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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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Solo travelling

हिंदी में बोले तो एकल यात्रा, जो हम सभी अभी तो बड़े आराम से करते हैं मगर एक ऐसा समय भी था जब सारी यात्राएं बड़ों की छत्रछाया में होती थी, जिसमे अपने कंधों पर न कोई जिम्मेदारी न कोई फिक्र, हम बस यात्रा का मजा लेते हुए सब जगह बड़े आराम से जाते थे। मगर एक समय ऐसा आया होगा सबकी जिंदगी में कि पहली बार अकेले यात्रा करनी पड़ी हो, और वो यात्रा हम सबकी सबसे यादगार यात्रा होती है, उसके बाद भले ही आप सागर माथा भी अकेले ही चढ़ जाएं पर वो पहली एकल यात्रा, या solo travelling आज भी एक रोमांच पैदा कर जाती हैं।

तो चलिए दोस्तों हम सब अपनी अपनी उस यात्रा को फिर से जीएं।
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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तो ये बात है तबकी जब हम सातवीं पास करके आठवीं में पहुंचे थे, यानी कि सन....


अरे भाई सन बता दिए तो बुड्ढे का टैग लगा देंगे इधर के चिट चैटर्स। खैर बता ही देते हैं, क्योंकि फोरम पर हमसे भी बुड्ढे लोग हैं।


हां तो बात है सन 1998 की, एग्जाम खतम हो गए थे और स्कूल में छुट्टियां थीं, मेरी पढ़ाई ननिहाल में हुई है, मेरे घर और ननिहाल में 700 किलोमीटर का अंतर है, तो वहां बिना रिजर्वेशन जाना सही नही रहता, छुट्टियां थीं ही, और मेरी बड़ी मौसी पास में ही, मतलब बस 200 किलोमीटर दूर बोकारो स्टील सिटी में रहती थीं, वहां जाना आसान था क्योंकि दिन में एक ट्रेन चलती थी, जो शाम करीब 4 बजे के आस पास बोकारो छोड़ देती थी, और वहां पर उनको नया घर मिला था, जिसमे मैं गया तो था, मगर बस एक रात के लिए, तो मौसी बार बार आने को बोल रही थी, और जाना बस इसीलिए नही हो पा रहा था क्योंकि कोई बड़ा साथ नही जा पा रहा था। मामा ने एक दिन कहा अकेले चले जाओ, वैसे भी अब इतने बड़े हो गए हो, मैं तैयार, पर नानाजी नही मान रहे थे।


पर मामा तो मामा थे, उन्होंने जाने के लिए मना लिया, फिर तय हुआ की दिन वाली ट्रेन से ही जाना है। और जाने के 3 4 दिन पहले मौसी को प्लान बता दिया गया, तय ये हुआ की यहां से में ट्रेन में बैठूंगा, और मौसाजी वहां मुझे लेने स्टेशन आ जायेंगे, सीधे अपने ऑफिस से, और अगर जो उनको लेट हो तो थोड़ा इंतजार करना या फिर ट्रेकर (हिंदुस्तान मोटर्स, वही एंबेसडर वाले, की जीप) पकड़ कर हॉस्पिटल मोड़ आ जाना। ये तीसरा प्लान इस कारण से कि शायद मौसाजी की कोई मीटिंग लग सकती थी उस दिन।

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हां तो बात उस जमाने की है जब मोबाइल बस हॉलीवुड की फिल्मों में देखा था हमने, और अपने देश में तो कल्पना भी नहीं की थी कभी। हां दोनो जगह लैंडलाइन फोन था, पर उस जमाने में उसकी सर्विस भी ऐसी थी कि उसके भी L ही लगे रहते थे अधिकतर समय। और फिर हुआ भी ऐसा ही, जाने के एक दिन पहले गया (नानीघर) वाले फोन में डायलटोन आज कल के बीएसएनएल सिग्नल के समान हो गया, मतलब कभी कभी अदिति टाइप। खैर वो समस्या तो तब समस्या ही नही लगती थी।


और जाना तो था ही, अगले दिन मैं सुबह 10:30 बजे स्टेशन पर पहुंच कर टिकट ले लिया और ट्रेन पटना हटिया (रांची) सुपर एक्सप्रेस अपने समय 11:00 बजे प्लेटफार्म पर आ गई। और मैं सीट खोज के बैठ गया। इस ट्रेन में सारे जनरल डब्बे लगते थे तो आपको सीट ढूंढ कर ही बैठना पड़ता था। किस्मत अच्छी थी की खिड़की वाली सिंगल सीट मिली मुझे, और मैं गोद में अपना पिट्ठू बैग ले कर बैठ गया। उसको गोद में रखने का एक कारण ये भी था कि उस समय मेरे पास वॉकमैन हुआ करता था जो लगभग हर समय साथ ही रहता था। तो प्रोग्राम ये था कि रास्ते में गाने सुने जायेंगे, मगर पहली एकल यात्रा का रोमांच सर पर चढ़ा हुआ था तो उसकी याद आई ही नहीं बाद में। खैर ट्रेन अपने नियत समय 11:30 पर खुल गई और सफर शुरू हुआ।


जो लोग इस रूट पर चले हैं उनको तो पता ही होगा की कितने लैंडस्केप पड़ते हैं गया से कोडरमा के बीच, तो मैं उनको देखने में ही मगन हो गया। गया से पठार शुरू होता है और कोडरमा से ठीक पहले ट्रेन एक बड़ी सी घाटी से गुजरती है, जिसमे कई पुल और 3 सुरंग पड़ती हैं, और ये सब बड़ा रोमाचकारी होता है, खास कर खिड़की पर बैठ के देखने से। इन सब के अलावा इस रूट पर झाल मुरी भी बहुत फेमस है, झाल मुरी मुख्यता बंगाल में बनता है, पर बिहार झारखंड में भी इसे लोग काफी पसंद करते हैं, तो घाटी में झाल मुरी वाले भाईसाब भी आ गए और हमने भी झाल मुरी लेकर खाई, क्योंकि इस रूट का दिन का सफर बिना झाल मुरी के अधूरा ही रहता है।

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झाल मुरी खाते खाते कोडरमा आ गया और इसके बाद थोड़ी दूर तक देखने केलिए बस मैदान ही मिलते हैं, एक्का दुक्का छोटी पहाड़ियों को छोड़ कर। तो थोड़ी देर हम भी बोर होने लगे। फिर आया पारसनाथ स्टेशन जो जैन लोगों के सबसे बड़े तीर्थ और झारखंड की सबसे ऊंची पहाड़ी का प्रवेश द्वार है, और उस पहाड़ को नीचे से देखना, वो भी अलग अलग दिशाओं से, मन को प्रफुल्लित कर देता है। पारसनाथ के बाद ट्रेन गोमो जंक्शन में रुकी।


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गोमो जंक्शन वो स्टेशन है जहां के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत में दिखाई नहीं पड़े थे। मतलब आखिरी बार भारत की भूमि पर उनको यहीं देखा गया था। इसीलिए अब इस स्टेशन का नाम नेताजी के नाम पर है।


ये एक बड़ा स्टेशन है, और यहां से बोकारो बस एक घंटे की दूरी पर है। और अब हमको थोड़ी भूख भी लगने लगी थी। तो वहां स्टेशन पर आलू चाप, आलू की बेसन में लिपटी टिक्की बंगाली स्टाइल में, लेकर खाया, और चाय पी, तब तक ट्रेन भी चल पड़ी और कोई 45 मिनट में मेरा गंतव्य स्टेशन आ गया। तो समय आ गया था लोहपथ गामिनी से विदा लेकर अपने मौसाजी के उड़नखटोला, मतलब वेस्पा पर बैठने का।


बोकारो एक बसाया हुआ आद्यौगिक शहर है, और इसकी पूरी जान यहां के स्टील प्लांट में बसती है। मतलब शहर में लोग बाग शिफ्ट छूटने और लगने के समय ही दिखते थे उस समय, शहर बहुत विस्तृत रूप से बसाया हुआ था और घर से ज्यादा मैदान हैं वहां पर। सड़कें खुब चौड़ी, मगर सुनसान, दुकानें थीं मगर एक सेक्टर, जो करीब 2 स्क्वायर किलोमीटर में था, उसमे एक मार्केट थी उस समय। मतलब आप को गए तो किसी से रास्ता भी नही पूछ सकते थे। यहां तक कि स्टेशन भी लगभग 15 किलोमीटर दूर था। और बीच में 2 गांव ही पड़ते थे, जिनकी उस वक्त आबादी बहुत कम थी, स्टेशन के आस पास जो भी था, वो बस अस्थाई ही था। साथ साथ वो 98 का बिहार ही था, मतलब क्राइम चरम पर, और अपहरण होना आम बात थी वहां।


ट्रेन लगभग शाम के 3:30 पर पहुंच चुकी थी, और वहां बहुत लोग उतरे थे। मैं भी भीड़ के साथ बाहर आया, मौसाजी को ढूंढते हुए, वो कहीं नही दिखे, तो मैने थोड़ा इंतजार करना सही समझा। मगर कुछ ही देर, वरना फिर वहां से शहर तक जाने का कोई साधन नहीं मिलता, अगली ट्रेन के आने तक। तो आखिरी वाले ट्रेकर की आखिरी वाली सीट पर बैठ मैं चल पड़ा हॉस्पिटल मोड़ की ओर। आखिरी सीट बोले तो सबसे पीछे जहां जीप में स्टेपनी लगती है वहां, मतलब मुझे बाहर का सब दिख ही नही रहा था, बल्कि ये कहिए की आधा बाहर ही था मैं। ट्रेकर स्टेशन से निकल कर कोई दो ढाई सौ मीटर ही चला होगा की मुझे मौसाजी स्टेशन की ओर जाते दिखे, अपने उड़ान खटोले पर, और देखते ही मैंने आवाज लगाई, "मौसाजी, मौसाजी......" मगर मौसाजी ने सुना नही और।वो स्टेशन चले गए। मैने सोचा, चलो वापस तो हॉस्पिटल मोड़ से ही जायेंगे, वहीं मिल लूंगा।


तो कोई आधे घंटे बाद ट्रेकर वाले भैया ने मुझे हॉस्पिटल मोड़ पर छोड़ा, और वो मोड़ न होकर एक चौराहा था। अब मुझे दाएं जाना था या बाएं कुछ पता नही था, और जैसा शहर वैसा चौराहा, एक्का दुक्का लोग ही दिखे वहां पर। कुछ समझ ना आने पर मैं चौराहे के बीच वाले गोल चक्कर में खड़ा हो गया कि आयेंगे तो देखेंगे ही मुझे। पर मौसाजी तो मौसाजी हैं...


कोई 10 मिनिट बाद वो मुझे आते दिखे, मैं भी वेट करने लगा कि देख तो लेंगे ही, मगर वो आए, और दाएं मुड़ कर चले भी गए। और मैं हाथ उठाए, "मौसाजी मौसाजी....."


ये क्या था भाई? Do I exists, or not??


खैर अब वापस आने से तो रहे, चलो इसी साइड चलो।


उधर जाने के बाद कुछ हलचल सी दिखी, और पता चला कि यही है बोकारो जनरल हॉस्पिटल, वहां पर रिक्शे भी खड़े थे थोड़े बहुत, उनमें से एक के पास पहुंच कर बोला, "भैया सेक्टर _c चलोगे?"


रिक्शे वाले भैया, "हां चलेंगे, किस क्वार्टर में जाना है?"


मैं, "जी 3210 में।"


रिक्शे वाले भैया, "बैठो, पता है न रास्ता।"


"मैं रास्ता नही पर पहचान लूंगा।"


ये बोल कर में रिक्शे में बैठ गया, और रिक्शा चल पड़ा। लेकिन भैया खेल हो चुका था अपने साथ, जाना था 3010 में और बोल गया 3210। और 15 मिनिट बाद वो भैया ने एक बिल्डिंग के आगे रिक्शा रोका और बोला लीजिए आ गया। मुझे देखते ही समझ आ गया था की जगह गलत है भाई।


"भैया ये तो नही है।"


"लेकिन 3210 तो यही है, नंबर सही से याद हैं न?


मैं सोच में पड़ गया। फिर उनको बोला की कोई एसटीडी हो आस पास तो चलिए, फोन करके ही सही से पूछ लेते हैं। हम दोनो फिर चल पड़े एसटीडी ढूंढने, जो वैसे शहर में जल्दी मिलना मुश्किल ही था। साथ साथ समय ये भी थी कि गया का नंबर तो पता था मुझे, लेकिन बोकारो का नही, तो एसटीडी वाला भी एक चांस ही था। रिक्शे वाले भैया भी पूरे सेक्टर का चक्कर लगाने लगे एसटीडी ढूंढने में, लेकिन वो न मिला, फिर ये डिसाइड हुआ की वापस हॉस्पिटल चलो, वहां पर तो है ही। तो हम लोग वापस चल पड़े, पर मुझे एक औरत वॉक करती दिखी, और मुझे लगा मौसी है वो, तो मैने आवाज लगाई, और खुशकिस्मती से वो मौसी ही निकली।


मौसी, "तुम यहां कैसे, और मौसाजी कहां है?"


फिर मैंने पूरी बात बताई, और मौसी का पारा चढ़ना चालू।


मौसी: चलो घर, बताती हूं उनको, बच्चे की कोई चिंता ही नही, मुझे लगा साथ में हो दोनो तो मैं अपनी वॉक करने निकली थी थोड़ी देर पहले, चाभी है ही उनके पास तो तुमको ले कर घर पहुंच गए होंगे।


फिर हम दोनो घर पहुंचे तो देखा मौसाजी मस्त गजल सुन रहे और दूध पी रहे बैठे। मौसी ये देखते ही चालू हो गई, "क्या कोई चिंता नहीं रहती न आप को बेटे की? इससे एक काम अकेले नहीं कर पाते सही से, कहीं कुछ हो जाता तो? और आपको चिंता भी नही कोई।"


मौसाजी: अरे हमको लगा वो पहुंच गया खुद से, और तुम्हारे साथ वॉक पर चला गया।


मैं: अच्छा अब हो गया शांत होइए दोनो।


तो भईया ये थी मेरी पहले सोलो ट्रैवलिंग, जिसमे मैं खोते खोते बचा।
 

Riky007

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मैंने कभी सोलो ट्रेवलिंग नही की अब तक...!!!!
या तो परिवार के साथ ही आना जाना हुआ है,
या फिर कॉलेज टूर...!!!
आप फिर बहुत कुछ मिस कर रहीं हैं।

मेरी चचेरी बहन ने तो कई देशों में सोलो ट्रैवलिंग की है, अब तो ऐसा है कि कुछ भी प्लान करने से पहले उससे पूछना पड़ता है कि बहन इस तारीख को तुम हो न, ये फंक्शन रख रहे हैं।
 

Riky007

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Moon Light

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आप फिर बहुत कुछ मिस कर रहीं हैं।

मेरी चचेरी बहन ने तो कई देशों में सोलो ट्रैवलिंग की है, अब तो ऐसा है कि कुछ भी प्लान करने से पहले उससे पूछना पड़ता है कि बहन इस तारीख को तुम हो न, ये फंक्शन रख रहे हैं।
Hmm...!!!

कभी कभी, हर किसी को उसके हिस्से की खुशी भी नही मिलती...
अच्छा लगता है घूमना पर,
अकेले कभी तो घूमने का अवसर मिलेगा
 

Riky007

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Hmm...!!!

कभी कभी, हर किसी को उसके हिस्से की खुशी भी नही मिलती...
अच्छा लगता है घूमना पर,
अकेले कभी तो घूमने का अवसर मिलेगा
ज्यादा सोचिए नही, बस किसी दिन बैग उठाइए और निकल लीजिए, भले ही ट्रिप एक दिन की ही हो, बस जगह ऐसी जहां आपका मन ही जाने का
 

Moon Light

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ज्यादा सोचिए नही, बस किसी दिन बैग उठाइए और निकल लीजिए, भले ही ट्रिप एक दिन की ही हो, बस जगह ऐसी जहां आपका मन ही जाने का
कुछ बातें कहने वा लिखने में ही अच्छी लगती हैं...
खैर कभी मौका मिलेगा तो जरूर
 

Thakur

Alag intro chahiye kya ?
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Riky007

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कुछ बातें कहने वा लिखने में ही अच्छी लगती हैं...
खैर कभी मौका मिलेगा तो जरूर
पता है, पर मौका लगे तो

मत चूको चौहान
 
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