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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.8%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.9%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 41 22.4%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 30 16.4%

  • Total voters
    183

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 11
----------☆☆☆---------



अब तक,,,,,

कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?

अब आगे,,,,,


"क्या बात है।" अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी कमरे के दरवाज़े से ये आवाज़ सुन कर मैंने और कुसुम ने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर रागिनी भाभी खड़ीं थी। हम दोनों को अपनी तरफ देखते देख भाभी ने मुस्कुराते हुए आगे कहा____"भाई बहन के बीच तो बड़ा प्यार दिख रहा है आज।"

"तो क्या नहीं दिखना चाहिए भाभी?" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा तो रागिनी भाभी मुस्कुराते हुए हमारे पास आईं और अपने दोनों हाथो में लिए हुए पानी से भरे जग और गिलास को बिस्तर में ही एक तरफ रख दिया और फिर बोलीं____"मैंने ऐसा तो नहीं कहा और ना ही मैं ऐसा कहूंगी, बल्कि मैं तो ये कहूंगी कि भाई बहन के बीच ये प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे मगर...!"

"मगर क्या भाभी?" कुसुम ने सवालिया निगाहों से उनकी तरफ देखते हुए पूछा।
"मगर ये कि दोनों भाई बहन अपने प्यार में।" भाभी ने अपनी उसी मुस्कान के साथ कहा____"अपनी इस बेचारी भाभी को मत भूल जाना। आख़िर हमारा भी तो कहीं कोई हक़ होगा। क्यों देवर जी?"

"ज..जी जी क्यों नहीं।" भाभी ने अचानक से मुझसे पूछा तो मैंने हड़बड़ा कर यही कहा जिससे भाभी के होठों की मुस्कान और गहरी हो गई जबकि कुसुम ने भाभी के बोलने से पहले ही कहा____"आपके असली हक़दार तो आपके कमरे में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं भाभी।"

"चुप बेशरम।" भाभी ने आँखे दिखाते हुए कुसुम से कहा____"मैं तो अपने देवर जी से अपने हक़ की बात कर रही थी।"

भाभी की ये बात सुन कर मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखा। आज ये दूसरी बार था जब उनकी बातों से मैं हैरान हुआ था। आज से पहले भाभी ने कभी मुझसे इस तरह हैरान कर देने वाली बातें नहीं की थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उनके मन में आख़िर चल क्या रहा है?

"बड़े भैया को अगर पता चल गया कि आप अपने देवर जी के कमरे में हैं और उनसे हक़ की बात कर रही हैं।" कुसुम की इस बात से मेरा ध्यान उसकी तरफ गया____"तो आज फिर वो आप पर गुस्सा हो जाएंगे।"

"मैं भी एक ठाकुर की बेटी हूं और मेरे अंदर भी ठाकुरों का खून दौड़ रहा है कुसुम।" भाभी ने पुरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"इस लिए मैं किसी के गुस्से की परवाह नहीं करती और ना ही मैं किसी के गुस्से से डरती हूं।"

"वाह! क्या बात है भाभी।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"आज तो आप अलग ही रूप में नज़र आ रही हैं। कोई ख़ास बात है क्या?"
"ख़ास बात तो कुछ नहीं है मेरी प्यारी ननद रानी।" भाभी ने एक नज़र मेरी तरफ डालने के बाद मुस्कुराते हुए कहा____"मन में बस ये ख़याल आ गया कि कुछ बातों में मुझे भी अपने देवर जी जैसा होना चाहिए।"

रागिनी भाभी की बातें मुझे झटके पे झटके दे रहीं थी। दो साल पहले उनकी शादी मेरे बड़े भाई से हुई थी और तब से मैं उन्हें जानता था कि वो इतना खुल कर किसी से नहीं बोलतीं थी। ख़ास कर मुझसे तो बिलकुल भी नहीं। ये अलग बात है कि उन्हें मुझसे बोलने का मौका ही नहीं मिल पाता था क्योकि मैं उनसे हमेशा दूर दूर ही रहता था।

"अच्छा ऐसी बात है क्या?" कुसुम ने हंसते हुए कहा____"ज़रा मुझे भी तो बताइए भाभी कि ऐसी किन बातों में आप भैया जैसी होने की बात कह रही हैं?"
"किसी चीज़ की परवाह न करना।" भाभी ने एक बार फिर मेरी तरफ देख कर कुसुम से कहा____"और ना ही किसी से डरना।"

"अच्छा तो आप ऐसा समझती हैं कि भैया को किसी चीज़ की परवाह नहीं होती?" कुसुम ने मेरी तरफ नज़र डालते हुए कहा____"और ना ही वो किसी से डरते हैं?"
"अब तक तो ऐसा ही समझती थी मैं।" भाभी ने अजीब भाव से कहा____"पर लगता है अब ऐसा नहीं है। देवर जी में अब बदलाव आ गया है कुसुम। वो अब चीज़ों की परवाह करने लगे हैं और शायद हर किसी से डरने भी लगे हैं।"

"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" कुसुम ने इस बार हैरानी से कहा____"मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।"
"जाने दो कुसुम।" भाभी ने कहा____"मुझे लगता है कि देवर जी को मेरा यहाँ आना पसंद नहीं आ रहा है। अच्छा अब तुम दोनों आराम से खाओ, मैं जा रही हूं यहां से।"

इससे पहले कि कुसुम उनसे कुछ कहती वो मेरी तरफ देखने के बाद पलटीं और कमरे से बाहर चली गईं। उन्हें इस तरह जाते देख जाने क्यों मैंने राहत की सांस ली। इधर उनके जाने के बाद कुसुम ने मेरी तरफ देखा और फिर थाली से रोटी का टुकड़ा तोड़ने लगी।

"क्या आपको समझ में आया कि भाभी क्या कह रहीं थी?" कुसुम ने निवाले को अपने मुँह में डालने के बाद कहा____"आज उनका लहजा बदला बदला सा लग रहा था मुझे।"

"मैं इन सब बातों पर ध्यान नहीं देता।" मैंने बात को टालने की गरज़ से कहा____"चुप चाप खाना खाओ और हां अपने उस काम पर भी ध्यान दो जिसके लिए मैंने कहा है तुझसे।"
"ठीक है भइया।" कुसुम ने कहा और फिर उसने चुप चाप खाना खाना शुरू कर दिया। उसके साथ मैं भी ख़ामोशी से खाने लगा था और साथ ही भाभी की बातों के बारे में सोचता भी जा रहा था।

खाना खाने के बाद कुसुम थाली ले कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैंने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद किया और बिस्तर पर लेट गया। भाभी का बर्ताव मुझे बहुत अजीब लगा था। वो बातें भले ही कुसुम से कर रहीं थी किन्तु वो सुना मुझे ही रहीं थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वो मुझसे चाहती क्या हैं? इतना तो उन्होंने मुझसे भी कहा था कि दादा ठाकुर के बाद मैं उनकी जगह ले सकता हूं मगर उनके ऐसा कहने के पीछे क्या वजह थी ये नहीं बताया था उन्होंने। हलांकि मैंने उनसे इसकी वजह पूछी भी नहीं थी।

चार महीने बाद हवेली में लौट कर आया था और आते ही हवेली के दो लोगों ने मुझे हैरान किया था और सोचने पर भी मजबूर कर दिया था। मेरे भाइयों का बर्ताव भी पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही बदला हुआ था। कुछ तो ज़रूर चल रहा था यहाँ मगर क्या इसका पता लगाना जैसे अब ज़रूरी हो गया था मेरे लिए। अब सवाल ये था कि इस सबके बारे में पता कैसे करूं? हलांकि मैंने कुसुम को जासूसी के काम में लगा दिया था किन्तु सिर्फ उसके भरोसे नहीं रह सकता था मैं। यानी मुझे खुद कुछ न कुछ करना होगा।

मैने महसूस किया कि यहाँ आते ही मैं एक अलग ही चक्कर में पड़ गया था जबकि यहाँ आने से पहले मेरे ज़हन में सिर्फ यही था कि मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊंगा और उसके परिवार के बारे में भी सोचूंगा। मुरारी काका की हत्या का मामला भी मेरे लिए एक रहस्य जैसा बना हुआ था जिसके रहस्य का पता लगाना मेरे लिए ज़रूरी था क्योंकि उसी मामले से मेरी फसल में आग लगने का मामला भी जुड़ा हुआ था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरी फसल को इस तरह से किसने आग लगाईं होगी? क्या फसल में आग लगाने वाला और मुरारी काका की हत्या करने वाला एक ही ब्यक्ति हो सकता है? सवाल बहुत सारे थे मगर जवाब एक का भी नहीं था मेरे पास।

चार महीने पहले अच्छी खासी ज़िन्दगी गुज़र रही थी अपनी। बेटीचोद किसी बात की चिंता नहीं थी और ना ही मैं किसी के बारे में इतना सोचता था। हर वक़्त अपने में ही मस्त रहता था मगर महतारीचोद ये शादी वाला लफड़ा क्या हुआ अपने तो लौड़े ही लग गए। मेरे बाप ने खिसिया कर मुझे गांव से निष्कासित कर दिया और फिर तो जैसे चक्कर पे चक्कर चलने का दौर ही शुरू हो गया। बंज़र ज़मीन में किसी तरह गांड घिस घिस के फसल उगाई तो मादरचोद किसी ने मुरारी काका को ही टपका दिया। उसमे भी उस बुरचटने का पेट नहीं भरा तो बिटियाचोद ने मेरी फसल को ही आग लगा दी। एक बार वो भोसड़ी वाला मुझे मिल जाए तो उसकी गांड में बिना तेल लगाए लंड पेलूंगा।

अपने ही ज़हन में उभर रहे इन ख़यालों से जैसे मैं बुरी तरह भन्ना गया था। किसी तरह खुद को शांत किया और सोने के बारे में सोच कर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली मगर इसकी माँ का मादरचोद नींद ही नहीं थी आँखों में। मैंने महसूस किया कि मुझे मुतास लगी है इस लिए अपनी मुतास को भी गाली देते हुए मैं बिस्तर से नीचे उतरा और कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गया।

कमरे के बाहर हल्का अँधेरा था किन्तु हवेली के चप्पे चप्पे से वाक़िफ मैं आगे बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं दूसरे छोर के पास बनी सीढ़ी के पास पहुंच गया। हवेली में मूतने के लिए नीचे जाना पड़ता था। पुरखों की बनाई हुई हवेली में यही एक ख़राबी थी। ख़ैर दूसरे छोर पर मैं पंहुचा तो अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा जिससे मैंने बाएं तरफ दिख रही राहदारी की तरफ पलटा। कुछ देर रुक कर मैंने इधर उधर देखा और फिर दबे पाँव एक कमरे की तरफ बढ़ चला। हवेली में इस वक़्त गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। मतलब साफ़ था कि इस वक़्त हर कोई अपने अपने कमरे में सोया हुआ था।

मैं जिस कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच कर रुका था वो कमरा मेरे बड़े भाई और भाभी का था। भैया भाभी के कमरे के बगल से बने दो कमरों में ताला लगा हुआ था जबकि बाद के दो अलग अलग कमरे विभोर और अजीत के थे और उन दोनों कमरों के सामने वाला कमरा कुसुम का था। हवेली के दूसरे छोर पर जो कमरे बने हुए थे उनमे से एक कमरा मेरा था। जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि मैं सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था।

भैया भाभी के कमरे के दरवाज़े के पास रुक कर मैंने इधर उधर का बारीकी से जायजा लिया और फिर सब कुछ ठीक जान कर मैं झुका और दरवाज़े के उस हिस्से पर अपनी आँख सटा दी जहां पर दरवाज़े के दो पल्लों का जोड़ था। हलांकि मुझे मान मर्यादा का ख़्याल रख कर ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि कमरे के अंदर भैया भाभी थे और वो किसी भी स्थिति में हो सकते थे। लेकिन मैंने फिर भी देखना इस लिए ज़रूरी समझा कि मुझे अब अपने सवालों के जवाब तलाशने थे।

दरवाज़े के जोड़ पर थोड़ी झिरी तो थी किन्तु अंदर से पर्दा खिंचा हुआ था जिससे कमरे के अंदर का कुछ भी नहीं देखा जा सकता था। ये देख कर मैंने मन ही मन पर्दे को गाली दी और फिर आँख की जगह अपना एक कान सटा दिया उस हिस्से में और अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक कान सटाने के बाद भी मुझे अंदर से कुछ सुनाई नहीं दिया जिससे मैं समझ गया कि भैया भाभी अंदर सोए हुए हैं। मैं मायूस सा हो कर दरवाज़े हटा और वापस सीढ़ियों की तरफ चल दिया। अभी मैं दो क़दम ही चला था कि मैं कुछ ऐसी आवाज़ सुन कर ठिठक गया जैसे किसी कमरे का दरवाज़ा अभी अभी खुला हो। इस आवाज़ को सुन कर दो पल के लिए तो मैं एकदम से हड़बड़ा ही गया और झट से आगे बढ़ कर दीवार के पीछे खुद को छुपा लिया।

अपनी बढ़ चुकी धड़कनों को नियंत्रित करते हुए मैंने दीवार के पीछे से अपने सिर को हल्का सा निकाला और राहदारी की तरफ देखा। हल्के अँधेरे में मेरी नज़र विभोर के कमरे के पास पड़ी। बड़े भैया विभोर के कमरे से अभी अभी निकले थे। ये देख कर मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे में क्यों थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि मैंने देखा बड़े भैया विभोर के कमरे से राहदारी में चलते हुए अपने कमरे की तरफ आये और फिर अपने कमरे के दरवाज़े को हल्का सा धक्का दिया तो दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़ा खोल कर वो चुप चाप कमरे में दाखिल हो ग‌ए। मैंने साफ देखा कि कमरे के अंदर अँधेरा था। अंदर दाखिल होने के बाद बड़े भैया ने दरवाज़ा बंद कर लिया।

दीवार के पीछे छुपा खड़ा मैं सोच में पड़ गया था कि रात के इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे से क्यों आये थे? आख़िर इन तीनों भाइयों के बीच क्या खिचड़ी पक रही थी? तीनों भाइयों के बीच इस लिए कहा क्योंकि आज कल वो तीनों एक साथ ही रह रहे थे। कुछ देर सोचने के बाद मैं दीवार से निकला और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। अँधेरा नीचे भी था किन्तु इतना भी नहीं कि कुछ दिखे ही नहीं। मैं गुसलखाने पर गया और मूतने के बाद वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। थोड़ी देर के लिए मेरे मन में ये ख़याल आया कि एक एक कर के सबके कमरों में जाऊं और जानने का प्रयास करूं कि किस कमरे में क्या चल रहा है किन्तु फिर मैंने अपना ये ख़याल दिमाग़ से झटक दिया और अपने बिस्तर में आ कर लेट गया। सोचते सोचते ही नींद आ गई और मैं घोड़े बेच कर सो गया।

सुबह मेरी आँख कुसुम के जगाने पर ही खुली। मैं जगा तो उसने बताया कि कलेवा बन गया है इस लिए मैं नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर आऊं। मेरे पूछने पर उसने बताया कि दादा ठाकुर और उसके पिता जी देर रात आ गए थे।

"दादा ठाकुर ने कहा है कि वो आपको नास्ते की मेज पर मिलेंगे।" कुसुम ने पलट कर जाते हुए कहा____"इस लिए जल्दी से आ जाइयेगा।"

इतना कह कर कुसुम चली गई और इधर उसकी बात सुन कर मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो ग‌ईं। दादा ठाकुर यानी कि मेरे पिता ने कुसुम के द्वारा मुझे बुलाया था नास्ते पर। उस दिन के बाद ये पहला अवसर होगा जब मैं उनके सामने जाऊंगा। ख़ैर अब क्योंकि दादा ठाकुर ने बुलावा भेजा था तो मुझे भी अब फ़ौरन उनके सामने हाज़िर होना था। हलांकि इसके पहले मैं अक्सर उनके बुलाने पर देर से ही जाता था। अपनी मर्ज़ी का मालिक जो था किन्तु अब ऐसा नहीं था। अब शायद हालात बदल गए थे या फिर मैं अपनी मर्ज़ी से ही कुछ सोच कर फ़ौरन ही उनके सामने हाज़िर हो जाना चाहता था।

नित्य क्रिया से फ़ारिग होने के बाद मैं नहा धो कर और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे पहुंचा। मेरे दिल की धड़कनें ये सोच कर बढ़ी हुईं थी कि दादा ठाकुर जाने क्या कहेंगे मुझसे। नीचे आया तो देखा बड़ी सी मेज के चारो तरफ रखी कुर्सियों पर हवेली के दो प्रमुख मर्द बैठे थे और उनके दाएं बाएं तरफ मेरा बड़ा भाई ठाकुर अभिनव सिंह विभोर और अजीत बैठे हुए थे। दादा ठाकुर मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे जबकि मझले ठाकुर यानी चाचा जी उनके सामने वाली दूसरी मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे। लम्बी सी मेज में उन सबके सामने थालियां रखी हुईं थी और थालियों के बगल से पीतल के मग और गिलास में पानी भरा हुआ रखा था।

मैं आया तो सबसे पहले दादा ठाकुर के पैरों को छू कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने बस अपने दाहिने हाथ को हल्का सा उठा कर मानो मुझे आशीर्वाद दिया। वो मुख से कुछ नहीं बोले थे, हलांकि अपनी तो बराबर गांड फटी पड़ी थी कि जाने वो क्या कहेंगे। ख़ैर जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैं मझले ठाकुर यानी चाचा जी के पास गया और उनके भी पैर छुए। मझले ठाकुर ने सदा खुश रहो कह कर मुझे आशीर्वाद दिया। वातावरण में तो एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था जो कि दादा ठाकुर के रहने से हमेशा ही छाया रहता था। ख़ैर उसके बाद मेरी नज़र मेरे बड़े भाई पर पड़ी और मैं उनके पास जा कर उनके भी पैर छुए जिसके जवाब में वो कुछ नहीं बोले।

"बैठो इस तरफ।" दादा ठाकुर ने अपने दाहिने तरफ रखी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा तो मैं ख़ामोशी से उस कुर्सी पर बैठ गया। यहाँ पर गौर करने वाली बात थी कि मैंने अपने से बड़ों के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया था जबकि विभोर और अजीत जो मुझसे छोटे थे वो अपनी जगह पर जड़ की तरह बैठे रहे थे। उन दोनों ने मेरे पैर छूने की तो बात दूर बल्कि मुझे देख कर अपने हाथ तक नहीं जोड़े थे। दादा ठाकुर और मझले ठाकुर न होते तो इस वक़्त मैं उन दोनों को ऐसे दुस्साहस की माकूल सज़ा देता। ख़ैर अपने गुस्से को अंदर ही जज़्ब कर लिया मैंने।

कुसुम और भाभी रसोई से आ कर हम सबको नास्ता परोसने लगीं। दादा ठाकुर ने सबको नास्ता शुरू करने का इशारा किया तो हम सबने नास्ता करना शुरू कर दिया। नास्ते के दौरान एकदम ख़ामोशी छाई रही। ये नियम ही था कि खाना खाते वक़्त कोई बात नहीं कर सकता था। ख़ैर नास्ता ख़त्म हुआ तो दादा ठाकुर के उठने के बाद हम सब भी अपनी अपनी जगह से उठ ग‌ए। हम सब जैसे ही उठे तो दादा ठाकुर ने मुझे बैठक में आने को कहा।

"अब से ठीक एक घंटे बाद तुम्हें हमारे साथ कहीं चलना है" बैठक में रखी एक बड़ी सी गद्देदार कुर्सी पर बैठे दादा ठाकुर ने अपनी प्रभावशाली आवाज़ में मुझसे कहा____"इस लिए हवेली से कहीं जाने का कार्यक्रम न बना लेना। अब तुम जा सकते हो।"

दादा ठाकुर की इस बात पर मैंने हाँ में सिर हिलाया और पलट कर वापस अपने कमरे की तरफ चला गया। अपने कमरे की तरफ जाते हुए मैं सोच रहा कि पिता जी ने मुझसे बाकी किसी बारे में कुछ नहीं कहा। क्या वो उन सबके बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहते थे या फिर उनके मन में कुछ और ही चल रहा है? वो अपने साथ मुझे कहां ले जाने की बात कह रहे थे? हलांकि ऐसा पहले भी वो कहते थे किन्तु पहले मैं अक्सर ही हवेली से निकल जाता था और पिता जी का गुस्सा मेरे ऐसा करने पर आसमान छूने लगता था, जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं होती थी किन्तु आज मैं उनके कहे अनुसार हवेली में ही रहने वाला था।

अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर लेटा यही सोच रहा था कि दादा ठाकुर मुझे अपने साथ कहां ले जाना चाहते होंगे? मैंने इस बारे में बहुत सोचा मगर मुझे कुछ समझ नहीं आया। थक हार कर मैंने यही सोचा कि अब तो इस बारे में उनके साथ जा कर ही पता चलेगा।

मैं अब बहुत कुछ करना चाहता था और बहुत सारी चीज़ों का पता भी लगाना चाहता था किन्तु ये सब मेरे अनुसार होता नज़र नहीं आ रहा था। हवेली में मेरे लिए जैसे एक बंधन सा हो गया था। हलांकि मुझे यहाँ आए अभी एक दिन ही हुआ था किन्तु मैं चाहता था कि जो भी काम हो जल्दी हो। मैं किसी बात के इंतज़ार नहीं कर सकता था मगर मेरे बस में तो जैसे कुछ था ही नहीं।

सोचते सोचते कब एक घंटा गुज़र गया पता ही नहीं चला। कुसुम मेरे कमरे में आई और उसने कहा कि दादा ठाकुर ने मुझे बुलाया है। मैंने उसे एक गिलास पानी पिलाने को कहा और बिस्तर से उतर कर आईने के सामने आया। आईने में खुद को देखते हुए मैंने अपने बाल बनाए और फिर कमरे से बाहर निकल गया। नीचे आया तो कुसुम ने मुझे पानी से भरा गिलास पकड़ाया तो मैंने पानी पिया और फिर बाहर बैठक में आ गया जहां पिता जी अपनी बड़ी सी कुर्सी पर बैठे थे और उनके सामने मुंशी चंद्रकांत खड़ा था। मुझे देख कर मुंशी ने अदब से सिर नवाया तो मैं कुछ न बोला।

"अब आप जाइए मुंशी जी।" मुझे आया देख पिता जी ने मुंशी से कहा_____"हम इस बारे में लौट कर बात करेंगे।"
"जी बेहतर ठाकुर साहब।" मुंशी ने सिर को झुका कर कहा और फिर दादा ठाकुर को प्रणाम करके हवेली से बाहर निकल गया।

मुंशी के जाने के बाद बैठक में मैं और पिता जी ही रह गए थे और मेरी धड़कनें इस अकेलापन की वजह से कुछ बढ़ गईं थी। मैं अभी भी यही सोच रहा था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां ले कर जाने वाले हैं?

"तुम्हारे पीछे दीवार में लगी कील पर जीप की चाभी टंगी हुई है।" पिता जी की भारी आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा____"उसे लो और जा कर जीप निकालो। हम आते हैं थोड़ी देर मे।"

पिता जी के कहने पर मैंने पलट कर दीवार में टंगी जीप की चाभी निकाली और हवेली से बाहर की तरफ बढ़ गया। पिता जी के साथ मैं पहले भी कई बार जीप में जा चुका था किन्तु पहले भी मैं तभी जाता था जब मेरा मन करता था वरना तो मैं किसी न किसी बहाने से रफू चक्कर ही हो जाया करता था लेकिन आज की हर बात जैसे अलग थी।

मैं हवेली से बाहर आया और कुछ ही दूरी पर खड़ी जीप की तरफ बढ़ चला। मेरे ज़हन में अभी भी यही सवाल था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां लिए जा रहे हैं? मैंने तो आज के दिन के लिए कुछ और ही सोच रखा था। ख़ैर जीप में चालक की शीट पर बैठ कर मैंने चाभी लगा कर जीप को स्टार्ट किया और उसे आगे बढ़ा कर हवेली के मुख्य द्वार के सामने ले आया। कुछ ही देर में पिता जी आए और जीप में मेरे बगल से बैठते ही बोले चलो तो मैंने बिना कोई सवाल किए जीप को आगे बढ़ा दिया।

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TheBlackBlood

αlѵíժα
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बहुत ही बढ़िया अपडेट है । कहानी एकदम थिर्लर फ़िल्म की तरह चल रही है । इस हवेली का हर इंसान रहस्यमयी लग रहा है । लगता है कुसुम सब का राज़ जानती है । कोई बात नही वक़्त के साथ हर अपडेट में राज़ खुलते जाएंगे
Shukriya bhai,,,,:hug:
 

TheBlackBlood

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good luck nayi kahani shuru karne ke liye .. acchi shuruaat ki hai .. dobaara se aapki rachna dekh kar kayakalp ki yaad aa gayi .. samay mile to uspar bhi dhyaan dena lekhak ji ...
firefox420 bhai,,,,:celebconf: :happy:
Aaj hi maine post mortem karne wale doctoro ki baat ki thi aur aap pragat ho gaye. Bahut khushi huyi aapko apni is kahani me dekh kar. Ummid karta hu aapka sath ab bana rahega aur main bhi ab samhal kar kahani likhne ka prayaas karuga,,,,:D

Kayakalp ka bhi samay aayega, bas aap sath bane rahiye,,,,,:declare:

kamdev99008 bhaiya ji, SANJU ( V. R. ) bhaiya ji, dekh lijiye hamare original doctor sahab aa gaye, isi khushi me do ghoot :daru: ke maar leta hu main,,,,:lol:

firefox420 bhai most welcome,,,,,:hug:
 

DARK WOLFKING

Supreme
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nice update ..bhabhi bahut kuch keh gayi bina vaibhav se baat kiye ..
par ye raatko bhaiya dusre bhai ke kamre me kya kar rahe the ye bhi sochnewali baat hai 🤔.
teeno ke bich aisa kya chal raha hai 🤔..
ab dada thakur kya baat karna chahte hai aur kaha leke jaa rahe hai vaibhav ko dekhte hai ..

waise mann me bahut gaaliya di aaj vaibhav ne jisne murari ki hatya ki aur fasal jalayi 🤣🤣🤣..
 

Simha

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
----------☆☆☆---------




अब तक,,,,,

"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"


इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।


अब आगे,,,,,


अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?

काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।

मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?

खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।

"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"

"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।

"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"

"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"

कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।

कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।

"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"

"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"

"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"

कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।

"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा ग‌ई।

"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"

"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"

"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"

"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।

"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भ‌इया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"

"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो ग‌ए।"

कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?

"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"

"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"

"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"

कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।

मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।

जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।

दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।

वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?

कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"

कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।

"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"

"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"

"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"

"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भ‌इया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"

"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"

"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"

"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"

कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?

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Ab tak ka best update
 
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