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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.8%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.9%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 41 22.4%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 30 16.4%

  • Total voters
    183

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,718
354
ये बड़े भाई साहब ठाकुर साहब की ही औलाद है न ? लगता तो नहीं है कि इसमें ठाकुरों वाला खून है ! पक्का ये गोद लिया हुआ लगता है और वो भी साहूकारों के किसी परिवार से ।
:lotpot:
वैभव के अंदर वो सब कुछ है जो एक ठाकुर में पाया जाता है । रास रसिया तो है ही , खून भी काफी गरम है ।
Abhi to aap kah rahe the ki wo sahukaaro ke pariwaar se god liya gaya ho sakta hai,,,,:D
वैसे डॉ साहब का कहना सही था। अनुराधा सब कुछ जानने के बाद भी वैभव को देखकर चौवनि्नयां मुस्की काटती थी । फिर एकाएक इन सब बातों के लिए गुस्सा क्यों हो गई ?
और ऐसा लगता है वो भी कुछ बातें वैभव से छुपा रही है ।
Is kahani ka har kirdar kuch na kuch chhupa raha hai,,,,:hint:
बहुत ही बढ़िया अपडेट शुभम भाई ।
आउटस्टैंडिंग अपडेट ।
Bahut bahut shukriya bhaiya ji,,,,:hug:
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,718
354
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 15
----------☆☆☆---------



अब तक,,,,,

बुलेट स्टार्ट कर के मैं गांव की तरफ चल पड़ा। मेरे ज़हन में अभी भी मानिक की बातें गूँज रही थी और मन में कई तरह के सवाल उभर रहे थे। अगर मानिकचंद्र की बात सच थी तो यकीनन उसके बाप ने पिता जी से इस बारे में बात की होगी। अब सवाल ये था कि क्या मुझे पिता जी से इस बारे में पूछना चाहिए? एक तरफ तो मैं हवेली के काम काज में कोई दिलचस्पी नहीं रखता था जबकि दूसरी तरफ ये जानना भी मैं ज़रूरी समझ रहा था। हलांकि सवाल तो ये भी था कि मैं भला इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी समझता था? मुझे तो इससे कोई मतलब नहीं था फिर इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी था मेरे लिए? क्या इस लिए कि मैं ये समझता था कि इस सबका का सम्बन्ध भी कहीं न कहीं मुरारी की हत्या और मेरी फसल में आग लगने से था?

मेरे ज़हन में पिता जी की बातें गूँज उठी। जिसमे वो कह रहे थे कि कुछ लोग हमारे खिलाफ़ कुछ ऐसा करने की फ़िराक में हैं जिससे हमारा वर्चस्व ही ख़त्म हो जाए। अब सवाल ये था कि ऐसे लोग क्या ये शाहूकार ही थे? गांव के साहूकारों ने अचानक ही हमसे अपने सम्बन्ध सुधारने के बारे में क्यों सोचा और सोचा ही नहीं बल्कि इसके लिए वो दादा ठाकुर से बात भी कर चुके हैं? मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि क्या ये किसी तरह की कोई साज़िश है जिसके तार जाने कहां कहां जुड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं?


अब आगे,,,,,


मैं अपने ज़हन में कई सारे सवाल लिए गांव में दाखिल हुआ तो मेरी नज़र मुंशी के घर पर पड़ी। मुझे याद आया कि मैंने मुंशी की बहू को आज शाम बगीचे पर बुलाया है। अभी तो शाम होने में वक़्त था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज रजनी को दबा के चोदूंगा। सरोज काकी के साथ संबंध बनाना अब मुश्किल ही था। अनुराधा को अब सब पता था और आज उसने इस बारे में बात कर के मुझे हिला कर भी रख दिया था। मैं इस बात से बेहद चिंतित हो उठा था कि अनुराधा की नज़र में अब मेरी कोई इज्ज़त नहीं रही। अनुराधा को हासिल करना भी जैसे अब मेरे लिए ख़्वाब ही बन कर रह गया था। अनुराधा एक ऐसी लड़की थी जिस पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था। उसके सामने जाते ही मेरे अंदर का ठाकुर मानो भीगी बिल्ली बन जाता था। मैं अक्सर सोचता था कि ऐसा क्यों होता था? आख़िर मैं हर लड़कियों की तरह अनुराधा को भी अपने नीचे क्यों नहीं लेटा पाता? मेरे इन सवालों के जवाब मेरे पास जैसे थे ही नहीं।

मुंशी के घर के सामने से अभी मैं बुलेट से गुज़र ही जाने वाला था कि तभी मेरे कानो में मुंशी की आवाज़ पड़ी तो मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को धीमी कर के रोक दिया। मुंशी ने छोटे ठाकुर कह कर पुकारा था मुझे। मैं जैसे ही उसके घर के सामने से गुज़रा था तभी वो अपने घर से निकला था और उसकी नज़र मुझ पर पड़ गई थी।

"अच्छा हुआ छोटे ठाकुर कि आप यहीं पर मिल गए मुझे।" मुंशी दौड़ कर मेरे पास आता हुआ बोला____"रघू की माँ ने बताया मुझे कि आपने मुझे मिलने के लिए कहा है तो मैं आपसे ही मिलने हवेली की तरफ जा रहा था।"

"हां मैं आया था एक डेढ़ घंटे पहले।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मेरे पूछने पर काकी ने बताया था कि आप और रघुवीर कहीं गए हैं।"
"जी वो ठाकुर साहब के कहने पर शहर चला गया था।" मुंशी ने कहा____"कल रंगो का त्यौहार है न तो उसी सिलसिले में कुछ ज़रूरी सामान मंगवाया था ठाकुर साहब ने। ख़ैर आप बताइए किस लिए याद किया था आपने मुझे?"

"चलिए अंदर चल कर बात करते हैं।" मैंने कहने के साथ ही मोटर साइकिल को मोड़ कर मुंशी के घर के सामने खड़ी किया और फिर उतर कर मुंशी के घर की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही देर में मैं और मुंशी घर के अंदर बैठक में आ कर बैठे गए। मुंशी ने अपने बेटे रघुवीर को आवाज़ दे कर मेरे लिए जल पान लाने को कहा तो वो जी बाबू जी कह कर अंदर चला गया।

"मैं चाहता हूं कि कल का त्यौहार हो जाने के बाद।" रघुवीर अंदर चला गया तो मैंने मुंशी से कहा____"आप कुछ कारीगर और मजदूरों को ले कर मेरे लिए एक मकान का निर्माण करवाएं।"

"मकान का निर्माण??" मेरी बात सुन कर मुंशी चौंका____"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?"
"इसमें इतना चौंकने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि मुझे हवेली में सबके बीच रहना पसंद नहीं है। इस लिए मैं चाहता हूं कि जितना जल्दी हो सके आप एक छोटे से मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दें। मकान उसी जगह पर बनना चाहिए जहां पर मैं गांव से निष्कासित किए जाने पर चार महीने रहा हूं।"

"यदि आपका यही हुकुम है तो मैं ज़रूर आपके इस हुकुम का पालन करुंगा।" मुंशी ने गहरी सांस ले कर कहा____"किन्तु उससे पहले मुझे इसके लिए ठाकुर साहब से भी बात करनी पड़ेगी। आप तो जानते हैं कि उनकी इजाज़त के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता।"

"ठीक है आप पिता जी से आज ही इस बारे में बात कर लीजिए।" मैंने कहा____"लेकिन इस बात का ख़याल रहे कि अगर पिता जी इस कार्य के लिए अपनी इजाज़त नहीं भी देते हैं तब भी आपको ये कार्य करना है।"

"आप तो मुझे बहुत बड़े धर्म संकट में डाल रहे हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी के माथे पर पसीना उभर आया____"अगर ठाकुर साहब ने मुझे उस जगह पर आपके लिए मकान बनवाने की इजाज़त नहीं दी तो मैं उनकी अवज्ञा कर के कैसे ये कार्य कर पाऊंगा?"

"आपको उनसे इस कार्य के लिए इजाज़त लेनी ही होगी।" मैंने स्पस्ट भाव से कहा____"और आप ये कैसे करेंगे ये आप जानिए। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि कल का त्यौहार होने के बाद परसों उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू हो जाना चाहिए और अगर ऐसा न हुआ तो इसका अंजाम क्या होगा इस बारे में भी आप सोच लीजिएगा। ख़ैर अब चलता हूं मैं।"

कहने के साथ ही मैं उठ कर खड़ा हो गया। मेरी बातें सुन कर मुंशी के चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। तभी रघुवीर अंदर से थाली में कुछ खाने की चीज़ें और पानी ले कर आया तो मैंने उसे हाथ का इशारा कर के वापस भेज दिया।

मुंशी मुझे छोड़ने के लिए घर से बाहर तक आया। मैंने मोटर साइकिल स्टार्ट की और हवेली की तरफ निकल गया। साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा दरवाज़े पर एक लड़की खड़ी थी। मुझसे नज़र मिलते ही वो अंदर की तरफ भाग ग‌ई। उसे इस तरह भागता देख मैं मुस्कुरा उठा और फिर आगे बढ़ गया।

हवेली में आ कर मैंने मोटर साइकिल खड़ी की और मुख्य दरवाज़े से अंदर दाखिल हुआ तो मेरी नज़र बाएं तरफ बड़े से बैठक में सिंघासन पर बैठे दादा ठाकुर पर पड़ी। उनके पास ही बड़े भैया और मझले ठाकुर यानी चाचा जी खड़े थे।

"वैभव सिंह।" दादा ठाकुर की कड़क आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैं एकदम से अपनी जगह पर रुक गया और फिर गर्दन घुमा कर उनकी तरफ देखा।

"ये क्या सुन रहे हैं हम?" मुझे अपनी तरफ देखता देख उन्होंने कड़क आवाज़ में ही कहा____"तुमने शाहूकार हरिशंकर के लड़के को मारा और उसका हाथ तोड़ दिया? क्या हम जान सकते हैं कि ऐसा क्यों किया तुमने?"

"ग़लती हो गई पिता जी।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मुझे उसका हाथ नहीं तोड़ना चाहिए था बल्कि उसे जान से ही मार देना चाहिए था।"
"ख़ामोश।" मेरी बात सुन कर पिता जी गुस्से में गरज उठे____"तुम्हें अंदाज़ा भी है कि तुमने ऐसा कर के कितना बड़ा अपराध किया है?"

"पिता जी मैंने तो इसे रोकने की बहुत कोशिश की थी।" बड़े भैया ने ये कहा तो पिता जी उनकी तरफ देखते हुए गरजे____"तुम चुप रहो। तुम्हारी बातें हमने सुन ली हैं।" कहने के साथ ही पिता जी मेरी तरफ मुखातिब हुए____"तुम जगताप के साथ अभी हरिशंकर के घर जाओ और उससे अपने किए की माफ़ी मांगो।"

"माफ़ करना पिता जी।" मैंने आवेश में आ कर कहा____"वैभव सिंह अपना सिर कटा सकता है लेकिन उन दो कौड़ी के साहूकारों के सामने अपना सिर झुका कर उनसे माफ़ी नहीं मांग सकता।"

"तुम हमारे हुकुम को मानने से इंकार कर रहे हो?" दादा ठाकुर ने कहर भरी नज़रों से मुझे देखते हुए कहा____"इसका अंजाम जानते हो न तुम?"
"वैभव सिंह ने आज तक किसी अंजाम की परवाह नहीं की पिता जी।" मैंने जानदार मुस्कान के साथ कहा____"और ये बात आपसे बेहतर भला कौन जानता होगा?"

"जागताप।" पिता जी ने गुस्से से चाचा जी की तरफ देख।
"जी बड़े भैया।" चाचा जी एकदम से तन कर खड़े हो ग‌ए।
"इस गुस्ताख़ को।" पिता जी ने गुस्से में हर शब्द को जैसे चबाते हुए कहा____"गिन गिन कर पचास कोड़े लगाओ और इस बात का ख़याल रहे कि कोड़े का हर प्रहार इसकी ऐसी चीखें निकाले कि इसकी चीखों से हवेली का ज़र्रा ज़र्रा दहल जाए।"

"ये आप क्या कह रहे हैं बड़े भैया?" चाचा जगताप ने ब्याकुल भाव से कहा____"इसे माफ़ कर दीजिए। इसकी तरफ से मैं हरिशंकर के घर जा कर उससे माफ़ी मांग लेता हूं।"

"क्या अब तुम भी हमारा हुकुम मानने से इंकार कर रहे हो जगताप?" पिता जी ने चाचा जी को गुस्से से देखते हुए कहा तो चाचा जी जल्दी से बोल पड़े____"नहीं नहीं, मैं भला ऐसी गुस्ताख़ी कैसे कर सकता हूं बड़े भैया। मैं तो बस आपसे...!"

"हम कुछ नहीं सुनना चाहते।" पिता जी ने शख़्त भाव से कहा____"हमने जो कहा है उसका पालन करो। इस नामुराद ने जो किया है उसके लिए इसे माफ़ नहीं किया जाएगा।"

"चाचा जी।" मैंने जगताप चाचा जी को आवाज़ लगाते हुए कहा____"आप पिता जी के हुकुम का पालन कीजिए। ये मत सोचिए कि सज़ा देने वाले के दिल में रहम होगा कि नहीं और ये भी मत सोचिए कि सज़ा जायज़ भी होगी कि नहीं, क्योंकि यहाँ तो अपने मतलब के लिए भी सज़ा दे दी जाती है। यहाँ तो अपने स्वार्थ के लिए अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना दिया जाता है, और फिर ऊपर से ये सफाई दी जाती है कि जो कुछ किया गया है उससे इस ठाकुर खानदान का भला होना था। ख़ैर अब देर मत कीजिए चाचा जी, उठाइए कोड़ा और उसे मेरे जिस्म पर पूरी ताकत से बरसाइ‌ए। आपके हर प्रहार पर निकलने वाली मेरी चीखें ऐसी होनी चाहिए जिससे दादा ठाकुर के कलेजे को एक असीम सुख की अनुभूति हो।"

"देखा इस बददमीज़ को?" पिता जी ने चाचा जी की तरफ देखते हुए गुस्से में कहा____"कैसी जुबान में बात कर रहा है ये। इसे लगता है कि इसके साथ जो कुछ हुआ है वो बहुत ही ग़लत हुआ है और इसने जो कुछ आज तक किया है वो सब कुछ सही था। इससे पूछो कि इसने अपनी अब तक की उम्र में ऐसा कौन सा अच्छा काम किया है जिसकी वजह से ठाकुर खानदान का नाम आसमान तक ऊंचा हो गया हो? इससे पूछो जगताप कि इसने आज तक ऐसी कौन सी जिम्मेदारी निभाई है जिसके लिए हमें इस पर गर्व होना चाहिए? इससे ये भी पूछो कि इसने इस गांव की किस औरत को अपनी हवश का शिकार न बनाने से बचाया है? बड़ी बड़ी बातें करने वाला एक बार अपने खुद के गिरेहबान में भी झाँक कर देखे कि उसने आज तक कितने अच्छे अच्छे काम किए हैं?"

"मैंने तो कभी ये कहा ही नहीं कि मैं अच्छा इंसान हूं या मैंने अच्छे काम किए हैं।" मैंने भी पलटवार करने का दुस्साहस किया____"लेकिन इस हवेली में जो खुद को दूध का धुला हुआ समझते हैं उन्होंने खुद कौन सा अच्छा काम किया है? अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना कर जंगल में मरने के लिए छोड़ दिया। मैं पूछता हूं कि अगर कोई हम ठाकुरों के खिलाफ़ किसी तरह की साज़िश ही कर रहा था तो उसके लिए क्या ज़रूरी था कि मुझे इस तरह से गांव से निष्कासित कर दिया जाए? इतने पर भी जब खुद को तसल्ली नहीं मिली तो ये भी हुकुम सुना दिया गया कि गांव का कोई भी इंसान मेरी मदद भी ना करे। वाह! बहुत खूब, इसका तो यही मतलब हुआ कि मेरे साथ ऐसा इस लिए किया गया ताकि मैं उस बंज़र ज़मीन पर रहते हुए एक दिन भूखों मर जाऊं और इस हवेली में राज करने वाले दादा ठाकुर को मेरे जैसी नालायक औलाद से मुक्ति मिल जाए।"

"चटाकककक!" जगताप चाचा ने एकदम से खींच कर मेरे गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया और फिर गुस्से में बोले____"अपनी हद में रहो वैभव सिंह। हम मानते हैं कि हमसे ग़लती हुई है मगर इसका मतलब ये नहीं कि तुम जो मन में आए बोलते ही चले जाओ। तुमने दादा ठाकुर की एक ग़लती का तो बखान कर दिया मगर तुमने खुद जो आज तक इतनी ग़लतियां की हैं उसका क्या? तुम किसी को ये सब बोलने का तभी हक़ रख सकते हो जब तुम खुद अपनी जगह सही रहो। अगर तुम खुद ग़लत हो तो तुम्हे कोई अधिकार नहीं है किसी को उसकी ग़लती का एहसास दिलाने का।"

"भाड़ में जाए ग़लती और भाड़ में जाए ग़लती का एहसास।" मैंने गुस्से में तमतमाए हुए लहजे में कहा____"मैं थूकता हूं इस हवेली पर। आपको और आपके दादा ठाकुर को मुबारक हो ये हवेली और इस हवेली का राज पाठ। वैभव सिंह को इस हवेली से कुछ नहीं चाहिए।"

"वैभव सिंह।" दादा ठाकुर गुस्से में दहाड़े मगर मैं उनकी कोई परवाह किए बिना पलटा और हवेली से बाहर निकल गया। इस वक़्त मेरे अंदर गुस्से का दावानल धधक रहा था। मन कर रहा था दुनिया के हर इंसान की जान ले लूं।

गुस्से की आग में भभकता हुआ मैं तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े को पार कर गया। इस वक़्त मैं इतने गुस्से में था कि अगर कोई मुझे ज़रा सा भी टोक देता तो मैं उसकी जान ले लेता। कच्ची सड़क पर मैं पैदल ही बढ़ा चला जा रहा था। कुछ दूरी से ही गांव की आबादी शुरू हो जाती थी। सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। उन मकानों में रहने वाले अपने अपने काम में लगे हुए थे। कोई मवेशियों को चारा भूषा डाल रहा था तो कोई पानी पिला रहा था। सड़क पर कुछ औरतें हाथ में मिटटी का घड़ा ले कर साहूकारों के घर के पास ही बने कुएं पर पानी भरने जा रहीं थी। मुझ पर जिस किसी की भी नज़र पड़ती तो वो अपना सिर झुका कर हाथ जोड़ लेता था मगर मैं बिना उनकी तरफ देखे गुस्से में आगे बढ़ता ही जा रहा था।

गांव में अब तक ये ख़बर फैल चुकी थी कि मैंने शाहूकार हरिशंकर के लड़के को मारा है और उसका हाथ भी तोड़ दिया है। गांव के लोग जानते थे कि साहूकारों के लड़कों से मेरा झगड़ा होना कोई नई बात नहीं थी और वो ये भी जानते थे कि गांव के शाहूकार ठाकुरों से बैर भाव रखते हैं। आज तक जितनी बार भी मेरी साहूकारों के लड़कों से मार पीट हुई थी उससे मुझ पर कोई आंच नहीं आई थी। इसकी वजह ये थी कि गांव का हर आदमी जानता था कि ठाकुर खानदान का कोई भी सदस्य साहूकारों से या उनके लड़कों से बेवजह नहीं उलझता था। इस लिए जब भी ऐसा कोई मामला होता था तो पंचायत में गांव का हर आदमी हमारा ही पक्ष लेता था।

ऐसा नहीं था कि गांव के लोग हमारे खिलाफ़ बोलने से डरते थे बल्कि वो दादा ठाकुर की इज्ज़त करते थे और वो ये बात अच्छी तरह जानते थे कि गांव के शाहूकार ठाकुरों से जलते हैं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए उलटी सीधी हरकतें करते रहते हैं। एक महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि गांव के शाहूकार गांव के लोगो को कर्ज़ा तो दे देते थे लेकिन उस कर्ज़े का ब्याज इतना बढ़ा देते थे कि ग़रीब इंसान उसे चुका ही नहीं पाता था और फिर नौबत ये आ जाती थी कि ग़रीब इंसान को अपनी ज़मीन से हाथ धोना पड़ जाता था। कई बार ऐसा मामला दादा ठाकुर तक पंहुचा था और पंचायत भी बैठाई गई जिसमे ज़्यादातर फैसला आम इंसान के खिलाफ़ ही हुआ था। क्योंकि शाहूकार इतने मक्कार और चतुर थे कि वो अपने खिलाफ़ ऐसे मामले के प्रति कोई सबूत ही नहीं बचाते थे। अब सवाल ये था कि ऐसे में ग़रीब इंसान का क्या होता था तो उसका जवाब ये है कि दादा ठाकुर उस ग़रीब को अपनी तरफ से कुछ ज़मीन देते थे और उसकी मदद करते थे। यही वजह थी कि गांव का हर आदमी ठाकुर खानदान को मानता था और उन्हें इज्ज़त देता था।

मैं गुस्से में भन्नाया हुआ साहूकारों के घर के पास आ गया। हरिशंकर के घर के बाहर सड़क के किनारे पर एक पीपल का पेड़ था जिसके नीचे बड़ा सा चबूतरा बना हुआ था। मैं जैसे ही हरिशंकर के घर के सामने आया तो मेरी नज़र हरिशंकर के बड़े भाई मणिशंकर पर पड़ी। वो अभी अभी हरिशंकर के घर से निकला था और उसके पीछे हरिशंकर और उसके दोनों भतीजे भी निकले थे। मणिशंकर के चेहरे पर इस वक़्त शख़्त भाव थे और उसके दोनों बेटे भी गुस्से में दिख रहे थे जबकि हरिशंकर गंभीर नज़र आ रहा था। मैं समझ तो गया था किन्तु अपने को तो घंटा कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था इस लिए आगे बढ़ चला।

"छोटे ठाकुर।" अभी मैं पीपल के पेड़ के पास ही पंहुचा था कि मेरे कानों में ये मर्दाना आवाज़ पड़ी जिससे मैं रुक गया और पलट कर आवाज़ की दिशा में देखा।

"तुमने मेरे भतीजे को मारा और उसका एक हाथ तोड़ दिया।" मणिशंकर मेरे क़रीब आ कर शख़्त भाव से बोला____"ये तुमने ठीक नहीं किया छोटे ठाकुर।"
"शुकर मनाओ कि मैंने सिर्फ उसका हाथ ही तोड़ा है।" मैं पहले से ही गुस्से में भन्नाया हुआ था इस लिए गुर्राते हुए बोला____"वरना अपनी औकात से बाहर होने वाले को मैं ज़िंदा ही नहीं छोड़ता।"

"ख़ून में इतनी गर्मी ठीक नहीं है छोटे ठाकुर।" मणि शंकर ने पहले की तरह ही शख़्ती से कहा____"हम हमेशा से यही चाहते आ रहे हैं कि ठाकुरों से हमारा इस तरह का मन मुटाव न हो कि हमें भी उनका प्रतिकार करना पड़े मगर हम कई बार ये देख चुके हैं कि तुम हमारे घर के लड़कों को बेवजह ही पीट देते हो। अब हम ये बरदास्त नहीं करेंगे।"

"तो उखाड़़ लो जो उखाड़ना हो।" मैं उसके एकदम क़रीब जा कर बोला तो वो दो क़दम पीछे हट गया____"ठाकुर वैभव सिंह किसी के बाप से भी नहीं डरता। इस वक़्त तुम्हारे सामने अकेला ही खड़ा हूं। अगर दम है तो मेरी झाँठ का एक बाल ही उखाड़ कर दिखा दो।"

"पिता जी से तमीज़ में बात कर ठाकुर के पूत।" मणि शंकर का बड़ा बेटा चंद्रभान गुस्से से बोल पड़ा____"वरना एक ही झटके में तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा।"
"अगर सच में तू अपने इसी बाप की औलाद है।" मैंने क़हर भरी नज़रों से उसकी तरफ देखते हुए कहा___"तो मेरी गर्दन मरोड़ के दिखा। मैं भी देखता हूं कि तेरे बाप के वीर्य में कितना दम है और तेरी माँ के दूध में कितना ज़हर है।"

मेरी बातें सुन कर चन्द्रभान बुरी तरह आग बबूला हो गया और मैं यही तो चाहता था। इस वक़्त गुस्से की आग में मेरा बहुत मन कर रहा था कि मैं किसी को जी भर के पेलूं। इससे पहले कि उसका बाप उसे कुछ कह पाता वो गुस्से से फुँकारते हुए बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ लपका। जैसे ही मेरे क़रीब आ कर उसने मेरी गर्दन पकड़ने की कोशिश की तो मैं तेज़ी से नीचे झुका और दोनों हाथों से उसकी दोनों टांगों को पकड़ कर उसे उठा लिया और दाएं तरफ बने चबूतरे में पूरी ताकत से उछाल दिया जिससे वो भरभरा कर चबूतरे की बाट पर गिरा। चबूतरे की बाट उसकी पीठ पर ज़ोर से लगी थी जिससे उसकी चीख निकल गई थी।

अभी वो दर्द को बरदास्त करते हुए उठ ही रहा था कि मैंने ज़ोर की लात उसके सीने पर मारी जिससे वो हिचकी लेते हुए चित्त पसर गया और उसका सिर पीछे की तरफ चबूतरे से टकरा गया। यकीनन कुछ पलों के लिए उसकी आंखों के सामने सितारे जगमगाए होंगे। तभी पीछे से किसी ने मुझे दबोच लिया। मैंने सिर को पीछे की तरफ हल्का सा मोड़ कर देखा तो वो सूर्यभान था। मणिशंकर का दूसरा बेटा जिसने मुझे पीछे से दबोच लिया था। उसने मुझे कस के पकड़ा हुआ था और मैं उससे छूटने की कोशिश कर रहा था। तभी मैंने देखा सामने से चन्द्रभान उठ कर मेरी तरफ तेज़ी से बढ़ा तो मैंने ज़ोर से एक लात इसके पेट में मारी जिससे वो पेट पकड़ कर रह गया। इधर मैंने अपनी कोहनी का वार बड़ी तेज़ी से पीछे सूर्यभान पर किया। कोहनी का वार उसकी काख के निचले हिस्से पर लगा था जिससे उसकी घुटी घुटी सी कराह निकल गई थी और उसकी पकड़ ढीली पड़ गई थी।

मैं जानता था कि ये दोनों भाई हरामी की औलाद हैं और ये दोनों मिल कर अब मुझे पेलेंगे। इस लिए मैंने उन दोनों को कोई मौका देना उचित नहीं समझा। सूर्यभान की पकड़ ढीली हुई तो मैंने फ़ौरन ही उससे खुद को छुड़ा लिया और पलट कर एक घूंसा उसकी नाक में जड़ दिया जिससे उसकी नाक टूट गई और वो दर्द से चीखते हुए अपनी नाक पकड़ कर पीछे हटता चला गया। उसकी नाक से खून की धार बह निकली थी। अभी मैं पलटा ही था कि मेरी पीठ पर चन्द्रभान ने बड़े ज़ोर की लात मारी जिससे मैं लहरा कर मुँह के बल ज़मीन पर गिरा मगर जान बूझ कर एक दो पलटियां भी लिया और ये अच्छा ही किया था मैंने वरना चन्द्रभान की लात एक बार से मेरी पीठ पर पड़ जाती। मैं पलटियां खाया तो चन्द्रभान के लात का खाली वार ज़मीन पर लगा था।

मैं बड़ी तेज़ी से खड़ा हुआ और देखा कि सूर्यभान हाथ में एक डंडा लिए मेरी तरफ लपका। इससे पहले कि वो मुझ तक पहुँचता वातावरण में बंदूख के चलने की बड़ी तेज़ आवाज़ गूँजी जिससे सूर्यभान अपनी जगह पर रुक गया। मणिशंकर तो बंदूख की आवाज़ सुन कर उछल ही पड़ा था। उसने पलट कर देखा तो कुछ ही दूर सड़क पर जगताप चाचा बंदूख लिए खड़े थे और उनके साथ चार हट्टे कट्टे आदमी भी हाथों में बंदूख लिए खड़े थे। जगताप चाचा और उन चार आदमियों को देख कर मणिशंकर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। यही हाल उसके भाई हरिशंकर और उसके दोनों बेटों का भी था।

"हम जानते थे कि यही होगा।" जगताप चाचा मणि शंकर की तरफ बढ़ते हुए शख़्त भाव से बोले____"पर इतना जल्दी होगा इसकी हमने कल्पना नहीं की थी।"
"मझले ठाकुर।" मणिशंकर ने सहमे हुए से भाव में कहा____"मैं तो छोटे ठाकुर को यहाँ देख कर इनसे बस ये पूछ रहा था कि इन्होंने मेरे भतीजे को क्यों मारा था मगर ये तो उल्टा मुझे ही उल्टा सीधा बोलने लगे। इनके उल्टा सीधा बोलने पर मेरे बेटे भी खुद को रोक नहीं पाए और फिर ये सब हो गया। कृपया इन्हें माफ़ कर दीजिए।"

"तुम्हारे भतीजे के साथ जो कुछ भी वैभव ने किया है।" जगताप चाचा ने कहा____"उसके लिए तुम्हें दादा ठाकुर के पास शिकायत ले कर जाना चाहिए था। अगर तुम ऐसा करते तो यकीनन तुम्हें न्याय मिलता मगर तुमने ऐसा नहीं किया बल्कि खुद ही न्याय करने का सोचा और हमारे भतीजे को यहाँ अकेला देख कर तुमने अपने बेटों के द्वारा उस पर हमला करवा दिया। तुम्हारा ये दुस्साहस कि तुमने ठाकुर खानदान के एक सदस्य पर अपने बेटों के द्वारा हाथ उठवाया। अब तुम खुद इसके अपराधी हो गए हो मणिशंकर और इसके लिए तुम्हें और तुम्हारे इन दोनों बेटों को सज़ा सज़ा भुगतनी होगी।"

"नहीं नहीं मझले ठाकुर।" मणिशंकर से पहले उसका छोटा भाई हरीशंकर बोल पड़ा____"ये जो कुछ भी हुआ है वो बड़े भाई साहब के कहने पर नहीं हुआ है बल्कि ये तो इन लड़कों की वजह से ही हुआ है। छोटे ठाकुर ने बड़े भाई साहब को उल्टा सीधा बोला था जिससे चन्द्रभान सहन नहीं कर सका। बस उसके बाद ये सब हो गया।"

"तुम हमें सफाई मत दो हरिशंकर।" जगताप चाचा ने गुस्से में कहा____"हम अपनी आँखों से सारा तमाशा देख रहे थे। जब तुम्हारे दोनों भतीजे वैभव के साथ हाथा पाई करने लगे थे तब तुम दोनों चुप चाप खड़े तमाशा देख रहे थे और यही चाह रहे थे कि तुम्हारे ये दोनों भतीजे वैभव को मारें। इसका मतलब ये सब तुम दोनों की इच्छा से ही हो रहा था। तुम दोनों ये चाहते ही नहीं थे कि तुम्हें दादा ठाकुर के द्वारा न्याय मिले।"

"नहीं नहीं मझले ठाकुर।" मणिशंकर बेबस भाव से कह उठा____"ऐसी बात नहीं है। हम सब तो घर से निकले ही यही सोच कर थे कि दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाएंगे। घर से बाहर आए तो छोटे ठाकुर दिख गए इस लिए मैं बस उनसे पूछने लगा था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? मुझे तो अंदाज़ा भी नहीं था कि ये मेरे पूछने पर मुझे उल्टा सीधा बोलेंगे और फिर ये सब हो जाएगा।"

"अब इसका फ़ैसला दादा ठाकुर ही करेंगे।" जगताप चाचा ने कहा____"तुम सब इसी वक़्त हवेली चलोगे।" कहने के साथ ही चाचा जी मेरी तरफ मुखातिब हुए____"तुम्हें भी हवेली चलना होगा।"

"मैं अपना फैसला खुद करता हूं।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मैं ऐसे इंसान के पास न्याय के लिए नहीं जाऊंगा जो अपने मतलब के लिए अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना देता है।"

"वैभव सिंह।" जगताप चाचा गुस्से में इतनी ज़ोर से दहाड़े कि बाकी तो सब सहम गए मगर मुझ पर घंटा कोई फ़र्क नहीं पड़ा, जबकि वो बोले____"अपनी इस जुबान को लगाम दो वरना तुम्हारी ज़ुबान काट दी जाएगी।"

"हाथ में बंदूख ले कर।" मैंने ब्यंग भाव से मुस्कुराते हुए कहा____"और कुत्तों की फ़ौज ले कर मुझे मत डराइए चाचा जी। वैभव सिंह उस ज़लज़ले का नाम है जिसकी दहाड़ से पत्थरों के भी दिल दहल जाते हैं। ख़ैर आप इन लोगों को ले जाइए क्योंकि इन्हें ही न्याय की ज़रूरत है। दादा ठाकुर का जो भी फैसला हो उसका फ़रमान ज़ारी कर दीजिएगा। वैभव सिंह आपसे वादा करता है कि फ़ैसले का फरमान सुन कर सज़ा के लिए हाज़िर हो जाएगा।"

मेरी बात सुन कर जहां दोनों शाहूकार और उनके बेटे आश्चर्य चकित थे वहीं जगताप चाचा दाँत पीस कर रह ग‌ए। इधर मैं इतना कहने के बाद पलटा और चन्द्रभान की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला____"तेरे बाप का वीर्य तो गंदे नाली के पानी से भी ज़्यादा गया गुज़रा निकला रे...चल हट सामने से।"

चन्द्रभान मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह तिलमिला कर रह गया जबकि मैं अपने कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ आगे बढ़ गया मगर मैं ये न देख सका कि मेरे जाते ही वहां पर किसी के होठों पर बहुत ही जानदार और ज़हरीली मुस्कान उभर आई थी।

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