेरा मन मेरे काबू से बाहर होने लगता है। मुझे माफ़ कर दीजिए। अपने भगवान से कहिए कि वो मुझसे ऐसा पाप न करवाए।"

"इतना हलकान मत हो वैभव।" भाभी ने शांत भाव से कहा____"मैं जानती हूं कि तुम ग़लत नहीं हो। इस लिए तुम इतना हताश मत हो। ख़ैर अब तुम जाओ, मैं बाकी सबको भी प्रसाद दे दूं।"

भाभी के ऐसा कहने पर मैंने सिर हिलाया और उन्हें एक बार फिर से प्रणाम कर के सीढ़ियां चढ़ कर इस तरफ आ गया। इस वक़्त मेरे मन में उथल पुथल सी मची हुई थी जिसे मैं काबू में करने की कोशिश कर रहा था। इस तरफ आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मैंने माँ को प्रणाम किया तो उन्होंने ख़ुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया। फिर उन्होंने कहा कि नास्ता बन रहा है इस लिए मैं कहीं न जाऊं। मैंने माँ से कहा कि मुझे जाना ज़रूरी है और मैं बाहर ही कहीं खा पी लूंगा। मेरी बात सुन कर माँ मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि इस वक़्त मैं किस मूड में हूं? मैंने मुस्कुरा कर माँ को फ़िक्र न करने के लिए कहा तो उनके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए और फिर उन्होंने मुझे जाने की इजाज़त दे दी।

बड़े भैया इस वक़्त अपने कमरे ही होते थे और पिता जी जगताप चाचा जी के साथ बैठक में। वहां पर वो कुछ ज़रूरी चीज़ों के बारे में बातें करते थे। मैं बाहर बैठक में आया और पिता जी के साथ साथ चाचा जी को भी प्रणाम किया। मेरा ये शिष्टाचार देख कर दोनों बड़े ही खुश हुए।

"हमें ये तो समझ नहीं आया कि।" दादा ठाकुर ने मुझसे कहा____"तुम उस जगह पर मकान बनवाने के लिए क्यों इतना ज़ोर दे रहे हो किन्तु तुम्हारी इस हसरत को हम नकारना नहीं चाहेंगे। ख़ैर हमने जगताप को बोल दिया है कि वो आज से ही उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दे।"

"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने बड़े आदर भाव से कहा____"उस जगह पर अपने लिए मकान बनवा कर मैं कोई ग़लत काम नहीं करुंगा।"
"फिर तो बहुत अच्छी बात है।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर जगताप ने भुवन को इस काम के लिए लगा दिया है। तुम चाहो तो खुद भी उस जगह पर जा कर अपने तरीके से देख रेख कर सकते हो।"
"जी मैं वहीं जा रहा हूं पिता जी।" मैंने कहा और फिर दोनों का अभिवादन कर के हवेली से बाहर आ गया।

कुछ ही देर में मैं मोटर साइकिल में बैठा गांव से बाहर की तरफ उड़ा जा रहा था। इस वक़्त मेरे ज़हन में कई सारी बातें चल रहीं थी। अभी तक मैंने वो किया था जिसका कोई मतलब नहीं होता था किन्तु अब मैं वो करने वाला था जिसका बहुत कुछ मतलब निकलने वाला था।

साहूकारों के घरों के सामने आया तो देखा पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर रूपचंद्र अपने चाचा शिव शंकर और उसके बेटे गौरव सिंह के साथ बैठा हुआ था। मुझ पर नज़र पड़ते ही शिव शंकर चबूतरे से उतर कर खड़ा हो गया। उसके उतर जाने पर रूपचन्द्र और गौरव भी नीचे उतर आए। शिव शंकर ने मुझे देख कर सलाम किया तो उसका लड़का और भतीजे ने भी किया किन्तु मैंने देखा कि रूपचन्द्र के होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभर आई थी। उसकी वो मुस्कान देख कर मैं समझ गया कि वो क्या सोच कर मुस्कुरा रहा था किन्तु मैं ये ज़ाहिर नहीं करना चाहता था कि मुझे उसकी करतूत पता है।

"और शिव काका।" मैंने मोटर साइकिल खड़ी कर के सामान्य भाव से शिव शंकर की तरफ देखते हुए कहा_____"कैसे हो? चबूतरे में बैठ कर पेड़ की ठंडी छांव का आनंद ले रहे हो क्या?"

"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"ये लड़के लोग बैठे थे तो मैं भी इनके साथ थोड़ी देर के लिए बैठ गया था।"
"अच्छी बात है काका।" मैंने कहा____"वैसे अब तो खुश हो न? हवेली से आप लोगों के रिश्ते अब सुधर गए हैं।"

"समय एक जैसा नहीं रहता छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है और सृष्टि के इस नियम के साथ साथ इंसान को भी बदलना चाहिए। अतीत की बातों को ले कर मन मुटाव बनाए रखना भला कहां की बुद्धिमानी है? हम तो बहुत पहले से इस बारे में सोच रहे थे इस लिए होली के त्यौहार के दिन को हमने इसके लिए ज़्यादा उचित समझा। ठाकुर साहब भी हमारी विनती को सुन लिए जिसके चलते अब सब ठीक हो गया है।"

"चलो देखते हैं कि दो खानदानों के बीच ये प्रेम कब तक रहता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा तो शिव शंकर ने कहा____"अब तो हमेशा ही चलता रहेगा छोटे ठाकुर। तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"

"मैं इस लिए कह रहा हूं काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्योंकि आज की नई पौध का खून बहुत गरम है। आज की नई पौध में सहनशीलता की बहुत कमी है। आज की नई पौध किसी के सामने झुकना पसंद नहीं करती और इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं स्वयं हूं।"

"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने मेरी बात सुन कर हैरानी से कहा____"तुम अब पहले जैसे नहीं रहे। मैंने कल देखा था कि कैसे तुम अपने बड़ों के सामने झुक कर उनका सम्मान कर रहे थे। मैं सच कह रहा हूं छोटे ठाकुर, कल तुम्हें उस रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा। हवेली से आने के बाद हम लोग तुम्हारे ही बारे में चर्चा कर रहे थे। हम सब यही कह रहे थे कि छोटे ठाकुर पहले जैसे भी थे लेकिन अब उनमे सिर्फ अच्छाईयां ही है। हमारे बड़े भाई साहब तो ये भी कह रहे थे कि छोटे ठाकुर को एक दिन हम अपने घर बुलाएँगे और उनका अच्छे से स्वागत करेंगे।"

"ये तो बड़े आश्चर्य की बात है शिव काका।" मैंने मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"भला मुझ जैसे इंसान को अपने घर बुला कर मेरा स्वागत करने का विचार आपके मन में कैसे आया? मैं तो ऐसा इंसान हूं जिसके लिए हर इंसान के अंदर सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और घृणा ही है।"

"नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने जल्दी से कहा____"कल तुम्हारा अच्छा बर्ताव देख कर इतना तो मैं भी समझ गया हूं कि अब तुम पहले जैसे नहीं रहे। तुम्हारे अंदर जो एक अच्छा इंसान जाने कब से दबा हुआ था वो अब बाहर आ गया है। कल हम सब दादा ठाकुर से इस बारे में चर्चा कर रहे थे और यकीन मानो छोटे ठाकुर, तुम्हारा कल का बर्ताव देख कर ठाकुर साहब भी बहुत प्रसन्न थे। अब तो वैसे भी हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं इस लिए सब कुछ भुला कर हमें एक नए सिरे से रिश्तों की शुरुआत करनी है। इसी लिए कह रहा हूं कि किसी दिन तुम्हें अपने घर बुलाएंगे। वैसे भी अब हमारा और तुम्हारा एक दूसरे के यहाँ आना जाना तो लगा ही रहेगा।"

"मानिक की तबियत अब कैसी है काका?" मैंने कुछ सोचते हुए ये कहा तो शिव शंकर तो सामान्य ही रहा किन्तु रूपचन्द्र और गौरव के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए, जबकि मेरी बात सुन कर शिव शंकर ने कहा____"उसे शहर ले गए थे छोटे ठाकुर। शहर में डॉक्टर ने उसके हाथ पर प्लास्टर चढ़ा दिया है। पूरी तरह ठीक होने में कुछ समय तो लगेगा ही।"

"माफ़ करना काका।" मैंने खेद भरे भाव से कहा____"मानिक के साथ मैंने अच्छा नहीं किया। मुझे अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए था।"
"कोई बात नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर के चेहरे पर भी इस बार चौंकने के भाव उभर आये थे, बोला____"ग़लतियां तो सबसे होती हैं लेकिन इंसान को अगर अपनी ग़लती का एहसास हो जाए और वो अपनी ग़लती मान ले तो फिर उससे अच्छी बात कोई नहीं होती। मेरे भतीजे मानिक की भी ग़लती थी। उसे तुमसे उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाओ बेटा। मैं तो बस ये चाहता हूं कि दोनों खानदान के लड़के एक दूसरे से प्रेम रखें और मिल जुल कर रहें।"

"अब से यही कोशिश करुंगा काका।" मैंने कहा____"हालाँकि मैं पहले भी मानिक लोगों से उलझने में पहल नहीं करता था। ख़ैर अभी चलता हूं काका। बाद में फिर मुलाक़ात होगी आपसे।"
"ठीक है बेटा।" शिव शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं रूपचन्द्र और गौरव पर सरसरी नज़र डालने के बाद आगे बढ़ चला।

मैं जानता था कि मेरी बातों ने रूपचन्द्र और गौरव के साथ साथ शिव शंकर को भी हैरान कर दिया होगा और यही तो मैं चाहता था। मैंने फ़ैसला कर लिया था कि अब अपनी अकड़़ को एक तरफ रख के ही हर काम करुंगा। अगर मुझे इन साहूकारों के अंदर की बात का पता लगाना है तो मुझे कुछ नरमी से काम लेना होगा और कुछ ऐसा भी करना होगा जिससे मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में होने लगे। हालांकि अगर मैं उन लोगों के घर चला भी जाऊंगा तो कोई मेरा कुछ उखाड़ लेने वाला नहीं था किन्तु मैं ये चाहता था कि मैं जब भी उनके घर जाऊं तो एक अच्छे इंसान के रूप में जाऊं ताकि वो लोग मेरे बारे में उल्टा सीधा न सोच सकें।

रूपचंद्र मुझे देख कर शुरू में मुस्कुराया था किन्तु मेरी बातें सुन कर यकीनन वो चकरा गया होगा। वो सोचने पर मजबूर हो गया होगा कि मैं अपनी ही फितरत के ख़िलाफ़ कैसे जा सकता हूं? मेरी बातों से अब वो सोच में पड़ गया होगा और कहीं न कहीं वो चिंतित भी हो उठा होगा। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया।

मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि जब तक मैं दरवाज़े तक पहुँचता उससे पहले ही दरवाज़ा खुल गया था। दरवाज़े पर सरोज काकी नज़र आई। मुझे देखते ही उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई।

"कैसी हो काकी?" मैं उसके पास पहुंचते ही बोला____"मजदूर आए कि नहीं?"
"हां बेटा दो जने आये थे।" सरोज काकी ने कहा____"मैंने उन्हें खेत भेज दिया है और अब मैं भी खेतों पर ही जाने वाली थी कि तुम आ गए।"

"हां वो मैं पता करने ही आया था कि वो लोग यहाँ पहुंचे कि नहीं?" काकी एक तरफ हटी तो मैंने दरवाज़े के अंदर दाखिल होते हुए कहा____"उसके बाद मैं उस जगह भी जाऊंगा जहां खेत पर मेरा झोपड़ा बना हुआ था।"

"वहां अब किस लिए जाओगे बेटा?" सरोज काकी ने आँगन में खटिया बिछाते हुए कहा____"क्या फिर से उस जगह पर खेती करने का इरादा है?"
"खेती करने का तो कोई इरादा नहीं है काकी।" मैंने खटिया पर बैठते हुए कहा____"असल में उस जगह पर मैं अपने लिए एक छोटा सा मकान बनवा रहा हूं। आज से वहां पर काम शुरू भी हो गया है।"

"लेकिन बेटा।" काकी ने हैरानी से कहा____"उस जगह पर मकान बनवाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी तुम्हें? क्या फिर से हवेली में किसी से अनबन हो गई है तुम्हारी?"
"नहीं काकी अनबन तो किसी से नहीं हुई।" मैंने कहा____"असल में मैं उस जगह पर इस लिए मकान बनवा रहा हूं ताकि शांत और एकांत जगह पर मैं कुछ देर के लिए सुकून से रह सकूं।"

"कहीं अपने मनोरंजन के लिए तो नहीं मकान बनवा रहे उस जगह पर?" इधर उधर देखने के बाद काकी ने मुझसे धीमे स्वर में कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"नहीं काकी ऐसी कोई बात नहीं है। उस जगह पर मकान बनवाने का सिर्फ यही मतलब है कि मैं कुछ देर एकांत में रह कर सुकून पा सकूं। हवेली में मुझे घुटन सी होती है जबकि उस जगह पर एकदम शान्ति और सुकून मिलता है।"

"चलो जो भी हो।" काकी ने फिर से इधर उधर देखा और धीमे स्वर में कहा____"तुम्हारे वहां रहने से एक चीज़ का तो फायदा होगा ही कि हम बेफिक्र हो कर मज़े कर सकेंगे।"
"ऐसा सोचना भी मत काकी।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करने वाला और हां मैं तुमसे बेहद नाराज भी हूं।"

"नाराज़???" काकी मेरी बात सुन कर चौंकते हुए बोली____"किस बात से नाराज़ हो मुझसे?"
"तुमने मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं कि रूपचन्द्र तुम्हारी बेटी के साथ ग़लत करने के लिए तुम्हें मजबूर किया था?" मैंने थोड़ा गुस्से में कहा_____"क्या तुम्हें मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं था कि मैं तुम लोगों को उसकी ऐसी घटिया मांग से बचा सकता? और तो और तुमने अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए अपनी ही बेटी को उसके आगे परोस दिया? ऐसा कैसे कर सकती हो तुम?"

"मुझे माफ़ कर दो बेटा।" काकी ने हताश भाव से कहा____"मैं उसकी बातों से बहुत ज़्यादा डर गई थी। ऊपर से तुम्हारे काका की भी मृत्यु हो गई थी और ऐसे में अगर किसी को हमारे सम्बन्धों की बातें पता चल जाती तो मैं किसी को कैसे अपना मुँह दिखाती? मैं तो मर ही जाती बेटा। इस लिए मुझे जो समझ आया वही मैंने किया। तुम्हें भी इसी लिए नहीं बताया कि तुम खुद ही अपने घर परिवार से कटे हुए थे और सब कोई तुम पर मेरे मरद की हत्या का इल्ज़ाम लगा रहा था। इस लिए मैंने तुम्हें ये सब बता कर तुम्हे परेशान करना सही नहीं समझा था।"

"तुम्हारी इस ग़लती की वजह से अनुराधा को भी हमारे बारे में सब कुछ पता चल गया है।" मैंने धीमे स्वर में कहा____"और इतना ही नहीं तुम्हारी वजह से उसकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हो जाती। वो तो उस दिन मैं संयोग से यहाँ आ गया था वरना वो कमीना तुम्हारी बेटी की इज्ज़त लूट ही लेता।"

"हां वो उस दिन पहले मेरे पास खेत में आया था।" काकी ने कहा____"उसके बाद यहाँ आया था। मैं जानती थी कि अब उससे मेरी बेटी की इज्ज़त को भगवान के सिवा कोई नहीं बचा सकता। मैं मजबूर थी और रोने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। भगवन से प्रार्थना ज़रुर कर रही थी कि वो किसी तरह मेरी बेटी को बर्बाद होने से बचा ले। मुझसे रहा नहीं गया था इस लिए कुछ देर बाद मैं भी खेतों से चली आई थी। यहाँ आई तो देखा रूपचन्द्र नहीं था बल्कि तुम थे। तुम्हें देख कर मैं समझ गई थी कि भगवान ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया है।"

"तुम्हारी बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही।" मैंने इधर उधर देखते हुए कहा____"कहीं गई है क्या वो?"
"वो पीछे कुएं में नहा रही है।" सरोज काकी ने कहा____"आती ही होगी। अच्छा अब तुम बैठो और मैं ज़रा खेतों की तरफ जा रही हूं। नास्ता पानी न किया हो तो यहीं खा लेना।"

"अच्छा एक बात बताओ।" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"तुम्हें मुझ पर भरोसा है न?"
"हां है।" सरोज काकी ने कहा___"लेकिन तुम ये क्यों पूछ रहे हो?"
"उस दिन जब मैं यहाँ आया था तब रूपचन्द्र के जाने के बाद मैं अकेला ही तुम्हारी बेटी के साथ था।" मैंने कहा____"और अब तुम खुद ही मुझे यहाँ पर बैठने का बोल कर जा रही हो। मैं ये जानना चाहता हूं कि तुम अपनी जवान बेटी के पास मुझे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकती हो? क्या तुम मेरे चरित्र के बारे में भूल गई हो कि मैं कैसा इंसान हूं? अगर मैंने तुम्हारी बेटी को यहाँ अकेला देख कर उसके साथ कुछ ग़लत कर दिया तो?"

"होनी को कोई नहीं टाल सकता बेटा।" सरोज काकी ने अजीब भाव से कहा____"फिर भी मुझे इतना तो भरोसा है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते। अगर करना ही होता तो इतने महीनों में मुझे इस बात का इतना तो आभास हो ही गया होता कि मेरी बेटी के प्रति तुम्हारे अंदर क्या है? वैसे भी ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है और मैं ये भी जानती हूं कि तुम किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करना पसंद नहीं करते हो। मेरी बेटी को भी मैं अच्छी तरह जानती हूं कि वो कैसी है इस लिए मैं ये नहीं सोचती कि उसे अकेला देख कर तुम उसके साथ क्या कर सकते हो?"

"भरोसा करने के लिए शुक्रिया काकी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ये सच है कि मैं अनुराधा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने का सोच भी नहीं सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को। अभी तो तुम्हारे यहाँ नास्ता पानी में कुछ बना ही नहीं है इस लिए मैं भी कुछ देर के लिए देख आता हूं कि उस जगह पर मजदूर लोग क्या कर रहे हैं।"

"ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"मैं अनुराधा को बोल देती हूं कि वो जल्द से जल्द तुम्हारे लिए खाना पीना बना दे।"
"उससे कहना मैं एक डेढ़ घंटे में आ जाऊंगा।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और ये भी कहना कि भांटे का भरता ज़रूर बना के रखेगी।"

मेरी बात सुन कर सरोज काकी ने हां में सिर हिलाया तो मैंने कहा____"अच्छा काकी मुरारी काका की तेरहवीं किस दिन है?"
"परसों के दिन है बेटा।" सरोज काकी ने संजीदा भाव से कहा____"सोच रही थी कि फसल गह कर घर आ जाती तो उसे बेंच कर उनकी तेरहवीं करने के लिए शहर से कुछ सामान मंगवा लेती लेकिन लगता है समय पर फसल गह ही नहीं पाएगी।"

"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मेरे रहते हुए तुम्हें किसी बात के लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। तेरहवीं करने के लिए जो जो सामान चाहिए मुझे बता देना। मैं कल ही शहर से मंगवा दूंगा।"

"सब कुछ जगन ही कर रहा है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इस लिए वो ये नहीं चाहेगा कि इस सबके लिए तुम अपना कोई सहयोग दो।"
"मैं जगन काका से बात कर लूंगा काकी।" मैंने कहा____"और उनसे कहूंगा कि जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो वो मुझे बोल दें। अच्छा अब मैं चलता हूं। शाम को जगन काका को यहीं पर बुला लेना। उनके सामने ही सारी बातें होंगी।"

सरोज काकी के घर से निकल कर मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के उस जगह चल दिया जहां पर मैं पिछले चार महीने झोपड़े में रहा था। थोड़ी ही देर में मैं उस जगह पर आ गया।

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" मैं जैसे ही पहुंचा तो भुवन ने मुझे देखते हुए कहा____"मझले ठाकुर साहब ने मुझसे कहा था कि मैं आपसे पूछ कर ही यहाँ पर सारा कार्य करवाऊं। इस लिए आप इन लोगों को बता दीजिए कि किस तरह का मकान यहाँ पर बनाना है।"

भुवन की बात सुन कर मैं मोटर साइकिल से नीचे उतरा और मजदूरों की तरफ बढ़ चला। जिस जगह पर मेरा झोपड़ा था उस जगह के आस पास मैंने अच्छे से देखा और फिर मैंने भुवन से कहा कि इसी जगह पर मकान की नीव खोदना शुरू करवाओ। मेरे कहने पर भुवन ने मजदूरों को बोल दिया तो वो लोग हाथ में गैंती फावड़ा ले कर काम पर लग ग‌ए।

मैंने भुवन से कहा कि यहाँ पर पानी के लिए एक कुंआ भी होना चाहिए इस लिए किसी अच्छे जानकार को बुला कर यहाँ की ज़मीन पर पानी विचरवाओ कि किस जगह पर बढ़िया पानी होगा। मेरी बात सुन कर भुवन ने हां में सिर हिलाया और अपनी राजदूत मोटर साइकिल में बैठ कर चला गया।

मुझे कम समय में मकान बना हुआ चाहिए था इस लिए मजदूर लोग काफी संख्या में आये थे। मैं एक पेड़ की छांव के नीचे मोटर साइकिल में बैठा सबका काम धाम देख रहा था। क़रीब एक घंटे बाद भुवन आया। मोटर साइकिल में उसके पीछे एक आदमी बैठा हुआ था। मुझे देखते ही उस आदमी ने बड़े अदब से मुझे सलाम किया।

भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।

उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।

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Chutiyadr

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 25
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अब तक,,,,,

मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?

अब आगे,,,,,



खाना खाने के बाद हम सब अपने अपने कमरों की तरफ चल दिए। पिता जी जिस तरह से मुझे देख रहे थे उससे मैंने यही सोचा था कि खाना खाने के बाद वो मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता जी जा चुके थे किन्तु जगताप चाचा जी कुर्सी के पास ही खड़े थे। मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ा ही था कि चाचा जी ने मुझे आवाज़ दी।

"क्या तुम अभी भी ये चाहते हो कि।" जगताप चाचा जी ने मेरे पलटने पर मुझसे कहा_____"उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाया जाए?"
"क्या मतलब हुआ इस बात का?" मैंने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"आप मुझसे ये क्यों पूछ रहे हैं?"

"आज जिस तरह तुमने अपने अच्छे बर्ताव से हम सबको आश्चर्य चकित किया था।" चाचा जी ने कहा____"उससे हम सब यही समझे हैं कि अब तुम हवेली में ही रहोगे और अब से तुम अपने हर कर्त्तव्य को दिल से निभाओगे। ऐसे में उस जगह पर मकान बनवाने का कोई मतलब ही नहीं बनता।"

"मतलब बनता है चाचा जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मैंने आपको उस जगह पर मकान बनवाने की वजह भी बताई थी। इस लिए मैं अभी भी यही चाहता हूं कि कल से उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाए और जितना जल्दी हो सके मकान बन कर तैयार भी हो जाए।"

मेरी बात सुन कर जगताप चाचा जी कुछ देर तक मेरी तरफ एकटक देखते रहे उसके बाद गहरी सांस लेते हुए बोले____"ठीक है, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो कल से ही उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाएगा। मैंने बड़े भैया से भी इस बारे में बात की थी तो उन्होंने यही कहा कि अगर तुम यही चाहते हो तो उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया जाए।"

"चाचा भतीजे में ये कैसी बातें हो रही हैं?" तभी माँ ने आते हुए कहा____"और ये किस जगह पर मकान बनवाने की बात हो रही है?"
"भाभी मां।" जगताप चाचा जी ने बड़े अदब से कहा____"वैभव चाहता है कि हम इसके लिए उस जगह पर एक छोटा सा मकान बनवा दें जिस जगह पर ये चार महीने रहा है।"

"लेकिन क्यों?" माँ ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आख़िर उस बियावान जगह पर मकान बनवाने की ज़रूरत क्या है? क्या तू इस हवेली में नहीं रहना चाहता?"

"मैं हवेली में ही रहूंगा मां।" मैंने नम्र भाव से कहा____"लेकिन उस शांत जगह पर भी अपनी शान्ति और सुकून के लिए कुछ वक़्त बिताया करुंगा। इसी लिए मैंने चाचा जी से उस जगह पर मकान बनवा देने के लिए कहा है।"

"मुझे तो समझ ही नहीं आता कि।" माँ ने परेशान भाव से कहा____"तेरे मन में चलता क्या रहता है? भला उस वीरान जगह पर तू रहने का कैसे सोच सकता है?"
"उस जगह पर चार महीने एक झोपड़ा बना कर रह चुका हूं मां।" मैंने कहा____"उन चार महीनों में मुझे एक पल के लिए भी उस जगह पर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि वो जगह तो मुझे ऐसी लगने लगी थी जैसे शादियों से मैं उसी जगह पर रहता आया हूं। आप इतना मत सोचिए और ना ही मेरी फ़िक्र कीजिए।"

मेरी बातें सुन कर माँ और चाचा जी मुझे देखते रहे, जबकि इतना कहने के बाद मैं पलटा और सीढ़ियों पर चढ़ता चला गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कपड़े उतार कर और पंखा चला कर मैं बिस्तर पर लेट गया। उसके बाद अपनी आँखें बंद कर के मैं हर चीज़ के बारे में सोचने लगा। पता ही नहीं चला कि कब मुझे नींद आ गई।

सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। वो मेरे लिए चाय लिए खड़ी थी। मुझे ज़ोर की मुतास लगी थी इस लिए मैंने उससे चाय को मेज पर रख देने के लिए कहा और खुद कमरे से निकल गया। गुसलखाने में हाथ मुँह धो कर मैं वापस अपने कमरे में आ गया। चाय पीते हुए मुझे याद आया कि मैंने सरोज काकी से कहा था कि आज सुबह उसके खेतों की कटाई के लिए दो मजदूर भेज दूंगा। ये याद आते ही मैंने जल्दी जल्दी चाय को ख़त्म किया और कमरे से निकल कर नीचे आ गया।

नीचे आया तो मेरी नज़र आँगन में तुलसी की बेदी के पास पूजा कर रही भाभी पर पड़ी। वो अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखे बंद किए तुलसी को प्रणाम कर रहीं थी। मुझे उनके सामने से हो कर ही जाना था इस लिए मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ चला। मैं चाहता था कि उनकी आँखें खुलने से पहले ही मैं उनके पास से गुज़र जाऊं किन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं तेज़ तेज़ बढ़ते हुए जैसे ही उनके पास पंहुचा तो उन्होंने अपनी आँखें खोल दी। आँखें खुलते ही उनकी नज़र सीधा मुझ पर पड़ी। मैं तो उनकी तरफ ही देख रहा था, इस लिए जैसे ही उनकी नज़र मेरी नज़र से टकराई तो मेरा दिल धक् से रह गया।

"प्रणाम भाभी।" मेरे पास कोई चारा नहीं था इस लिए ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े अदब से उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद के रूप में उनका कोई जवाब सुने बिना ही मैं तेज़ी से आगे बढ़ने ही वाला था कि उन्होंने कहा____"अरे! देवर जी प्रसाद तो ले लीजिए। सुबह सुबह एकदम आंधी तूफ़ान बन के कहां जा रहे हैं?"

भाभी की बात सुन कर मैं अपनी जगह पर एकदम से जाम सा हो गया। हालांकि उनके टोक देने पर मेरे अंदर गुस्सा फूटने लगा था किन्तु मैंने अपने गुस्से को जल्दी ही सम्हाल लिया। भाभी के पूछने पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने आगे बढ़ कर प्रसाद का लड्डू मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने अपने दाएं हाथ की हथेली उनके सामने कर दी।

"मैं जानती हूं कि तुम्हें इस तरह से किसी का टोकना पसंद नहीं है।" भाभी ने प्रसाद मेरी हथेली पर रखते हुए कहा____"लेकिन मैं ये भी जानती हूं कि तुम इतनी तेज़ी से क्यों मेरे सामने से निकले जा रहे थे?"

भाभी ने ये कहा तो मैंने हल्के से चौंक कर उनकी तरफ देखा जबकि उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ठाकुरों का ग़ुरूर अभी भी तुम्हारे अंदर वैसा का वैसा ही है देवर जी। जबकि मैंने तो ये उम्मीद की थी कि वो सब बातें जानने के बाद शायद तुम में कुछ बदलाव आ जाएगा। ख़ैर, एक बात और है और वो ये कि कल जो कुछ तुमने कहा था उन बातों पर तो मुझे तुमसे शख़्त नाराज़ हो जाना चाहिए था किन्तु मैं तुमसे नाराज़ नहीं हुई। जानते हो क्यों? क्योंकि मैं जानती हूं कि अगर तुम मुझे देख कर मेरी तरफ आकर्षित होते हो तो इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। ये तो इस कलियुग का प्रभाव है वैभव। इस कलियुग में इंसान की सोच और उसकी नज़र गंगा मैया की तरह पाक़ नहीं होती। मैं तो बस ये चाहती हूं कि तुम वक़्त की नज़ाक़त को देख कर सम्हल जाओ और उन चीज़ों पर ध्यान दो जिन पर ध्यान देने की आज कल शख़्त ज़रूरत है।"

भाभी की बातें सुन कर मैं कुछ न बोल सका था किन्तु ये जान कर थोड़ी राहत ज़रूर मिली थी कि वो मेरी कल की बातों से नाराज़ नहीं थीं। मैं समझ नहीं पाया कि इतनी सहनशील औरत भला कौन हो सकती है जो मेरी उन बातों को भी ये सब सोच कर सहन कर ले या फिर उसके लिए ये कहे कि उसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है। मेरे दिलो दिमाग़ से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया था। कहां इसके पहले मैं उनके सामने जाने से कतरा रहा था वहीं अब उनकी बातों से मेरे अंदर का डर दूर हो गया था।

"शुक्रिया भाभी।" मैंने बड़े सम्मान भाव से कहा____"आप सच में बहुत अच्छी हैं लेकिन मैं उस सबके लिए अभी भी बहुत शर्मिंदा हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं दिल से ये कभी नहीं चाहता कि मैं आपके बारे में एक पल के लिए भी ग़लत सोचूं लेकिन पता नहीं क्या हो जाता है मुझे कि आपके क़रीब आते ही मेरा मन मेरे काबू से बाहर होने लगता है। मुझे माफ़ कर दीजिए। अपने भगवान से कहिए कि वो मुझसे ऐसा पाप न करवाए।"

"इतना हलकान मत हो वैभव।" भाभी ने शांत भाव से कहा____"मैं जानती हूं कि तुम ग़लत नहीं हो। इस लिए तुम इतना हताश मत हो। ख़ैर अब तुम जाओ, मैं बाकी सबको भी प्रसाद दे दूं।"

भाभी के ऐसा कहने पर मैंने सिर हिलाया और उन्हें एक बार फिर से प्रणाम कर के सीढ़ियां चढ़ कर इस तरफ आ गया। इस वक़्त मेरे मन में उथल पुथल सी मची हुई थी जिसे मैं काबू में करने की कोशिश कर रहा था। इस तरफ आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मैंने माँ को प्रणाम किया तो उन्होंने ख़ुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया। फिर उन्होंने कहा कि नास्ता बन रहा है इस लिए मैं कहीं न जाऊं। मैंने माँ से कहा कि मुझे जाना ज़रूरी है और मैं बाहर ही कहीं खा पी लूंगा। मेरी बात सुन कर माँ मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि इस वक़्त मैं किस मूड में हूं? मैंने मुस्कुरा कर माँ को फ़िक्र न करने के लिए कहा तो उनके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए और फिर उन्होंने मुझे जाने की इजाज़त दे दी।

बड़े भैया इस वक़्त अपने कमरे ही होते थे और पिता जी जगताप चाचा जी के साथ बैठक में। वहां पर वो कुछ ज़रूरी चीज़ों के बारे में बातें करते थे। मैं बाहर बैठक में आया और पिता जी के साथ साथ चाचा जी को भी प्रणाम किया। मेरा ये शिष्टाचार देख कर दोनों बड़े ही खुश हुए।

"हमें ये तो समझ नहीं आया कि।" दादा ठाकुर ने मुझसे कहा____"तुम उस जगह पर मकान बनवाने के लिए क्यों इतना ज़ोर दे रहे हो किन्तु तुम्हारी इस हसरत को हम नकारना नहीं चाहेंगे। ख़ैर हमने जगताप को बोल दिया है कि वो आज से ही उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दे।"

"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने बड़े आदर भाव से कहा____"उस जगह पर अपने लिए मकान बनवा कर मैं कोई ग़लत काम नहीं करुंगा।"
"फिर तो बहुत अच्छी बात है।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर जगताप ने भुवन को इस काम के लिए लगा दिया है। तुम चाहो तो खुद भी उस जगह पर जा कर अपने तरीके से देख रेख कर सकते हो।"
"जी मैं वहीं जा रहा हूं पिता जी।" मैंने कहा और फिर दोनों का अभिवादन कर के हवेली से बाहर आ गया।

कुछ ही देर में मैं मोटर साइकिल में बैठा गांव से बाहर की तरफ उड़ा जा रहा था। इस वक़्त मेरे ज़हन में कई सारी बातें चल रहीं थी। अभी तक मैंने वो किया था जिसका कोई मतलब नहीं होता था किन्तु अब मैं वो करने वाला था जिसका बहुत कुछ मतलब निकलने वाला था।

साहूकारों के घरों के सामने आया तो देखा पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर रूपचंद्र अपने चाचा शिव शंकर और उसके बेटे गौरव सिंह के साथ बैठा हुआ था। मुझ पर नज़र पड़ते ही शिव शंकर चबूतरे से उतर कर खड़ा हो गया। उसके उतर जाने पर रूपचन्द्र और गौरव भी नीचे उतर आए। शिव शंकर ने मुझे देख कर सलाम किया तो उसका लड़का और भतीजे ने भी किया किन्तु मैंने देखा कि रूपचन्द्र के होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभर आई थी। उसकी वो मुस्कान देख कर मैं समझ गया कि वो क्या सोच कर मुस्कुरा रहा था किन्तु मैं ये ज़ाहिर नहीं करना चाहता था कि मुझे उसकी करतूत पता है।

"और शिव काका।" मैंने मोटर साइकिल खड़ी कर के सामान्य भाव से शिव शंकर की तरफ देखते हुए कहा_____"कैसे हो? चबूतरे में बैठ कर पेड़ की ठंडी छांव का आनंद ले रहे हो क्या?"

"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"ये लड़के लोग बैठे थे तो मैं भी इनके साथ थोड़ी देर के लिए बैठ गया था।"
"अच्छी बात है काका।" मैंने कहा____"वैसे अब तो खुश हो न? हवेली से आप लोगों के रिश्ते अब सुधर गए हैं।"

"समय एक जैसा नहीं रहता छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है और सृष्टि के इस नियम के साथ साथ इंसान को भी बदलना चाहिए। अतीत की बातों को ले कर मन मुटाव बनाए रखना भला कहां की बुद्धिमानी है? हम तो बहुत पहले से इस बारे में सोच रहे थे इस लिए होली के त्यौहार के दिन को हमने इसके लिए ज़्यादा उचित समझा। ठाकुर साहब भी हमारी विनती को सुन लिए जिसके चलते अब सब ठीक हो गया है।"

"चलो देखते हैं कि दो खानदानों के बीच ये प्रेम कब तक रहता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा तो शिव शंकर ने कहा____"अब तो हमेशा ही चलता रहेगा छोटे ठाकुर। तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"

"मैं इस लिए कह रहा हूं काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्योंकि आज की नई पौध का खून बहुत गरम है। आज की नई पौध में सहनशीलता की बहुत कमी है। आज की नई पौध किसी के सामने झुकना पसंद नहीं करती और इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं स्वयं हूं।"

"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने मेरी बात सुन कर हैरानी से कहा____"तुम अब पहले जैसे नहीं रहे। मैंने कल देखा था कि कैसे तुम अपने बड़ों के सामने झुक कर उनका सम्मान कर रहे थे। मैं सच कह रहा हूं छोटे ठाकुर, कल तुम्हें उस रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा। हवेली से आने के बाद हम लोग तुम्हारे ही बारे में चर्चा कर रहे थे। हम सब यही कह रहे थे कि छोटे ठाकुर पहले जैसे भी थे लेकिन अब उनमे सिर्फ अच्छाईयां ही है। हमारे बड़े भाई साहब तो ये भी कह रहे थे कि छोटे ठाकुर को एक दिन हम अपने घर बुलाएँगे और उनका अच्छे से स्वागत करेंगे।"

"ये तो बड़े आश्चर्य की बात है शिव काका।" मैंने मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"भला मुझ जैसे इंसान को अपने घर बुला कर मेरा स्वागत करने का विचार आपके मन में कैसे आया? मैं तो ऐसा इंसान हूं जिसके लिए हर इंसान के अंदर सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और घृणा ही है।"

"नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने जल्दी से कहा____"कल तुम्हारा अच्छा बर्ताव देख कर इतना तो मैं भी समझ गया हूं कि अब तुम पहले जैसे नहीं रहे। तुम्हारे अंदर जो एक अच्छा इंसान जाने कब से दबा हुआ था वो अब बाहर आ गया है। कल हम सब दादा ठाकुर से इस बारे में चर्चा कर रहे थे और यकीन मानो छोटे ठाकुर, तुम्हारा कल का बर्ताव देख कर ठाकुर साहब भी बहुत प्रसन्न थे। अब तो वैसे भी हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं इस लिए सब कुछ भुला कर हमें एक नए सिरे से रिश्तों की शुरुआत करनी है। इसी लिए कह रहा हूं कि किसी दिन तुम्हें अपने घर बुलाएंगे। वैसे भी अब हमारा और तुम्हारा एक दूसरे के यहाँ आना जाना तो लगा ही रहेगा।"

"मानिक की तबियत अब कैसी है काका?" मैंने कुछ सोचते हुए ये कहा तो शिव शंकर तो सामान्य ही रहा किन्तु रूपचन्द्र और गौरव के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए, जबकि मेरी बात सुन कर शिव शंकर ने कहा____"उसे शहर ले गए थे छोटे ठाकुर। शहर में डॉक्टर ने उसके हाथ पर प्लास्टर चढ़ा दिया है। पूरी तरह ठीक होने में कुछ समय तो लगेगा ही।"

"माफ़ करना काका।" मैंने खेद भरे भाव से कहा____"मानिक के साथ मैंने अच्छा नहीं किया। मुझे अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए था।"
"कोई बात नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर के चेहरे पर भी इस बार चौंकने के भाव उभर आये थे, बोला____"ग़लतियां तो सबसे होती हैं लेकिन इंसान को अगर अपनी ग़लती का एहसास हो जाए और वो अपनी ग़लती मान ले तो फिर उससे अच्छी बात कोई नहीं होती। मेरे भतीजे मानिक की भी ग़लती थी। उसे तुमसे उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाओ बेटा। मैं तो बस ये चाहता हूं कि दोनों खानदान के लड़के एक दूसरे से प्रेम रखें और मिल जुल कर रहें।"

"अब से यही कोशिश करुंगा काका।" मैंने कहा____"हालाँकि मैं पहले भी मानिक लोगों से उलझने में पहल नहीं करता था। ख़ैर अभी चलता हूं काका। बाद में फिर मुलाक़ात होगी आपसे।"
"ठीक है बेटा।" शिव शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं रूपचन्द्र और गौरव पर सरसरी नज़र डालने के बाद आगे बढ़ चला।

मैं जानता था कि मेरी बातों ने रूपचन्द्र और गौरव के साथ साथ शिव शंकर को भी हैरान कर दिया होगा और यही तो मैं चाहता था। मैंने फ़ैसला कर लिया था कि अब अपनी अकड़़ को एक तरफ रख के ही हर काम करुंगा। अगर मुझे इन साहूकारों के अंदर की बात का पता लगाना है तो मुझे कुछ नरमी से काम लेना होगा और कुछ ऐसा भी करना होगा जिससे मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में होने लगे। हालांकि अगर मैं उन लोगों के घर चला भी जाऊंगा तो कोई मेरा कुछ उखाड़ लेने वाला नहीं था किन्तु मैं ये चाहता था कि मैं जब भी उनके घर जाऊं तो एक अच्छे इंसान के रूप में जाऊं ताकि वो लोग मेरे बारे में उल्टा सीधा न सोच सकें।

रूपचंद्र मुझे देख कर शुरू में मुस्कुराया था किन्तु मेरी बातें सुन कर यकीनन वो चकरा गया होगा। वो सोचने पर मजबूर हो गया होगा कि मैं अपनी ही फितरत के ख़िलाफ़ कैसे जा सकता हूं? मेरी बातों से अब वो सोच में पड़ गया होगा और कहीं न कहीं वो चिंतित भी हो उठा होगा। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया।

मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि जब तक मैं दरवाज़े तक पहुँचता उससे पहले ही दरवाज़ा खुल गया था। दरवाज़े पर सरोज काकी नज़र आई। मुझे देखते ही उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई।

"कैसी हो काकी?" मैं उसके पास पहुंचते ही बोला____"मजदूर आए कि नहीं?"
"हां बेटा दो जने आये थे।" सरोज काकी ने कहा____"मैंने उन्हें खेत भेज दिया है और अब मैं भी खेतों पर ही जाने वाली थी कि तुम आ गए।"

"हां वो मैं पता करने ही आया था कि वो लोग यहाँ पहुंचे कि नहीं?" काकी एक तरफ हटी तो मैंने दरवाज़े के अंदर दाखिल होते हुए कहा____"उसके बाद मैं उस जगह भी जाऊंगा जहां खेत पर मेरा झोपड़ा बना हुआ था।"

"वहां अब किस लिए जाओगे बेटा?" सरोज काकी ने आँगन में खटिया बिछाते हुए कहा____"क्या फिर से उस जगह पर खेती करने का इरादा है?"
"खेती करने का तो कोई इरादा नहीं है काकी।" मैंने खटिया पर बैठते हुए कहा____"असल में उस जगह पर मैं अपने लिए एक छोटा सा मकान बनवा रहा हूं। आज से वहां पर काम शुरू भी हो गया है।"

"लेकिन बेटा।" काकी ने हैरानी से कहा____"उस जगह पर मकान बनवाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी तुम्हें? क्या फिर से हवेली में किसी से अनबन हो गई है तुम्हारी?"
"नहीं काकी अनबन तो किसी से नहीं हुई।" मैंने कहा____"असल में मैं उस जगह पर इस लिए मकान बनवा रहा हूं ताकि शांत और एकांत जगह पर मैं कुछ देर के लिए सुकून से रह सकूं।"

"कहीं अपने मनोरंजन के लिए तो नहीं मकान बनवा रहे उस जगह पर?" इधर उधर देखने के बाद काकी ने मुझसे धीमे स्वर में कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"नहीं काकी ऐसी कोई बात नहीं है। उस जगह पर मकान बनवाने का सिर्फ यही मतलब है कि मैं कुछ देर एकांत में रह कर सुकून पा सकूं। हवेली में मुझे घुटन सी होती है जबकि उस जगह पर एकदम शान्ति और सुकून मिलता है।"

"चलो जो भी हो।" काकी ने फिर से इधर उधर देखा और धीमे स्वर में कहा____"तुम्हारे वहां रहने से एक चीज़ का तो फायदा होगा ही कि हम बेफिक्र हो कर मज़े कर सकेंगे।"
"ऐसा सोचना भी मत काकी।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करने वाला और हां मैं तुमसे बेहद नाराज भी हूं।"

"नाराज़???" काकी मेरी बात सुन कर चौंकते हुए बोली____"किस बात से नाराज़ हो मुझसे?"
"तुमने मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं कि रूपचन्द्र तुम्हारी बेटी के साथ ग़लत करने के लिए तुम्हें मजबूर किया था?" मैंने थोड़ा गुस्से में कहा_____"क्या तुम्हें मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं था कि मैं तुम लोगों को उसकी ऐसी घटिया मांग से बचा सकता? और तो और तुमने अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए अपनी ही बेटी को उसके आगे परोस दिया? ऐसा कैसे कर सकती हो तुम?"

"मुझे माफ़ कर दो बेटा।" काकी ने हताश भाव से कहा____"मैं उसकी बातों से बहुत ज़्यादा डर गई थी। ऊपर से तुम्हारे काका की भी मृत्यु हो गई थी और ऐसे में अगर किसी को हमारे सम्बन्धों की बातें पता चल जाती तो मैं किसी को कैसे अपना मुँह दिखाती? मैं तो मर ही जाती बेटा। इस लिए मुझे जो समझ आया वही मैंने किया। तुम्हें भी इसी लिए नहीं बताया कि तुम खुद ही अपने घर परिवार से कटे हुए थे और सब कोई तुम पर मेरे मरद की हत्या का इल्ज़ाम लगा रहा था। इस लिए मैंने तुम्हें ये सब बता कर तुम्हे परेशान करना सही नहीं समझा था।"

"तुम्हारी इस ग़लती की वजह से अनुराधा को भी हमारे बारे में सब कुछ पता चल गया है।" मैंने धीमे स्वर में कहा____"और इतना ही नहीं तुम्हारी वजह से उसकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हो जाती। वो तो उस दिन मैं संयोग से यहाँ आ गया था वरना वो कमीना तुम्हारी बेटी की इज्ज़त लूट ही लेता।"

"हां वो उस दिन पहले मेरे पास खेत में आया था।" काकी ने कहा____"उसके बाद यहाँ आया था। मैं जानती थी कि अब उससे मेरी बेटी की इज्ज़त को भगवान के सिवा कोई नहीं बचा सकता। मैं मजबूर थी और रोने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। भगवन से प्रार्थना ज़रुर कर रही थी कि वो किसी तरह मेरी बेटी को बर्बाद होने से बचा ले। मुझसे रहा नहीं गया था इस लिए कुछ देर बाद मैं भी खेतों से चली आई थी। यहाँ आई तो देखा रूपचन्द्र नहीं था बल्कि तुम थे। तुम्हें देख कर मैं समझ गई थी कि भगवान ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया है।"

"तुम्हारी बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही।" मैंने इधर उधर देखते हुए कहा____"कहीं गई है क्या वो?"
"वो पीछे कुएं में नहा रही है।" सरोज काकी ने कहा____"आती ही होगी। अच्छा अब तुम बैठो और मैं ज़रा खेतों की तरफ जा रही हूं। नास्ता पानी न किया हो तो यहीं खा लेना।"

"अच्छा एक बात बताओ।" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"तुम्हें मुझ पर भरोसा है न?"
"हां है।" सरोज काकी ने कहा___"लेकिन तुम ये क्यों पूछ रहे हो?"
"उस दिन जब मैं यहाँ आया था तब रूपचन्द्र के जाने के बाद मैं अकेला ही तुम्हारी बेटी के साथ था।" मैंने कहा____"और अब तुम खुद ही मुझे यहाँ पर बैठने का बोल कर जा रही हो। मैं ये जानना चाहता हूं कि तुम अपनी जवान बेटी के पास मुझे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकती हो? क्या तुम मेरे चरित्र के बारे में भूल गई हो कि मैं कैसा इंसान हूं? अगर मैंने तुम्हारी बेटी को यहाँ अकेला देख कर उसके साथ कुछ ग़लत कर दिया तो?"

"होनी को कोई नहीं टाल सकता बेटा।" सरोज काकी ने अजीब भाव से कहा____"फिर भी मुझे इतना तो भरोसा है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते। अगर करना ही होता तो इतने महीनों में मुझे इस बात का इतना तो आभास हो ही गया होता कि मेरी बेटी के प्रति तुम्हारे अंदर क्या है? वैसे भी ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है और मैं ये भी जानती हूं कि तुम किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करना पसंद नहीं करते हो। मेरी बेटी को भी मैं अच्छी तरह जानती हूं कि वो कैसी है इस लिए मैं ये नहीं सोचती कि उसे अकेला देख कर तुम उसके साथ क्या कर सकते हो?"

"भरोसा करने के लिए शुक्रिया काकी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ये सच है कि मैं अनुराधा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने का सोच भी नहीं सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को। अभी तो तुम्हारे यहाँ नास्ता पानी में कुछ बना ही नहीं है इस लिए मैं भी कुछ देर के लिए देख आता हूं कि उस जगह पर मजदूर लोग क्या कर रहे हैं।"

"ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"मैं अनुराधा को बोल देती हूं कि वो जल्द से जल्द तुम्हारे लिए खाना पीना बना दे।"
"उससे कहना मैं एक डेढ़ घंटे में आ जाऊंगा।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और ये भी कहना कि भांटे का भरता ज़रूर बना के रखेगी।"

मेरी बात सुन कर सरोज काकी ने हां में सिर हिलाया तो मैंने कहा____"अच्छा काकी मुरारी काका की तेरहवीं किस दिन है?"
"परसों के दिन है बेटा।" सरोज काकी ने संजीदा भाव से कहा____"सोच रही थी कि फसल गह कर घर आ जाती तो उसे बेंच कर उनकी तेरहवीं करने के लिए शहर से कुछ सामान मंगवा लेती लेकिन लगता है समय पर फसल गह ही नहीं पाएगी।"

"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मेरे रहते हुए तुम्हें किसी बात के लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। तेरहवीं करने के लिए जो जो सामान चाहिए मुझे बता देना। मैं कल ही शहर से मंगवा दूंगा।"

"सब कुछ जगन ही कर रहा है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इस लिए वो ये नहीं चाहेगा कि इस सबके लिए तुम अपना कोई सहयोग दो।"
"मैं जगन काका से बात कर लूंगा काकी।" मैंने कहा____"और उनसे कहूंगा कि जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो वो मुझे बोल दें। अच्छा अब मैं चलता हूं। शाम को जगन काका को यहीं पर बुला लेना। उनके सामने ही सारी बातें होंगी।"

सरोज काकी के घर से निकल कर मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के उस जगह चल दिया जहां पर मैं पिछले चार महीने झोपड़े में रहा था। थोड़ी ही देर में मैं उस जगह पर आ गया।

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" मैं जैसे ही पहुंचा तो भुवन ने मुझे देखते हुए कहा____"मझले ठाकुर साहब ने मुझसे कहा था कि मैं आपसे पूछ कर ही यहाँ पर सारा कार्य करवाऊं। इस लिए आप इन लोगों को बता दीजिए कि किस तरह का मकान यहाँ पर बनाना है।"

भुवन की बात सुन कर मैं मोटर साइकिल से नीचे उतरा और मजदूरों की तरफ बढ़ चला। जिस जगह पर मेरा झोपड़ा था उस जगह के आस पास मैंने अच्छे से देखा और फिर मैंने भुवन से कहा कि इसी जगह पर मकान की नीव खोदना शुरू करवाओ। मेरे कहने पर भुवन ने मजदूरों को बोल दिया तो वो लोग हाथ में गैंती फावड़ा ले कर काम पर लग ग‌ए।

मैंने भुवन से कहा कि यहाँ पर पानी के लिए एक कुंआ भी होना चाहिए इस लिए किसी अच्छे जानकार को बुला कर यहाँ की ज़मीन पर पानी विचरवाओ कि किस जगह पर बढ़िया पानी होगा। मेरी बात सुन कर भुवन ने हां में सिर हिलाया और अपनी राजदूत मोटर साइकिल में बैठ कर चला गया।

मुझे कम समय में मकान बना हुआ चाहिए था इस लिए मजदूर लोग काफी संख्या में आये थे। मैं एक पेड़ की छांव के नीचे मोटर साइकिल में बैठा सबका काम धाम देख रहा था। क़रीब एक घंटे बाद भुवन आया। मोटर साइकिल में उसके पीछे एक आदमी बैठा हुआ था। मुझे देखते ही उस आदमी ने बड़े अदब से मुझे सलाम किया।

भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।

उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।


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Bahut badiya
Aap kaale khool ban gaye aur vaibhav shant ho gaya .. sahi combination hai :good:
 

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Apun ka toh dimag khrab ho rela hai vaibhav thakur masoom 😂😂😂😂
Arey wo toh thakur khelane ke layak bhi nhi lgg rha hai sala bhar sher bna firta hai aur bhabhi ke aage ke memna 😂😂😂😂
Bde nainsafi hai yeh toh
Dekhlo TheBlackBlood bhaiya kuch kro vaibhav ka , iski path pooja krvao , khurak khilvao nhi toh pta chle koi aur bhabhi ka kaam krgya iske piche se
 
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