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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 11
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अध्याय - 11
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अब तक,,,,,
कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?
अब आगे,,,,,
"क्या बात है।" अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी कमरे के दरवाज़े से ये आवाज़ सुन कर मैंने और कुसुम ने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर रागिनी भाभी खड़ीं थी। हम दोनों को अपनी तरफ देखते देख भाभी ने मुस्कुराते हुए आगे कहा____"भाई बहन के बीच तो बड़ा प्यार दिख रहा है आज।"
"तो क्या नहीं दिखना चाहिए भाभी?" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा तो रागिनी भाभी मुस्कुराते हुए हमारे पास आईं और अपने दोनों हाथो में लिए हुए पानी से भरे जग और गिलास को बिस्तर में ही एक तरफ रख दिया और फिर बोलीं____"मैंने ऐसा तो नहीं कहा और ना ही मैं ऐसा कहूंगी, बल्कि मैं तो ये कहूंगी कि भाई बहन के बीच ये प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे मगर...!"
"मगर क्या भाभी?" कुसुम ने सवालिया निगाहों से उनकी तरफ देखते हुए पूछा।
"मगर ये कि दोनों भाई बहन अपने प्यार में।" भाभी ने अपनी उसी मुस्कान के साथ कहा____"अपनी इस बेचारी भाभी को मत भूल जाना। आख़िर हमारा भी तो कहीं कोई हक़ होगा। क्यों देवर जी?"
"ज..जी जी क्यों नहीं।" भाभी ने अचानक से मुझसे पूछा तो मैंने हड़बड़ा कर यही कहा जिससे भाभी के होठों की मुस्कान और गहरी हो गई जबकि कुसुम ने भाभी के बोलने से पहले ही कहा____"आपके असली हक़दार तो आपके कमरे में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं भाभी।"
"चुप बेशरम।" भाभी ने आँखे दिखाते हुए कुसुम से कहा____"मैं तो अपने देवर जी से अपने हक़ की बात कर रही थी।"
भाभी की ये बात सुन कर मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखा। आज ये दूसरी बार था जब उनकी बातों से मैं हैरान हुआ था। आज से पहले भाभी ने कभी मुझसे इस तरह हैरान कर देने वाली बातें नहीं की थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उनके मन में आख़िर चल क्या रहा है?
"बड़े भैया को अगर पता चल गया कि आप अपने देवर जी के कमरे में हैं और उनसे हक़ की बात कर रही हैं।" कुसुम की इस बात से मेरा ध्यान उसकी तरफ गया____"तो आज फिर वो आप पर गुस्सा हो जाएंगे।"
"मैं भी एक ठाकुर की बेटी हूं और मेरे अंदर भी ठाकुरों का खून दौड़ रहा है कुसुम।" भाभी ने पुरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"इस लिए मैं किसी के गुस्से की परवाह नहीं करती और ना ही मैं किसी के गुस्से से डरती हूं।"
"वाह! क्या बात है भाभी।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"आज तो आप अलग ही रूप में नज़र आ रही हैं। कोई ख़ास बात है क्या?"
"ख़ास बात तो कुछ नहीं है मेरी प्यारी ननद रानी।" भाभी ने एक नज़र मेरी तरफ डालने के बाद मुस्कुराते हुए कहा____"मन में बस ये ख़याल आ गया कि कुछ बातों में मुझे भी अपने देवर जी जैसा होना चाहिए।"
रागिनी भाभी की बातें मुझे झटके पे झटके दे रहीं थी। दो साल पहले उनकी शादी मेरे बड़े भाई से हुई थी और तब से मैं उन्हें जानता था कि वो इतना खुल कर किसी से नहीं बोलतीं थी। ख़ास कर मुझसे तो बिलकुल भी नहीं। ये अलग बात है कि उन्हें मुझसे बोलने का मौका ही नहीं मिल पाता था क्योकि मैं उनसे हमेशा दूर दूर ही रहता था।
"अच्छा ऐसी बात है क्या?" कुसुम ने हंसते हुए कहा____"ज़रा मुझे भी तो बताइए भाभी कि ऐसी किन बातों में आप भैया जैसी होने की बात कह रही हैं?"
"किसी चीज़ की परवाह न करना।" भाभी ने एक बार फिर मेरी तरफ देख कर कुसुम से कहा____"और ना ही किसी से डरना।"
"अच्छा तो आप ऐसा समझती हैं कि भैया को किसी चीज़ की परवाह नहीं होती?" कुसुम ने मेरी तरफ नज़र डालते हुए कहा____"और ना ही वो किसी से डरते हैं?"
"अब तक तो ऐसा ही समझती थी मैं।" भाभी ने अजीब भाव से कहा____"पर लगता है अब ऐसा नहीं है। देवर जी में अब बदलाव आ गया है कुसुम। वो अब चीज़ों की परवाह करने लगे हैं और शायद हर किसी से डरने भी लगे हैं।"
"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" कुसुम ने इस बार हैरानी से कहा____"मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।"
"जाने दो कुसुम।" भाभी ने कहा____"मुझे लगता है कि देवर जी को मेरा यहाँ आना पसंद नहीं आ रहा है। अच्छा अब तुम दोनों आराम से खाओ, मैं जा रही हूं यहां से।"
इससे पहले कि कुसुम उनसे कुछ कहती वो मेरी तरफ देखने के बाद पलटीं और कमरे से बाहर चली गईं। उन्हें इस तरह जाते देख जाने क्यों मैंने राहत की सांस ली। इधर उनके जाने के बाद कुसुम ने मेरी तरफ देखा और फिर थाली से रोटी का टुकड़ा तोड़ने लगी।
"क्या आपको समझ में आया कि भाभी क्या कह रहीं थी?" कुसुम ने निवाले को अपने मुँह में डालने के बाद कहा____"आज उनका लहजा बदला बदला सा लग रहा था मुझे।"
"मैं इन सब बातों पर ध्यान नहीं देता।" मैंने बात को टालने की गरज़ से कहा____"चुप चाप खाना खाओ और हां अपने उस काम पर भी ध्यान दो जिसके लिए मैंने कहा है तुझसे।"
"ठीक है भइया।" कुसुम ने कहा और फिर उसने चुप चाप खाना खाना शुरू कर दिया। उसके साथ मैं भी ख़ामोशी से खाने लगा था और साथ ही भाभी की बातों के बारे में सोचता भी जा रहा था।
खाना खाने के बाद कुसुम थाली ले कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैंने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद किया और बिस्तर पर लेट गया। भाभी का बर्ताव मुझे बहुत अजीब लगा था। वो बातें भले ही कुसुम से कर रहीं थी किन्तु वो सुना मुझे ही रहीं थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वो मुझसे चाहती क्या हैं? इतना तो उन्होंने मुझसे भी कहा था कि दादा ठाकुर के बाद मैं उनकी जगह ले सकता हूं मगर उनके ऐसा कहने के पीछे क्या वजह थी ये नहीं बताया था उन्होंने। हलांकि मैंने उनसे इसकी वजह पूछी भी नहीं थी।
चार महीने बाद हवेली में लौट कर आया था और आते ही हवेली के दो लोगों ने मुझे हैरान किया था और सोचने पर भी मजबूर कर दिया था। मेरे भाइयों का बर्ताव भी पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही बदला हुआ था। कुछ तो ज़रूर चल रहा था यहाँ मगर क्या इसका पता लगाना जैसे अब ज़रूरी हो गया था मेरे लिए। अब सवाल ये था कि इस सबके बारे में पता कैसे करूं? हलांकि मैंने कुसुम को जासूसी के काम में लगा दिया था किन्तु सिर्फ उसके भरोसे नहीं रह सकता था मैं। यानी मुझे खुद कुछ न कुछ करना होगा।
मैने महसूस किया कि यहाँ आते ही मैं एक अलग ही चक्कर में पड़ गया था जबकि यहाँ आने से पहले मेरे ज़हन में सिर्फ यही था कि मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊंगा और उसके परिवार के बारे में भी सोचूंगा। मुरारी काका की हत्या का मामला भी मेरे लिए एक रहस्य जैसा बना हुआ था जिसके रहस्य का पता लगाना मेरे लिए ज़रूरी था क्योंकि उसी मामले से मेरी फसल में आग लगने का मामला भी जुड़ा हुआ था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरी फसल को इस तरह से किसने आग लगाईं होगी? क्या फसल में आग लगाने वाला और मुरारी काका की हत्या करने वाला एक ही ब्यक्ति हो सकता है? सवाल बहुत सारे थे मगर जवाब एक का भी नहीं था मेरे पास।
चार महीने पहले अच्छी खासी ज़िन्दगी गुज़र रही थी अपनी। बेटीचोद किसी बात की चिंता नहीं थी और ना ही मैं किसी के बारे में इतना सोचता था। हर वक़्त अपने में ही मस्त रहता था मगर महतारीचोद ये शादी वाला लफड़ा क्या हुआ अपने तो लौड़े ही लग गए। मेरे बाप ने खिसिया कर मुझे गांव से निष्कासित कर दिया और फिर तो जैसे चक्कर पे चक्कर चलने का दौर ही शुरू हो गया। बंज़र ज़मीन में किसी तरह गांड घिस घिस के फसल उगाई तो मादरचोद किसी ने मुरारी काका को ही टपका दिया। उसमे भी उस बुरचटने का पेट नहीं भरा तो बिटियाचोद ने मेरी फसल को ही आग लगा दी। एक बार वो भोसड़ी वाला मुझे मिल जाए तो उसकी गांड में बिना तेल लगाए लंड पेलूंगा।
अपने ही ज़हन में उभर रहे इन ख़यालों से जैसे मैं बुरी तरह भन्ना गया था। किसी तरह खुद को शांत किया और सोने के बारे में सोच कर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली मगर इसकी माँ का मादरचोद नींद ही नहीं थी आँखों में। मैंने महसूस किया कि मुझे मुतास लगी है इस लिए अपनी मुतास को भी गाली देते हुए मैं बिस्तर से नीचे उतरा और कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गया।
कमरे के बाहर हल्का अँधेरा था किन्तु हवेली के चप्पे चप्पे से वाक़िफ मैं आगे बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं दूसरे छोर के पास बनी सीढ़ी के पास पहुंच गया। हवेली में मूतने के लिए नीचे जाना पड़ता था। पुरखों की बनाई हुई हवेली में यही एक ख़राबी थी। ख़ैर दूसरे छोर पर मैं पंहुचा तो अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा जिससे मैंने बाएं तरफ दिख रही राहदारी की तरफ पलटा। कुछ देर रुक कर मैंने इधर उधर देखा और फिर दबे पाँव एक कमरे की तरफ बढ़ चला। हवेली में इस वक़्त गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। मतलब साफ़ था कि इस वक़्त हर कोई अपने अपने कमरे में सोया हुआ था।
मैं जिस कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच कर रुका था वो कमरा मेरे बड़े भाई और भाभी का था। भैया भाभी के कमरे के बगल से बने दो कमरों में ताला लगा हुआ था जबकि बाद के दो अलग अलग कमरे विभोर और अजीत के थे और उन दोनों कमरों के सामने वाला कमरा कुसुम का था। हवेली के दूसरे छोर पर जो कमरे बने हुए थे उनमे से एक कमरा मेरा था। जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि मैं सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था।
भैया भाभी के कमरे के दरवाज़े के पास रुक कर मैंने इधर उधर का बारीकी से जायजा लिया और फिर सब कुछ ठीक जान कर मैं झुका और दरवाज़े के उस हिस्से पर अपनी आँख सटा दी जहां पर दरवाज़े के दो पल्लों का जोड़ था। हलांकि मुझे मान मर्यादा का ख़्याल रख कर ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि कमरे के अंदर भैया भाभी थे और वो किसी भी स्थिति में हो सकते थे। लेकिन मैंने फिर भी देखना इस लिए ज़रूरी समझा कि मुझे अब अपने सवालों के जवाब तलाशने थे।
दरवाज़े के जोड़ पर थोड़ी झिरी तो थी किन्तु अंदर से पर्दा खिंचा हुआ था जिससे कमरे के अंदर का कुछ भी नहीं देखा जा सकता था। ये देख कर मैंने मन ही मन पर्दे को गाली दी और फिर आँख की जगह अपना एक कान सटा दिया उस हिस्से में और अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक कान सटाने के बाद भी मुझे अंदर से कुछ सुनाई नहीं दिया जिससे मैं समझ गया कि भैया भाभी अंदर सोए हुए हैं। मैं मायूस सा हो कर दरवाज़े हटा और वापस सीढ़ियों की तरफ चल दिया। अभी मैं दो क़दम ही चला था कि मैं कुछ ऐसी आवाज़ सुन कर ठिठक गया जैसे किसी कमरे का दरवाज़ा अभी अभी खुला हो। इस आवाज़ को सुन कर दो पल के लिए तो मैं एकदम से हड़बड़ा ही गया और झट से आगे बढ़ कर दीवार के पीछे खुद को छुपा लिया।
अपनी बढ़ चुकी धड़कनों को नियंत्रित करते हुए मैंने दीवार के पीछे से अपने सिर को हल्का सा निकाला और राहदारी की तरफ देखा। हल्के अँधेरे में मेरी नज़र विभोर के कमरे के पास पड़ी। बड़े भैया विभोर के कमरे से अभी अभी निकले थे। ये देख कर मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे में क्यों थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि मैंने देखा बड़े भैया विभोर के कमरे से राहदारी में चलते हुए अपने कमरे की तरफ आये और फिर अपने कमरे के दरवाज़े को हल्का सा धक्का दिया तो दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़ा खोल कर वो चुप चाप कमरे में दाखिल हो गए। मैंने साफ देखा कि कमरे के अंदर अँधेरा था। अंदर दाखिल होने के बाद बड़े भैया ने दरवाज़ा बंद कर लिया।
दीवार के पीछे छुपा खड़ा मैं सोच में पड़ गया था कि रात के इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे से क्यों आये थे? आख़िर इन तीनों भाइयों के बीच क्या खिचड़ी पक रही थी? तीनों भाइयों के बीच इस लिए कहा क्योंकि आज कल वो तीनों एक साथ ही रह रहे थे। कुछ देर सोचने के बाद मैं दीवार से निकला और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। अँधेरा नीचे भी था किन्तु इतना भी नहीं कि कुछ दिखे ही नहीं। मैं गुसलखाने पर गया और मूतने के बाद वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। थोड़ी देर के लिए मेरे मन में ये ख़याल आया कि एक एक कर के सबके कमरों में जाऊं और जानने का प्रयास करूं कि किस कमरे में क्या चल रहा है किन्तु फिर मैंने अपना ये ख़याल दिमाग़ से झटक दिया और अपने बिस्तर में आ कर लेट गया। सोचते सोचते ही नींद आ गई और मैं घोड़े बेच कर सो गया।
सुबह मेरी आँख कुसुम के जगाने पर ही खुली। मैं जगा तो उसने बताया कि कलेवा बन गया है इस लिए मैं नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर आऊं। मेरे पूछने पर उसने बताया कि दादा ठाकुर और उसके पिता जी देर रात आ गए थे।
"दादा ठाकुर ने कहा है कि वो आपको नास्ते की मेज पर मिलेंगे।" कुसुम ने पलट कर जाते हुए कहा____"इस लिए जल्दी से आ जाइयेगा।"
इतना कह कर कुसुम चली गई और इधर उसकी बात सुन कर मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं। दादा ठाकुर यानी कि मेरे पिता ने कुसुम के द्वारा मुझे बुलाया था नास्ते पर। उस दिन के बाद ये पहला अवसर होगा जब मैं उनके सामने जाऊंगा। ख़ैर अब क्योंकि दादा ठाकुर ने बुलावा भेजा था तो मुझे भी अब फ़ौरन उनके सामने हाज़िर होना था। हलांकि इसके पहले मैं अक्सर उनके बुलाने पर देर से ही जाता था। अपनी मर्ज़ी का मालिक जो था किन्तु अब ऐसा नहीं था। अब शायद हालात बदल गए थे या फिर मैं अपनी मर्ज़ी से ही कुछ सोच कर फ़ौरन ही उनके सामने हाज़िर हो जाना चाहता था।
नित्य क्रिया से फ़ारिग होने के बाद मैं नहा धो कर और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे पहुंचा। मेरे दिल की धड़कनें ये सोच कर बढ़ी हुईं थी कि दादा ठाकुर जाने क्या कहेंगे मुझसे। नीचे आया तो देखा बड़ी सी मेज के चारो तरफ रखी कुर्सियों पर हवेली के दो प्रमुख मर्द बैठे थे और उनके दाएं बाएं तरफ मेरा बड़ा भाई ठाकुर अभिनव सिंह विभोर और अजीत बैठे हुए थे। दादा ठाकुर मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे जबकि मझले ठाकुर यानी चाचा जी उनके सामने वाली दूसरी मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे। लम्बी सी मेज में उन सबके सामने थालियां रखी हुईं थी और थालियों के बगल से पीतल के मग और गिलास में पानी भरा हुआ रखा था।
मैं आया तो सबसे पहले दादा ठाकुर के पैरों को छू कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने बस अपने दाहिने हाथ को हल्का सा उठा कर मानो मुझे आशीर्वाद दिया। वो मुख से कुछ नहीं बोले थे, हलांकि अपनी तो बराबर गांड फटी पड़ी थी कि जाने वो क्या कहेंगे। ख़ैर जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैं मझले ठाकुर यानी चाचा जी के पास गया और उनके भी पैर छुए। मझले ठाकुर ने सदा खुश रहो कह कर मुझे आशीर्वाद दिया। वातावरण में तो एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था जो कि दादा ठाकुर के रहने से हमेशा ही छाया रहता था। ख़ैर उसके बाद मेरी नज़र मेरे बड़े भाई पर पड़ी और मैं उनके पास जा कर उनके भी पैर छुए जिसके जवाब में वो कुछ नहीं बोले।
"बैठो इस तरफ।" दादा ठाकुर ने अपने दाहिने तरफ रखी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा तो मैं ख़ामोशी से उस कुर्सी पर बैठ गया। यहाँ पर गौर करने वाली बात थी कि मैंने अपने से बड़ों के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया था जबकि विभोर और अजीत जो मुझसे छोटे थे वो अपनी जगह पर जड़ की तरह बैठे रहे थे। उन दोनों ने मेरे पैर छूने की तो बात दूर बल्कि मुझे देख कर अपने हाथ तक नहीं जोड़े थे। दादा ठाकुर और मझले ठाकुर न होते तो इस वक़्त मैं उन दोनों को ऐसे दुस्साहस की माकूल सज़ा देता। ख़ैर अपने गुस्से को अंदर ही जज़्ब कर लिया मैंने।
कुसुम और भाभी रसोई से आ कर हम सबको नास्ता परोसने लगीं। दादा ठाकुर ने सबको नास्ता शुरू करने का इशारा किया तो हम सबने नास्ता करना शुरू कर दिया। नास्ते के दौरान एकदम ख़ामोशी छाई रही। ये नियम ही था कि खाना खाते वक़्त कोई बात नहीं कर सकता था। ख़ैर नास्ता ख़त्म हुआ तो दादा ठाकुर के उठने के बाद हम सब भी अपनी अपनी जगह से उठ गए। हम सब जैसे ही उठे तो दादा ठाकुर ने मुझे बैठक में आने को कहा।
"अब से ठीक एक घंटे बाद तुम्हें हमारे साथ कहीं चलना है" बैठक में रखी एक बड़ी सी गद्देदार कुर्सी पर बैठे दादा ठाकुर ने अपनी प्रभावशाली आवाज़ में मुझसे कहा____"इस लिए हवेली से कहीं जाने का कार्यक्रम न बना लेना। अब तुम जा सकते हो।"
दादा ठाकुर की इस बात पर मैंने हाँ में सिर हिलाया और पलट कर वापस अपने कमरे की तरफ चला गया। अपने कमरे की तरफ जाते हुए मैं सोच रहा कि पिता जी ने मुझसे बाकी किसी बारे में कुछ नहीं कहा। क्या वो उन सबके बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहते थे या फिर उनके मन में कुछ और ही चल रहा है? वो अपने साथ मुझे कहां ले जाने की बात कह रहे थे? हलांकि ऐसा पहले भी वो कहते थे किन्तु पहले मैं अक्सर ही हवेली से निकल जाता था और पिता जी का गुस्सा मेरे ऐसा करने पर आसमान छूने लगता था, जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं होती थी किन्तु आज मैं उनके कहे अनुसार हवेली में ही रहने वाला था।
अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर लेटा यही सोच रहा था कि दादा ठाकुर मुझे अपने साथ कहां ले जाना चाहते होंगे? मैंने इस बारे में बहुत सोचा मगर मुझे कुछ समझ नहीं आया। थक हार कर मैंने यही सोचा कि अब तो इस बारे में उनके साथ जा कर ही पता चलेगा।
मैं अब बहुत कुछ करना चाहता था और बहुत सारी चीज़ों का पता भी लगाना चाहता था किन्तु ये सब मेरे अनुसार होता नज़र नहीं आ रहा था। हवेली में मेरे लिए जैसे एक बंधन सा हो गया था। हलांकि मुझे यहाँ आए अभी एक दिन ही हुआ था किन्तु मैं चाहता था कि जो भी काम हो जल्दी हो। मैं किसी बात के इंतज़ार नहीं कर सकता था मगर मेरे बस में तो जैसे कुछ था ही नहीं।
सोचते सोचते कब एक घंटा गुज़र गया पता ही नहीं चला। कुसुम मेरे कमरे में आई और उसने कहा कि दादा ठाकुर ने मुझे बुलाया है। मैंने उसे एक गिलास पानी पिलाने को कहा और बिस्तर से उतर कर आईने के सामने आया। आईने में खुद को देखते हुए मैंने अपने बाल बनाए और फिर कमरे से बाहर निकल गया। नीचे आया तो कुसुम ने मुझे पानी से भरा गिलास पकड़ाया तो मैंने पानी पिया और फिर बाहर बैठक में आ गया जहां पिता जी अपनी बड़ी सी कुर्सी पर बैठे थे और उनके सामने मुंशी चंद्रकांत खड़ा था। मुझे देख कर मुंशी ने अदब से सिर नवाया तो मैं कुछ न बोला।
"अब आप जाइए मुंशी जी।" मुझे आया देख पिता जी ने मुंशी से कहा_____"हम इस बारे में लौट कर बात करेंगे।"
"जी बेहतर ठाकुर साहब।" मुंशी ने सिर को झुका कर कहा और फिर दादा ठाकुर को प्रणाम करके हवेली से बाहर निकल गया।
मुंशी के जाने के बाद बैठक में मैं और पिता जी ही रह गए थे और मेरी धड़कनें इस अकेलापन की वजह से कुछ बढ़ गईं थी। मैं अभी भी यही सोच रहा था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां ले कर जाने वाले हैं?
"तुम्हारे पीछे दीवार में लगी कील पर जीप की चाभी टंगी हुई है।" पिता जी की भारी आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा____"उसे लो और जा कर जीप निकालो। हम आते हैं थोड़ी देर मे।"
पिता जी के कहने पर मैंने पलट कर दीवार में टंगी जीप की चाभी निकाली और हवेली से बाहर की तरफ बढ़ गया। पिता जी के साथ मैं पहले भी कई बार जीप में जा चुका था किन्तु पहले भी मैं तभी जाता था जब मेरा मन करता था वरना तो मैं किसी न किसी बहाने से रफू चक्कर ही हो जाया करता था लेकिन आज की हर बात जैसे अलग थी।
मैं हवेली से बाहर आया और कुछ ही दूरी पर खड़ी जीप की तरफ बढ़ चला। मेरे ज़हन में अभी भी यही सवाल था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां लिए जा रहे हैं? मैंने तो आज के दिन के लिए कुछ और ही सोच रखा था। ख़ैर जीप में चालक की शीट पर बैठ कर मैंने चाभी लगा कर जीप को स्टार्ट किया और उसे आगे बढ़ा कर हवेली के मुख्य द्वार के सामने ले आया। कुछ ही देर में पिता जी आए और जीप में मेरे बगल से बैठते ही बोले चलो तो मैंने बिना कोई सवाल किए जीप को आगे बढ़ा दिया।
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