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मेरे सच्चे प्यार की तालाश
जिस्म सिर्फ जिस्म की भूख जानता है प्यार करना जिस्म की आदत नहीं ! एक से जी भर जाए तो दूसरी अँधेरी राहों में जिस्म की तलाश करता ही रहता है। यह कहानी है जज्बातों की, यह कहानी है उम्मीदों की, और यह कहानी है सच्चे प्यार की तलाश की…
बात उस वक़्त की है जब मैं अपनी ग्रेजुएशन पूरी करके सरकारी नौकरी के लिए पहली बार इम्तिहान देने पटना आया था। मेरे घर से नज़दीक होने की वजह से मैंने इस शहर का चुनाव किया था। कहते हैं अक्सर लोग कि प्यार और बुखार बोल कर नहीं चढ़ते हैं। प्यार किस वक़्त और कहाँ किससे हो जाए इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। यह तो पैदा होने के साथ ही इंसान की नियति में ही लिखा होता है।
अपने घर से तीन घंटे के सफ़र के बाद मैं पटना पहुँचा। पता नहीं क्यों मेरा दिल जोर जोर से धड़क रहा था जैसे किसी अनजान मुसीबत के आने की आहट हो, हवाओं में हल्की सी नमी थी, जुलाई का महीना था, हल्की फ़ुहार सी पड़ रही थी।
यह बारिश मुझे भिगो तो नहीं पाई पर मेरे सोये अरमानों को जगा ज़रूर रही थी। ट्रेन की भीड़ के साथ मैं भी बाहर निकला। इस शहर में मेरे एक अंकल मुझे लेने आने वाले थे, और मैं इस शहर को ज्यादा जानता भी नहीं था।
अंकल ने मुझे एक मंदिर के बाहर इंतज़ार करने को कहा था। स्टेशन के बाहर साथ ही मंदिर था, बहुत भीड़ नहीं थी वहाँ, शायद बारिश का असर था।
जूते बाहर स्टैंड में जमा करके मैं अन्दर गया।
मंदिर की घंटियों की आवाज़ और इस वक़्त का मौसम… पर अचानक मेरा दिल बहुत जोर जोर से धड़कने लगा।
जैसे ही मैं पीछे पल्टा मेरा सीढ़ियों पर से संतुलन बिगड़ गया, लड़खड़ाते हुए नीचे जमीन पर गिर गया। जब होश आया तो मेरे हाथों में एक गुलाबी दुपट्टा था। शायद गिरते वक़्त गलती से मेरे हाथ में आ गया होगा। तभी एक मीठी सी आवाज़ ने मुझे ध्यान से बाहर निकाला, पलट कर जैसे ही देखा तो बस देखता ही रह गया।
साढ़े पाँच फीट के आस पास होगी, जिस्म जैसे तराशा हुआ कोहिनूर सामने हो ! आँखें ऐसी कि सब आँखों से ही बोल दे, होंठों की जरूरत ही ना हो, होंठ ऐसे कि महाकवि भी अपने साहित्य के सारे रस अपने काव्य में डाल दे तो भी उन होंठों के रस की व्याख्या अधूरी रह जाए।
मैं सब कुछ भूल बैठा, शायद मुझे प्यार हो गया… तभी एक आवाज़ ने मुझे मानो नींद से जगाया।
“यह क्या किया तुमने, मेरा पूरा प्रसाद गिरा दिया !”
तभी मुझे ध्यान आया मैं असल में उसके प्रसाद पर ही गिरा हुआ था, मेरी सफ़ेद शर्ट प्रसाद के घी से पारदर्शी हो गई थी। मैं उठने की कोशिश करने लगा पर मेरे पैर में बहुत जोर की चोट लगी थी। जब खुद से उठ ना पाया तो उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया।
यह स्पर्श तो मुर्दों में भी जान डाल दे, फिर इस दर्द की क्या बिसात थी !
मेरे उठने के बाद उसने मेरी टीशर्ट को गौर से देखा, अभी तक उस पर प्रसाद वाले लड्डू के दाने लगे थे. मेरी टीशर्ट पे लम्बोदर का चित्र था, तभी उसे पता नहीं क्यों हंसी आ गई, उसने कहा “लाई थी रामभक्त जी को चढ़ाने, पर लगता है विनायक जी से रहा न गया !”
तभी मेरे मुँह से अचानक निकल गया- शायद लड्डू से ज्यादा लाने वाले हाथ पसंद आ गए हों?
फिर से हंस कर उसने कहा- दर्द ठीक हो गया हो तो लोगों को बुला देती हूँ ! हाथों की तारीफ़ भूल जाओगे।
मैंने कहा- ठीक है, नया हूँ इस शहर में तो अब क़त्ल करो या सीने से लगाओ, यह आपके ऊपर है।
“क्या? क्या कहा तुमने?”
“मतलब मेरी मदद करो या मुझे मेरी हालत पे छोड़ दो, यह तुम्हारे ऊपर है।”
“क्या नाम है तुम्हारा?”
मैंने कहा- निशांत, और तुम्हारा?
“निशा…! कहीं तुम्हें मेरा नाम पहले से तो नहीं पता था?”
“हाँ हाँ, मैंने तो जासूस छोड़ रखे है तुम्हारे पीछे ! अब तक चालीस लड़कियाँ घुमा चुका हूँ ! यह सब गलती से हो गया ! मैंने कोई जानबूझ कर तुम्हारा प्रसाद नहीं गिराया है, फिर भी ज्यादा तकलीफ है तो चलो, दूसरा खरीद देता हूँ !”
“सच्ची? चालीस लड़कियाँ !! तुम सब मिल कर अलीबाबा चालीस चोर खेलते थे क्या? तुम मेरा प्रसाद मुझे दिला दो, मैं तुम्हें टीशर्ट ! हिसाब बराबर !”
“हेलो ! यह टीशर्ट 1200 का है, और वैसे भी मैं इस शहर में नया हूँ, ऐसी टीशर्ट कहाँ मिलेगी, मैं नहीं जानता।”
“तुम्हें क्या लगता है, मैं तुम्हें शॉपिंग कराने जाऊँ फिर डेट पे ले जाऊँ फिर…?”
“फिर क्या, वो भी बोल दे… अगर हिसाब बराबर करना है तो साथ चल कर दूकान बता दे, मैं खुद खरीद लूँगा !”
“ठीक है, पर पहले पूजा !”
मैंने कहा- ठीक है।
फिर प्रसाद खरीद के ले आया और दोनों साथ साथ पूजा कर के प्रसाद चढ़ाया और फिर दोनों बाहर आ गए। फिर दोनों साथ साथ चल दिए, आगे ही महाराजा मॉल था, निशा मुझे रैंगलर के शोरूम में ले गई और एक ब्लैक टीशर्ट पसंद करके मेरी तरफ देख रही थी।
मैंने कहा- क्या हुआ? यह शौपिंग करने मैं तुम्हारे साथ ही आया हूँ तो जो तुम्हारी पसंद वो फाइनल !
यह कह कर भुगतान किया और वो टीशर्ट पहन के बाहर आ गया।
फिर उसने पूछा- अब कहाँ जाना है?
उससे दूर होने की कल्पना भी मुझे जैसे खाए जा रही थी, दिल फिर से धड़कने लगा, मैंने कहा- कल मेरा इम्तिहान है।
“ओ तो अब किसी होटल में रुकोगे न?”
“हाँ…!” मैं नहीं जानता क्यों मेरे मुँह से जबरदस्ती से शब्द कहाँ से निकल गया।
तभी एक और आघात हुआ.. मेरे अंकल का फ़ोन उसी वक़्त आ गया।
अंकल- कहाँ हो? मैं मंदिर के सामने हूँ।
तभी मैंने निशा को कहा- घर से फ़ोन है !
और थोड़ी दूर जाकर बात करने लगा। मैंने अंकल से कहा- मैं अपने दोस्त के साथ उसके फ्लैट पर आ गया हूँ, कल उसका भी एग्जाम है तो तैयारी अच्छी हो जाएगी।
अंकल- ठीक है, तो पहले बता देते ! मैं कल तुम्हारा घर पर इंतज़ार करूँगा।
अब मैंने राहत की सांस ली। निशा के पास गया और पूछा- यहाँ एवरेज होटल कहाँ पे मिलेगा?
निशा मुस्कुराते हुए मेरे तरफ देख के बोली- एक मासूम बच्ची से होटल का पता पूछ रहे हो? वो तो तुम्हें पता होगा… चालीस लड़कियों के इकलौते बॉयफ्रेंड !!
“हाँ जी, वैसे मेरी गर्लफ्रेंड्स को मुझे शहर से बाहर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी है आज तक ! आप इस शहर की हो तो बस पूछ लिया !”
“यहीं बगल में होटल वाली गली है, वहीं जाकर पूछ लो, जो सही लगे उसमें रह लेना !”
मैंने कहा- ठीक है, पर कम से कम वहाँ दरवाज़े तक तो चल सकती हो !
अब मुझे सच में उसके दूर जाने का डर सता रहा था।