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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 18 9.7%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 21 11.4%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 73 39.5%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 42 22.7%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.8%

  • Total voters
    185

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,222
113,744
354
अध्याय - 50
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....


"फिर तो हमें जल्द ही अपने कुछ भरोसे के आदमियों को उन पर नज़र रखने के काम पर लगा देना चाहिए पिता जी।" मैंने जोशपूर्ण भाव से कहा____"हमारे पास फिलहाल अपने असल दुश्मन तक पहुंचने का कोई रास्ता या सुराग़ नहीं है तो अगर इस तरह में हमारे हाथ कुछ लग जाता है तो ये बड़ी बात ही होगी।"


कुछ देर और इस संबंध में पिता जी से हमारी बातें हुईं उसके बाद हम दोनों भाई बैठक से चले गए। एक तरफ जहां मैं इस मामले से गंभीर सोच में डूब गया था वहीं दूसरी तरफ इस बात से खुश भी था कि मेरे बड़े भैया अब मेरे साथ थे और ऐसे मामले में वो भी हमारे साथ क़दम से क़दम मिला कर चल रहे थे।

अब आगे....


दोपहर का खाना खाने के बाद मैं और बड़े भैया एक साथ ही ऊपर अपने अपने कमरे की तरफ चले थे। जैसे ही हम दोनों ऊपर पहुंचे तो पीछे से विभोर के पुकारने पर हम दोनों ही ठिठक कर पलटे। हमने देखा विभोर और अजीत सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर ही आ रहे थे। ये पहली बार था जब उनमें से किसी ने मुझे पुकारा था। ख़ैर जल्दी ही वो दोनों ऊपर हमारे पास आ कर खड़े हो गए। दोनों हमसे नज़रें चुरा रहे थे।

"क्या बात है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए सामान्य भाव से पूछा____"कोई काम है मुझसे?"
"ज...जी भैया वो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।" विभोर ने झिझकते हुए धीमें स्वर में कहा तो मैंने कहा____"जो भी कहना है बेझिझक कहो और हां, मेरे सामने तुम्हें शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं चाहता हूं कि जो बीत गया है उसे भूल जाओ और एक नए सिरे से किंतु साफ़ नीयत के साथ अपने जीवन की शुरुआत करो। ख़ैर, अब बोलो क्या कहना चाहते हो मुझसे?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" विभोर ने दुखी भाव से कहा____"मैंने आपके साथ क्या क्या बुरा नहीं किया लेकिन इसके बाद भी आप मुझसे इतने अच्छे से बात कर रहे हैं और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हैं। पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब मेरे मन में आपके प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो गया था, उसके बाद तो जैसे मुझे किसी बात का होश ही नहीं रह गया था।"

"भूल जाओ वो सब बातें।" मैंने विभोर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"हर इंसान से ग़लतियां होती हैं। तुमने तो शायद पहली बार ही ऐसी ग़लती की थी जबकि मैंने तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं। ख़ैर अच्छी बात ये होनी चाहिए कि इंसान ऐसी ग़लतियां दुबारा न करे और कुछ ऐसा कर के दिखाए जिससे लोग उसकी वाह वाही करने लगें।"

"अब से हम दोनों ऐसा ही काम करेंगे वैभव भैया।" अजीत ने कहा____"अब से हम दोनों वही करेंगे जिससे आपका और हमारे खानदान का नाम ऊंचा हो। अब से हम किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देंगे, लेकिन उससे पहले हम अपनी बहन से माफ़ी मांगना चाहते हैं।"

"हां भैया।" विभोर ने कहा____"हमने अपनी मासूम सी बहन का बहुत दिल दुखाया है। अब जबकि हमें अपनी ग़लतियों का एहसास हुआ है तो ये भी एहसास हो रहा है कि हमने उसके साथ कितनी बड़ी ज़्यादती की है। ऊपर वाला हम जैसे भाई किसी बहन को न दे।"

"मुझे खुशी हुई कि तुम दोनों को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया है।" बड़े भैया ने कहा____"लेकिन सिर्फ एहसास होने बस से इंसान अच्छा नहीं बन जाता बल्कि उसके लिए उसे प्रायश्चित करना होता है और ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जिससे कि उस इंसान की अंतरात्मा खुश हो जाए जिसका उसने दिल दुखाया होता है। ख़ैर अब तुम जाओ और कुसुम से अपने किए की माफ़ी मांग लो। वैसे मुझे यकीन है कि वो तुम दोनों को बड़ी सहजता से माफ़ कर देगी क्योंकि हमारी बहन का दिल बहुत ही विशाल है।"

बड़े भैया के ऐसा कहने पर विभोर और अजीत ने अपनी अपनी आंखों के आंसू पोंछे और कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गए। उनके जाने के बाद हम दोनों एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा उठे। मैंने कुछ सोचते हुए भैया को एक अहम काम सौंपा और खुद वापस सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।

[][][][][]

मैं हवेली से निकल कर अपनी बुलेट से हाथी दरवाज़े के पास ही पहुंचा था कि मुझे मुंशी चंद्रकांत एक आदमी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही दोनों ने सलाम किया। मैंने कई दिनों बाद आज मुंशी को देखा था जिसके चलते मेरे मन में कई सारे सवाल खड़े हो गए थे।

"आज कल तो आप इर्द का चांद हो गए हैं मुंशी जी।" मैंने मोटर साईकिल उसके क़रीब ही खड़े कर के कहा____"काफ़ी दिन से आप कहीं नज़र ही नहीं आए।"

"मैं अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल गया हुआ था छोटे ठाकुर।" मुंशी ने अपनी खीसें निपोरते हुए कहा____"ठाकुर साहब की इजाज़त ले कर ही गया था। असल में बात ये थी कि मेरी समधन काफी बीमार थीं तो उन्हीं का हाल चाल देखने गया था। वैसे गया तो मैं एक दिन के लिए ही था क्योंकि यहां काम ही इतना था कि मुझे ज़्यादा समय तक कहीं रुकने की फुर्सत ही नहीं थी किंतु वहां से जल्दी वापस आ ही नहीं पाया। समधन ने ज़बरदस्ती रोके रखा ये कह कर कि कभी आते नहीं हैं तो कम से कम एक दो दिन तो सेवा करने का मौका मिलना ही चाहिए। बड़ी मुश्किल से वहां से छूटा तो एक दिन के लिए अपनी ससुराल चला गया। असल में कोमल बिटिया काफी समय से वहीं थी तो सोचा उसको भी घर ले आऊं। अभी घंटा भर पहले ही हम सब घर पहुंचे थे। थोड़ी देर आराम करने के बाद सीधा हवेली चला आया। डर रहा हूं कि कहीं ठाकुर साहब मेरे इस तरह अवकाश करने से नाराज़ ना हो गए हों।"

"चलिए कोई बात नहीं मुंशी जी।" मैं मन ही मन ये सोच कर थोड़ा खुश हो गया था कि मुंशी अपनी बेटी कोमल को उसकी ननिहाल से घर ले आया है, किंतु प्रत्यक्ष में बोला_____"जाइए पिता जी हवेली में ही हैं। मैं किसी काम से बाहर जा रहा हूं।"

मुंशी से विदा ले कर मैं आगे बढ़ चला। मैं सोच रहा था कि क्या मुंशी सच बोल रहा था अथवा झूठ? क्या वो सच में इतने दिनों से अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल में था या किसी और ही काम से गायब था? वैसे अभी तक मुंशी या उसके बेटे ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिसके चलते उन दोनों बाप बेटे पर शक किया जाए किंतु हालात ऐसे थे कि किसी पर भी अब भरोसा करने लायक नहीं रह गया था।

मुंशी की बहू रजनी का रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध था और ये मेरे लिए बड़ी ही हैरानी तथा सोचने की बात थी कि दोनों के बीच ऐसा संबंध कब और किन परिस्थितियों में बना होगा? रजनी से मेरे भी संबंध थे और रजनी से ही बस क्यों बल्कि उसकी सास प्रभा से भी थे लेकिन जाने क्यों मेरा दिल अब रजनी पर भरोसा करने से इंकार कर रहा था। क्या वो रूपचंद्र के साथ मिल कर मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी या फिर रूपचंद्र से उसका संबंध सिर्फ़ मज़े लेने तक ही सीमित था? वैसे पहली बार जब मैंने उसे छुप कर रूपचंद्र के साथ संबंध बनाते देखा था तब वो जिस तरह से रूपचंद्र को अपनी बातों से जला रही थी उससे तो यही लगता था कि वो मन से रूपचंद्र के साथ नहीं है। रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध बनाना ज़रूर उसकी मजबूरी ही होगी। रूपचंद्र इस मामले में कितना कमीना था ये मुझसे बेहतर भला कौन जानता था? मैं इस बारे में जितना सोच रहा था उतना ही मुझे लगता जा रहा था कि रजनी मजबूरी में ही रूपचंद्र के साथ जिस्मानी संबंध बनाए हुए होगी। हालाकि औरत का भेद तो ऊपर वाला भी नहीं जान सकता लेकिन रजनी मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी ये बात मुझे हजम नहीं हो रही थी।

जल्दी ही मैं साहूकारों के घर के सामने पहुंच गया। सड़क के किनारे ही एक पीपल का पेड़ था जिसमें पक्का चबूतरा बना हुआ था किंतु इस वक्त वो खाली था। कड़ाके की धूप थी इस लिए दोपहर में कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता था। मैंने कुछ पल सोचा और साहूकारों के घर की तरफ बुलेट को मोड़ दी। लोहे का गेट खुला हुआ था इस लिए मैं फ़ौरन ही लंबे चौड़े लॉन से होते हुए उनके मुख्य द्वार पर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ जैसे ही बंद हुई तो दरवाज़ा खुला और जिस शख्सियत पर मेरी नज़र पड़ी उसे तो बस देखता ही रह गया।

दरवाज़े के बीचों बीच दोनों पल्लों को पकड़े रूपचंद्र की बहन रूपा खड़ी थी। उसके गोरे बदन पर हल्के सुर्ख रंग का लिबास था जिसमें वो बेहद खूबसूरत दिख रही थी। चांद की तरह खिला हुआ चेहरा मुझे देखते ही हल्का गुलाबी सा पड़ गया था। कुछ पलों के लिए यूं लगा जैसे वक्त अपनी जगह पर ठहर गया हो। मैं उसे देख कर हल्के से मुस्कुराया तो जैसे उसकी तंद्रा टूटी और वो एकदम से हड़बड़ा गई। मैं उसे यूं हड़बड़ा गया देख कर हल्के से हंसा और फिर उसी की तरफ बढ़ा। मुझे अपनी तरफ बढ़ता देख उसके चेहरे पर एकदम से घबराहट के भाव उभर आए, तभी अंदर से किसी की आवाज़ आई।

"अगर किस्मत में ऐसे ही हर रोज़ इस चांद का दीदार होना लिख जाए।" मैंने रूपा के क़रीब पहुंचते ही किसी गए गुज़रे हुए आशिक़ों की तरह आहें भरते हुए कहा____"तो बंदा दुनिया के हर ज़ुल्मो सितम को सह कर भी हुस्न वालों की दहलीज़ पर दौड़ता हुआ आएगा। क़सम से तुम्हें देखने के बाद अब अगर मौत भी आ जाए तो ग़म न होगा।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" रूपा ने बहुत ही धीमें स्वर में किंतु शर्माते हुए कहा तो मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा_____"कोई शक है क्या?"

"कौन आया है रूपा?" अंदर से एक बार फिर किसी औरत की आवाज़ आई तो हम दोनों ही हड़बड़ा गए और मैं उससे थोड़ा दूर खड़ा हो गया।
"हवेली से कोई आया है मां।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए किंतु मुस्कुराते हुए कहा____"लगता है रास्ता भटक गया है।"

"ये तो ज़ुल्म है यार।" मैंने धीमें स्वर में कहा____"जान बूझ कर अजनबी बना दिया मुझे जबकि होना तो ये चाहिए था कि चीख चीख कर सबको बताती कि एक दीवाना आया है तुम्हारा।"

"हां, ताकि मेरे घर वाले मेरे जिस्म की बोटी बोटी कर के चील कौवों को खिला दें।" रूपा ने आंखें दिखाते हुए किंतु मुस्कुरा कर कहा____"बड़े आए एक दीवाना आया है बोलवाने वाले... हुह!"

"आज शाम को मंदिर में मिलो।" मैंने अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करते हुए कहा तो उसने आंखें सिकोड़ते हुए कहा____"क्यों...क्यों मिलूं भला?"
"अपनी देवी के दर्शन करने हैं मुझे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"और दर्शन के साथ साथ देवी की पूजा भी करनी है। उसके बाद अगर देवी मेरी पूजा से प्रसन्न हो जाए तो वो मुझे मीठा मीठा प्रसाद भी दे सकती है।"

रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी अंदर से आती हुई एक औरत दिखी जिससे मैं थोड़ा और दूर खड़ा हो गया। मैंने रूपा को भी इशारा कर दिया कि उसके पीछे कोई आ रहा है। कुछ ही पलों में अंदर से आने वाली औरत रूपा के पास पहुंच गई। शायद वही उसकी मां ललिता थी। उन्हें देख कर मैंने बड़े आदर भाव से हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया।

"बाहर क्यों खड़े हो वैभव बेटा अंदर आओ ना।" रूपा की मां ललिता देवी ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"ये लड़की भी ना, एक भी अक्ल नहीं है इसमें। देखो तो घर आए मेहमान को अंदर आने के लिए भी नहीं कहा। जाने कब अक्ल आएगी इसे?"

"मैं मेहमान नहीं हूं काकी।" मैंने नम्र भाव से कहा____"मैं तो आपका बेटा हूं और ये घर भी तो मेरा ही है। क्या इतना जल्दी मुझे पराया कर दिया आपने?"

"अरे! नहीं नहीं बेटा।" ललिता देवी एकदम से हड़बड़ा गईं, फिर सम्हल कर बोलीं____"ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुमने सच कहा ये तुम्हारा ही घर है और तुम मेरे बेटे ही हो। अब चलो बातें छोड़ो और अंदर आओ।"

"माफ़ करना काकी।" मैंने कहा____"अभी अंदर नहीं आऊंगा। असल में किसी काम से जा रहा था तो सोचा काका लोगों से मिल कर उनका आशीर्वाद ले लूं और सबका हाल चाल भी पूंछ लूं लेकिन लगता है कि काका लोग अंदर हैं नहीं?"

"हां तुमने सही कहा बेटा।" ललिता देवी ने कहा____"असल में घर के सभी मर्द और बच्चे हमारी जेठानी की लड़की आरती के लिए एक जगह लड़का देखने गए हुए हैं। सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रिश्ता पक्का हो जाएगा और फिर जल्दी ही ब्याह के लिए लग्न भी बन जाएगी।"

"अरे वाह! ये तो बहुत ही खुशी की बात है काकी।" मैंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"जल्द ही इस घर में शहनाईयां बजेंगी। मैं तो कहता हूं काकी कि घर की सभी लड़कियों का ब्याह कर के जल्द से जल्द उनकी छुट्टी कर दो आप और मेरे भाईयों का ब्याह कर के नई नई बहुएं ले आओ।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रूपा अपनी मां के सामने ही एकदम से बोल पड़ी____"हम लड़कियां क्या अपने मां बाप के लिए बोझ बनी हुई हैं जो वो जल्दी से हमारा ब्याह कर के इस घर से हमारी छुट्टी कर दें?"

"देखिए ऐसा है कि दुनिया के कोई भी माता पिता अपनी लड़कियों से ये नहीं कहते कि उनकी लड़कियां उनके लिए बोझ हैं।" मैंने रूपा को छेड़ने के इरादे से मुस्कुराते हुए कहा____"जबकि सच तो यही होता है कि लड़कियां सच में अपने माता पिता के लिए बोझ ही होती हैं। मैं सही कह रहा हूं ना काकी?"

"हां बेटा, बहुत हद तक तुम्हारी ये बात सही है।" ललिता देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"लड़कियां उन माता पिता के लिए यकीनन बोझ जैसी ही होती हैं जो अपनी लड़कियों का ब्याह कर पाने में समर्थ नहीं होते। जिनके घर में खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं होती और अपनी जवान बेटियों के तन को ढंकने के लिए कपड़े नहीं होते। ऐसे माता पिता के लिए लड़कियां न चाहते हुए भी बोझ सी ही लगने लगती हैं।"

जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे इस मामले की बात शुरू हो जाने से माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया है इस लिए मैंने काकी से बाद में आने का कह कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे विदा ले कर वापस चल पड़ा। काकी से नज़र बचा कर मैंने एक बार फिर से रूपा को आज शाम मंदिर में मिलने का इशारा कर दिया था। मुझे यकीन था रूपा मुझसे मिलने के लिए मंदिर ज़रूर आएगी।

एक बार फिर से मैं बुलेट में बैठ कर आगे बढ़ चला। मुंशी के घर के पास पहुंच कर मैंने एक नज़र उस तरफ देखा और फिर आगे बढ़ गया। काफी समय से मैं अपने नए निर्माण हो रहे मकान की तरफ नहीं जा पाया था। इस लिए मैं तेज़ रफ़्तार में उस तरफ बढ़ता चला जा रहा था। जिस तरफ मेरा मकान बन रहा था वहां पर जाने के लिए मुख्य सड़क से बाएं तरफ मुड़ना होता था। कुछ दूरी से बंजर ज़मीन शुरू हो जाती थी। पथरीली ज़मीन पर कई तरह के पेड़ पौधे भी थे। हालाकि पथरीली ज़मीन का क्षेत्रफल ज़्यादा नही था। यूं तो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने के लिए मुख्य सड़क थी किंतु एक पगडंडी वाला रास्ता भी मुरारी के गांव की तरफ जाता था जो कि वहीं से हो कर गुज़रता था जिस तरफ मेरा नया मकान बन रहा था।

कुछ ही देर में मैं उस जगह पहुंच गया जहां पर मेरा मकान बन रहा था। मकान भुवन की निगरानी में बन रहा था इस लिए वो वहीं मौजूद था। मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और मकान के कार्य के बारे में सब कुछ बताने लगा।

"शहर से जिन लोगों को बुलाया था वो अपना काम कर रहे हैं ना?" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"हां छोटे ठाकुर, आपके कहे अनुसार वो लोग रात में बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं और इस बात का पता मेरे और आपके अलावा किसी और को बिल्कुल भी नहीं है। यहां तक कि यहां के इन मजदूरों और मिस्त्रियों को भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि इसी मकान के नीचे गुप्त रूप से कोई तहखाना भी बनाया जा रहा है।"

"किसी को इस बात का आभास होना भी नहीं चाहिए भुवन।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"यहां तक कि दादा ठाकुर तथा जगताप चाचा को भी नहीं। यूं समझो कि इस बात को तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए अपने सीने में ही राज़ बना के दफ़न कर लेना है।"

"जी मैं समझ गया छोटे ठाकुर।" भुवन ने सिर हिलाते हुए कहा____"मैं अपना सिर कटा दूंगा लेकिन इस बारे में किसी को भी पता नहीं लगने दूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" मैंने भुवन के कंधे को अपने हाथ से थपथपाते हुए कहा____"ख़ैर, और भी कुछ ऐसा है जो तुम्हें बताना चाहिए मुझे?"

"पिछले एक हफ्ते से तो हवेली का कोई भी सदस्य इस तरफ नहीं आया है।" भुवन ने कहा____"लेकिन दो दिन पहले आपके दो मित्र यहां आए थे और यहां के बारे में पूछ रहे थे। ये भी पूछा कि आप आज कल कहां गायब रहते हैं?"

"मेरे तो दो ही मित्र ऐसे हैं जो बचपन से मेरे साथ रहे हैं।" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए किंतु सोचने वाले भाव से कहा____"चेतन और सुनील। क्या यही दोनों आए थे यहां?"
"हां हां छोटे ठाकुर।" भुवन एकदम से बोल पड़ा____"दोनों एक दूसरे का यही नाम ले रहे थे।"

भुवन से मैंने कुछ देर और बात की उसके बाद उसे सतर्क रहने का बोल कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैं सोच रहा था कि चेतन और सुनील यहां किस लिए आए होंगे और मेरे बारे में क्यों पूछ रहे थे? अगर उन्हें मुझसे मिलना ही था तो वो सीधा हवेली ही आ सकते थे। उन दोनों का तो हमेशा से ही हवेली में आना जाना रहा है। हालाकि इधर जब मुझे तड़ीपार कर दिया गया था तब वो कभी मुझसे मिलने इस जगह पर नहीं आए थे। ख़ैर मुझे याद आया कि मैंने उन दोनों को जासूसी करने का काम सौंपा था किंतु तब से ले कर अब तक में वो दोनों मुझसे मिले ही नहीं थे। दोनों मेरे बचपन के मित्र थे और हमने साथ में जाने क्या क्या कांड किए थे लेकिन अब हमारे बीच वैसा जुड़ाव नहीं रह गया था। एकदम से मुझे लगने लगा कि कहीं वो दोनों भी किसी फ़िराक में तो नहीं हैं? काफी दिनों से मेरी उन दोनों से मुलाक़ात नहीं हुई थी। मैं तो ख़ैर क‌ई सारे झमेलों में फंसा हुआ था लेकिन वो भला किस झमेले में फंसे हुए थे कि एक बार भी मुझसे मिलने हवेली नहीं आए। ये सब सोचते सोचते मुझे आभास होने लगा कि दाल में कुछ तो काला ज़रूर है। दोनों की गांड तोड़नी पड़ेगी अब, तभी सच सामने आएगा।

सोचते विचारते मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया। बुलेट का इंजन बंद कर के जैसे ही मैं दरवाज़े के पास आया तो दरवाज़ा खुला। आज का दिन कदाचित बहुत ही बढ़िया था। उधर साहूकार के घर का दरवाज़ा जब खुला था तो एक खूबसूरत चेहरा नज़र आया था और अब मुरारी के घर का दरवाज़ा खुला तो अनुराधा की हल्की सांवली सूरत नज़र आ गई। एक ऐसी सूरत जिसमें दुनिया जहान की मासूमियत, भोलापन और सादगी कूट कूट कर भरी हुई थी। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर एक ख़ास तरह की चमक के साथ साथ हल्की शर्म की लाली भी उभर आई थी।

"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने मुस्कुराते हुए उसे छेड़ने के इरादे से धीमी आवाज़ में कहा तो वो एकदम शर्म से सिमट गई। गुलाबी होठों पर थिरक रही मुस्कान पलक झपकते ही गहरी पड़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर धीमें स्वर में कहा____"आप क्यों बार बार मुझे ठकुराईन कहते हैं?"

"क्यों न कहूं?" मैंने उसे और छेड़ा____"आख़िर तुम हो तो ठकुराईन ही। अगर तुम्हें मेरे द्वारा ठकुराईन कहने पर ज़रा सा भी एतराज़ होता तो तुम्हारे होठों पर इस तरह मुस्कान न उभर आती।"

"तो क्या चाहते हैं आप कि मैं आपके द्वारा ठकुराईन कहने पर आप पर गुस्सा हुआ करूं?" अनुराधा ने अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा था।

"क्यों नहीं।" मैंने उसकी गहरी आंखों में देखा____"तुम्हें मुझ पर गुस्सा होने का पूरा हक़ है। तुम मेरी डंडे से पिटाई भी कर सकती हो।"

"धत्त! ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, फिर शर्माते हुए बोली____"मैं भला कैसे आपकी पिटाई कर सकती हूं?"
"क्यों नहीं कर सकती?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें पूरा हक़ है मेरी पिटाई करने का।"

"न जी न।" अनुराधा शरमा कर दरवाज़े से एक तरफ हट गई, फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए बोली____"मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती।"
"काकी नहीं है क्या अंदर?" मैंने अंदर आंगन की तरफ नज़र डालते हुए पूछा तो अनुराधा ने ना में सिर हिला दिया।

मैं ये जान कर बेहद खुश हुआ कि सरोज काकी घर में नहीं है। वो दरवाज़े से हट गई थी, ज़ाहिर है वो चाहती थी कि मैं घर के अंदर आऊं वरना वो शुरू में ही मुझे बता देती और अपने बर्ताव से ये भी ज़ाहिर कर देती कि उसकी मां के न होने पर मैं अंदर न आऊं। ख़ैर, मैं अंदर आया तो अनुराधा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर दिया।

"अच्छा तो इसी लिए तुम इतना बेझिझक हो कर मुझसे बातें कर रही थी।" मैंने आंगन के पार बरामदे में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"और मुझ अकेले लड़के को छेड़ रही थी। आने दो काकी को, मैं काकी को बताऊंगा कि कैसे तुम मुझ मासूम को अकेला देख कर मुझे छेड़ रही थी।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा बुरी तरह चकित हो कर बोली____"मैंने कब छेड़ा आपको और ये क्या कहा आपने कि आप मासूम हैं? भला कहां से मासूम लगते हैं आप?"

"बोलती रहो।" मैं मन ही मन हंसते हुए बोला____"सब कुछ बताऊंगा काकी को। ये भी कि तुम मुझे मासूम मानने से साफ़ इंकार कर रही थी।"

"अगर आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं आपसे कोई बात नहीं करूंगी।" अनुराधा के चेहरे पर इस बार मैंने घबराहट के भाव देखे। शायद वो मेरी इस बात को सच मान बैठी थी कि मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।

"कमाल है।" मैंने उसके मासूम से चेहरे पर छा गई घबराहट को देखते हुए कहा____"कैसी ठकुराईन हो तुम जो मेरी इतनी सी बात पर इस क़दर घबरा गई?"

"मैं कोई ठकुराईन वकुराईन नहीं हूं समझे आप?" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"और हां अब मुझे आपसे कोई बात नहीं करना। आप जाइए यहां से, वैसे भी अगर मां आ गई और उसने मुझे आपके साथ यूं अकेले में देख लिया तो मेरी ख़ैर नहीं होगी।"

"ओह! तो मेरी अनुराधा रूठ गई है मुझसे?" जाने कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा निकल गया, जिसका आभास होते ही मेरी धड़कनें एकदम से तेज़ हो गईं और मैं अनुराधा की तरफ देखने लगा। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। वो आंखें फाड़े मेरी तरफ देखने लगी थी, किंतु जल्दी ही सम्हली और फिर बोली____"ये क्या कह रहे हैं आप? मैं आपकी अनुराधा कैसे हो गई?"

"पता नहीं कैसे मेरे मुख से निकल गया?" मैंने अपनी घबराहट को दबाने का प्रयास करते हुए कहा____"वैसे क्या तुम्हें मेरी अनुराधा कह देने पर एतराज़ है?"

"हां बिलकुल एतराज़ है मुझे।" अनुराधा के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे____"मैं सिर्फ़ अपने माता पिता की अनुराधा हूं किसी और की नहीं। अगर आप ये समझते हैं कि आप बाकी लड़कियों की तरह मुझे भी अपने जाल में फंसा लेंगे तो ये आपकी सबसे बड़ी भूल है छोटे ठाकुर।"

मैं अनुराधा के चेहरे पर मौजूद भावों को देख कर एकदम से हैरान रह गया था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि वो मेरी इस बात से इस हद तक बिदक जाएगी। मुझे समझ न आया कि जो अनुराधा मुझे देखते ही शर्माने और मुस्कुराने लगती थी वो मेरी इतनी सी बात से इस तरह कैसे बर्ताव कर सकती थी? वैसे सच कहूं तो हैरान मैं खुद भी अपने आप पर हुआ था कि यूं अचानक से कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा जैसा संबोधन निकल गया था मगर अब जब निकल ही गया था तो मैं भला क्या ही कर सकता था?

"अब जल्दी से कोई डंडा खोज कर लाओ।" फिर मैंने बात को एक अलग ही दिशा में मोड़ने की गरज से कहा____"और उस डंडे से मेरी पिटाई करना शुरू कर दो।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर मानो उलझ गई तो मैंने उसे समझाते हुए कहा____"सही तो कह रहा हूं मैं। कुछ देर पहले मैंने तुमसे कहा था ना कि अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें मेरी पिटाई करने का पूरा हक़ है। अब क्योंकि मैंने ग़लती की है तो इसके लिए तुम्हें डंडे से मेरी पिटाई करनी चाहिए।"

"बातें मत बनाइए।" अनुराधा ने कहा____"सब समझती हूं मैं। अगर आपके मन में मेरे प्रति यही सब है तो चले जाइए यहां से। अनुराधा वो लड़की हर्गिज़ नहीं है जो आपके जाल में फंस जाएगी। हम ग़रीब ज़रूर हैं छोटे ठाकुर लेकिन अपनी जान से भी ज्यादा हमें अपनी इज्ज़त प्यारी है।"

"तो फिर ये भी जान लो अनुराधा कि तुम्हारी इज्ज़त मुझे भी खुद अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।" अनुराधा की बातें सुन कर जाने क्यों मेरे दिल में एक टीस सी उभर आई थी, बोला____"मैं खुद मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन तुम्हारी इज्ज़त पर किसी भी कीमत पर दाग़ नहीं लगा सकता और ना ही किसी के द्वारा लगने दे सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरा चरित्र ही ऐसा है कि किसी को भी मेरी किसी सच्चाई पर यकीन नही हो सकता लेकिन एक बात तुम अच्छी तरह समझ लो अनुराधा कि मैं चाहे सारी दुनिया को दाग़दार कर दूं लेकिन तुम पर दाग़ लगाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं कि तुम वो लड़की हो जिसने मेरे मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और मुझे खुशी है कि तुमने मेरा कायाकल्प कर दिया है। तुमसे हसी मज़ाक करता हूं तो एक अलग ही तरह का एहसास होता है। मेरे मन में अगर ग़लती से भी तुम्हारे प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो मैं अपने आपको कोसने लगता हूं। ख़ैर, मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं देना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

मैं ये सब बोलने के बाद एक झटके से चारपाई से उठा और अनुराधा की तरफ देखे बिना ही तेज़ कदमों के द्वारा आंगन से होते हुए घर से बाहर निकल गया। इस वक्त मेरे अंदर एक आंधी सी चल रही थी। दिल में सागर की लहरों की तरह जज़्बात मानों बेकाबू हो कर हिलोरे मार रहे थे। मैं अपनी बुलेट पर बैठा और उसे स्टार्ट कर तेज़ी से आगे बढ़ गया। जैसे जैसे अनुराधा का घर पीछे छूटता जा रहा था वैसे वैसे मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरा एक खूबसूरत संसार मुझसे बहुत दूर होता जा रहा है। दिलो दिमाग़ पर मचलते तूफान को बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मैं आगे बढ़ा चला जा रहा था।

जिस तरफ मेरे नए बन रहे मकान के लिए रास्ता जा रहा था उस तरफ न जा कर मैं हवेली जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ चला। कच्चा पगडंडी वाला रास्ता था जिसके दोनों तरफ कुछ बड़े बड़े पेड़ थे। मैं जैसे ही उन पेड़ों के थोड़ा पास पहुंचा तो एकदम से दो आदमी उन पेड़ों से निकल कर सड़क के किनारे खड़े हो गए। दोनों के हाथ में मजबूत लट्ठ मौजूद था।

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अब तक....


"फिर तो हमें जल्द ही अपने कुछ भरोसे के आदमियों को उन पर नज़र रखने के काम पर लगा देना चाहिए पिता जी।" मैंने जोशपूर्ण भाव से कहा____"हमारे पास फिलहाल अपने असल दुश्मन तक पहुंचने का कोई रास्ता या सुराग़ नहीं है तो अगर इस तरह में हमारे हाथ कुछ लग जाता है तो ये बड़ी बात ही होगी।"

कुछ देर और इस संबंध में पिता जी से हमारी बातें हुईं उसके बाद हम दोनों भाई बैठक से चले गए। एक तरफ जहां मैं इस मामले से गंभीर सोच में डूब गया था वहीं दूसरी तरफ इस बात से खुश भी था कि मेरे बड़े भैया अब मेरे साथ थे और ऐसे मामले में वो भी हमारे साथ क़दम से क़दम मिला कर चल रहे थे।


अब आगे....


दोपहर का खाना खाने के बाद मैं और बड़े भैया एक साथ ही ऊपर अपने अपने कमरे की तरफ चले थे। जैसे ही हम दोनों ऊपर पहुंचे तो पीछे से विभोर के पुकारने पर हम दोनों ही ठिठक कर पलटे। हमने देखा विभोर और अजीत सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर ही आ रहे थे। ये पहली बार था जब उनमें से किसी ने मुझे पुकारा था। ख़ैर जल्दी ही वो दोनों ऊपर हमारे पास आ कर खड़े हो गए। दोनों हमसे नज़रें चुरा रहे थे।

"क्या बात है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए सामान्य भाव से पूछा____"कोई काम है मुझसे?"
"ज...जी भैया वो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।" विभोर ने झिझकते हुए धीमें स्वर में कहा तो मैंने कहा____"जो भी कहना है बेझिझक कहो और हां, मेरे सामने तुम्हें शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं चाहता हूं कि जो बीत गया है उसे भूल जाओ और एक नए सिरे से किंतु साफ़ नीयत के साथ अपने जीवन की शुरुआत करो। ख़ैर, अब बोलो क्या कहना चाहते हो मुझसे?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" विभोर ने दुखी भाव से कहा____"मैंने आपके साथ क्या क्या बुरा नहीं किया लेकिन इसके बाद भी आप मुझसे इतने अच्छे से बात कर रहे हैं और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हैं। पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब मेरे मन में आपके प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो गया था, उसके बाद तो जैसे मुझे किसी बात का होश ही नहीं रह गया था।"

"भूल जाओ वो सब बातें।" मैंने विभोर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"हर इंसान से ग़लतियां होती हैं। तुमने तो शायद पहली बार ही ऐसी ग़लती की थी जबकि मैंने तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं। ख़ैर अच्छी बात ये होनी चाहिए कि इंसान ऐसी ग़लतियां दुबारा न करे और कुछ ऐसा कर के दिखाए जिससे लोग उसकी वाह वाही करने लगें।"

"अब से हम दोनों ऐसा ही काम करेंगे वैभव भैया।" अजीत ने कहा____"अब से हम दोनों वही करेंगे जिससे आपका और हमारे खानदान का नाम ऊंचा हो। अब से हम किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देंगे, लेकिन उससे पहले हम अपनी बहन से माफ़ी मांगना चाहते हैं।"

"हां भैया।" विभोर ने कहा____"हमने अपनी मासूम सी बहन का बहुत दिल दुखाया है। अब जबकि हमें अपनी ग़लतियों का एहसास हुआ है तो ये भी एहसास हो रहा है कि हमने उसके साथ कितनी बड़ी ज़्यादती की है। ऊपर वाला हम जैसे भाई किसी बहन को न दे।"

"मुझे खुशी हुई कि तुम दोनों को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया है।" बड़े भैया ने कहा____"लेकिन सिर्फ एहसास होने बस से इंसान अच्छा नहीं बन जाता बल्कि उसके लिए उसे प्रायश्चित करना होता है और ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जिससे कि उस इंसान की अंतरात्मा खुश हो जाए जिसका उसने दिल दुखाया होता है। ख़ैर अब तुम जाओ और कुसुम से अपने किए की माफ़ी मांग लो। वैसे मुझे यकीन है कि वो तुम दोनों को बड़ी सहजता से माफ़ कर देगी क्योंकि हमारी बहन का दिल बहुत ही विशाल है।"

बड़े भैया के ऐसा कहने पर विभोर और अजीत ने अपनी अपनी आंखों के आंसू पोंछे और कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गए। उनके जाने के बाद हम दोनों एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा उठे। मैंने कुछ सोचते हुए भैया को एक अहम काम सौंपा और खुद वापस सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।


[][][][][]

मैं हवेली से निकल कर अपनी बुलेट से हाथी दरवाज़े के पास ही पहुंचा था कि मुझे मुंशी चंद्रकांत एक आदमी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही दोनों ने सलाम किया। मैंने कई दिनों बाद आज मुंशी को देखा था जिसके चलते मेरे मन में कई सारे सवाल खड़े हो गए थे।

"आज कल तो आप इर्द का चांद हो गए हैं मुंशी जी।" मैंने मोटर साईकिल उसके क़रीब ही खड़े कर के कहा____"काफ़ी दिन से आप कहीं नज़र ही नहीं आए।"

"मैं अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल गया हुआ था छोटे ठाकुर।" मुंशी ने अपनी खीसें निपोरते हुए कहा____"ठाकुर साहब की इजाज़त ले कर ही गया था। असल में बात ये थी कि मेरी समधन काफी बीमार थीं तो उन्हीं का हाल चाल देखने गया था। वैसे गया तो मैं एक दिन के लिए ही था क्योंकि यहां काम ही इतना था कि मुझे ज़्यादा समय तक कहीं रुकने की फुर्सत ही नहीं थी किंतु वहां से जल्दी वापस आ ही नहीं पाया। समधन ने ज़बरदस्ती रोके रखा ये कह कर कि कभी आते नहीं हैं तो कम से कम एक दो दिन तो सेवा करने का मौका मिलना ही चाहिए। बड़ी मुश्किल से वहां से छूटा तो एक दिन के लिए अपनी ससुराल चला गया। असल में कोमल बिटिया काफी समय से वहीं थी तो सोचा उसको भी घर ले आऊं। अभी घंटा भर पहले ही हम सब घर पहुंचे थे। थोड़ी देर आराम करने के बाद सीधा हवेली चला आया। डर रहा हूं कि कहीं ठाकुर साहब मेरे इस तरह अवकाश करने से नाराज़ ना हो गए हों।"

"चलिए कोई बात नहीं मुंशी जी।" मैं मन ही मन ये सोच कर थोड़ा खुश हो गया था कि मुंशी अपनी बेटी कोमल को उसकी ननिहाल से घर ले आया है, किंतु प्रत्यक्ष में बोला_____"जाइए पिता जी हवेली में ही हैं। मैं किसी काम से बाहर जा रहा हूं।"

मुंशी से विदा ले कर मैं आगे बढ़ चला। मैं सोच रहा था कि क्या मुंशी सच बोल रहा था अथवा झूठ? क्या वो सच में इतने दिनों से अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल में था या किसी और ही काम से गायब था? वैसे अभी तक मुंशी या उसके बेटे ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिसके चलते उन दोनों बाप बेटे पर शक किया जाए किंतु हालात ऐसे थे कि किसी पर भी अब भरोसा करने लायक नहीं रह गया था।

मुंशी की बहू रजनी का रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध था और ये मेरे लिए बड़ी ही हैरानी तथा सोचने की बात थी कि दोनों के बीच ऐसा संबंध कब और किन परिस्थितियों में बना होगा? रजनी से मेरे भी संबंध थे और रजनी से ही बस क्यों बल्कि उसकी सास प्रभा से भी थे लेकिन जाने क्यों मेरा दिल अब रजनी पर भरोसा करने से इंकार कर रहा था। क्या वो रूपचंद्र के साथ मिल कर मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी या फिर रूपचंद्र से उसका संबंध सिर्फ़ मज़े लेने तक ही सीमित था? वैसे पहली बार जब मैंने उसे छुप कर रूपचंद्र के साथ संबंध बनाते देखा था तब वो जिस तरह से रूपचंद्र को अपनी बातों से जला रही थी उससे तो यही लगता था कि वो मन से रूपचंद्र के साथ नहीं है। रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध बनाना ज़रूर उसकी मजबूरी ही होगी। रूपचंद्र इस मामले में कितना कमीना था ये मुझसे बेहतर भला कौन जानता था? मैं इस बारे में जितना सोच रहा था उतना ही मुझे लगता जा रहा था कि रजनी मजबूरी में ही रूपचंद्र के साथ जिस्मानी संबंध बनाए हुए होगी। हालाकि औरत का भेद तो ऊपर वाला भी नहीं जान सकता लेकिन रजनी मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी ये बात मुझे हजम नहीं हो रही थी।

जल्दी ही मैं साहूकारों के घर के सामने पहुंच गया। सड़क के किनारे ही एक पीपल का पेड़ था जिसमें पक्का चबूतरा बना हुआ था किंतु इस वक्त वो खाली था। कड़ाके की धूप थी इस लिए दोपहर में कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता था। मैंने कुछ पल सोचा और साहूकारों के घर की तरफ बुलेट को मोड़ दी। लोहे का गेट खुला हुआ था इस लिए मैं फ़ौरन ही लंबे चौड़े लॉन से होते हुए उनके मुख्य द्वार पर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ जैसे ही बंद हुई तो दरवाज़ा खुला और जिस शख्सियत पर मेरी नज़र पड़ी उसे तो बस देखता ही रह गया।

दरवाज़े के बीचों बीच दोनों पल्लों को पकड़े रूपचंद्र की बहन रूपा खड़ी थी। उसके गोरे बदन पर हल्के सुर्ख रंग का लिबास था जिसमें वो बेहद खूबसूरत दिख रही थी। चांद की तरह खिला हुआ चेहरा मुझे देखते ही हल्का गुलाबी सा पड़ गया था। कुछ पलों के लिए यूं लगा जैसे वक्त अपनी जगह पर ठहर गया हो। मैं उसे देख कर हल्के से मुस्कुराया तो जैसे उसकी तंद्रा टूटी और वो एकदम से हड़बड़ा गई। मैं उसे यूं हड़बड़ा गया देख कर हल्के से हंसा और फिर उसी की तरफ बढ़ा। मुझे अपनी तरफ बढ़ता देख उसके चेहरे पर एकदम से घबराहट के भाव उभर आए, तभी अंदर से किसी की आवाज़ आई।

"अगर किस्मत में ऐसे ही हर रोज़ इस चांद का दीदार होना लिख जाए।" मैंने रूपा के क़रीब पहुंचते ही किसी गए गुज़रे हुए आशिक़ों की तरह आहें भरते हुए कहा____"तो बंदा दुनिया के हर ज़ुल्मो सितम को सह कर भी हुस्न वालों की दहलीज़ पर दौड़ता हुआ आएगा। क़सम से तुम्हें देखने के बाद अब अगर मौत भी आ जाए तो ग़म न होगा।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" रूपा ने बहुत ही धीमें स्वर में किंतु शर्माते हुए कहा तो मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा_____"कोई शक है क्या?"

"कौन आया है रूपा?" अंदर से एक बार फिर किसी औरत की आवाज़ आई तो हम दोनों ही हड़बड़ा गए और मैं उससे थोड़ा दूर खड़ा हो गया।
"हवेली से कोई आया है मां।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए किंतु मुस्कुराते हुए कहा____"लगता है रास्ता भटक गया है।"

"ये तो ज़ुल्म है यार।" मैंने धीमें स्वर में कहा____"जान बूझ कर अजनबी बना दिया मुझे जबकि होना तो ये चाहिए था कि चीख चीख कर सबको बताती कि एक दीवाना आया है तुम्हारा।"

"हां, ताकि मेरे घर वाले मेरे जिस्म की बोटी बोटी कर के चील कौवों को खिला दें।" रूपा ने आंखें दिखाते हुए किंतु मुस्कुरा कर कहा____"बड़े आए एक दीवाना आया है बोलवाने वाले... हुह!"

"आज शाम को मंदिर में मिलो।" मैंने अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करते हुए कहा तो उसने आंखें सिकोड़ते हुए कहा____"क्यों...क्यों मिलूं भला?"
"अपनी देवी के दर्शन करने हैं मुझे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"और दर्शन के साथ साथ देवी की पूजा भी करनी है। उसके बाद अगर देवी मेरी पूजा से प्रसन्न हो जाए तो वो मुझे मीठा मीठा प्रसाद भी दे सकती है।"

रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी अंदर से आती हुई एक औरत दिखी जिससे मैं थोड़ा और दूर खड़ा हो गया। मैंने रूपा को भी इशारा कर दिया कि उसके पीछे कोई आ रहा है। कुछ ही पलों में अंदर से आने वाली औरत रूपा के पास पहुंच गई। शायद वही उसकी मां ललिता थी। उन्हें देख कर मैंने बड़े आदर भाव से हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया।

"बाहर क्यों खड़े हो वैभव बेटा अंदर आओ ना।" रूपा की मां ललिता देवी ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"ये लड़की भी ना, एक भी अक्ल नहीं है इसमें। देखो तो घर आए मेहमान को अंदर आने के लिए भी नहीं कहा। जाने कब अक्ल आएगी इसे?"

"मैं मेहमान नहीं हूं काकी।" मैंने नम्र भाव से कहा____"मैं तो आपका बेटा हूं और ये घर भी तो मेरा ही है। क्या इतना जल्दी मुझे पराया कर दिया आपने?"

"अरे! नहीं नहीं बेटा।" ललिता देवी एकदम से हड़बड़ा गईं, फिर सम्हल कर बोलीं____"ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुमने सच कहा ये तुम्हारा ही घर है और तुम मेरे बेटे ही हो। अब चलो बातें छोड़ो और अंदर आओ।"

"माफ़ करना काकी।" मैंने कहा____"अभी अंदर नहीं आऊंगा। असल में किसी काम से जा रहा था तो सोचा काका लोगों से मिल कर उनका आशीर्वाद ले लूं और सबका हाल चाल भी पूंछ लूं लेकिन लगता है कि काका लोग अंदर हैं नहीं?"

"हां तुमने सही कहा बेटा।" ललिता देवी ने कहा____"असल में घर के सभी मर्द और बच्चे हमारी जेठानी की लड़की आरती के लिए एक जगह लड़का देखने गए हुए हैं। सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रिश्ता पक्का हो जाएगा और फिर जल्दी ही ब्याह के लिए लग्न भी बन जाएगी।"

"अरे वाह! ये तो बहुत ही खुशी की बात है काकी।" मैंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"जल्द ही इस घर में शहनाईयां बजेंगी। मैं तो कहता हूं काकी कि घर की सभी लड़कियों का ब्याह कर के जल्द से जल्द उनकी छुट्टी कर दो आप और मेरे भाईयों का ब्याह कर के नई नई बहुएं ले आओ।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रूपा अपनी मां के सामने ही एकदम से बोल पड़ी____"हम लड़कियां क्या अपने मां बाप के लिए बोझ बनी हुई हैं जो वो जल्दी से हमारा ब्याह कर के इस घर से हमारी छुट्टी कर दें?"

"देखिए ऐसा है कि दुनिया के कोई भी माता पिता अपनी लड़कियों से ये नहीं कहते कि उनकी लड़कियां उनके लिए बोझ हैं।" मैंने रूपा को छेड़ने के इरादे से मुस्कुराते हुए कहा____"जबकि सच तो यही होता है कि लड़कियां सच में अपने माता पिता के लिए बोझ ही होती हैं। मैं सही कह रहा हूं ना काकी?"

"हां बेटा, बहुत हद तक तुम्हारी ये बात सही है।" ललिता देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"लड़कियां उन माता पिता के लिए यकीनन बोझ जैसी ही होती हैं जो अपनी लड़कियों का ब्याह कर पाने में समर्थ नहीं होते। जिनके घर में खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं होती और अपनी जवान बेटियों के तन को ढंकने के लिए कपड़े नहीं होते। ऐसे माता पिता के लिए लड़कियां न चाहते हुए भी बोझ सी ही लगने लगती हैं।"

जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे इस मामले की बात शुरू हो जाने से माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया है इस लिए मैंने काकी से बाद में आने का कह कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे विदा ले कर वापस चल पड़ा। काकी से नज़र बचा कर मैंने एक बार फिर से रूपा को आज शाम मंदिर में मिलने का इशारा कर दिया था। मुझे यकीन था रूपा मुझसे मिलने के लिए मंदिर ज़रूर आएगी।

एक बार फिर से मैं बुलेट में बैठ कर आगे बढ़ चला। मुंशी के घर के पास पहुंच कर मैंने एक नज़र उस तरफ देखा और फिर आगे बढ़ गया। काफी समय से मैं अपने नए निर्माण हो रहे मकान की तरफ नहीं जा पाया था। इस लिए मैं तेज़ रफ़्तार में उस तरफ बढ़ता चला जा रहा था। जिस तरफ मेरा मकान बन रहा था वहां पर जाने के लिए मुख्य सड़क से बाएं तरफ मुड़ना होता था। कुछ दूरी से बंजर ज़मीन शुरू हो जाती थी। पथरीली ज़मीन पर कई तरह के पेड़ पौधे भी थे। हालाकि पथरीली ज़मीन का क्षेत्रफल ज़्यादा नही था। यूं तो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने के लिए मुख्य सड़क थी किंतु एक पगडंडी वाला रास्ता भी मुरारी के गांव की तरफ जाता था जो कि वहीं से हो कर गुज़रता था जिस तरफ मेरा नया मकान बन रहा था।

कुछ ही देर में मैं उस जगह पहुंच गया जहां पर मेरा मकान बन रहा था। मकान भुवन की निगरानी में बन रहा था इस लिए वो वहीं मौजूद था। मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और मकान के कार्य के बारे में सब कुछ बताने लगा।

"शहर से जिन लोगों को बुलाया था वो अपना काम कर रहे हैं ना?" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"हां छोटे ठाकुर, आपके कहे अनुसार वो लोग रात में बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं और इस बात का पता मेरे और आपके अलावा किसी और को बिल्कुल भी नहीं है। यहां तक कि यहां के इन मजदूरों और मिस्त्रियों को भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि इसी मकान के नीचे गुप्त रूप से कोई तहखाना भी बनाया जा रहा है।"

"किसी को इस बात का आभास होना भी नहीं चाहिए भुवन।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"यहां तक कि दादा ठाकुर तथा जगताप चाचा को भी नहीं। यूं समझो कि इस बात को तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए अपने सीने में ही राज़ बना के दफ़न कर लेना है।"

"जी मैं समझ गया छोटे ठाकुर।" भुवन ने सिर हिलाते हुए कहा____"मैं अपना सिर कटा दूंगा लेकिन इस बारे में किसी को भी पता नहीं लगने दूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" मैंने भुवन के कंधे को अपने हाथ से थपथपाते हुए कहा____"ख़ैर, और भी कुछ ऐसा है जो तुम्हें बताना चाहिए मुझे?"

"पिछले एक हफ्ते से तो हवेली का कोई भी सदस्य इस तरफ नहीं आया है।" भुवन ने कहा____"लेकिन दो दिन पहले आपके दो मित्र यहां आए थे और यहां के बारे में पूछ रहे थे। ये भी पूछा कि आप आज कल कहां गायब रहते हैं?"

"मेरे तो दो ही मित्र ऐसे हैं जो बचपन से मेरे साथ रहे हैं।" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए किंतु सोचने वाले भाव से कहा____"चेतन और सुनील। क्या यही दोनों आए थे यहां?"
"हां हां छोटे ठाकुर।" भुवन एकदम से बोल पड़ा____"दोनों एक दूसरे का यही नाम ले रहे थे।"

भुवन से मैंने कुछ देर और बात की उसके बाद उसे सतर्क रहने का बोल कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैं सोच रहा था कि चेतन और सुनील यहां किस लिए आए होंगे और मेरे बारे में क्यों पूछ रहे थे? अगर उन्हें मुझसे मिलना ही था तो वो सीधा हवेली ही आ सकते थे। उन दोनों का तो हमेशा से ही हवेली में आना जाना रहा है। हालाकि इधर जब मुझे तड़ीपार कर दिया गया था तब वो कभी मुझसे मिलने इस जगह पर नहीं आए थे। ख़ैर मुझे याद आया कि मैंने उन दोनों को जासूसी करने का काम सौंपा था किंतु तब से ले कर अब तक में वो दोनों मुझसे मिले ही नहीं थे। दोनों मेरे बचपन के मित्र थे और हमने साथ में जाने क्या क्या कांड किए थे लेकिन अब हमारे बीच वैसा जुड़ाव नहीं रह गया था। एकदम से मुझे लगने लगा कि कहीं वो दोनों भी किसी फ़िराक में तो नहीं हैं? काफी दिनों से मेरी उन दोनों से मुलाक़ात नहीं हुई थी। मैं तो ख़ैर क‌ई सारे झमेलों में फंसा हुआ था लेकिन वो भला किस झमेले में फंसे हुए थे कि एक बार भी मुझसे मिलने हवेली नहीं आए। ये सब सोचते सोचते मुझे आभास होने लगा कि दाल में कुछ तो काला ज़रूर है। दोनों की गांड तोड़नी पड़ेगी अब, तभी सच सामने आएगा।

सोचते विचारते मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया। बुलेट का इंजन बंद कर के जैसे ही मैं दरवाज़े के पास आया तो दरवाज़ा खुला। आज का दिन कदाचित बहुत ही बढ़िया था। उधर साहूकार के घर का दरवाज़ा जब खुला था तो एक खूबसूरत चेहरा नज़र आया था और अब मुरारी के घर का दरवाज़ा खुला तो अनुराधा की हल्की सांवली सूरत नज़र आ गई। एक ऐसी सूरत जिसमें दुनिया जहान की मासूमियत, भोलापन और सादगी कूट कूट कर भरी हुई थी। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर एक ख़ास तरह की चमक के साथ साथ हल्की शर्म की लाली भी उभर आई थी।

"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने मुस्कुराते हुए उसे छेड़ने के इरादे से धीमी आवाज़ में कहा तो वो एकदम शर्म से सिमट गई। गुलाबी होठों पर थिरक रही मुस्कान पलक झपकते ही गहरी पड़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर धीमें स्वर में कहा____"आप क्यों बार बार मुझे ठकुराईन कहते हैं?"

"क्यों न कहूं?" मैंने उसे और छेड़ा____"आख़िर तुम हो तो ठकुराईन ही। अगर तुम्हें मेरे द्वारा ठकुराईन कहने पर ज़रा सा भी एतराज़ होता तो तुम्हारे होठों पर इस तरह मुस्कान न उभर आती।"

"तो क्या चाहते हैं आप कि मैं आपके द्वारा ठकुराईन कहने पर आप पर गुस्सा हुआ करूं?" अनुराधा ने अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा था।

"क्यों नहीं।" मैंने उसकी गहरी आंखों में देखा____"तुम्हें मुझ पर गुस्सा होने का पूरा हक़ है। तुम मेरी डंडे से पिटाई भी कर सकती हो।"

"धत्त! ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, फिर शर्माते हुए बोली____"मैं भला कैसे आपकी पिटाई कर सकती हूं?"
"क्यों नहीं कर सकती?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें पूरा हक़ है मेरी पिटाई करने का।"

"न जी न।" अनुराधा शरमा कर दरवाज़े से एक तरफ हट गई, फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए बोली____"मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती।"
"काकी नहीं है क्या अंदर?" मैंने अंदर आंगन की तरफ नज़र डालते हुए पूछा तो अनुराधा ने ना में सिर हिला दिया।

मैं ये जान कर बेहद खुश हुआ कि सरोज काकी घर में नहीं है। वो दरवाज़े से हट गई थी, ज़ाहिर है वो चाहती थी कि मैं घर के अंदर आऊं वरना वो शुरू में ही मुझे बता देती और अपने बर्ताव से ये भी ज़ाहिर कर देती कि उसकी मां के न होने पर मैं अंदर न आऊं। ख़ैर, मैं अंदर आया तो अनुराधा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर दिया।

"अच्छा तो इसी लिए तुम इतना बेझिझक हो कर मुझसे बातें कर रही थी।" मैंने आंगन के पार बरामदे में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"और मुझ अकेले लड़के को छेड़ रही थी। आने दो काकी को, मैं काकी को बताऊंगा कि कैसे तुम मुझ मासूम को अकेला देख कर मुझे छेड़ रही थी।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा बुरी तरह चकित हो कर बोली____"मैंने कब छेड़ा आपको और ये क्या कहा आपने कि आप मासूम हैं? भला कहां से मासूम लगते हैं आप?"

"बोलती रहो।" मैं मन ही मन हंसते हुए बोला____"सब कुछ बताऊंगा काकी को। ये भी कि तुम मुझे मासूम मानने से साफ़ इंकार कर रही थी।"

"अगर आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं आपसे कोई बात नहीं करूंगी।" अनुराधा के चेहरे पर इस बार मैंने घबराहट के भाव देखे। शायद वो मेरी इस बात को सच मान बैठी थी कि मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।

"कमाल है।" मैंने उसके मासूम से चेहरे पर छा गई घबराहट को देखते हुए कहा____"कैसी ठकुराईन हो तुम जो मेरी इतनी सी बात पर इस क़दर घबरा गई?"

"मैं कोई ठकुराईन वकुराईन नहीं हूं समझे आप?" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"और हां अब मुझे आपसे कोई बात नहीं करना। आप जाइए यहां से, वैसे भी अगर मां आ गई और उसने मुझे आपके साथ यूं अकेले में देख लिया तो मेरी ख़ैर नहीं होगी।"

"ओह! तो मेरी अनुराधा रूठ गई है मुझसे?" जाने कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा निकल गया, जिसका आभास होते ही मेरी धड़कनें एकदम से तेज़ हो गईं और मैं अनुराधा की तरफ देखने लगा। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। वो आंखें फाड़े मेरी तरफ देखने लगी थी, किंतु जल्दी ही सम्हली और फिर बोली____"ये क्या कह रहे हैं आप? मैं आपकी अनुराधा कैसे हो गई?"

"पता नहीं कैसे मेरे मुख से निकल गया?" मैंने अपनी घबराहट को दबाने का प्रयास करते हुए कहा____"वैसे क्या तुम्हें मेरी अनुराधा कह देने पर एतराज़ है?"

"हां बिलकुल एतराज़ है मुझे।" अनुराधा के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे____"मैं सिर्फ़ अपने माता पिता की अनुराधा हूं किसी और की नहीं। अगर आप ये समझते हैं कि आप बाकी लड़कियों की तरह मुझे भी अपने जाल में फंसा लेंगे तो ये आपकी सबसे बड़ी भूल है छोटे ठाकुर।"

मैं अनुराधा के चेहरे पर मौजूद भावों को देख कर एकदम से हैरान रह गया था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि वो मेरी इस बात से इस हद तक बिदक जाएगी। मुझे समझ न आया कि जो अनुराधा मुझे देखते ही शर्माने और मुस्कुराने लगती थी वो मेरी इतनी सी बात से इस तरह कैसे बर्ताव कर सकती थी? वैसे सच कहूं तो हैरान मैं खुद भी अपने आप पर हुआ था कि यूं अचानक से कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा जैसा संबोधन निकल गया था मगर अब जब निकल ही गया था तो मैं भला क्या ही कर सकता था?

"अब जल्दी से कोई डंडा खोज कर लाओ।" फिर मैंने बात को एक अलग ही दिशा में मोड़ने की गरज से कहा____"और उस डंडे से मेरी पिटाई करना शुरू कर दो।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर मानो उलझ गई तो मैंने उसे समझाते हुए कहा____"सही तो कह रहा हूं मैं। कुछ देर पहले मैंने तुमसे कहा था ना कि अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें मेरी पिटाई करने का पूरा हक़ है। अब क्योंकि मैंने ग़लती की है तो इसके लिए तुम्हें डंडे से मेरी पिटाई करनी चाहिए।"

"बातें मत बनाइए।" अनुराधा ने कहा____"सब समझती हूं मैं। अगर आपके मन में मेरे प्रति यही सब है तो चले जाइए यहां से। अनुराधा वो लड़की हर्गिज़ नहीं है जो आपके जाल में फंस जाएगी। हम ग़रीब ज़रूर हैं छोटे ठाकुर लेकिन अपनी जान से भी ज्यादा हमें अपनी इज्ज़त प्यारी है।"

"तो फिर ये भी जान लो अनुराधा कि तुम्हारी इज्ज़त मुझे भी खुद अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।" अनुराधा की बातें सुन कर जाने क्यों मेरे दिल में एक टीस सी उभर आई थी, बोला____"मैं खुद मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन तुम्हारी इज्ज़त पर किसी भी कीमत पर दाग़ नहीं लगा सकता और ना ही किसी के द्वारा लगने दे सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरा चरित्र ही ऐसा है कि किसी को भी मेरी किसी सच्चाई पर यकीन नही हो सकता लेकिन एक बात तुम अच्छी तरह समझ लो अनुराधा कि मैं चाहे सारी दुनिया को दाग़दार कर दूं लेकिन तुम पर दाग़ लगाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं कि तुम वो लड़की हो जिसने मेरे मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और मुझे खुशी है कि तुमने मेरा कायाकल्प कर दिया है। तुमसे हसी मज़ाक करता हूं तो एक अलग ही तरह का एहसास होता है। मेरे मन में अगर ग़लती से भी तुम्हारे प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो मैं अपने आपको कोसने लगता हूं। ख़ैर, मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं देना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

मैं ये सब बोलने के बाद एक झटके से चारपाई से उठा और अनुराधा की तरफ देखे बिना ही तेज़ कदमों के द्वारा आंगन से होते हुए घर से बाहर निकल गया। इस वक्त मेरे अंदर एक आंधी सी चल रही थी। दिल में सागर की लहरों की तरह जज़्बात मानों बेकाबू हो कर हिलोरे मार रहे थे। मैं अपनी बुलेट पर बैठा और उसे स्टार्ट कर तेज़ी से आगे बढ़ गया। जैसे जैसे अनुराधा का घर पीछे छूटता जा रहा था वैसे वैसे मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरा एक खूबसूरत संसार मुझसे बहुत दूर होता जा रहा है। दिलो दिमाग़ पर मचलते तूफान को बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मैं आगे बढ़ा चला जा रहा था।

जिस तरफ मेरे नए बन रहे मकान के लिए रास्ता जा रहा था उस तरफ न जा कर मैं हवेली जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ चला। कच्चा पगडंडी वाला रास्ता था जिसके दोनों तरफ कुछ बड़े बड़े पेड़ थे। मैं जैसे ही उन पेड़ों के थोड़ा पास पहुंचा तो एकदम से दो आदमी उन पेड़ों से निकल कर सड़क के किनारे खड़े हो गए। दोनों के हाथ में मजबूत लट्ठ मौजूद था।


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Bahut pyara sur shandar update. Vaibhav aur Anuradha jab bhi seen me aate he dil khush ho jata he. Vaibhav yah kab samjhega ki use Anuradha se pyar he. Aur Ajit or vibhor itani jaldi badal jaye yah possible nahi lagta but dekhte he aage kya hota he. Are fir se 2 aadmi lattha le kar vaibhav k samne aa gaye. Yaar ab to vaibhav k paas gun bhi he to salo ki tango par goli maar k pakdo kab tak yah luka chhipi ka khel khelte rahenge.
 

Mastmalang

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अध्याय - 50
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अब तक....


"फिर तो हमें जल्द ही अपने कुछ भरोसे के आदमियों को उन पर नज़र रखने के काम पर लगा देना चाहिए पिता जी।" मैंने जोशपूर्ण भाव से कहा____"हमारे पास फिलहाल अपने असल दुश्मन तक पहुंचने का कोई रास्ता या सुराग़ नहीं है तो अगर इस तरह में हमारे हाथ कुछ लग जाता है तो ये बड़ी बात ही होगी।"

कुछ देर और इस संबंध में पिता जी से हमारी बातें हुईं उसके बाद हम दोनों भाई बैठक से चले गए। एक तरफ जहां मैं इस मामले से गंभीर सोच में डूब गया था वहीं दूसरी तरफ इस बात से खुश भी था कि मेरे बड़े भैया अब मेरे साथ थे और ऐसे मामले में वो भी हमारे साथ क़दम से क़दम मिला कर चल रहे थे।


अब आगे....


दोपहर का खाना खाने के बाद मैं और बड़े भैया एक साथ ही ऊपर अपने अपने कमरे की तरफ चले थे। जैसे ही हम दोनों ऊपर पहुंचे तो पीछे से विभोर के पुकारने पर हम दोनों ही ठिठक कर पलटे। हमने देखा विभोर और अजीत सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर ही आ रहे थे। ये पहली बार था जब उनमें से किसी ने मुझे पुकारा था। ख़ैर जल्दी ही वो दोनों ऊपर हमारे पास आ कर खड़े हो गए। दोनों हमसे नज़रें चुरा रहे थे।

"क्या बात है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए सामान्य भाव से पूछा____"कोई काम है मुझसे?"
"ज...जी भैया वो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।" विभोर ने झिझकते हुए धीमें स्वर में कहा तो मैंने कहा____"जो भी कहना है बेझिझक कहो और हां, मेरे सामने तुम्हें शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं चाहता हूं कि जो बीत गया है उसे भूल जाओ और एक नए सिरे से किंतु साफ़ नीयत के साथ अपने जीवन की शुरुआत करो। ख़ैर, अब बोलो क्या कहना चाहते हो मुझसे?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" विभोर ने दुखी भाव से कहा____"मैंने आपके साथ क्या क्या बुरा नहीं किया लेकिन इसके बाद भी आप मुझसे इतने अच्छे से बात कर रहे हैं और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हैं। पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब मेरे मन में आपके प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो गया था, उसके बाद तो जैसे मुझे किसी बात का होश ही नहीं रह गया था।"

"भूल जाओ वो सब बातें।" मैंने विभोर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"हर इंसान से ग़लतियां होती हैं। तुमने तो शायद पहली बार ही ऐसी ग़लती की थी जबकि मैंने तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं। ख़ैर अच्छी बात ये होनी चाहिए कि इंसान ऐसी ग़लतियां दुबारा न करे और कुछ ऐसा कर के दिखाए जिससे लोग उसकी वाह वाही करने लगें।"

"अब से हम दोनों ऐसा ही काम करेंगे वैभव भैया।" अजीत ने कहा____"अब से हम दोनों वही करेंगे जिससे आपका और हमारे खानदान का नाम ऊंचा हो। अब से हम किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देंगे, लेकिन उससे पहले हम अपनी बहन से माफ़ी मांगना चाहते हैं।"

"हां भैया।" विभोर ने कहा____"हमने अपनी मासूम सी बहन का बहुत दिल दुखाया है। अब जबकि हमें अपनी ग़लतियों का एहसास हुआ है तो ये भी एहसास हो रहा है कि हमने उसके साथ कितनी बड़ी ज़्यादती की है। ऊपर वाला हम जैसे भाई किसी बहन को न दे।"

"मुझे खुशी हुई कि तुम दोनों को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया है।" बड़े भैया ने कहा____"लेकिन सिर्फ एहसास होने बस से इंसान अच्छा नहीं बन जाता बल्कि उसके लिए उसे प्रायश्चित करना होता है और ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जिससे कि उस इंसान की अंतरात्मा खुश हो जाए जिसका उसने दिल दुखाया होता है। ख़ैर अब तुम जाओ और कुसुम से अपने किए की माफ़ी मांग लो। वैसे मुझे यकीन है कि वो तुम दोनों को बड़ी सहजता से माफ़ कर देगी क्योंकि हमारी बहन का दिल बहुत ही विशाल है।"

बड़े भैया के ऐसा कहने पर विभोर और अजीत ने अपनी अपनी आंखों के आंसू पोंछे और कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गए। उनके जाने के बाद हम दोनों एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा उठे। मैंने कुछ सोचते हुए भैया को एक अहम काम सौंपा और खुद वापस सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।


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मैं हवेली से निकल कर अपनी बुलेट से हाथी दरवाज़े के पास ही पहुंचा था कि मुझे मुंशी चंद्रकांत एक आदमी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही दोनों ने सलाम किया। मैंने कई दिनों बाद आज मुंशी को देखा था जिसके चलते मेरे मन में कई सारे सवाल खड़े हो गए थे।

"आज कल तो आप इर्द का चांद हो गए हैं मुंशी जी।" मैंने मोटर साईकिल उसके क़रीब ही खड़े कर के कहा____"काफ़ी दिन से आप कहीं नज़र ही नहीं आए।"

"मैं अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल गया हुआ था छोटे ठाकुर।" मुंशी ने अपनी खीसें निपोरते हुए कहा____"ठाकुर साहब की इजाज़त ले कर ही गया था। असल में बात ये थी कि मेरी समधन काफी बीमार थीं तो उन्हीं का हाल चाल देखने गया था। वैसे गया तो मैं एक दिन के लिए ही था क्योंकि यहां काम ही इतना था कि मुझे ज़्यादा समय तक कहीं रुकने की फुर्सत ही नहीं थी किंतु वहां से जल्दी वापस आ ही नहीं पाया। समधन ने ज़बरदस्ती रोके रखा ये कह कर कि कभी आते नहीं हैं तो कम से कम एक दो दिन तो सेवा करने का मौका मिलना ही चाहिए। बड़ी मुश्किल से वहां से छूटा तो एक दिन के लिए अपनी ससुराल चला गया। असल में कोमल बिटिया काफी समय से वहीं थी तो सोचा उसको भी घर ले आऊं। अभी घंटा भर पहले ही हम सब घर पहुंचे थे। थोड़ी देर आराम करने के बाद सीधा हवेली चला आया। डर रहा हूं कि कहीं ठाकुर साहब मेरे इस तरह अवकाश करने से नाराज़ ना हो गए हों।"

"चलिए कोई बात नहीं मुंशी जी।" मैं मन ही मन ये सोच कर थोड़ा खुश हो गया था कि मुंशी अपनी बेटी कोमल को उसकी ननिहाल से घर ले आया है, किंतु प्रत्यक्ष में बोला_____"जाइए पिता जी हवेली में ही हैं। मैं किसी काम से बाहर जा रहा हूं।"

मुंशी से विदा ले कर मैं आगे बढ़ चला। मैं सोच रहा था कि क्या मुंशी सच बोल रहा था अथवा झूठ? क्या वो सच में इतने दिनों से अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल में था या किसी और ही काम से गायब था? वैसे अभी तक मुंशी या उसके बेटे ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिसके चलते उन दोनों बाप बेटे पर शक किया जाए किंतु हालात ऐसे थे कि किसी पर भी अब भरोसा करने लायक नहीं रह गया था।

मुंशी की बहू रजनी का रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध था और ये मेरे लिए बड़ी ही हैरानी तथा सोचने की बात थी कि दोनों के बीच ऐसा संबंध कब और किन परिस्थितियों में बना होगा? रजनी से मेरे भी संबंध थे और रजनी से ही बस क्यों बल्कि उसकी सास प्रभा से भी थे लेकिन जाने क्यों मेरा दिल अब रजनी पर भरोसा करने से इंकार कर रहा था। क्या वो रूपचंद्र के साथ मिल कर मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी या फिर रूपचंद्र से उसका संबंध सिर्फ़ मज़े लेने तक ही सीमित था? वैसे पहली बार जब मैंने उसे छुप कर रूपचंद्र के साथ संबंध बनाते देखा था तब वो जिस तरह से रूपचंद्र को अपनी बातों से जला रही थी उससे तो यही लगता था कि वो मन से रूपचंद्र के साथ नहीं है। रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध बनाना ज़रूर उसकी मजबूरी ही होगी। रूपचंद्र इस मामले में कितना कमीना था ये मुझसे बेहतर भला कौन जानता था? मैं इस बारे में जितना सोच रहा था उतना ही मुझे लगता जा रहा था कि रजनी मजबूरी में ही रूपचंद्र के साथ जिस्मानी संबंध बनाए हुए होगी। हालाकि औरत का भेद तो ऊपर वाला भी नहीं जान सकता लेकिन रजनी मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी ये बात मुझे हजम नहीं हो रही थी।

जल्दी ही मैं साहूकारों के घर के सामने पहुंच गया। सड़क के किनारे ही एक पीपल का पेड़ था जिसमें पक्का चबूतरा बना हुआ था किंतु इस वक्त वो खाली था। कड़ाके की धूप थी इस लिए दोपहर में कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता था। मैंने कुछ पल सोचा और साहूकारों के घर की तरफ बुलेट को मोड़ दी। लोहे का गेट खुला हुआ था इस लिए मैं फ़ौरन ही लंबे चौड़े लॉन से होते हुए उनके मुख्य द्वार पर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ जैसे ही बंद हुई तो दरवाज़ा खुला और जिस शख्सियत पर मेरी नज़र पड़ी उसे तो बस देखता ही रह गया।

दरवाज़े के बीचों बीच दोनों पल्लों को पकड़े रूपचंद्र की बहन रूपा खड़ी थी। उसके गोरे बदन पर हल्के सुर्ख रंग का लिबास था जिसमें वो बेहद खूबसूरत दिख रही थी। चांद की तरह खिला हुआ चेहरा मुझे देखते ही हल्का गुलाबी सा पड़ गया था। कुछ पलों के लिए यूं लगा जैसे वक्त अपनी जगह पर ठहर गया हो। मैं उसे देख कर हल्के से मुस्कुराया तो जैसे उसकी तंद्रा टूटी और वो एकदम से हड़बड़ा गई। मैं उसे यूं हड़बड़ा गया देख कर हल्के से हंसा और फिर उसी की तरफ बढ़ा। मुझे अपनी तरफ बढ़ता देख उसके चेहरे पर एकदम से घबराहट के भाव उभर आए, तभी अंदर से किसी की आवाज़ आई।

"अगर किस्मत में ऐसे ही हर रोज़ इस चांद का दीदार होना लिख जाए।" मैंने रूपा के क़रीब पहुंचते ही किसी गए गुज़रे हुए आशिक़ों की तरह आहें भरते हुए कहा____"तो बंदा दुनिया के हर ज़ुल्मो सितम को सह कर भी हुस्न वालों की दहलीज़ पर दौड़ता हुआ आएगा। क़सम से तुम्हें देखने के बाद अब अगर मौत भी आ जाए तो ग़म न होगा।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" रूपा ने बहुत ही धीमें स्वर में किंतु शर्माते हुए कहा तो मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा_____"कोई शक है क्या?"

"कौन आया है रूपा?" अंदर से एक बार फिर किसी औरत की आवाज़ आई तो हम दोनों ही हड़बड़ा गए और मैं उससे थोड़ा दूर खड़ा हो गया।
"हवेली से कोई आया है मां।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए किंतु मुस्कुराते हुए कहा____"लगता है रास्ता भटक गया है।"

"ये तो ज़ुल्म है यार।" मैंने धीमें स्वर में कहा____"जान बूझ कर अजनबी बना दिया मुझे जबकि होना तो ये चाहिए था कि चीख चीख कर सबको बताती कि एक दीवाना आया है तुम्हारा।"

"हां, ताकि मेरे घर वाले मेरे जिस्म की बोटी बोटी कर के चील कौवों को खिला दें।" रूपा ने आंखें दिखाते हुए किंतु मुस्कुरा कर कहा____"बड़े आए एक दीवाना आया है बोलवाने वाले... हुह!"

"आज शाम को मंदिर में मिलो।" मैंने अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करते हुए कहा तो उसने आंखें सिकोड़ते हुए कहा____"क्यों...क्यों मिलूं भला?"
"अपनी देवी के दर्शन करने हैं मुझे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"और दर्शन के साथ साथ देवी की पूजा भी करनी है। उसके बाद अगर देवी मेरी पूजा से प्रसन्न हो जाए तो वो मुझे मीठा मीठा प्रसाद भी दे सकती है।"

रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी अंदर से आती हुई एक औरत दिखी जिससे मैं थोड़ा और दूर खड़ा हो गया। मैंने रूपा को भी इशारा कर दिया कि उसके पीछे कोई आ रहा है। कुछ ही पलों में अंदर से आने वाली औरत रूपा के पास पहुंच गई। शायद वही उसकी मां ललिता थी। उन्हें देख कर मैंने बड़े आदर भाव से हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया।

"बाहर क्यों खड़े हो वैभव बेटा अंदर आओ ना।" रूपा की मां ललिता देवी ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"ये लड़की भी ना, एक भी अक्ल नहीं है इसमें। देखो तो घर आए मेहमान को अंदर आने के लिए भी नहीं कहा। जाने कब अक्ल आएगी इसे?"

"मैं मेहमान नहीं हूं काकी।" मैंने नम्र भाव से कहा____"मैं तो आपका बेटा हूं और ये घर भी तो मेरा ही है। क्या इतना जल्दी मुझे पराया कर दिया आपने?"

"अरे! नहीं नहीं बेटा।" ललिता देवी एकदम से हड़बड़ा गईं, फिर सम्हल कर बोलीं____"ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुमने सच कहा ये तुम्हारा ही घर है और तुम मेरे बेटे ही हो। अब चलो बातें छोड़ो और अंदर आओ।"

"माफ़ करना काकी।" मैंने कहा____"अभी अंदर नहीं आऊंगा। असल में किसी काम से जा रहा था तो सोचा काका लोगों से मिल कर उनका आशीर्वाद ले लूं और सबका हाल चाल भी पूंछ लूं लेकिन लगता है कि काका लोग अंदर हैं नहीं?"

"हां तुमने सही कहा बेटा।" ललिता देवी ने कहा____"असल में घर के सभी मर्द और बच्चे हमारी जेठानी की लड़की आरती के लिए एक जगह लड़का देखने गए हुए हैं। सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रिश्ता पक्का हो जाएगा और फिर जल्दी ही ब्याह के लिए लग्न भी बन जाएगी।"

"अरे वाह! ये तो बहुत ही खुशी की बात है काकी।" मैंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"जल्द ही इस घर में शहनाईयां बजेंगी। मैं तो कहता हूं काकी कि घर की सभी लड़कियों का ब्याह कर के जल्द से जल्द उनकी छुट्टी कर दो आप और मेरे भाईयों का ब्याह कर के नई नई बहुएं ले आओ।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रूपा अपनी मां के सामने ही एकदम से बोल पड़ी____"हम लड़कियां क्या अपने मां बाप के लिए बोझ बनी हुई हैं जो वो जल्दी से हमारा ब्याह कर के इस घर से हमारी छुट्टी कर दें?"

"देखिए ऐसा है कि दुनिया के कोई भी माता पिता अपनी लड़कियों से ये नहीं कहते कि उनकी लड़कियां उनके लिए बोझ हैं।" मैंने रूपा को छेड़ने के इरादे से मुस्कुराते हुए कहा____"जबकि सच तो यही होता है कि लड़कियां सच में अपने माता पिता के लिए बोझ ही होती हैं। मैं सही कह रहा हूं ना काकी?"

"हां बेटा, बहुत हद तक तुम्हारी ये बात सही है।" ललिता देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"लड़कियां उन माता पिता के लिए यकीनन बोझ जैसी ही होती हैं जो अपनी लड़कियों का ब्याह कर पाने में समर्थ नहीं होते। जिनके घर में खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं होती और अपनी जवान बेटियों के तन को ढंकने के लिए कपड़े नहीं होते। ऐसे माता पिता के लिए लड़कियां न चाहते हुए भी बोझ सी ही लगने लगती हैं।"

जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे इस मामले की बात शुरू हो जाने से माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया है इस लिए मैंने काकी से बाद में आने का कह कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे विदा ले कर वापस चल पड़ा। काकी से नज़र बचा कर मैंने एक बार फिर से रूपा को आज शाम मंदिर में मिलने का इशारा कर दिया था। मुझे यकीन था रूपा मुझसे मिलने के लिए मंदिर ज़रूर आएगी।

एक बार फिर से मैं बुलेट में बैठ कर आगे बढ़ चला। मुंशी के घर के पास पहुंच कर मैंने एक नज़र उस तरफ देखा और फिर आगे बढ़ गया। काफी समय से मैं अपने नए निर्माण हो रहे मकान की तरफ नहीं जा पाया था। इस लिए मैं तेज़ रफ़्तार में उस तरफ बढ़ता चला जा रहा था। जिस तरफ मेरा मकान बन रहा था वहां पर जाने के लिए मुख्य सड़क से बाएं तरफ मुड़ना होता था। कुछ दूरी से बंजर ज़मीन शुरू हो जाती थी। पथरीली ज़मीन पर कई तरह के पेड़ पौधे भी थे। हालाकि पथरीली ज़मीन का क्षेत्रफल ज़्यादा नही था। यूं तो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने के लिए मुख्य सड़क थी किंतु एक पगडंडी वाला रास्ता भी मुरारी के गांव की तरफ जाता था जो कि वहीं से हो कर गुज़रता था जिस तरफ मेरा नया मकान बन रहा था।

कुछ ही देर में मैं उस जगह पहुंच गया जहां पर मेरा मकान बन रहा था। मकान भुवन की निगरानी में बन रहा था इस लिए वो वहीं मौजूद था। मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और मकान के कार्य के बारे में सब कुछ बताने लगा।

"शहर से जिन लोगों को बुलाया था वो अपना काम कर रहे हैं ना?" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"हां छोटे ठाकुर, आपके कहे अनुसार वो लोग रात में बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं और इस बात का पता मेरे और आपके अलावा किसी और को बिल्कुल भी नहीं है। यहां तक कि यहां के इन मजदूरों और मिस्त्रियों को भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि इसी मकान के नीचे गुप्त रूप से कोई तहखाना भी बनाया जा रहा है।"

"किसी को इस बात का आभास होना भी नहीं चाहिए भुवन।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"यहां तक कि दादा ठाकुर तथा जगताप चाचा को भी नहीं। यूं समझो कि इस बात को तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए अपने सीने में ही राज़ बना के दफ़न कर लेना है।"

"जी मैं समझ गया छोटे ठाकुर।" भुवन ने सिर हिलाते हुए कहा____"मैं अपना सिर कटा दूंगा लेकिन इस बारे में किसी को भी पता नहीं लगने दूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" मैंने भुवन के कंधे को अपने हाथ से थपथपाते हुए कहा____"ख़ैर, और भी कुछ ऐसा है जो तुम्हें बताना चाहिए मुझे?"

"पिछले एक हफ्ते से तो हवेली का कोई भी सदस्य इस तरफ नहीं आया है।" भुवन ने कहा____"लेकिन दो दिन पहले आपके दो मित्र यहां आए थे और यहां के बारे में पूछ रहे थे। ये भी पूछा कि आप आज कल कहां गायब रहते हैं?"

"मेरे तो दो ही मित्र ऐसे हैं जो बचपन से मेरे साथ रहे हैं।" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए किंतु सोचने वाले भाव से कहा____"चेतन और सुनील। क्या यही दोनों आए थे यहां?"
"हां हां छोटे ठाकुर।" भुवन एकदम से बोल पड़ा____"दोनों एक दूसरे का यही नाम ले रहे थे।"

भुवन से मैंने कुछ देर और बात की उसके बाद उसे सतर्क रहने का बोल कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैं सोच रहा था कि चेतन और सुनील यहां किस लिए आए होंगे और मेरे बारे में क्यों पूछ रहे थे? अगर उन्हें मुझसे मिलना ही था तो वो सीधा हवेली ही आ सकते थे। उन दोनों का तो हमेशा से ही हवेली में आना जाना रहा है। हालाकि इधर जब मुझे तड़ीपार कर दिया गया था तब वो कभी मुझसे मिलने इस जगह पर नहीं आए थे। ख़ैर मुझे याद आया कि मैंने उन दोनों को जासूसी करने का काम सौंपा था किंतु तब से ले कर अब तक में वो दोनों मुझसे मिले ही नहीं थे। दोनों मेरे बचपन के मित्र थे और हमने साथ में जाने क्या क्या कांड किए थे लेकिन अब हमारे बीच वैसा जुड़ाव नहीं रह गया था। एकदम से मुझे लगने लगा कि कहीं वो दोनों भी किसी फ़िराक में तो नहीं हैं? काफी दिनों से मेरी उन दोनों से मुलाक़ात नहीं हुई थी। मैं तो ख़ैर क‌ई सारे झमेलों में फंसा हुआ था लेकिन वो भला किस झमेले में फंसे हुए थे कि एक बार भी मुझसे मिलने हवेली नहीं आए। ये सब सोचते सोचते मुझे आभास होने लगा कि दाल में कुछ तो काला ज़रूर है। दोनों की गांड तोड़नी पड़ेगी अब, तभी सच सामने आएगा।

सोचते विचारते मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया। बुलेट का इंजन बंद कर के जैसे ही मैं दरवाज़े के पास आया तो दरवाज़ा खुला। आज का दिन कदाचित बहुत ही बढ़िया था। उधर साहूकार के घर का दरवाज़ा जब खुला था तो एक खूबसूरत चेहरा नज़र आया था और अब मुरारी के घर का दरवाज़ा खुला तो अनुराधा की हल्की सांवली सूरत नज़र आ गई। एक ऐसी सूरत जिसमें दुनिया जहान की मासूमियत, भोलापन और सादगी कूट कूट कर भरी हुई थी। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर एक ख़ास तरह की चमक के साथ साथ हल्की शर्म की लाली भी उभर आई थी।

"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने मुस्कुराते हुए उसे छेड़ने के इरादे से धीमी आवाज़ में कहा तो वो एकदम शर्म से सिमट गई। गुलाबी होठों पर थिरक रही मुस्कान पलक झपकते ही गहरी पड़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर धीमें स्वर में कहा____"आप क्यों बार बार मुझे ठकुराईन कहते हैं?"

"क्यों न कहूं?" मैंने उसे और छेड़ा____"आख़िर तुम हो तो ठकुराईन ही। अगर तुम्हें मेरे द्वारा ठकुराईन कहने पर ज़रा सा भी एतराज़ होता तो तुम्हारे होठों पर इस तरह मुस्कान न उभर आती।"

"तो क्या चाहते हैं आप कि मैं आपके द्वारा ठकुराईन कहने पर आप पर गुस्सा हुआ करूं?" अनुराधा ने अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा था।

"क्यों नहीं।" मैंने उसकी गहरी आंखों में देखा____"तुम्हें मुझ पर गुस्सा होने का पूरा हक़ है। तुम मेरी डंडे से पिटाई भी कर सकती हो।"

"धत्त! ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, फिर शर्माते हुए बोली____"मैं भला कैसे आपकी पिटाई कर सकती हूं?"
"क्यों नहीं कर सकती?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें पूरा हक़ है मेरी पिटाई करने का।"

"न जी न।" अनुराधा शरमा कर दरवाज़े से एक तरफ हट गई, फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए बोली____"मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती।"
"काकी नहीं है क्या अंदर?" मैंने अंदर आंगन की तरफ नज़र डालते हुए पूछा तो अनुराधा ने ना में सिर हिला दिया।

मैं ये जान कर बेहद खुश हुआ कि सरोज काकी घर में नहीं है। वो दरवाज़े से हट गई थी, ज़ाहिर है वो चाहती थी कि मैं घर के अंदर आऊं वरना वो शुरू में ही मुझे बता देती और अपने बर्ताव से ये भी ज़ाहिर कर देती कि उसकी मां के न होने पर मैं अंदर न आऊं। ख़ैर, मैं अंदर आया तो अनुराधा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर दिया।

"अच्छा तो इसी लिए तुम इतना बेझिझक हो कर मुझसे बातें कर रही थी।" मैंने आंगन के पार बरामदे में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"और मुझ अकेले लड़के को छेड़ रही थी। आने दो काकी को, मैं काकी को बताऊंगा कि कैसे तुम मुझ मासूम को अकेला देख कर मुझे छेड़ रही थी।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा बुरी तरह चकित हो कर बोली____"मैंने कब छेड़ा आपको और ये क्या कहा आपने कि आप मासूम हैं? भला कहां से मासूम लगते हैं आप?"

"बोलती रहो।" मैं मन ही मन हंसते हुए बोला____"सब कुछ बताऊंगा काकी को। ये भी कि तुम मुझे मासूम मानने से साफ़ इंकार कर रही थी।"

"अगर आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं आपसे कोई बात नहीं करूंगी।" अनुराधा के चेहरे पर इस बार मैंने घबराहट के भाव देखे। शायद वो मेरी इस बात को सच मान बैठी थी कि मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।

"कमाल है।" मैंने उसके मासूम से चेहरे पर छा गई घबराहट को देखते हुए कहा____"कैसी ठकुराईन हो तुम जो मेरी इतनी सी बात पर इस क़दर घबरा गई?"

"मैं कोई ठकुराईन वकुराईन नहीं हूं समझे आप?" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"और हां अब मुझे आपसे कोई बात नहीं करना। आप जाइए यहां से, वैसे भी अगर मां आ गई और उसने मुझे आपके साथ यूं अकेले में देख लिया तो मेरी ख़ैर नहीं होगी।"

"ओह! तो मेरी अनुराधा रूठ गई है मुझसे?" जाने कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा निकल गया, जिसका आभास होते ही मेरी धड़कनें एकदम से तेज़ हो गईं और मैं अनुराधा की तरफ देखने लगा। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। वो आंखें फाड़े मेरी तरफ देखने लगी थी, किंतु जल्दी ही सम्हली और फिर बोली____"ये क्या कह रहे हैं आप? मैं आपकी अनुराधा कैसे हो गई?"

"पता नहीं कैसे मेरे मुख से निकल गया?" मैंने अपनी घबराहट को दबाने का प्रयास करते हुए कहा____"वैसे क्या तुम्हें मेरी अनुराधा कह देने पर एतराज़ है?"

"हां बिलकुल एतराज़ है मुझे।" अनुराधा के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे____"मैं सिर्फ़ अपने माता पिता की अनुराधा हूं किसी और की नहीं। अगर आप ये समझते हैं कि आप बाकी लड़कियों की तरह मुझे भी अपने जाल में फंसा लेंगे तो ये आपकी सबसे बड़ी भूल है छोटे ठाकुर।"

मैं अनुराधा के चेहरे पर मौजूद भावों को देख कर एकदम से हैरान रह गया था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि वो मेरी इस बात से इस हद तक बिदक जाएगी। मुझे समझ न आया कि जो अनुराधा मुझे देखते ही शर्माने और मुस्कुराने लगती थी वो मेरी इतनी सी बात से इस तरह कैसे बर्ताव कर सकती थी? वैसे सच कहूं तो हैरान मैं खुद भी अपने आप पर हुआ था कि यूं अचानक से कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा जैसा संबोधन निकल गया था मगर अब जब निकल ही गया था तो मैं भला क्या ही कर सकता था?

"अब जल्दी से कोई डंडा खोज कर लाओ।" फिर मैंने बात को एक अलग ही दिशा में मोड़ने की गरज से कहा____"और उस डंडे से मेरी पिटाई करना शुरू कर दो।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर मानो उलझ गई तो मैंने उसे समझाते हुए कहा____"सही तो कह रहा हूं मैं। कुछ देर पहले मैंने तुमसे कहा था ना कि अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें मेरी पिटाई करने का पूरा हक़ है। अब क्योंकि मैंने ग़लती की है तो इसके लिए तुम्हें डंडे से मेरी पिटाई करनी चाहिए।"

"बातें मत बनाइए।" अनुराधा ने कहा____"सब समझती हूं मैं। अगर आपके मन में मेरे प्रति यही सब है तो चले जाइए यहां से। अनुराधा वो लड़की हर्गिज़ नहीं है जो आपके जाल में फंस जाएगी। हम ग़रीब ज़रूर हैं छोटे ठाकुर लेकिन अपनी जान से भी ज्यादा हमें अपनी इज्ज़त प्यारी है।"

"तो फिर ये भी जान लो अनुराधा कि तुम्हारी इज्ज़त मुझे भी खुद अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।" अनुराधा की बातें सुन कर जाने क्यों मेरे दिल में एक टीस सी उभर आई थी, बोला____"मैं खुद मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन तुम्हारी इज्ज़त पर किसी भी कीमत पर दाग़ नहीं लगा सकता और ना ही किसी के द्वारा लगने दे सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरा चरित्र ही ऐसा है कि किसी को भी मेरी किसी सच्चाई पर यकीन नही हो सकता लेकिन एक बात तुम अच्छी तरह समझ लो अनुराधा कि मैं चाहे सारी दुनिया को दाग़दार कर दूं लेकिन तुम पर दाग़ लगाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं कि तुम वो लड़की हो जिसने मेरे मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और मुझे खुशी है कि तुमने मेरा कायाकल्प कर दिया है। तुमसे हसी मज़ाक करता हूं तो एक अलग ही तरह का एहसास होता है। मेरे मन में अगर ग़लती से भी तुम्हारे प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो मैं अपने आपको कोसने लगता हूं। ख़ैर, मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं देना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

मैं ये सब बोलने के बाद एक झटके से चारपाई से उठा और अनुराधा की तरफ देखे बिना ही तेज़ कदमों के द्वारा आंगन से होते हुए घर से बाहर निकल गया। इस वक्त मेरे अंदर एक आंधी सी चल रही थी। दिल में सागर की लहरों की तरह जज़्बात मानों बेकाबू हो कर हिलोरे मार रहे थे। मैं अपनी बुलेट पर बैठा और उसे स्टार्ट कर तेज़ी से आगे बढ़ गया। जैसे जैसे अनुराधा का घर पीछे छूटता जा रहा था वैसे वैसे मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरा एक खूबसूरत संसार मुझसे बहुत दूर होता जा रहा है। दिलो दिमाग़ पर मचलते तूफान को बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मैं आगे बढ़ा चला जा रहा था।

जिस तरफ मेरे नए बन रहे मकान के लिए रास्ता जा रहा था उस तरफ न जा कर मैं हवेली जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ चला। कच्चा पगडंडी वाला रास्ता था जिसके दोनों तरफ कुछ बड़े बड़े पेड़ थे। मैं जैसे ही उन पेड़ों के थोड़ा पास पहुंचा तो एकदम से दो आदमी उन पेड़ों से निकल कर सड़क के किनारे खड़े हो गए। दोनों के हाथ में मजबूत लट्ठ मौजूद था।


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चचेरे भाई भी लगता है कि सुधर रहे हैं
नये मकान में तहख़ाना लगता है कि नये कांड के लिए है
 

agmr66608

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ये क्या हो गया?अनुराधा और बैभव का बिछड्ना आश्चर्य की बात है। ऐसा तो नहीं होना चाहिए। खैर आप लेखक है, आपका मन मे क्या चल रहे है ये आगे मे ही पता चलेगा। आपका आभार हमे एक सुंदर कहानी उपहार देने के लिए। लाजवाब अनुच्छेद। कहबत है की कुत्ते का दुम 100 बरष दबाने के बाद भी टेढ़ा के टेढ़ा ही रहेगा, यह पूरा फिट बैठता है अजित और बिभोर के लिए। भले ही सब कोई माफ कर दे उन लोगो को, मुझे हर समय संदेह रहेगा ही उस दोन पर। आगे आपकी मर्जी। धन्यबाद।
 

Ajju Landwalia

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अध्याय - 50
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अब तक....


"फिर तो हमें जल्द ही अपने कुछ भरोसे के आदमियों को उन पर नज़र रखने के काम पर लगा देना चाहिए पिता जी।" मैंने जोशपूर्ण भाव से कहा____"हमारे पास फिलहाल अपने असल दुश्मन तक पहुंचने का कोई रास्ता या सुराग़ नहीं है तो अगर इस तरह में हमारे हाथ कुछ लग जाता है तो ये बड़ी बात ही होगी।"

कुछ देर और इस संबंध में पिता जी से हमारी बातें हुईं उसके बाद हम दोनों भाई बैठक से चले गए। एक तरफ जहां मैं इस मामले से गंभीर सोच में डूब गया था वहीं दूसरी तरफ इस बात से खुश भी था कि मेरे बड़े भैया अब मेरे साथ थे और ऐसे मामले में वो भी हमारे साथ क़दम से क़दम मिला कर चल रहे थे।


अब आगे....


दोपहर का खाना खाने के बाद मैं और बड़े भैया एक साथ ही ऊपर अपने अपने कमरे की तरफ चले थे। जैसे ही हम दोनों ऊपर पहुंचे तो पीछे से विभोर के पुकारने पर हम दोनों ही ठिठक कर पलटे। हमने देखा विभोर और अजीत सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर ही आ रहे थे। ये पहली बार था जब उनमें से किसी ने मुझे पुकारा था। ख़ैर जल्दी ही वो दोनों ऊपर हमारे पास आ कर खड़े हो गए। दोनों हमसे नज़रें चुरा रहे थे।

"क्या बात है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए सामान्य भाव से पूछा____"कोई काम है मुझसे?"
"ज...जी भैया वो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।" विभोर ने झिझकते हुए धीमें स्वर में कहा तो मैंने कहा____"जो भी कहना है बेझिझक कहो और हां, मेरे सामने तुम्हें शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं चाहता हूं कि जो बीत गया है उसे भूल जाओ और एक नए सिरे से किंतु साफ़ नीयत के साथ अपने जीवन की शुरुआत करो। ख़ैर, अब बोलो क्या कहना चाहते हो मुझसे?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" विभोर ने दुखी भाव से कहा____"मैंने आपके साथ क्या क्या बुरा नहीं किया लेकिन इसके बाद भी आप मुझसे इतने अच्छे से बात कर रहे हैं और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हैं। पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब मेरे मन में आपके प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हो गया था, उसके बाद तो जैसे मुझे किसी बात का होश ही नहीं रह गया था।"

"भूल जाओ वो सब बातें।" मैंने विभोर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"हर इंसान से ग़लतियां होती हैं। तुमने तो शायद पहली बार ही ऐसी ग़लती की थी जबकि मैंने तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं। ख़ैर अच्छी बात ये होनी चाहिए कि इंसान ऐसी ग़लतियां दुबारा न करे और कुछ ऐसा कर के दिखाए जिससे लोग उसकी वाह वाही करने लगें।"

"अब से हम दोनों ऐसा ही काम करेंगे वैभव भैया।" अजीत ने कहा____"अब से हम दोनों वही करेंगे जिससे आपका और हमारे खानदान का नाम ऊंचा हो। अब से हम किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देंगे, लेकिन उससे पहले हम अपनी बहन से माफ़ी मांगना चाहते हैं।"

"हां भैया।" विभोर ने कहा____"हमने अपनी मासूम सी बहन का बहुत दिल दुखाया है। अब जबकि हमें अपनी ग़लतियों का एहसास हुआ है तो ये भी एहसास हो रहा है कि हमने उसके साथ कितनी बड़ी ज़्यादती की है। ऊपर वाला हम जैसे भाई किसी बहन को न दे।"

"मुझे खुशी हुई कि तुम दोनों को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया है।" बड़े भैया ने कहा____"लेकिन सिर्फ एहसास होने बस से इंसान अच्छा नहीं बन जाता बल्कि उसके लिए उसे प्रायश्चित करना होता है और ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जिससे कि उस इंसान की अंतरात्मा खुश हो जाए जिसका उसने दिल दुखाया होता है। ख़ैर अब तुम जाओ और कुसुम से अपने किए की माफ़ी मांग लो। वैसे मुझे यकीन है कि वो तुम दोनों को बड़ी सहजता से माफ़ कर देगी क्योंकि हमारी बहन का दिल बहुत ही विशाल है।"

बड़े भैया के ऐसा कहने पर विभोर और अजीत ने अपनी अपनी आंखों के आंसू पोंछे और कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गए। उनके जाने के बाद हम दोनों एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा उठे। मैंने कुछ सोचते हुए भैया को एक अहम काम सौंपा और खुद वापस सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।


[][][][][]

मैं हवेली से निकल कर अपनी बुलेट से हाथी दरवाज़े के पास ही पहुंचा था कि मुझे मुंशी चंद्रकांत एक आदमी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही दोनों ने सलाम किया। मैंने कई दिनों बाद आज मुंशी को देखा था जिसके चलते मेरे मन में कई सारे सवाल खड़े हो गए थे।

"आज कल तो आप इर्द का चांद हो गए हैं मुंशी जी।" मैंने मोटर साईकिल उसके क़रीब ही खड़े कर के कहा____"काफ़ी दिन से आप कहीं नज़र ही नहीं आए।"

"मैं अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल गया हुआ था छोटे ठाकुर।" मुंशी ने अपनी खीसें निपोरते हुए कहा____"ठाकुर साहब की इजाज़त ले कर ही गया था। असल में बात ये थी कि मेरी समधन काफी बीमार थीं तो उन्हीं का हाल चाल देखने गया था। वैसे गया तो मैं एक दिन के लिए ही था क्योंकि यहां काम ही इतना था कि मुझे ज़्यादा समय तक कहीं रुकने की फुर्सत ही नहीं थी किंतु वहां से जल्दी वापस आ ही नहीं पाया। समधन ने ज़बरदस्ती रोके रखा ये कह कर कि कभी आते नहीं हैं तो कम से कम एक दो दिन तो सेवा करने का मौका मिलना ही चाहिए। बड़ी मुश्किल से वहां से छूटा तो एक दिन के लिए अपनी ससुराल चला गया। असल में कोमल बिटिया काफी समय से वहीं थी तो सोचा उसको भी घर ले आऊं। अभी घंटा भर पहले ही हम सब घर पहुंचे थे। थोड़ी देर आराम करने के बाद सीधा हवेली चला आया। डर रहा हूं कि कहीं ठाकुर साहब मेरे इस तरह अवकाश करने से नाराज़ ना हो गए हों।"

"चलिए कोई बात नहीं मुंशी जी।" मैं मन ही मन ये सोच कर थोड़ा खुश हो गया था कि मुंशी अपनी बेटी कोमल को उसकी ननिहाल से घर ले आया है, किंतु प्रत्यक्ष में बोला_____"जाइए पिता जी हवेली में ही हैं। मैं किसी काम से बाहर जा रहा हूं।"

मुंशी से विदा ले कर मैं आगे बढ़ चला। मैं सोच रहा था कि क्या मुंशी सच बोल रहा था अथवा झूठ? क्या वो सच में इतने दिनों से अपने बेटे के साथ उसकी ससुराल में था या किसी और ही काम से गायब था? वैसे अभी तक मुंशी या उसके बेटे ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिसके चलते उन दोनों बाप बेटे पर शक किया जाए किंतु हालात ऐसे थे कि किसी पर भी अब भरोसा करने लायक नहीं रह गया था।

मुंशी की बहू रजनी का रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध था और ये मेरे लिए बड़ी ही हैरानी तथा सोचने की बात थी कि दोनों के बीच ऐसा संबंध कब और किन परिस्थितियों में बना होगा? रजनी से मेरे भी संबंध थे और रजनी से ही बस क्यों बल्कि उसकी सास प्रभा से भी थे लेकिन जाने क्यों मेरा दिल अब रजनी पर भरोसा करने से इंकार कर रहा था। क्या वो रूपचंद्र के साथ मिल कर मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी या फिर रूपचंद्र से उसका संबंध सिर्फ़ मज़े लेने तक ही सीमित था? वैसे पहली बार जब मैंने उसे छुप कर रूपचंद्र के साथ संबंध बनाते देखा था तब वो जिस तरह से रूपचंद्र को अपनी बातों से जला रही थी उससे तो यही लगता था कि वो मन से रूपचंद्र के साथ नहीं है। रूपचंद्र से जिस्मानी संबंध बनाना ज़रूर उसकी मजबूरी ही होगी। रूपचंद्र इस मामले में कितना कमीना था ये मुझसे बेहतर भला कौन जानता था? मैं इस बारे में जितना सोच रहा था उतना ही मुझे लगता जा रहा था कि रजनी मजबूरी में ही रूपचंद्र के साथ जिस्मानी संबंध बनाए हुए होगी। हालाकि औरत का भेद तो ऊपर वाला भी नहीं जान सकता लेकिन रजनी मेरे साथ कोई खेल खेल रही थी ये बात मुझे हजम नहीं हो रही थी।

जल्दी ही मैं साहूकारों के घर के सामने पहुंच गया। सड़क के किनारे ही एक पीपल का पेड़ था जिसमें पक्का चबूतरा बना हुआ था किंतु इस वक्त वो खाली था। कड़ाके की धूप थी इस लिए दोपहर में कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता था। मैंने कुछ पल सोचा और साहूकारों के घर की तरफ बुलेट को मोड़ दी। लोहे का गेट खुला हुआ था इस लिए मैं फ़ौरन ही लंबे चौड़े लॉन से होते हुए उनके मुख्य द्वार पर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ जैसे ही बंद हुई तो दरवाज़ा खुला और जिस शख्सियत पर मेरी नज़र पड़ी उसे तो बस देखता ही रह गया।

दरवाज़े के बीचों बीच दोनों पल्लों को पकड़े रूपचंद्र की बहन रूपा खड़ी थी। उसके गोरे बदन पर हल्के सुर्ख रंग का लिबास था जिसमें वो बेहद खूबसूरत दिख रही थी। चांद की तरह खिला हुआ चेहरा मुझे देखते ही हल्का गुलाबी सा पड़ गया था। कुछ पलों के लिए यूं लगा जैसे वक्त अपनी जगह पर ठहर गया हो। मैं उसे देख कर हल्के से मुस्कुराया तो जैसे उसकी तंद्रा टूटी और वो एकदम से हड़बड़ा गई। मैं उसे यूं हड़बड़ा गया देख कर हल्के से हंसा और फिर उसी की तरफ बढ़ा। मुझे अपनी तरफ बढ़ता देख उसके चेहरे पर एकदम से घबराहट के भाव उभर आए, तभी अंदर से किसी की आवाज़ आई।

"अगर किस्मत में ऐसे ही हर रोज़ इस चांद का दीदार होना लिख जाए।" मैंने रूपा के क़रीब पहुंचते ही किसी गए गुज़रे हुए आशिक़ों की तरह आहें भरते हुए कहा____"तो बंदा दुनिया के हर ज़ुल्मो सितम को सह कर भी हुस्न वालों की दहलीज़ पर दौड़ता हुआ आएगा। क़सम से तुम्हें देखने के बाद अब अगर मौत भी आ जाए तो ग़म न होगा।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" रूपा ने बहुत ही धीमें स्वर में किंतु शर्माते हुए कहा तो मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा_____"कोई शक है क्या?"

"कौन आया है रूपा?" अंदर से एक बार फिर किसी औरत की आवाज़ आई तो हम दोनों ही हड़बड़ा गए और मैं उससे थोड़ा दूर खड़ा हो गया।
"हवेली से कोई आया है मां।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए किंतु मुस्कुराते हुए कहा____"लगता है रास्ता भटक गया है।"

"ये तो ज़ुल्म है यार।" मैंने धीमें स्वर में कहा____"जान बूझ कर अजनबी बना दिया मुझे जबकि होना तो ये चाहिए था कि चीख चीख कर सबको बताती कि एक दीवाना आया है तुम्हारा।"

"हां, ताकि मेरे घर वाले मेरे जिस्म की बोटी बोटी कर के चील कौवों को खिला दें।" रूपा ने आंखें दिखाते हुए किंतु मुस्कुरा कर कहा____"बड़े आए एक दीवाना आया है बोलवाने वाले... हुह!"

"आज शाम को मंदिर में मिलो।" मैंने अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करते हुए कहा तो उसने आंखें सिकोड़ते हुए कहा____"क्यों...क्यों मिलूं भला?"
"अपनी देवी के दर्शन करने हैं मुझे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"और दर्शन के साथ साथ देवी की पूजा भी करनी है। उसके बाद अगर देवी मेरी पूजा से प्रसन्न हो जाए तो वो मुझे मीठा मीठा प्रसाद भी दे सकती है।"

रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी अंदर से आती हुई एक औरत दिखी जिससे मैं थोड़ा और दूर खड़ा हो गया। मैंने रूपा को भी इशारा कर दिया कि उसके पीछे कोई आ रहा है। कुछ ही पलों में अंदर से आने वाली औरत रूपा के पास पहुंच गई। शायद वही उसकी मां ललिता थी। उन्हें देख कर मैंने बड़े आदर भाव से हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया।

"बाहर क्यों खड़े हो वैभव बेटा अंदर आओ ना।" रूपा की मां ललिता देवी ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"ये लड़की भी ना, एक भी अक्ल नहीं है इसमें। देखो तो घर आए मेहमान को अंदर आने के लिए भी नहीं कहा। जाने कब अक्ल आएगी इसे?"

"मैं मेहमान नहीं हूं काकी।" मैंने नम्र भाव से कहा____"मैं तो आपका बेटा हूं और ये घर भी तो मेरा ही है। क्या इतना जल्दी मुझे पराया कर दिया आपने?"

"अरे! नहीं नहीं बेटा।" ललिता देवी एकदम से हड़बड़ा गईं, फिर सम्हल कर बोलीं____"ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुमने सच कहा ये तुम्हारा ही घर है और तुम मेरे बेटे ही हो। अब चलो बातें छोड़ो और अंदर आओ।"

"माफ़ करना काकी।" मैंने कहा____"अभी अंदर नहीं आऊंगा। असल में किसी काम से जा रहा था तो सोचा काका लोगों से मिल कर उनका आशीर्वाद ले लूं और सबका हाल चाल भी पूंछ लूं लेकिन लगता है कि काका लोग अंदर हैं नहीं?"

"हां तुमने सही कहा बेटा।" ललिता देवी ने कहा____"असल में घर के सभी मर्द और बच्चे हमारी जेठानी की लड़की आरती के लिए एक जगह लड़का देखने गए हुए हैं। सब कुछ ठीक ठाक रहा तो रिश्ता पक्का हो जाएगा और फिर जल्दी ही ब्याह के लिए लग्न भी बन जाएगी।"

"अरे वाह! ये तो बहुत ही खुशी की बात है काकी।" मैंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"जल्द ही इस घर में शहनाईयां बजेंगी। मैं तो कहता हूं काकी कि घर की सभी लड़कियों का ब्याह कर के जल्द से जल्द उनकी छुट्टी कर दो आप और मेरे भाईयों का ब्याह कर के नई नई बहुएं ले आओ।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रूपा अपनी मां के सामने ही एकदम से बोल पड़ी____"हम लड़कियां क्या अपने मां बाप के लिए बोझ बनी हुई हैं जो वो जल्दी से हमारा ब्याह कर के इस घर से हमारी छुट्टी कर दें?"

"देखिए ऐसा है कि दुनिया के कोई भी माता पिता अपनी लड़कियों से ये नहीं कहते कि उनकी लड़कियां उनके लिए बोझ हैं।" मैंने रूपा को छेड़ने के इरादे से मुस्कुराते हुए कहा____"जबकि सच तो यही होता है कि लड़कियां सच में अपने माता पिता के लिए बोझ ही होती हैं। मैं सही कह रहा हूं ना काकी?"

"हां बेटा, बहुत हद तक तुम्हारी ये बात सही है।" ललिता देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"लड़कियां उन माता पिता के लिए यकीनन बोझ जैसी ही होती हैं जो अपनी लड़कियों का ब्याह कर पाने में समर्थ नहीं होते। जिनके घर में खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं होती और अपनी जवान बेटियों के तन को ढंकने के लिए कपड़े नहीं होते। ऐसे माता पिता के लिए लड़कियां न चाहते हुए भी बोझ सी ही लगने लगती हैं।"

जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे इस मामले की बात शुरू हो जाने से माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया है इस लिए मैंने काकी से बाद में आने का कह कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे विदा ले कर वापस चल पड़ा। काकी से नज़र बचा कर मैंने एक बार फिर से रूपा को आज शाम मंदिर में मिलने का इशारा कर दिया था। मुझे यकीन था रूपा मुझसे मिलने के लिए मंदिर ज़रूर आएगी।

एक बार फिर से मैं बुलेट में बैठ कर आगे बढ़ चला। मुंशी के घर के पास पहुंच कर मैंने एक नज़र उस तरफ देखा और फिर आगे बढ़ गया। काफी समय से मैं अपने नए निर्माण हो रहे मकान की तरफ नहीं जा पाया था। इस लिए मैं तेज़ रफ़्तार में उस तरफ बढ़ता चला जा रहा था। जिस तरफ मेरा मकान बन रहा था वहां पर जाने के लिए मुख्य सड़क से बाएं तरफ मुड़ना होता था। कुछ दूरी से बंजर ज़मीन शुरू हो जाती थी। पथरीली ज़मीन पर कई तरह के पेड़ पौधे भी थे। हालाकि पथरीली ज़मीन का क्षेत्रफल ज़्यादा नही था। यूं तो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने के लिए मुख्य सड़क थी किंतु एक पगडंडी वाला रास्ता भी मुरारी के गांव की तरफ जाता था जो कि वहीं से हो कर गुज़रता था जिस तरफ मेरा नया मकान बन रहा था।

कुछ ही देर में मैं उस जगह पहुंच गया जहां पर मेरा मकान बन रहा था। मकान भुवन की निगरानी में बन रहा था इस लिए वो वहीं मौजूद था। मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और मकान के कार्य के बारे में सब कुछ बताने लगा।

"शहर से जिन लोगों को बुलाया था वो अपना काम कर रहे हैं ना?" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"हां छोटे ठाकुर, आपके कहे अनुसार वो लोग रात में बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं और इस बात का पता मेरे और आपके अलावा किसी और को बिल्कुल भी नहीं है। यहां तक कि यहां के इन मजदूरों और मिस्त्रियों को भी इस बात का आभास नहीं हुआ कि इसी मकान के नीचे गुप्त रूप से कोई तहखाना भी बनाया जा रहा है।"

"किसी को इस बात का आभास होना भी नहीं चाहिए भुवन।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"यहां तक कि दादा ठाकुर तथा जगताप चाचा को भी नहीं। यूं समझो कि इस बात को तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए अपने सीने में ही राज़ बना के दफ़न कर लेना है।"

"जी मैं समझ गया छोटे ठाकुर।" भुवन ने सिर हिलाते हुए कहा____"मैं अपना सिर कटा दूंगा लेकिन इस बारे में किसी को भी पता नहीं लगने दूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" मैंने भुवन के कंधे को अपने हाथ से थपथपाते हुए कहा____"ख़ैर, और भी कुछ ऐसा है जो तुम्हें बताना चाहिए मुझे?"

"पिछले एक हफ्ते से तो हवेली का कोई भी सदस्य इस तरफ नहीं आया है।" भुवन ने कहा____"लेकिन दो दिन पहले आपके दो मित्र यहां आए थे और यहां के बारे में पूछ रहे थे। ये भी पूछा कि आप आज कल कहां गायब रहते हैं?"

"मेरे तो दो ही मित्र ऐसे हैं जो बचपन से मेरे साथ रहे हैं।" मैंने भुवन की तरफ देखते हुए किंतु सोचने वाले भाव से कहा____"चेतन और सुनील। क्या यही दोनों आए थे यहां?"
"हां हां छोटे ठाकुर।" भुवन एकदम से बोल पड़ा____"दोनों एक दूसरे का यही नाम ले रहे थे।"

भुवन से मैंने कुछ देर और बात की उसके बाद उसे सतर्क रहने का बोल कर मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैं सोच रहा था कि चेतन और सुनील यहां किस लिए आए होंगे और मेरे बारे में क्यों पूछ रहे थे? अगर उन्हें मुझसे मिलना ही था तो वो सीधा हवेली ही आ सकते थे। उन दोनों का तो हमेशा से ही हवेली में आना जाना रहा है। हालाकि इधर जब मुझे तड़ीपार कर दिया गया था तब वो कभी मुझसे मिलने इस जगह पर नहीं आए थे। ख़ैर मुझे याद आया कि मैंने उन दोनों को जासूसी करने का काम सौंपा था किंतु तब से ले कर अब तक में वो दोनों मुझसे मिले ही नहीं थे। दोनों मेरे बचपन के मित्र थे और हमने साथ में जाने क्या क्या कांड किए थे लेकिन अब हमारे बीच वैसा जुड़ाव नहीं रह गया था। एकदम से मुझे लगने लगा कि कहीं वो दोनों भी किसी फ़िराक में तो नहीं हैं? काफी दिनों से मेरी उन दोनों से मुलाक़ात नहीं हुई थी। मैं तो ख़ैर क‌ई सारे झमेलों में फंसा हुआ था लेकिन वो भला किस झमेले में फंसे हुए थे कि एक बार भी मुझसे मिलने हवेली नहीं आए। ये सब सोचते सोचते मुझे आभास होने लगा कि दाल में कुछ तो काला ज़रूर है। दोनों की गांड तोड़नी पड़ेगी अब, तभी सच सामने आएगा।

सोचते विचारते मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया। बुलेट का इंजन बंद कर के जैसे ही मैं दरवाज़े के पास आया तो दरवाज़ा खुला। आज का दिन कदाचित बहुत ही बढ़िया था। उधर साहूकार के घर का दरवाज़ा जब खुला था तो एक खूबसूरत चेहरा नज़र आया था और अब मुरारी के घर का दरवाज़ा खुला तो अनुराधा की हल्की सांवली सूरत नज़र आ गई। एक ऐसी सूरत जिसमें दुनिया जहान की मासूमियत, भोलापन और सादगी कूट कूट कर भरी हुई थी। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर एक ख़ास तरह की चमक के साथ साथ हल्की शर्म की लाली भी उभर आई थी।

"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने मुस्कुराते हुए उसे छेड़ने के इरादे से धीमी आवाज़ में कहा तो वो एकदम शर्म से सिमट गई। गुलाबी होठों पर थिरक रही मुस्कान पलक झपकते ही गहरी पड़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर धीमें स्वर में कहा____"आप क्यों बार बार मुझे ठकुराईन कहते हैं?"

"क्यों न कहूं?" मैंने उसे और छेड़ा____"आख़िर तुम हो तो ठकुराईन ही। अगर तुम्हें मेरे द्वारा ठकुराईन कहने पर ज़रा सा भी एतराज़ होता तो तुम्हारे होठों पर इस तरह मुस्कान न उभर आती।"

"तो क्या चाहते हैं आप कि मैं आपके द्वारा ठकुराईन कहने पर आप पर गुस्सा हुआ करूं?" अनुराधा ने अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा था।

"क्यों नहीं।" मैंने उसकी गहरी आंखों में देखा____"तुम्हें मुझ पर गुस्सा होने का पूरा हक़ है। तुम मेरी डंडे से पिटाई भी कर सकती हो।"

"धत्त! ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, फिर शर्माते हुए बोली____"मैं भला कैसे आपकी पिटाई कर सकती हूं?"
"क्यों नहीं कर सकती?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें पूरा हक़ है मेरी पिटाई करने का।"

"न जी न।" अनुराधा शरमा कर दरवाज़े से एक तरफ हट गई, फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए बोली____"मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती।"
"काकी नहीं है क्या अंदर?" मैंने अंदर आंगन की तरफ नज़र डालते हुए पूछा तो अनुराधा ने ना में सिर हिला दिया।

मैं ये जान कर बेहद खुश हुआ कि सरोज काकी घर में नहीं है। वो दरवाज़े से हट गई थी, ज़ाहिर है वो चाहती थी कि मैं घर के अंदर आऊं वरना वो शुरू में ही मुझे बता देती और अपने बर्ताव से ये भी ज़ाहिर कर देती कि उसकी मां के न होने पर मैं अंदर न आऊं। ख़ैर, मैं अंदर आया तो अनुराधा ने बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर दिया।

"अच्छा तो इसी लिए तुम इतना बेझिझक हो कर मुझसे बातें कर रही थी।" मैंने आंगन के पार बरामदे में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"और मुझ अकेले लड़के को छेड़ रही थी। आने दो काकी को, मैं काकी को बताऊंगा कि कैसे तुम मुझ मासूम को अकेला देख कर मुझे छेड़ रही थी।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा बुरी तरह चकित हो कर बोली____"मैंने कब छेड़ा आपको और ये क्या कहा आपने कि आप मासूम हैं? भला कहां से मासूम लगते हैं आप?"

"बोलती रहो।" मैं मन ही मन हंसते हुए बोला____"सब कुछ बताऊंगा काकी को। ये भी कि तुम मुझे मासूम मानने से साफ़ इंकार कर रही थी।"

"अगर आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं आपसे कोई बात नहीं करूंगी।" अनुराधा के चेहरे पर इस बार मैंने घबराहट के भाव देखे। शायद वो मेरी इस बात को सच मान बैठी थी कि मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।

"कमाल है।" मैंने उसके मासूम से चेहरे पर छा गई घबराहट को देखते हुए कहा____"कैसी ठकुराईन हो तुम जो मेरी इतनी सी बात पर इस क़दर घबरा गई?"

"मैं कोई ठकुराईन वकुराईन नहीं हूं समझे आप?" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"और हां अब मुझे आपसे कोई बात नहीं करना। आप जाइए यहां से, वैसे भी अगर मां आ गई और उसने मुझे आपके साथ यूं अकेले में देख लिया तो मेरी ख़ैर नहीं होगी।"

"ओह! तो मेरी अनुराधा रूठ गई है मुझसे?" जाने कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा निकल गया, जिसका आभास होते ही मेरी धड़कनें एकदम से तेज़ हो गईं और मैं अनुराधा की तरफ देखने लगा। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। वो आंखें फाड़े मेरी तरफ देखने लगी थी, किंतु जल्दी ही सम्हली और फिर बोली____"ये क्या कह रहे हैं आप? मैं आपकी अनुराधा कैसे हो गई?"

"पता नहीं कैसे मेरे मुख से निकल गया?" मैंने अपनी घबराहट को दबाने का प्रयास करते हुए कहा____"वैसे क्या तुम्हें मेरी अनुराधा कह देने पर एतराज़ है?"

"हां बिलकुल एतराज़ है मुझे।" अनुराधा के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे____"मैं सिर्फ़ अपने माता पिता की अनुराधा हूं किसी और की नहीं। अगर आप ये समझते हैं कि आप बाकी लड़कियों की तरह मुझे भी अपने जाल में फंसा लेंगे तो ये आपकी सबसे बड़ी भूल है छोटे ठाकुर।"

मैं अनुराधा के चेहरे पर मौजूद भावों को देख कर एकदम से हैरान रह गया था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि वो मेरी इस बात से इस हद तक बिदक जाएगी। मुझे समझ न आया कि जो अनुराधा मुझे देखते ही शर्माने और मुस्कुराने लगती थी वो मेरी इतनी सी बात से इस तरह कैसे बर्ताव कर सकती थी? वैसे सच कहूं तो हैरान मैं खुद भी अपने आप पर हुआ था कि यूं अचानक से कैसे मेरे मुख से मेरी अनुराधा जैसा संबोधन निकल गया था मगर अब जब निकल ही गया था तो मैं भला क्या ही कर सकता था?

"अब जल्दी से कोई डंडा खोज कर लाओ।" फिर मैंने बात को एक अलग ही दिशा में मोड़ने की गरज से कहा____"और उस डंडे से मेरी पिटाई करना शुरू कर दो।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा मेरी बात सुन कर मानो उलझ गई तो मैंने उसे समझाते हुए कहा____"सही तो कह रहा हूं मैं। कुछ देर पहले मैंने तुमसे कहा था ना कि अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें मेरी पिटाई करने का पूरा हक़ है। अब क्योंकि मैंने ग़लती की है तो इसके लिए तुम्हें डंडे से मेरी पिटाई करनी चाहिए।"

"बातें मत बनाइए।" अनुराधा ने कहा____"सब समझती हूं मैं। अगर आपके मन में मेरे प्रति यही सब है तो चले जाइए यहां से। अनुराधा वो लड़की हर्गिज़ नहीं है जो आपके जाल में फंस जाएगी। हम ग़रीब ज़रूर हैं छोटे ठाकुर लेकिन अपनी जान से भी ज्यादा हमें अपनी इज्ज़त प्यारी है।"

"तो फिर ये भी जान लो अनुराधा कि तुम्हारी इज्ज़त मुझे भी खुद अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।" अनुराधा की बातें सुन कर जाने क्यों मेरे दिल में एक टीस सी उभर आई थी, बोला____"मैं खुद मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन तुम्हारी इज्ज़त पर किसी भी कीमत पर दाग़ नहीं लगा सकता और ना ही किसी के द्वारा लगने दे सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरा चरित्र ही ऐसा है कि किसी को भी मेरी किसी सच्चाई पर यकीन नही हो सकता लेकिन एक बात तुम अच्छी तरह समझ लो अनुराधा कि मैं चाहे सारी दुनिया को दाग़दार कर दूं लेकिन तुम पर दाग़ लगाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं कि तुम वो लड़की हो जिसने मेरे मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और मुझे खुशी है कि तुमने मेरा कायाकल्प कर दिया है। तुमसे हसी मज़ाक करता हूं तो एक अलग ही तरह का एहसास होता है। मेरे मन में अगर ग़लती से भी तुम्हारे प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो मैं अपने आपको कोसने लगता हूं। ख़ैर, मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं देना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

मैं ये सब बोलने के बाद एक झटके से चारपाई से उठा और अनुराधा की तरफ देखे बिना ही तेज़ कदमों के द्वारा आंगन से होते हुए घर से बाहर निकल गया। इस वक्त मेरे अंदर एक आंधी सी चल रही थी। दिल में सागर की लहरों की तरह जज़्बात मानों बेकाबू हो कर हिलोरे मार रहे थे। मैं अपनी बुलेट पर बैठा और उसे स्टार्ट कर तेज़ी से आगे बढ़ गया। जैसे जैसे अनुराधा का घर पीछे छूटता जा रहा था वैसे वैसे मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरा एक खूबसूरत संसार मुझसे बहुत दूर होता जा रहा है। दिलो दिमाग़ पर मचलते तूफान को बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मैं आगे बढ़ा चला जा रहा था।

जिस तरफ मेरे नए बन रहे मकान के लिए रास्ता जा रहा था उस तरफ न जा कर मैं हवेली जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ चला। कच्चा पगडंडी वाला रास्ता था जिसके दोनों तरफ कुछ बड़े बड़े पेड़ थे। मैं जैसे ही उन पेड़ों के थोड़ा पास पहुंचा तो एकदम से दो आदमी उन पेड़ों से निकल कर सड़क के किनारे खड़े हो गए। दोनों के हाथ में मजबूत लट्ठ मौजूद था।


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Behtareen update Shubham Bhai,

Aadmi chah kar bhi apna atit nahi mita sakta, ye hi haal abhi Vaibhav ka he, uski chhavi hi kuch aisi ban chuki he ki agar wo kisi ladki ko sach bhi bole to wo uska galat hi matlab nikalegi......

Ab ye kaun aa gye Vaibhav ke raste me ?????????


Waiting for the next update
 
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