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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.7%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.4%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.5%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 42 22.7%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.8%

  • Total voters
    185

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,743
354
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 21
----------☆☆☆----------



अब तक,,,,,

"तू क्या बताएगी अपने भैया को?" उस औरत ने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या ये कि उनकी बीवी दादा ठाकुर के उस लड़के का मोटा लंड अपनी बुर में लेने का सोच रही है? अगर ऐसे ही बताएगी तो जा बता दे। उस लड़के के उस मोटे लंड से चुदने के लिए मैं तेरे भैया की गाली और मार भी सह लूंगी।"

कमरे के दरवाज़े पर खड़ा मैं ये सब सुन कर मन ही मन हंस रहा था और ये भी सोच रहा था कि मेरे लंड के चर्चे तो बड़ी दूर दूर तक हैं वाह क्या बात है। ख़ैर उस औरत की ये बात सुन कर रानी नाम की वो लड़की नाराज़ हो गई जिससे वो औरत हंसते हुए बोली कि वो तो ये सब मज़ाक में कह रही थी। उसके बाद तीनों ने एक दूसरे को रंग लगाया और फिर कुछ देर बाद चली गईं। रजनी जब वापस आई तो मैं भी कमरे से निकल कर आँगन में आ गया।


अब आगे,,,,,



"कौन थी वो लंड की इतनी प्यासी औरत?" मैंने रजनी से मुस्कुराते हुए पूछा____"बड़ी आग लगी थी उस बुरचोदी की बुर में।"
"गांव की ही थी वो।" रजनी ने हंसते हुए कहा____"सरला नाम है उसका। मुझे देवरानी के साथ साथ अपनी अच्छी सहेली भी मानती है। शाम सुबेरे जब मैं दिशा मैदान को जाती हूं तो वो भी किसी किसी दिन मिल जाती है मुझे। वैसे तो वो यहाँ घर में भी आती रहती है लेकिन माँ जी के सामने वो मुझसे ज़्यादा खुल कर बात नहीं कर पाती।"

"अगर उसे इतनी ही आग लगी थी तो तुझे बता देना था न उसे।" मैंने कहा____"कि जिसके लंड के लिए वो इतना तड़प रही है वो यहीं मौजूद है। फिर तू भी देखती कि कैसे मैं उसकी बुर की आग को शांत करता।"

"उसकी ननद रानी थी न साथ में।" रजनी ने कहा___"इस लिए कुछ नहीं हो सकता था। अगर रानी साथ में न होती तो मैं ज़रूर उसे बता देती कि आप यहीं पर हैं।"

"ख़ैर माँ चुदाए वो।" मैंने रजनी को पीछे से पकड़ कर उसकी छाती को मसलते हुए कहा___"मुझे लगता है कि तेरे यहाँ कोई न कोई आता ही रहेगा जिसकी वजह से हमारा चुदाई का कार्यक्रम अच्छे से नहीं हो पाएगा इस लिए हम जल्दी जल्दी ही अपना कार्यक्रम कर लेते हैं...क्या बोलती है?"

रजनी ने मेरी बात सुन कर मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया और मेरा पैंट खोलने लगी। थोड़ी ही देर में वो मेरा लंड अपने मुँह में भर कर चूस रही थी। कुछ देर अपना लंड चुसवाने के बाद मैंने उसे घोड़ी बनाया और अपना लंड उसकी बुर में डाल कर दे दनादन धक्के लगाने लगा। मेरे ज़बरदस्त धक्कों की बाढ़ को रजनी ज़्यादा देर तक सहन न कर सकी और झड़ कर निढाल हो गई। उसके निढाल होने के बाद भी मैं तब तक लगा रहा जब तक कि मैंने ये महसूस नहीं कर लिया कि मेरा भी पानी निकलने वाला है। जैसे ही मुझे लगा कि अब मेरा पानी निकलने वाला है तो मैंने उसकी बुर से अपना लंड निकाल लिया। रजनी भी समझ गई थी इस लिए वो पलट कर जल्दी से मेरी तरफ अपना मुँह खोल कर बैठ गई। मैंने लंड को मुठियाते हुए कुछ ही पलों में अपना पानी उसके खुले हुए मुख में उड़ेल दिया जिसे वो बड़े चाव से सारा का सारा ही निगल गई।

रजनी के साथ चुदाई का कार्यक्रम निपटाने के बाद मैंने अपने कपड़े पहने और उसके घर से बाहर आ गया। मैं अब उसके घर में रुकना नहीं चाहता था क्योंकि किस्मत से एक बार बच गया था इस लिए अब मैं उसके घर से निकल लिया था।

रजनी के घर से बाहर तो आ गया किन्तु अब मैं ये सोचने लगा कि कहां जाऊं? हवेली मैं जाना नहीं चाहता था और यहाँ कहीं रुकने के लिए कोई ढंग का ठिकाना नहीं था। तभी मेरे मन में रूपा का ख़याल आया और साथ ही ये भी याद आया कि मुझे उसके द्वारा ही ये पता करना है कि उसके घर वाले हम ठाकुरों के बारे में कैसी बातें करते हैं और आज कल वो किस फ़िराक में हैं? मुझे उम्मीद थी कि रूपा मुझे इस बारे में ज़रूर कुछ न कुछ बताएगी लेकिन समस्या ये थी कि मैं रूपा तक पहुँचू कैसे? क्या रूपा से मिलने के लिए मुझे रात होने का इंतज़ार करना चाहिए? उसके घर में मैं उससे रात के वक़्त पर ही मिला करता था। पिछले चार महीने से मेरी उससे कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी इस लिए अब मैं भी उससे मिलना चाहता था।

ये सब सोचते हुए मैं मुंशी के घर से काफी दूर आ गया था। यहाँ से साहूकारों के घर दिखने लगे थे। अभी मैं मोड़ पर आया ही था कि सामने से एक बग्घी आती हुई दिखी। बग्घी को देखते ही मैं समझ गया कि हवेली से कोई न कोई उसमे बैठ कर आ रहा है। बग्घी में जगताप चाचा जी थे और उनके साथ एक हत्ता कट्टा आदमी भी था जो बग्घी चला रहा था। जगताप चाचा जी की नज़र मुझ पर पड़ चुकी थी इस लिए मैं अब उनसे छुप नहीं सकता था।

"शुकर है कि तुम मिल ग‌ए।" जगताप चाचा जी ने मेरे पास बग्घी को रुकवाते हुए कहा____"काफी समय से हम खोज रहे थे तुम्हें। कहां गायब हो गए थे तुम?"
"मेरे जैसे बुरे इंसान को क्यों खोज रहे थे आप?" मैंने सपाट भाव से कहा____"भला एक ग़ैर जिम्मेदार लड़के से क्या काम हो सकता है किसी को?"

"तुम लाख बुरे सही वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा_____"मगर हम जानते हैं कि तुम्हारे अंदर भी कहीं न कहीं अच्छाई मौजूद है। ये अलग बात है कि तुम सब कुछ जानने समझने के बावजूद अपनी उस अच्छाई को हमेशा दबाते रहते हो। ख़ैर हम तुम्हें इस लिए खोज रहे थे ताकि तुम्हें अपने साथ वापस हवेली ले चलें। आज इतना बड़ा त्यौहार है और सबके बीच तुम नहीं हो तो ज़रा भी अच्छा नहीं लग रहा। इस लिए तुम्हें हमारे साथ वापस हवेली चलना होगा।"

"मैं अब उस हवेली में कभी क़दम नहीं रखूंगा चाचा जी।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"मुझे अपने ऊपर शासन ज़माने वाले लोग बिलकुल पसंद नहीं हैं। वैसे भी हवेली का कोई सदस्य ये नहीं चाहता कि मैं हवेली में रहूं। मैं मूर्ख नहीं हूं चाचा जी कि इतना भी न समझ पाऊं कि कौन मेरे बारे में क्या सोचता है? इससे अच्छा तो यही है कि मैं उन लोगों की नज़रों से दूर ही रहूं जिन्हें मैं पसंद नहीं हूं और जो ये चाहते हैं कि मैं हवेली में न रहूं।"

"तुम बेवजह ही ये सब सोच रहे हो वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा____"हवेली में सब चाहते हैं कि तुम हवेली में ही रहो और अपनी जिम्मेदारी के अनुसार हर कार्य करो। दूसरी बात ये है कि इस दुनिया में हर घर में किसी न किसी से किसी की थोड़ी बहुत अनबन रहती ही है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इंसान को उस अनबन को ले कर मुँह फुला बैठ जाना चाहिए, बल्कि अगर किसी से कोई अनबन है तो उसे ठंडे दिमाग़ से बात कर के सुलझा लेना चाहिए। तुम खुद सोचो कि जिनसे भी तुम्हारी किसी तरह की अनबन है उनसे इस तरह दूर जा कर क्या तुम उस अनबन को दूर कर लोगे? क्या दूर चले जाने से तुम्हारे ज़हन से अनबन वाली बात निकल जाएगी? नहीं वैभव, दिल में जब किसी प्रकार का रंज़ या गिला होता है न तो वो तब तक दिल से नहीं निकलता जब तक कि उसका उचित रूप से समाधान न किया जाए। तुम हवेली से दूर चले जाओगे तो उनका क्या बिगड़ेगा जिनसे तुम्हारी अनबन है, बल्कि तुम भी इतना समझते ही होंगे कि इस तरह में उन्हें ख़ुशी ही मिलेगी। अब सवाल ये है कि क्या तुम ऐसा ही चाहते हो या फिर जिनसे भी तुम्हारी अनबन है उनसे अपनी इस अनबन को दूर कर के फिर से एक बेजोड़ रिश्ता बनाओगे? वैभव, तुम अभी जवानी के दौर से गुज़र रहे हो और यकीन मानो इस दौर में अक्सर लड़के और लड़कियां सही रास्ते से भटक जाते हैं। वो अक्सर यही सोचने लगते हैं कि वो जो कुछ भी कर रहे हैं वो सब सही है और बाकी दूसरे लोग जो कुछ उसे कह रहे होते हैं वो सब ग़लत है। इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है बल्कि ये सब जवानी की इस उम्र का ही प्रभाव होता है। इस लिए इंसान को चाहिए कि वो जो भी कार्य करे उसे बहुत ही सोच समझ कर करे और उसके अच्छे बुरे परिणामों के बारे में सोच कर करे।"

"ठीक है चाचा जी।" मैंने कहा____"आप मुझे लेने आए हैं तो मैं ज़रूर आपके साथ हवेली चलूंगा लेकिन आपको भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।"
"हमने हमेशा तुम्हें अपने बेटे की तरह ही प्यार दिया है वैभव।" जगताप चाचा जी ने संजीदा भाव से कहा____"जब तुम छोटे थे तो हवेली में सबसे ज़्यादा तुम हमारे ही लाडले थे और आज भी हो। ये अलग बात है कि अब तुम बड़े हो गए हो इस लिए तुम सिर्फ वही करते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है। कभी इस सबसे निकल कर हम सबके बारे में सोचोगे तो शायद तुम्हें एहसास होगा कि आज भी हमारे दिल में तुम्हारी वही जगह है जो पहले हुआ करती थी। ख़ैर छोड़ो इस बात को और ये बताओ कि हमें तुम्हारी कौन सी बात माननी पड़ेगी? हम तुमसे वादा करते हैं वैभव बेटा कि तुम्हारी हर वो बात मान लेंगे जो सही और उचित होगी।"

"मैंने मुंशी जी से कहा था और अब आपसे भी कहता हूं।" मैंने कहा____"कि जिस जगह पर मैंने अपने पिछले चार महीने भारी कस्ट में गुज़ारने हैं उस जगह पर मेरे लिए एक छोटा सा मकान बनवा दीजिए। मैं हवेली में हर वक़्त नहीं रह सकता चाचा जी क्योंकि वहां पर मुझे घुटन होती है। आप ये मत समझिए कि मैं उस जगह पर अपने लिए वो मकान अपनी अय्याशियों के लिए बनवाना चाहता हूं बल्कि इस लिए बनवाना चाहता हूं ताकि शांत और अकेली जगह पर अपने लिए सुकून पा सकूं। बदले में मैं भी आपसे वादा करता हूं कि मुझसे जो बन सकेगा मैं हवेली के काम काज करुंगा।"

"अगर तुम ऐसा चाहते हो तो ठीक है वैभव।" जगताप चाचा जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हम दादा ठाकुर से इस बारे में बात करेंगे।"
"बात करने में वक़्त रायगा मत कीजिए चाचा जी।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"मैंने मुंशी जी से कहा था कि आज रंगो का त्यौहार होने के बाद कल से उस जगह पर मेरे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू हो जाना चाहिए।"

"ऐसा ही होगा वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा____"अगर तुम ये चाहते हो कि कल ही वहां पर मकान का निर्माण कार्य शुरू हो तो कल ही शुरू हो जाएगा। दादा ठाकुर से बात करने के लिए इस लिए कहा हमने कि उन्हें इस बारे में बताना हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं। तुम तो अच्छी तरह जानते हो कि उनकी जानकारी और उनकी इजाज़त के बिना हम में से कोई भी कुछ नहीं करता। मकान का निर्माण कार्य कल से ही शुरू हो जाएगा। दादा ठाकुर इसके लिए मना नहीं करेंगे।"

जगताप चाचा जी की बात सुन कर मैंने सिर हिला दिया तो उन्होंने बग्घी में बैठने के लिए मुझसे कहा। मैं चुप चाप गया और बग्घी में चढ़ कर बैठ गया। बग्घी के आगे वो हट्टा कट्टा आदमी घोड़ों की लगाम पकड़े बैठा था। मेरे बैठते ही चाचा जी ने उस आदमी से वापस हवेली चलने को कहा तो उसने लगाम को हरकत दी तो घोड़े चल पड़े।

सारे रास्ते जगताप चाचा मुझसे कुछ न कुछ कहते रहे और मैं बस सुनता रहा। कुछ ही देर में बग्घी हवेली में पहुंच कर रुकी तो मैं और चाचा जी बग्घी से उतर कर नीचे आ ग‌ए।

हवेली के विशाल मैदान में गांव के काफी सारे लोग जमा थे। जिनमे शाहूकार भी थे। वो सब रंग गुलाल खेल रहे थे और भांग के नशे में झूम रहे थे। हवेली के एक तरफ निचली जाती वाले फाग गाने में ब्यस्त थे। दूसरी तरफ बड़े बड़े मटको में घोटी हुई भांग रखी हुई थी जिसे हवेली के कर्मचारी लोगों को गिलास में भर भर कर दे रहे थे। पूरे मैदान में रंग बिखरा हुआ था। एक तरफ ऊंची जगह पर बड़ा सा सिंहासन रखा था जिसमे मेरे पिता यानी दादा ठाकुर बैठे हुए थे और फाग का आनंद ले रहे थे। उनके चेहरे पर भी रंग और गुलाल लगा हुआ था जोकि यकीनन साहूकारों ने ही लगाया होगा। वातावरण में एक शोर सा गूँज रहा था। हवेली में हर साल होली के दिन ऐसा ही होता था किन्तु इस साल शाहूकार भी शामिल थे इस लिए ताम झाम कुछ ज़्यादा ही नज़र आ रहा था।

मैं और जगताप चाचा जी बग्घी से उतर कर हवेली के अंदर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ चले। उस दरवाज़े के बगल से ही मंच बनाया गया था जिसमे सिंघासन पर दादा ठाकुर बैठे हुए थे और उनके बगल से कुछ कुर्सियों पर शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर बैठे हुए थे, जबकि उसके दो छोटे भाई मंच के नीचे उस जगह पर थे जहां पर दूसरे गांव के कुछ ठाकुर लोग बात चीत में लगे हुए थे।

जगताप चाचा मंच पर ग‌ए और दादा ठाकुर के कान के पास मुँह ले जा कर कुछ कहा तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने मेरी तरफ देखा तो मैंने नज़र हटा कर दूसरी तरफ कर ली। बड़े से मैदान में रंग बिरंगे लोग नज़र आ रहे थे। तभी मेरी नज़र साहूकारों के लड़कों पर पड़ी। उनके साथ में मेरे बड़े भाई साहब और जगताप चाचा जी के दोनों लड़के भी थे। वो सब भांग के नशे में झूम रहे थे। सब के सब रंगो से रंगे हुए थे। कुछ देर तक मैं भीड़ में हर चेहरे को देखता रहा उसके बाद पलट कर हवेली के अंदर चला गया।

हवेली के अंदर एक बड़ा सा आँगन था। आँगन के चारो तरफ हवेली की ऊँची ऊँची दीवारें थी। आँगन इतना बड़ा था कि उसमे कम से कम पांच सौ आदमी बड़े आराम से समा सकते थे। उस आँगन के बीचो बीच एक बड़ी सी बेदी बनी हुई थी जिसमे तुलसी का पौधा लगा हुआ था। इस वक़्त आँगन में काफी सारी औरतें और लड़कियां थी जिनके चेहरे और कपड़े रंगों में साने हुए थे। साहूकारों के घर की औरतों को मैं पहचानता था। वो सब भी इस वक़्त यहीं पर थीं। तभी मेरी नज़र एक ऐसी औरत पर पड़ी जो मुझे ही देखे जा रही थी। मैंने उसे ध्यान से देखा तो मैं हल्के से चौंका। ये तो वही औरत थी जो मुंशी के घर में उस वक़्त आई थी। मुंशी की बीवी प्रभा भी थी। उस औरत को देखने के बाद मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।

कमरे में आ कर मैंने अपने कपड़े उतारे। कल से यही कपडे पहने हुए था इस लिए मैंने सोचा कि इन्हें उतार कर दूसरे कपड़े पहन लेता हूं। कमरे का पंखा चालू कर के मैं बिस्तर पर लेट गया। इस वक़्त मेरे ज़हन में जगताप चाचा जी की बातें ही चलने लगीं थी। उन्होंने मुझसे वादा किया था कि वो कल से मेरे लिए उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे। इधर मैंने भी उनसे वादा किया था कि मैं हवेली के काम काज पर ध्यान दूंगा।

हवेली में न रहने की कई वजहें थी जिनमे से एक वजह यही थी कि अगर मैं हवेली में रहा तो रागिनी भाभी से मेरा सामना होता ही रहेगा और वो मुझसे बातें करेंगी। उन्हें देख कर मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि मेरी नीयत मेरे घर की किसी महिला पर ख़राब हो। इस लिए मैं हवेली से दूर ही रहना चाहता था। दूसरी वजह ये थी कि मेरे भाइयों का बर्ताव मेरे प्रति बदल गया था। वो तीनों ही मुझे नज़रअंदाज़ करते थे जिसकी वजह से मेरे अंदर गुस्सा भरने लगता था और मैं नहीं चाहता था कि किसी दिन मेरा ये गुस्सा उन तीनों में से किसी पर क़हर बन कर बरस जाए। तीसरी वजह ये थी कि मैं ये हरगिज़ भी पसंद नहीं करता था कि हवेली का कोई भी सदस्य मुझ पर हुकुम चलाए। अपने ऊपर किसी की भी बंदिश मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं थी।

"आ गया मेरा बेटा।" कमरे में माँ की आवाज़ गूँजी तो मैं ख़यालों की दुनिया से वापस आया और माँ की तरफ देखा, जबकि उन्होंने आगे कहा____"कल शाम को क्यों नहीं आया था तू?"

"ऐसा तो हो नहीं सकता कि आपको मेरे यहाँ न आने की वजह का पता ही न चला हो।" मैंने बिस्तर पर उठ कर बैठते हुए कहा तो उन्होंने कहा____"हां पता है लेकिन मैं हैरान इस बात पर हूं कि तू अपने पिता जी से इतनी कठोर बातें कैसे कर लेता है? तू ऐसा क्यों समझता है कि हम सब तेरे दुश्मन हैं?"

"क्या आप चाहती हैं कि मैं फिर से यहाँ से चला जाऊं?" मैंने सपाट लहजे में कहा____"और अगर ऐसा नहीं चाहती हैं तो मुझसे ऐसी बातें मत कीजिए। आप सब अच्छी तरह जानते हैं कि मैं वही करुंगा जो मुझे अच्छा लगेगा तो फिर बार बार मुझसे ऐसी बातें करने का फायदा क्या है?

"अच्छा चल छोड़ ये सब बात।" माँ ने जैसे बात बदलने की गरज़ से कहा____"तू आ गया है यही ख़ुशी की बात है। मैं कुसुम को बोल देती हूं कि वो तेरे लिए खाना यहीं पर भेज दे और हां तू भी सबके साथ रंग गुलाल का आनंद ले ले। तुझे पता है शाहूकार भी अब हमारे ही साथ हैं और उनके घर की औरतें भी आई हुई हैं हमारे यहाँ रंग गुलाल लगाने।"

"मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है मां।" मैंने कहा____"और मैं खाना खा चुका हूं। आप जाइए और सबके साथ होली का आनंद लीजिए।"
"सबके साथ घुल मिल कर रहना चाहिए बेटा।" माँ ने मेरे पास आ कर मेरे गाल पर हाथ फेरते हुए कहा____"तेरी भाभी कल से ही अपने कमरे में बंद है। वो तुझसे नाराज़ है। तुझे अपना देवर कम और छोटा भाई ज़्यादा मानती है। मुझसे कह रही थी कि मैंने तुझे क्यों जाने दिया था हवेली से? तू जा कर एक बार मिल ले उससे। मैं और कुसुम तो उसे समझा समझा के थक गईं हैं। उसके इस तरह नाराज़ हो कर कमरे में बंद रहने से तेरा बड़ा भाई भी उससे नाराज़ हो गया है।"

"ठीक है मिल लूंगा उनसे।" मैंने माँ की बात पर मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"आप जाइए, मैं कुछ देर आराम करुंगा यहां।"
"ठीक है।" माँ ने कहा____"आराम कर के तू भी सबके साथ थोड़ा बहुत रंग खेल लेना और अपनी भाभी से ज़रूर ध्यान से मिल लेना।"

मां की बात सुन कर मैंने हां में सिर हिलाया तो माँ कमरे से चली गईं। उनके जाने के बाद मैंन सोचने लगा कि अब भाभी ने क्यों मेरी वजह से खुद को कमरे में बंद कर लिया है? मैं जितना उनसे दूर जाने की कोशिश करता हूं वो उतना ही मेरे क़रीब आने लगती हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं भाभी से कैसे हमेशा के लिए दूर हो जाऊं? मैं जानता था कि वो मुझे बहुत मानती हैं और उनके मन में मेरे प्रति कोई बुरी भावना नहीं है लेकिन उन्हें ये नहीं पता है कि जिसे वो इतना मानती हैं वो उनके बारे में क्या सोचता है। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि मुझे भाभी से साफ़ साफ़ बोल देना चाहिए की वो मेरे क़रीब आने की कोशिश न करें। मैं उन्हें साफ़ साफ़ बता दूंगा कि उनके क़रीब रहने से मैं उनकी तरफ आकर्षित होने लगता हूं और यही वजह है कि मैं उनसे हमेशा दूर दूर ही रहता हूं। अपने ज़हन में उठे इस ख़याल से मैंने सोचा कि क्या ऐसा बोलना ठीक रहेगा?

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी कमरे के बाहर कुछ लोगों की आहाट सुनाई दी तो मैं एकदम से बिस्तर से नीचे उतर आया और दीवार पर टंगी अपनी शर्ट की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मैं ऊपर से बिलकुल नंगा ही था जबकि नीचे मैंने पैंट पहन रखा था।

"होली मुबारक हो भइया।" कुसुम की आवाज़ सुन कर मैं पलटा तो देखा उसके साथ में दो लड़कियां और थीं, जिन्हें शायद मैं पहचानता था।
"तुझे भी मुबारक हो बहना।" मैंने शर्ट को निकाल कर उसे पहनते हुए कहा____"और तेरे साथ आईं तेरी इन सहेलियों को भी।"

मेरी बात सुन कर जहां कुसुम मुस्कुरा उठी वहीं वो दोनों लड़कियां भी हल्के से मुस्कुराईं और फिर धीमे स्वर में मुझे भी होली की शुभकामनाएं दी। मैं उन दोनों को पहचानता तो था मगर ठीक से याद नहीं आ रहा था कि मैंने उन्हें कहां देखा था।

"भाइया ये दोनों मेरी सहेलिया तुलसी और मीरा हैं।" कुसुम ने उन दोनों लड़कियों का परिचय देते हुए कहा____"इन दोनों ने जब आपको बाहर से आते हुए देखा था तो मुझसे कहने लगीं कि हम तुम्हारे भैया को रंग लगाएँगे।"

"हाय राम! कुसुम कितना झूठ बोलती हो तुम।" तुलसी ने चौंकते हुए कहा____"हमने कब बोला तुमसे कि हम तुम्हारे भैया को रंग लगाएंगे?"
"सही कहा तुलसी।" मीरा ने भी झट से कहा____"हमने तो ऐसा कुछ बोला ही नहीं।"

"अगर नहीं बोला था तो फिर ठीक है।" कुसुम ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"चलो यहाँ से। वैसे भी भैया किसी के साथ रंग गुलाल नहीं खेलते हैं।"
"अरे! पर कुसुम थोड़ी देर रुको तो।" मीरा और तुलसी दोनों ही हड़बड़ाते हुए बोल पड़ीं थी।
"अब यहाँ रुकने का क्या फायदा है भला?" कुसुम ने हाथ को झटकते हुए कहा____"वैसे भी तुम दोनों को अगर किसी ने भैया के कमरे में देख लिया न तो फिर बस समझ जाओ।"

"क्या तुम्हारे ये भैया सच में रंग गुलाल नहीं खेलते हैं?" तुलसी ने सशंक भाव से पूछा तो कुसुम ने कहा____"तुम खुद ही पूछ लो न भैया से।"
"कुसुम तू जा कर एक गिलास पानी तो ले आ मेरे लिए।" मैंने बीच में बोलते हुए कुसुम से कहा____"और नीचे ये भी देख आना कि गुसलखाना खाली है कि नहीं। मुझे नहाना भी है अभी।"

"ठीक है भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा, और फिर तुलसी और मीरा को आँख से इशारा करते हुए फ़ौरन ही कमरे से चली गई।
"तो तुम दोनों मुझे यहीं रंग लगाओगी या कहीं दूसरी जगह चलें?" कुसुम के जाते ही मैंने उन दोनों की तरफ बढ़ते हुए कहा तो वो दोनों एकदम से हड़बड़ा गईं।

"जी क्या मतलब है आपका?" मीरा ने मुझे अपने क़रीब आते देख थोड़ी घबराहट से कहा था।
"मतलब तो बहुत सीधा सा है देवी जी।" मैंने दोनों के क़रीब जा कर कहा____"यहां रंग लगाओगी तो मेरे इस कमरे में भी रंग फ़ैल जाएगा। इस लिए कमरे से बाहर कहीं ऐसी जगह चलते हैं जहां पर हम लोगों के सिवा चौथा कोई न हो।"

"ये आप क्या कह रहे हैं?" तुलसी ने आँखे फाड़ते हुए कहा____"कहीं आप हमारे साथ कुछ.....!"
"तुम दोनों की मर्ज़ी के बिना मैं कुछ नहीं करुंगा।" मैंने तुलसी की आँखों में झांकते हुए कहा____"मैं अपना हर काम सामने वाले की मर्ज़ी और ख़ुशी से ही करता हूं। ख़ैर, वैसे तो मैं रंग गुलाल खेलना पसंद नहीं करता हूं किन्तु तुम दोनों इतनी दूर से मुझे रंग लगाने आई हो तो तुम दोनों को मैं निराश कैसे कर सकता हूं?"

"पर हम दोनों तो आपको बस थोड़ा सा ही रंग लगाने आए हैं।" मीरा ने कहा____"जो कि आप इस कमरे में भी हमसे लगवा सकते हैं।"
"देखो सबसे पहली बात तो ये है कि मैं रंग गुलाल खेलता नहीं हूं।" मैंने निर्णायक भाव से कहा____"और जब खेलता हूं तो विधिवत ढंग से खेलता हूं। कहने का मतलब ये कि किसी को रंग ऐसे लगाओ कि इंसान के जिस्म के हर ज़र्रे पर रंग लग जाए वरना सिर्फ नाम करने वाला रंग मैं नहीं लगाता और ना ही किसी से लगवाता हूं। अब ये तुम दोनों पर है कि तुम कैसा रंग लगाओगी या लगवाओगी?"

दोनो मेरी बातें सुन कर बड़ी उलझन से मेरी तरफ देखने लगीं थी। फिर दोनों ने एक दूसरे की तरफ ऐसे देखा जैसे आँखों आँखों से एक दूसरे से पूछ रही हों कि अब क्या करें?"

"रंग लगाने और लगवाने वाले इतना सोचते नहीं हैं देवियो।" मैंने उन दोनों से कहा____"अगर मंजूर है तो लगाओ और लगवाओ वरना कोई ज़रूरी भी नहीं है। कुसुम के आ जाने के बाद तो मैं वैसे भी तुम लोगों से रंग लगवाने वाला नहीं हूं।"

"पर कुसुम के आ जाने के बाद हम आपको कैसे रंग लगा पाएंगे?" मीरा ने कहा___"और उसके सामने हम आपसे रंग भी नहीं लगवा पाएंगे।"
"अगर तुम दोनों को मेरे साथ रंग खेलना है तो अभी बता दो।" मैंने कहा____"मैं कुसुम के आते ही उसे बोल दूंगा कि वो यहाँ से चली जाए ताकि तुम दोनों मेरे साथ अच्छे से रंग खेल सको।"

"बात तो आपकी ठीक है।" तुलसी ने कहा____"लेकिन ऐसा करने से कुसुम कहीं हमारे बारे में ग़लत न सोचने लगे।"
"वो तो अभी भी सोच रही होगी।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"तुम किसी की सोच को मिटा थोड़े न सकती हो। वो तो अभी भी सोच रही होगी कि तुम दोनों मेरे कमरे हो और पता नहीं मुझसे कैसी कैसी बातें कर रही होगी।"

"वैभव जी सही कह रहे हैं तुलसी।" मीरा ने तुलसी से कहा____"कुसुम ज़रूर इस वक्त हमारे बारे में ग़लत ही सोच रही होगी। हलांकि उसकी जगह हम होते तो हम भी ऐसा ही सोचते। पर वो हमारी सहेली है इस लिए उसके सोचने से हमें क्या फ़र्क पड़ जाएगा? मुझे लगता है कि हम दोनों को इनके साथ रंग खेलना ही चाहिए। बार बार ऐसा मौका नहीं मिलेगा सोच ले।"

अभी मीरा की बात पूरी हुई ही थी कि कमरे में कुसुम दाखिल हुई। उसने मुझे पानी का गिलास दिया तो मैं पानी पीने लगा। इस बीच मेरी नज़र कुसुम पर पड़ी, जो उन दोनों से इशारे में कुछ कह रही थी और मुस्कुरा रही थी।

"कुसुम अपनी सहेलियों को यहां से ले जा।" मैंने कुसुम से कहा____"इनके बस का नहीं है मेरे साथ रंग खेलना।"
"नहीं नहीं।" मीरा झट से बोल पड़ी____"हमें आपके साथ रंग खेलना है। कुसुम तुम जाओ हम बाद में मिलेंगे तुमसे।"

कुसुम उसकी बात सुन कर मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर चली गई। मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि चलो न‌ए न‌ए माल मिल गए भोगने को। कुसुम के जाने के बाद मैंने फ़ौरन ही कमरे का दरवाज़ा बंद किया तो वो दोनों ये देख कर बुरी तरह चौंक पड़ी। पलक झपकते ही दोनों के चेहरे पर डर और घबराहट के भाव उभर आए। उन्हें शायद ये उम्मीद ही नहीं थी कि मैं एकदम से कमरे का दरवाज़ा बंद कर दूंगा।

"घबराओ मत।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तुम दोनों की मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं करुंगा। कमरा इस लिए बंद किया है ताकि तुम स्वतंत्र रूप से मुझे रंग लगा सको और मुझसे लगवा भी सको। ख़ैर, तो चलो शुरू करो फिर। मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है क्योंकि अभी मुझे नहाने भी जाना है और फिर अपनी भाभी से भी मिलना है।"

मेरी बात सुन कर दोनों एक दूसरे को देखने लगीं। दोनों के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। जैसे दोनों को समझ न आ रहा हो कि वो ये सब कैसे करें? दोनों के हाथों में कागज़ में लपेटा हुआ रंग गुलाल था। जब मैंने देखा कि वो दोनों हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं तो मैं खुद ही उनकी तरफ बढ़ गया।

दोनों के चेहरे और कपड़ों पर पहले से ही रंग लगा हुआ था। मेरी नज़र बार बार इन दोनों के सीने पर जा कर ठहर जाती थी। दोनों के ही सीने किसी पर्वत शिखर की तरह उठे हुए थे। दोनों का दुपट्टा कमर में बंधा हुआ था। मैं आगे बढ़ कर तुलसी के क़रीब पहुंचा और उसके हाथ से रंग और गुलाल का वो कागज़ ले लिया। दोनों मुझे इतना क़रीब देख कर एक कदम पीछे हट गईं थी।

"हमारे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है।" मैंने उस कागज़ से रंग निकालते हुए कहा____"अगर कोई यहाँ आ गया तो समझ ही सकती हो कि कितनी बड़ी समस्या हो जाएगी इस लिए झिझक और संकोच को छोड़ कर तुम दोनों खुल कर अपना काम शुरू करो।"

कागज़ से रंग ले कर मैंने उसे तुलसी के गालों पर लगा दिया और फिर बगल से खड़ी मीरा के गालों पर भी लगा दिया। दोनों छुई मुई सी खड़ी शर्मा रहीं थी। मैं समझ चुका था कि दोनों के मन में असल में क्या है इस लिए मैं अब किसी बात से डरने वाला नहीं था। दोनों के चेहरे पर रंग लगाने के बाद मैंने कागज़ से फिर रंग लिया और पास ही रखे गिलास के बचे हुए पानी को अपने हाथ में डाल कर मैंने रंग को अच्छे से मिलाया और फिर आगे बढ़ कर तुलसी के चेहरे पर मलने लगा। चेहरे पर मलने के बाद मैं उसके गले और कुर्ते के खुले हुए हिस्से पर भी लगाने लगा। बगल से खड़ी मीरा मुस्कुराते हुए मुझे देख रही थी जबकि तुलसी कांपते हुए कसमसा रही थी।

"ऐसे चुप न खड़ी रहो तुम दोनों।" मैंने मीरा के चेहरे पर गीला रंग लगाते हुए कहा____"तुम दोनों भी बेझिझक हो कर मुझे रंग लगाओ। तभी तो तुम दोनों को भी मज़ा आएगा।"

मेरी बात सुन कर दोनों मुस्कुराईं और फिर मेरे हाथ से रंग वाला वो कागज़ ले कर दोनों ने उसमे से कुछ रंग लिया और गिलास के जूठे पानी से मिला कर मेरी तरफ बढ़ीं। दोनों को अपनी तरफ बढ़ते देख मैं मुस्कुरा भी रहा था और ये सोच कर मुझे गुदगुदी भी हो रही थी कि बहुत जल्द अब मैं इन दोनों को मसलने वाला हूं।

दोनों बारी बारी से मेरे चेहरे पर रंग लगाने लगीं। दोनों के कोमल कोमल हाथ मेरे चेहरे पर रंग लगाते हुए घूम रहे थे। तभी सहसा मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मीरा को उसकी कमर से पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया जिससे वो एकदम से मुझसे चिपक गई। उसकी ठोस छातियां मेरे सीने के थोड़ा नीचे धंस ग‌ईं। दूसरा हाथ बढ़ा कर मैंने तुलसी को भी ऐसे ही खींच लिया जिससे वो भी मुझसे चिपक गई। मेरे ऐसा करने पर दोनों ही बुरी तरह घबरा गईं और एकदम से मुझसे छूटने की कोशिश करने लगीं।

"ये आप क्या कर रहे हैं वैभव जी?" मीरा कसमसाते हुए बोली____"छोड़िए हमे, ये ग़लत है।"
"अरे कुछ ग़लत नहीं है देवियो।" मैंने कहा____"होली के दिन किसी बात के लिए बुरा नहीं मानना चाहिए और ना ही कुछ ग़लत माना जाता है।"

कहने के साथ ही मैंने दोनों को छोड़ दिया और फिर कागज़ से रंग ले कर उसमे पानी मिलाया और बड़ी तेज़ी से लपक कर मीरा के पीछे आया। इससे पहले कि मीरा कुछ समझ पाती मैंने झुक कर मीरा के कुर्ते के अंदर अपने दोनों हाथ डाले और फिर बड़ी तेज़ी से ऊपर लाते हुए उसकी दोनों छातियों को मुट्ठी में भर कर मसलने लगा। मेरे दोनों ही हाथ रंग से गीले थे जिससे उसकी छातियों पर भी रंग लगता जा रहा था। उधर मीरा मेरी इस हरकत से चीखते हुए उछल ही पड़ी थी। उसने बुरी तरह छटपटाते हुए मुझसे दूर भागने की कोशिश की तो मैंने भी जल्दी ही उसके कुर्ते से अपने दोनों हाथ निकाल लिए। उसका कुर्ता पूरा ऊपर उठ गया था और उसके नंगे पेट के साथ साथ उसकी दोनों छातियां भी दिखने लगीं थी।

इधर तुलसी मेरी इस हरकत से सकते में आ गई थी और वो ऐसे आँखें फाड़े खड़ी रह गई थी जैसे वो बुत बन गई हो। मीरा को छोड़ने के बाद मैंने फिर से रंग ले कर उसमे पानी मिलाया और इस बार तुलसी को पकड़ लिया। जब मेरे हाथ तुलसी के कुर्ते के अंदर पहुंच कर उसकी छातियों को मसलने लगे तो उसे एकदम से होश आया और वो भी बुरी तरह डर चीख पड़ी।

तुलसी की छातियों को मसलते हुए मैंने अच्छी तरह उनमें रंग लगाया और फिर अपने हाथ उसके कुर्ते से निकाल कर उसे छोड़ दिया। दोनों की हालत पल भर में ही ख़राब हो गई थी। मेरी नज़र मीरा पर पड़ी तो देखा वो नज़रें झुकाए अपनी जगह पर खड़ी थी।

"क्या हुआ?" मैंने मीरा के पास आ कर पूछा____"इस तरह चुप चाप क्यों खड़ी हो? अब रंग नहीं लगाना है क्या?"
"वैभव जी ये आपने ठीक नहीं किया।" मीरा ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"भला ऐसे भी कोई किसी को रंग लगाता है?"

"मैं तो ऐसे ही लगाता हूं मीरा जी।" मैंने कहा____"और मैंने तुम दोनों से पहले ही कह दिया था कि मैं एक तो रंग खेलता नहीं हूं और अगर खेलता हूं तो ऐसे ही खेलता हूं। अपना तो एक ही नियम है कि रंग लगाओ तो जिस्म के हर हिस्से पर लगाओ वरना फिर रंग ही ना खेलो। ख़ैर, अगर तुम दोनों को इससे बुरा लगा है तो तुम दोनों जा सकती हो।"

"हमें तो समझ में ही नहीं आ रहा कि अचानक से ये क्या कर दिया था आपने?" तुलसी ने चकित भाव से कहा____"हमने आज तक ऐसे रंग नहीं खेला और ना ही किसी मर्द ने हमारे उस अंग को हाथ लगाया है।"

"इसी लिए कह रहा हूं कि अगर मेरे द्वारा इस तरह से रंग लगाया जाना तुम दोनों को पसंद नहीं आया है।" मैंने कहा____"तो जा सकती हो यहाँ से। मैंने तुम दोनों के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं की है। मैंने इस बारे में पहले ही तुम दोनों को बता दिया था।"

"हां सही कहा आपने।" मीरा ने कहा____"हम तो बस अचानक से आपके द्वारा ऐसा करने से घबरा गए थे। पहली बार किसी मर्द ने हमारे उस अंग को छुआ है। अभी भी ऐसा लग रहा है जैसे आपके हाथों ने हमारे उस अंग को अपनी मुट्ठी में कस रखा है।"

"अच्छा तो फिर बताओ कैसा महसूस हुआ अपनी छातियों को मसलवा कर?" मैंने मुस्कुराते हुए मीरा से कहा तो वो बुरी तरह शरमाते हुए बोली____"धत्त आप बहुत गंदे हैं।"
"तो अब क्या ख़याल है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए कहा____"अभी और रंग खेलना है या इतने से ही पेट भर गया है?"

"आज तो इतने से ही पेट भर गया है।" तुलसी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन इसका बदला हम दोनों एक दिन आपसे ज़रूर लेंगे, याद रखिएगा।"
"बिल्कुल।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"मैं उस बदले वाले खूबसूरत दिन का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार करुंगा।"

मेरी बात सुन कर वो दोनों मुस्कुराईं और फिर अपना रंग वाला कागज़ उठा कर कमरे से बाहर चली गईं। उनके जाने के बाद मैंने मन ही मन कहा____'कोई बात नहीं वैभव सिंह। इन दोनों की चूत बहुत जल्द तेरे लंड को नसीब होगी।'

मेरे हाथों और चेहरे पर रंग लग गया था इस लिए अब मुझे नहाना ही पड़ता मगर उससे पहले मैंने सोचा क्यों न भाभी से भी मिल लिया जाए। आज रंगो का त्यौहार है इस लिए भाभी को भी होली की मुबारकबाद देना चाहिए मुझे। ये सोच कर मैंने अपनी शर्ट से अपने चेहरे का रंग पोंछा और दूसरी शर्ट पहन कर कमरे से बाहर आ गया। पूरी हवेली में लोग एक दूसरे के साथ रंग गुलाल खेलते हुए आनंद ले रहे थे और एक तरफ हवेली के एक कमरे में मेरी भाभी मुझसे नाराज़ हुई पड़ी थी। मैंने भी आज निर्णय कर लिया कि उनसे हर बात खुल कर और साफ़ शब्दों में कहूंगा। उसके बाद जो होगा देखा जाएगा।

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Nevil singh

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हैलो दोस्तो, मैं एक बार फिर से आप सभी के समक्ष एक नई कहानी लेकर हाज़िर हुआ हूं। उम्मीद करता हूं कि इस बार देवनागरी में लिखी हुई ये कहानी आप सभी को पसंद आएगी। आप सभी का साथ एवं सहयोग मेरे लिए बेहद अनिवार्य है क्योंकि बिना आप सबके सहयोग और प्रोत्साहन के कहानी को अपने अंजाम तक पहुंचाना मेरे लिए मुश्किल ही होगा। इस लिए अपना साथ और सहयोग बनाए रखियेगा और साथ ही कहानी के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहिएगा।

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यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। कहानी में मौजूद किसी भी पात्र या किसी भी घटना से किसी के भी वास्तविक जीवन का कोई संबंध नहीं है। कहानी में दिखाया गया समस्त कथानक सिर्फ और सिर्फ लेखक की अपनी कल्पना है जिसका उद्देश्य फक़त अपने पाठकों का मनोरंजन करना है।

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Nayi katha ke savran se parda uthane ka shukriya mitr
 
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