भूलना तुझको,दिल्लगी सी है
वैसे कोशिश ये आख़री सी है
हाले दिल मैं तुझे बताऊ़ँ क्या
अब नहीं तू जो,जाँ गई सी है!
हासिल होजाए पूरी दुनिया भी
तू न हो उस में गर,कमी सी है!
रिश्ते नाते लगें सब बे मानी
सोच आँखों में कुछ नमी सी है!
हैं तरस्ती ये दीद को शायद
रोशनी इन की भी गई सी है!
कहिये उम्मीद या ख़्याले ख़ाम
चाँदनी कुछ धुली धुली सी है!
आई है जो उतर के आँगन में
होती महसूस इक ख़ुशी सी है!
क़तरा क़तरा गुज़र रही है रात
इस्को भी लगती दुश्मनी सी है!
मुझसे कटती नहीं शबे फ़ुर्क़त
तेशा लाएँ,ये कुछ जमी सी है!
जान जाए,रहे,है क्या पर्वाह
हर अमल में इक बेदिली सी है
यूँ न मौला,तू दीद को तरसा
वस्ल की उठती गुदगुदी सी है!