• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Fantasy Living Relationship (Completed)

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
तभी एक तेज कंकड़ उसके सीने में आकर लगा...जो चोट पहुँचाने की गरज से नहीं, उसे बाईजी मान छेड़खानी की नीयत से मारा गया था...। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। भीड़ में वे लड़के भी आ मिले थे जो जीप ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे पर रोक रहे थे! अपमान से आँखों में आँसू आ गए। बोलते बोलते वह रुक गई। आकाश ने पूछा तो बताया नहीं। वे दुखी हो गए। वापसी में ड्रायवर और उसके बीच आ बैठे। जीप गाँव से निकल आई तो वह उनके बाजू से सिर टिका कर बेसुध सो गई, जैसे दुख मिटा रही हो!
फिर बाराकलाँ में भी जब नरवरिया एवं निम्न जाति की बस्ती में टीम नाटक करने पहुँची, घटना घट गई...।
वहाँ भी ब्राह्मण-ठाकुरों के लड़के आकर उत्पात मचाने लगे। नरवरियों का ही एक लड़का जो मुख और पंजों पर गेरू पोत, बदन पर कोयला निरक्षर लंगूर बन दो पेड़ों के मध्य बँधे रस्से पर झूल रहा था कि उन्होंने रस्सा काट दिया जिससे वह कुएँ में जा गिरा! भीड़ ने रस्सा डाल जल्दी से निकाल तो लिया पर सिर फट गया। आकाश ने मंच से खूब खरी खोटी सुनाई। उसने भी माइक हाथ ले, दलितों को एकजुट हो टक्कर लेने को उकसाया...! घरों में घुसी सवर्ण महिलाओं को ललकारने लगी कि वे अपने शराबी और बुरे चाल चलन वाले पतियों के खिलाफ संघर्ष करें।'
आवाज तीखी हो गई, जैसे बिच्छू का डंक! मुँह लाल, गोया सुर्ख़ मिर्च! जिसे देख-सुन लोग ताव में अपनी बंदूकें निकाल लाए और फुफकारते हुए हवाई फायर करने लगे! दहशत इतनी व्याप गई कि जीप में बैठते ही वह आकाश से भयभीत बच्चे की तरह सट गई। वापसी में पानी भी इतना तेज बरसा कि बौछार से कपड़े निचुड़ गए। हवा तीर-सी लग रही थी। बिजली बम-सी फट रही थी। डर से बेतरह सीना बज रहा था उसका।
फिर यह अक्सर होता कि वे रात को वापसी में ड्रायवर और उसके बीच आ जाते। गोया, सुरक्षा की दृष्टि से हाथ कंधें पर रख लेते...।
धीरे धीरे सर्दियाँ आ गईं।
जिला मुख्यालय की सीमा से लगे ग्राम कल्यानपुरा में शोहदे दिन छुपते ही महिलाओं का दिशा मैदान दूभर कर देते। नामचीन लोग जुए के अड्डे तथा शराब की दुकानें चलाते। उसने संगठन की स्थानीय महिला कार्यकर्ता शोभिका में जोश भर दिया। वह रोज-बरोज पोस्टकार्ड लिखने लगी - एसपी, कलेक्टर, सीएम, पीएम को। गाँव की महिलाओं को संगठित कर आवाज उठाने लगी...।
मुहिम कारगर होने लगी तो गुंडों ने उसका बलात्कार कर हत्या कर दी!
लाश पीएम के लिए आई तो नेहा उसे देख बेहोश हो गई। आकाश हाथों में उठाकर डॉक्टर के कमरे में ले गए।
तब से रात को लौटते वक्त गोद में सिमट जाती। वे शॉल ओढ़ा लेते और वह सोई रहती। इतनी गहरी नींद कि कोई सपना न आता।
अपने साथ घटी इस दुर्घटना को कदाचित भूल जाती वह, लेकिन आकाश को किसी करवट चैन न था। दिन तो भागदौड़ में किसी तरह कट जाता, मगर रात उन पर भारी पड़ जाती। पत्नी ने एकाध बार पूछा भी, 'आप किसी बड़े टेंशन में हैं?' पर वे टाल गए। उन्हें लग रहा था कि बेशक वे अपने दुर्बल चरित्र के कारण इस दुर्घटना के दागी हुए हैं, पर यह उनके द्वारा प्रायोजित न थी।
जून की दुपहर में जब शार्टकट के चक्कर में ड्रायवर जीप को एक धूल भरे मैदान से निकाल रहा था। उन दो के सिवा गाड़ी में और कोई कार्यकर्ता न था। वे आगे ही ड्रायवर और उसके बीच आ बैठे थे। सूरज आसमान में, किरणें धरती पर चमक रही थीं कि अचानक पहिया गड्डे में चला गया! जीप ऐसा हिचकोला खा गई कि नेहा आगे की ओर झूल गई और उन्होंने हत्थे के धोखे में उसकी गोलाई पकड़ ली! फिर सकपका कर ड्रायवर पर खिसियाने लगे मगर हाथ वह स्पर्श नहीं भूला! देह सटते सटते, देह को चाहने लगी थी। समस्या यह कि अब इस लकीर को मिटाया नहीं जा सकता। वह माफ नहीं करे तो उम्र भर पश्चाताप की आग में जलें और माफ कर दे पर दूरी बना ले तो विरह में! वह जैसे जरूरी हो गई जिंदगी के लिए! जबकि शुरू में वे कोई तवज्जो न देते, वह भी आने को राजी न थी...।
तीन-चार दिन बाद वे विवश से फिर अचानक अस्पताल पहुँच गए। छोटी के पलंग और सोफे के बीच फर्श पर जो जगह खाली थी, उसी पर चटाई डाले नेहा सो रही थी। मम्मी बाथरूम के अंदर। पापा और ड्रायवर का अतापता नहीं! आकाश ने झुककर उसकी कलाई पकड़ ली तो आँखें टुक से खुल गईं। फिर देखते ही देखते उनमें चमक आ गई।
थोड़ी देर में माँ सहसा बाथरूम से निकल आई। आकाश पर नजर पड़ते ही वह रैक से परचा उठाती बोली, 'ये इंजेक्शन आसपास कहीं मिल नहीं रहा।'
परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, 'चलो-नेहा! चौक पर देख लें, वहाँ तो होना चाहिए!'
वह जैसे, उपासी बैठी थी! चुन्नी बदलकर झट साथ हो ली।
बाहर निकलते ही बातें होने लगीं तो आवाज में चहक भर गई।
चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्शन उन्हें पहली दुकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश उसका हाथ थाम लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्तराँ में ले गए। जहाँ दोनों ने ताजा नाश्ता करके दही की लस्सी पी। इस बीच उन्होंने बताया कि आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसे तैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं, उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।'
उसे अस्पताल छोड़कर वे लौटने लगे तो वह अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही।
पहले उसे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मजे से जिए जा रहे हैं! लोग तीज-त्यौहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया कराई जा रही है!'
वे कहते - हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नशे में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीध कर रहे हैं।'
एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन उसने ड्रायवर से कहा, 'तुम्हें पता है, अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं!'
'सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोई और इंतजाम कर लिया होगा!'
'हाँ, कर लिया है,' वह मुस्कराई, 'गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... पचते रहते हैं!'
'अरे!' वह आश्चर्यचकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतूहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, 'अपन लोग चलें वहाँ! छोटी दीदी की हालत में अब तो काफी सुधर है, मम्मी-पापा हैं-ही...।'
वह जैसे इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह फाड़कर बोली, 'आप देखते रहे हैं, हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम अपने प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...।'
उन्होंने बेटी की आँखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, आँसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते धीरे से बोले, 'चली जाओ,' फिर बीवी को कसने लगे, 'इससे कहो, रात में अपने घर में आकर सोए!'
उसे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो आँसू बरौनियों में लटक गए।
लेट होने पर माँ प्रायः बखेड़ा खड़ा कर देती थी। कभी कभार जुबानदराजी हो जाती तो राँड़, रंडो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती। ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। नेहा को बच्चा बच्चा जानता। चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं, 'देश में गर बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...' किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता, 'बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!' कोई कहता, 'इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें...' तब वह खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के!'
बैग में वापसी योग्य सामान ठूँसकर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। वह किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। नेहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में चपलता से गाड़ी चला रहा था। अब वे आधे अधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर कितने दिनों से एक अंतहीन बाधदौड़ दौड़ते चले आ रहे थे।
पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर वे उसे अपने घर ले गए। अब से पहले वह रात में कभी उनके घर नहीं गई थी। कपड़े गंदे हो रहे थे और उनमें अस्पताल की बू भरी थी। झिझकते-झिझकते उनकी पत्नी से लेकर बदल लिए। आकाश की नजर पड़ी तो अनायास मुस्करा पड़ी कि आप इन्हीं में तो देखना चाहते थे - हमें! फिर वे बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। आकाश ने अखबार बिछाते हुए कहा, 'यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'
नेहा मुस्कराती रही...।
सुजाता प्रसन्नता के साथ खिला रही थी। उंतालीस साल की खाई-अघाई औरत। उसकी एक बेटी, एक बेटा था। बेटा किशोर और बेटी वयःसंधि काल में प्रवेश करती हुई। और वह स्वयं एक कुशल गृहिणी। जिसका शौहर पेशे से वकील और ख्यातनाम सामाजिक कार्यकर्ता। घर-गृहस्थी और बच्चों को सपेरने में पता ही नहीं चल रहा था कि मियाँ जी हाथ से निकल रहे हैं! फिर भी छठी इंद्री की प्रेरणा से इम्तिहान-सा लेते हुए पूछा, 'अच्छा नेहा, बताओ - काहे की सब्जी है?'
उसने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोली, 'चौल्लेइया की...!'
'तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं।' मुस्कराते हुए उसकी आँखें चमकने लगीं। और वह पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर से बाहर नहीं सोना! सुबह वे उससे पहले उठकर फील्ड में निकल गए, तब कहीं अपने घर पहुँची! बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या सूझा कि - सारे फर्श झाड़पोंड डाले! ढेर सारे कपड़े भिगो लिए... बेडसीट्स, चादरें, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की, दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े! माँ होती तो कहती, 'जिस काम के पीछे पड़ती है, हाथ धेकर पड़ जाती है!'
माँ को क्या पता, उसे तो सबकुछ अच्छा लगने लगा था। अच्छा आज से नहीं, पिछली सारी ऋतुओं से। चिलचिलाती धूप में जब चैसिस आग हो जाती, इंजन धुआँ उगल उठता, आकाश से सटकर वह पसीने से ठंडक पा लेती...। इतनी बेरुखी बरतने के बाद भी उनका फिर से अस्पताल जा पहुँचना - जगाना, हाथ पकड़ घुमाना, घर ले जाना, साथ खिलाना, सुलाना... सब कुछ कितना सुखद! एक जादुई यथार्थ। जिसमें विचरण की वह आदी हो गई है! कैसे संभव है उससे निकल पाना! जिस दिन साथ नहीं मिलता, मानों पगला जाती है! कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी काम में दिल नहीं लगता!
पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केंद्रों पर पहुँचने वाले थे। दुपहर तक एक अन्य जीप आ गई और वह ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केंद्रों को सजग करना था।
रात नौ-दस बजे तक वे सब लगाम खींचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते रहे। मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, 'प्रोजेक्ट की सफलता के लिए हमें पूरे देश में आप सरीखे वॉलंटियर्स चाहिए!'
- अरे!' उसके तो हाथपाँव ही फूल गए! आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।
वे उसे आकाश से भी अधिक महत्व दे रहे थे... क्योंकि असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था कि - हमारे मौजे का रकबा इतना कम क्यों होता जा रहा है?'
और वह अड़ गया कि - हमें परियोजना नहीं जमीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'
जाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते... हकला गए बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहजोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए। तब उसने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए।
उसने कहा था - आपकी जमीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है! बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं... गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे। जरा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जाने... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं...!'
आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था। सभा में सन्नाटा खिंच गया।
वापसी में पर्यवेक्षक उसे अपनी कार में बिठाना चाह रहे थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि - प्रोजेक्ट के बारे वह उन्हें अपने अनुभव सुनाए तो वे दीगर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को लाभान्वित कर सकेंगे!' ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़कर इस वक्त वह कहीं जाना नहीं चाहती थी।
laajwaab update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
पर्यवेक्षकों की रवानगी के बाद वे केंद्र प्रमुख के यहाँ भोजन के लिए गए। जहाँ कम से कम आधे गाँव की औरतों ने घेर लिया उसे! इतनी उत्साहित कि आने न दें, रतजगा करने पर आमादा! उसे भी कुछ ऐसी भावुकता ने घेर लिया कि उसी घर में पनाह ढूँढ़ने लगी। इच्छा हो रही थी कि आकाश के साथ रात भर यहीं रहकर जश्न मनाए! जैसे, जीत का सेहरा उनके सिर बाँधना चाहती थी या उनसे अपने सिर बँधवा लेना चाहती थी आज! मगर जीप स्टार्ट हो गई और वह अपनी जगह पर आ बैठी। हृदय की उमंग उसके भीतर ही दफ्न हो रही। उसने निराशा में भरकर कहा, 'अब तो हमें उनके निर्देशन में यह आंदोलन चलाना पड़ेगा!'
'और-क्या!' वे कुछ और सोच रहे थे।
'फिर आपके परिवर्तनकामी सोच का क्या होगा?' उसने टोह ली। उनका लक्ष्य कुछ और ही था। वे हमेशा विद्रोह की बातें करते थे।
'हम वही करेंगे...' उनकी आँखें हँस रही थीं।
उसने उन जैसा आत्मविश्वासी व्यक्ति नहीं देखा...। शनैः शनैः कंधे से टिक गई तो, बाँह उन्होंने गले में डाल ली! जंगल के सफर में अंतरिक्ष की यात्र का एहसास होने लगा! जी में आ रहा था, यह यात्र कभी बीते नहीं। मगर नदी-पुल पर आकर इंजन यकायक गड़गड़ा उठा।
ड्रायवर ब्रेक लेकर बोला, 'सर! गाड़ी गरम हो रही है...'
- क्या!' वह यकायक चौंक गई। वोनट से तेज भाप निकल रही थी! एक क्षण के भीतर रात और जंगल का भय मन के भीतर भर गया। एक बार इसी तरह चेंबर कहीं टकरा गया था... ऑयल निकल गया और फिर इंजन सीज!
'बंद मत कर देना,' आकाश बौखला रहे थे, 'स्टार्ट नहीं होगी, फँस जाएँगे! तुमने ध्यान नहीं दिया, रेडिएटर लीक था!!'
'नईं-सर! वो बात नहीं है, कूलेंट गिर गया है।' उसने उतर कर वोनट खोल दिया और बोतल से पानी उँड़ेलने लगा।
थोड़ी देर में चल पड़ा तो आकाश धैर्यपूर्वक कहने लगे, 'दस मिनट और खींचों जैसे तैसे, पहले तुम्हारा ही घर पड़ेगा, वहीं रोक लेना, हम लोग पैदल निकल जाएँगे।'
नेहा ने घड़ी देखी। अलबत्ता, ऑटो रिक्शा भी नहीं मिलेगा! फिर ध्यान इंजन की ध्वनि पर केंद्रित हो गया। पहले जब सीज हो गया था, आकाश को बारह हजार भरने पड़े। उस रात वह साढ़े तीन बजे घर पहुँची। मन हजार कुशंकाओं में फँस गया। बीच में फिर एक-दो बार भाप तेजी से उठी तो जीप रोक पानी उँड़ेला उसने... गनीमत थी पहुँच गए। शहर में घुसते ही आकाश ने पंजा दाईं ओर मोड़ गाड़ी ड्रायवर के कमरे की ओर मुड़वा दी। थोड़ी देर में वह रूम के आगे इंजन बंद कर पूछने लगा, 'स-र! साइकिल निकाल दूँ?'
उन्होंने एक पल सोचा और हाँ में सिर हिला दिया। और वह खुशी में नहाया साइकिल निकाल लाया तो वे पैडल पर पाँव रखकर सीट पर बैठ गए, नेहा जंप लेकर कैरियर पर।
इस तरह बचपन में पापा और भैया के साथ जाया करती थी...। राह में गश्त के सिपाही मिले, वे भी कुछ नहीं बोले। उस वक्त वे सचमुच फैमिली मेंबर ही लग रहे थे। घर आकर उसने ताला खोला तो उन्होंने साइकिल अंदर गैलरी में लाकर रख ली!
दिल धड़कने लगा।
घर सख्त हो आया था तब उसने ताजिए के नीचे से निकल कर मुराद माँगी थी। साथ के लिए, सिर्फ साथ के लिए! तब उसे खबर नहीं थी कि मुहब्बत इतनी विचित्र शह है! लाख घबराहट के बावजूद मुस्करा पड़ी, 'कान्ग्रेच्युलेशंस ऑन योर सक्सैस।'
'ओह! सेम-टु-यू!!' वे गहरे भावावेश में फुसफुसाए। फिर अचानक चेहरा हथेलियों में भर ओठ ओठों पर रख दिए!
'आऽकाऽश...'
उसका स्वर भहरा गया। जैसे, होश में नहीं थी। उसने कभी उन्हें नाम से नहीं बुलाया। हमेशा सर या भाईसाब! वे दो पल यूँ ही बाँधे रहे, जिनमें बीती बरसातें, सर्दियाँ-गर्मियाँ, माँ की जली कटी बातें और पापा का तमतमाया चेहरा सब बिला गया।
घड़ी की टिकटिक दिल की धड़कन से हारने लगी तब ओठ ओठों से छुड़ाकर बमुश्किल कहा उसने, 'दो बज गए!'
और वे सहमे से स्वर में पूछने लगे, 'मे आइ गो...?'
सुनकर दिल घायल परिंदे सा तड़पने लगा। देर से रुकी थी, बाथरूम के अंदर चली गई। घर में इस छोर से उस तक एक चिड़िया न थी जिसकी आड़ ले लेती! उसने सोचा जरूर कि दो पल एकांत के मिल जायँ और मैं बधाई दे लूँ! पर इतना अरण्य एकांत और क्षणों का अंबार। यह तो कुंती जैसा आह्वान हो गया! देर बाद भीगी बिल्ली बनी जैसे तैसे निकली। साइकिलिंग की वजह से पसीने से लथपथ वे शर्ट के बटन खोले पंखे के नीचे बैठे मिले!
नजरें मिलीं तो उठकर करीब आ गए!
मगर यथार्थ से भयभीत उन आखिरी लम्हों में भी वह उनसे बचने की कोशिश कर रही थी, 'आप उनसे दूर जा रहे हैं...'
'किससे...?'
नजरें उठाकर वह मुस्कराने लगी, 'भाभीजी से।'
निश्वास छूट गया। रात सघन एकांत के दौर से गुजर रही थी। काँधे में सिर दे वे सुबकते से बोले, 'नेहा-आ! मुझे पता नहीं, यह सब क्या है... पर लगता है, तुम नहीं मिलीं तो अब बचूँगा नहीं!'
'तुम निरे बच्चे हो, आकाश!' भावुक हो आई वह। सिर उनके सीने में दे लिया। जैसे, अधूरा अध्याय पूरा होकर रहेगा! इसे रोक नहीं सकती। इसे मम्मी-पापा उनकी पत्नी और सारी दुनिया भी मिलकर नहीं रोक सकती। इसका होना तो आदि अनादि से तय है!!
लटें चूमते चूमते कब वे माँ के पलंग पर ले आए, पता नहीं चला, 'तुमने सचमुच कर दिखाया।'
- ओह! वे गोलाइयाँ थामे जीत का सेहरा बाँध रहे थे!!
'और किसी की सामर्थ्य नहीं थी... और कोई था ही नहीं!'
लाख सजगता के बावजूद जीप खराब हो गई थी। अगले दिन लेने नहीं आई। दुपहर तक प्रतीक्षा करने के बाद वह बस से और फिर पैदल चल कर खुद स्पॉट पर पहुँच गई। टीम दुपहर के प्रदर्शन के बाद तालाब किनारे वाले मंदिर पर लौट आई थी। उस दिन उन्हें खाना नहीं मिला था। गाँव में पार्टीबंदी थी। दल प्रमुख ने स्थानीय राजनीति में उलझने के बजाय शाम का प्रदर्शन निरस्त कर खाना खुद पकाने की योजना बना रखी थी। सुबह उसने टीम को गाँव की दूकानों से छुटफट नाश्ता करवा दिया था। अब आटा, तेल, मिर्च-मसाला, सब्जी, बर्तन, ईंधन आदि का जुगाड़ किया जा रहा था। पीपल के नीचे चंद ईंटों का चूल्हा बना लिया गया था। उसे हँसी छूटी, बोली, 'खाना मैं पका लूँगी। तुम लोग नाटक नहीं रोको।'
'अरे, दीदी! आप क्यों चूल्हे में सिर देंगी? छोड़ो, एक प्रदर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा! लड़के खिसियाए हुए थे।'
'मैं क्या पहली बार चूल्हा फूँकूँगी? कई बार गैस और केरोसिन की किल्लत हो जाती है तब अँगीठी और लकड़ी का चूल्हा तक चेताना पड़ता है। जाओ तुम लोग नाटक करो, हार नहीं मानते।' उसने समझाया।
थोड़ी देर में वे राजी हो गए। शाम का नाटक वहाँ के शाला भवन में रखा गया था। जहाँ रामलीला होती, सारा गाँव जुड़ता। वह अपनी सफलता पर आत्मविभोर थी। सहायता के लिए एक लड़का उसके पास छोड़कर वे सब चले गए। शाम घिर आई थी। बिजली सदा की तरह गुल। मंदिर का दीपक उठाकर उसने चूल्हे के पास रख लिया। यह भी एक विचित्र अनुभव... इतने लोगों का खाना वह पहली बार बना रही थी। जैसे किसी शादी-समारोह में हलवाई बनी लगी हो! खूब बड़े भगौने में आलू और बैंगन मिलकर चुर रहे थे। नीचें ईंटों के चूल्हे में सूखी लकड़ी और उपले भकभक जलते हुए। पसीने से लथपथ वह बड़े से परात में आटा गूँद रही थी। दुपट्टा गले में लपेट रखा था।
तभी अचानक आकाश आ गए। जैसी कि उम्मीद थी। वे दिन में नहीं आ पाए थे। तय था कि प्रत्येक टीम के पास दिन में एक बार पहुँचेंगे! इसी संबल के कारण अभियान शिखर पर था। उसे इस तरह सन्नद्ध पाकर इतने भावुक हो गए कि लड़के की उपस्थिति में ही झुककर मुख चूम लिया! यह प्यार नहीं, शाबाशी थी उसके प्रति। उसके सहयोग और प्रतिबद्धता के प्रति समिति का हार्दिक आभार। उसकी जगह कोई लड़का होता तो वे उसकी भी ठोड़ी चूम लेते।
'नाटक चालू हो गया?' उसने मुस्कराते हुए पूछा।
'अभी नहीं। लड़के गैसबत्ती और माइक वगैरह चालू कर रहे हैं।'
'बिजली क्यों नहीं है?' वह चिढ़ गई।
'यहाँ भी ट्रांसफार्मर फुँका पड़ा है...'
'कब से...?'
'पता नहीं... रिलैक्स,' वे मुस्कराए, 'हम इसी जागृति के लिए कटिबद्ध हैं! मोक्ष और जातीय पहचान दिलाने वालों और अपन में यही फर्क है। वक्त लगेगा, पर एक बार फिर नहरों में पानी, तारों में बिजली, पाँव तले सडक, हाथ को काम, शाला में टीचर और पंचायत में धन और न्याय होगा... हमें इसी तरह निरंतर लगे रहना है, बस!'
भगौने से सब्जी पकने की महक आने लगी थी। उसने ढक्कन खोला तो खदबदाहट धीमी पड़ गई। चूल्हे की लौ में, आकाश का दाढ़ी मढ़ा चेहरा ऐसा दमक रहा था, जैसे भोर के कुहासे में उगता सूरज। उसने आँखें झुका लीं, उसे यकीन है वे यह चमत्कार एक दिन करके दिखा देंगे!
चमचे द्वारा सब्जी इधर उधर पलटने के बाद उसने कहा, 'लड़कों को बुलवा कर खाना खिलवा देते, नाटक में समय लगेगा। सुबह से भूखे हैं-बेचारे!'
घूम कर उन्होंने उस लड़के की ओर देखा।
'बुला लाएँ सर!' आशय भाँप वह तपाक से बोला।
- हाँ।' उन्होंने सिर हिला दिया और वह दौड़ गया।
नेहा ने सब्जी का भगौना चूल्हे से उतार कर उस पर तवा चढ़ा दिया और टिक्कर ठोकने लगी। सेंकने के लिए वे उकड़ूँ बैठ गए। दोनों ऐसे चौकस तालमेल के साथ काम कर रहे थे, जैसे अपने बच्चों के लिए खाना पका रहे हों! यह बात सोचकर ही उसके मन में गुदगुदी होने लगी। चेहरे पर स्थायी मुस्कान विराजमान हो गई थी, जिसे निरखते आकाश अभिभूत थे। उस सघन मौन में वे एक-दूसरे से मन ही मन क्या कुछ कह-सुन रहे थे, खुद को ही नहीं पता! उस बेखुदी से गुजरते हुए दिल को जिस सच्चे आनंद की अनुभूति हो रही थी, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, शायद!
थोड़ी देर में लड़का वापस आ गया, 'स-र!' उसने दूर से आवाज दी।
'क्या हुआ, आए नहीं?' आकाश बौखला गए।
'सर! पब्लिक आ गई है... वे तो अब नाटक करके आएँगे।' उसने करीब आकर कहा।
'ठीक तो है... इसमें क्या आफत?' नेहा आकाश को देखते बोली।
'सर! हम भी चले जायँ!' लड़के ने निहोरा किया।
'हाँ-हाँ, क्यों नहीं? सर क्या खा जाएँगे!' उसने लताड़ा।
आकाश मुस्कराकर रह गए। और वह उल्टे पाँव नाटक स्थल की ओर दौड़ गया।
'कलाकार को भूख-प्यास नहीं सुहाती।' गोया, उसने माफी माँगी।
'अब यहाँ रसोई रखाओ!' वे हँसे।
'इसमें कौन-सी आफत है!' उसने चट कहा और पट से मठिया के बगल के दालान में सामान उठा उठा कर रखने लगी। वे टॉर्च दिखाकर हैल्प करने लगे...।
दालान और उसके अंदर का कमरा शायद, साधुओं की शरण स्थली, जो कभी कभार भूले भटके आ जाते हों! हनुमान जयंती और धार्मिक उत्सवों पर भजन-कीर्तन होता हो! तभी तो इतने झड़े पुँछे, पुते हुए! ताल किनारे होने से जेठमास में भी विशेष गर्मी नहीं। कमरे में चौतरफा खिड़कियाँ, दालान में तीन द्वार! हवा बे-रोकटोक बहती हुई...।
टंकी से हाथ-मुँह धोकर वह वहीं आ बैठी जहाँ आकाश पहले से बैठे थे। पेड़ों के बीच से झाँकता तारों भरा निर्मल आकाश भला लग रहा था...। पीपल की चोटी पर हनुमान जी का लाल ध्वज लहराता हुआ, जो अँधेरे के कारण श्याम प्रतीत हो रहा था।
आदतन उन्होंने चुटकी ली, 'इनकी बड़ी मान्यता है...'
'होनी चाहिए,' वह स्वभावतः धार्मिक, तुरंत एक वैज्ञानिक कयास जोड़ती हुई बोली, 'हमारे पूर्वज हैं! आखिर हम मनुष्य वानर जाति से ही तो...'
'ये केशरीनंदन, पवन देव के भी नहीं, शिव जी के औरस पुत्र हैं!' आकाश मुस्कराए।
'क्या-हुआ! उस युग का समाज ही ऐसा था,' उसने हमेशा की तरह उन्हें हराने की सोची, 'दशरथ का पुत्रेष्ठयज्ञ और कौरव-पांडवों की वंश परंपरा...'
'वही तो...' वे खुलकर हँसने लगे। और अर्थ समझ कर उसने अपनी जीभ काट ली! फिर जैसे मुँह छुपाने चटाई उठाकर कमरे के अंदर चली आई जहाँ तारे भी नहीं झाँक पा रहे थे। दिल में बवंडर-सा उठ रहा था। पहले डर लग रहा था कि कहीं इधर ही न चले आएँ। मगर देर तक नहीं आए तो घायल हरिणी-सी तड़पने लगी, जैसे दालान में बैठे हरिण की नाभि में कस्तूरी बँधी थी, 'हमें नींद आ रही है... आप सो नहीं जाना!'
सुनकर वे दबे पाँव बगल में आ लेटे! नेहा सँभलती तब तक तो चेहरा सीने पर रख लिया!
दिल धड़कने लगा। आँखें मूँद ली उसने। गोया, कुतर लिए जाने से गदराए फल मीठे हो जाएँगे! माँ ने यह एहसास कभी जिया ही नहीं... पिता को देखकर लगता ही नहीं कि उनके भीतर भी पूरा चाँद है और माँ की धरती पर अतल-अछोर सागर! जो होता तो जीवन मिठास से लबरेज होता...।
jordaar update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
फील्ड में पहली बार रात गुजार कर लौटी तो पाया, पापा छोटी की छुट्टी करा लाए हैं! माँ और वे दोनों उसे खा जाने वाली नजरों से घूर रहे थे। बचती बचाती वह छोटी की तीमारदारी में जुट गई। जीप खराब सो, लेने नहीं आई और वह खुद हफ्ते भर घर से न निकली। मगर अगले हफ्ते मौसी जी का फोन आगया!
'नेहा, तुमने आज का अखबार देखा?'
'हाँ!'
'खबर पढ़ी?'
'कौन सी?'
'इसका मतलब पढ़ी नहीं!'
'किस पेपर में?'
'चंबल वाणी में।'
'पापा मँगाते नहीं, लोकल है ना! भास्कर आता है...'
'भास्कर नहीं, गुल तो इसी ने खिलाया है! तुम यहाँ आकर पढ़ लो।'
लगा - जरूर कुछ अनहोनी हुई होगी! मौसी समिति में हैं। वे उसका हरदम ख्याल रखती हैं। वे आकाश का भी कम ख्याल नहीं रखतीं। उनके कहने से कान खड़े हो गए उसके।
संपादक फालतू में ही पीछे पड़ गया था जिसने पहले चित्र छाप दिया था, सुनी सुनाई बातों के आधर पर कुछ दिनों बाद बॉक्स में झूठी खबर! आकाश ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से इस बात की शिकायत कर दी थी कि 'प्रकाशित समाचार द्वारा दिया गया विवरण भ्रामक एवं द्वेषपूर्ण है। समिति द्वारा नुक्कड़ नाटक दलित बस्तियों में कराए जा रहे हैं। इस बात पर नाराज प्रभुवर्ग जागरूकता अभियान का विरोध कर रहा है। इसका ज्वल्वंत उदाहरण मुकटसिंह का पुरा नामक ग्राम में दिनांक 2 जून को देखने में आया, जब कलाजत्था अपना नाट्य-प्रदर्शन ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे न कर हरिजन बस्ती में करने गया। उस दिन भी नाट्य टीम पर सवर्ण जाति के युवा लड़कों द्वारा पत्थर फेंके गए एवं बाराकलाँ नामक ग्राम में दिनांक 9 जुलाई को नरवरिया एवं निम्न जाति की बस्ती में नाटक करने पर भी यही घटना घटी। कुछ लोग तो वहाँ अपने हथियार तक निकाल लाए...। कमोबेश यह वही हमला है जो स्वर्गीय सफदर हाशमी पर हुआ था।
पत्रकार जो कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं, उन्हें यह खतरा ईमानदारी से समझ लेना चाहिए। यदि समाचार लेखक एक बार भी इस अभियान को नजदीक से देख लेता तो ऐसी भ्रामक रपट न लिखता। जिला मुख्यालय की सीमा से लगे ग्राम कल्यानपुरा तक का यह हाल है कि नामचीन लोग जुए के अड्डे तथा शराब की दुकानें चलाते हैं। शोहदे दिन छुपते ही महिलाओं का दिशामैदान दूभर कर देते हैं। संगठन की स्थानीय महिला कार्यकर्ता शोभिका, जो कि स्वयं मूक-वधिर थी, ने गाँव की महिलाओं को संगठित कर इस निजाम के खिलाप़फ आवाज उठाई तो 29 दिसंबर को उसका बलात्कार कर नृशंस हत्या कर दी गई। जब कोई स्वयंसेवी संगठन स्वस्थ जनमत तैयार करने, समाज में वैज्ञानिक चेतना पैदा करने और अशिक्षा के अंधकार में भटकते रूढ़ियों, कुरीतियों, आपसी द्वेष और जातिवाद के कीचड़ में पँफसे समाज को उबारने का काम कर रहा हो तब मीडिया को अपनी भूमिका खुद समझनी होगी।'
तब उनकी यह ललकार सारे पत्रकारों को चुभ गई। एक साप्ताहिक ने कहकहा लगाया, 'जागरूकता अभियान या भ्रष्टाचार का अड्डा!' और विधायक ने प्रेस कान्फ्रेन्स आयोजित कर कहा, 'भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से जागरूकता के नाम पर अय्यासी बढ़ी है...' फिर तो अखबारों ने यहाँ तक छाप दिया कि 'आकाश की गाड़ी रोज शाम शराब के ठेके पर लग जाती है!'
कुशंकाओं की पोटली बाँधे वह मौसी के घर जा पहुँची। उन्होंने पूछा, 'नाश्ता करके आईं?'
उसने कहा, 'नहीं।'
'तो आओ, पहले नाश्ता करलो...।' कहती वे रसोई में ले गईं उसे और पहले से तैयार रखे पोहे, प्लेट में परस खाने को दे दिए।
नेहा ने मुसीबत के कौर निगले। पानी पीकर पूछा, 'कहाँ है चंबल वाणी, क्या छाप दिया अब, उसने?'
'लो, पढ़ लो!' मौसी ने छुपाकर रखा अखबार उसे पकड़ा दिया।
सुर्खी पढ़ते ही हाथ पाँव फूल गए, 'समन्वयक ने अपने ही दल की कार्यकर्ता से किया रेप!'
निज प्रतिनिधि - 30 मई। पुरुषों का सारा मजा जबरदस्ती में है, ऐसे बहुत कम पुरुष मिलेंगे जो शादी के बाद दूसरी स्त्री पर नजर नहीं डालते। ज्यादातर तो अपने पर भरोसा करने वाली लड़कियों को ही लूट लेतें हैं, फिर वे चाहे उनकी कुलीग हों, रिश्तेदार या दोस्त! हाल ही में ऐसा वाकया फूप कस्बे के ताल वाले हनुमान मंदिर पर पेश आया जब एक पढ़ी-लिखी युवती के साथ उसी के एक साथी ने मौका लगाकर यह घटना घटा दी। यह घटना इसी माह गत सप्ताह 23 मई को घटी जब जागरूकता अभियान की टीम वहाँ नाटक करने गई थी। टीम के साथ अभियान के समन्वयक एवं महिला समन्वयक भी वहाँ पहुँचे थे...। बता दें कि टीम जब रात में स्थानीय शाला भवन में नाटक के लिए चली गई, समन्वयक-द्वय मंदिर पर भोजन पकाते रह गए थे, जहाँ एकांत और निर्जन में पुरुष ने महिला के साथ यह घटना घटा दी। पत्र को जानकारी देते हुए जागरूकता अभियान के एक स्थानीय कार्यकर्ता ने बताया कि माकाश (काल्पनिक) और जोहा (काल्पनिक) जब वहाँ अकेले रह गए तो यह हिंसात्मक घटना घटी। ताज्जुब कि घटना समन्वयक महोदय ने घटाई जो अपने भाषण में स्त्री की अस्मिता की दुहाई देते नहीं थकते। जो यह कहते रहे कि अगर दो व्यक्ति एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें साथ रहने की पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, लेकिन किसी भी पुरुष को यह हक नहीं जाता कि वह बिना मर्जी के अपनी पत्नी को भी हवस का शिकार बनाए! उन्हीं ने अपनी साथिन के साथ यह कुकृत्य कर डाला।
चश्मदीद ने बताया कि रात 11 बजे के आसपास जब वह प्रदर्शन-स्थल पर इन दोनों को ले जाने के लिए आया ताकि इनका भाषण करा सके, तो उसे नारी कंठ की चीख सुनाई दी। चुड़ैल के डर से पहले तो उसके पाँव नहीं पड़े मगर जब पुरुष के फचकारने का भी स्वर सुनाई पड़ा तो कान खड़े हो गए कि हो न हो, ये दीदी और सर हैं! हिम्मत जुटाकर वह आगे बढ़ गया और उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। मगर समन्वयक ने अपने प्रभाव से उसकी जुबान सिल दी। आखिर हफ्ते भर बाद उसने अखबार के प्रतिनिधि के आगे लिखित में सच्चाई कबूल कर ली। सवाल उठता है कि महिला द्वारा जो अपने पुरुष मित्र और कुलीग से छली गई, रिपोर्ट न करने पर बलात्कारी को दंड तो नहीं मिलेगा, पर क्या नैतिक दृष्टि से यह कृत्य इन लोगों के लिए उचित है जो समाज के सामने आदर्श स्थापित कर उसे शोषण, जहालत, अंधविश्वास, असमानता, अन्याय से उबारना चाहते हैं...? स्त्री की अस्मिता की रक्षा कर उसे गरिमामयी बनाना चाहते हैं...।'
नेहा ताज्जुब से भर गई। लड़के तो तब आए जब वे दोनों उन्हीं की चिंता में बगिया में टहल रहे थे! रिपोर्टर के कयास पर वह हतप्रभ थी। मौसी उसके चेहरे की रंगत देख रही थीं।
'आकाश ने रेप किया?' वे विचलित थीं।
'न-हीं।' बोल मुश्किल से फूटा।
'बताओ... इनका कैसे भला होगा!' उन्होंने बद्दुआ दी।
अपने प्रति उनके इस अडिग विश्वास पर आँखें भर आईं उसकी।
देर तक वे सिर पर हाथ फेरती रहीं। पर जाते जाते सख्त, मगर नेक हिदायत दे बैठीं, 'रात-बिरात जरा दूरी बनाकर रखना! मर्द अकेले में औरत को पाकर ऑक्टोपस बन जाता है। शिकार पाते ही जिसकी सारी भुजाएँ एक साथ सक्रिय हो जाती है!'
सुनकर जहन में कच्ची उम्र का एक दृश्य जीवंत हो उठा...। हल्की सर्दियों के दिन। माँ की तड़प ने नींद खुलवा दी थी। उम्र में छोटी और कुआँरी मौसी उन्हें बड़ी बूढ़ियों की तरह झिड़क रही थीं, 'यों ही हींसती हो घोड़ी-सी, तनिक सहन करो...।'
रात के तीन बज रहे होंगे! चाँदनी दूध में नहा रही थी। लालटेन धरकर वह डलहौजी वाला कठिन पाठ लिखने बैठ गई...। बमुश्किल चौथे की पढ़ाई। कस्बे की रिहाइस। बिजली न अस्पताल। पर थाने के पीछे ही खूब बड़ा घर! जिसके एक कमरे में तो भूसा ही भरा रहता। पापा गाय रखे थे। छोटी के हो जाने से माँ सोहर में पड़ गई। सारा काम मौसी के जिम्मे आ पड़ा। बच्चे सो जाते तब सोतीं, उठने से पहले उठ जातीं। नेहा ने उन्हें कभी लेटे नहीं देखा।
मगर उस रात जब वह सो रही थी, वही तड़प फिर सुन पड़ी जो छोटी के प्रसव पर सुनी थी। नींद में उठकर माँ के कमरे में चली आई, वहाँ उनकी नाक बज रही थी। भाई-बहन सोए पड़े थे, कहीं कोई उपद्रव नहीं। भ्रम हुआ जान बिस्तर में लौट रही थी कि तड़प फिर गूँज गई! इस बार जागते में सुनी, आवाज भूसा वाले कमरे से आ रही थी। अचरज में डूबी वह पहुँची तो, मौसी पापा के नीचे दबी थीं!
अखबार वहीं छुपाकर नेहा घर चली आई।
माँ ने पूछा, 'कोई लफड़ा लग गया क्या?'
आँखें भर आईं जिन्हें छुपाए वह बाथरूम में जा घुसी...। यूँ भी कम कठिनाई नहीं थी। इससे तो बदनामी की इंतिहा हो गई। पापा के कुलीग कानफूसी करने से बाज नहीं आएँगे! हो सकता है, वे किसी दिन वहीं से तमंचा भरकर लौटें!
दो महीने निकाल दिए, घबराहट में डूबे डूबे। तमाम उल्टी सीधी खबरें आ रही थीं। हारकर एक दिन उनके घर जा पहुँची। शाम का वक्त! घर में सिर्फ सुजाता दिख रही थी। आशंकित मन से पूछा, 'कोई है नहीं?'
'15 अगस्त की शापिंग करने बाजार गए हैं।' कहते मुस्करा पड़ी।
'15 अगस्त की शापिंग?' नेहा समझ नहीं पाई।
'कंट्री का 'बर्थ-डे' है ना!' वह खुलकर मुस्कराने लगी, 'पड़ोसी बच्चों को सेलिब्रेट करने गुव्वारे-झंडे वगैरा लेने गए हैं। केक का नक्शा बनाकर बताएँगे...'
'भाई साब!?'
'वे तो हैं...' सुजाता हँसी तो, वह झेंप मिटाती बोली, 'स्कूल के प्रोग्राम से इतनी फुरसत मिल जाएगी!?'
'सब मिल जाएगी,' वह फिर मुस्कराई, 'खेल में थकते कहाँ हैं...' कहती किचेन में उसके लिए चाय बनाने चली गई। और वह आकाश के कमरे में चली आई जहाँ वे उद्भ्रांत से सिर झुकाए बैठे थे। जैसे, सूरज सचमुच डूब गया हो!
नेहा गमगीन हो आई।
आकाश विवशता भरे स्वर में कहने लगे :
'विरोध हद से ज्यादा बढ़ गया है... अब तो सांसद तक मुँह चलाने लगा! शोभिका के हत्यारे उसके संरक्षण में हैं... एनजीओ के हित में यही लग रहा है कि मैं इस्तीफा दे दूँ!'
सुनकर वह विह्वल हो आई : 'जनता इनके लिए तोरणद्वार सजाती है...'
देर बाद आँसू पोंछ निर्णीत स्वर में बोली, 'यों तो शैतानों के हौसले और बढ़ जाएँगे! फिर वे किसी को काम नहीं करने देंगे! आपको मेरी कसम, काम छोड़ो नहीं! मैं साथ हूँ तो! जिसे रोकना हो रोक ले!'
अगले दिन वह जल्द ही टूर के लिए तैयार हो गई। ड्रायवर से उसने रात को ही बोल दिया था। वह भी इतना कटिबद्ध कि हरदम तैयार मिलता। और तो और उनकी पत्नी सुजाता भी नेहा की हाँ में हाँ मिला उठी! झिकझिक करते दोपहर तो हो गई पर उन्हें मजबूर हो उसके साथ निकलना पड़ा! और बेमन ही सही, शाम तक वे लोग तीन-चार गाँवों में घूम आए। इससे हुआ यह कि क्षेत्र में जो भ्रांति फैल रही थी, अभियान ठप हो गया... कुछ हद तक मिट गई। कार्यकर्ता को तो उत्साह का खाद-पानी चाहिए। उन्हें पाकर वे फिर जोश से भर उठे। पर वापसी में जीप एक कच्चे पहुँच मार्ग में फँस गई।
ड्रायवर गियर अदल बदल गाड़ी आगे-पीछे झुलाता रहा। हड़ गया तो इंजन बंद कर दिया।
गर्दन मोडकर नेहा ने आकाश से पूछा, 'अब?'
'कोई ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय!' वे हताश स्वर में बोले।
'गाड़ी यहीं छोडकर मेनरोड तक निकल चलें... अभी तो कोई साधन मिल जाएगा!' वह चिंतित हो आई। गोया, सिर पर पापा का खौफ मँडरा रहा था। तब ड्रायवर ने मोर्चा सँभाल लिया, 'सर! दीदी को लेकर आप निकल जायँ।'
बादल मढ़े थे। दिशाओं में संध्या फूल रही थी...।
कुतूहल से भरे कुदरत के नजारे निरखते कदम-कदम बढ़ ही रहे थे कि बारिश झरने लगी। उन्हें फिर एक बार ड्रायवर का ख्याल हो आया, उस को पापा का। मगर फिसलन से बचने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया, दिल में झींसियाँ-सी बज उठीं। फिर पता नहीं चला, अँधेरा कब उनके कदमों से तेज चलकर आ गया!
गिरते-पड़ते वे मुहांड तक आ गए।
ऐसा तिराहा जो तीन प्रांतों को जोड़ता...। इसे दो-तीन सालों से भली-भाँति जानती थी वह। नीमों की बगिया के बावजूद जो अक्सर सूना रहता। जहाँ वर्षों से गड़ी पीडब्ल्यूडी की खिड़कीनुमा दरवाजे वाली रेल के डिब्बे-सी टीन की गुमटी हमेशा कौतूहल जगाती। जब भी इधर से गुजरती, भीतर झाँक लेने की इच्छा हो आती। बारिश तेज हो आई तो उसके खिड़कीनुमा दरवाजे में होकर ही भीतर पड़े पुराने तख्त पर शरण लेना पड़ी! इच्छाएँ किस तरह पूरी होती हैं, वह चकित थी।
हवा के झोंकों के साथ पानी की तेज बौछार भी भीतर आने लगी तो आकाश ने गुमटी का वह खिड़कीनुमा द्वार भी बंद कर लिया...। संझा-आरती का वक्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी। मुरली बजाते श्याम और उन पर मुग्ध राध जहन में नाच उठे :
'ओह! राधकृष्णा का प्यार भी क्या गजब फिनोमिना है, यार!' तिलिस्म में डूबते-उतराते उसने आकाश से कहा। और जवाब में ओठ ओठों में भर लिए उन्होंने! गुमटी पर बजता बूँदों का संगीत दिल के भीतर उतर आया! वेणु बजने लगी, गोया! फिर पता नहीं कितनी बिजली कड़की, कितनी झड़ी लगी रही! एक के बाद एक कई एक वाहनों की घरघराहट गुजर गई ऊपर से तब देर बाद गुमटी से बाहर आए। जहाँ से ट्रक में चढ़कर शहर। लगता था ट्रक ड्रायवर ने जिसकी अभी मसें भीग रही थीं, उसे देखकर ही लिफ्ट दी थी! सड़क से बार-बार नजरें हटाकर वह इधर ही टिका लेता जहाँ वोनट के पार वह भीगी हुई बैठी थी! आकाश उसके भोलेपन पर रह-रहकर मुस्करा लेते।
मगर उत्साहबर्धन के बावजूद वे लाइन पर नहीं आए। महीने, दो महीने में वह जब भी मिलने जाती, वही आदर्शवादी बातें करने लगते। कहते हम सब तो सिपाही हैं। एक के गिर जाने पर दूसरे को कंधे नहीं झुका लेना चाहिए, बल्कि उसकी जगह लेकर मोर्चे पर पहले से ज्यादा मजबूती से डट जाना चाहिए। पर उसके लिए यह सब इतना आसान नहीं था। एक सामान्य से अभियान को जीवन का लक्ष्य और उसके तईं एक युद्ध जिस सेनापति ने बना दिया था, वही मँझधर से लौट पड़े तो कोई अथाह सागर को कैसे पार करे! अलबत्ता, उनकी जगह कार्यकारी समन्वयक ने ले ली थी। जीप फिर आने लगी। मगर उसने लौटानी शुरू कर दी। एक अजीब-सी नर्वसनेस और गुस्से ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। सोचती कि यह सब मेरे कारण हुआ है। सब की मुझी पर नजर थी कि एक कुआँरी लड़की कब से रात-बिरात एक विवाहित पुरुष के संग छुट्टा घूम रही है...। समाज तो दूध का धुला है! व्यभिचार कब तक बर्दाश्त करता...?
दिन-ब-दिन उसका अफसोस गहराता जा रहा था। उसने उनके यहाँ जाना और उनसे मिलना भी बिल्कुल बंद कर दिया था। महीनों से उसे घर में और लगातार घर में पाकर घर खुद हैरान था। क्योंकि घर तो उसे काटने को दौड़ता था। रेलमपेल काम निबटा, सदा रस्सी तुड़ाकर गाय-सी भागती रही थी। दिन छह महीने का होता तो शायद, छह-छह महीने न लौटती! वह तो रात की आवृत्ति ने पैर बाँध रखे थे घर की चौखट से!
पापा ताज्जुब से पूछते, 'तुमने काम छोड़ दिया...?'
वह रुआँसी हो आती। माँ टोह लेती। भीतर खुशी, बाहर चिंता जताती, 'बैठे से बेगार भली थी...। दिन भर घुसी रहती हो घर में।'
तब शायद, उसकी बनावटी पहल की दुआ से ही एक दिन उनका फोन आ गया :
'नेहा! कैसी हो-तुम...?'
'जी अच्छी हूँ!' उसका दिल धड़कने लगा।
'देखो,' वे हकलाते-से बोले, 'तुम्हें रिप्रजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है!'
'मुझे! कब...?' जैसे, यकीन नहीं आया।
'हाँ, हमें! मई में... मंत्रालय से फैक्स मिला है।'
'पर आप तो...'
'वापसी हो गई है... ब्लॉक अध्यक्ष और महिला मोर्चा की सदस्य ने मिलकर अपील जारी की थी कि ब्लाक जागरूकता समिति द्वारा विकास खंड में चलाए जा रहे जागरूकता अभियान में विगत छह-सात माह से काफी गतिरोध आ गया है। इसका मुख्य कारण प्रशासन एवं स्थानीय जनप्रतिनियों के दबाव में जिला जागरूकता समिति द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप - साधन, सुविधाओं सम्बंधी असहयोग, कार्यकर्ताओं का चरित्र हनन तथा मॉनीटरिंग के नाम पर अनाधिकृत लोगों को क्षेत्र में भेजकर कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करना है। इसी कारण जबकि ग्राम स्तर पर संचालित ट्रेनिंग सेंटर बंद होने लगे, जिला समिति की गैर जिम्मेदारी के चलते विकास खंड समन्वयक ने गत वर्ष 23 अगस्त को इस्तीफा दे दिया। इन दुर्घटनाओं से वर्तमान में विकास खंड में जागरूकता अभियान खतरे में पड़ गया है। सचिव एवं अध्यक्ष से माँग की जाती है कि तत्काल कार्यकारिणी समिति की बैठक बुलाई जाय ताकि समस्याओं का हल खोजा जा सके।' और फिर बैठक में सारे जुझारू लोगों ने तय किया कि मीडिया की परवाह न कर भ्रष्ट प्रतिनिधियों और स्थानीय प्रशासन से पंगा लिया जाय!'
'नहीं!' उसका स्वर काँप गया।
'क्यों?' वे जैसे, आफत में पड़ गए।
'जा नहीं पाऊँगी।' उसने फोन रख दिया।
badhiya update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
वह अपने पापा को जनम से जानती थी कि उनके पास एक पुलिसिए की आँख भी है। वे कभी इजाजत नहीं देंगे। उसका दिल बैठ गया था...। यह कैसी खुशखबर थी कि वह रो रही थी! दिन भर से उसने खाना भी नहीं खाया। मगर शाम को एक दूसरा ही चमत्कार हो गया! आकाश मौसी जी को लेकर घर आ गए! वे मानीटरिंग सैल में थीं। उनके होने से ही उसे इतनी छूट भी मिली हुई थी। उन्होंने आते ही पापा को झाड़ा, 'आपने उसे रोक क्यों दिया...?'
'किसे...?' उन्हें कुछ पता नहीं था।
मौसी ने आकाश की ओर देखा, वे सकपका गए, 'जी वो नेहा ने खुद मना किया है...'
'नेहा का दिमाग खराब है - क्या! कोई बच्ची है जो इतनी गैर जिम्मेदारी दिखाती है! प्रेजेंटेशन के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हम लोग कब से लगे हुए हैं...!'
वह अंदर छुपी हुई सारा वार्तालाप सुन रही थी। खुशी से दिल में दर्द होने लगा। माँ ने आकर टेढ़ा मुँह बनाया, 'जाना अब! इसी के लिए इतने दिनों से बहानेबाजी हो रही थी।' और उसने उसकी बड़बड़ाहट को नजरअंदाज कर हवाई पुल बनाने शुरू कर दिए। कोई प्यास थी जो लगातार धकेल रही थी।
तभी पापा ने अचानक मौसी जी का अपमान कर दिया! सख्ती से बोले, 'आप जाइए यहाँ से... वह कहीं नहीं जाएगी।'
'कैसे नहीं जाएगी,' वे तिलमिला गईं, 'बालिग है...'
'हाँऽ! ले जाना, तेरी दम हो तो!' वे हाँफ गए। फिर आकाश पर झपट पड़े, 'आप जाइए यहाँ से, उठिएऽऽ!' उन्होंने मानों डंडा लेकर उन्हें खदेड़ दिया। तब मौसी भी अपना मुँह लाल किए बड़बड़ाती उठ गईं कि - बड़े आए पुलिसिए... हम तुम्हें कोर्ट में घसीट लेंगे।'
'घऽसीट लेना, जाऽ!' पापा सड़क तक पीछा करते, चिल्लाते चले गए!
कॉलोनी भर में थूथू हो गई। घर में माहौल इतना कड़वा और खौफनाक हो गया कि उसे दहशत होने लगी। मई अभी दूर थी! अभी से धमाल मचाने की क्या जरूरत थी? रोते-रोते बुरा हाल था... आँखें सूज गईं।
बात यहीं निबट जाती तो गनीमत थी। उन्होंने तो भाई से कह दिया :
'हाथ-पैर तोड़ दे इसके। बाँध के डाल दे कमरे में। देखें कैसे जाती है बाहर... कैसे मिलती है उससे।'
और वह खूँख्वार कुत्ते की तरह लग गया पीछे।
अब तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी नेहा की! फोन तक करने में रूह काँपती। मौका लगाकर एक दिन आकाश को हकीकत बतलाई। उन्होंने धीरज बँधाया और रास्ता सुझाया कि - एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र न्याय व्यवस्था में अपाहिज नहीं है कोई! तुम कानून की मदद ले सकती हो। पर ख्याल रखना, अपने अभियान का नाम न ले दीगर गतिविधियों का हवाला देना। नहीं तो हमारे जातीय संबंधों की आड़ ले वे केस कमजोर करा देंगे!'
तब उसे एक उपाय सूझा। शहर से बाहर के एक कॉलेज ने परीक्षा ड्युटी के लिए गेस्ट फैकल्टी में उसे बुलाया था। पुलिस और आकाश को आवेदन की कॉपी दे वह ज्वाइन करने चली गई। पर उसके लौटने के पूर्व ही एक दीवान उसकी रिपोर्ट मि. के एम शुक्ला को वापस कर गया। जिसे भाई माँ तक को जोर जोर से पढकर सुनाने लगा :
'यह कि मैं कुमारी नेहा शुक्ला पुत्री श्री के एम शुक्ला एक शिक्षित युवती हूँ। मैंने एम.ए., बी.एड किया है तथा वर्तमान में पीएचडी कर रही हूँ। एनवायके ब्लॉक अटेर की युवा समन्वयक रही हूँ। मैं ऑल इंडिया वोमैन एसोसियेशन (एपवा) की जिला संयोजिका होने के नाते 5 व 6 अप्रेल को लखनऊ में होने वाले महिला सम्मेलन में भाग लेने वाली मध्यप्रदेश की दो महिलाओं में से एक हूँ। 33 फीसदी महिला आरक्षण के सवाल पर 30 अप्रैल को राष्ट्रीय संसद मार्च में जिले से मैं अपने संगठन की ओर से 200 महिलाओं को ले जाना चाहती हूँ, जिसके लिए मैं सक्रिय प्रयास कर रही हूँ...।
आज दिनांक 17 मार्च को मैं शासकीय महाविधालय मेहगाँव में अतिथि विद्वान के रूप में ज्वॉइन होने जा रही हूँ।
मेरे घर वाले, पिता व माँ व भाई मेरी सक्रियता और महिला आंदोलन में भागीदारी के कारण अत्यंत नाराज हैं। वे मेरे विकास में बाधक बन गए हैं। वे नहीं चाहते कि मैं घर से बाहर सामाजिक व राजनैतिक कार्य करूँ। मेरे कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के भी वे खिलाफ हैं। वे मेरे अपूर्ण पीएचडी अध्ययन को भी रोक देना चाहते हैं।
मुझे अपने जीवन, सम्मान तथा अधिकारों के लिए अपने घर वालों से अत्यंत खतरा है। उन्होंने मुझे गंभीर परिणामों की भी धमकी दी है। वे मुझे घर में बंद करके मेरे साथ कुछ भी अनिष्ट कर सकते हैं। मैं अपने घर वालों की महिला विरोधी मानसिकता से परिचित हूँ। मैं बहुत आतंकित हूँ व अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही हूँ। अतः निवेदन है कि उक्त तथ्यों के आलोक में मेरे जीवन, सम्मान व अधिकारों की सुरक्षा करने की कृपा करें ताकि मैं निर्बाध रूप से पूर्व की भाँति अपने विकास और महिला आंदोलन में सक्रिय भागीदारी कर सकूँ।'
भाई ने अपने माथे से पसीना पोंछा और एक लंबी साँस खींचकर दैत्यों सा कठोर चेहरा बनाकर बैठ रहा। बचपन में जो बड़ा भोला और मासूम दिखता था, नेहा से बात-बात में लड़ता-झगड़ता रहता था, पिता के साथ मम्मी से छुपकर सफेद आलू गपागप कर जाता था, वही अब पूरा पोंगा पंडित हो गया है। ब्रह्मगाँठ वाला जनेऊधारी, आसाराम बापू की बड़ी तस्वीर के आगे घंटों हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला भीरु! बाबाओं के मकड़जाल में उलझा, सिद्ध-स्थानों के चक्कर काटता मूर्खानंद! नेहा को उसकी सूरत तक नहीं भाती अब...।
और माँ तो रिपोर्ट का नाम सुनकर ही सन्न रह गई थी। जिस पर उसमें दर्ज शिकायती बयान ने तो उसके हाथ-पाँव ही फुला डाले। वह मि. के एम शुक्ला से तकरीबन 5-7 साल छोटी एक प्रौढ़ स्त्री है जो घरेलू होने के कारण मोटी-थुलथुल और चिड़चिड़ी हो गई है... स्वर कतई बेसुरा... कि राहत मिलते ही काँख उठना जिसकी प्रकृति हो गई है! वह माँ अपनी कौड़ी सी आँखें निकालकर बोली, 'जि सब तुम्हरी ढील का मजा हय, दारोगा जी... अब भुगतौ!'
पंडिज्जी बीड़ी पीते-पीते खाँसने लगे, जैसे पत्नी को मुँहतोड़ जवाब दे रहे हों। भाई उठकर तंबाखू मलते-मलते गोया अपने हाथ मलने लगा।
हालात बेकाबू बेशक होगए, पर लड़की आज लौट तो आए... अब तो उसकी छाया भी नहीं जाएगी इस घर से बाहर, लाश भी नहीं।'
बहन सोचती कि इसके भाग्य में तो काँटे बदे हैं। यह निर्लज्ज, कामपिपासु हमारे खून की प्यासी बन बैठी है। यह लड़की नहीं राक्षसी जन्मी है। दुनिया भर की छोत, कुल्टा, बेहया, पिछले जन्म की बैरिन, डायन, साक्षात मसान!'
ऐसी जली-कटी सुनते बहुत दिन हो गए हैं। अब तो जैसे आदी हो गई है वह। ये बातें घर में न हों तो, बहम होता है कि यह उसका ही घर है! और यूँ तो ये बातें पिछले लगभग तीन बरस से चल रही हैं, लेकिन डेढ़-दो महीने से तो इनकी हद हो गई है। कैसेट जैसे, बार-बार रिपीट की जा रही है। रिकार्ड प्लेयर कभी भाई बन जाता है, कभी पिता तो कभी दोनों बहनें।
ऐसा क्यों कर हुआ? वह खुद नहीं समझ पा रही। वह तो बहुत आज्ञाकारिणी थी। कॉलेज से लौटी हो या बाजार से... धूप में तमतमाया चेहरा, कपड़ों-बालों और शरीर से चिनगारियाँ और चाहे आग की लपटें क्यों न फूट रही हों... कि माँ ने सख्ती से कहा, 'जा, बरफ ले आ!' मेहमान को भी दया आ जाती, 'ए, उसे न भेजो, दम ले लेने दो। बाहर आग बरस रही है!' लेकिन माँ, साक्षात चंडी, आँखें निकाल उठती, 'जा, सुनाई नहीं दी?' और वह पलट लेती।
बीमार पड़ती, तो पिता होम्योपैथी के ज्ञान से साबूदाने-सी गोलियाँ चुगने को दे देते और वह लोटपीट कर दुरुस्त हो लेती। और फिर से छोटी को रोज स्कूल-कॉलेज-ट्यूशन ले जाती, ले आती साइकिल पर धर कर। बड़ी को गाइड के घर ले जाती और भैंस सी मोटी मम्मी को बैंक, तो कभी दरगाह-मंदिर और शहर भर की रिश्तेदारियों में घुमाती फिरती...। जैसे, वह बँध हुआ साइकिल-रिक्शा हो घर का। इसके अलावा पिछले पाँच बरस से डाकघर बचत योजना की एस.ए.एस. भी। अकेले दम पर सवा तीन सौ बचत खाते खुलवा रखे थे। सबका हिसाब, सभी खातेदारों से हर माह चक्कर लगाकर किस्त वसूलना और डाकखाने में एलोट जमा करना। रोज खड़ी रहती वह डाकखाने की खिड़की पर बाबुओं के आगे लेजरों में सिर खपाती। बाद में यह काम तो भाई ने सँभाल लिया। लेकिन घर की छोटी-मोटी सिलाई, बर्तन, दोनों वक्त का खाना। आए-गए के लिए चाय। नियमित झाड़ू-पोंछा और खाट-बिछौना तक...। यह सब तो अब तक नहीं छूटा। गोया, वह कोई खानदानी बेगारी हो! उसके रहते हैंड पंप से कोई पानी नहीं निकालता।
उसकी दुर्दशा पर आकाश चिढ़ते तो वह आत्मविश्वास से भरकर कहती, 'मैं अपने काम करने की आदत बनाए रखना चाहती हूँ।'
वे कहते, 'तुम प्रेसर में हो...'
वह कहती, 'नहीं, मुझे कोई प्रेसर में नहीं रख सकता। मैं तो इसलिए इन सब की नौकर बनी हुई हूँ, ताकि जब मैं इस घर से काला मुँह कर जाऊँ, तो ये बत्ती जलाने-बुझाने तक के लिए मेरे नाम की आहें भरें।'
अजीब फलसफा था उसका। आकाश कायल हो जाते, 'तुम जिसे मिलोगी, बहुत भाग्यशाली होगा।'
वह चिढ़ जाती, 'मैं व्यक्ति नहीं हूँ क्या...? मेरी स्वतंत्र सत्ता नहीं है क्या...? क्या जरूरी है कि मेरे नाम के आगे कोई उपनाम चस्पाँ हो...?'
और आकाश उसकी विचारधारा से अभिभूत मूक रह जाते। ऐसे ही तीन साल कट गए। पता भी नहीं चला!
रिपोर्ट डालने के बाद उसने सोचा, अब तो राहत की साँस मिलेगी। पुलिस कुछ तो मदद करेगी। डर गए होंगे उसके पापा, भैया और मम्मी वगैरह। किंतु उस अनुभवहीन को यह पता नहीं था कि उन लोगों के साथ पूरी दुनिया है!
लौटते ही उसे कैद कर लिया गया। न किसी से मिलने दिया जाता, न घर की देहरी लाँघने दी जाती। तब वह जबरन निकली और भाई से पिटी। माँ से बोल-कुबोल सुने। पिता से गँवारू डाँट खाई...। एक दिन छत से पड़ोस के घर में कूदकर वह एक एजेंट-कम-पत्रकार को अपने डिटेंशन का प्रेसनोट बनाकर दे आई। लेकिन उस बुजदिल ने उसे प्रकाशित नहीं कराया।
अपनी मुक्ति के लिए वह सीजेएम के यहाँ भी पेश होना चाही, पर कायर वकील ने ऐसा नहीं होने दिया। आकाश इसलिए सामने नहीं आए कि फिर लड़ाई आमने-सामने की हो जाती।
तब घर लौटकर उसने फिर एक बड़ी मार खाई और नौ दिन तक भूख हड़ताल रखी। संयोग से वे नौ दिन चैत्र नवरात्र में पड़ गए। सो वे 'सर्वमंगल मांगल्ये' जाप करते कट गए। पर घर नहीं पिघला। उल्टे उसे छत के कमरे में बंद कर दिया गया। रोज सुबह नैमेत्तिक क्रिया के लिए निकाला जाता और फिर से वहीं ठूँस दिया जाता। जैसे किसी खूँख्वार कुत्ते की जंजीर खोलते हैं फरागत भर के लिए और फिर बाँध देते हैं खूँटे से। खिड़की से खाना डाल दिया जाता।
यों दिन पर दिन गुजरते चले गए। उन दिनों नेहा जेल की काल कोठरी के अनुभवों से गुजर रही थी। उसे फिर एक सुराग हाथ आया। अब की बार उसने पिछली खिड़की से नीचे गली में कागज के पुर्जे लिख-लिखकर फेंक दिए :
कि - यह मेरे लिए कालापानी की सजा है।
कि - मैं यहाँ घुट रही हूँ।
कि - यहाँ मेरी लाश भी नहीं बचेगी।
हाय - अब मैं और देरी सहन नहीं कर पाऊँगी...।
पुर्जे महिला संगठनों तक पहुँचे। क्रांतिकारी दलों तक पहुँचे। बैठकें हुईं। समीक्षाएँ हुईं। और अंततः नुमाइंदे यह निष्कर्ष निकाल कर चुप हो गए कि यह घरेलू मामला है। आखिर माँ-बाप ने जन्म दिया, पढ़ाया, पाला-पोसा, बड़ा किया - वे जो चाहें सो करें उसका। हम क्यों अगुआ बनें...?'
वह टूटने लगी। आकाश से अवैध संबंधों को लेकर शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो उठा। अब एक चिड़िया भी नहीं थी उसकी तरफ। आकाश की भी लानत-मलामत होने लगी। मित्रों और परिचितों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए उनके तईं। सहायता की कोई किरण न बची। तब जाकर उन्होंने नेहा की रिपोर्ट निकाली और उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका दायर करा दी।
पर पहली पेशी का नोटिस आते ही माँ-बहनों ने उसका ब्रेनवास करना शुरू कर दिया :
'जानती हो, तुम आजाद होकर अलग रहीं तो, हमारा हुक्कापानी बंद हो जाएगा। एक भाई तो चला ही गया। इसका भी ब्याह न हुआ तो वंश की नाठ हो जाएगी। छोटी का भविष्य बिगड़ जाएगा। बिरादरी बाहर हो जाएँगे हम लोग। तुम्हारे बयान से पापा और भैया जेल में सड़ जाएँगे। हम सब जहर खाकर मर जाएँगे। बोलो, इसी में राजी है तुम्हारी?'
उसे दिन रात एक ही गीत सुनाया जाने लगा।
वह विचलित होने लगी।
किंतु जब गहराई से सोचती तो पाती कि आकाश सत्यारूढ़ हैं। वैयेक्तिक स्वातंत्र्य के पक्षधर। अस्मिता के पोशक। न्यायहित शहीद होने को तत्पर। और पिता, बहन, भाई और माँ हैं जाति और परंपरा के रक्षक। स्त्री को स्त्री और आश्रिता बनाए रखने वाली पुरुष प्रधन व्यवस्था के पहरेदार।
क्या करे वह...? अनिर्णीत है वह! इधर कुआँ और उधर खाई है। काश! उसे इसी क्षण मौत आ जाए। सारे द्वंद्व, सारा संत्रास घुल जाय एकदम।
गर्मियों की सुबहें। चिड़ियाँ जल्दी बोलने लगीं। घर में जगार हो गई थी। टट्टी-दातून का क्रम जारी हो रहा था। अदालत में पेशी थी। सब लोग जल्दी जल्दी तैयार हो रहे थे। उसके मन में कोई उत्साह नहीं। वह प्रार्थना कर रही थी कि पेशी से पहले खुदा उससे उसकी आखिरी साँस छीन ले तो ठीक रहे।'
घर वाले कहते, यह विडंबना उसने स्वयं बुलाई है। हाँ! उसी का तो किया धरा है यह सब! उसी ने तो अपने माँ-बाप और भाई की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई! पापा की बदौलत कोई सुनवाई न हुई तो हाईकोर्ट में याचिका दायर करवा दी कि उसे घर में कैद कर लिया गया है। उसका अध्ययन और नौकरी छुड़ा दी गई है। उसके बाहर आनेजाने पर सख्त पाबंदी लगी है। उसे अपने भाई और पिता से जान का खतरा है...। और यह कि - वह स्वतंत्र होकर अलग रहना चाहती है इन लोगों से!'
पर यह संभव नहीं है। उसका वकील भी यही कहता था, सभी बुद्धिजीवी मित्र और सहेलियाँ भी... कि एक अविवाहित लड़की का इस समाज में स्वतंत्र होकर अकेले रहना संभव नहीं है। और उसका मानना है कि - जब तक आत्मनिर्भर स्त्रियाँ और स्वतंत्र माताएँ अस्तित्व में नहीं आएँगी, तब तक महान संतान जन्म नहीं लेगी। जिसके अभाव में हँसती हुई मनुष्यता कभी पैदा नहीं होगी संसार में...।'
स्वजन उसे मूर्ख, पागल, सिरफिरी और न जाने क्याक्या समझते हैं। सबसे ज्यादा तो यह कि - उसके सिर पर उसके पुरुष मित्र का जादू चढ़ गया है...।
वह विक्षिप्त है। वह सामान्य नहीं है। सामान्य और समझदार लड़की गहना चाहती है। अच्छा घर-वर चाहती है। सुविधाओं से लक्दक और सम्मान से भरपूर गृहस्थ जीवन चाहती है। उच्चकुल का सुंदर-सुशील, ओहदेदार और रॉयल पुरुष चाहती है। सचमुच इसका तो सिर फिर गया है!
सिर भारी था। लेकिन वह फ्रेश हो ली।
jordaar update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
धूप निखर आई थी...। छोटी का जब से ऑपरेशन हुआ है, पलंग पर ही पानी माँगती है। पर आज उसने छोटी की तीमारदारी नहीं की। भाई कमाता है, तो अपने लिए भी नहाने को बाल्टी नहीं भरता। वही रखती थी। पर आज उसकी भी बाल्टी नहीं खींची उसने हैंड पंप से। दौड़-दौड़ कर पापा को निकर, बनियान, तौलिया, साबुन, तेल नहीं दिया। कौर तोड़ने के बीच उठकर मम्मी का ब्लाउज या छोटी की सलवार मशीन पर नहीं धरी, उधड़ी सींवन के लिए! किसी काम को हाथ नहीं लगाया। आज जैसे कि रुखसत हो रही थी वह इस घर से सदा के लिए...।
लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी, हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आंतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'
ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?
- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।
जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।
फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।'
'कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?'
'ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।'
'वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की।
और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।'
'सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?'
'जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'
इजलास में शांति छा गई।
दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।
कहा - 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'
और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?'
'नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन इंद्रधनुष एक साथ दिखाई देने लगे :
- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!
- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!
- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!
फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!
बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!
भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।
अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूंड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'
माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'
इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!'
नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशीपूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक मई में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।
और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ चली गई थी। उसी घर में जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!
ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले मई के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धेने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बँधने और मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।
कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।
लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?'
'नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।
आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आंबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'
आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।'
आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।'
इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।
- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।
झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।
rochak update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
डाइनिंग हाल से निकल कर वे होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यू सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे। नेहा को देख खासा चपल हो उठे। थोड़े से नशे के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, 'इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी आर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु अवेल ए चांस!'
और आकाश हर बात पर 'जी' 'जी' कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमंडेशन पर मिलने जा रही थी। बीच में वे किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ गए तो मैथ्यू सर ने उसका दिमाग चाट लिया!
'पता है, विवाह के समानांतर एक नई व्यवस्था चल पड़ी है, लिव-इन रिलेशनशिप!?'
'जी!'
'अगला प्रोजेक्ट इसी पर लाना है तुम्हें!'
'पर उधर तो अभी शुरुवात नहीं हुई, सर!'
'उसमें क्या, तुम्हीं कर-दो!'
'...'
'बोलो-तो...?' नशे में वे अड़ गए।
पैसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़ेपन पर वह शर्म से मुस्कराने लगी। पर रूम में आकर यकायक सीरियस हो गई। फैसला याद आने लगा :
'पिटीशनर इज ए मेजर लेडी... इज एट लिबर्टी टु मूव एंड टु लिव अकार्डिंग टु हर विल, सिंस शी हेज द केपेसिटी टु डिसाइड व्हाट इज रोंग एंड व्हाट इज राइट फोर हर वेलफेयर।'
आकाश से कुछ देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद साड़ी पहने ही बिस्तर पर अधलेटी हो आई, जैसे सजधज कर फिर किसी समारोह में जाना हो!
वे भी सजे-धजे सोफे पर बैठे न्यूज देख रहे थे।
टीवी की आवाज, रातदिन की थकान और भोजन के नशे के कारण उसकी पलकें झुकने लगीं...। कुछ देर तो आँखें ताने स्क्रीन देखती रही, फिर झपक गई और सपना देखने लगी कि - घर में भीड़ भरी है और मेरी उनसे शादी हो रही है!
मम्मी मान नहीं रहीं। मैं रो रही हूँ...।
फिर देखा, कि वे अचानक बहुत छोटे हो गए है...। उससे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँसकर मान गई हैं! पर वह घबराई हुई पड़ोस के घर में जा छुपी है...आकाश ढूँढ़ते फिर रहे हैं!'
झंझावात में नींद टूट गई। टीवी पर न्यूज नहीं, 'लव-यू लव-यू, किस-मी किस-मी' का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके उसी को ताक रहे थे! स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई, कपाट से काँख में वस्त्र दबा बाथरूम में चेंज करने चली गई। तब उन्होंने भी परदे के पीछे जाकर कपड़े बदल लिए। मगर संकोचवश फिर से सोफे पर आ बैठे। बिस्तर पर जाने की हिम्मत न हुई। नेहा चेंज करके लौटी तो, वे उसे फूलों-से हल्के श्वेत गाउन में देख ठगे-से रह गए।
कपाट बंद कर वह सोफे के नजदीक से गुजरती मंद मुस्कान के साथ बोली, 'आज सोना नहीं है!'
'नहीं, आज तुम सुंदर लग रही हो!'
'अच्छा...' कहते हँस पड़ी। और वे उसके कंधें पर झूलते गोलाकार शेप के स्याह बालों पर मुग्ध, अभियान का एक गीत गुनगुना उठे, 'सारी दुनिया अपनी है, बस बाँहें फैलाना तुम...'
'कोर्टफीस चुकानी पड़ेगी क्या?' चहक कर पूछा उसने और बत्ती बुझा पहुँच गई बिस्तर में।
इशारा समझ दिल में हूक उठने लगी।
सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और वह थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि अब शायद वह एक ऐसी स्त्री बन जाय जो उनसे संबंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद उसे सफलता मिले! परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रांति के बीज उसके मन में उपज रहे थे। और फूल से झड़ते चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे...।
पर दिल्ली से लौटकर उसका अपने घर में रहना मुश्किल हो गया। पिता, भाई, माँ और बहनों को वह बेहया, कुल्टा और बंचक नजर आती थी। एक ऐसी स्वेछाचारिणी स्त्री जो बारिश से बौराई छुद्र नदी की भाँति किनारे तोड़ बह उठी हो। महसूस होता कि उसके तो रंग-ढंग ही बदल गए! अब वह निर्भीक हो जाने-आने लगी थी...। कोई कुछ इसलिए न कहता कि हाईकोर्ट का डंडा था। पुलिस का आदमी यों भी घर और समाज के लिए शेर मगर कोर्ट के लिए गीदड़ होता है। भाई, बहनें और माँ भी शिकंजा कसतीं तो क्या पता कोई बवाल उठ खड़ा होता! वे उस दुराचारिणी को पहले की तरह डिटेंशन में नहीं रख सकते थे। मारपीट से तो बड़ा लफड़ा हो जाता। कहो, केस लग जाता... पंडिज्जी की नौकरी चली जाती।
बेरुखी बरत सकते थे, सो बरतने लगे। कोई उससे बात न करता। न कोई खाने-पीने की पूछता। दीदी की अबोध बालिका कंचन जरूर उसके मुँह आ लगती। पर नजर पड़ते ही वे उसे पीटते हुए घसीट ले जातीं। माहौल इतना कसैला हो गया था कि घर में कदम रखते ही उसका दम घुटने लगता। रात जैसे-तैसे गुजारती, सुबह होते ही भाग खड़ी होती। यों भी स्वीकृति और फंड मिल जाने से काम जोरों पर था। उसके लिए अलग से एक जीप मिल गई थी। वह स्वयं ही अपना टूर प्रोग्राम बनाती और लगातार दौरे कर अभियान को रफ्तार देती जाती...। मगर घर की बेरुखी बर्दाश्त नहीं होती। आकाश से कहती और वे चिंतित हो जाते।
एक दिन उन्होंने पत्नी से कहा, 'सुजाता, तुम कहो तो नेहा को हम यहीं रख लें!'
उसने सोचा, मजाक कर रहे हैं, बोली, 'रख लो, तुम में ताकत हो तो!'
'सो तो है...' वे मुस्कराने लगे। मगर हिम्मत नहीं पड़ी। पत्नी के अलावा बेटा-बेटी भी तो थे। बेटी दसवीं में, बेटा आठवीं में...। आजकल के बच्चे माँ-बाप से ज्यादा होशियार हो गए हैं। पति-पत्नी के झगड़े वाले टीवी सीरियल्स और पत्र-पत्रिकाओं में आएदिन छपने वाले तलाक के वाकयों ने उन्हें सजग कर दिया है। वे सब जान जाएँगे। कैसे स्वीकारेंगे यह सब!' उन्हें तनाव रहने लगा।
हारकर फिर यही रास्ता निकाला कि एक रेजीडेंसियल कार्यालय बनाया जाय...।
महिला समन्वयक के लिए यों भी एक स्वतंत्र कार्यालय की जरूरत थी। वही नेहा का घर भी हो जाएगा! सो, उन्होंने एक पॉश कॉलोनी में ऐसा एक घर किराए पर ले लिया। उद्घाटन पर स्थानीय विधयक और जिला कलेक्टर के साथ क्षेत्रीय महिला कार्यकर्ताओं को भी बुलाया गया। कॉलोनी को जोड़ने वाली मुख्य सडक पर तोरणद्वार और वहाँ से कार्यालय तक सड़क पर रंगत डाली गई। द्वार पर छोटी-बड़ी कई रंगोलियाँ बनाई गईं। महिलाओं का उत्साह उस रोज देखते ही बनता था। नेहा हीरो थी उस आयोजन की। वही संचालिका भी। उसी ने विधायक और कलेक्टर को गुलदस्ते भेंट किए। झनझना देने वाली स्पीच भी। जिसके बाद सभी एक ऐसे जुनून से भर उठे कि परिवर्तन की आँधी को अब कोई रोक नहीं सकेगा।'
गा-बजाकर वह उसी घर में रहने लगी। घर वालों को अब कोई उज्र न था। जैसे, उससे कोई नाता ही न था। नाक कट गई समझो। केस हाईकोर्ट न गया होता तो काटकर नदी में बहा देते। पर अब तो हाथ बँधे थे। उन्होंने आँखें मूँद लीं। और आकाश के लिए यह सरलता हो गई कि वे टूर से लौटकर यहाँ निर्विघ्न ठहर जाते। दो कमरे कार्यालय के लिए और दो रहने के लिए। क्षेत्र की महिला कार्यकर्ता आ जातीं तो वे भी ठहर जातीं। दो किचेन, दो बाथरूम थे। छत पर बरसाती। मेहमान बढ़ जाने पर वहाँ भी फर्श डालकर सोने में भी कोई संकट न था। यों सब कुछ गिरफ्त में था लगभग...। पर उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार हुई जा रही थी। आकाश को फिर से पाने के लिए वह बाबाओं, तंत्र-मंत्र, मठ-मंदिरों के मकड़जालों में फँसी जा रही थी। खाँद के नीचे सड़क से लगा बूढ़े हनुमान का मंदिर उन दिनों काफी मशहूर हो गया था। सुजाता अपने बेटे हनी के साथ वहाँ दो-तीन बार हो आई थी। वहाँ उस जैसे वक्त के मारों की भीड़ लगी रहती थी।
सुजाता एक अधपकी औरत। जिसकी जवानी चली गई थी मगर बुढ़ापा अभी आया नहीं था। वह तो नितांत एक घरेलू स्त्री रही आई थी। थकान और ऊब के कारण बरसों से जिसने अपने शौहर के कमरे में जाना छोड़ दिया था...। पर इसका मतलब यह होगा, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। वह तो समझती रही कि जैसे मैं घर-गृहस्थी में खप कर देह का जादू भूल बैठी, वे भी वकालत के बोझ और आंदोलन की चखचख से थक-हारकर विरक्त हो गए होंगे!
पर यह क्या हुआ?
अचानक पता चला कि उन्होंने दूसरा ब्याह कर लिया...।
उसने धरती-आसमान एक कर दिया। भाई को तार देकर बुला लिया और अदालत जाने की तैयारी कर ली! तब पता चला कि ब्याह नहीं किया। वे तो 'लिव-इन रिलेशनशिप' में रह रहे हैं।
- यह क्या होता है!' वह हतप्रभ थी...।
जानकारों ने बताया कि स्त्री-पुरुष अपनी मरजी से बिना किसी अनुबंध के साथ रहना शुरू कर देते हैं। यद्यपि उनका आपसी संबंध पति-पत्नी सरीखा ही होता है, पर इसमें कानूनी या सामाजिक विवाह जैसा कुछ नहीं होता। स्त्री को अदालत से माँगने पर अधिकार मिले तो मिले... दोनों में से कोई किसी और के साथ जाना चाहे तो कोई दावा नहीं चलता!' पर उसके तईं तो यह भी कम खतरनाक न था। उसके होते वे किसी और के हो जायँ, यह उसके स्त्रीत्व के लिए चुनौती थी!
हायतौबा से आकाश मानने को बाध्य हुए कि उनसे गलती तो हुई है। पर ये बड़ी जरूरी गलती थी। वे फिसले नहीं, बल्कि अपनी भीतरी जरूरत-वश नेहा से जुड़े। उनके लिए इस रिश्ते को नकार पाना अकल्पनीय है...। वे नेहा को साथ लेकर भी पहले की तरह अपने घर में रह सकते हैं। अपने दायित्वों को निभा सकते हैं।'
पर उनकी बेटी श्रेया ने इस प्रस्ताव पर थूक दिया। वह माँ की जगह खुद को देख रही थी। तय यही हुआ कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए।
आकाश-नेहा के लिए यह परीक्षा का वक्त था। बेटी बहक सकती थी। बेटा भटक सकता था। कहाँ वे जमाने भर को भटकने बहकने से बचा रहे थे! एकजुट कर उन्हें उनके अधिकार दिला रहे थे। समाज से अन्याय, शोषण, जहालत, अंधविश्वास मिटा रहे थे। कहाँ उनके बेटा-बेटी ही हक से महरूम हो रहे... पत्नी अंधविश्वास की गुंजुलक में जकड़ने को विवश!
वे अलग रहकर भी सुजाता के घर आते-जाते रहे। यह अलग बात थी कि इस आवाजाही के कारण उनका कोई त्यौहार सुख से नहीं मना। सुजाता की आँखों में अपमान का प्रतिशोध और जुबान पर हक मार लेने की कुंठा का तलछट जमा रहता।
यहाँ आकर हर बार आकाश-नेहा बुरी तरह आहत हो जाते। बेटी, नेहा को हिकारत से देखती। आकाश, बेटे तक से नजर नहीं मिला पाते। जिंदगी अवसाद का घर हो गई थी। इसके बावजूद आकाश-नेहा एक-दूसरे को ऐसे पकड़े थे, जैसे डूबने वाले तिनके को पकड़ लेते हैं!
सुजाता को अब वे ही रातें याद आतीं, जिनमें वह अनिच्छा प्रकट किया करती थी। और वे अवसर जिन पर वह पति के साथ जाना टाल जाती। उनकी पसंद को दरकिनार कर बच्चों की पसंद बन गई सुजाता को अब वे कोमल क्षण भी याद आते जिनमें आकाश की भावुकता और चाहत को बड़े हल्के से ले लेती वह और सहेलियों, डिजाइनों, पकवानों, मर्तबानों में बिजी बनी रहती...।
वह खुद पर खूब खीजती, पर ये बातें किसी को नहीं बताती अब...। उसे अच्छी तरह एहसास हो गया था कि वह पति को भरपेट भोजन नहीं दे पाई। भोजन केवल सेक्स नहीं होता। उसकी अभिरुचि बनना और दोस्त बनना भी होता है, शायद!
यह मौका अब फिर से पाना चाहती थी, वह!
श्रेया भी खूब टैंज रहती।
हनी इन दोनों की बिगड़ती शक्लों, चिड़चिड़ेपन और घर के बिगड़े रूटीन को झेलते-झेलते बड़ा संवेदनशील हो चला था। अपने मन की किसी से कह नहीं पाता। उसे कोई दोस्त चाहिए था, संबल की तरह, वह ज्यादातर घर से गायब रहता।
सुजाता ने हरचंद कोशिश की, बिगड़े घर को बनाने की, पर उसका प्रयास उल्टी दिशा से चालू हो रहा था। उसने बच्चों को सहेजने और दांपत्य की यथास्थिति को स्वीकारने के बजाय अपने बनाव-शृंगार पर ध्यान केंद्रित कर दिया। वह नेहा से ज्यादा जवान और खूबसूरत दिखने के प्रयास में ब्यूटीपार्लरों में जाने लगी। उसने टीवी के सीरियलों पर भी ध्यान केंद्रित किया और भावुक प्रसंगों के सेंटिमेंटल कर देने वाले डायलोग रट लिए।
सजधज कर एक बार वह नेहा के कार्यालय जा पहुँची जहाँ आकाश रहने लगे थे। नेहा थी नहीं, वह फील्ड में गई थी और वे कंप्यूटर पर बैठे डाटा भर रहे थे। सुजाता के आते ही कमरे में खुशबू भर गई। वे उसकी दुल्हन-सी सजधज बड़े कौतुक से देखते रहे। पर कोई आकर्षण न बना। वे उन लोगों में थे ही नहीं जो स्त्री को देखते ही लट्टू हो जाते। उनके तईं मन का मेल अहम था...। मुस्कराए जरूर पर जैसे भिड़े थे, भिड़े रहे। इस बीच सुजाता ने उनके करीब अपनी कुर्सी खींच सटने की नाकाम कोशिश भी की। भावुक प्रसंगों के भावुक कर देने वाले सारे डायलोग भी बोले, मगर वे हँस मुस्करा कर रह गए।
सुजाता इन प्रयासों से भी आकाश को न रिझा सकी तो मोहल्ले-पड़ोस की सलाह पर उसने खाँद वाले बूढ़े हनुमान की तरफ रुख कर लिया...।
और चमत्कार यह कि पहली बार में ही बाबा ने भाँप लिया कि वह एक परित्यक्ता स्त्री है। बाबा का क्लीनशेव्ड गुलाबी मुख, ऊपर को काढ़े गए बेहद काली चमक वाले घुँघराले बाल, काली चमकदार आँखें और बेहद आकर्षक चितवन, केशरिया बाना... कुल मिलाकर इतना सम्मोहक व्यक्तित्व कि वह ठगी-सी रह गई। कुछ कहते न बना।
मुस्करा कर बाबा ने उसे एक काला चमकदार मनिया दे दिया, इस हिदायत के साथ कि - काली नख में डालकर अपनी कमर में बाँध ले!'
हनी साथ में था। बाबा ने उसे देखा तो कुछ देर देखते रहे। फिर संकेत से निकट बुलाकर बैठा लिया। पहले सिर पर, फिर उसके चिकने गालों पर देर तक हाथ फेरते रहे और आँखें मूँद लीं। अस्थान पर जाने से सुजाता को बाबा के अभ्युदय के बारे में विस्तृत जानकारी मिल गई थी...।
mast update.
 

Nevil singh

Well-Known Member
21,150
52,928
173
अस्थान तो नया था, पर मंदिर पुराना था। शहर से कोई आठ-दस किलोमीटर चलने के बाद खाँद उतरते ही दाएँ बाजू बूढ़े हनुमान का एक प्राचीन मंदिर था। जहाँ आकाश के साथ वह बाल-बच्चे होने से पहले दो-चार बार घूम गई थी। हनुमान की इस विराट और चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी मूर्ति को देखकर उसका मन बड़ा आप्त हो आता था। वासना दूर भाग जाती थी। और वह श्रद्धावनत होकर वैराग्य भाव से सराबोर हो उठती थी। यह मूर्ति की ही खासियत थी कि उसका दर्शन दर्शक के चित्त को संसार की असलियत यानी नश्वरता से अवगत करा देता।
वे जब भी मंदिर आते, रोड पर ही एकाध किलोमीटर और आगे तक बढ़ आते। सड़क किनारे ही एक गाँव पड़ता। उसके बाद नदी। और नदी पर रपट। रपट पर पहुँच कर वे नदी की किलकती धर में अपने पाँव डाले रहते। वहीं किनारे पर बैठकर लंच लेते, कपल्स की भाँति पिकनिक का पूरा आनंद उठाते। उन्हें दोस्तों की जरूरत न होती थी उस कालखंड में।
पर वह सब बहते पानी के साथ बह गया है... दूर-दूर तक अब तो उसके अवशेष भी नहीं दिखते। सुजाता के पास अतीत के चित्रों से उपजी निश्वासों के सिवा कुछ नहीं बचा अब तो...। रेत जैसे, मुट्ठी से फिसल गया है! क्या बटोरे, क्या घर ले जाए, वह? वक्त के साथ रपट भी टूट गई है। और सड़क भी। खाँद के ऊपर से ही दूसरी सड़क समानांतर पड़ गई है, जो एक पुल से होकर गुजरती है। नदी नीचे पड़ी रह जाती है।
माँ के इन उठते-गिरते उच्छवासों से बेटा अनभिज्ञ नहीं था। पर उसे अतीत का कुछ भी ज्ञान नहीं था कि कैसे, सड़क ऊपर डल जाने से मंदिर बेचिराग हो गया था...? जब दर्शनार्थी नहीं, भेंट-चढ़ावा नहीं तो ठाकुर टहल और मंदिर की झाड़ा पोंछी कौन करता? सो, मंदिर के आसपास जंगली झाड़ियाँ खड़ी हो गईं। जानवर भी तरस गए बूढ़े हनुमान के दर्शन को। क्योंकि नजदीकी गाँव भी अपनी पूँछ साइड से नई सड़क से जुड़ गया था और गाँव के इस पार आमदरफ्त न रहने से मंदिर जंगल का हिस्सा हो गया।
सुनाई पड़ता कि बूढ़े हनुमान की मूर्ति बड़ी सिद्ध मूर्ति है! यहाँ पहले जमाने में एक बड़े पुराने बाबा रहा करते थे। उनकी दाढ़ी घुटनों तक, भौंहें दाढ़ी में मिल गई थीं। समाधि उपरांत उन्होंने झाँसी मंडल के जतारा नामक कस्बे में पुनर्जन्म लिया और वहीं के एक मंदिर पर ठाकुर टहल करने लगे।
पुण्योदय न होने के कारण जब उन्हें बहुत दिनों तक पूर्वजन्म की स्मृति प्राप्त नहीं हुई तो एक रात बूढ़े हनुमान ने उन्हें सपना दिया। बस, उसी से बाबाजी को सुरति प्राप्त हो गई और वे बस में बैठकर चंबल वेली चले आए। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ उन्हें खाँद वाले हनुमान जी आखिर मिल ही गए...।
बाबा के प्रताप से मंदिर फिर से आबाद हो गया।
आसपास के भक्तों के सहयोग से अखंड रामायण और अखंड कीर्तन आयोजनों से यहाँ आदमी की चहलपहल इतनी बढ़ गई कि तमाम बिसाती आ जुटे जो भक्तों को प्रसाद और गाँव को रोजमर्रा का सामान बेचने लगे।
फिर एक दिन पीएचई का एक ठेकेदार आया। उसके साथ असिस्टेंट इंजीनियर भी। उन्होंने दरस-परस कर बाबा से 'हम लायक कोई सेवा' की बात पूछी तो उन्होंने इशारे में भक्तों को पानी की व्यवस्था करने को कह दिया। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और वचन देकर चले गए। तब पंद्रह दिन के भीतर बोरिंग होकर पंप चालू हो गया। एक बड़ी प्याऊ टंकी भी बन गई।
फिर एक दिन एमएलए आया और पुरानी सड़क की मरम्मत का वचन दे गया।
उन्हीं दिनों बीहड़ समतलीकरण का काम चल रहा था, चंबल वेली में। बाबा के प्रभाव से दो बुल्डोजर मंदिर के आसपास लग गए और दसियों हेक्टेयर जमीन निकाल दी टीले खोद-खादकर। देखते-देखते बड़ा भव्य मैदान निकल आया भरखों में। फिर और भी बड़े-बड़े लोग आने लगे, जिनमें संभाग के मंत्रियों और प्रदेश के मुख्यमंत्री का भी नाम जुडने लगा।
इन सब की मेहर से वहाँ बूढ़े हनुमान के जीर्णोद्धार के साथ-साथ एक भव्य राम-जानकी मंदिर भी अस्तित्व में आ गया। संतनिवास और बड़ी भव्य यज्ञशाला बन गई। हर साल यज्ञ होने लगा। जिसमें इतना बड़ा मेला लगता कि कई प्रायवेट बसें चल पड़तीं खाँद के लिए। दूर दूर के दूकानदार आ जाते। आयोजन समिति नामी भजनगायकों, प्रवचनकारों के साथ एक प्रसिद्ध रामलीला मंडल और रासलीला मंडल को भी आमंत्रित कर लेती। बीघों जमीन में टेंट लग जाते। अस्थायी पाइप लाइन और विद्युत लाइन पड़ जातीं। बड़ा रमणीक स्थल बन जाता गर्मियों के दिनों में वहाँ...।
जहाँ पहले, कभी-कभार खड़िया साधु रहा करते थे, वहीं अब टकसाली साधुओं की जमात अपना स्थायी डेरा जमाए हुए थी जिसे सिद्धांत पटल और ठाकुर टहल रटी पड़ी थी। एक गौशाला भी थी। यानी खूब गौ सेवा होती और खूब साधु सेवा। बाबाजी अस्थान के महंत थे। सदैव गादी पर विराजते, साधुओं से जटाजूट न बनाते न आड़े-तिरछे तिलक खींचते, वे क्लीनशेव्ड रहते, काले चमकदार घुँघराले बाल ऊपर को काढ़ते, करीने की भौंहें और पलकों की बरौनियाँ... लगता, ओठों पर भी कोई प्राकृतिक रंग वाली लाली लगी हो, जबकि अखाड़े के शेष साधु सूर्योदय से पूर्व उठकर नैमेत्तिक कर्म से निवृत्त हो नदी पर स्नान-ध्यान बनाकर सूर्य को जल देते, गुफाओं में घुसकर समाधि लगाते, बाहर निकल कर पंचाग्नि तापते और देह में भस्म मलकर साँझ तक पंगत में बैठकर प्रसाद पाते!
अस्थान पर दंडवत और साधुशाही जयकारों के स्वर भक्तों को बहुत रोमांचित करते। अगर-धूम्र और चंदन की महक से वातावरण बड़ा पावन बना रहता। बाबा का चमत्कारी व्यक्तित्व, मंदिर-मूर्तियों का भव्य रूप और घंटा-ध्वनि मनुष्य के मन-मस्तिष्क को किसी और ही लोक में ले जा पहुँचती। जहाँ राग, द्वेष, संत्रास, घुटन, पीड़ा, अवसाद और कोई अभाव न रह जाता। रोम-रोम पुलकित और भावना इतनी पावन हो जाती कि शरीर का भान न रहता। ओर छोर आनंद बरस उठता। बाबा के दर्शन में साक्षात ईश्वर के दर्शन होते और बाबा की वाणी में साक्षात ईश्वर की वाणी। वे जब बोलते तो सभी अपने कानों के परदे ढीले छोड़ देते :
'ईश्वर एक है। वह मूर्तियों और पूजाघरों में नहीं है। वह मेरे और तुम्हारे भीतर है। तुम उसे किसी साधना, किसी प्रार्थना, किसी तंत्र-मंत्र, पूजा-विधि से नहीं पा सकोगे। वह तो प्रेम से प्रकट होगा...'
शब्द ऐसे गिरते, जैसे अमृत की बूँदें गिरती हों! कान चौकस खड़े होते उन्हें बटोरने के लिए। हवा तक अपनी साँय-साँय खो बैठती। और वे जिसको छू लेते वह तो मिट ही जाता। एक अजीब पुलक से भरकर भावविभोर हो जाता।
हनी को बाबा के पास बैठना बड़ा सुखद लगता। वह बाबाजी से जब भी अपने पापा को मिलाने बैठता, बाबा के प्रति श्रद्धा से और पिता के प्रति घृणा से भर उठता।
संयोग से जिन दिनों बाबाजी की ख्याति फैल रही थी, उन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा था, उन्हीं दिनों में पापा शहर भर में, रिश्तेदारियों में और आसपास के समाज में कामी पशु घोषित हो रहे थे।
उसे अपने पिता और साधुबाबा की उम्र में ज्यादा फर्क भी नहीं दिखता। वह जहाँ भी जाता और परिचय होता - यह आकाश का बेटा है, वहीं, निगाहें उसे भेद उठतीं। उन नजरों में दया, जिज्ञासा, कुतूहल, आश्चर्य और एक मजाक-सा होता। वे जगह जगह उसका उपहास उड़ातीं। उसका पीछा कर उसे निरंतर हेय बनाए उससे चिपकी रहतीं।
श्रेया से उसकी सहेलियाँ पूछतीं, 'आखिर तुम्हारी माँ में ऐसी क्या कमी थी...?' घर आकर वह फूट-फूट कर रोने लगती। माँ की दुर्दशा के लिए नहीं, अपनी इमेज के लिए। उसे नेहा से भारी जलन होती। इस पचड़े में सबकुछ इतना अस्त-व्यस्त हो गया कि उसकी तो खैर, डिवीजन ही बिगड़ी, हनी तो आठवीं में फेल हो गया! वैसे भी उसका मन पढ़ाई में जरा कम ही लगता था। आकाश घेर घार कर बिठाते तब वह होमवर्क कर पाता। अब उनके घर में न रहने से उसने बस्ता जैसे बाँधकर रख दिया था...। स्कूल और दोस्त, दोस्त और स्कूल। घर में सिर्फ खाने-पीने, सोने के लिए आता।
सुजाता अपनी पारिवारिक विभीषिका का हल बाबा की कृपा में खोजने को मजबूर थी। बाबा का दिया हुआ जंत्र अपनी कमर में बाँधकर उसने सोचा कि आकाश पर अपना वशीकरण मंत्र चला लेगी! हनी से उसने फोन कराया कि - मम्मी की तबीयत बहुत खराब है, आज आप घर चले आओ!'
नेहा ने सुना तो उन्हें तत्काल भेज दिया।
आकाश आए तब वह बिस्तर में लेटी थी। लेटी रही...। चेहरा आँसुओं से तर था। वे बैठ गए। देह गर्म थी उसकी। पूछा :
'किसी को दिखाया?'
- नहीं...' उसने सुबक कर न में गर्दन हिला दी।
'चलो, दिखा लाएँ!' उन्होंने हाथ पकड़ उठाया। पर वह उठी नहीं। हाथ खींच अपने सीने पर रखवा लिया और सिसकने लगी। आकाश बैठे रहे ओर वह रोती रही। उसकी इच्छा थी कि वे लेट जायँ। जैसे, भरोसा था कि साथ सो लिए एक भी रात0 तो बँध जाएँगे। उन दिनों में वह बाबा द्वारा दी गई एक चौपाई का भी जाप कर रही थी : 'गई बहोरि गरीब निबाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।'
बाबा ने कहा था : 'वे सरलता की खान दीनबंधु खोई हुई वस्तु को भी वापस दिलाने में समर्थ हैं!'
सुजाता नियम से पूजा-पाठ करने लगी थी।
श्रेया को चिढ़ छूटती। पर हनी कभी-कभी नहा-धेकर उसके साथ बैठ जाता। घी का दीपक जलाकर दोनों जाप करते और ध्यान भी। रोज कल्पना में गई वस्तु वापस आ जाती। पर हकीकत कुछ और थी। आकाश गोया, पत्नीव्रता हो गए थे। पत्नी अब सुजाता नहीं, नेहा थी। सच पूछा जाए तो यह सब मन का ही खेल था...। देह तो कितनी भी धोओ, चमकाओ मैल की खान थी। मैल उससे लगातार सृजित होता। चाहे बढ़िया से बढ़िया मिठाई खाओ, चाहे सुगंधित पेय पियो। अंततः बदलना सब को मैल में ही होता! पर मन-शुद्धि के फेर में ही तो मनुष्य बँधा है!
थोड़ी देर बाद उठकर वे श्रेया के पास चले गए, जिसकी आँखों में हिकारत थी। वह कल की लड़की उन्हें भाभी, चाची की तरह सुजाता के कमरे में धकेल रही थी! तब वे हनी के पास चले गए, जो पढ़ाई की जगह पाँव पसारे, टेढ़ी गर्दन किए खर्राटे भर रहा था...। आकाश उसी के साथ लेट गए और लेटे-लेटे सो गए। सुबह आँख खुली तो उठकर काम पर निकल गए।
बाबा का दिया हुआ जंत्र-मंत्र नाकामयाब हो रहा। आकाश की आँखों में अब उसके लिए दया और सहानुभूति थी। अपनापन था। पर समर्पण का वह भाव न था जो पति-पत्नी के बीच होता है... जो अब नेहा और उनके बीच था। इसके बावजूद वे पहले की तरह अब भी हनी, श्रेया और सुजाता को भरपूर चाहते थे। अलग रहने से उनकी चाहत और भी बढ़ गई थी...।
लेकिन सुजाता को खालिस आकाश चाहिए थे, मिक्स नहीं! यह उसके अहंकार का सवाल था। अहंकार ही तो मैं मेरा, तू तेरा का बोध कराता है! इसे खोकर तो मनुष्य का अस्तित्व ही विलीन हो जाएगा! वह देवों के भी देव और साक्षात ईश्वर के अवतार खाँद वाले बाबाजी की शरण में एक बार फिर जा पहुँची। साथ में उसका बेटा हनी भी। जिसे देखकर बाबाजी की आँखों की चमक बढ़ गई। वे उसे नख से शिख तक अपलक निहारते रहे और फिर आँखें मूँद कर ध्यान-मग्न हो गए। कुछ देर बाद ध्यानावस्था से निकल कर सुजाता से बोले, 'देवि! यह बालक स्वयं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट लौटा सकेगा। किंतु इसके लिए इसे हमारे सानिंध्य में आश्रम पर रहकर अपनी अंतर्निहित परमशक्ति को जगाना होगा...'
सुजाता के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी! उपस्थित जन समुदाय ने हनी को ईर्ष्यालु नजरों से देखा और हीन भावना से भरकर सुजाता के भाग्य को सराह उठा। महाराज जी की चट्टियों पर माथा नवाकर वह घर लौट आई। माँ से बिछुड़ते वक्त हनी की आँखों में न विरह-भाव आया न भय का कोई अंश। वह तो पवित्र धम में, देवाधिदेव के सानिंध्य में अपने किसी पूर्वजन्म के पुण्य-प्रताप से ही आया होगा!' उसने सोचा...।
माँ के साथ आश्रम आते-आते वह भी भाग्य, पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, कर्मफल, पुण्य-पाप आदि की थ्योरी सीख गया था। आज उसे इस बात पर भी यकीन हो गया था कि ईश्वर जो भी करता है - सदैव अच्छा ही करता है, तत्समय वह भले बुरा लगे! पापा का वह कदम कितना बुरा लगा था उसे। पर आज उसकी अच्छाई समझ में आ रही है...। यदि वे ऐसा न करते तो आज उसे यह अवसर कैसे मिलता!
साँझ हो गई थी। उसे बाबा के ध्यान-स्थल पर पहुँचा दिया गया था।
यहाँ सेवक भी कदम नहीं धर सकते। कोई विरला ही भाग्यशाली जिस पर देव खुद रीझ जाएँ, इस साधना कक्ष में आ पाता...। थोड़ी देर पहले किए गए सुस्वादु भोजन की डकार आने से हनी को फनः उसकी स्मृति हो आई। सेवक ने बताया था कि पंगत में यह प्रसाद नहीं बँटता। इसे तो महाराज जी के लिए उनका निजी रसोइया पकाता है। सचमुच उस भोजन की महक हनी की उँगलियों में अब तक जस की तस मौजूद थी।
कक्ष में आकर वह देर तक खड़ा रहा। कक्ष की भव्यता देखते ही बनती थी। क्या आज सदेह क्षीरसागर में उतर आया है, वह!' विस्मृत-सा हनी कुछ देर बाद एक नर्म बिस्तर पर बैठ गया। कक्ष मानों वातानुकूलित था। उसे स्वर्ग का सा आभास हो उठा। इन्हीं ख्यालों में लिपटा आनंदातिरेक में वह कब सो गया, उसे खुद भी पता नहीं चला।
नित्य संझा आरती के बाद अंतिम दर्शन उपरांत बाबाजी अपना सुदर्शन स्वरूप बिखेरते उस साधना बनाम शयन कक्ष में आ विराजे, जहाँ हनी बेखबर सोया पड़ा था। सेवक चरण-वंदन कर सीढियों के ऊपर से ही लौट गए थे।
नर्म बिस्तर पर मासूम हनी निर्विघ्न सो रहा था। और स्वप्न में स्वर्गलोक में भक्त प्रहलाद और ध्रुव की भाँति ईश्वर की गोद में बैठकर परमशांति को उपलब्ध हो रहा था। इधर ईश्वर वेषधरी बाबा को दिखने में वह अपनी माँ जैसा भरे-भरे शरीर वाला दिखा। उसके फूले-फूले गाल, सुर्ख ओठ, भारी-भारी कूल्हे और हाफ पेंट से निकली मोटी-मोटी टाँगें वे देर तक निरखते ही रह गए।
फिर अपना दुशाला उतारकर वे बिस्तर पर ऐसे नमूदार हुए, जैसे घटाटोप बादल को फाड़कर यकायक सूरज दमक उठा हो...। आँखें सिकोड़ कर वे देर तक हनी के फूले-फूले गालों को देखते रहे, फिर उन्हें झुक कर चूस उठे! दाँतों से ऐसे खुरच कर चूस उठे जैसे वे हनी के गाल चित्ती पड़े हुए पके अमरूद हों!
उस वक्त उनकी कामुक आँखों में क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक एक सुदीर्घ इंद्रधनुष लहरा रहा था।
इस आघात से हनी का सपना छिन्न-भिन्न हो गया। ध्रुव-प्रहलाद और ईश्वर अलग थलग जा पड़े। विस्फारित नेत्रों से उसने अर्धनग्न दशा को प्राप्त देवाधिदेव को देखा और भय से सफैद पड़ गया।
जैसे, खून सूख गया।
फिर कुछ दिनों बाद वह नदी में डूब कर मर गया।
बाबा ने सुजाता को बताया :
'वह आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया था। जलसमाधि ले ली उसने। जीवात्मा का प्रारब्ध उसके साथ जुड़ा होता है, देवि! तुम व्यर्थ में शोक न करना!'
मगर वह बुक्का फाड़कर रोने लगी...।
रोते-रोते ही कमर में बँधा बाबा का दिया काला मनिया उसने वहीं तोड़ कर फेंक दिया।
शाम तक बेहाल सुजाता को उसके घर पहुँचवा दिया गया।
श्रेया ने रोते हुए पापा को फोन पर बताया सारा किस्सा...। वे दौडकर तुरंत आ गए। नेहा उस वक्त क्षेत्र में थी। खबर मिली तो रात तक वह भी आ गई। रात में किसी ने खाना नहीं खाया। रात भर कोई सोया भी नहीं। रह रहकर सीने में हूक उठती रही। सुजाता सन्निपातिक-सी नेहा की गोद में पड़ी रही और श्रेया पापा की गोद में। आकाश और नेहा ने उसी रात संकल्प ले लिया था कि उस यमदूत को छोड़ेंगे नहीं।'
सुबह वे उठकर जाने लगे तो सुजाता ने नेहा का हाथ पकड़ भर्राए स्वर में कहा, 'यहीं रह जाओ... तुम्हारा बाबाथी
।पाल लेंगे हम!'
आकाश लज्जित हो गए। नेहा गर्भवती थी।

The end
bemishall update.
 

Aakash.

ᴇᴍʙʀᴀᴄᴇ ᴛʜᴇ ꜰᴇᴀʀ
Staff member
Divine
Moderator
31,195
78,117
304

Hello Everyone :hello:
We are Happy to present to you The annual story contest of Xforum "The Ultimate Story Contest" (USC)..

Jaisa ki aap sabko maalum hai abhi pichle hafte he humne USC ki announcement ki hai or abhi kuch time Pehle Rules and Queries thread bhi open kiya hai or Chit chat thread toh pehle se he Hind section mein khulla hai.

Iske baare Mein thoda aapko btaadun ye ek short story contest hai jisme aap kissi bhi prefix ki short story post kar shaktey ho jo minimum 700 words and maximum 7000 words takk ho shakti hai. Isliye main aapko invitation deta hun ki aap Iss contest Mein apne khayaalon ko shabdon kaa Rupp dekar isme apni stories daalein jisko pura Xforum dekhega ye ek bahot acha kadam hoga aapke or aapki stories k liye kyunki USC Ki stories ko pure Xforum k readers read kartey hain.. Or jo readers likhna nahi caahtey woh bhi Iss contest Mein participate kar shaktey hain "Best Readers Award" k liye aapko bus karna ye hoga ki contest Mein posted stories ko read karke unke Uppar apne views dene honge.

Winning Writer's ko well deserved Awards milenge, uske aalwa aapko apna thread apne section mein sticky karne kaa mouka bhi milega Taaki aapka thread top par rahe uss dauraan. Isliye aapsab k liye ye ek behtareen mouka hai Xforum k sabhi readers k Uppar apni chaap chhodne ka or apni reach badhaane kaa.

Entry thread 7th February ko open hoga matlab aap 7 February se story daalna suru kar shaktey hain or woh thread 21st February takk open rahega Iss dauraan aap apni story daal shaktey hain. Isliye aap abhi se apni Kahaani likhna suru kardein toh aapke liye better rahega.

Koi bhi issue ho toh aap kissi bhi staff member ko Message kar shaktey hain..

Rules Check karne k liye Iss thread kaa use karein :- Rules And Queries Thread.

Contest k regarding Chit chat karne k liye Iss thread kaa use karein :- Chit Chat Thread.

Regards :Xforum Staff.

 
Top