• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.7%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.4%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.5%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 42 22.7%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.8%

  • Total voters
    185

Naik

Well-Known Member
20,242
75,373
258
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 12
----------☆☆☆---------


अब तक,,,,,

मैं हवेली से बाहर आया और कुछ ही दूरी पर खड़ी जीप की तरफ बढ़ चला। मेरे ज़हन में अभी भी यही सवाल था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां लिए जा रहे हैं? मैंने तो आज के दिन के लिए कुछ और ही सोच रखा था। ख़ैर जीप में चालक की शीट पर बैठ कर मैंने चाभी लगा कर जीप को स्टार्ट किया और उसे आगे बढ़ा कर हवेली के मुख्य द्वार के सामने ले आया। कुछ ही देर में पिता जी आए और जीप में मेरे बगल से बैठते ही बोले चलो तो मैंने बिना कोई सवाल किए जीप को आगे बढ़ा दिया।

अब आगे,,,,,


मैं ख़ामोशी से जीप चलाते हुए गांव से बाहर आ गया था। मेरे कुछ बोलने का तो सवाल ही नहीं था किन्तु पिता जी भी ख़ामोश थे और उनकी इस ख़ामोशी से मेरे अंदर की बेचैनी और भी ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। मैं जीप तो ख़ामोशी से ही चला रहा था किन्तु मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था।

"हम शहर चल रहे हैं।" गांव के बाहर एक जगह दो तरफ को सड़क लगी हुई थी और जब मैंने दूसरे गांव की तरफ जीप को मोड़ना चाहा तो पिता जी ने सपाट भाव से ये कहा था। इस लिए मैंने जीप को दूसरे वाले रास्ते की तरफ फ़ौरन ही घुमा लिया।

"हम चाहते हैं कि अब तक जो कुछ भी हुआ है।" कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पिता जी ने कहा____"उस सब को भुला कर तुम एक नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो और कुछ ऐसा करो जिससे हमें तुम पर गर्व हो सके।"

पिता जी ये कहने के बाद ख़ामोश हुए तो मैं कुछ नहीं बोला। असल में मैं कुछ बोलने की हालत में था ही नहीं और अगर होता भी तो कुछ नहीं बोलता। इस वक़्त मैं सिर्फ ये जानना चाहता था कि पिता जी मुझे अपने साथ शहर किस लिए ले जा रहे थे?

"तुम जिस उम्र से गुज़र रहे हो।" मेरे कुछ न बोलने पर पिता जी ने सामने सड़क की तरफ देखते हुए फिर से कहा____"उस उम्र से हम भी गुज़र चुके हैं और यकीन मानो हमने अपनी उस उम्र में ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिससे कि हमारे पिता जी के मान सम्मान पर ज़रा सी भी आंच आए। शोलों की तरह भड़कती हुई ये जवानी हर इंसान को अपने उम्र पर आती है लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं होना चाहिए कि हम जवानी के उस जोश में अपने होशो हवास ही खो बैठें। किसी चीज़ का बस शौक रखो नाकि किसी चीज़ के आदी बन जाओ। उम्र के हिसाब से हर वो काम करो जो करना चाहिए लेकिन ज़हन में ये ख़याल सबसे पहले रहे कि हमारे उस काम से ना तो हमारे मान सम्मान पर कोई दाग़ लगे और ना ही हमारे खानदान की प्रतिष्ठा पर कोई धब्बा लगे। हम इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों के भी राजा हैं और राजा का फर्ज़ होता है अपने आश्रित अपनी प्रजा का भला करना ना कि उनका शोषण करना। अगर हम ही उन पर अत्याचार करेंगे तो प्रजा बेचारी किसको अपना दुखड़ा सुनाएगी? जो ख़ुशी किसी को दुःख पहुंचा कर मिले वो ख़ुशी किस काम की? कभी सोचा है कि दो पल की ख़ुशी के लिए तुमने कितनों का दिल दुखाया है और कितनों की बद्दुआ ली है? मज़ा किसी चीज़ को हासिल करने में नहीं बल्कि किसी चीज़ का त्याग और बलिदान करने में है। असली आनंद उस चीज़ में है जिसमे हम किसी के दुःख को दूर कर के उसे दो पल के लिए भी खुश कर दें। जब हम किसी के लिए अच्छा करते हैं या अच्छा सोचते हैं तब हमारे साथ भी अच्छा ही होता है। अपनी प्रजा को अगर थोड़ा सा भी प्यार दोगे तो वो तुम्हारे लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देंगे।"

पिता जी ने लम्बा चौड़ा भाषण दे दिया था और मैं ये सोचने लगा था कि क्या यही सब सुनाने के लिए वो मुझे अपने साथ ले कर आए हैं? हलांकि उनकी बातों में दम तो था और यकीनन वो सब बातें अपनी जगह बिलकुल ठीक थीं किन्तु वो सब बातें मेरे जैसे इंसान के पल्ले इतना जल्दी भला कहां पड़ने वाली थी? ख़ैर अब जो कुछ भी था सुनना तो था ही क्योंकि अपने पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था।

"ख़ैर छोडो इन सब बातों को।" पिता जी ने मेरी तरफ एक नज़र डालते हुए कहा____"तुम अब बच्चे नहीं रहे जिसे समझाने की ज़रूरत है। वैसे भी हमने तो अब ये उम्मीद ही छोड़ दी है कि हमारी अपनी औलाद कभी हमारी बात समझेगी। एक पिता जब अपनी औलाद को सज़ा देता है तो असल में वो खुद को ही सज़ा देता है क्योंकि सज़ा देने के बाद जितनी पीड़ा उसकी औलाद को होती है उससे कहीं ज़्यादा पीड़ा खुद पिता को भी होती है। तुम ये बात अभी नहीं समझोगे, बल्कि तब समझोगे जब तुम खुद एक बाप बनोगे।"

पिता जी की बातें कानों के द्वारा दिलो दिमाग़ में भी उतरने लगीं थी और मेरे न चाहते हुए भी वो बातें मुझ पर असर करने लगीं थी। ये समय का खेल था या प्रारब्ध का कोई पन्ना खुल रहा था?

"हम तुम्हें ये समझाना चाहते हैं कि आज कल समय बहुत ख़राब चल रहा है।" थोड़ी देर की चुप्पी के बाद पिता जी ने फिर कहा____"इस लिए सम्हल कर रहना और सावधान भी रहना। गांव के साहूकारों की नई पौध थोड़ी अलग मिजाज़ की है। हमें अंदेशा है कि वो हमारे ख़िलाफ़ कोई जाल बुन रहे हैं और निश्चय ही उस जाल का पहला मोहरा तुम हो।"

पिता जी की ये बात सुन कर मैं मन ही मन बेहद हैरान हुआ। मन में सवाल उभरा कि ये क्या कह रहे हैं पिता जी? मेरे ज़हन में तो साहूकारों का ख़याल दूर दूर तक नहीं था और ना ही मैं ये सोच सकता था कि वो लोग हमारे ख़िलाफ़ कुछ सोच सकते हैं।

"हम जानते हैं कि तुम हमारी इन बातों से बेहद हैरान हुए हो।" पिता जी ने कहा____"लेकिन ये एक कड़वा सच हो सकता है। ऐसा इस लिए क्योंकि अभी हमें इस बात का सिर्फ अंदेशा है, कोई ठोस प्रमाण नहीं है हमारे पास। हलांकि सुनने में कुछ अफवाहें आई हैं और उसी आधार पर हम ये कह रहे हैं कि तुम उनके जाल का पहला मोहरा हो सकते हो। हमें लगता है कि मुरारी की हत्या किसी बहुत ही सोची समझी साज़िश का नतीजा है। मुरारी की हत्या में तुम्हें फसाना भी उनकी साज़िश का एक हिस्सा है। हमें हमारे आदमियों ने सब कुछ बताया था इस लिए हम दरोगा से मिले और उससे इस बारे में पूछतांछ की मगर उसने भी फिलहाल अनभिज्ञता ही ज़ाहिर की। हलांकि उसने हमें बताया था कि मुरारी का भाई जगन उसके पास रपट लिखवाने आया था। जगन के रपट लिखवाने पर दरोगा मुरारी की हत्या के मामले की जांच भी करने जाने वाला था मगर हमने उसे जाने से रोक दिया। हम समझ गए थे कि मुरारी की हत्या का आरोप तुम पर लगाया जायेगा इसी लिए हमने दरोगा को इस मामले को हाथ में लेने से रोक दिया था। हम ये तो जानते थे कि तुमने कुछ नहीं किया है मगर शक की बिना पर दरोगा तुम्हें पकड़ ही लेता और हम ये कैसे चाह सकते थे कि ठाकुर खानदान का कोई सदस्य पुलिस थाने की दहलीज़ पर कदम भी रखे।"

"तो आपके कहने पर दरोगा जगन काका के रपट लिखवाने पर भी नहीं आया था?" मैंने पहली बार उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आपको नहीं लगता कि ऐसा कर के आपने ठीक नहीं किया है? अगर मुरारी काका की हत्या का आरोप मुझ लगता तो लगने देते आप। दरोगा तो वैसे भी हत्या के मामले की जांच करता और देर सवेर उसे पता चल ही जाता कि हत्या मैंने नहीं बल्कि किसी और ने की है।"

"तुम क्या समझते हो कि हमने दरोगा को मुरारी की हत्या की जांच करने से ही मना कर दिया था?" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"हमने तो उसे सिर्फ मुरारी के घर न जाने के लिए कहा था। बाकी मुरारी की हत्या किसने की है इसका पता लगाने के हमने खुद उसे कहा था और वो अपने तरीके से हत्या की जांच भी कर रहा है।"

"फिर भी आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था।" मैंने सामने सड़क की तरफ देखते हुए कहा____"और दरोगा को मुरारी काका के घर आने के लिए क्यों मना किया आपने? जबकि आपके ऐसा करने से जगन काका मेरे मुँह में ही बोल रहे थे कि मैंने ही दरोगा को उनके भाई की हत्या की जांच न करने के लिए पैसे दिए होंगे।

"जैसा हम तुमसे पहले ही कह चुके हैं कि आज कल हालात ठीक नहीं हैं और तुम्हें खुद बहुत सम्हल कर और सावधानी से रहना होगा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"हम ये जानते हैं कि तुमने मुरारी की हत्या नहीं की है और हम ये भी जानते हैं कि मुरारी की किसी से ऐसी दुश्मनी नहीं हो सकती जिसके लिए कोई उसकी हत्या ही कर दे किन्तु इसके बावजूद उसकी हत्या हुई। कोई ज़रूरी नहीं कि उसकी हत्या करने के पीछे उससे किसी की कोई दुश्मनी ही हो बल्कि उसकी हत्या करने की वजह ये भी हो सकती है कि हमारा कोई दुश्मन तुम्हें उसकी हत्या के जुर्म में फंसा कर जेल भेज देना चाहता है। यही सब सोच कर हमने दरोगा को सामने आने के लिए नहीं कहा बल्कि गुप्त रूप से इस मामले की जांच करने को कहा था।"

"अगर ऐसी ही बात थी तो आपको दरोगा के द्वारा मुझे जेल ले जाने देना था।" मैंने कहा____"अगर कोई हमारा दुश्मन है तो इससे वो यही समझता कि वो अपने मकसद में कामयाब हो गया है और फिर हो सकता था कि वो मेरे जेल जाने के बाद खुल कर सामने ही आ जाता और तब हमें भी पता चल जाता कि हमारा ऐसा वो कौन दुश्मन था जो हमसे इस तरह से अपनी दुश्मनी निकालना चाहता था?"

"हमारे ज़हन में भी ये ख़याल आया था।" पिता जी ने कहा____"किन्तु हम बता ही चुके हैं कि हम ये हरगिज़ नहीं चाह सकते थे कि ठाकुर खानदान का कोई भी सदस्य पुलिस थाने की दहलीज़ पर कदम रखे। रही बात उस हत्यारे की तो उसका पता हम लगा ही लेंगे। तुम्हें इसके लिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम सिर्फ ये चाहते हैं कि तुम पिछला सब कुछ भुला कर एक नए सिरे अपना जीवन शुरू करो। हर चीज़ की एक सीमा होती है बेटा। इस जीवन में इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे करना और निभाना हमारा फ़र्ज़ होता है।"

"क्या आप बताएंगे कि मुझे आपने घर गांव से क्यों निष्कासित किया था?" मैंने हिम्मत कर के उनसे वो सवाल पूछ ही लिया जो हमेशा से मेरे ज़हन में उछल कूद कर रहा था।

"कभी कभी इंसान को ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं जो निहायत ही ग़लत होते हैं।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हमने भी ऐसा कुछ सोच कर ही किया था। हम खुद जानते थे कि हमारा ये फैसला ग़लत है किन्तु कुछ बातें थी ऐसी जिनकी वजह से हमें ऐसा फैसला करना पड़ा था।"

"क्या मैं ऐसी वो बातें जान सकता हूं?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"जिनकी वजह से आपने मुझे गांव से निष्कासित कर के चार महीनों तक भारी कष्ट सहने पर मजबूर कर दिया था।"

"तुम्हें इतने कष्ट में डाल कर हम खुद भी भारी कष्ट में थे बेटा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"लेकिन ऐसा हमने दिल पर पत्थर रख कर ही किया था। हमें हमारे आदमियों के द्वारा पता चला था कि कुछ अंजान लोग हमारे ख़िलाफ़ हैं और वो कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिससे कि हमारा समूचा वर्चस्व ही ख़त्म हो जाए। इसके लिए वो लोग अपने जाल में तुम्हें फ़साने वाले हैं। ये सब बातें सुन कर हम तुम्हारे लिए चिंतित हो उठे थे किन्तु कुछ कर सकने की हालत में नहीं थे हम क्योंकि हमारे आदमियों को भी नहीं पता था कि ऐसे वो कौन लोग थे। उन्होंने तो बस ऐसी बातें आस पास से ही सुनी थीं। हमें यकीन तो नहीं हुआ था किन्तु कुछ समय से जैसे हालात हमें समझ आ रहे थे उससे हम ऐसी बातों को नकार भी नहीं सकते थे इस लिए हमने सोचा कि अगर ऐसी बात है तो हम भी उनके मन का ही कर देते हैं। इसके लिए हमने तुम्हारी शादी का मामला शुरू किया। हमें पता था कि तुम अपनी आदत के अनुसार हमारा कहा नहीं मानोगे और कुछ ऐसा करोगे जिससे कि एक बार फिर से गांव समाज में हमारी इज्ज़त धूल में मिल जाए। ख़ैर शादी की तैयारियां शुरू हुईं और इसके साथ ही हमने एक लड़का और देख लिया ताकि जब तुम अपनी आदत के अनुसार कुछ उल्टा सीधा कर बैठो तो हम किसी तरह अपनी इज्ज़त को मिट्टी में मिलने से बचा सकें। शादी वाले दिन वही हुआ जिसका हमें पहले से ही अंदेशा था। यानी तुम एक बार फिर से हमारे हुकुम को ठोकर मार कर निकल गए। ख़ैर उसके बाद हमने उस लड़की की शादी दूसरे लड़के से करवा दी और इधर तुम पर बेहद गुस्सा होने का नाटक किया। दूसरे दिन गांव में पंचायत बैठाई और तुम्हें गांव से निष्कासित कर देने वाला फैसला सुना दिया। ऐसा करने के पीछे यही वजह थी कि हम तुम्हें अपने से दूर कर दें ताकि जो लोग तुम्हें अपने जाल में फांसना चाहते थे वो तुम्हें अकेला और बेसहारा देख कर बड़ी आसानी से अपने जाल में फांस सकें। इधर ऐसा करने के बाद हमने अपने आदमियों को भी हुकुम दे दिया था कि वो लोग गुप्त रूप से तुम पर भी और तुम्हारे आस पास की भी नज़र रखें। पिछले चार महीने से हमारे आदमी अपने इस काम में लगे हुए थे किन्तु जैसा हमने सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ।"

"क्या मतलब?" मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा।
"मतलब ये कि जो कुछ सोच कर हमने ये सब किया था।" पिता जी ने कहा____"वैसा कुछ हुआ ही नहीं। हमें लगता है कि उन लोगों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि हमने ऐसा कर के उनके लिए एक जाल बिछाया है। इस लिए वो लोग तुम्हारे पास गए ही नहीं बल्कि कुछ ऐसा किया जिससे हम खुद ही उलझ कर रह ग‌ए।"

"कहीं आपके कहने का मतलब ये तो नहीं कि उन्होंने मुरारी की हत्या कर के उस हत्या में मुझे फंसाया?" मैंने कहा____"और दूसरे गांव के लोगों के बीच मेरे और आपके ख़िलाफ़ बैर भाव पैदा करवा दिया?"

"बिल्कुल।" पिता जी ने मेरी तरफ प्रशंशा की दृष्टि से देखते हुए कहा____"हमे बिलकुल यही लगता है और यही वजह थी कि हमने दरोगा को मुरारी की हत्या के मामले की जांच गुप्त रूप से करने को कहा। हलांकि जैसा तुमने इस बारे में उस वक़्त कहा था वैसा ख़याल हमारे ज़हन में भी आया था किन्तु हम दुबारा फिर से तुम्हें चारा बना कर उनके सामने नहीं डालना चाहते थे। क्योंकि ज़रूरी नहीं कि हर बार वैसा ही हो जैसा हम चाहते हैं। ऐसा करने से इस बार तुम्हारे लिए सच में कोई गंभीर ख़तरा पैदा हो सकता था।"

पिता जी के ऐसा कहने के बाद इस बार मैं कुछ न बोल सका। असल में मैं उनकी बातें सुन कर गहरे विचारों में पड़ गया था। पिता जी की बातों ने एकदम से मेरा भेजा ही घुमा दिया था। मैं तो बेवजह ही अब तक इस बारे में इतना कुछ सोच सोच कर कुढ़ रहा था और अपने माता पिता के लिए अपने अंदर गुस्सा और नफ़रत पाले बैठा हुआ था जबकि जो कुछ मेरे साथ हुआ था उसके पीछे पिता जी का एक ख़ास मकसद छुपा हुआ था। भले ही वो अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए थे किन्तु ऐसा कर के उन्होंने इस बात का सबूत तो दे ही दिया था कि उन्होंने मुझे मेरी ग़लतियों की वजह से निष्कासित नहीं किया था बल्कि ऐसा करने के लिए वो एक तरह से बेबस थे और ऐसा करके वो खुद भी मेरे लिए अंदर से दुखी थे। मुझे समझ नहीं आया कि अब मैं अपनी उन बातों के लिए पिता जी से कैसे माफ़ी मांगू, जो बातें मैंने उनसे उस दिन खेत में कही थीं।

मेरे ज़हन में उस दिन की माँ की कही हुई वो बातें उभर कर गूँज उठी जब उन्होंने मुझसे कहा था कि इंसान को बिना सोचे समझे और बिना सच को जाने कभी ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए जिससे कि बाद में अपनी उन बातों के लिए इंसान को पछतावा होने लगे। तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि माँ को पहले से ही इस सबके बारे में पता था? उनकी बातों से तो अब यही ज़ाहिर होता है लेकिन उन्होंने मुझसे इस बारे में उसी दिन साफ़ साफ़ क्यों नहीं बता दिया था? मैंने महसूस किया कि मैं ये सब सोचते हुए गहरे ख़यालों में खो गया हूं।

"क्या अब हम तुमसे ये उम्मीद करें कि तुम एक नए सिरे से अपना जीवन शुरू करोगे?" पिता जी की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा____"और हां अगर अब भी तुम्हें लगता है कि हमने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत किया है तो तुम अब भी हमारे प्रति अपने अंदर नफ़रत को पाले रह सकते हो।"

"मैं सोच रहा हूं कि क्या ज़रूरत है नए सिरे से जीवन को शुरू करने की?" मैंने सपाट भाव से कहा____"मैं समझता हूं कि मेरे भाग्य में यही लिखा है कि मैं पहले की तरह अब भी आवारा ही रहूं और अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़े रखूं।"

"आख़िर किस मिट्टी के बने हुए हो तुम?" पिता जी ने इस बार शख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तुम समझते क्यों नहीं हो कि तुम कितनी बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हो? आख़िर कैसे समझाएं हम तुम्हें?"

"मैं किसी भी तरह के बंधन में रहना पसंद नहीं करता पिता जी।" मैंने उस शख़्स से दो टूक भाव से कहा जिस शख़्स से ऐसी बातें करने की कोई हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था____"आपको मेरी फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ये तो आप भी जानते हैं ना कि इस संसार में जिसके साथ जो होना लिखा होता है वो हो कर ही रहता है। विधाता के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता। अगर आज और इसी वक़्त मेरी मौत लिखी है तो वो हो कर ही रहेगी, फिर भला बेवजह मौत से भागने की मूर्खता क्यों करना?"

"आख़िर क्या चल रहा है तुम्हारे दिमाग़ में?" पिता जी ने अचानक ही अपनी आँखें सिकोड़ते हुए कहा____"कहीं तुम...?"
"माफ़ कीजिए पिता जी।" मैंने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए कहा____"वैसा कभी नहीं हो सकता जैसा आप चाहते हैं। वैसे हम शहर किस लिए जा रहे हैं?"

मेरी बातें सुन कर पिता जी हैरत से मेरी तरफ वैसे ही देखने लगे थे जैसे इसके पहले वो मेरी बातों पर हैरत से देखने लगते थे। यही तो खूबी थी ठाकुर वैभव सिंह में। मैं कभी वो करता ही नहीं था जो दूसरा कोई चाहता था बल्कि मैं तो हमेशा वही करता था जो सिर्फ और सिर्फ मैं चाहता था। मेरी बातों से किसी का कितना दिल दुःख जाता था इससे मुझे कोई मतलब नहीं होता था मगर क्या सच में ऐसा ही था???

"मैं हवेली में नहीं रहना चाहता पिता जी।" दादा ठाकुर को ख़ामोश देख मैंने धीरे से कहा____"बल्कि मैं उसी जगह पर रहना चाहता हूं जहां पर मैंने चार महीने भारी कष्ट सह के गुज़ारे हैं।"

"तुम्हें जहां रहना हो वहां रहो।" पिता जी ने गुस्से में कहा____"हमे तो आज तक ये समझ में नहीं आया कि तुम जैसी बेगै़रत औलाद दे कर भगवान ने हमारे ऊपर कौन सा उपकार किया है?"

"भगवान को क्यों कोसते हैं पिता जी?" मैंने मन ही मन हंसते हुए पिता जी से कहा____"भगवान के बारे में तो सबका यही ख़याल है कि वो जो भी देता है या जो कुछ भी करता है सब अच्छा ही करता है। फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं?"

"ख़ामोशशश।" पिता जी इतनी ज़ोर से दहाड़े कि डर के मारे मेरे हाथों से जीप की स्टेरिंग ही छूट गई थी। मैं समझ गया कि अब पिता जी से कुछ बोलना बेकार है वरना वो अभी जीप रुकवाएंगे और जीप की पिछली शीट पर पड़ा हुआ कोड़ा उठा कर मुझे पेलना शुरू कर देंगे।

उसके बाद सारे रास्ते हम में से किसी ने कोई बात नहीं की। सारा रास्ता ख़ामोशी में ही गुज़रा और हम शहर पहुंच गए। शहर में पिता जी को तहसीली में कोई काम था इस लिए वो चले गए जबकि मैं जीप में ही बेपरवाह सा बैठा रहा। क़रीब एक घंटे में पिता जी वापस आए तो मैंने जीप स्टार्ट की और उनके कहने पर वापस गांव के लिए चल पड़ा।

आज होलिका दहन का पर्व था और हमारे गांव में होली का त्यौहार बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। ख़ैर वापसी में भी हमारे बीच ख़ामोशी ही रही। आख़िर एक घंटे में हम हवेली पहुंच गए।

पिता जी जीप से उतर कर हवेली के अंदर चले गए और मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कुसुम नज़र आई तो मैंने उसे एक गिलास पानी लाने को कहा तो वो जी भैया कह कर पानी लेने चली गई। अपने कमरे में आ कर मैं अपने कपड़े उतारने लगा। धूप तेज़ थी और मुझे गर्मी लगी हुई थी। मैंने शर्ट और बनियान उतार दिया और कमरे की खिड़की खोल कर बिस्तर पर लेट गया।

आज कल गांव में बिजली का एक लफड़ा था। बिजली विभाग वाले बिजली तो दे रहे थे लेकिन बिजली धीमी रहती थी जिससे पंखा धीमी गति से चलता था। ख़ैर मैं आँखें बंद किए लेटा हुआ था और ऊपर पंखा अपनी धीमी रफ़्तार से मुझे हवा देने का अपना फ़र्ज़ निभा रहा था। आँखे बंद किए मैं सोच रहा था कि आज पिता जी से मैंने जो कुछ भी कहा था वो ठीक था या नहीं? अब जब कि मैं जान चुका था कि मुझे गांव से निष्कासित करने का उनका फ़ैसला उनके एक ख़ास मकसद का हिस्सा था इस लिए एक अच्छे बेटे के रूप में मेरा उन पर गुस्सा करना या उन पर नाराज़ रहना सरासर ग़लत ही था किन्तु ये भी सच था कि मैं इस सबके लिए हवेली में क़ैद हो कर नहीं रह सकता था। माना कि पिता जी ने दरोगा को गुप्त रूप से मुरारी काका की हत्या की जांच करने को कह दिया था लेकिन मुझे इससे संतुष्टि नहीं हो रही थी। मैं अपनी तरफ से खुद कुछ करना चाहता था जो कि हवेली में रह कर मैं नहीं कर सकता था। मैं एक आज़ाद पंछी की तरह था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी से हर काम करना पसंद करता था।

"लगता है आपको नींद आ रही है भइया।" कुसुम की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो मैंने आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा____"या फिर अपनी आँखें बंद कर के किसी सोच में डूबे हुए थे।"

"क्या तूने कोई तंत्र विद्या सीख ली है?" मैंने उठते हुए उससे कहा____"जो मेरे मन की बात जान लेती है?"
"इतनी सी बात के लिए तंत्र विद्या सीखने की क्या ज़रूरत है भला?" कुसुम ने पानी का गिलास मुझे पकड़ाते हुए कहा____"जिस तरह के हालात में आप हैं उससे तो कोई भी ये अंदाज़ा लगा के कह सकता है कि आप किसी सोच में ही डूबे हुए थे। दूसरी बात ये भी है कि आप दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तो ज़ाहिर है कि रास्ते में उन्होंने आपसे कुछ न कुछ तो कहा ही होगा जिसके बारे में आप अब भी सोच रहे थे।"

"वाह! तूने तो कमाल कर दिया बहना।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या दिमाग़ लगाया है तूने। ख़ैर ये सब छोड़ और ये बता कि जो काम मैंने तुझे दिया था वो काम तूने शुरू किया कि नहीं या फिर एक काम से सुन कर दूसरे कान से उड़ा दिया है?"

हलांकि पिता जी की बातों से अब मैं सब कुछ जान चुका था इस लिए कुसुम को अपने भाई या अपने पिता जी की जासूसी करने के काम पर लगाना फ़िज़ूल ही था किन्तु पिछली रात मैंने बड़े भैया को विभोर के कमरे से निकलते देखा था इस लिए अब मैं ये जानना चाहता था कि आख़िर तीनों भाइयों के बीच ऐसा क्या चल रहा था उतनी रात को?

"आप तो जानते हैं भैया कि ये काम इतना आसान नहीं है।" कुसुम ने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"मुझे पूरी सावधानी के साथ ये काम करना होगा इस लिए मुझे इसके लिए ख़ास मौके का इंतज़ार करना होगा ना?"

"ठीक है।" मैंने पानी पीने के बाद उसे खाली गिलास पकड़ाते हुए कहा____"तू मौका देख कर अपना काम कर। वैसे आज होलिका दहन है ना तो यहाँ कोई तैयारी वग़ैरा हुई कि नहीं?"

"पिता जी सारी तैयारियां कर चुके हैं?" कुसुम ने कहा____"आज रात को वैसे ही होली जलेगी जैसे हर साल जलती आई है लेकिन आप इसके बारे में क्यों पूछ रहे हैं? आपको तो इन त्योहारों में कोई दिलचस्पी नहीं रहती ना?"

"हां वो तो अब भी नहीं है।" मैंने बिस्तर से उतर कर दीवार पर टंगी अपनी शर्ट को निकालते हुए कहा____"मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था तुझसे। ख़ैर अब तू जा। मुझे भी एक ज़रूरी काम से बाहर जाना है।"

"भाभी आपके बारे में पूछ रहीं थी?" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"शायद उन्हें कोई काम है आपसे। इस लिए आप उनसे मिल लीजिएगा।"
"उन्हें मुझसे क्या काम हो सकता है?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखते हुए कहा____"अपने किसी काम के लिए उन्हें बड़े भैया से बात करनी चाहिए।"

"अब भला ये क्या बात हुई भैया?" कुसुम ने अपने दोनों हाथों को अपनी कमर पर रखते हुए कहा___"हर काम बड़े भैया से हो ये ज़रूरी थोड़ी ना है। हो सकता है कि कोई ऐसा काम हो उन्हें जिसे सिर्फ आप ही कर सकते हों। वैसे वो तीनो इस वक़्त हवेली में नहीं हैं इस लिए आप बेफ़िक्र हो कर भाभी से मिल सकते हैं।"

"तू क्या समझती है मैं उन तीनों से डरता हूं?" मैंने शर्ट के बटन लगाते हुए कहा____"मुझे अगर किसी से मिलना भी होगा ना तो मैं किसी के होने की परवाह नहीं करुंगा और ये बात तू अच्छी तरह जानती है।"

"हां जानती हूं।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस हवेली में दादा ठाकुर के बाद एक आप ही तो ऐसे हैं जो सच मुच के ठाकुर साहब हैं।"
"अब तू मुझे चने के झाड़ पर न चढ़ा समझी।" मैंने कुसुम के सिर पर एक चपत लगाते हुए कहा____"अब जा तू और जा कर भाभी से कह कि मैं उनसे मिलने आ रहा हूं।"

"आपने तो मुझे एकदम से डाकिया ही बना लिया है।" कुसुम ने फिर से बुरा सा मुँह बना कर कहा____"कभी इधर संदेशा देने जाऊं तो कभी उधर। बड़े भाई होने का अच्छा फायदा उठाते हैं आप। आपको ज़रा भी मुझ मासूम पर तरस नहीं आता।"

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?


---------☆☆☆---------
Behtareen zaberdast shaandaar lajawab update bhai
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,744
354
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 13
----------☆☆☆---------



अब तक,,,,,

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?


अब आगे,,,,,


कुसुम के जाने के बाद मैं भाभी के बारे में कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जब मुझे लगा कि कुसुम ने भाभी को मेरे आने के बारे में बता दिया होगा तो मैं कमरे से निकल कर लम्बी राहदारी से होते हुए दूसरे छोर पर बने भाभी के कमरे की तरफ आ गया। इन चार महीनों में ये भी एक बदलाव ही हुआ था कि जिस भाभी से मैं हमेशा दूर दूर ही रहता था वो अब मेरे सामने आ रहीं थी। अपने गांव की ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों की भी जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों से मैं मज़े ले चुका था मगर मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी नीयत भाभी के रूप सौंदर्य की वजह से उन पर ख़राब हो जाए।

मैं अभी भाभी के कमरे के पास ही पंहुचा था कि भाभी मुझे सीढ़ियों से ऊपर आती हुई दिखीं तो मैं दरवाज़े के पास ही रुक गया। सुर्ख रंग की साड़ी में भाभी गज़ब ढा रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके चेहरे पर चन्द्रमा का नूर चमक रहा हो। दूध में हल्का केसर मिले जैसा गोरा सफ्फाक बदन उनकी साड़ी से झलक रहा था। पेट के पास उनकी साड़ी थोड़ा सा हटी हुई थी जिससे उनका एकदम सपाट और रुई की तरह मुलायम पेट चमकता हुआ दिख रहा था। अचानक ही मुझे ख़याल आया कि मेरी नज़र उनके बेदाग़ पेट पर जम सी गई है और मेरी धड़कनें पहले से तेज़ हो चली हैं तो मैंने झट से अपनी नज़रें उनके पेट से हटा ली। मुझे अपने आप पर ये सोच कर बेहद गुस्सा भी आया कि मैंने उनकी तरफ देखा ही क्यों था।

भाभी जब चल कर मेरे क़रीब आईं तो मुझे देख कर वो हल्के से मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि बड़े से बड़ा साधू महात्मा भी उन पर मोहित हो जाए, मेरी भला औकात ही क्या थी? भाभी की मुस्कान पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुप चाप ख़ामोशी से दरवाज़े से एक तरफ हट गया। मेरे एक तरफ हट जाने पर वो मेरे सामने से निकल कर कमरे के दरवाज़े को अपने हाथों से खोला और कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ईं। मेरे मन में अब भी यही सवाल था कि उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कुसुम से क्यों कहा होगा? ख़ैर उन्होंने कमरे के अंदर से मुझे आवाज़ दी तो मैं कमरे के अंदर चला गया।

"कहीं जा रहे थे क्या देवर जी?" मैं जैसे ही अंदर पंहुचा तो रागिनी भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"हां वो ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था।" मैंने खड़े खड़े ही सपाट भाव से कहा____"कुसुम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहतीं थी? कोई काम था क्या मुझसे?"

"क्या बिना कोई काम के मैं अपने देवर जी से नहीं मिल सकती?" मेरे पूछने पर भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा तो मैंने कहा____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"देखो वैभव मैं ये तो नहीं जानती कि तुम मेरे सामने आने से हमेशा कतराते क्यों रहते हो?" भाभी ने कहा____"किन्तु मैं तुमसे बस यही कहना चाहती हूं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल कर एक नई शुरुआत करो। हम सब यही चाहते हैं कि तुम दादा ठाकुर के साथ रहो और उनका कहना मानो। तुम सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर क्यों दे रही हूं तो इसका जवाब यही है कि सबकी तरह मैं भी यही चाहती हूं कि दादा ठाकुर के बाद तुम उनकी जगह सम्हालो।"

"मुझे दादा ठाकुर बनने का कोई शौक नहीं है।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"कल भी मैंने आपसे यही कहा था और हर बार यही कहूंगा। पिता जी के बाद उनकी जगह उनका बड़ा बेटा ही सम्हालेगा और यही नियम भी है। मैं इस सबसे दूर ही रहना चाहता हूं। अगर आपने मुझसे इसी बात के लिए मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो मेरा जवाब आपको मिल चुका है और अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

"क्या तुमने इस बारे में एक बार भी नहीं सोचा वैभव कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर दे कर क्यों कह रही हूं?" भाभी ने जैसे उदास भाव से कहा___"क्या मुझे ये पता नहीं है कि दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी उनका बड़ा बेटा ही होगा?"

"मैं फ़ालतू चीज़ों के बारे में सोचना ज़रूरी नहीं समझता।" मैंने कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि जिसका जिस चीज़ में अधिकार है उसको वही मिले। मुझे बड़े भैया के अधिकार को छीनने का ना तो कोई हक़ है और ना ही मैं ऐसा करना चाहता हूं।"

"अधिकार उसे दिया जाता है वैभव जो उसके लायक होता है।" भाभी ने सहसा शख़्त भाव से कहा____"तुम्हारे बड़े भैया इस अधिकार के लायक ही नहीं हैं।"
"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप अपने ही पति के बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"मैं किसी की पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं वैभव।" भाभी ने पुरज़ोर लहजे में कहा____"और हवेली की बहू होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ है कि मैं उसी के बारे में सोचूं जिसमे सबकी भलाई के साथ साथ इस हवेली और इस खानदान की मान मर्यादा पर भी कोई आंच न आए।"

"तो आप ये समझती हैं कि बड़े भैया इस अधिकार के लायक नहीं हैं?" मैंने गहरी नज़र से उन्हें देखते हुए कहा____"क्या मैं जान सकता हूं कि आप ऐसा क्यों समझती हैं?"

"इसके उत्तर में मैं बस यही कहूंगी वैभव कि वो अपने इस अधिकार के लायक नहीं है।" भाभी ने नज़रे नीचे कर के कहा____"अगर ऐसा न होता तो मैं तुमसे इसके लिए कभी नहीं कहती और इतना ही नहीं बल्कि दादा ठाकुर खुद भी तुमसे ऐसा न कहते।"

"आपको कैसे पता कि पिता जी ने मुझसे इसके लिए क्या कहा है?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा था।
"मुझे माँ जी से पता चला है।" भाभी ने कहा____"और माँ जी से दादा ठाकर ने खुद इस बारे में बताया था कि उन्होंने तुमसे उस दिन खेत में क्या क्या कहा था।"

भाभी की बात सुन कर मैं तुरंत कुछ न बोल सका था बल्कि इस सोच में पड़ गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिससे पिता जी और भाभी बड़े भैया के बारे में ऐसा कहते हैं?

"फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पिता जी ने मुझे किस वजह से गांव से निष्कासित किया था?" मैंने कुछ सोचते हुए भाभी से कहा____"और अगर पता है तो आप जब उस दिन मुझसे मिलने आईं थी तो मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं था?"

"मेरे बताने से क्या तुम्हारे अंदर का गुस्सा और नफ़रत दूर हो जाती?" भाभी ने कहा____"नहीं देवर जी कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें उचित समय पर सही आदमी से ही पता चलें तो बेहतर होता है। मुझे यकीन है कि आज जब तुम दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तब ज़रूर तुम्हारे और उनके बीच इस बारे में बातें हुई होंगी और जब तुम्हें असलियत का पता चला होगा तो तुम्हे फ़ौरन ही समझ आ गया होगा कि वो सही थे या ग़लत?"

"जो भी हो।" मैंने कहा____"पर इसके लिए उन्होंने मुझे बली का बकरा ही तो बनाया ना? चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे हैं उसका हिसाब कौन देगा? अपने मतलब के लिए मेरे साथ ऐसा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" मेरी बात सुन कर भाभी ने हैरानी से कहा____"तुम दादा ठाकुर के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? वो तुम्हारे पिता हैं और तुम पर उनका पूरा अधिकार है। ऐसी बातें कर के तुमने अच्छा नहीं किया देवर जी। तुम जैसे भी थे लेकिन कम से कम मैं तुम्हें कुछ मामलों में बहुत अच्छा समझती थी।"

"मैं हमेशा से ही बुरा था भाभी।" मैंने कहा____"और बुरा ही रहना चाहता हूं। आपको मुझे अच्छा समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए।"
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम ऐसी बातें क्यों करते हो?" भाभी ने बेचैन भाव से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि तुम हम सबसे खुद को अलग रखते हो? क्या हम सब तुम्हारे दुश्मन हैं? क्या हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?"

"चलता हूं भाभी।" मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा____"माफ़ कीजिएगा पर मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते वैभव।" भाभी ने जैसे हुकुम देने वाले लहजे में कहा____"तुम्हें बताना होगा कि तुम ऐसा क्यों करते हो?"

"मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं भाभी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मेरे अंदर आपके प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मैं चाहता हूं कि ऐसा हमेशा ही रहे। मैं अपने ऊपर किसी की बंदिशें पसंद नहीं करता और ना ही मैं किसी के इशारे पर चलना पसंद करता हूं। आपने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने आपसे मिल लिया और आपकी बातें भी सुन ली। अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

भाभी मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि मैं किस तरह का इंसान हूं। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने उन्हें एक बार फिर से प्रणाम किया और पलट कर कमरे से बाहर निकल गया।

भाभी से ऐसी बेरुख़ी में बातें करना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था क्योंकि जब से मैं यहाँ आया था तब से उनका बर्ताव मेरे लिए बदला बदला सा लगने लगा था और मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे क़रीब आने की कोशिश करें। मैं जानता था कि वो अपनी जगह सही हैं मगर उन्हें नहीं पता था कि मेरे अंदर क्या था।

सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मुझे हवेली से बाहर जाता देख उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने चलते चलते ही कहा कि ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूं। वो जानती थी कि मुझे इस तरह किसी की टोका टोकी पसंद नहीं थी।

"शाम को जल्दी घर आ जाना बेटा।" पीछे से माँ की मुझे आवाज़ सुनाई दी____"तुझे पता है ना कि आज होलिका दहन है इस लिए मैं चाहती हूं कि शाम को तू भी हमारे साथ ही रहे।"
"जी बेहतर।" कहने के साथ ही मैं मुख्य दरवाज़े से बाहर निकल गया।

हवेली से बाहर आ कर मैं उस तरफ बढ़ चला जहां पर गाड़ियां रखी होतीं थी। आस पास मौजूद दरबान लोग मुस्तैदी से खड़े थे और मुझे देखते ही उन सबकी गर्दन अदब से झुक गई थी। वो सब मेरे बारे में अच्छी तरह जानते थे कि मैं हवेली के बाकी लड़को से कितना अलग था और किसी की ज़रा सी भी ग़लती पर मैं कितना उग्र हो जाता था। इस लिए मेरे सामने हवेली का हर दरबान पूरी तरह मुस्तैद हो जाता था।

मैने अपनी दो पहिया मोटर साइकिल निकाली और उसमे बैठ कर उसे स्टार्ट किया। मोटर साइकिल के स्टार्ट होते ही वातावरण में बुलेट की तेज़ आवाज़ गूँज उठी। मैं बुलेट को आगे बढ़ाते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े से हो कर बाहर निकल गया।

जैसा कि मैंने बताया था हवेली गांव के आख़िरी छोर पर सबसे अलग बनी हुई थी। हवेली से निकलने के बाद थोड़ी दूरी से गांव की आबादी शुरू होती थी। कच्ची सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। गांव के साहूकारों के घर दूसरे छोर पर थे और उनके मकान पक्के बने हुए थे। हमारे बाद गांव में वही संपन्न थे। हमारी ज़मीन बहुत थी जो दूसरे गांवों तक फैली हुई थी।

गांव से बाहर जाने के लिए साहूकारों के घर के सामने से गुज़ारना पड़ता था। साहूकारों के पास भी बहुत ज़मीनें थी और बहुत ज़मीनें तो उन्होंने ग़रीब लोगों को कर्ज़ा दे कर उनसे हड़प ली थी। ठाकुरों के साथ साहूकारों के सम्बन्ध हमेशा से ही थोड़े तनाव पूर्ण रहे थे किन्तु हमारी ताकत के सामने कभी उन लोगों ने अपना सिर नहीं उठाया था। हलांकि साहूकारों की नई पीढ़ी अब मनमानी पर उतर आई थी।

मैं बुलेट से चलते हुए साहूकारों के सामने से निकला तो मेरी नज़र सड़क के किनारे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर बैठे साहूकारों के कुछ लड़कों पर पड़ी। वो सब आपस में बातें कर रहे थे लेकिन मुझे देखते ही चुप हो गए थे और मेरी तरफ घूरने लगे थे। साहूकारों के इन लड़कों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था और वो सब मेरे द्वारा कई बार पेले जा चुके थे।

मैं उन सबकी तरफ देखते हुए मुस्कुराया और फिर निकल गया। मैं जानता था कि मेरे मुस्कुराने पर उन सबकी झांठें तक सुलग गईं होंगी किन्तु वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मेरा कुछ उखाड़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया था बल्कि वो तो कई बार किया था मगर हर बार मेरे द्वारा पेले ही गए थे।

बुलेट से चलते हुए मैं कुछ ही देर में मुंशी चंद्रकांत के घर पहुंच गया। मुंशी चंद्रकांत का घर पहले साहूकारों के पास ही था लेकिन साहूकार उसे अक्सर किसी न किसी बात पर परेशान करते रहते थे जिसकी वजह से दादा ठाकुर ने मुंशी के लिए गांव से बाहर हमारी ही ज़मीन पर एक बड़ा सा पक्का मकान बनवा दिया था और साहूकारों को ये शख़्त हिदायत दी गई थी कि अब अगर उनकी वजह से मुंशी चंद्रकांत को किसी भी तरह की परेशानी हुई तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। दादा ठाकुर की इस हिदायत के बाद आज तक अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। मुंशी ने अपना पहले वाला घर पिता जी के ही कहने पर एक ग़रीब किसान को दे दिया था।

बुलेट की आवाज़ सुन कर मुंशी के मकान का दरवाज़ा खुला तो मेरी नज़र दरवाज़े के पार खड़ी मुंशी की बहू रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गई और यही हाल उसका भी हुआ। मैंने बुलेट को बंद किया और उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही पलों में मैं रजनी के पास पहुंच गया। रजनी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी और जैसे ही मैं उसके क़रीब पहुंचा तो वो दरवाज़े के अंदर की तरफ दो क़दम पीछे को हो ग‌ई। मैं मुस्कुराते हुए दरवाज़े के अंदर आया और फिर झट से दरवाज़ा बंद कर के रजनी को अपनी बाहों में कस लिया।

"ये क्या कर रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"मां जी अंदर ही हैं और अगर वो इस तरफ आ गईं तो गज़ब हो जाएगा।"

"आने दे उसे।" मैंने रजनी को पलटा कर उसकी पीठ अपनी तरफ करते हुए कहा____"उसे भी तेरी तरह अपनी बाहों में भर कर प्यार करने लगूंगा।"
"अच्छा जी।" रजनी ने मेरे पेट में अपनी कोहनी से मार कर कहा____"क्या मुझसे आपका मन भर गया है जो अब मेरी बूढ़ी सास को भी प्यार करने की बात कह रहे हैं?"

"बूढ़ी वो तेरी नज़र में होगी।" मैंने रजनी की बड़ी बड़ी चूचियों को मसलते हुए कहा तो उसकी सिसकी निकल गई, जबकि मैंने आगे कहा____"मेरे लिए तो वो तेरी तरह कड़क माल ही है। तूने अभी देखा ही नहीं है कि तेरी सास कैसे मेरे लंड को मुँह में भर कर मज़े से चूसती है।"

"आप बहुत वो हैं।" रजनी ने अपना हाथ पीछे ले जा कर पैंंट के ऊपर से ही मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"हम दोनों के मज़े ले रहे हैं मगर कभी ये नहीं सोचा कि अगर किसी दिन हमारा भांडा फूट गया तो हमारा क्या होगा?"

"मेरे रहते तुम दोनों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने रजनी के ब्लॉउज में हाथ डाल कर उसकी एक चूची को ज़ोर से मसला तो इस बार उसकी सिसकी ज़ोर से निकल गई____"ख़ैर ये सब छोड़ और आज शाम को बगीचे में मिल। चार महीने हो गए तुझे चोदे हुए और अब मुझसे रहा नहीं जा रहा।"

"मैं भी तो आपसे चुदवाने के लिए तब से ही तड़प रही हूं।" रजनी ने मेरे लंड को तेज़ तेज़ सहलाते हुए कहा जिससे मेरा लंड पैंट के अंदर ही किसी नाग की तरह फनफना कर खड़ा हो गया था, उधर रजनी ने आगे कहा____"रात में जब वो करते हैं तो मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आता। तब आपकी याद आती है और फिर सोचती हू कि उनकी जगह पर काश आप होते तो कितना मज़ा आता।"

"तेरा पति तो साला नपुंसक है।" मैंने एक हाथ से रजनी की चूंत को उसकी साड़ी के ऊपर से ही मसलते हुए कहा जिससे वो कसमसाने लगी____"उसमे तो दम ही नहीं है अपनी बीवी को हचक के चोदने का। ख़ैर तू आज शाम को बगीचे में उसी जगह पर मिल जहां पर हम हमेशा मिला करते थे।"

"ठीक है मैं समय से पहुंच जाऊंगी वहां।" रजनी ने मेरे लंड से अपना हाथ हटाते हुए कहा____"अब छोड़िए मुझे। कहीं माँ जी ना आ जाएं। आपसे कितनी बार कहा है कि एक बार मुझे भी उनके साथ करते हुए दिखा दीजिए मगर आप सुनते कहा हैं मेरी? क्या आपका मन नहीं करता कि आप हम दोनों सास बहू को एक साथ चोदें?"

"मन तो करता है मेरी जान।" मैंने रजनी के होठों को चूमने के बाद कहा___"मगर ऐसा मौका भी तो मिलना चाहिए। ख़ैर तू चिंता न कर। इस बार मौका मिला तो तुझे और तेरी सास दोनों को ही एक साथ पेलूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक उभर आई। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी अंदर से रजनी की सास और मुंशी की बीवी प्रभा की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। रजनी की सास रजनी को आवाज़ दे कर पूछ रही थी कि कौन आया है बाहर?

प्रभा की इस आवाज़ पर मैं रजनी को छोड़ कर अंदर की तरफ चल दिया जबकि रजनी वहीं पर खड़ी हो कर अपनी साड़ी और ब्लॉउज को ठीक करने लगी थी। कुछ ही देर में मैं अंदर आँगन में आया तो देखा प्रभा अपने हाथ में सूपा लिए इस तरफ ही आ रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर मुस्कुराने लगी।

मुंशी की बीवी प्रभा इस उम्र में भी गज़ब का माल लगती थी। गठीला जिस्म था उसका और जिस्म में झुर्रियों के कही निशान तक नहीं थे। उसके सीने पर दो भारी भरकम खरबूजे जैसी चूचियां थी जो तंग ब्लॉउज की वजह से ब्लॉउज को फाड़ कर बाहर उछाल पड़ने को आतुर थे। प्रभा थोड़ी सांवली थी किन्तु लंड की सवारी वो अपनी बहू से कहीं ज़्यादा पूरे जोश से करती थी।

"क्या बात है।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर हमारे घर में कैसे? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए?"
"मुंशी काका कहां हैं?" रजनी को पीछे से आता देख मैंने प्रभा से कहा____"मुझे उनसे कुछ ज़रूरी काम है।"

"वो तो इस वक़्त यहाँ नहीं हैं।" प्रभा ने कहा____"दोपहर को रघू के साथ कहीं गए थे और अब तक नहीं लौटे। ख़ैर आप मुझे बताइए क्या काम था उनसे?"
"उनसे कहना मुझसे आ कर मिलें।" मैंने ठाकुरों वाले रौब में कहा____"और ये भी कहना कि मुझसे मिलने में उन्हें देरी नहीं होनी चाहिए।"

"जी बिलकुल छोटे ठाकुर।" प्रभा ने सिर हिलाते हुए कहा___"अरे! आप खड़े क्यों हैं बैठिए ना।"

प्रभा ने हाथ में लिए हुए सूपे को एक तरफ रखा और आँगन के एक कोने में रखी चारपाई को बिछा दिया। मैं जा कर चारपाई में बैठ गया। हलांकि अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता था किन्तु मैं एक बार प्रभा की बेटी कोमल को भी देख लेना चाहता था। पिछली बार जब मैं उससे मिला था तब मैं उसे पटाने में लगभग कामयाब हो ही गया था। उसके बाद पिता जी ने गांव से निष्कासित कर देने का फैसला सुना दिया था तो मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई थी।

अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी रजनी लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास बढ़ाया तो मैंने उसके हाथ से गिलास ले लिया। पानी पीते हुए मैंने रजनी की तरफ देखा तो उसके होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभरी हुई थी।

"मां जी आपने पिता जी से कहा क्यों नहीं कि वो वापसी में कोमल को भी साथ ले आएंगे?" रजनी ने पलट कर प्रभा की तरफ देखते हुए कहा____"और कितने दिन वो मौसी जी के यहाँ रहेगी?"

"मुझे उनसे ये कहने का ख़याल ही नहीं आया बहू।" प्रभा ने कहा____"कल से पूरा एक महीना हो जायेगा कोमल को यहाँ से गए हुए। मैंने तो जीजा जी से कहा भी था कि वो उसे दस पंद्रह दिन में भेज देंगे मगर लगता है कि उन्हें फसलों की कटाई के चलते कोमल को भेजने का समय ही नहीं मिल रहा होगा।"

प्रभा की बात सुन कर रजनी बोली तो कुछ न लेकिन वो तिरछी नज़रों मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई ज़रुर। मैं समझ गया कि शायद उसे अपनी ननद के बारे में पता चल गया है और उसने जब मुझे इधर उधर देखते हुए देखा था तो शायद वो समझ गई थी कि मैं किसे देखने की कोशिश कर रहा हूं। रजनी अपनी सास की ही तरह बहुत चालाक थी। ख़ैर अब जबकि मुझे पता चल चुका था कि कोमल अपनी मौसी के यहाँ है तो अब यहाँ मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। इस लिए मैं चारपाई से उठा और रजनी की सास से चलने को कहा तो उसने इशारे से ही सिर हिला दिया। मैंने आँखों के इशारे से रजनी को एक बार फिर ये बताया कि वो आज शाम को बगीचे वाले अड्डे पर मिले।

मुंशी के घर से मैं बुलेट में बैठ कर चल पड़ा। अब मेरी मंज़िल मुरारी काका का घर थी। मैं मुरारी काका के घर जा कर देखना चाहता था कि वहां का माहौल कैसा है और उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ये सोच कर मैं दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। मैं मुख्य सड़क से न जा कर उसी रास्ते से चल पड़ा जिस रास्ते से मैं पिछले दिन बग्घी में बैठ कर अपने झोपड़े से आया था।

फागुन का महीना चल रहा था और हर जगह खेतों में गेहू की कटाई चालू थी। पगडण्डी के दोनों तरफ हमारी ही ज़मीन थी और हमारे खेतों पर मजदूर गेहू की कटाई में लगे हुए थे। बुलेट की आवाज़ सुन कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ गया तो सबने मुझे पहचान कर अदब से सिर नवाया जबकि मैं बिना उनकी तरफ देखे बढ़ता ही चला जा रहा था। कुछ दूरी से खेत समाप्त हो जाते थे और बंज़र ज़मीन शुरू हो जाती थी। बंज़र ज़मीन के उस पार जंगल लगा हुआ था।

कुछ ही देर में मैं अपने झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास बुलेट को खड़ी कर के मैंने कुछ देर झोपड़े का और आस पास का जायजा लिया और फिर से बुलेट में बैठ कर चल दिया। अब मैं मुरारी काका के घर जा रहा था।

कुछ ही देर में मुरारी काका के घर के सामने पहुंच कर मैंने बुलेट खड़ी की। पेड़ के पास बने चबूतरे पर आज कोई नहीं बैठा था और ना ही आस पास कोई दिख रहा था। मुरारी काका का घर वैसे भी गांव से हट कर बना हुआ था, जहां पर मुरारी काका के खेत थे। ये बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि कुछ ही पलों में मुरारी काका के घर का दरवाज़ा खुल गया और मेरी नज़र दरवाज़े के उस पार खड़ी अनुराधा पर पड़ी। इस वक़्त अनुराधा जिस रूप में मुझे दिख रही थी उससे मैं उसकी तरफ एकटक देखता रह गया था, जबकि वो भी मुझे बुलेट जैसी मोटर साइकिल में आया देख अपलक देखने लगी थी। कुछ पलों तक तो वो मुझे अपलक ही देखती रही फिर जैसे उसे कुछ याद आया तो वो बिना कुछ कहे ही वापस अंदर की तरफ पलट गई। उसका इस तरह से पलट कर घर के अंदर चले जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा मुझे।

मैं आगे बढ़ा और दरवाज़े से अंदर दाखिल हो गया। मुरारी काका का घर मिटटी का बना हुआ था और घर के सामने थोड़ा सा मैदान था। घर के सामने मिट्टी की एक ही दीवार थी जिसमे लकड़ी का दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े से अंदर जाते ही बड़ा सा आँगन था। आँगन के बाईं तरफ भी मिट्टी की ही एक दीवार थी जिसमे दरवाज़ा लगा हुआ था और उस दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ जाना होता था। घर के पीछे एक कुआं था और उसी कुएं के बगल से सरोज काकी ने सब्जियों की एक छोटी सी बगिया लगा रखी थी। आँगन के सामने तरफ और दाएं तरफ दो दो दीवारों के हिसाब से चार कमरे बने हुए थे। सामने वाली दीवार के आगे तरफ क़रीब सात या आठ फ़ीट की एक दीवार बढ़ा कर रसोई बनाई गई थी और उसी रसोई की बढ़ी हुई दीवार के सामानांतर से लकड़ी की मोटी मोटी थून्ही ज़मीन में गाड़ कर और ऊपर से खपरैल चढ़ा कर बरामदा बनाया गया था।

मैं आँगन में आया तो अनुराधा मुझे सामने रसोई के पास ही बरामदे के पास खड़ी नज़र आई। घर के अंदर एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। मैंने नज़र इधर उधर घुमा कर देखा तो सरोज काकी मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

"मां खेतों में गेहू की फसल काट रही है।" मुझे इधर उधर देखता देख अनुराधा ने धीमी आवाज़ में कहा____"और छोटकू भी माँ के साथ ही है। अगर आप माँ से मिलने आए हैं तो वो आपको खेत पर ही मिलेगी।"

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।

---------☆☆☆---------
 

Naik

Well-Known Member
20,242
75,373
258
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 13
----------☆☆☆---------



अब तक,,,,,

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?


अब आगे,,,,,


कुसुम के जाने के बाद मैं भाभी के बारे में कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जब मुझे लगा कि कुसुम ने भाभी को मेरे आने के बारे में बता दिया होगा तो मैं कमरे से निकल कर लम्बी राहदारी से होते हुए दूसरे छोर पर बने भाभी के कमरे की तरफ आ गया। इन चार महीनों में ये भी एक बदलाव ही हुआ था कि जिस भाभी से मैं हमेशा दूर दूर ही रहता था वो अब मेरे सामने आ रहीं थी। अपने गांव की ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों की भी जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों से मैं मज़े ले चुका था मगर मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी नीयत भाभी के रूप सौंदर्य की वजह से उन पर ख़राब हो जाए।

मैं अभी भाभी के कमरे के पास ही पंहुचा था कि भाभी मुझे सीढ़ियों से ऊपर आती हुई दिखीं तो मैं दरवाज़े के पास ही रुक गया। सुर्ख रंग की साड़ी में भाभी गज़ब ढा रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके चेहरे पर चन्द्रमा का नूर चमक रहा हो। दूध में हल्का केसर मिले जैसा गोरा सफ्फाक बदन उनकी साड़ी से झलक रहा था। पेट के पास उनकी साड़ी थोड़ा सा हटी हुई थी जिससे उनका एकदम सपाट और रुई की तरह मुलायम पेट चमकता हुआ दिख रहा था। अचानक ही मुझे ख़याल आया कि मेरी नज़र उनके बेदाग़ पेट पर जम सी गई है और मेरी धड़कनें पहले से तेज़ हो चली हैं तो मैंने झट से अपनी नज़रें उनके पेट से हटा ली। मुझे अपने आप पर ये सोच कर बेहद गुस्सा भी आया कि मैंने उनकी तरफ देखा ही क्यों था।

भाभी जब चल कर मेरे क़रीब आईं तो मुझे देख कर वो हल्के से मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि बड़े से बड़ा साधू महात्मा भी उन पर मोहित हो जाए, मेरी भला औकात ही क्या थी? भाभी की मुस्कान पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुप चाप ख़ामोशी से दरवाज़े से एक तरफ हट गया। मेरे एक तरफ हट जाने पर वो मेरे सामने से निकल कर कमरे के दरवाज़े को अपने हाथों से खोला और कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ईं। मेरे मन में अब भी यही सवाल था कि उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कुसुम से क्यों कहा होगा? ख़ैर उन्होंने कमरे के अंदर से मुझे आवाज़ दी तो मैं कमरे के अंदर चला गया।

"कहीं जा रहे थे क्या देवर जी?" मैं जैसे ही अंदर पंहुचा तो रागिनी भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"हां वो ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था।" मैंने खड़े खड़े ही सपाट भाव से कहा____"कुसुम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहतीं थी? कोई काम था क्या मुझसे?"

"क्या बिना कोई काम के मैं अपने देवर जी से नहीं मिल सकती?" मेरे पूछने पर भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा तो मैंने कहा____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"देखो वैभव मैं ये तो नहीं जानती कि तुम मेरे सामने आने से हमेशा कतराते क्यों रहते हो?" भाभी ने कहा____"किन्तु मैं तुमसे बस यही कहना चाहती हूं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल कर एक नई शुरुआत करो। हम सब यही चाहते हैं कि तुम दादा ठाकुर के साथ रहो और उनका कहना मानो। तुम सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर क्यों दे रही हूं तो इसका जवाब यही है कि सबकी तरह मैं भी यही चाहती हूं कि दादा ठाकुर के बाद तुम उनकी जगह सम्हालो।"

"मुझे दादा ठाकुर बनने का कोई शौक नहीं है।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"कल भी मैंने आपसे यही कहा था और हर बार यही कहूंगा। पिता जी के बाद उनकी जगह उनका बड़ा बेटा ही सम्हालेगा और यही नियम भी है। मैं इस सबसे दूर ही रहना चाहता हूं। अगर आपने मुझसे इसी बात के लिए मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो मेरा जवाब आपको मिल चुका है और अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

"क्या तुमने इस बारे में एक बार भी नहीं सोचा वैभव कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर दे कर क्यों कह रही हूं?" भाभी ने जैसे उदास भाव से कहा___"क्या मुझे ये पता नहीं है कि दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी उनका बड़ा बेटा ही होगा?"

"मैं फ़ालतू चीज़ों के बारे में सोचना ज़रूरी नहीं समझता।" मैंने कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि जिसका जिस चीज़ में अधिकार है उसको वही मिले। मुझे बड़े भैया के अधिकार को छीनने का ना तो कोई हक़ है और ना ही मैं ऐसा करना चाहता हूं।"

"अधिकार उसे दिया जाता है वैभव जो उसके लायक होता है।" भाभी ने सहसा शख़्त भाव से कहा____"तुम्हारे बड़े भैया इस अधिकार के लायक ही नहीं हैं।"
"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप अपने ही पति के बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"मैं किसी की पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं वैभव।" भाभी ने पुरज़ोर लहजे में कहा____"और हवेली की बहू होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ है कि मैं उसी के बारे में सोचूं जिसमे सबकी भलाई के साथ साथ इस हवेली और इस खानदान की मान मर्यादा पर भी कोई आंच न आए।"

"तो आप ये समझती हैं कि बड़े भैया इस अधिकार के लायक नहीं हैं?" मैंने गहरी नज़र से उन्हें देखते हुए कहा____"क्या मैं जान सकता हूं कि आप ऐसा क्यों समझती हैं?"

"इसके उत्तर में मैं बस यही कहूंगी वैभव कि वो अपने इस अधिकार के लायक नहीं है।" भाभी ने नज़रे नीचे कर के कहा____"अगर ऐसा न होता तो मैं तुमसे इसके लिए कभी नहीं कहती और इतना ही नहीं बल्कि दादा ठाकुर खुद भी तुमसे ऐसा न कहते।"

"आपको कैसे पता कि पिता जी ने मुझसे इसके लिए क्या कहा है?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा था।
"मुझे माँ जी से पता चला है।" भाभी ने कहा____"और माँ जी से दादा ठाकर ने खुद इस बारे में बताया था कि उन्होंने तुमसे उस दिन खेत में क्या क्या कहा था।"

भाभी की बात सुन कर मैं तुरंत कुछ न बोल सका था बल्कि इस सोच में पड़ गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिससे पिता जी और भाभी बड़े भैया के बारे में ऐसा कहते हैं?

"फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पिता जी ने मुझे किस वजह से गांव से निष्कासित किया था?" मैंने कुछ सोचते हुए भाभी से कहा____"और अगर पता है तो आप जब उस दिन मुझसे मिलने आईं थी तो मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं था?"

"मेरे बताने से क्या तुम्हारे अंदर का गुस्सा और नफ़रत दूर हो जाती?" भाभी ने कहा____"नहीं देवर जी कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें उचित समय पर सही आदमी से ही पता चलें तो बेहतर होता है। मुझे यकीन है कि आज जब तुम दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तब ज़रूर तुम्हारे और उनके बीच इस बारे में बातें हुई होंगी और जब तुम्हें असलियत का पता चला होगा तो तुम्हे फ़ौरन ही समझ आ गया होगा कि वो सही थे या ग़लत?"

"जो भी हो।" मैंने कहा____"पर इसके लिए उन्होंने मुझे बली का बकरा ही तो बनाया ना? चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे हैं उसका हिसाब कौन देगा? अपने मतलब के लिए मेरे साथ ऐसा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" मेरी बात सुन कर भाभी ने हैरानी से कहा____"तुम दादा ठाकुर के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? वो तुम्हारे पिता हैं और तुम पर उनका पूरा अधिकार है। ऐसी बातें कर के तुमने अच्छा नहीं किया देवर जी। तुम जैसे भी थे लेकिन कम से कम मैं तुम्हें कुछ मामलों में बहुत अच्छा समझती थी।"

"मैं हमेशा से ही बुरा था भाभी।" मैंने कहा____"और बुरा ही रहना चाहता हूं। आपको मुझे अच्छा समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए।"
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम ऐसी बातें क्यों करते हो?" भाभी ने बेचैन भाव से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि तुम हम सबसे खुद को अलग रखते हो? क्या हम सब तुम्हारे दुश्मन हैं? क्या हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?"

"चलता हूं भाभी।" मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा____"माफ़ कीजिएगा पर मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते वैभव।" भाभी ने जैसे हुकुम देने वाले लहजे में कहा____"तुम्हें बताना होगा कि तुम ऐसा क्यों करते हो?"

"मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं भाभी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मेरे अंदर आपके प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मैं चाहता हूं कि ऐसा हमेशा ही रहे। मैं अपने ऊपर किसी की बंदिशें पसंद नहीं करता और ना ही मैं किसी के इशारे पर चलना पसंद करता हूं। आपने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने आपसे मिल लिया और आपकी बातें भी सुन ली। अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

भाभी मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि मैं किस तरह का इंसान हूं। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने उन्हें एक बार फिर से प्रणाम किया और पलट कर कमरे से बाहर निकल गया।

भाभी से ऐसी बेरुख़ी में बातें करना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था क्योंकि जब से मैं यहाँ आया था तब से उनका बर्ताव मेरे लिए बदला बदला सा लगने लगा था और मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे क़रीब आने की कोशिश करें। मैं जानता था कि वो अपनी जगह सही हैं मगर उन्हें नहीं पता था कि मेरे अंदर क्या था।

सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मुझे हवेली से बाहर जाता देख उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने चलते चलते ही कहा कि ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूं। वो जानती थी कि मुझे इस तरह किसी की टोका टोकी पसंद नहीं थी।

"शाम को जल्दी घर आ जाना बेटा।" पीछे से माँ की मुझे आवाज़ सुनाई दी____"तुझे पता है ना कि आज होलिका दहन है इस लिए मैं चाहती हूं कि शाम को तू भी हमारे साथ ही रहे।"
"जी बेहतर।" कहने के साथ ही मैं मुख्य दरवाज़े से बाहर निकल गया।

हवेली से बाहर आ कर मैं उस तरफ बढ़ चला जहां पर गाड़ियां रखी होतीं थी। आस पास मौजूद दरबान लोग मुस्तैदी से खड़े थे और मुझे देखते ही उन सबकी गर्दन अदब से झुक गई थी। वो सब मेरे बारे में अच्छी तरह जानते थे कि मैं हवेली के बाकी लड़को से कितना अलग था और किसी की ज़रा सी भी ग़लती पर मैं कितना उग्र हो जाता था। इस लिए मेरे सामने हवेली का हर दरबान पूरी तरह मुस्तैद हो जाता था।

मैने अपनी दो पहिया मोटर साइकिल निकाली और उसमे बैठ कर उसे स्टार्ट किया। मोटर साइकिल के स्टार्ट होते ही वातावरण में बुलेट की तेज़ आवाज़ गूँज उठी। मैं बुलेट को आगे बढ़ाते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े से हो कर बाहर निकल गया।

जैसा कि मैंने बताया था हवेली गांव के आख़िरी छोर पर सबसे अलग बनी हुई थी। हवेली से निकलने के बाद थोड़ी दूरी से गांव की आबादी शुरू होती थी। कच्ची सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। गांव के साहूकारों के घर दूसरे छोर पर थे और उनके मकान पक्के बने हुए थे। हमारे बाद गांव में वही संपन्न थे। हमारी ज़मीन बहुत थी जो दूसरे गांवों तक फैली हुई थी।

गांव से बाहर जाने के लिए साहूकारों के घर के सामने से गुज़ारना पड़ता था। साहूकारों के पास भी बहुत ज़मीनें थी और बहुत ज़मीनें तो उन्होंने ग़रीब लोगों को कर्ज़ा दे कर उनसे हड़प ली थी। ठाकुरों के साथ साहूकारों के सम्बन्ध हमेशा से ही थोड़े तनाव पूर्ण रहे थे किन्तु हमारी ताकत के सामने कभी उन लोगों ने अपना सिर नहीं उठाया था। हलांकि साहूकारों की नई पीढ़ी अब मनमानी पर उतर आई थी।

मैं बुलेट से चलते हुए साहूकारों के सामने से निकला तो मेरी नज़र सड़क के किनारे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर बैठे साहूकारों के कुछ लड़कों पर पड़ी। वो सब आपस में बातें कर रहे थे लेकिन मुझे देखते ही चुप हो गए थे और मेरी तरफ घूरने लगे थे। साहूकारों के इन लड़कों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था और वो सब मेरे द्वारा कई बार पेले जा चुके थे।

मैं उन सबकी तरफ देखते हुए मुस्कुराया और फिर निकल गया। मैं जानता था कि मेरे मुस्कुराने पर उन सबकी झांठें तक सुलग गईं होंगी किन्तु वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मेरा कुछ उखाड़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया था बल्कि वो तो कई बार किया था मगर हर बार मेरे द्वारा पेले ही गए थे।

बुलेट से चलते हुए मैं कुछ ही देर में मुंशी चंद्रकांत के घर पहुंच गया। मुंशी चंद्रकांत का घर पहले साहूकारों के पास ही था लेकिन साहूकार उसे अक्सर किसी न किसी बात पर परेशान करते रहते थे जिसकी वजह से दादा ठाकुर ने मुंशी के लिए गांव से बाहर हमारी ही ज़मीन पर एक बड़ा सा पक्का मकान बनवा दिया था और साहूकारों को ये शख़्त हिदायत दी गई थी कि अब अगर उनकी वजह से मुंशी चंद्रकांत को किसी भी तरह की परेशानी हुई तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। दादा ठाकुर की इस हिदायत के बाद आज तक अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। मुंशी ने अपना पहले वाला घर पिता जी के ही कहने पर एक ग़रीब किसान को दे दिया था।

बुलेट की आवाज़ सुन कर मुंशी के मकान का दरवाज़ा खुला तो मेरी नज़र दरवाज़े के पार खड़ी मुंशी की बहू रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गई और यही हाल उसका भी हुआ। मैंने बुलेट को बंद किया और उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही पलों में मैं रजनी के पास पहुंच गया। रजनी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी और जैसे ही मैं उसके क़रीब पहुंचा तो वो दरवाज़े के अंदर की तरफ दो क़दम पीछे को हो ग‌ई। मैं मुस्कुराते हुए दरवाज़े के अंदर आया और फिर झट से दरवाज़ा बंद कर के रजनी को अपनी बाहों में कस लिया।

"ये क्या कर रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"मां जी अंदर ही हैं और अगर वो इस तरफ आ गईं तो गज़ब हो जाएगा।"

"आने दे उसे।" मैंने रजनी को पलटा कर उसकी पीठ अपनी तरफ करते हुए कहा____"उसे भी तेरी तरह अपनी बाहों में भर कर प्यार करने लगूंगा।"
"अच्छा जी।" रजनी ने मेरे पेट में अपनी कोहनी से मार कर कहा____"क्या मुझसे आपका मन भर गया है जो अब मेरी बूढ़ी सास को भी प्यार करने की बात कह रहे हैं?"

"बूढ़ी वो तेरी नज़र में होगी।" मैंने रजनी की बड़ी बड़ी चूचियों को मसलते हुए कहा तो उसकी सिसकी निकल गई, जबकि मैंने आगे कहा____"मेरे लिए तो वो तेरी तरह कड़क माल ही है। तूने अभी देखा ही नहीं है कि तेरी सास कैसे मेरे लंड को मुँह में भर कर मज़े से चूसती है।"

"आप बहुत वो हैं।" रजनी ने अपना हाथ पीछे ले जा कर पैंंट के ऊपर से ही मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"हम दोनों के मज़े ले रहे हैं मगर कभी ये नहीं सोचा कि अगर किसी दिन हमारा भांडा फूट गया तो हमारा क्या होगा?"

"मेरे रहते तुम दोनों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने रजनी के ब्लॉउज में हाथ डाल कर उसकी एक चूची को ज़ोर से मसला तो इस बार उसकी सिसकी ज़ोर से निकल गई____"ख़ैर ये सब छोड़ और आज शाम को बगीचे में मिल। चार महीने हो गए तुझे चोदे हुए और अब मुझसे रहा नहीं जा रहा।"

"मैं भी तो आपसे चुदवाने के लिए तब से ही तड़प रही हूं।" रजनी ने मेरे लंड को तेज़ तेज़ सहलाते हुए कहा जिससे मेरा लंड पैंट के अंदर ही किसी नाग की तरह फनफना कर खड़ा हो गया था, उधर रजनी ने आगे कहा____"रात में जब वो करते हैं तो मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आता। तब आपकी याद आती है और फिर सोचती हू कि उनकी जगह पर काश आप होते तो कितना मज़ा आता।"

"तेरा पति तो साला नपुंसक है।" मैंने एक हाथ से रजनी की चूंत को उसकी साड़ी के ऊपर से ही मसलते हुए कहा जिससे वो कसमसाने लगी____"उसमे तो दम ही नहीं है अपनी बीवी को हचक के चोदने का। ख़ैर तू आज शाम को बगीचे में उसी जगह पर मिल जहां पर हम हमेशा मिला करते थे।"

"ठीक है मैं समय से पहुंच जाऊंगी वहां।" रजनी ने मेरे लंड से अपना हाथ हटाते हुए कहा____"अब छोड़िए मुझे। कहीं माँ जी ना आ जाएं। आपसे कितनी बार कहा है कि एक बार मुझे भी उनके साथ करते हुए दिखा दीजिए मगर आप सुनते कहा हैं मेरी? क्या आपका मन नहीं करता कि आप हम दोनों सास बहू को एक साथ चोदें?"

"मन तो करता है मेरी जान।" मैंने रजनी के होठों को चूमने के बाद कहा___"मगर ऐसा मौका भी तो मिलना चाहिए। ख़ैर तू चिंता न कर। इस बार मौका मिला तो तुझे और तेरी सास दोनों को ही एक साथ पेलूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक उभर आई। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी अंदर से रजनी की सास और मुंशी की बीवी प्रभा की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। रजनी की सास रजनी को आवाज़ दे कर पूछ रही थी कि कौन आया है बाहर?

प्रभा की इस आवाज़ पर मैं रजनी को छोड़ कर अंदर की तरफ चल दिया जबकि रजनी वहीं पर खड़ी हो कर अपनी साड़ी और ब्लॉउज को ठीक करने लगी थी। कुछ ही देर में मैं अंदर आँगन में आया तो देखा प्रभा अपने हाथ में सूपा लिए इस तरफ ही आ रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर मुस्कुराने लगी।

मुंशी की बीवी प्रभा इस उम्र में भी गज़ब का माल लगती थी। गठीला जिस्म था उसका और जिस्म में झुर्रियों के कही निशान तक नहीं थे। उसके सीने पर दो भारी भरकम खरबूजे जैसी चूचियां थी जो तंग ब्लॉउज की वजह से ब्लॉउज को फाड़ कर बाहर उछाल पड़ने को आतुर थे। प्रभा थोड़ी सांवली थी किन्तु लंड की सवारी वो अपनी बहू से कहीं ज़्यादा पूरे जोश से करती थी।

"क्या बात है।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर हमारे घर में कैसे? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए?"
"मुंशी काका कहां हैं?" रजनी को पीछे से आता देख मैंने प्रभा से कहा____"मुझे उनसे कुछ ज़रूरी काम है।"

"वो तो इस वक़्त यहाँ नहीं हैं।" प्रभा ने कहा____"दोपहर को रघू के साथ कहीं गए थे और अब तक नहीं लौटे। ख़ैर आप मुझे बताइए क्या काम था उनसे?"
"उनसे कहना मुझसे आ कर मिलें।" मैंने ठाकुरों वाले रौब में कहा____"और ये भी कहना कि मुझसे मिलने में उन्हें देरी नहीं होनी चाहिए।"

"जी बिलकुल छोटे ठाकुर।" प्रभा ने सिर हिलाते हुए कहा___"अरे! आप खड़े क्यों हैं बैठिए ना।"

प्रभा ने हाथ में लिए हुए सूपे को एक तरफ रखा और आँगन के एक कोने में रखी चारपाई को बिछा दिया। मैं जा कर चारपाई में बैठ गया। हलांकि अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता था किन्तु मैं एक बार प्रभा की बेटी कोमल को भी देख लेना चाहता था। पिछली बार जब मैं उससे मिला था तब मैं उसे पटाने में लगभग कामयाब हो ही गया था। उसके बाद पिता जी ने गांव से निष्कासित कर देने का फैसला सुना दिया था तो मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई थी।

अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी रजनी लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास बढ़ाया तो मैंने उसके हाथ से गिलास ले लिया। पानी पीते हुए मैंने रजनी की तरफ देखा तो उसके होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभरी हुई थी।

"मां जी आपने पिता जी से कहा क्यों नहीं कि वो वापसी में कोमल को भी साथ ले आएंगे?" रजनी ने पलट कर प्रभा की तरफ देखते हुए कहा____"और कितने दिन वो मौसी जी के यहाँ रहेगी?"

"मुझे उनसे ये कहने का ख़याल ही नहीं आया बहू।" प्रभा ने कहा____"कल से पूरा एक महीना हो जायेगा कोमल को यहाँ से गए हुए। मैंने तो जीजा जी से कहा भी था कि वो उसे दस पंद्रह दिन में भेज देंगे मगर लगता है कि उन्हें फसलों की कटाई के चलते कोमल को भेजने का समय ही नहीं मिल रहा होगा।"

प्रभा की बात सुन कर रजनी बोली तो कुछ न लेकिन वो तिरछी नज़रों मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई ज़रुर। मैं समझ गया कि शायद उसे अपनी ननद के बारे में पता चल गया है और उसने जब मुझे इधर उधर देखते हुए देखा था तो शायद वो समझ गई थी कि मैं किसे देखने की कोशिश कर रहा हूं। रजनी अपनी सास की ही तरह बहुत चालाक थी। ख़ैर अब जबकि मुझे पता चल चुका था कि कोमल अपनी मौसी के यहाँ है तो अब यहाँ मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। इस लिए मैं चारपाई से उठा और रजनी की सास से चलने को कहा तो उसने इशारे से ही सिर हिला दिया। मैंने आँखों के इशारे से रजनी को एक बार फिर ये बताया कि वो आज शाम को बगीचे वाले अड्डे पर मिले।

मुंशी के घर से मैं बुलेट में बैठ कर चल पड़ा। अब मेरी मंज़िल मुरारी काका का घर थी। मैं मुरारी काका के घर जा कर देखना चाहता था कि वहां का माहौल कैसा है और उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ये सोच कर मैं दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। मैं मुख्य सड़क से न जा कर उसी रास्ते से चल पड़ा जिस रास्ते से मैं पिछले दिन बग्घी में बैठ कर अपने झोपड़े से आया था।

फागुन का महीना चल रहा था और हर जगह खेतों में गेहू की कटाई चालू थी। पगडण्डी के दोनों तरफ हमारी ही ज़मीन थी और हमारे खेतों पर मजदूर गेहू की कटाई में लगे हुए थे। बुलेट की आवाज़ सुन कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ गया तो सबने मुझे पहचान कर अदब से सिर नवाया जबकि मैं बिना उनकी तरफ देखे बढ़ता ही चला जा रहा था। कुछ दूरी से खेत समाप्त हो जाते थे और बंज़र ज़मीन शुरू हो जाती थी। बंज़र ज़मीन के उस पार जंगल लगा हुआ था।

कुछ ही देर में मैं अपने झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास बुलेट को खड़ी कर के मैंने कुछ देर झोपड़े का और आस पास का जायजा लिया और फिर से बुलेट में बैठ कर चल दिया। अब मैं मुरारी काका के घर जा रहा था।

कुछ ही देर में मुरारी काका के घर के सामने पहुंच कर मैंने बुलेट खड़ी की। पेड़ के पास बने चबूतरे पर आज कोई नहीं बैठा था और ना ही आस पास कोई दिख रहा था। मुरारी काका का घर वैसे भी गांव से हट कर बना हुआ था, जहां पर मुरारी काका के खेत थे। ये बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि कुछ ही पलों में मुरारी काका के घर का दरवाज़ा खुल गया और मेरी नज़र दरवाज़े के उस पार खड़ी अनुराधा पर पड़ी। इस वक़्त अनुराधा जिस रूप में मुझे दिख रही थी उससे मैं उसकी तरफ एकटक देखता रह गया था, जबकि वो भी मुझे बुलेट जैसी मोटर साइकिल में आया देख अपलक देखने लगी थी। कुछ पलों तक तो वो मुझे अपलक ही देखती रही फिर जैसे उसे कुछ याद आया तो वो बिना कुछ कहे ही वापस अंदर की तरफ पलट गई। उसका इस तरह से पलट कर घर के अंदर चले जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा मुझे।

मैं आगे बढ़ा और दरवाज़े से अंदर दाखिल हो गया। मुरारी काका का घर मिटटी का बना हुआ था और घर के सामने थोड़ा सा मैदान था। घर के सामने मिट्टी की एक ही दीवार थी जिसमे लकड़ी का दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े से अंदर जाते ही बड़ा सा आँगन था। आँगन के बाईं तरफ भी मिट्टी की ही एक दीवार थी जिसमे दरवाज़ा लगा हुआ था और उस दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ जाना होता था। घर के पीछे एक कुआं था और उसी कुएं के बगल से सरोज काकी ने सब्जियों की एक छोटी सी बगिया लगा रखी थी। आँगन के सामने तरफ और दाएं तरफ दो दो दीवारों के हिसाब से चार कमरे बने हुए थे। सामने वाली दीवार के आगे तरफ क़रीब सात या आठ फ़ीट की एक दीवार बढ़ा कर रसोई बनाई गई थी और उसी रसोई की बढ़ी हुई दीवार के सामानांतर से लकड़ी की मोटी मोटी थून्ही ज़मीन में गाड़ कर और ऊपर से खपरैल चढ़ा कर बरामदा बनाया गया था।

मैं आँगन में आया तो अनुराधा मुझे सामने रसोई के पास ही बरामदे के पास खड़ी नज़र आई। घर के अंदर एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। मैंने नज़र इधर उधर घुमा कर देखा तो सरोज काकी मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

"मां खेतों में गेहू की फसल काट रही है।" मुझे इधर उधर देखता देख अनुराधा ने धीमी आवाज़ में कहा____"और छोटकू भी माँ के साथ ही है। अगर आप माँ से मिलने आए हैं तो वो आपको खेत पर ही मिलेगी।"

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।


---------☆☆☆---------
Bahot behtareen zaberdast shaandaar lajawab update bhai
Bahot khoob shaandaar
 

Riitesh02

Creepy Reader
863
2,874
138
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 13
----------☆☆☆---------



अब तक,,,,,

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?


अब आगे,,,,,


कुसुम के जाने के बाद मैं भाभी के बारे में कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जब मुझे लगा कि कुसुम ने भाभी को मेरे आने के बारे में बता दिया होगा तो मैं कमरे से निकल कर लम्बी राहदारी से होते हुए दूसरे छोर पर बने भाभी के कमरे की तरफ आ गया। इन चार महीनों में ये भी एक बदलाव ही हुआ था कि जिस भाभी से मैं हमेशा दूर दूर ही रहता था वो अब मेरे सामने आ रहीं थी। अपने गांव की ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों की भी जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों से मैं मज़े ले चुका था मगर मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी नीयत भाभी के रूप सौंदर्य की वजह से उन पर ख़राब हो जाए।

मैं अभी भाभी के कमरे के पास ही पंहुचा था कि भाभी मुझे सीढ़ियों से ऊपर आती हुई दिखीं तो मैं दरवाज़े के पास ही रुक गया। सुर्ख रंग की साड़ी में भाभी गज़ब ढा रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके चेहरे पर चन्द्रमा का नूर चमक रहा हो। दूध में हल्का केसर मिले जैसा गोरा सफ्फाक बदन उनकी साड़ी से झलक रहा था। पेट के पास उनकी साड़ी थोड़ा सा हटी हुई थी जिससे उनका एकदम सपाट और रुई की तरह मुलायम पेट चमकता हुआ दिख रहा था। अचानक ही मुझे ख़याल आया कि मेरी नज़र उनके बेदाग़ पेट पर जम सी गई है और मेरी धड़कनें पहले से तेज़ हो चली हैं तो मैंने झट से अपनी नज़रें उनके पेट से हटा ली। मुझे अपने आप पर ये सोच कर बेहद गुस्सा भी आया कि मैंने उनकी तरफ देखा ही क्यों था।

भाभी जब चल कर मेरे क़रीब आईं तो मुझे देख कर वो हल्के से मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि बड़े से बड़ा साधू महात्मा भी उन पर मोहित हो जाए, मेरी भला औकात ही क्या थी? भाभी की मुस्कान पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुप चाप ख़ामोशी से दरवाज़े से एक तरफ हट गया। मेरे एक तरफ हट जाने पर वो मेरे सामने से निकल कर कमरे के दरवाज़े को अपने हाथों से खोला और कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ईं। मेरे मन में अब भी यही सवाल था कि उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कुसुम से क्यों कहा होगा? ख़ैर उन्होंने कमरे के अंदर से मुझे आवाज़ दी तो मैं कमरे के अंदर चला गया।

"कहीं जा रहे थे क्या देवर जी?" मैं जैसे ही अंदर पंहुचा तो रागिनी भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"हां वो ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था।" मैंने खड़े खड़े ही सपाट भाव से कहा____"कुसुम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहतीं थी? कोई काम था क्या मुझसे?"

"क्या बिना कोई काम के मैं अपने देवर जी से नहीं मिल सकती?" मेरे पूछने पर भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा तो मैंने कहा____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"देखो वैभव मैं ये तो नहीं जानती कि तुम मेरे सामने आने से हमेशा कतराते क्यों रहते हो?" भाभी ने कहा____"किन्तु मैं तुमसे बस यही कहना चाहती हूं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल कर एक नई शुरुआत करो। हम सब यही चाहते हैं कि तुम दादा ठाकुर के साथ रहो और उनका कहना मानो। तुम सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर क्यों दे रही हूं तो इसका जवाब यही है कि सबकी तरह मैं भी यही चाहती हूं कि दादा ठाकुर के बाद तुम उनकी जगह सम्हालो।"

"मुझे दादा ठाकुर बनने का कोई शौक नहीं है।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"कल भी मैंने आपसे यही कहा था और हर बार यही कहूंगा। पिता जी के बाद उनकी जगह उनका बड़ा बेटा ही सम्हालेगा और यही नियम भी है। मैं इस सबसे दूर ही रहना चाहता हूं। अगर आपने मुझसे इसी बात के लिए मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो मेरा जवाब आपको मिल चुका है और अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

"क्या तुमने इस बारे में एक बार भी नहीं सोचा वैभव कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर दे कर क्यों कह रही हूं?" भाभी ने जैसे उदास भाव से कहा___"क्या मुझे ये पता नहीं है कि दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी उनका बड़ा बेटा ही होगा?"

"मैं फ़ालतू चीज़ों के बारे में सोचना ज़रूरी नहीं समझता।" मैंने कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि जिसका जिस चीज़ में अधिकार है उसको वही मिले। मुझे बड़े भैया के अधिकार को छीनने का ना तो कोई हक़ है और ना ही मैं ऐसा करना चाहता हूं।"

"अधिकार उसे दिया जाता है वैभव जो उसके लायक होता है।" भाभी ने सहसा शख़्त भाव से कहा____"तुम्हारे बड़े भैया इस अधिकार के लायक ही नहीं हैं।"
"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप अपने ही पति के बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"मैं किसी की पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं वैभव।" भाभी ने पुरज़ोर लहजे में कहा____"और हवेली की बहू होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ है कि मैं उसी के बारे में सोचूं जिसमे सबकी भलाई के साथ साथ इस हवेली और इस खानदान की मान मर्यादा पर भी कोई आंच न आए।"

"तो आप ये समझती हैं कि बड़े भैया इस अधिकार के लायक नहीं हैं?" मैंने गहरी नज़र से उन्हें देखते हुए कहा____"क्या मैं जान सकता हूं कि आप ऐसा क्यों समझती हैं?"

"इसके उत्तर में मैं बस यही कहूंगी वैभव कि वो अपने इस अधिकार के लायक नहीं है।" भाभी ने नज़रे नीचे कर के कहा____"अगर ऐसा न होता तो मैं तुमसे इसके लिए कभी नहीं कहती और इतना ही नहीं बल्कि दादा ठाकुर खुद भी तुमसे ऐसा न कहते।"

"आपको कैसे पता कि पिता जी ने मुझसे इसके लिए क्या कहा है?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा था।
"मुझे माँ जी से पता चला है।" भाभी ने कहा____"और माँ जी से दादा ठाकर ने खुद इस बारे में बताया था कि उन्होंने तुमसे उस दिन खेत में क्या क्या कहा था।"

भाभी की बात सुन कर मैं तुरंत कुछ न बोल सका था बल्कि इस सोच में पड़ गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिससे पिता जी और भाभी बड़े भैया के बारे में ऐसा कहते हैं?

"फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पिता जी ने मुझे किस वजह से गांव से निष्कासित किया था?" मैंने कुछ सोचते हुए भाभी से कहा____"और अगर पता है तो आप जब उस दिन मुझसे मिलने आईं थी तो मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं था?"

"मेरे बताने से क्या तुम्हारे अंदर का गुस्सा और नफ़रत दूर हो जाती?" भाभी ने कहा____"नहीं देवर जी कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें उचित समय पर सही आदमी से ही पता चलें तो बेहतर होता है। मुझे यकीन है कि आज जब तुम दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तब ज़रूर तुम्हारे और उनके बीच इस बारे में बातें हुई होंगी और जब तुम्हें असलियत का पता चला होगा तो तुम्हे फ़ौरन ही समझ आ गया होगा कि वो सही थे या ग़लत?"

"जो भी हो।" मैंने कहा____"पर इसके लिए उन्होंने मुझे बली का बकरा ही तो बनाया ना? चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे हैं उसका हिसाब कौन देगा? अपने मतलब के लिए मेरे साथ ऐसा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" मेरी बात सुन कर भाभी ने हैरानी से कहा____"तुम दादा ठाकुर के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? वो तुम्हारे पिता हैं और तुम पर उनका पूरा अधिकार है। ऐसी बातें कर के तुमने अच्छा नहीं किया देवर जी। तुम जैसे भी थे लेकिन कम से कम मैं तुम्हें कुछ मामलों में बहुत अच्छा समझती थी।"

"मैं हमेशा से ही बुरा था भाभी।" मैंने कहा____"और बुरा ही रहना चाहता हूं। आपको मुझे अच्छा समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए।"
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम ऐसी बातें क्यों करते हो?" भाभी ने बेचैन भाव से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि तुम हम सबसे खुद को अलग रखते हो? क्या हम सब तुम्हारे दुश्मन हैं? क्या हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?"

"चलता हूं भाभी।" मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा____"माफ़ कीजिएगा पर मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते वैभव।" भाभी ने जैसे हुकुम देने वाले लहजे में कहा____"तुम्हें बताना होगा कि तुम ऐसा क्यों करते हो?"

"मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं भाभी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मेरे अंदर आपके प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मैं चाहता हूं कि ऐसा हमेशा ही रहे। मैं अपने ऊपर किसी की बंदिशें पसंद नहीं करता और ना ही मैं किसी के इशारे पर चलना पसंद करता हूं। आपने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने आपसे मिल लिया और आपकी बातें भी सुन ली। अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

भाभी मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि मैं किस तरह का इंसान हूं। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने उन्हें एक बार फिर से प्रणाम किया और पलट कर कमरे से बाहर निकल गया।

भाभी से ऐसी बेरुख़ी में बातें करना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था क्योंकि जब से मैं यहाँ आया था तब से उनका बर्ताव मेरे लिए बदला बदला सा लगने लगा था और मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे क़रीब आने की कोशिश करें। मैं जानता था कि वो अपनी जगह सही हैं मगर उन्हें नहीं पता था कि मेरे अंदर क्या था।

सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मुझे हवेली से बाहर जाता देख उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने चलते चलते ही कहा कि ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूं। वो जानती थी कि मुझे इस तरह किसी की टोका टोकी पसंद नहीं थी।

"शाम को जल्दी घर आ जाना बेटा।" पीछे से माँ की मुझे आवाज़ सुनाई दी____"तुझे पता है ना कि आज होलिका दहन है इस लिए मैं चाहती हूं कि शाम को तू भी हमारे साथ ही रहे।"
"जी बेहतर।" कहने के साथ ही मैं मुख्य दरवाज़े से बाहर निकल गया।

हवेली से बाहर आ कर मैं उस तरफ बढ़ चला जहां पर गाड़ियां रखी होतीं थी। आस पास मौजूद दरबान लोग मुस्तैदी से खड़े थे और मुझे देखते ही उन सबकी गर्दन अदब से झुक गई थी। वो सब मेरे बारे में अच्छी तरह जानते थे कि मैं हवेली के बाकी लड़को से कितना अलग था और किसी की ज़रा सी भी ग़लती पर मैं कितना उग्र हो जाता था। इस लिए मेरे सामने हवेली का हर दरबान पूरी तरह मुस्तैद हो जाता था।

मैने अपनी दो पहिया मोटर साइकिल निकाली और उसमे बैठ कर उसे स्टार्ट किया। मोटर साइकिल के स्टार्ट होते ही वातावरण में बुलेट की तेज़ आवाज़ गूँज उठी। मैं बुलेट को आगे बढ़ाते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े से हो कर बाहर निकल गया।

जैसा कि मैंने बताया था हवेली गांव के आख़िरी छोर पर सबसे अलग बनी हुई थी। हवेली से निकलने के बाद थोड़ी दूरी से गांव की आबादी शुरू होती थी। कच्ची सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। गांव के साहूकारों के घर दूसरे छोर पर थे और उनके मकान पक्के बने हुए थे। हमारे बाद गांव में वही संपन्न थे। हमारी ज़मीन बहुत थी जो दूसरे गांवों तक फैली हुई थी।

गांव से बाहर जाने के लिए साहूकारों के घर के सामने से गुज़ारना पड़ता था। साहूकारों के पास भी बहुत ज़मीनें थी और बहुत ज़मीनें तो उन्होंने ग़रीब लोगों को कर्ज़ा दे कर उनसे हड़प ली थी। ठाकुरों के साथ साहूकारों के सम्बन्ध हमेशा से ही थोड़े तनाव पूर्ण रहे थे किन्तु हमारी ताकत के सामने कभी उन लोगों ने अपना सिर नहीं उठाया था। हलांकि साहूकारों की नई पीढ़ी अब मनमानी पर उतर आई थी।

मैं बुलेट से चलते हुए साहूकारों के सामने से निकला तो मेरी नज़र सड़क के किनारे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर बैठे साहूकारों के कुछ लड़कों पर पड़ी। वो सब आपस में बातें कर रहे थे लेकिन मुझे देखते ही चुप हो गए थे और मेरी तरफ घूरने लगे थे। साहूकारों के इन लड़कों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था और वो सब मेरे द्वारा कई बार पेले जा चुके थे।

मैं उन सबकी तरफ देखते हुए मुस्कुराया और फिर निकल गया। मैं जानता था कि मेरे मुस्कुराने पर उन सबकी झांठें तक सुलग गईं होंगी किन्तु वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मेरा कुछ उखाड़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया था बल्कि वो तो कई बार किया था मगर हर बार मेरे द्वारा पेले ही गए थे।

बुलेट से चलते हुए मैं कुछ ही देर में मुंशी चंद्रकांत के घर पहुंच गया। मुंशी चंद्रकांत का घर पहले साहूकारों के पास ही था लेकिन साहूकार उसे अक्सर किसी न किसी बात पर परेशान करते रहते थे जिसकी वजह से दादा ठाकुर ने मुंशी के लिए गांव से बाहर हमारी ही ज़मीन पर एक बड़ा सा पक्का मकान बनवा दिया था और साहूकारों को ये शख़्त हिदायत दी गई थी कि अब अगर उनकी वजह से मुंशी चंद्रकांत को किसी भी तरह की परेशानी हुई तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। दादा ठाकुर की इस हिदायत के बाद आज तक अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। मुंशी ने अपना पहले वाला घर पिता जी के ही कहने पर एक ग़रीब किसान को दे दिया था।

बुलेट की आवाज़ सुन कर मुंशी के मकान का दरवाज़ा खुला तो मेरी नज़र दरवाज़े के पार खड़ी मुंशी की बहू रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गई और यही हाल उसका भी हुआ। मैंने बुलेट को बंद किया और उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही पलों में मैं रजनी के पास पहुंच गया। रजनी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी और जैसे ही मैं उसके क़रीब पहुंचा तो वो दरवाज़े के अंदर की तरफ दो क़दम पीछे को हो ग‌ई। मैं मुस्कुराते हुए दरवाज़े के अंदर आया और फिर झट से दरवाज़ा बंद कर के रजनी को अपनी बाहों में कस लिया।

"ये क्या कर रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"मां जी अंदर ही हैं और अगर वो इस तरफ आ गईं तो गज़ब हो जाएगा।"

"आने दे उसे।" मैंने रजनी को पलटा कर उसकी पीठ अपनी तरफ करते हुए कहा____"उसे भी तेरी तरह अपनी बाहों में भर कर प्यार करने लगूंगा।"
"अच्छा जी।" रजनी ने मेरे पेट में अपनी कोहनी से मार कर कहा____"क्या मुझसे आपका मन भर गया है जो अब मेरी बूढ़ी सास को भी प्यार करने की बात कह रहे हैं?"

"बूढ़ी वो तेरी नज़र में होगी।" मैंने रजनी की बड़ी बड़ी चूचियों को मसलते हुए कहा तो उसकी सिसकी निकल गई, जबकि मैंने आगे कहा____"मेरे लिए तो वो तेरी तरह कड़क माल ही है। तूने अभी देखा ही नहीं है कि तेरी सास कैसे मेरे लंड को मुँह में भर कर मज़े से चूसती है।"

"आप बहुत वो हैं।" रजनी ने अपना हाथ पीछे ले जा कर पैंंट के ऊपर से ही मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"हम दोनों के मज़े ले रहे हैं मगर कभी ये नहीं सोचा कि अगर किसी दिन हमारा भांडा फूट गया तो हमारा क्या होगा?"

"मेरे रहते तुम दोनों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने रजनी के ब्लॉउज में हाथ डाल कर उसकी एक चूची को ज़ोर से मसला तो इस बार उसकी सिसकी ज़ोर से निकल गई____"ख़ैर ये सब छोड़ और आज शाम को बगीचे में मिल। चार महीने हो गए तुझे चोदे हुए और अब मुझसे रहा नहीं जा रहा।"

"मैं भी तो आपसे चुदवाने के लिए तब से ही तड़प रही हूं।" रजनी ने मेरे लंड को तेज़ तेज़ सहलाते हुए कहा जिससे मेरा लंड पैंट के अंदर ही किसी नाग की तरह फनफना कर खड़ा हो गया था, उधर रजनी ने आगे कहा____"रात में जब वो करते हैं तो मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आता। तब आपकी याद आती है और फिर सोचती हू कि उनकी जगह पर काश आप होते तो कितना मज़ा आता।"

"तेरा पति तो साला नपुंसक है।" मैंने एक हाथ से रजनी की चूंत को उसकी साड़ी के ऊपर से ही मसलते हुए कहा जिससे वो कसमसाने लगी____"उसमे तो दम ही नहीं है अपनी बीवी को हचक के चोदने का। ख़ैर तू आज शाम को बगीचे में उसी जगह पर मिल जहां पर हम हमेशा मिला करते थे।"

"ठीक है मैं समय से पहुंच जाऊंगी वहां।" रजनी ने मेरे लंड से अपना हाथ हटाते हुए कहा____"अब छोड़िए मुझे। कहीं माँ जी ना आ जाएं। आपसे कितनी बार कहा है कि एक बार मुझे भी उनके साथ करते हुए दिखा दीजिए मगर आप सुनते कहा हैं मेरी? क्या आपका मन नहीं करता कि आप हम दोनों सास बहू को एक साथ चोदें?"

"मन तो करता है मेरी जान।" मैंने रजनी के होठों को चूमने के बाद कहा___"मगर ऐसा मौका भी तो मिलना चाहिए। ख़ैर तू चिंता न कर। इस बार मौका मिला तो तुझे और तेरी सास दोनों को ही एक साथ पेलूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक उभर आई। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी अंदर से रजनी की सास और मुंशी की बीवी प्रभा की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। रजनी की सास रजनी को आवाज़ दे कर पूछ रही थी कि कौन आया है बाहर?

प्रभा की इस आवाज़ पर मैं रजनी को छोड़ कर अंदर की तरफ चल दिया जबकि रजनी वहीं पर खड़ी हो कर अपनी साड़ी और ब्लॉउज को ठीक करने लगी थी। कुछ ही देर में मैं अंदर आँगन में आया तो देखा प्रभा अपने हाथ में सूपा लिए इस तरफ ही आ रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर मुस्कुराने लगी।

मुंशी की बीवी प्रभा इस उम्र में भी गज़ब का माल लगती थी। गठीला जिस्म था उसका और जिस्म में झुर्रियों के कही निशान तक नहीं थे। उसके सीने पर दो भारी भरकम खरबूजे जैसी चूचियां थी जो तंग ब्लॉउज की वजह से ब्लॉउज को फाड़ कर बाहर उछाल पड़ने को आतुर थे। प्रभा थोड़ी सांवली थी किन्तु लंड की सवारी वो अपनी बहू से कहीं ज़्यादा पूरे जोश से करती थी।

"क्या बात है।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर हमारे घर में कैसे? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए?"
"मुंशी काका कहां हैं?" रजनी को पीछे से आता देख मैंने प्रभा से कहा____"मुझे उनसे कुछ ज़रूरी काम है।"

"वो तो इस वक़्त यहाँ नहीं हैं।" प्रभा ने कहा____"दोपहर को रघू के साथ कहीं गए थे और अब तक नहीं लौटे। ख़ैर आप मुझे बताइए क्या काम था उनसे?"
"उनसे कहना मुझसे आ कर मिलें।" मैंने ठाकुरों वाले रौब में कहा____"और ये भी कहना कि मुझसे मिलने में उन्हें देरी नहीं होनी चाहिए।"

"जी बिलकुल छोटे ठाकुर।" प्रभा ने सिर हिलाते हुए कहा___"अरे! आप खड़े क्यों हैं बैठिए ना।"

प्रभा ने हाथ में लिए हुए सूपे को एक तरफ रखा और आँगन के एक कोने में रखी चारपाई को बिछा दिया। मैं जा कर चारपाई में बैठ गया। हलांकि अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता था किन्तु मैं एक बार प्रभा की बेटी कोमल को भी देख लेना चाहता था। पिछली बार जब मैं उससे मिला था तब मैं उसे पटाने में लगभग कामयाब हो ही गया था। उसके बाद पिता जी ने गांव से निष्कासित कर देने का फैसला सुना दिया था तो मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई थी।

अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी रजनी लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास बढ़ाया तो मैंने उसके हाथ से गिलास ले लिया। पानी पीते हुए मैंने रजनी की तरफ देखा तो उसके होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभरी हुई थी।

"मां जी आपने पिता जी से कहा क्यों नहीं कि वो वापसी में कोमल को भी साथ ले आएंगे?" रजनी ने पलट कर प्रभा की तरफ देखते हुए कहा____"और कितने दिन वो मौसी जी के यहाँ रहेगी?"

"मुझे उनसे ये कहने का ख़याल ही नहीं आया बहू।" प्रभा ने कहा____"कल से पूरा एक महीना हो जायेगा कोमल को यहाँ से गए हुए। मैंने तो जीजा जी से कहा भी था कि वो उसे दस पंद्रह दिन में भेज देंगे मगर लगता है कि उन्हें फसलों की कटाई के चलते कोमल को भेजने का समय ही नहीं मिल रहा होगा।"

प्रभा की बात सुन कर रजनी बोली तो कुछ न लेकिन वो तिरछी नज़रों मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई ज़रुर। मैं समझ गया कि शायद उसे अपनी ननद के बारे में पता चल गया है और उसने जब मुझे इधर उधर देखते हुए देखा था तो शायद वो समझ गई थी कि मैं किसे देखने की कोशिश कर रहा हूं। रजनी अपनी सास की ही तरह बहुत चालाक थी। ख़ैर अब जबकि मुझे पता चल चुका था कि कोमल अपनी मौसी के यहाँ है तो अब यहाँ मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। इस लिए मैं चारपाई से उठा और रजनी की सास से चलने को कहा तो उसने इशारे से ही सिर हिला दिया। मैंने आँखों के इशारे से रजनी को एक बार फिर ये बताया कि वो आज शाम को बगीचे वाले अड्डे पर मिले।

मुंशी के घर से मैं बुलेट में बैठ कर चल पड़ा। अब मेरी मंज़िल मुरारी काका का घर थी। मैं मुरारी काका के घर जा कर देखना चाहता था कि वहां का माहौल कैसा है और उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ये सोच कर मैं दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। मैं मुख्य सड़क से न जा कर उसी रास्ते से चल पड़ा जिस रास्ते से मैं पिछले दिन बग्घी में बैठ कर अपने झोपड़े से आया था।

फागुन का महीना चल रहा था और हर जगह खेतों में गेहू की कटाई चालू थी। पगडण्डी के दोनों तरफ हमारी ही ज़मीन थी और हमारे खेतों पर मजदूर गेहू की कटाई में लगे हुए थे। बुलेट की आवाज़ सुन कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ गया तो सबने मुझे पहचान कर अदब से सिर नवाया जबकि मैं बिना उनकी तरफ देखे बढ़ता ही चला जा रहा था। कुछ दूरी से खेत समाप्त हो जाते थे और बंज़र ज़मीन शुरू हो जाती थी। बंज़र ज़मीन के उस पार जंगल लगा हुआ था।

कुछ ही देर में मैं अपने झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास बुलेट को खड़ी कर के मैंने कुछ देर झोपड़े का और आस पास का जायजा लिया और फिर से बुलेट में बैठ कर चल दिया। अब मैं मुरारी काका के घर जा रहा था।

कुछ ही देर में मुरारी काका के घर के सामने पहुंच कर मैंने बुलेट खड़ी की। पेड़ के पास बने चबूतरे पर आज कोई नहीं बैठा था और ना ही आस पास कोई दिख रहा था। मुरारी काका का घर वैसे भी गांव से हट कर बना हुआ था, जहां पर मुरारी काका के खेत थे। ये बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि कुछ ही पलों में मुरारी काका के घर का दरवाज़ा खुल गया और मेरी नज़र दरवाज़े के उस पार खड़ी अनुराधा पर पड़ी। इस वक़्त अनुराधा जिस रूप में मुझे दिख रही थी उससे मैं उसकी तरफ एकटक देखता रह गया था, जबकि वो भी मुझे बुलेट जैसी मोटर साइकिल में आया देख अपलक देखने लगी थी। कुछ पलों तक तो वो मुझे अपलक ही देखती रही फिर जैसे उसे कुछ याद आया तो वो बिना कुछ कहे ही वापस अंदर की तरफ पलट गई। उसका इस तरह से पलट कर घर के अंदर चले जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा मुझे।

मैं आगे बढ़ा और दरवाज़े से अंदर दाखिल हो गया। मुरारी काका का घर मिटटी का बना हुआ था और घर के सामने थोड़ा सा मैदान था। घर के सामने मिट्टी की एक ही दीवार थी जिसमे लकड़ी का दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े से अंदर जाते ही बड़ा सा आँगन था। आँगन के बाईं तरफ भी मिट्टी की ही एक दीवार थी जिसमे दरवाज़ा लगा हुआ था और उस दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ जाना होता था। घर के पीछे एक कुआं था और उसी कुएं के बगल से सरोज काकी ने सब्जियों की एक छोटी सी बगिया लगा रखी थी। आँगन के सामने तरफ और दाएं तरफ दो दो दीवारों के हिसाब से चार कमरे बने हुए थे। सामने वाली दीवार के आगे तरफ क़रीब सात या आठ फ़ीट की एक दीवार बढ़ा कर रसोई बनाई गई थी और उसी रसोई की बढ़ी हुई दीवार के सामानांतर से लकड़ी की मोटी मोटी थून्ही ज़मीन में गाड़ कर और ऊपर से खपरैल चढ़ा कर बरामदा बनाया गया था।

मैं आँगन में आया तो अनुराधा मुझे सामने रसोई के पास ही बरामदे के पास खड़ी नज़र आई। घर के अंदर एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। मैंने नज़र इधर उधर घुमा कर देखा तो सरोज काकी मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

"मां खेतों में गेहू की फसल काट रही है।" मुझे इधर उधर देखता देख अनुराधा ने धीमी आवाज़ में कहा____"और छोटकू भी माँ के साथ ही है। अगर आप माँ से मिलने आए हैं तो वो आपको खेत पर ही मिलेगी।"

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।


---------☆☆☆---------
Lagta hai apna Londe thoda jaag rha hai. Pichle kuch update me lag rha tha kahi khun thoda thanda toh nai hone laga hai...
Dekhte hai anuradha kya bol gai vaibhav se.
Bahut badhiya update. Agle update ka intezar rhega.
 
Top