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Wo wafadaar nahin thi balki sahukaro dwara wo majboor kar di gai thi....lovely update ..ghar ki naukraniya kaise mari aur unko kaun control kar raha tha ye pata chal gaya .
par ye samajh nahi aaya ki wo 2 aurte itni wafadar kyu thi sahukaro ke liye jo apni jaan ki parwah bhi na ki..
mahendr singh ka faisla ekdam sahi tha us waqt ke hisaab se ,agar kisi ghar ke mard hi na bache to unke aurto ka bachcho ka kya hoga
Fate to fate par position na ghategaurishankar aur munshi ki baate aisi thi jaise Ulta chor kotwal ko daante. khud ne murder karna shuru kiya tha aur thakur ke upar bharosa nahi .waise janta ne thakur sahab ka hi saath diya unke nek kaamo ki wajah se .
kamdev99008 bhaiya SANJU ( V. R. ) Bhaiya Leon bru ke jaise point wali baaten kiya kijiye....pata nahi kya ho gaya hai Aaj kal aap dono koab bacha hai wo safed posh ,kya wo bhi yaha maujud hoga ki kya faisla hua hai sabka.. aur shayad ye sab jaanke wo apni aage ki ranneeti tay kare .
Isi liye to uske ruaab ko jaldi hi uske pichhwade me daal diya un logo nenice update. aakhir police tak khabar pahuch hi gayi aur shayad ye kaam safedposh ka ho .
dada thakur ne sahi kaha ki unhone apna dabdaba kayam nahi rakha warna bade dada thakur ke waqt police sarhad tak bhi nahi aati thi aur aaj unse puchhne chali aayi .
laga hi tha lal singh naya hoga warna Sp ke tameej se baat karte huye bhi kanun ka raub nahi jhadta.
Bhabhi chahti hai ki vaibhav ek achha insan bane aur apni jimmedariyon ko imandari se nibhaye....bhabhi kuch jyada hi inquiry kar rahi thi ladkiyo ke baare me .
par ab vaibhav ne sudharne ka vaada karke achcha mehsus karaya bhabhi ko .
अध्याय - 77ज़हन में इस ख़याल के आते ही मैं आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा। एकदम से मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि कैसे?? मतलब कि अगर उन दो औरतों में से एक रूपा ही थी तो उसे ये कैसे पता चला था कि कुछ लोग मुझे जान से मारने के लिए अगली सुबह चंदनपुर जाने वाले हैं? ये एक ऐसा सवाल था जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था।
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अब आगे....
हवेली में एक बार फिर से कोहराम सा मच गया था। असल में पुलिस वाले जगताप चाचा और बड़े भैया की लाशों को पोस्ट मॉर्टम करने के बाद हवेली ले आए थे। हवेली के विशाल मैदान में लकड़ी के तख्ते पर दोनों लाशें लिटा कर रख दी गईं थी। मां, मेनका चाची, कुसुम और रागिनी भाभी दहाड़ें मार मार कर रोए जा रहीं थी। यूं तो अर्जुन सिंह का सुझाव था कि लाशों को सीधा शमशान भूमि में ही ले जाएं और पिता जी मान भी गए थे किंतु मां के आग्रह पर उन्हें घर ही लाया गया था। मां का कहना था कि कम से कम आख़िरी बार तो वो सब उन्हें अपनी आंखों से देख लें।
गांव की औरतें और चाची के ससुराल से आई उनकी एक भाभी सबको सम्हालने में लगी हुईं थी। पिता जी एक तरफ खड़े थे। उनकी आंखों में नमी थी। विभोर और अजीत भी सिसक रहे थे। दूसरी तरफ मैं भी खुद को अपने जज़्बातों के भंवर से निकालने की नाकाम कोशिश करते हुए खड़ा था। आख़िर सभी बड़े बुजुर्गों के समझाने बुझाने के बाद किसी तरह घर की औरतों का रुदन बंद हुआ। उसके बाद सब अंतिम संस्कार करने की तैयारी में लग गए।
क़रीब एक घंटे बाद दोनों लाशों को अर्थी पर रख कर तथा फिर उन्हें कंधों में ले कर शमशान की तरफ चल दिया गया। लोगों का हुजूम ही इतना इकट्ठा हो गया था कि एक बहुत लंबी कतार सी बन गई थी। पिता जी उस वक्त खुद को बिल्कुल भी सम्हाल नहीं पाए थे जब उन्हें अपने ही बड़े बेटे की अर्थी को कंधा देने को कहा गया। उन्होंने साफ इंकार कर दिया कि ये उनसे नहीं हो सकेगा। उसके बाद उन्होंने जगताप चाचा की अर्थी को कंधे पर ज़रूर रख लिया था। उनके साथ अर्जुन सिंह, चाचा का साला और खुद जगताप चाचा का बड़ा बेटा विभोर था। इधर बड़े भैया की अर्थी को मैं अपने कंधे पर रखे हुए था। मेरे साथ भैया का साला, शेरा और भुवन थे।
शमशान भूमि जो कि हमारी ज़मीनों का ही एक हिस्सा थी वहां पर पहले से ही दो चिताएं बना दी गईं थी। पूरा गांव ही नहीं बल्कि आस पास के गावों के भी बहुत से लोग आ कर जमा हो गए थे।
पंडित जी द्वारा क्रियाएं शुरू कर दी गईं। जगताप चाचा को चिताग्नि देने के लिए उनका बड़ा बेटा विभोर था जबकि भैया का अंतिम संस्कार करने के लिए मैं था। शमशान में खड़े हर व्यक्ति की आंखें नम थी। इतनी भीड़ के बाद भी गहन ख़ामोशी विद्यमान थी। कुछ ही देर में क्रिया संपन्न हुई तो मैंने और विभोर ने एक एक कर के चिता में आग लगा दी। भैया का चेहरा देख बार बार मेरा दिल करता था कि उनसे लिपट जाऊं और खूब रोऊं मगर बड़ी मुश्किल से मैं खुद को रोके हुए था।
दूसरी तरफ साहूकारों की अपनी ज़मीन पर जो शमशान भूमि थी वहां भी जमघट लगा हुआ था। साहूकारों के चाहने वाले तथा उनके सभी रिश्तेदार आ गए थे। सभी ने मिल कर मृत लोगों के लिए चिता तैयार कर दी थी और फिर सारी क्रियाएं करने के बाद रूपचंद्र ने एक एक कर के आठों चिताओं पर आग लगा दी। आज का दिन दोनों ही परिवारों के लिए बेहद ही दुखदाई था। खास कर साहूकारों के लिए क्योंकि उनके घर के एक साथ आठ सदस्यों का मरण हुआ था और ज़ाहिर है जाने वाले अब कभी वापस नहीं आने वाले थे।
अंतिम संस्कार के बाद बहुत से लोग शमशान से ही अपने अपने घर वापस चले गए और कुछ हमारे साथ ही खेत में बने एक बड़े से कुएं में नहाने के लिए आ गए। सबसे पहले मैं और विभोर नहाए और फिर मृतात्माओं को तिलांजलि दी। उसके बाद सभी एक एक कर के नहाने के बाद यही क्रिया दोहराने लगे। उसके बाद हम सब वापस हवेली की तरफ चल पड़े।
✮✮✮✮
रात बड़ी मुश्किल से गुज़री और फिर नया सवेरा हुआ। हमारे जो भी रिश्तेदार आए हुए थे वो जाने को तैयार थे। नाना जी सबसे बुजुर्ग थे इस लिए उन्होंने सबको समझाया बुझाया और अच्छे से रहने को कहा। उसके बाद सभी चले गए। सबके जाने के बाद हवेली में जैसे सन्नाटा सा छा गया।
मैंने और विभोर ने क्योंकि दाग़ लिया था इस लिए हम दोनों के लिए बैठक के पास ही एक अलग कमरा दे दिया गया था। हम दोनों तब तक हवेली के अंदर की तरफ नहीं जा सकते थे जब तक कि हम शुद्ध नहीं हो जाते अथवा तेरहवीं नहीं हो जाती। ऐसे मामलों में कुछ नियम थे जिनका हमें पालन करना अनिवार्य था।
ख़ैर दिन ऐसे ही गुज़रने लगे और फिर ठीक नौवें दिन शुद्ध हुआ जिसमें हवेली के सभी मर्द और लड़कों ने सिर का मुंडन करवाया। इस बीच शेरा को और अपने कुछ खास आदमियों को इस बात की ख़ास हिदायत दी गई थी कि वो साहूकारों और मुंशी चंद्रकांत पर नज़र रखे रहें। कोई भी संदिग्ध बात समझ में आए तो फ़ौरन ही उसकी सूचना दादा ठाकुर को दें। सफ़ेदपोश की तलाश भी गुप्त रूप से हो रही थी। हालाकि इन नौ दिनों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। ख़ैर ऐसे ही तीन दिन और गुज़र गए और तेरहवीं का दिन आ गया।
तेरहवीं का कार्यक्रम बड़े ही विशाल तरीके से हुआ। जिसमें आस पास के गांव वालों को भोजन ही नहीं बल्कि उन्हें यथोचित दान भी दिया गया। साहूकारों के यहां भी तेरहवीं थी इस लिए वहां भी उनकी क्षमता के अनुसार सब कुछ किया गया। इस सबमें पूरा दिन ही निकल गया। तेरहवीं के दिन मेरे मामा मामी लोग और विभोर के मामा मामी भी आए हुए थे और साथ ही भैया के ससुराल वाले भी। सारा कार्यक्रम बहुत ही बेहतर तरीके से संपन्न हो गया था। सारा दिन हम सब कामों में लगे हुए थे इस लिए थक कर चूर हो गए थे। रात में जब बिस्तर मिला तो पता ही न चला कब नींद ने हमें अपनी आगोश में ले लिया।
अगले दिन एक नई सुबह हुई। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सब कुछ बदला बदला सा है। इतने सारे लोगों के बीच भी एक अकेलापन सा है। सुबह नित्य क्रिया से फुर्सत होने के बाद और कपड़े वगैरह पहन कर जब मैं अपने कमरे से निकल कर सीढ़ियों की तरफ आया तो सहसा मेरी नज़र भाभी पर पड़ गई।
सफ़ेद साड़ी पहने तथा हाथ में पूजा की थाली लिए वो सीढ़ियों से ऊपर आ रहीं थी। यूं तो वो पहले भी ज़्यादा सजती संवरती नहीं थी क्योंकि उन्हें सादगी में रहना पसंद था और यही उनकी सबसे बड़ी खूबसूरती होती थी किंतु अब ऐसा कुछ नहीं था। उनके चेहरे पर एक वीरानी सी थी जिसमें न कोई आभा थी और न ही कोई भाव। जैसे ही वो ऊपर आईं तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ गई।
"प्रणाम भाभी।" वो जैसे ही मेरे समीप आईं तो मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया। उनके चेहरे पर मौजूद भावों में कोई परिवर्तन नहीं आया, बोलीं____"हमेशा खुश रहो, ये लो प्रसाद।"
"अब भी आप भगवान की पूजा कर रही हैं?" मैंने उनके बेनूर से चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा___"बड़े हैरत की बात है कि जिस भगवान ने आपकी पूजा आराधना के बदले सिर्फ और सिर्फ दुख दिया उसकी अब भी पूजा कर रही हैं आप?"
"खुद को बहलाने के लिए मेरे पास और कुछ है भी तो नहीं।" भाभी ने सपाट लहजे में कहा____"जिसके लिए हवेली की चार दीवारों के अंदर ही अपना सारा जीवन गुज़ार देना मुकद्दर बन गया हो वो और करे भी तो क्या? ख़ैर, अब मैं ये पूजा अपने लिए नहीं कर रही हूं वैभव बल्कि अपनों के लिए कर रही हूं। मेरे अंदर अब किसी चीज़ की ख़्वाइश नहीं है किंतु हां इतना ज़रूर चाहती हूं कि दूसरों की ख़्वाइशें पूरी हों और वो सब खुश रहें।"
"और जिन्हें आपको खुश देख कर ही खुशी मिलती हो वो कैसे खुश रहें?" मैंने उनकी सूनी आंखों में देखते हुए पूछा।
"दुनिया में सब कुछ तो नहीं मिल जाया करता न वैभव?" भाभी ने कहा____"और ना ही किसी की हर इच्छा पूरी होती है। किसी न किसी चीज़ का दुख अथवा मलाल तो रहता ही है। इंसान को यही सोच कर समझौता कर लेना पड़ता है।"
"मैं किसी और का नहीं जानता।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप खुश रहें। आप मुझे बताइए भाभी कि आपके लिए मैं ऐसा क्या करूं जिससे आपके चेहरे का नूर लौट आए और आपके होठों पर खुशी की मुस्कान उभर आए?"
"तुम्हें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है।" भाभी ने सहसा अपने दाहिने हाथ से मेरे बाएं गाल को सहला कर कहा____"किंतु हां, अगर तुम चाहते हो कि मुझे किसी बात से खुशी मिले तो सिर्फ इतना ही करो कि एक अच्छे इंसान बन जाओ।"
"मैंने आपसे कहा था ना कि अब मैं वैसा नहीं हूं?" मैंने कहा____"क्या अभी भी आपको मुझ पर यकीन नहीं है?"
"ये सवाल अपने आपसे करो वैभव।" भाभी ने कहा____"और फिर सोचो कि क्या सच में तुम पर इतना जल्दी कोई यकीन कर सकता है?"
मैं भाभी की बात सुन कर ख़ामोश रह गया। मुझे कुछ न बोलता देख उनके होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई। फिर वो बिना कुछ कहे अपने कमरे की तरफ चली गईं और मैं बुत बना देखता रह गया उन्हें। बहरहाल मैंने खुद को सम्हाला और नीचे जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।
रास्ते में मैं भाभी की बातों के बारे में ही सोचता जा रहा था। इस बात को तो अब मैं खुद भी समझता था कि आज से पहले तक किए गए मेरे कर्म बहुत ही ख़राब थे और ये उन्हीं कर्मों का नतीजा है कि कोई मेरे अच्छा होने पर यकीन नहीं कर रहा था। मैंने मन ही मन फ़ैसला कर लिया कि अब से चाहे जो हो जाए एक अच्छा इंसान ही बनूंगा। वो काम हर्गिज़ नहीं करूंगा जिसके लिए मैं ज़माने में बदनाम हूं और ये भी कि जिसकी वजह से कोई मुझ पर भरोसा करने से कतराता है।
आंगन से होते हुए मैं दूसरी तरफ के बरामदे में आया तो देखा मां और चाची गुमसुम सी बैठी हुईं थी। कुसुम नज़र नहीं आई, शायद वो रसोई में थी। मेनका चाची को सफ़ेद साड़ी में और बिना कोई श्रृंगार किए देख मेरे दिल में एक टीस सी उभरी। मुझे समझ में न आया कि अपनी प्यारी चाची के मुरझाए चेहरे पर कैसे खुशी लाऊं?
"अरे! आ गया तू?" मुझ पर नज़र पड़ते ही मां ने कहा____"अब तू ही समझा अपनी चाची को।"
"क...क्या मतलब?" मैं चौंका____"क्या हुआ चाची को?"
"तेरी चाची मुझे अकेला छोड़ कर अपने मायके जा रही है।" मां ने दुखी भाव से कहा____"और अपने साथ कुसुम तथा दोनों बच्चों को भी लिए जा रही है। अब तू ही बता बेटा मैं इसके और कुसुम के बिना यहां अकेली कैसे रह पाऊंगी?"
"बस कुछ ही दिनों के लिए जाना चाहती हूं दीदी।" मेनका चाची ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा___"पिता जी और भैया भाभी से तो मिल चुकी हूं लेकिन मां को देखे बहुत समय हो गया है। बहुत याद आ रही है मां की। कुछ दिन मां के पास रहूंगी तो शायद मन को थोड़ा सुकून मिल जाए और ये दुख भी कम हो जाए।"
"चाची सही कह रहीं हैं मां।" मैं चाची की मनोदशा को समझते हुए बोल पड़ा____"आप तो अच्छी तरह समझती हैं कि जो सुकून और सुख एक मां के पास मिल सकता है वो किसी और के पास नहीं मिल सकता। इस लिए इन्हें जाने दीजिए। कुछ दिनों बाद मैं खुद जा कर चाची और कुसुम को ले आऊंगा।"
"तू भी इसी का पक्ष ले रहा है?" मां ने दुखी हो के कहा____"मेरे बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा है यहां।"
"ये आप कैसी बात कर रही हैं मां?" मैंने कहा____"मुझे पता है कि इस समय हम सब किस मनोदशा से गुज़र रहे हैं। इस लिए यहां सिर्फ एक के बारे में सोचने का सवाल ही नहीं है बल्कि सबके बारे में सोचने की ज़रूरत है। आप इस हवेली में पिता जी के बाद सबसे बड़ी हैं इस लिए सबके बारे में सोचना आपका पहला कर्तव्य है। चाची को जाने दीजिए और ये मत समझिए कि आपके बारे में कोई सोच नहीं रहा है।"
आख़िर मां मान गईं। मुझे याद आया कि चाची के साथ कुसुम भी जा रही है। मैंने चाची से कुसुम के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अपने कमरे में जाने की तैयारी कर रही है। मैं फ़ौरन ही कुसुम के पास ऊपर उसके कमरे में पहुंच गया। दरवाज़ा खटखटाया तो अंदर से कुसुम की आवाज़ आई____'दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं है, आ जाइए।'
मैं जैसे ही दरवाज़ा खोल कर अंदर दाखिल हुआ तो कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी। वो मुझे देखते ही उदास सी हो कर खड़ी हो गई। मैं उसके क़रीब पहुंचा।
"माफ़ कर दे मुझे।" मैंने उसके बाजुओं को थाम कर कहा____"हालात ही ऐसे बने कि मुझे अपनी लाडली बहन से मिलने का समय ही नहीं मिल सका।"
"कोई बात नहीं भैया।" कुसुम ने कहा____"हमेशा सब कुछ अच्छा थोड़े ना होता रहता है। कभी कभी ऐसा बुरा भी हो जाता है कि फिर उसके बाद कभी अच्छा होने की इंसान कल्पना भी नहीं कर सकता।"
"इतनी बड़ी बड़ी बातें मत बोला कर तू।" मैंने उसे खुद से छुपका लिया____"तेरे मुख से ऐसी बातें बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। मैं जानता हूं कि हमारे साथ बहुत बुरा हो चुका है लेकिन इसके बावजूद हमें इस दुख से उबर कर आगे बढ़ना होगा। मैं चाहता हूं कि मेरी बहन पहले जैसी शोख और चंचल हो जाए। पूरी हवेली पहले की तरह तेरे चहकने से गूंजने लगे।"
"बहुत मुश्किल है भैया।" कुसुम सिसक उठी____"अब तो ऐसा लगता है कि जिस्म के अंदर जान बची रहे यही बहुत बड़ी बात है।"
"सब ठीक हो जाएगा, तू किसी चीज़ के बारे में इतना मत सोचा कर।" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए कहा____"ख़ैर ये बता मामा के यहां जा रही है तो वापस कब आएगी? तुझे पता है ना कि मैं अपनी लाडली बहन को देखे बिना नहीं रह सकता।"
"मैं तो जाना ही नहीं चाहती थी।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"मां के कहने पर जा रही हूं। सच कहूं तो मेरा कहीं भी जाने का मन नहीं करता। हर पल बस पिता जी और बड़े भैया की ही याद आती है। आंखों के सामने से वो दृश्य जाता ही नहीं जब उनको तख्त में निर्जीव पड़े देखा था। भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया भैया?"
कहने के साथ ही कुसुम सिसक सिसक कर रोने लगी। उसकी आंखों से बहते आसूं देख मेरा कलेजा हिल गया। मैंने फिर से उसे खींच कर खुद से छुपका लिया और फिर उसे शांत करने की कोशिश करने लगा। आख़िर कुछ देर में वो शांत हुई तो मैंने उसे जल्दी से तैयार हो जाने को कहा और फिर बाहर चला आया।
जगताप चाचा और बड़े भैया की मौत हम सबके के लिए एक गहरा आघात थी जिसका दुख सहन करना अथवा हजम कर लेना हम में से किसी के लिए भी आसान नहीं था। हवेली में रहने वाला हर व्यक्ति जैसे इस अघात से टूट सा गया था। मैंने इस बात का तसव्वुर भी नहीं किया था कि ऐसा भी कुछ हो जाएगा।
नीचे आया तो देखा सब जाने के लिए तैयार थे। मैं सबसे मिला और फिर चाची का झोला ले जा कर बाहर मामा जी की जीप में रख दिया। जीप में विभोर और अजीत पहले से ही जा कर बैठ गए थे। कुछ देर में कुसुम और चाची भी आ गईं। पिता जी के चेहरे पर अजीब से भाव थे, शायद अपने अंदर उमड़ रहे जज़्बात रूपी बवंडर को काबू करने का प्रयास कर रहे थे। सब एक दूसरे से मिले और फिर पिता जी से इजाज़त ले कर जीप में बैठ गए। अगले ही पल जीप चल पड़ी। पिता जी ने सुरक्षा का ख़याल रखते हुए शेरा के साथ कुछ आदमियों को उनके पीछे जीप में भेज दिया था। शेरा को आदेश था कि गांव की सरहद से ही नहीं बल्कि उससे भी आगे तक उन्हें सही सलामत भेज कर आए।
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"कहां जा रहे हो?" मैं मोटर साईकिल की चाभी लिए जैसे ही बैठक के सामने से निकला तो पिता जी की आवाज़ सुन कर एकदम से रुक गया। फिर पलट कर बैठक में पिता जी के सामने आ गया।
"बैठो यहां पर।" उन्होंने अपने पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं बैठ गया। इस वक्त बैठक में मां भी बैठी हुईं थी, बाकी कोई नहीं था।
"ये तो तुम्हें भी पता है कि जो कुछ हमारे साथ हुआ है उससे हम सब कितना दुखी हैं।" पिता जी ने जैसे भूमिका बनाते हुए कहा____"एक तरह से ये समझ लो कि सब कुछ बिखर सा गया है। दिल तो यही करता है कि सब कुछ त्याग कर कहीं चले जाएं मगर जानते हैं कि जीवन ऐसे नहीं चलता। इसे मजबूरी कहो या बेबसी कि हमें इतना कुछ होने के बाद भी अपने लिए न सही मगर अपनों के लिए जीना ही पड़ता है और इसके साथ साथ वो सब कुछ भी करना पड़ता है जो जीवन में अपनों के लिए ज़रूरी होता है। इस लिए हम उम्मीद करते हैं कि ऐसे हालात में तुम हवेली में रहने वालों के लिए एक मजबूत सहारा बनोगे। अपने छोटे भाई और बेटे को खोने के बाद हम ऐसा महसूस कर रहें हैं जैसे हम एकदम से ही असहाय हो गए हैं। क्या तुम अपने पिता को सहारा नहीं दोगे?"
"य...ये आप कैसी बातें कर रहे हैं पिता जी?" मैंने अपने अंदर अजीब सी हलचल होती महसूस की____"मैं आपको सहारा न दूं अथवा अपनों के बारे में न सोचूं ऐसा तो सपने में भी नहीं हो सकता। ईश्वर करे कि आप क़यामत तक हमारे पास रहें। आप हमारे लिए सब कुछ हैं पिता जी, आपके बिना हम जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते।"
"किसी के जीवन का कोई भरोसा नहीं है बेटे।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा____"ऊपर वाला इंसान को कब अपने पास बुला ले इस बारे में कोई नहीं जानता। वैसे भी इस संसार सागर से हर किसी को एक दिन तो जाना ही होता है। ख़ैर हमें तुमसे ये सुन कर अच्छा तो लगा ही किन्तु इसके साथ बेहद संतोष भी हुआ कि तुम अपनों के लिए ऐसा सोचते हो। हम चाहते हैं कि तुम अब पूरी ईमानदारी के साथ अपनी हर ज़िम्मेदारी को निभाओ और हर उस व्यक्ति को खुश रखो जो तुम्हारा अपना है।"
"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"अब से मैं अपनी हर ज़िम्मेदारी को निभाऊंगा और सबको खुश रखने की हर संभव कोशिश करूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"हमारा छोटा भाई था तो हमें कभी किसी चीज़ की चिंता नहीं रहती थी। हमारी ज़मीनों में होने वाली खेती बाड़ी को वही देखता था। हमारी ज़मीनों पर कौन सी फ़सल किस जगह पर लगवानी है ये सब वही देखता और करवाता था किन्तु अब ये सब तुम्हें देखना होगा।"
"आप बेफिक्र रहें पिता जी।" मैंने कहा____"मैं सब कुछ सम्हाल लूंगा।"
"चंद्रकांत हमारा मुंशी था।" पिता जी ने आगे कहा____"वो हमारे सभी बही खातों का हिसाब किताब रखता था। किससे कितना लेन देन है और किसने कितना हमसे कर्ज़ ले रखा है ये सब वही हिसाब किताब रखता था। अब क्योंकि वो हमारा मुंशी नहीं रहा इस लिए हमें इन सब कामों के लिए एक ऐसा व्यक्ति चाहिए जो ईमानदार हो, सच्चा हो और साथ ही वो हमारे इन सभी कामों को कुशलता पूर्वक कर सके।"
"तो क्या आपकी नज़र में है कोई ऐसा व्यक्ति?" मैंने उत्सुकता से पूछा।
"ऐसे कुछ लोग हमारी जानकारी में तो हैं।" पिता जी ने कहा____"लेकिन उनके बारे में भी बस सुना ही है हमने। दुनिया में इंसान जिस तरह नज़र आते हैं वो असल में वैसे होते नहीं हैं इस लिए जब तक हमें उनके अंदर का सच नज़र नहीं आएगा तब तक हम ऐसे कामों के लिए किसी को नहीं रख सकते।"
"ठीक है जैसा आपको ठीक लगे कीजिए।" मैंने शालीनता से कहा।
"अब हमारी सबसे महत्वपूर्ण बात सुनो।" पिता जी ने कहा____"और वो ये कि अब से तुम अपने गुस्से और ब्यौहार पर नियंत्रण रखोगे। अब हम मुखिया नहीं रहे इस लिए अपना हर काम तुम्हें सोच समझ कर ही करना होगा। हम ये हर्गिज़ नहीं चाहते कि तुम अपनी किसी ग़लत हरकत की वजह से किसी गहरी मुसीबत में फंस जाओ।"
"जी मैं इस बात का ख़याल रखूंगा।" मैंने कहा।
"साहूकारों के अथवा मुंशी के परिवार के किसी भी सदस्य से तुम कोई मतलब नहीं रखोगे।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए ठोस लहजे में कहा____"ये संभव है कि तुम्हारे उग्र स्वभाव के आधार पर वो तुम्हें उकसाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके द्वारा उकसाए जाने पर अगर तुम गुस्से में आ कर कोई ग़लत क़दम उठा लोगे तो ज़ाहिर है किसी न किसी मुसीबत में फंस जाओगे और तब वो पंचायत के फ़ैसले पर सवाल खड़ा करने लगेंगे। इस लिए हम चाहते हैं कि अगर इत्तेफ़ाक से तुम्हारा उन लोगों से सामना हो जाए और वो तुम्हें किसी तरह से उकसाने की कोशिश करें तो तुम उन्हें नज़रअंदाज़ कर के निकल जाओगे।"
"जी मैं समझ गया।" मैंने सिर हिलाया।
"अभी कहां जा रहे थे तुम?" पिता जी ने पूछा।
"बस यूं ही मन बहलाने के लिए बाहर जाना चाहता था।" मैंने कहा।
"मत भूलो कि ख़तरा अभी टला नहीं है।" पिता जी ने कहा____"हमारी जान का एक ऐसा दुश्मन बाहर कहीं भटक रहा है जो खुद को हर किसी से छिपा के रखता है। हमारा मतलब उस रहस्यमय सफ़ेदपोश से है जो कई बार तुम्हें जान से मारने अथवा मरवाने की कोशिश कर चुका है।"
"हे भगवान! ये सब क्या हो रहा है?" सहसा मां बोल पड़ीं____"हमने तो कभी किसी के साथ कुछ बुरा नहीं किया फिर क्यों ऐसे लोग हमारी जान के दुश्मन बने हुए हैं?"
"इस दुनिया में बेवजह कुछ नहीं होता सुगंधा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"हर चीज़ के होने के पीछे कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। साहूकार और चंद्रकांत क्यों हमारी जान के दुश्मन थे इसकी वजह उस दिन पंचायत में उन दोनों ने सबको बताई थी। इसी तरह उस सफ़ेदपोश के पास भी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी जिसके चलते वो हमारे बेटे को जान से मारने पर आमादा है। हमने तो यही सोचा था कि सफ़ेदपोश जैसा रहस्यमय व्यक्ति साहूकारों में से या फिर मुंशी के घर वालों में से ही कोई होगा मगर उस दिन उन लोगों ने जब सफ़ेदपोश के बारे में अपनी अनभिज्ञता तथा किसी ताल्लुक से इंकार किया तो हमें बड़ी हैरानी हुई। हम सोच में पड़ गए थे कि अगर वो सफ़ेदपोश इन लोगों में से कोई नहीं है तो फिर आख़िर वो है कौन?"
"सच में ये बहुत ही बड़ी हैरानी की बात है पिता जी।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"आपकी तरह मैं भी यही समझता था कि वो उन लोगों में से ही कोई होगा मगर उन लोगों के इंकार ने मुझे भी हैरत में डाल दिया था। सोचने वाली बात है कि एक तरफ जहां साहूकार और मुंशी हमारे दुश्मन बने हुए थे और हमें ख़ाक में मिला देना चाहते थे वहीं दूसरी तरफ वो सफ़ेदपोश है जो सिर्फ मुझे जान से मारना चाहता है। हां पिता जी, उसने अब तक सिर्फ मुझे ही मारने अथवा मरवाने की कोशिश की है, जबकि मेरे अलावा उसने हवेली में किसी के भी साथ कुछ बुरा नहीं किया है। क्या आपको कुछ समझ में आ रहा है कि इसका क्या मतलब हो सकता है?"
"सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि वो सिर्फ तुम्हें ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझता है।" पिता जी ने कुछ सोचते हुए कहा____"और कदाचित इस हद तक नफ़रत भी करता है कि वो तुम्हें जान से ही मार देना चाहता है। सबसे पहले उसने तुम्हें बदनाम करने के लिए जगन को अपना हथियार बना कर उसके द्वारा उसके ही भाई की हत्या करवाई और उस हत्या का इल्ज़ाम तुम पर लगवाया। जब वो उसमें नाकाम रहा तो उसने अपने दो काले नकाबपोश आदमियों के द्वारा तुम पर जानलेवा हमला करवाया। इसे उसकी बदकिस्मती कहें या तुम्हारी अच्छी किस्मत कि उसकी इतनी कोशिशों के बाद भी वो तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया अथवा ये कहें कि वो तुम्हें जान से मारने में सफल नहीं हो पाया। हैरत की बात है कि जगन के अलावा उसने तुम्हारे दोस्तों यानि सुनील और चेतन को भी अपना मोहरा बना लिया। "
"आप सही कह रहे हैं।" मैं एकदम से ही चौंकते हुए बोल पड़ा____"सुनील और चेतन के बारे में तो मैं भूल ही गया था। माना कि वो दोनों सफ़ेदपोश के मोहरे बन गए हैं लेकिन हैं तो वो दोनों मेरे दोस्त ही। हमारे साथ इतना कुछ हो गया लेकिन वो दोनों एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए। क्या मुझसे मिलने से उन्हें उस सफ़ेदपोश ने ही रोका होगा? वैसे मुझे ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि ऐसे में वो खुद ही ये ज़ाहिर कर देगा कि वो दोनों उसके लिए काम करते हैं। यानि एक तरह से वो उन दोनों के साथ अपने संबंधों की ही पोल खोल देगा जोकि वो यकीनन किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहेगा। मतलब साफ है कि मेरे उन दोनों दोस्तों के मन में भी कुछ है जिसके चलते वो दोनों मुझसे मिलने नहीं आए।"
"अब तुम खुद सोचो कि उनके मन में ऐसा क्या हो सकता है?" पिता जी ने मेरी तरफ देखा____"क्या तुमने उनके साथ कुछ उल्टा सीधा किया है जिसके चलते वो इस हद तक तुम्हारे खिलाफ़ चले गए कि तुम्हें जान से मारने का प्रयास करने वाले उस सफ़ेदपोश का मोहरा ही बन गए?"
"जहां तक मुझे याद है।" मैंने सोचते हुए कहा___"मैंने उन दोनों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं किया है। हां ये ज़रूर है कि जब आपने मुझे निष्कासित कर दिया था और मैं चार महीने उस बंज़र जगह पर रहा था तो वो दोनों आख़िर में मुझसे मिलने आए थे। चार महीने में वो तब मुझसे मिलने आए थे जबकि मुझे आपके द्वारा वापस बुलाया जा रहा था। मुझे उन दोनों पर उस समय ये सोच कर बहुत गुस्सा आया था कि खुद को मेरा जिगरी दोस्त कहने वाले वो दोनों दोस्त मेरे मुश्किल वक्त में किसी दिन मुझसे मिलने नहीं आए थे और अब जबकि मैं हवेली लौट रहा हूं तो वो झट से मेरे पास आ गए। बस इसी गुस्से में मैंने उन दोनों को बहुत खरी खोटी सुनाई थी। इसके अलावा तो मैंने उनके साथ कुछ किया ही नहीं है।"
"कोई तो वजह ज़रूर है।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"जिसके चलते वो तुम्हारे खिलाफ़ हो कर उस सफ़ेदपोश व्यक्ति का मोहरा बन गए। ख़ैर सच का पता तो अब उनसे रूबरू होने के बाद ही चलेगा। हमें जल्द ही इस बारे में कोई क़दम उठाना होगा।"
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