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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.7%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.4%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.5%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 42 22.7%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.8%

  • Total voters
    185

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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बहुत ही भावुक अपडेट है
गौरी शंकर ने वैभव के लिए जो फैसला लिया है वह काबिले तारीफ है रूपा के साथ उसके घर वालो ने बहुत ही बुरा व्यवहार किया है घर वालो ने उसके अस्तित्व को ही नकार दिया उसकी ये गलती थी की उसने किसी से प्रेम किया था रूपचंद्र ने ललिता देवी और घरवालो को खरी खोटी सुनाकर बहुत ही अच्छा किया है
रागिनी भाभी ने वैभव के जख्मों पर थोड़ा बहुत मरहम लगाया है क्योंकि वह भी इस दर्द से गुजर चुकी है
वैभव को इस मानसिक स्थिति से भाभी और रूपा ही निकाल सकती है दोनो ही वैभव के सबसे ज्यादा करीब है ठाकुर साहब ने फिर से रागिनी की शादी वैभव से कराने के बारे में सुगंधा देवी से बात की है और उन्होंने रागिनी के पिता से इस बारे में बात करने के लिए कहा है लेकिन ठाकुर साहब को पहले रागिनी से भी पूछ लेना चाहिए कि वह क्या चाहती है
रूपा को देखकर वैभव असमंजस की स्थिति में पड़ गया है वह अकेला रहना चाहता है अब देखते हैं रूपा रुकने के लिए कैसे वैभव को मनाती हैं अनुराधा के लिए रूपा को भी बहुत दुख हुआ है वह उसे अपनी छोटी बहन मान चुकी थी देखते हैं आगे क्या होता है
Thanks bro...
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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ये पढ़ कर बहुत बुरा लगा शुभम भाई।हम भी थे यहां पर आपने तो जैसा रूपा के घर वालो ने उसका अस्तित्व मिटा दिया था वैसे ही हमारा अस्तित्व इस स्टोरी से मिटा दिया है पास नही तो दूर ही रख देते
चलो कोई नही ।हम नही चाहते हैं कि ये आपकी लास्ट स्टोरी हो आप थोड़ा सा ब्रेक ले तरो ताजा होकर फिर से एक नई स्टोरी के साथ इस थ्रेड पर वापिस लोटे सदैव आपके साथ रहेंगे
Bhai kisi ka dil dukhane ka irada nahi hai tha apna...bas wo ek post thi aap jaise kuch dosto ko tag kar ke wo sab bataya tha....
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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रूपा वैभव को कुछ हद तक शांत कर पाई है और उसे घर लेकर आ गई है उसने कहा है कि वह अनुराधा के लिए कुछ करेगी अब देखना है कि वह वैभव को क्या सुझाव देती हैं जैसे आज रूपा ने वैभव को संभाला था उससे ये तो निश्चित हो गया है कि वह उसे ठीक कर देगी
अर्जुन सिंह ने मुंशी और नकाबपोश की मंशा बता दी है कि वैभव को तोड़ने के लिए उसने उसके प्यार पर वार किया है
Thanks bro
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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दोनो अपडेट में बहुत सारी वेदना है पढ़ कर दिल में बहुत दुःख हुआ।देखा जाए तो सरोज काकी का सोचना बिलकुल सही है वैभव की वजह से ही मुरारी और अनुराधा की हत्या हुई है और वैभव भी इस बात को मानता है कि उसके कुकर्मों की सजा अनुराधा के परिवार को मिली है रूपा वैभव और सरोज काकी का दुख दूर करने के लिए ईमानदारी से अपना फर्ज निभा रही हैं
Thanks
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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अध्याय - 137
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रात आधे से ज़्यादा गुज़र गई थी। उनमें से किसी की भी आंखों में नींद का नामों निशान तक नहीं था। सबके सब बरामदे में ही बैठे थे और दादा ठाकुर के साथ साथ बाकी सबके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी हवेली सन्नाटे में डूबी हुई थी।


अब आगे....


उस वक्त रात का आख़िरी पहर चल रहा था जब हम सब हवेली पहुंचे। बड़ा ही तनाव पूर्ण माहौल था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या करना है और कैसे करना है? उधर मां ने जैसे ही हम सबको आया देखा तो वो भागते हुए हमारे पास आ गईं।

"क...कहां चली गई थी तू?" मेनका चाची पर नज़र पड़ते ही मां ने व्याकुल भाव से पूछा____"और अपने साथ मेरी बेटी को भी ले गई थी? ऐसा क्यों किया तूने? तुझे पता है यहां मेरी क्या हालत हो गई थी?"

चाची ने मां के इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। ये अलग बात है कि उनकी आंखों से आंसू बहने लगे थे। यही हाल कुसुम का भी था। उधर मां ने जब चाची को आंसू बहाते देखा तो वो चौंक पड़ीं। घबरा कर पूछने लगीं कि वो रो क्यों रहीं हैं? आख़िर हुआ क्या है?

सच तो ये था कि कोई भी जवाब देने की हालत में नहीं था। पिता जी चुपचाप अपने कमरे की तरफ बढ़ गए। किशोरी लाल ने उनसे बहुत कुछ पूछना चाहा लेकिन हिम्मत न जुटा सका। इधर मैंने कुसुम को इशारा किया तो वो अपनी मां को ले कर उनके कमरे की तरफ बढ़ गई।

ये सब देख मां ही नहीं बल्कि सबके सब बुरी तरह चकरा गए। समझ ही न आया कि आख़िर क्यों कोई जवाब देने की जगह चुपचाप अपने अपने कमरे की तरफ चल पड़ा था? सहसा मां ने मेरी तरफ सवालिया भाव से देखा।

"आख़िर क्या चल रहा है ये सब?" मां ने लगभग झल्लाते हुए कहा____"कोई कुछ बता क्यों नहीं रहा कि हुआ क्या है? तू बता....बता कि सब चुप क्यों हैं? तेरे पिता जी चुपचाप कमरे में क्यों चले गए? तेरी चाची रो क्यों रही थी? और...और बिना कुछ बताए कुसुम उसे अपने साथ कमरे की तरफ क्यों ले गई?"

"शांत हो जाइए मां।" मां के इतने सारे सवाल एक साथ सुन कर मैंने उन्हें कंधों से पकड़ कर कहा____"इस वक्त कोई भी किसी के सवालों का जवाब देने की हालत में नहीं है। आप जाइए और आराम से सो जाइए। इस बारे में कल दिन में बात करेंगे।"

इससे पहले कि मां फिर से कुछ कहतीं मैं जबरन उन्हें खींचते हुए उनके कमरे की तरफ ले गया और उन्हें कमरे में जा कर सो जाने को कहा। मेरी इस क्रिया से मां मुझे हैरानी से देखे जा रहीं थी। चेहरे पर नाराज़गी विद्यमान थी। बहुत कुछ कहना चाह कर भी वो कुछ बोल ना सकीं। आख़िर किसी तरह वो कमरे में गईं तो मैंने दरवाज़े के पल्लों को आपस में भिड़ा दिया।

वापस आ कर मैं किशोरी लाल, उसकी बीवी और बेटी को भी बोला कि वो सब अपने कमरे में जाएं। वो तीनों मन में कई सारे सवाल लिए चुपचाप चले गए। हवेली की दोनों नौकरानियां भी चली गईं। उन सबके जाने के बाद मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ गया।

मैं अपने कमरे में पलंग पर लेट तो गया था लेकिन ना मन शांत था और ना ही आंखों में नींद का कोई नामो निशान था। अंदर असहनीय पीड़ा थी जिसे ज़बरदस्ती दबाने की और सहने की कोशिश कर रहा था मैं। मनो मस्तिष्क में घुमड़ता तूफ़ान मानों शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जिस सफ़ेदपोश से मिलने को और जिसको पकड़ने को हम सब इतने बेताब थे उसका असल चेहरा ऐसा नज़र आएगा। काश! ऐसा होता कि सफ़ेदपोश कभी हमारी पकड़ में आता ही नहीं। कम से कम इतनी भयंकर और इतनी पीड़ा दायक सच्चाई से हृदय पर वज्रपात तो ना होता।

बार बार आंखों के सामने जगताप चाचा और मेनका चाची का चेहरा उभर आता था और इसके साथ ही वो सब यादें तरो ताज़ा हो उठती थीं जो उनसे जुड़ी हुईं थी। वो सारी यादें मेरे लिए बड़ी सुखद और बड़ी अनमोल सी थीं लेकिन उन चेहरों का असली सच बड़ा ही असहनीय था। अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि जो कुछ देखा और सुना था वो सच हद से ज़्यादा कड़वा था। मैंने आंखें बंद कर के ऊपर वाले से गुहार सी लगाई कि मेरे ज़हन से इस सच्चाई की सारी यादें मिटा दे।

पता ही न चला कब मेरी आंखों की कोरों से आंसू के कतरे निकल कर मेरी कनपटियों से होते हुए नीचे तकिए में फ़ना हो गए। बाकी की रात इन्हीं पीड़ा दायक ख़यालों में गुज़र गई।

✮✮✮✮

मैंने रास्ते में कुसुम को समझा दिया था कि वो अपनी मां को अकेला न छोड़े और हमेशा उनके साथ रहे। यही वजह थी कि कुसुम आज अपनी मां के कमरे में उनके साथ ही पलंग पर लेटी हुई थी। मेनका चाची अंदर से बहुत दुखी थीं। आंखों के आंसू बार बार आंखों से छलक पड़ते थे। कुसुम खुद भी इस सब से दुखी थी किंतु वो भी समझती थी कि अब जो हो गया है उसके लिए कोई क्या कर सकता है?

"आज तुझे भी अपनी इस मां से घृणा होने लगी होगी ना मेरी बच्ची?" मेनका चाची ने दुखी लहजे से कहा____"आज तू भी सोच रही होगी ना कि ईश्वर ने तुझे ऐसे माता पिता की बेटी क्यों बनाया जिनकी सोच इतनी नीच और गिरी हुई थी?"

"नहीं मां।" कुसुम की आंखें छलक पड़ीं____"मैं ऐसा कुछ भी नहीं सोच रही। भगवान के लिए आप ऐसी बातें अपने मन में मत लाइए।"

"तो तू ही बता कि कैसे ये सब भूल जाऊं मैं?" चाची ने आहत हो कर कहा____"कैसे भूल जाऊं उस सबको जो मैंने और तेरे पिता जी ने सबके साथ किया है? मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तू ये सब भूल जाने के लिए मुझे कोई उपाय नहीं बता सकती। पर इसमें तेरा कोई दोष नहीं है। सच तो ये है कि दुनिया में ऐसा कोई उपाय है ही नहीं जिससे इंसान अपने किए गए गुनाहों को भूल जाए। उसे तो सारी ज़िंदगी अपने गुनाहों और अपने पापों को याद करते हुए ही जीना पड़ता है....घुट घुट कर, तड़प तड़प कर।"

"ऐसा मत कहिए मां।" कुसुम को समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वो किस तरह अपनी मां को शांत कराए, बोली____"सबसे ग़लतियां होती हैं। आपसे और पिता जी से भी हुईं लेकिन इस ग़लती के चलते आपने अथवा पिता जी ने ना तो बड़े भैया की जान ली और ना ही मेरे अच्छे वाले भैया की।"

"लेकिन जान लेने की तो पूरी कोशिश की थी ना हमने।" चाची कह उठीं____"अगर साहूकारों का दखल न हुआ होता तो उनकी जान लेने का पाप तो कर ही डालते ना हम? तू मुझे बहलाने की कोशिश मत कर कुसुम। सच यही है कि मैं और तेरे पिता भी उतने ही बड़े अपराधी और पापी हैं जितने बड़े साहूकार और चंद्रकांत थे। उन्हें तो उनके अपराधों के लिए सज़ा मिल गई लेकिन मुझे नहीं मिली है अभी। उन लोगों की तरह मुझे भी इस दुनिया में जीने का हक़ नहीं है।"

"चुप हो जाइए ना मां।" कुसुम रोने लगी____"भगवान के लिए ऐसी बातें मत कीजिए। मैं नहीं सुन सकती ऐसी बातें। अगर आपने जीने मरने की बातें की तो सोच लीजिएगा मैं भी आपके साथ साथ मर जाऊंगी। मुझे भी अपनी मां के बिना इस दुनिया में नहीं जीना।"

"नहीं मेरी बच्ची।" मेनका चाची ने तड़प कर कहा____"तू अपनी ऐसी मां के लिए खुद की जान मत लेना। तू तो मेरी सबसे अच्छी बेटी है। एक तू ही तो है जिसे अपनी कोख से जन्म देने पर गर्व महसूस करती हूं। एक तू ही तो है जिसके दिल में किसी के लिए भी कभी कोई ग़लत भावना नहीं जन्मी। मुझे गर्व है कि तू मेरी बेटी है।"

"अगर आपको सच में मुझ पर गर्व है तो मेरी क़सम खा कर कहिए कि आज के बाद जीने मरने की बातें कभी नहीं करेंगी आप।" कुसुम ने चाची का एक हाथ अपने सिर पर रखते हुए कहा।

"ठीक है।" चाची ने कहा____"अगर तू यही चाहती है कि तेरी ये मां जीवन भर इन सारी बुरी यादों के साथ ही घुट घुट कर और तड़प तड़प कर जिए तो क़सम खाती हूं मैं तेरी कि अब कभी जीने मरने की बातें नहीं करुंगी।"

"किसने कहा आप घुट घुट कर जिएंगी?" कुसुम ने चाची के आंसू पूछते हुए कहा____"अरे! आपकी ये बेटी आपको कभी कोई दुख नहीं होने देगी। और आपकी ये बेटी ही क्यों, मेरे सबसे अच्छे अच्छे वाले भैया भी आपको इस तरह दुख में नहीं जीने देंगे। देख लेना, मेरे भैया आपको कभी दुखी नहीं होने देंगे।"

"हां जानती हूं।" मेनका चाची के अंदर एक हूक सी उठी____"तेरा भैया दुनिया का सबसे अच्छा भैया है। वो सबसे अच्छा बेटा भी है। उसे अपना बेटा कहने का झूठा दंभ रखने वाली मैं ही उसकी सच्ची मां न बन सकी लेकिन वो पागल हमेशा मुझे अपनी सगी मां से भी ज़्यादा महत्व देता रहा। कितनी अभागन हूं ना मैं? जिस युग में बेटे अपने माता पिता का आदर नहीं करते वही बेटा मुझ जैसी हत्यारिन को अपनी मां कहता रहा और मान सम्मान देता रहा। और मैं...मुंह में शहद रख कर अंदर से उसे ज़हरीली नागिन बन कर डसने की कोशिश करती रही। इतना कुछ होने के बाद भी वो मुझे कहता है कि मैं उसकी प्यारी चाची हूं। इतने पर भी उसे मुझसे घृणा नहीं हुई।"

"यही तो विशेषता है उनकी।" कुसुम ने बड़े गर्व के साथ कहा____"इसी लिए तो वो मेरे सबसे अच्छे वाले भैया हैं। वो हम सबसे बहुत प्यार करते हैं। दुनिया उन्हें बुरा समझती है लेकिन मैं जानती हूं कि मेरे भैया कितने अच्छे हैं।"

"इस हवेली में सब अच्छे हैं मेरी बच्ची।" चाची ने कहा____"बस हम दोनों प्राणी ही अच्छे नहीं थे। काश! मेरे भैया ने उनके दिमाग़ में वो ज़हर न भरा होता। काश! वो मेरे भैया की बातों में न आए होते तो आज ये सब न होता। उन्होंने अपने देवता समान भाई के साथ बुरा करना चाहा और खुद मिट्टी में मिल गए। उन्हें तो उनके अपराध के लिए मिट्टी में मिल जाने की सज़ा मिल गई लेकिन मैं अभागन ज़िंदा रह गई।"

मेनका चाची सच में पश्चाताप की आग में जल रहीं थी। कुसुम उन्हें बहुत समझा रही थी लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही थी उसे। अपनी मां के दुख से वो भी दुखी थी। जितनी उसके पास समझ थी उतना वो प्रयास कर रही थी।

✮✮✮✮

सुगंधा देवी का मन बहुत विचलित था। मन में ऐसे ऐसे ख़याल उभर रहे थे जिसके चलते उनका बुरा हाल हुआ जा रहा था। कमरे में आने के बाद जब उनकी नज़र पलंग पर सीधा लेटे दादा ठाकुर पर पड़ी तो वो फ़ौरन ही उनकी तरफ लपकीं। दादा ठाकुर छत पर झूल रहे पंखे को अपलक घूरे जा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे पंखे पर ही उनकी नजरें चिपक कर रह गईं थी। चेहरे पर गहन वेदना के भाव थे।

"आख़िर ये सब हो क्या रहा है ठाकुर साहब?" सुगंधा देवी ने पलंग पर बैठने के बाद दादा ठाकुर से कहा_____"जब से वापस आए हैं तब से हर कोई चुप क्यों है? आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसकी वजह से सबके सब इतना विचित्र नज़र आने लगे हैं? मेनका रो रही थी, उससे रोने की वजह पूछी हमने लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। ऊपर से कुसुम उसे उसके कमरे में ही ले गई। बेटे से पूछा तो उसने भी कुछ नहीं बताया, बल्कि हमें यहां कमरे में आराम करने भेज दिया। समझ में नहीं आ रहा कि आख़िर ये सब क्या है? क्यों कोई किसी बात का जवाब नहीं दे रहा? यहां आप भी एकदम से चुप हो कर लेटे हुए हैं? भगवान के लिए कुछ तो बताइए कि आख़िर हुआ क्या है? आप तो अपने बेटे के साथ उस सफ़ेदपोश के पास गए थे न? फिर ऐसा क्या हुआ कि वहां से आते ही आप सब चुप से हो गए हैं?"

सुगंधा देवी जाने क्या क्या बोलती चली जा रहीं थी किंतु उनके द्वारा इतना कुछ बोले जाने के बाद भी दादा ठाकुर की हालत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वो पहले की ही तरह छत के पंखे को अपलक घूरते रहे। ऐसा लगा जैसे उनके कानों में सुगंधा देवी की आवाज़ पहुंची ही नहीं थी। ये देख सुगंधा देवी के चेहरे पर आश्चर्य उतर आया। भौचक्की सी वो उन्हें अपलक देखने लगीं।

"ठाकुर साहब???" फिर उन्होंने एकदम से घबरा कर उन्हें झिंझोड़ ही दिया_____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हो गया है आपको?"

सुगंधा देवी के झिंझोड़ने और उनकी बातें सुन कर दादा ठाकुर एकदम से चौंक पड़े। गर्दन घुमा कर उन्होंने अपनी धर्म पत्नी की तरफ देखा। सुगंधा देवी चेहरे पर घबराहट लिए उन्हें ही देखे जा रहीं थी।

"क्या हुआ है आपको?" दादा ठाकुर को अपनी तरफ देखता देख उन्होंने पूछा____"कहां खोए हुए थे आप?"

"क...कहीं नहीं।" दादा ठाकुर ने अजीब भाव से कहा____"आप बैठी क्यों हैं? आराम से सो जाइए।"

"आपको ऐसी हालत में देख कर क्या हम सो पाएंगे?" सुगंधा देवी ने अधीरता से कहा____"आप बता क्यों नहीं रहे हैं कि हुआ क्या है?"

"कुछ नहीं हुआ है।" दादा ठाकुर ने पलंग पर थोड़ा दूर खिसकते हुए कहा____"आप सो जाएं।"

"नहीं, हमें नहीं सोना।" सुगंधा देवी ने जैसे ज़िद करते हुए कहा____"आपको बताना पड़ेगा कि आप क्या छुपा रहे हैं हमसे? आप अपने बेटे के साथ सफ़ेदपोश के पास गए थे। वहां से लौटने के बाद से ही आप सब चुप हैं। हम जानना चाहते हैं कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसके चलते सबकी ये हालत हो गई है?"

"हमने कहा न कुछ नहीं हुआ है।" दादा ठाकुर ने बेचैन भाव से कहा____"आप हमारी बात क्यों नहीं मान रहीं?"

"क्योंकि हमे यकीन हो चुका है कि कुछ न कुछ ज़रूर हुआ है।" सुगंधा देवी ने कहा____"और जब तक आप हमें सब कुछ बताएंगे नहीं तब तक हम शांति से नहीं बैठेंगे। हमें इसी वक्त जानना है कि ये सब क्या माजरा है? आप हमें सब कुछ बताते हैं या फिर हम आपको हमारे बेटे की क़सम दें?"

दादा ठाकुर क़सम की बात सुनते ही मानों पूरी तरह से ढेर हो गए। चेहरे पर दुख बेबसी और पीड़ा के भाव नुमायां हो उठे। अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए उन्होंने बेबस भाव से आंखें बंद कर लीं। ऐसा लगा जैसे खुद को किसी बात के लिए मजबूत बनाने की कोशिश कर रहे हों।

सुगंधा देवी अपलक उन्हीं को देखे जा रहीं थी। उनकी आंखों में सब कुछ जानने की उत्सुकता साफ दिख रही थी। उधर कुछ पलों बाद दादा ठाकुर ने अपनी आंखें खोली और फिर संक्षेप में सब कुछ बताते चले गए।

सुगंधा देवी पूरी बात भी न सुन पाईं थी कि उन्हें चक्कर आ गया और वो पलंग पर ही लुढ़क गईं। ये देख दादा ठाकुर ने घबरा कर फ़ौरन ही उन्हें सम्हाला और फिर उन्हें पलंग पर सीधा लेटा दिया। दुख और तकलीफ़ उनके चेहरे पर भी दिख रही थी।

पलंग के पास ही टेबल पर पानी से भरा गिलास रखा हुआ था जिसके द्वारा उन्होंने सुगंधा देवी को होश में लाने का प्रयास किया जिसमें वो कुछ देर में सफल हो गए। होश में आते ही सुगंधा देवी का ज़हन जब सक्रिय हुआ तो एकाएक उनकी रुलाई फूट पड़ी। दादा ठाकुर ने फ़ौरन ही उन्हें खुद से छुपका लिया। वो नहीं चाहते थे कि रोने की आवाज़ कमरे से बाहर जाए। कुछ समय बाद सुगंधा देवी का रोना थोड़ा बंद हुआ।

"इतना बड़ा छल कोई कैसे कर सकता है?" फिर उन्होंने दर्द से सिसकते हुए कहा____"हमारे प्यार और स्नेह में आख़िर कहां कमी रह गई थी जिसकी वजह से जगताप ने हमें और हमारे बच्चों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ लिया। हे विधाता! ये दिन दिखाने से पहले हमारे प्राण क्यों नहीं ले लिए तूने?"

उसके बाद बाकी की रात सुगंधा देवी को सम्हालने और समझाने में ही गुज़र गई। दादा ठाकुर की हालत भी कुछ ठीक नहीं थी लेकिन फिर भी खुद को मजबूत बनाए वो अपनी पत्नी को सम्हाले रहे।

✮✮✮✮

सुबह हुई।
एक नया दिन शुरू हुआ।
किन्तु एक अजीब सा दिन।
हवेली में सन्नाटा सा छाया हुआ था। मातम जैसा माहौल था। ऐसा आभास हो रहा था जैसे कोई मर गया हो। दादा ठाकुर से ले कर कुसुम तक के चेहरों पर मातम मिश्रित उदासी, गंभीरता और पीड़ा विद्यमान थी। एक ही रात में जैसे सब कुछ बदल गया था। चेहरे वही थे लेकिन ऐसा लगता था जैसे सबने आज पहली बार एक दूसरे को पहचाना था। इसके बावजूद एक अजनबीपन का एहसास हो रहा था।

सुबह हवेली में रहने वाली और बाहर से आने वाली नौकरानियां ख़ामोशी से अपने काम में लग ग‌ईं थी किंतु उनके चेहरों पर कौतूहल और सवालिया भाव थे। ये अलग बात है कि किसी से कुछ पूछने की उनमें हिम्मत न थी। दूसरी तरफ निर्मला और उसकी बेटी ख़ामोशी से रसोई में सबके लिए चाय नाश्ता बनाने में लगीं थी। दोनों के मन में ढेरों सवाल थे जिनके जवाब पाने की उत्सुकता हर पल के साथ बढ़ती ही चली जा रही थी।

मेनका चाची और कुसुम अपने कमरे से अभी भी नहीं निकलीं थी। ज़ाहिर था इतना कुछ पता चल जाने के बाद उनमें किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी, ख़ास कर मेनका चाची में। इधर मां ख़ामोशी की प्रतिमूर्ति बनी हाल में रखी एक कुर्सी पर बैठी हुईं थी। वो बैठी तो कुर्सी पर ही थीं लेकिन ऐसा लगता था जैसे उनका अस्तित्व कहीं और था।

पिता जी, अपने बैठक में ख़ामोशी से बैठे हुए थे। उनके साथ उनका मुंशी किशोरी लाल भी बैठा हुआ था और मैं भी। किशोरी लाल बहुत कुछ पूछना चाहता था किंतु पिता जी का गंभीर चेहरा देख उसकी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। हवेली में इतने सारे लोगों के रहते हुए भी अजीब सा सन्नाटा तो था ही किंतु अजीब सी सनसनी भी फैली हुई थी।

"ठ...ठाकुर साहब??" सहसा गहन सन्नाटे को भेद कर किशोरी लाल ने पिता जी की तरफ देखते हुए मानों हिम्मत जुटा कर कहा____"आप रात से ही एकदम चुप और संजीदा हैं। आख़िर बात क्या है?"

"बात कुछ ऐसी है किशोरी लाल जी।" पिता जी ने धीर गंभीर लहजे में कहा____"जिसे शब्दों में बयान करना हमारे लिए बिल्कुल भी आसान नहीं है। अपने अब तक के जीवन में हमने दूसरों की भलाई और खुशी के लिए बहुत कुछ किया, बहुत संघर्ष किया है। कभी किसी का बुरा नहीं चाहा इसके बावजूद हमारे ऐसे कर्मों का फल ईश्वर ने कुछ ऐसे रूप में दिया है जिसका हम तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे।"

"आख़िर हुआ क्या है ठाकुर साहब?" किशोरी लाल को किसी बात की शंका तो हो ही रही थी, अतः अपनी शंका की पुष्टि करने के उद्देश्य से पूछा____"आज आप इतने गंभीर, इतने संजीदा और इतनी अजीब बातें क्यों कर रहे हैं? जहां तक मुझे पता चला है कल रात आप और छोटे कुंवर सफ़ेदपोश से मिलने गए थे। उसके बाद जब आप सब वापस आए थे तो ऐसे ही गंभीर और संजीदा थे। मझली ठकुराईन और कुसुम बिटिया भी आपके साथ ही आईं थी। मैं जानना चाहता हूं कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसके चलते सफ़ेदपोश से मिलने के बाद आप सब इतने ख़ामोश से हो गए थे?"

"इस बारे में फिलहाल हम कुछ नहीं कहना चाहते किशोरी लाल जी।" पिता जी ने बेचैनी से पहलू बदला____"और हम चाहते हैं कि आप भी हमसे इस बारे में कुछ न पूछें।"

"जैसी आपकी इच्छा ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने सिर हिलाया।

"हम ये भी चाहते हैं कि रात से ले कर अब तक की किसी भी घटना का ज़िक्र आप किसी से भी न करें।" पिता जी ने कहा____"आप हमारी इन बातों को अन्यथा मत लीजिएगा। बात दरअसल ये है कि हम पहले खुद अपने हालात से उबर जाना चाहते हैं। इस बारे में ना तो हम किसी से कुछ कहना चाहते हैं और ना ही किसी की कुछ सुनना चाहते हैं। अगर ऊपर वाले ने चाहा तो उचित समय पर हम खुद ही आपको सब कुछ बता देंगे।"

"जी मैं समझ गया ठाकुर साहब।" किशोरी लाल को भी हालात की गंभीरता का एहसास हुआ इस लिए उसने इस बारे में ज़्यादा कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा____"आप बेफिक्र रहें किंतु मेरा आपसे बस इतना ही कहना है कि जो कुछ भी हुआ हो उसके लिए आप खुद को ज़्यादा तकलीफ़ ना दें।"

"हमारे भाग्य में जो लिखा है वो तो हमें मिलेगा ही किशोरी लाल जी।" पिता जी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"बाकी हम तो इस बात से चकित हैं कि हमारे भाग्य में ऊपर वाले ने ये सब क्यों लिखा था? काश! मौत आ जाती तो जल्दी ही ऊपर वाले से हम ये सवाल कर पाते और उससे जवाब सुन पाते। ख़ैर जाने दीजिए, आप हमें बताएं आज का क्या कार्यक्रम है?"

"आज का तो विशेष रूप से बस एक ही काम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने खुद को सम्हालते हुए झट से कहा____"आपको शहर जाना है और वहां शिवराज सिंदे जी से मिलना है। शिवराज सिंदे जी के बड़े बेटे की विदेश जाने की आज की ही टिकट है। आपको उनके बेटे के हाथ रुपए भेजवाने हैं अपने दोनों भतीजों के लिए।"

"ठीक है।" पिता जी ने कहा____"आप रुपए ले लीजिए। उसके बाद चलते हैं।"

पिता जी की बात सुनते ही किशोरी लाल उठ कर रुपए लाने के लिए चला गया। उसके जाने के बाद पिता जी ने मेरी तरफ देखा।

"आज तुम हवेली में ही रहना।" फिर उन्होंने मुझसे कहा____"और विशेष रूप से अपनी मां का ख़याल रखना। रात से ही उनकी तबीयत थोड़ी ख़राब है। वैसे तो हमने वैद्य जी को बुलवाया है किंतु अगर उनकी दवा से भी आराम न मिले तो तुम उन्हें शहर ले जाना।"

"आप बेफिक्र हो कर जाएं पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मैं मां का अच्छे से ख़याल रखूंगा और हां आप भी कृपया अपना रखिएगा।"

कुछ ही समय बाद पिता जी किशोरी लाल के साथ बैठक से बाहर निकल गए। शेरा ने जीप निकाली जिसमें बैठ कर वो दोनों शहर चले गए। मैं कुछ देर बैठक में ही बैठा जाने क्या क्या सोचता रहा। उसके बाद उठ कर हवेली के अंदर चला आया।



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अध्याय - 138
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हवेली का एक नौकर वैद्य जी को अंदर ले कर आया। मैं अंदर ही था इस लिए वैद्य जी को ले कर सीधा मां के कमरे में पहुंच गया। मां पलंग पर लेटी हुईं थी। औपचारिक हाल चाल के बाद वैद्य जी ने मां की नाड़ी देखी। कुछ देर तक आंख बंद किए वैद्य जी जाने क्या महसूस करते रहे उसके बाद उन्होंने मां की कलाई को छोड़ दिया।

"चिंता की कोई विशेष बात नहीं है छोटे कुंवर।" फिर उसने मुझसे मुखातिब हो कर कहा____"मानसिक तनाव और अत्यधिक चिंता करने की वजह से इनकी ऐसी हालत है। वैसे तो मैं कुछ दवाइयां दे देता हूं किंतु इसका बेहतर उपचार यही है कि ये किसी भी प्रकार का ना तो तनाव रखें और ना ही किसी बात की इतनी ज़्यादा चिंता करें।"

"ठीक है वैद्य जी।" मैंने कहा____"आप दवा दे दीजिए। बाकी मैं देख लूंगा।"

वैद्य जी को विदा करने के बाद मैं वापस मां के पास आया। सुनंदा नाम की एक नौकरानी विशेष रूप से मां की ही सेवा में लगी रहती थी। मैंने उसे मां के लिए कुछ खाना ले आने को कहा। खाली पेट मां को दवा देना उचित नहीं था।

कुछ समय बाद जब मां ने मेरे बहुत ज़ोर देने पर थोड़ा बहुत खाया तो मैंने उन्हें दवा दे दी। मैं अच्छी तरह जानता था कि मां की ऐसी हालत किस वजह से है। उन्हें मेनका चाची और अपने देवर यानि जगताप चाचा के बारे में ये सब जान कर बहुत गहरा आघात लगा था। पिता जी ने रात में अगर उन्हें समझाया न होता तो बहुत हद तक मुमकिन था कि इस अघात की वजह से उनकी हालत बहुत ही गंभीर हो जाती।

"अब आप आराम कीजिए मां।" मैंने मां को ऊपर चादर से ओढ़ाते हुए कहा____"और अपने दिलो दिमाग़ से हर तरह की बातों को निकाल दीजिए।"

"वही तो नहीं कर पा रही मैं।" मां ने दुखी भाव से कहा____"जितना भुलाने की कोशिश करती हूं उतना ही सब कुछ याद आता है। बार बार मन में एक ही सवाल उभरता है कि क्यों किया ऐसा?"

"आप तो जानती हैं ना मां कि इंसान ग़लतियों का पुतला होता है।" मैंने उन्हें समझाने वाले अंदाज़ से कहा____"इस दुनिया में ऐसा कौन है जो अपने जीवन में ग़लतियां नहीं करता? सब करते हैं मां। मैंने भी तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं जिनकी वजह से आपका और पिता जी का बहुत दिल दुखा था। इसी तरह हर कोई किसी न किसी वजह से कोई न कोई ग़लतियां करता ही है। जगताप चाचा और चाची ने जो किया वो उन्होंने अपने बच्चों की भलाई के लिए किया। यकीनन उनका ऐसा करना हम सबकी नज़र में ग़लत था किंतु उनकी नज़र में तो वो सब उचित और सही ही था ना मां? आख़िर हर माता पिता अपने बच्चों का भला ही तो चाहते हैं। इस संसार में ऐसा ही तो होता है। लोग अपनों की खुशी के लिए क्या क्या कर जाते हैं। उन्होंने भी वही किया। आप उन सब बातों को इसी नज़रिए से सोचिए और अपने मन को शांत रखिए।"

"तुझे पता है।" मां ने अधीरता से कहा____"मैंने हमेशा जगताप को देवर से ज़्यादा अपने बेटे की तरह माना था और उसे स्नेह किया था। मेनका को अपनी छोटी बहन मान कर उसे प्यार दिया। उसके बच्चों को अपने बच्चों से ज़्यादा माना और प्यार किया। क्या मेरा ऐसा करना ग़लत था? क्या मैंने उन्हें अपना मान कर और उन्हें प्यार कर के कोई गुनाह किया था जिसके लिए उसने उस सबका ये सिला दिया?"

"आप फिर से वही सब सोचने लगीं।" मैंने उन्हें समझाते हुए कहा____"आप मेरी मां हैं और जीवन के साथ साथ दुनियादारी का भी मुझसे ज़्यादा आपको अनुभव है, इसके बावजूद आप ऐसा सोचती हैं? आप तो जानती हैं ना कि जब कोई इंसान सिर्फ अपने और अपने बच्चों के हितों के बारे में ही सोचते हुए आगे बढ़ता है तो फिर वो दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं सोचता। ऐसा इंसान फिर ये नहीं सोचता कि किसने उसके साथ अच्छा किया है अथवा किसने उसे अपना माना है? जगताप चाचा और चाची की मानसिकता कुछ इसी तरह की हो गई थी। यही वजह थी कि उन्होंने ये सब नहीं सोचा। अगर सोचा होता तो आप खुद सोचिए कि क्या फिर वो ये सब करते?"

"जगताप के मन में इस तरह का ज़हर उसके साले अवधराज ने डाला था।" मां ने कहा____"उसी ने मेरे देवर के मन में ऐसी सोच डाली थी वरना वो कभी ऐसा न करता। उसी की वजह से इतना कुछ हुआ और इस हवेली की खुशियों पर ग्रहण लग गया। एक हंसते खेलते और खुशहाल परिवार में आग लगवा दी उस नासपीटे ने। उस समय आया तो था वो, उसे देख कर ज़रा भी तो एहसास नहीं हुआ था कि वो इस हवेली को तहस नहस करने वाला शकुनी है। अपने बहनोई को इस सबके चलते मौत के घाट उतार कर और अपनी बहन को विधवा बना कर क्या खुशी से जी रहा होगा वो?"

"उन्होंने जो किया है उसका फल ऊपर वाला उन्हें एक दिन ज़रूर देगा मां।" मैंने कहा____"आप कृपया इस सबके बारे में सोच कर अपने आपको दुखी मत कीजिए। पिता जी के बारे में भी सोचिए। उन्हें भी तो इस सबके चलते बहुत गहरा सदमा लगा है। वो किसी को कुछ दिखाते नहीं हैं लेकिन मैं जानता हूं कि वो अंदर ही अंदर किस क़दर दुखी हैं।"

"दुखी तो होंगे ही।" मां की आंखें भर आईं____"जीवन भर उन्हें अपने भाई पर इस बात का गुमान था कि उनके भाई जैसा कोई नहीं हो सकता। जिस तरह तुम दोनों भाई उनके जिगर के टुकड़े थे उसी तरह उनका भाई भी उनकी जान था। बहुत गर्व करते थे वो जगताप पर। अपने भाई की नेक नीयती पर वो ख़्वाब में भी शक नहीं करते थे। खुद से ज़्यादा उन्हें अपने छोटे भाई पर भरोसा था। अपने पिता जी के बाद उन्होंने अपने भाई को अपने जैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। क्या जानते थे कि जिस भाई को उन्होंने छोटे से ले कर अब तक अपनी खुशियों और अपनी इच्छाओं का बलिदान दे कर इस क़ाबिल बनाया था वही एक दिन उनके भरोसे को तोड़ कर उनकी मुकम्मल दुनिया को बर्बाद करने की राह पर चल पड़ेगा। इंसान जिसे अपना सब कुछ मानता है, जिस पर खुद से ज़्यादा भरोसा करता है, अपनी औलाद से ज़्यादा प्यार करता है अगर वही एक दिन इतना बड़ा झटका दे दे तो ये गनीमत ही है उस झटके के बाद सामने वाला मौत से बच जाए।"

मां की ये बातें ऐसी थीं जिनका एक एक शब्द एक अलग ही एहसास पैदा कर रहा था। पहले भले ही कभी मैं अपनी अय्याशियों के चलते ये सब नहीं सोचता था किंतु अब सारी बातें मेरे मानस पटल पर उभरती थीं। मुझे एहसास होता था कि मेरे पिता जी ने अब तक क्या कुछ किया था और क्या कुछ सहा था।

"जब उन्हें पता चला था कि उनके भाई और बेटे की साहूकारों ने हत्या की थी तो जीवन में पहली बार वो इतना विचलित हुए थे।" मां ने आगे कहा____"औलाद का दुख तो था ही लेकिन सबसे ज़्यादा उन्हें अपने भाई की मौत का दुख हुआ था। उसकी इस तरह से हुई मौत से वो इतना ज़्यादा विचलित हुए कि अपना आपा ही खो बैठे थे। यही वजह थी कि साहूकारों का पता लगने के बाद भी उन्होंने उन्हें पकड़ कर उनका फ़ैसला पंचायत में करने का नहीं सोचा बल्कि सीधा उन्हें गोलियों से ही भून डाला था। उन्हें इस बात का कोई होश नहीं रह गया था कि उनके ऐसा करने से लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे अथवा ऐसा करने से क्या अंजाम होगा। एक इंसान जिसने कभी अपना धैर्य और संयम नहीं खोया, जिसने कभी किसी पर बेवजह क्रोध नहीं किया उसने पहली बार इस तरह का नर संघार करने जैसा जघन्य अपराध कर दिया। आज जब उन्हें ये पता चला कि जिसकी वजह से उन्होंने ये नर संघार किया था वो तो खुद ही सबसे बड़ा क़ातिल था उनका। उनके प्रेम का, उनके भरोसे का और उनकी भावनाओं का। कल रात भर नहीं सोए वो, खुद अंदर से दुखी रहे लेकिन मुझे समझाते रहे ताकि मेरी हालत बद्तर न हो जाए।"

"इसी लिए तो कहता हूं मां कि आप इस सबके बारे में सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए।" मैंने कहा____"पिता जी दुखी हैं तो उन्हें सहारा दीजिए। उनका बेटा होने के नाते मैं हर तरह से उनका सहारा बनने की कोशिश करूंगा, भले ही इसके लिए मुझे किसी भी हद से गुज़र जाना पड़े।"

"चिंता मत कर बेटे।" मां ने कहा____"मैं अब खुद का ख़याल रखूंगी और तेरे पिता जी को भी समझाऊंगी कि वो इस सबके बारे में सोच कर खुद को इतना दुखी न करें। ख़ैर अब तू जा, और ज़रा देख तेरी चाची के क्या हाल हैं? उसने कुछ खाया पिया है कि नहीं? उसे भी समझाना होगा कि जो हो गया उसे भूल जाए। बाकी अगर उसकी यही इच्छा है कि उसे ये हवेली और इस हवेली की सारी धन संपत्ति चाहिए तो ऐसा ही होगा। उसका पति इसी चाह में मर गया है तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसके मरने के बाद उसके बीवी बच्चे उसकी उस चाहत से वंचित रह जाएं।"

"ऐसा मत कहिए दीदी।" मां ने इतना कहा ही था कि सहसा दरवाज़े से चाची की करुण आवाज़ आई।

मैंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा। मेनका चाची आंखों में आंसू लिए अजीब हालत बनाए खड़ी थीं। मां ने भी गर्दन घुमा कर उन्हें देखा।

"मत कहिए दीदी ऐसा।" कहते हुए चाची आईं और मां के पैरों में सिर रख रोने लगीं, फिर बोली____"मुझे कुछ नहीं चाहिए। कुछ चाहने की वजह से ही आज मेरी ये हालत है। अपने और अपने बच्चों के बारे में सोच कर हमने जो किया ये उसी का परिणाम है कि आज वो इस दुनिया में नहीं हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है दीदी, बहुत बड़ा पाप किया है। हमने आपके प्यार और विश्वास का खून किया है। आप इसके लिए मुझे सज़ा दीजिए।"

"नहीं मेनका।" मां ने कहा____"तुझे मेरे पैरों में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। और हां, तुझे या तेरे बच्चों को कोई कुछ नहीं कहेगा। तेरा पति जो चाहता था वो तुझे ज़रूर मिलेगा, बस कुछ समय की मोहलत दे दे हमें। थोड़ा इस दुख तकलीफ़ से उबर जाने दे हमें। उसके बाद हम दोनों प्राणी अपने इस बेटे को ले कर कहीं चले जाएंगे। विधवा बहू है तो उसे भी अपने साथ ही ले जाएंगे। उसके बाद ये हवेली और ये सारी धन संपत्ति, ज़मीन जायदाद सब तेरी और तेरे बच्चों की होगी।"

"नहीं दीदी नहीं।" मेनका चाची बुरी तरह रो पड़ीं____"मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे सिर्फ अपनी दीदी का प्यार और स्नेह चाहिए। अपने जेठ जी का दुलार चाहिए। अपने बेटे का वैसा ही प्यार और मान सम्मान चाहिए जैसा ये मुझे अब तक देता आया था।"

"यही तो हम सब दे रहे थे तुझे।" मां ने कहा____"पर शायद ये अच्छा नहीं लगा था तुम दोनों को और ना ही ये काफ़ी था। तभी तो हमें मिटा कर सब कुछ पा लेने का मंसूबा बनाया था तुम दोनों ने।"

"मति मारी गई थी दीदी।" मेनका चाची रोते हुए बोलीं____"तभी तो सिर्फ अपने बारे में सोच बैठे और इतना घिनौना षड्यंत्र रच डाला था। ये उसी घिनौनी मानसिकता का परिणाम है कि आज मैं अपने पति को खो कर इस हाल में हूं। मेरे बच्चे बिना पिता के हो गए। मेरे बच्चों को उनके माता पिता की करनी की सज़ा मिल गई।"

"सज़ा तो हमें मिली है मेनका।" मां ने कहा____"हद से ज़्यादा प्यार करने की, हद से ज़्यादा भरोसा करने की और हद से ज़्यादा अपना समझने की। हम भूल गए थे कि पराया तो पराया ही होता है। नाग को कितना ही दूध पिलाओ वो एक दिन दूध पिलाने वाले को ही डस लेता है। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, दोष हमारा है। ख़ैर कोई बात नहीं, देर से ही सही अब समझ आ गया है हमें। तुझे ये हवेली और धन संपत्ति की चाह थी तो तुझे ये सब मिल जाएगा। उसके बाद जैसे चाहे अपने बच्चों के साथ यहां रहना।"

"ऐसा मत कहिए न दीदी।" चाची और बुरी तरह तड़प कर रो पड़ीं____"आप तो मेरी सबसे अच्छी दीदी हैं। मुझे अपनी छोटी बहन की तरह प्यार करती हैं। अपनी छोटी बहन के इस अपराध को क्षमा कर दीजिए ना। बस एक बार दीदी, सिर्फ एक बार माफ़ कर दीजिए ना मुझे।"

इस बार मां ने कुछ न कहा। पैरों से लिपटी रो रहीं चाची को नम आंखों से देखती रहीं। यकीनन उनके अपने दिलो दिमाग़ में भी इस वक्त आंधियां चल रहीं थी जिन्हें वो काबू में करने का भरसक प्रयास कर रहीं थी।

"मैं जानती हूं कि मेरा अपराध माफ़ी के लायक नहीं है।" उधर चाची ने फिर कहा____"किंतु आप तो मेरी सबसे अच्छी दीदी हैं ना। मुझे अपनी छोटी बहन जैसा प्यार करती हैं। मुझे यकीन है कि आप मुझे झट से माफ़ कर देंगी। मेरे अपराधों को मेरी नासमझी जान कर माफ़ कर देंगी। अगर आप मुझे माफ़ नहीं करेंगी तो यकीन मानिए अपनी बेटी की क़सम तोड़ कर मैं ज़हर खा कर खुदकुशी कर लूंगी।"

"ख़बरदार जो ऐसी मनहूस बात कही तूने।" मां ने झट से डांट दिया उन्हें____"और पैर छोड़ मेरे, दूर हट जा।"

"नहीं, आपके पैर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी।" मेनका चाची ने कहा____"मुझे अपनी दीदी के पास रहना है। मुझे अपनी दीदी का वैसा ही प्यार और स्नेह चाहिए जैसा अब तक मेरी दीदी दे रहीं थी।"

मेनका चाची छोटी बच्ची की तरह रोए जा रहीं थी और ज़िद कर रहीं थी। उनका ये बर्ताव देख मां की नाराज़गी और गुस्सा दूर होता गया। माना कि चाचा चाची का अपराध माफ़ी के लायक नहीं था लेकिन मेरे माता पिता ऐसे थे ही नहीं जो पिघल न सकें, खास मां। आख़िर कुछ देर में मां ने चाची को मजबूरन माफ़ कर ही दिया। हालाकि मन अभी भी उनका इस सबके चलते दुखी था। बहरहाल, मां के कहने और समझाने पर चाची कमरे से चली गईं। मैं भी मां के कहने पर बाहर निकल गया।

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दिन यूं ही गुज़रने लगे।
कुछ दिनों के लिए लगा था जैसे वक्त थम गया हो और उस थमे हुए पलों में उसने हम सबको जाने कौन सी भयावह दुनिया में पहुंचा दिया हो किंतु फिर जैसे एक लहर आई और हम सबको साहिल पर ला फेंका। शायद ऊपर वाला नहीं चाहता था कि हम महज इतने में ही डूब कर मर जाएं।

हवेली के अंदर का माहौल यूं तो सामान्य हो गया था लेकिन रिश्तों में पहले जैसी पाकीज़गी नहीं महसूस होती थी। कहने के लिए भले ही हम सब दिल से सब कुछ कर रहे थे लेकिन जाने क्यों ये सब एक दिखावा सा महसूस होता था। पहले जैसा बेबाकपन, बेफिक्री, अपनापन और भरोसा नहीं महसूस होता था और ना ही दिल से कोई खुश होता था। सब कुछ बनावटी लगने लगा था।

पिता जी, बहुत गंभीर से हो गए थे। उनके चेहरे पर गंभीरता के अलावा कोई भाव नज़र नहीं आते थे। ना कोई खुशी, ना कोई उत्साह और ना ही कोई तेज़। ऐसा लगता था जैसे उनके लिए सब कुछ बेमानी और बेमतलब हो गया था। सबके सामने वो खुद को सामान्य रखते लेकिन मां और मैं अच्छी तरह समझते थे कि अंदर से वो टूट चुके थे। इंसान के भरोसे और उम्मीद का जब इस तरह से हनन हो जाता है तो इंसान ज़िंदा होते हुए भी एक लाश जैसा बन जाता है।

मां को तो किसी तरह सम्हाल लिया गया था लेकिन पिता जी को सम्हालना जैसे नामुमकिन सा हो गया था। बाहर से वो पूरी तरह सामान्य ही नज़र आते थे लेकिन अंदर से जैसे वो घुट रहे थे।

गांव में अस्पताल और विद्यालय बनवाने की मंजूरी मिल गई थी इस लिए निर्माण कार्य शुरू हो गया था। पिता जी ने गांव वालों की सुविधा को देखते हुए अस्पताल और विद्यालय गांव के अंदर ही बनवाने की मंजूरी प्राप्त की थी जिसके लिए हमने अपनी ज़मीन को सरकार के सुपुर्द की जिसका हमें मुआवजा भी मिला किंतु मुआवजे की रकम हमने निर्माण कार्य में ही लगाने का फ़ैसला किया था।

एक दिन पहले पिता जी के हुकुम पर पूरे गांव में डिग्गी पिटवा कर गांव वालों को सूचित कर दिया गया था कि गांव में सरकारी अस्पताल और सरकारी विद्यालय बनने वाला है। इसके लिए जो भी अपनी खुशी से निर्माण कार्य में मदद करेगा उसे उसका उचित मेहनताना मिलेगा।

गांव वाले इस बात से बड़ा खुश हुए। उनके चेहरों पर मौजूद खुशी और उत्साह देखते ही बनता था। सब खुशी से नाचने लगे थे और ये खुशी तब और भी ज़्यादा बढ़ गई जब सबको ये पता चला कि गांव में विद्यालय बनने के बाद हर कोई अपने बच्चों को विद्यालय में पढ़ने के लिए दाखिला दिलवा सकता है।

उस रात पूरे गांव में लोगों ने खुशी से नाच गाना किया और इसके लिए पिता जी को दुआएं दे कर उनकी लंबी उमर की कामना की। सारी रात जश्न का माहौल बना रहा। ये ख़बर जंगल की आग की तरह दूर दूर तक फैलती चली गई। हर किसी की ज़ुबान पर इसी बात की चर्चा थी कि रुद्रपुर में दादा ठाकुर की कृपा से विद्यालय और अस्पताल दोनों बन रहे हैं।

यूं तो ये सब सरकार का काम था लेकिन पिता जी ने ये सारा काम खुद करने का जिम्मा ले लिया था। सरकार का काम सिर्फ इतना ही था कि जब विद्यालय और अस्पताल बन कर तैयार हो जाए तो वो विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक और अस्पताल में लोगों का बेहतर इलाज़ करने के लिए चिकित्सक नियुक्त कर दें।

गांव के पूर्व में देवी मां के मंदिर के बगल से निर्माण कार्य शुरू हुआ। मंदिर के एक तरफ विद्यालय और दूसरी तरफ अस्पताल का कार्य बड़े जोश और जुनून के साथ शुरू हो गया था। गांव के बहुत से लोग इस निर्माण कार्य में लग गए थे। मैं और रूपचंद्र दोनों तरफ का निरीक्षण करते थे। उधर पिता जी ने शहर से हमारे ट्रैक्टरों में ईंट बालू सीमेंट और पत्थर लाने के लिए भीमा और बलदेव को नियुक्त कर दिया था।

अब ये रोज़ाना की दिनचर्या सी बन गई थी। मैं और रूपचंद्र एक साथ दोनों जगह का काम धाम देखने लगे थे। हम दोनों में काफी अच्छा ताल मेल हो गया था। रूपचंद्र पहले थोड़ा संकोच करता था किंतु अब वो पूरी तरह खुल गया था मुझसे। मैंने महसूस किया था कि अब वो मुझसे मज़ाक भी करने लगा था। ज़ाहिर है उसकी बहन से अगले साल मेरा ब्याह होना था जिसके चलते हमारे बीच जीजा साले का रिश्ता बन चुका था और इसी वजह से वो मुझसे मज़ाक करने लगा था। मुझे थोड़ा अजीब तो लगता था लेकिन मैं इसका विरोध नहीं करता था। पिछले पंद्रह बीस दिनों से उसकी बहन रूपा से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी। इसके लिए ना मैंने कोई पहल की थी और ना ही उसने।

ऐसे ही एक महीना गुज़र गया। इस एक महीने में अस्पताल और विद्यालय के निर्माण कार्य में काफी कुछ नज़र आने लगा था। दोनों तरफ की दीवारें आधी आधी खड़ी हो गईं थी। पहले सिर्फ मंदिर दिखता था और अब मंदिर के दोनों तरफ अस्पताल और विद्यालय की दीवारें नज़र आने लगीं थी। ज़ाहिर है जब दोनों पूरी तरह बन कर तैयार हो जाएंगे तो अलग ही दृश्य नज़र आएगा।

ठंड शुरू हो गई थी। लोगों के घर के बाहर और अंदर अलाव जलने शुरू हो गए थे। लोग अपने मवेशियों को ठंड से बचाने के लिए उचित व्यवस्था करने लगे थे। ठंड का मौसम मुझे हमेशा से पसंद था। चाहे जितना खा पी लो, चाहे जिसके साथ चिपक कर सो जाओ, चाहे जितनी मेहनत कर लो। कुल मिला कर ठंड में कोई भी काम करो उसका अलग ही आनंद मिलता था। हालाकि कभी कभी ठंड इतनी ज़्यादा होने लगती थी कि सुबह बिस्तर से उठने का भी मन नहीं करता था और सबसे ज़्यादा इसका असर काम पर पड़ता था। अक्सर इस चक्कर में जंगली जानवर फसलों को बर्बाद कर देते थे और इंसान ठंड की वजह से बिस्तर में छुपा बैठा रहता था।

रागिनी भाभी को मायके गए दो महीना हो गया था। सच कहूं तो मुझे उनकी बहुत याद आती थी। जब भी अकेले में होता था तो अक्सर उनका ख़याल आ जाता था। उनका मुझे छेड़ना, मेरी टांग खींचना और बात बात पर मुझे आसमान से ज़मीन पर ले आना बहुत याद आता था। मैं हर दिन मां से उनके बारे में पूछता कि उन्हें लेने कब जाऊं लेकिन वो हर बार मना कर देती थीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वो भाभी को वापस लाने से मना क्यों कर देती थीं? एक दिन तो मैं मां से इस बात पर नाराज़ भी हो गया था। मुझे भाभी की फ़िक्र तो थी ही लेकिन मैं ये भी चाहता था कि वो हवेली में वापस आएं। मेरे काम के बारे में जानें, और मेरे काम की समीक्षा करते हुए मुझे ये बताएं कि मैं अपना काम ठीक से कर रहा हूं या नहीं? मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतर रहा हूं या नहीं? ऐसा नहीं था कि हवेली में कोई मेरे काम से खुश नहीं था, बल्कि सब खुश थे लेकिन जाने क्यों मैं चाहता था कि मेरे इन कामों को देख कर भाभी भी खुश हों और मेरी तारीफ़ करते हुए मेरा मनोबल बढ़ाएं।

शाम को मैं काम से थका हारा हवेली आया और खा पी कर अपने कमरे में आ गया। हवेली के इस तरफ ऊपरी हिस्से में आज कल सिर्फ मैं ही अपने कमरे में रहता था। कुसुम पिछले एक महीने से अपनी मां के साथ ही नीचे उनके कमरे में सोती थी। दूसरी तरफ हवेली के ऊपरी हिस्से में किशोरी लाल और उसकी बेटी कजरी सोती थी। मेरी तरफ का पूरा हिस्सा वीरान सा रहता था। पिछले कुछ समय से हर दूसरे या तीसरे दिन मां मेरे कमरे में आ जाती थीं और मेरा हाल चाल पूछती थीं।

पलंग पर लेटा मैं अपने कामों के बारे में सोच रहा था। उसके बाद मन जाने कहां कहां भटकते हुए रागिनी भाभी पर जा कर ठहर गया। मैं सोचने लगा कि दो महीने हो गए उन्हें गए हुए और मेरे पास उनके बारे में अब तक कोई ख़बर नहीं है। क्या उन्हें हम सबकी याद नहीं आती होगी? क्या उनका मन नहीं करता होगा वापस आने का? वहां पर उनके अपने उन्हें खुश रखने के लिए क्या करते होंगे? क्या कोई उनका ख़याल रखता होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो हर किसी से अपनी पीड़ा को छुपा कर रखती हों और अंदर ही अंदर दुखी रहती हों? नहीं नहीं, वो लोग ऐसा नहीं कर सकते। भाभी उनकी बहन बेटी हैं, ज़रूर वो अच्छे से उनका ख़याल रखते होंगे।

एकाएक ही मन में उथल पुथल सी मच गई थी। भाभी के लिए पहले भी फ़िक्र थी लेकिन अब और भी ज़्यादा होने लगी थी। एक बेचैनी सी थी जो बढ़ती ही जा रही थी। मैंने फ़ैसला कर लिया कि कल सुबह मैं चंदनपुर जाऊंगा और भाभी को वापस ले आऊंगा।




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