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★☆★ Xforum | Ultimate Story Contest 2022 ~ Reviews Thread ★☆★

rksh

Member
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लोकल

सबेरे सबेरे ही ओला - ऊबर ने उस युवक को धोखा दे दिया।

उसकी घर से ऑफिस जाने की बुकिंग पिछले पंद्रह मिनट में पाँचवी बार कैंसिल हुई थी। अब तो अगर कैब मिल भी जाए, तो ट्रैफिक इतना अधिक होगा कि ऑफिस पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने वाले थे - मतलब प्रेजेंटेशन के लिए कम से कम आधा घण्टा देरी! एक तो ऑफिस जाने की जल्दी, ऊपर से सर्ज प्राइसिंग! जैसे किडनी बेच कर कैब का बिल भरना पड़े!

‘इतने में तो मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट मिल जाए!’ युवक ने बड़ी हिकारत से सोचा।

उसने झल्ला कर ऍप को बंद किया - मन तो उसका अपना फ़ोन ही सड़क पर पटकने का था, लेकिन उसमें भी नुकसान तो अपना ही था - और बड़ी मजबूरी में आज लोकल से ही ऑफिस जाने की सोची।

लोकल की याद आते ही उसका दिल बैठने लगा। पाँच महीने पहले जब वो एक चलती लोकल ट्रेन से गिर कर, अपनी टाँग तुड़वा बैठा, तब से उसको लोकल ट्रेन से नफ़रत हो गई थी। टाँग टूटने के चक्कर में उसकी तीन महीने की सैलरी भी मारी गई, इलाज़ का खर्चा भी अपनी जेब से भरना पड़ा, और उसका वज़न बढ़ गया सो अलग! युवक अपनी दिखावट को ले कर काफ़ी संज़ीदा था। उसका पहनावा बिलकुल त्रुटिहीन था, वो फिट था, और दिखने में किसी मॉडल से कम नहीं लगता था। एक तो उस दुर्घटना की कसैली कड़वी यादें, और ऊपर से लोकल में सफ़र करने में जो दुर्गति होती है, उसको सोच सोच कर उस युवक का दिल बैठा जा रहा था।

लेकिन मरता क्या न करता? आज उसके ऑफिस में उसका एक ज़रूरी प्रेजेंटेशन था। अगर बॉस लोग इम्प्रेस हो गए, तो प्रमोशन की भी बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इसीलिए खासतौर पर आज, वो युवक सही सलामत अपने ऑफिस पहुंचना चाहता था। लेकिन, ओला - ऊबर ने सब कचरा कर दिया था। अब तो केवल लोकल ही आख़िरी सहारा थी!

तेज़ क़दमों से चलते हुए जब वो प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि उसकी वाली लोकल वहीं खड़ी हुई थी। इसका मतलब बहुत अधिक हुआ तो बाद तीस सेकण्ड का समय था उसके पास ट्रेन में चढ़ने का! तीस सेकण्ड में ऐसी ठसा-ठस भरी हुई गाड़ी में चढ़ना नाकाफ़ी ही नहीं, बल्कि अमानवीय काम है! अमानवीय क्या, महामानवीय काम है! शायद ही कभी हो कि कोई लोकल, किसी स्टेशन पर तीस सेकण्ड से अधिक खड़ी होती हो!
युवक कुछ सोच ही रहा था, कि वो सैकड़ों की भीड़ के सैलाब में फँस गया - कब वो प्लेटफार्म से उठ कर, ट्रेन के अंदर आ गया, यह उसको भी नहीं समझ आया। वैसे भी लोकल में सफ़र करना बड़ा ही रोमाँचक होता है। लेकिन इस पीक आवर्स में किसी ट्रेन में चढ़ पाना ही दूभर होता है! युवक ने अपने भाग्य को धन्यवाद किया - कहाँ तो वो सोच रहा था कि आज लटक कर ऑफिस जाना पड़ेगा, लेकिन अभी तो वो कूपे के अंदर था!

‘अहो भाग्य!’

लेकिन उसकी राहत बहुत देर न टिक सकी - उसके अपनी क़मीज़ को देखा। तरीके से इस्त्री करी हुई शर्ट अब ऐसी लग रही थी कि जैसे उसको जानवरों ने रौंद दिया हो। बस वो गन्दी नहीं हुई थी, लेकिन पूरी क़मीज़ पर नई नई, और अनुचित जगहों पर सिलवटें पड़ गई थीं। पसीने से उसकी बगलें भीग गई थीं। बगल खड़े हुए अनगिनत लोगों के शरीर की गंध उसके नथुनों ही नहीं, बल्कि उसके पूरे वज़ूद में समां गई थी।

जुगुप्सा से उसका मन भर गया!

‘आज ही के दिन यह सब होना था!’

युवक ने लोकल की छत से लटकते कुँडे को पकड़ लिया। लोकल में यह भी कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है!

लेकिन अब तक युवक का मन खिन्न हो चुका था। उसके दिमाग में झँझावात मच गया था - नैराश्य, घृणा और जुगुप्सा के मिले जुले भाव रह रह कर युवक के मन में आ और जा रहे थे। कहाँ सवेरे सवेरे वो प्रमोशन के ख़्वाब देख रहा था, और अब कहाँ वो बस समय पर ऑफिस ही पहुँच पाने को बड़ी बात मान रहा था!

युवक को अपने शरीर के दो तरफ से दबाव महसूस हुआ,

‘स्साले ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते!’

युवक ने घृणा से सोचा। लेकिन लोग क्या करें? भीड़ कुछ इस कदर थी कि किसी को खड़े होने की जगह मिल पाई, वो बड़ी बात थी। मुंबई के समाज को समरूप करने के लिए, लोकल से अधिक उपयुक्त यंत्र और कोई नहीं! क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनाढ्य, और क्या निर्धन - लोकल के लिए सभी एक समान हैं!

सभी लोग सट कर खड़े हुए थे - इतने अधिक सटे हुए, कि यह पता चलाना मुश्किल था कि कौन सा हाथ किसका है!

लोकल ट्रेन, थोड़ी-थोड़ी देर में रेंगते हुए, एक स्टेशन से दूसरे पर रुकती, और हर स्टेशन पर एक जैसा ही दृध्य होता।

हुड़दंग मचाता हुआ, यात्रियों का एक सैलाब कूपे से उतरता, और उसी समान एक दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता! और लोकल एक झटका देकर अगले स्टेशन के लिये निकल पड़ती। एक समय था कि युवक रोज़ाना इस भीड़ के साथ सफ़र करने का आदी था, लेकिन आज उसे यह सब - यह यात्रियों का सैलाब, उनका शोर, यह दबे कुचले हुए सफ़र करना बेहद अप्रिय लग रहा था। अब तो वो बस जल्दी से ऑफिस पहुँच कर, कोई ख़ामोश कोना पकड़ कर ठण्डे पानी से अपना सर ठण्डा करना चाहता था। और आज का प्रेजेंटेशन ठीक ठीक चला जाए, बस उसकी कामना कर रहा था।
ट्रेन के झटकों के साथ उसमे ठुँसे हुए यात्री रह-रह कर दाएँ-बाएँ हिल रहे थे। इस दोलन में कूपे की भीड़ एक नियमित अंतराल पर छंट जा रही थी। ऐसे में जब इस बार वो भीड़ छंटी, तो युवक ने उसको देखा।

आसमानी रंग का सूती शलवार कुर्ता पहने एक सुन्दर सी युवती उसी युवक को एकटक देख रही थी! वो उसको एकटक देख रही थी, या कि अचानक ही उनकी आँखें चार हो गईं थीं, युवक के यह समझ पाने से पहले ही भीड़ फिर से एक साथ हो गई। उत्सुकतावश, इस बार युवक ने उसी दिशा में देखते हुए भीड़ के फिर से छंटने का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। इस बार जब फिर से भीड़ छंटी, तो युवक ने फिर से देखा कि युवती की आँखें उस पर ही टिकी हुई थीं।

न जाने क्यों युवक ने अपनी आँखें फेर लीं और खिड़की के बाहर देखने लगा। लेकिन वो बहुत देर तक बाहर न देख सका - मन की उत्सुकता ने फिर से उसकी आँखें उसकी युवती की तरफ मोड़ दीं। अपने तय अंतराल पर फिर से भीड़ छंटी और फिर से उसको उस युवती का सुन्दर सा चेहरा उसकी ही तरफ देखता हुआ दिखा। युवक इस बार झेंप गया। लेकिन मन ही मन उसको गुदगुदी सी भी हुई!

‘लड़की तो सुन्दर है!’ उसने सोचा, ‘लेकिन मुझे क्यों देख रही है? पहले कभी मिली है क्या?’

युवक ने दिमाग पर ज़ोर डाला। उसको उस युवती की याद नहीं आई। मतलब आज उनकी यह पहली ही मुलाक़ात थी।

लोकल एक झटके से अगले स्टेशन पर रुकी और न जाने क्यों युवक मन ही मन मनाने लगा कि वो युवती कूपे से न उतरे। इस स्टेशन पर उतरने वाले ज्यादा थे, और चढ़ने वाले कम। लिहाज़ा, कूपे में कम लोग बचे! कुछ को बैठने की जगह भी मिल गई, इसलिए अब युवती को देखने के लिए भीड़ के छंटने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन चाह कर भी वो युवक उस युवती को एकटक न देख सका। उसने साथ लाया अंग्रेजी अखबार निकाला और उसको पढ़ने का बहाना करने लगा। लेकिन जब भी वो अखबार से आँखें उठा कर युवती की तरफ़ देखता, तो वो उसकी आँखों को अपने चेहरे पर पाता।

खेल चल निकला - शायद युवती भी यह बात समझ रही थी। वो अब मंद मंद मुस्कुराने भी लगी थी।

‘आह! कैसी भोली मुस्कान है!’

मन में चाहे जो भी चल रहा हो, लेकिन प्रत्यक्ष में युवक थोड़ा असहज तो हो ही गया था। उसको लगता कि वो तो अखबार पढ़ने का नाटक कर रहा है, लेकिन ये लड़की तो उसको ही पढ़े डाल रही है!

खुद को संयत करने के लिए उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा - एक तिहाई सफ़र तो बाकी ही बचा हुआ था!

‘ओह! कौन स्साला पाद मारा!’

एक बेहद सड़ी हुई दुर्गन्ध से युवक का मन और भी अधिक खिन्न हो गया। पहले ही भीड़, गर्मी, और पसीने से बुरा हाल था, ऊपर से यह! अब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो चला था यह सफ़र! सफ़र अब सफर (अंग्रेजी वाला) बन गया था। लेकिन वो बस उस युवती के कारण ही इस सफ़र को झेल रहा था।

युवती का सुन्दर सलोना चेहरा, इस गन्दगी में कुमुदनी के समान लग रहा था!

लेकिन उस बदबू ने युवक को मजबूर कर दिया - उसने लोगों की ठेलते हुए युवती की तरफ़ चार पाँच कदम बढ़ा दिए।

“बहुत जाड़ा है क्या?” किसी धक्का खाए व्यक्ति ने ऐतराज़ जताया, “देखो तो कैसे धक्का मार कर चल दिया!”

युवती ने भी देखा कि युवक क्या कर रहा है! उसकी मंद मुस्कान अब बड़ी हो गई।

युवक को लगा कि जैसे उसको आमंत्रण मिल गया हो। उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी।

लेकिन अभी भी दोनों के बीच में कुछ दूरी थी। एक और स्टेशन आया और कूपे की भीड़ कुछ और कम हो गई। अन्य यात्री कूपे में चढ़ पाते कि युवक ने तत्परता से तीन चार और लम्बे डग भरे, और युवती से बस कोई तीन चार फ़ीट दूरी पर आ कर खड़ा हो गया।

युवती ने नज़रें उठा कर युवक को देखा। उसकी मुस्कान अब और भी अधिक चौड़ी हो गई थी। युवक का संदेह जाता रहा।

या शायद नहीं!

उसने कुछ हिम्मत जुटा कर युवती से कहा, “आप मुझे ऐसे लगातार क्यों देख रही हैं?”

युवक के प्रश्न में शिष्टाचार तो था, साथ ही साथ उसकी आवाज़ भी अच्छी थी।

युवती के दिल में अनूठी धमक सी उठी। ऐसा उसके साथ आज से पहले कभी नहीं हुआ।

‘कहीं मुझे ये चालू लड़की न समझने लगे!’

“जी? जी अब नहीं देखूँगी!” युवती ने नजरें झुकाते हुए, लेकिन सहज शिष्टता से जवाब दिया।

“जी, तो तो ठीक है, लेकिन आप देख क्यों रही थीं?”

‘न देखने से मैंने कब मना किया है?’

इस पूरे घटनाक्रम में पहली बार युवती के गालों पर लज्जा की लालिमा चढ़ गई, “अगर कोई किसी के मन को पसंद आ जाए, तो वो अपनी आँखों को कैसे रोके?”

ऐसे मासूम से उत्तर को सुन कर युवक फिर से झेंप गया! लेकिन वो भी मुस्कुराए बिना न रह सका।

साथ ही साथ मुस्कुराने लगे युवती के अगल बगल बैठे अन्य यात्री!

युवती के सामने बैठा एक यात्री अपनी सीट से उठते हुए बोला, “बरख़ुरदार, आओ! बैठो! आज तो वैसे भी माशाअल्लाह वैलेंटाइन डे है!”

इस बात पर पूरा कूपा आस पास के यात्रीगणों के निश्छल ठहाकों से गूँज गया। दूर वाले यात्रियों को समझ नहीं आया कि कौन सा जोक मारा गया है!

युवक झेंप गया, “नहीं जी, थैंक यू! आप बैठिए! वैसे भी मेरा स्टेशन आने वाला है!”

युवती ने अपनी नजरें नीची कर लीं। उसको थोड़ी निराशा हुई कि युवक अब उतरने वाला है।

इतनी लम्बी यात्रा, छोटी पड़ गई!

लेकिन जब तीन और स्टेशन आए और चले गए, तब युवती ने राहत की साँस लेते हुए युवक की तरफ़ देखा।

युवक उसको ही देख रहा था।

“मेरा स्टेशन आने वाला है!” युवती ने धीरे से, एक स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा।

“मेरा भी!” युवक भी युवती के समान ही शिष्ट था।

लोकल रुकी!

युवक और युवती दोनों साथ ही में उतरे!

अंततः दोनों एक दूसरे के सम्मुख थे। एक दूसरे के निकट थे।

लेकिन निकटता ने जैसे जुबान को लकवा मार दिया। बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!

“मेरा ऑफिस यहीं पास ही में है!” युवक ने आखिरकार कहा।

यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।

“मेरा भी!” युवती बोल पड़ी।

क्या बातें करें, इसी बात पर उहापोह की स्थिति बन गई।

“मैं छः बजे इसी स्टेशन पर मिलूँगी!” युवती ने बड़े संकोच से कहा, “मैं रोज़ लोकल से आती जाती हूँ!”

युवक मुस्कुराया, और बिना किसी विलम्ब के बोला, “मैं भी!”



समाप्त!
Avsji
Kahani padh kar mere chehre par bhi muskurahat aa gai.
Dhanyawad
 

avsji

..........
Supreme
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Avsji
Kahani padh kar mere chehre par bhi muskurahat aa gai.
Dhanyawad
बहुत बहुत धन्यवाद भाई 😊🙏
मतलब मेहनत सफल रही
 
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Kala Nag

Mr. X
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लोकल

सबेरे सबेरे ही ओला - ऊबर ने उस युवक को धोखा दे दिया।

उसकी घर से ऑफिस जाने की बुकिंग पिछले पंद्रह मिनट में पाँचवी बार कैंसिल हुई थी। अब तो अगर कैब मिल भी जाए, तो ट्रैफिक इतना अधिक होगा कि ऑफिस पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने वाले थे - मतलब प्रेजेंटेशन के लिए कम से कम आधा घण्टा देरी! एक तो ऑफिस जाने की जल्दी, ऊपर से सर्ज प्राइसिंग! जैसे किडनी बेच कर कैब का बिल भरना पड़े!

‘इतने में तो मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट मिल जाए!’ युवक ने बड़ी हिकारत से सोचा।

उसने झल्ला कर ऍप को बंद किया - मन तो उसका अपना फ़ोन ही सड़क पर पटकने का था, लेकिन उसमें भी नुकसान तो अपना ही था - और बड़ी मजबूरी में आज लोकल से ही ऑफिस जाने की सोची।

लोकल की याद आते ही उसका दिल बैठने लगा। पाँच महीने पहले जब वो एक चलती लोकल ट्रेन से गिर कर, अपनी टाँग तुड़वा बैठा, तब से उसको लोकल ट्रेन से नफ़रत हो गई थी। टाँग टूटने के चक्कर में उसकी तीन महीने की सैलरी भी मारी गई, इलाज़ का खर्चा भी अपनी जेब से भरना पड़ा, और उसका वज़न बढ़ गया सो अलग! युवक अपनी दिखावट को ले कर काफ़ी संज़ीदा था। उसका पहनावा बिलकुल त्रुटिहीन था, वो फिट था, और दिखने में किसी मॉडल से कम नहीं लगता था। एक तो उस दुर्घटना की कसैली कड़वी यादें, और ऊपर से लोकल में सफ़र करने में जो दुर्गति होती है, उसको सोच सोच कर उस युवक का दिल बैठा जा रहा था।

लेकिन मरता क्या न करता? आज उसके ऑफिस में उसका एक ज़रूरी प्रेजेंटेशन था। अगर बॉस लोग इम्प्रेस हो गए, तो प्रमोशन की भी बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इसीलिए खासतौर पर आज, वो युवक सही सलामत अपने ऑफिस पहुंचना चाहता था। लेकिन, ओला - ऊबर ने सब कचरा कर दिया था। अब तो केवल लोकल ही आख़िरी सहारा थी!

तेज़ क़दमों से चलते हुए जब वो प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि उसकी वाली लोकल वहीं खड़ी हुई थी। इसका मतलब बहुत अधिक हुआ तो बाद तीस सेकण्ड का समय था उसके पास ट्रेन में चढ़ने का! तीस सेकण्ड में ऐसी ठसा-ठस भरी हुई गाड़ी में चढ़ना नाकाफ़ी ही नहीं, बल्कि अमानवीय काम है! अमानवीय क्या, महामानवीय काम है! शायद ही कभी हो कि कोई लोकल, किसी स्टेशन पर तीस सेकण्ड से अधिक खड़ी होती हो!
युवक कुछ सोच ही रहा था, कि वो सैकड़ों की भीड़ के सैलाब में फँस गया - कब वो प्लेटफार्म से उठ कर, ट्रेन के अंदर आ गया, यह उसको भी नहीं समझ आया। वैसे भी लोकल में सफ़र करना बड़ा ही रोमाँचक होता है। लेकिन इस पीक आवर्स में किसी ट्रेन में चढ़ पाना ही दूभर होता है! युवक ने अपने भाग्य को धन्यवाद किया - कहाँ तो वो सोच रहा था कि आज लटक कर ऑफिस जाना पड़ेगा, लेकिन अभी तो वो कूपे के अंदर था!

‘अहो भाग्य!’

लेकिन उसकी राहत बहुत देर न टिक सकी - उसके अपनी क़मीज़ को देखा। तरीके से इस्त्री करी हुई शर्ट अब ऐसी लग रही थी कि जैसे उसको जानवरों ने रौंद दिया हो। बस वो गन्दी नहीं हुई थी, लेकिन पूरी क़मीज़ पर नई नई, और अनुचित जगहों पर सिलवटें पड़ गई थीं। पसीने से उसकी बगलें भीग गई थीं। बगल खड़े हुए अनगिनत लोगों के शरीर की गंध उसके नथुनों ही नहीं, बल्कि उसके पूरे वज़ूद में समां गई थी।

जुगुप्सा से उसका मन भर गया!

‘आज ही के दिन यह सब होना था!’

युवक ने लोकल की छत से लटकते कुँडे को पकड़ लिया। लोकल में यह भी कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है!

लेकिन अब तक युवक का मन खिन्न हो चुका था। उसके दिमाग में झँझावात मच गया था - नैराश्य, घृणा और जुगुप्सा के मिले जुले भाव रह रह कर युवक के मन में आ और जा रहे थे। कहाँ सवेरे सवेरे वो प्रमोशन के ख़्वाब देख रहा था, और अब कहाँ वो बस समय पर ऑफिस ही पहुँच पाने को बड़ी बात मान रहा था!

युवक को अपने शरीर के दो तरफ से दबाव महसूस हुआ,

‘स्साले ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते!’

युवक ने घृणा से सोचा। लेकिन लोग क्या करें? भीड़ कुछ इस कदर थी कि किसी को खड़े होने की जगह मिल पाई, वो बड़ी बात थी। मुंबई के समाज को समरूप करने के लिए, लोकल से अधिक उपयुक्त यंत्र और कोई नहीं! क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनाढ्य, और क्या निर्धन - लोकल के लिए सभी एक समान हैं!

सभी लोग सट कर खड़े हुए थे - इतने अधिक सटे हुए, कि यह पता चलाना मुश्किल था कि कौन सा हाथ किसका है!

लोकल ट्रेन, थोड़ी-थोड़ी देर में रेंगते हुए, एक स्टेशन से दूसरे पर रुकती, और हर स्टेशन पर एक जैसा ही दृध्य होता।

हुड़दंग मचाता हुआ, यात्रियों का एक सैलाब कूपे से उतरता, और उसी समान एक दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता! और लोकल एक झटका देकर अगले स्टेशन के लिये निकल पड़ती। एक समय था कि युवक रोज़ाना इस भीड़ के साथ सफ़र करने का आदी था, लेकिन आज उसे यह सब - यह यात्रियों का सैलाब, उनका शोर, यह दबे कुचले हुए सफ़र करना बेहद अप्रिय लग रहा था। अब तो वो बस जल्दी से ऑफिस पहुँच कर, कोई ख़ामोश कोना पकड़ कर ठण्डे पानी से अपना सर ठण्डा करना चाहता था। और आज का प्रेजेंटेशन ठीक ठीक चला जाए, बस उसकी कामना कर रहा था।
ट्रेन के झटकों के साथ उसमे ठुँसे हुए यात्री रह-रह कर दाएँ-बाएँ हिल रहे थे। इस दोलन में कूपे की भीड़ एक नियमित अंतराल पर छंट जा रही थी। ऐसे में जब इस बार वो भीड़ छंटी, तो युवक ने उसको देखा।

आसमानी रंग का सूती शलवार कुर्ता पहने एक सुन्दर सी युवती उसी युवक को एकटक देख रही थी! वो उसको एकटक देख रही थी, या कि अचानक ही उनकी आँखें चार हो गईं थीं, युवक के यह समझ पाने से पहले ही भीड़ फिर से एक साथ हो गई। उत्सुकतावश, इस बार युवक ने उसी दिशा में देखते हुए भीड़ के फिर से छंटने का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। इस बार जब फिर से भीड़ छंटी, तो युवक ने फिर से देखा कि युवती की आँखें उस पर ही टिकी हुई थीं।

न जाने क्यों युवक ने अपनी आँखें फेर लीं और खिड़की के बाहर देखने लगा। लेकिन वो बहुत देर तक बाहर न देख सका - मन की उत्सुकता ने फिर से उसकी आँखें उसकी युवती की तरफ मोड़ दीं। अपने तय अंतराल पर फिर से भीड़ छंटी और फिर से उसको उस युवती का सुन्दर सा चेहरा उसकी ही तरफ देखता हुआ दिखा। युवक इस बार झेंप गया। लेकिन मन ही मन उसको गुदगुदी सी भी हुई!

‘लड़की तो सुन्दर है!’ उसने सोचा, ‘लेकिन मुझे क्यों देख रही है? पहले कभी मिली है क्या?’

युवक ने दिमाग पर ज़ोर डाला। उसको उस युवती की याद नहीं आई। मतलब आज उनकी यह पहली ही मुलाक़ात थी।

लोकल एक झटके से अगले स्टेशन पर रुकी और न जाने क्यों युवक मन ही मन मनाने लगा कि वो युवती कूपे से न उतरे। इस स्टेशन पर उतरने वाले ज्यादा थे, और चढ़ने वाले कम। लिहाज़ा, कूपे में कम लोग बचे! कुछ को बैठने की जगह भी मिल गई, इसलिए अब युवती को देखने के लिए भीड़ के छंटने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन चाह कर भी वो युवक उस युवती को एकटक न देख सका। उसने साथ लाया अंग्रेजी अखबार निकाला और उसको पढ़ने का बहाना करने लगा। लेकिन जब भी वो अखबार से आँखें उठा कर युवती की तरफ़ देखता, तो वो उसकी आँखों को अपने चेहरे पर पाता।

खेल चल निकला - शायद युवती भी यह बात समझ रही थी। वो अब मंद मंद मुस्कुराने भी लगी थी।

‘आह! कैसी भोली मुस्कान है!’

मन में चाहे जो भी चल रहा हो, लेकिन प्रत्यक्ष में युवक थोड़ा असहज तो हो ही गया था। उसको लगता कि वो तो अखबार पढ़ने का नाटक कर रहा है, लेकिन ये लड़की तो उसको ही पढ़े डाल रही है!

खुद को संयत करने के लिए उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा - एक तिहाई सफ़र तो बाकी ही बचा हुआ था!

‘ओह! कौन स्साला पाद मारा!’

एक बेहद सड़ी हुई दुर्गन्ध से युवक का मन और भी अधिक खिन्न हो गया। पहले ही भीड़, गर्मी, और पसीने से बुरा हाल था, ऊपर से यह! अब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो चला था यह सफ़र! सफ़र अब सफर (अंग्रेजी वाला) बन गया था। लेकिन वो बस उस युवती के कारण ही इस सफ़र को झेल रहा था।

युवती का सुन्दर सलोना चेहरा, इस गन्दगी में कुमुदनी के समान लग रहा था!

लेकिन उस बदबू ने युवक को मजबूर कर दिया - उसने लोगों की ठेलते हुए युवती की तरफ़ चार पाँच कदम बढ़ा दिए।

“बहुत जाड़ा है क्या?” किसी धक्का खाए व्यक्ति ने ऐतराज़ जताया, “देखो तो कैसे धक्का मार कर चल दिया!”

युवती ने भी देखा कि युवक क्या कर रहा है! उसकी मंद मुस्कान अब बड़ी हो गई।

युवक को लगा कि जैसे उसको आमंत्रण मिल गया हो। उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी।

लेकिन अभी भी दोनों के बीच में कुछ दूरी थी। एक और स्टेशन आया और कूपे की भीड़ कुछ और कम हो गई। अन्य यात्री कूपे में चढ़ पाते कि युवक ने तत्परता से तीन चार और लम्बे डग भरे, और युवती से बस कोई तीन चार फ़ीट दूरी पर आ कर खड़ा हो गया।

युवती ने नज़रें उठा कर युवक को देखा। उसकी मुस्कान अब और भी अधिक चौड़ी हो गई थी। युवक का संदेह जाता रहा।

या शायद नहीं!

उसने कुछ हिम्मत जुटा कर युवती से कहा, “आप मुझे ऐसे लगातार क्यों देख रही हैं?”

युवक के प्रश्न में शिष्टाचार तो था, साथ ही साथ उसकी आवाज़ भी अच्छी थी।

युवती के दिल में अनूठी धमक सी उठी। ऐसा उसके साथ आज से पहले कभी नहीं हुआ।

‘कहीं मुझे ये चालू लड़की न समझने लगे!’

“जी? जी अब नहीं देखूँगी!” युवती ने नजरें झुकाते हुए, लेकिन सहज शिष्टता से जवाब दिया।

“जी, तो तो ठीक है, लेकिन आप देख क्यों रही थीं?”

‘न देखने से मैंने कब मना किया है?’

इस पूरे घटनाक्रम में पहली बार युवती के गालों पर लज्जा की लालिमा चढ़ गई, “अगर कोई किसी के मन को पसंद आ जाए, तो वो अपनी आँखों को कैसे रोके?”

ऐसे मासूम से उत्तर को सुन कर युवक फिर से झेंप गया! लेकिन वो भी मुस्कुराए बिना न रह सका।

साथ ही साथ मुस्कुराने लगे युवती के अगल बगल बैठे अन्य यात्री!

युवती के सामने बैठा एक यात्री अपनी सीट से उठते हुए बोला, “बरख़ुरदार, आओ! बैठो! आज तो वैसे भी माशाअल्लाह वैलेंटाइन डे है!”

इस बात पर पूरा कूपा आस पास के यात्रीगणों के निश्छल ठहाकों से गूँज गया। दूर वाले यात्रियों को समझ नहीं आया कि कौन सा जोक मारा गया है!

युवक झेंप गया, “नहीं जी, थैंक यू! आप बैठिए! वैसे भी मेरा स्टेशन आने वाला है!”

युवती ने अपनी नजरें नीची कर लीं। उसको थोड़ी निराशा हुई कि युवक अब उतरने वाला है।

इतनी लम्बी यात्रा, छोटी पड़ गई!

लेकिन जब तीन और स्टेशन आए और चले गए, तब युवती ने राहत की साँस लेते हुए युवक की तरफ़ देखा।

युवक उसको ही देख रहा था।

“मेरा स्टेशन आने वाला है!” युवती ने धीरे से, एक स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा।

“मेरा भी!” युवक भी युवती के समान ही शिष्ट था।

लोकल रुकी!

युवक और युवती दोनों साथ ही में उतरे!

अंततः दोनों एक दूसरे के सम्मुख थे। एक दूसरे के निकट थे।

लेकिन निकटता ने जैसे जुबान को लकवा मार दिया। बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!

“मेरा ऑफिस यहीं पास ही में है!” युवक ने आखिरकार कहा।

यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।

“मेरा भी!” युवती बोल पड़ी।

क्या बातें करें, इसी बात पर उहापोह की स्थिति बन गई।

“मैं छः बजे इसी स्टेशन पर मिलूँगी!” युवती ने बड़े संकोच से कहा, “मैं रोज़ लोकल से आती जाती हूँ!”

युवक मुस्कुराया, और बिना किसी विलम्ब के बोला, “मैं भी!”



समाप्त!
ओला उ उबर ने मिला दी जोड़ी
बढ़िया अनुभूति रहा लोकल का
भाई वाह
 

Jaguaar

Prime
17,680
60,210
244
TIN MULAKATEN
——————————
Mera naam Santosh Kumar Mishra hai. Main ek upanyaskar hun. Pahle maine ek police ASI ke rup me naukri shuru ki thi. Par Naukri mujhe jama nahin. Kyunki kisi bhi case me tahkikat ki aajadi nahi thi, aur jis case me dum laga kar solve kiya uska sara shrey bade adhikari le gaye aur sath sath promotion bhi. Isliye dus sal naukri karne ke bad maine naukri chod di. Apni kamai ke liye maine bap dada ki di hui ghar ko Jim me tabdil kar diya aur chhat par ek Arobic center khol diya jise meri patni sambhalne lagi. Kyunki urban ilakon me log bahut helth conscious ho chale hain, isliye meri jim aur Arobic center se achchi kamai hone lagi. Isse mere standard of living me koi fark nahi pada. Par chunki mujhe bahut khali wakt mila, is dauran maine apne anubhav ko istemal kar crime aur thriller par upanyas likhna shuru kiya. Meri pahli kahani ko maine khud DIVYA PRAKASHANI valon ko pachas hajar rupaye de kar publish karvaya, aur kitab ki kimat pachas rupaye rakha. Ek mahine bad Divya Prakashani valon ne aakar mujhse meri pahli kitab aur aane vali do kitabon ke liye contract sign karvaya, badle men har ek kitab ke liye das lakh rupaye ki offer bhi kiya. Mere liye yeh bahut badi uplabdhi thi, maine ise hathon hath liya aur contract sign kar diya.

Main pathkon me SKM pen nam se famous ho chala. Meri fan following bhi kafi badi thi. Ghar par har mahine saikodon khat aate the. Matalab chitthiyan prakashan ko hi aati thi aur prakashan vale mere ghar bhej dete the. Yeh dekh kar maine apne tisre upanyas
ke liye apne prashansakon ke liye ek compition rakha. Jiski review achchi lagegi aur upanyas men ek shabd ki galti hui hai, jo pathak use pakad lega main personally use uski sahuliyat ke hisab se ya to lunch ya fir dinner apne sath karvaunga. Par sirf ek mahine ke bhitar mile chitthiyon par vichar kiya jayega. Yeh Upanyas Duserah ke samay aaya tha yani October ke mahine. Is elan ke bad mere ghar saikdon nahin balki hajaron ki tadat me khat aaye the.

Meri tisri upanyas ka naam tha APRIL FOOL. Yeh kahani extra marital aur murder mystery par adharit tha.

Kahani ka saar kuch aisa tha ki ek pati ki dusre mahila ke saath afair ho jata hai. Woh pati us afair ko seriously leta hai. Isliye dhire dhire woh apni patni ko slow poison dena shuru karta hai. March mahine me uski patni ke sine me dard uthta hai. Pati use apne doctor dost ke Hospital me le ja kar check karvata hai aur report first April ko lata hai. Jisme Heart attack ho jane ki baat likhi gai thi. Ek din woh apni patni ki hatya kar deta hai aur lash ko shamshan me jala deta hai. Par jab woh asthiyon ko bisarjit karne Puri jata hai use police giraftar kar leti hai. Woh pati police se vajah puchta hai to police use apni patni ki katl ke jurm me giraftar karne ki baat kahta hai. Tab pati woh medical report ka hawala deta hai to police us report ko nakar deta hai kyunki uski patni ne shaq ke aadhar par apni dobara checking karvayi thi dusre sarkari Hospital me aur us report me uske thik hone ki baat saf likhi hui thi aur woh report usne apni saheli ko de di thi. Taki agar kuch anhoni ho jaye to police ko ittela karne ke liye. Aur police ne pati ke dost us doctor ko bhi arrest kar liya tha aur us doctor ne apne bayan me kaha hai ki woh pati apni bivi ko APRIL FOOL karna chahta tha isliye uske kahe mutabik usne report First April ko banaya tha. Iske bad kahne ke liye pati ke pass kuch nahi tha. Fir bhi police ne asthiyon ki forensic janch karai to haddiyon me Arsenic mila. Ab slow poison ki bhi pusti ho gai thi. Is tarah pati ki giraftari hui thi. Yeh kahani maine apne vyaktigat anubhav ke aadhar par romanchak tarike se prastut kiya tha.

Logon ne is kahani ko hathon hath liya tha. Ab main khud apni hi banaye jall me fas chuka tha. Main roj khat padh padh kar achchi review ki talash karta tha. Pure ek mahine tak, aur ant me mujhe ek mahila prashansak ki review pasand aaya. Uska nam Avantika tha. Maine use jawab diya aur apna Divya Prakashani ke Editor ke number de kar unse unki suvidha anusar party lene ke liye kaha. Kuch dinon bad editor sahab ne mujhe phone par jankari di ki woh meri prashansika mujhse isi mahine **** tarikh ko party lena chahti hai.

Maine Bhubaneswar me Fortune Tower me apni booking karaya. Aur **** tarikh ka intejar karne laga.

Pahali Mulakat...

**** tarikh ko Main Fortune Tower me thik sadhe barah baje pahuncha, aur apne book kiye table ke bare me puchh kar jakar table par pahuncha. Thik barah baje paintalish par ek khubsurat aurat mere paas aai, aur khadi ho gai. Maine use gaur se dekha, woh mujhe shayad pachchis ya chabbish sall ki lagi.

Main - Avantika...
Avantika - ji... Aap SKM
Main - ji koi shaq...
Avantika - ji bilkul nahin...
Main - Haan to Avantika ji... Aap miss hain ya Mrs...
Avantika - kyun... (aankh marte hue) aapko try karna hai....

Main - (jhemp gaya) nahin nahin... Meri aisi koi matlab nahin hai.... Avantika ji...
Avantika - (khila khila kar hanste huye) arre arre... Itne bade crime thriller writer... Aise kyun nervous ho rahe hain... By the way... Call me Avi... Avantika bahut bada aur old fashioned lagta hai... Aur main abhi bhi apne Mr. Right ke intjar me hun....
Main - (khud ko sambhalte huye) Oh.. To miss Avi... Itna to main kah sakta hun... Aap kahani ko badi gehrai tak bariki se padhte hain... Padhne ke flow me readers look over kar jate hain... Par aapne woh galti pakad hi li...
Avi - yeh koi baat nahin hui... Aakhir main aapki bahut badi fan hun... Aur aapke lekhan ki to kya kahne... Aapne kahani ke police report me raat ke gyarah baje ko thirteenth hour likha tha... Agar hum chaubis ghante ki format me jate to aapko twenty third hour likhna hota... Aur agar barah ghante ki format me jayen to aapko eleventh hour likhna tha... Par aapne thirteenth hour likha... Bas maine pakad li...
Main - Impressed... Wakai aap achche pathak hain... (fir main topic ko badalte huye) kya khana pasand karengi aap....

Fir Avi waiter ko bulakar apna khana order kiya aur maine apna. Hum khana khate khate baat karne lage.

Main - to Avi ji... Aap karti kya hain...
Avi - jaisa ki maine kaha... Apne Mr. Right ki intjar kar rahi hun... Aur intjar karte karte aapki novel padhti rahti hun....
Main - thank you... Bahut bahut shukriya...
Avi - isme shukriya ki kya baat hai... Main aapki fan hun... Aur aapko admire karti hun... Sach kahun to... Main bhi apne jivan kaal me... Ek baar ek thriller likhna chahti hun aur... Aapko dedicate karna chahti hun...
Main - (khush hote huye) Wakai... Iske liye pahle se hi abhinandan aur shubh kamnayen...
Avi - par agar... Aap mujhe... Likhne me Thoda guide kar den to... (yeh kahkar ruk jati hai)
Main - Hold on... Hold on... Yeh possibly... Hamari aakhri mulakat hai... Aur guidance lene ki baat kar rahe hain...

Avi - Agar aaj aap thoda guide kar den... Uske bad aur hardly aur do mulakaten... Main promise karti hun... Main aisi thriller prastut karungi... Ke aap bhi kaamp jayenge... Haan yah baat aur hai... Is baat se agar in-secure feel karne lage... Ke kahin aapki fan aapko suppress kar aage nikal na jaye...
Main - nahi nahi... Main in-secure kyun feel karunga... Par aur do mulakat men kya hoga...
Avi - aap bas raji ho jayen... Agli do mulakaten main sponcer karungi... Wada karti hun... Apni guru ko surprise kar dungi...
Main - (kuch der sochne ke bad) thik hai... Yah rakhiye mobile number (kah kar main prakashan ke taraf se di gai mobile number Avi ko de kar uska number exchange karliya)

Avi - hmmm... To shuru kijie
Main - kya....
Avi - yahi... ki thriller likhi kaise jati hai....
Main - Aap ka apna koi idea hogi na...
Avi - Haan hai na... Aapki kahani April fool ke... Incident aur character ko reverse kar dete hain....
Main - matlab....
Avi - matlab yah hai ki... Aapki kahani me... Aapne Katil pati hai... Par mere kahani me.... Patni Katil hogi.... Aapki kahani me Katil clue chod diya.... Par meri kahani me.... Katil koi bhi surak nahi chodegi... Police to dur yahan tak forensic bhi fail ho jayegi.... Pata tab chalega jab katil khud confess karegi...
Main - oh... Wow... Sunne me kafi interesting hai...
Avi - to shuru karen....
Main - dekhiye Avi ji... Murder mystery me... Ek murder hoti hai... Kai suspects hote hain... Aur ek accused.... Fir tahkikat... Fir asli criminal... Isliye pahle ya to murder establish karo ya fir characters....
Avi - ummm... Murder to aapse discussion karne ke bad decide karenge... Ek kaam karti hun... Pahle character establish karti hun...
Main - haan yehi... Sahi rahega...

Tab tak hamara khana khatam ho chuka tha. Woh vapas jane ko hui aur main bhi. Tabhi...

Avi - excuse me... Kya hum teen hafte bad... Milen...
Main - thik hai... Jagah aur wakt mujhe message kar dijiyega....
Avi - Bye...
Main - Bye
Woh chali gai. Main bhi apni duniya me laut aaya. Badi aasani se maine use bhul bhi gaya. Kyunke main apni daily jindgi me khud ko vyast kar chuka tha. Ek din sham ko Jim me logon se exercise karva raha tha ke phone bajne laga. Woh phone jo prakshan valon ne mujhe di thi. Main phon par naam dekha to Avantika display ho raha tha. Fir mujhe yad aaya ke teen hafte bitne ko hai. Maine phone uthaya

Main - Hello...
Avi - Sir... Kya main yaad hun... Ya aapne bhula diya...
Main - bhula to nahin hun.... Par main nahin janta tha... Ke aap wakai serious hain...
Avi - O... Really... Khair... Kya hum apni agli mulakat ke liye... Venue decide karen....
Main - ok.... kab aur kahan...
Avi - kal hi dopahar ko... The Cave Restaurant me... Thik sadhe barah baje....
Main - ok... (udhar se phone cut gaya)

Main agle din The Cave Restaurant me pahunch gaya. Andar jakar dekha to ek table par Avantika baithi hui thi. Uske hath me ek diary thi. Us din Avantika bilkul Qayamat dikh rahi thi. Woh jeans aur Top pahne aai hui thi. Mere pahunchte hi waiter khana serv kardiya. Pichli meeting me humne jo khaya tha Avi ne wahi Order kar diya tha.

Main - Hath me dairy aur pen... Lagta hai... Aap kahani likh kar hi manenge...
Avi - koi Shaq... Main to aapko... Shock dene ki thani hai...
Main - mujhe shock dene ke liye... Mujhse hi help liya ja raha hai...
Avi - Ha ha ha (khil khila kar hansne lagi) lagta hai aap dar gaye... Ha ha ha....
Main - (muskurate huye) nahi... Bilkul nahi...
Avi - achcha baba... Aap nahin dare... Thik... To ab shuru Karen...
Main - kya...
Avi - arre.... Meri story ka... Characterisation...
Main - thik hai... Maine aapko kaha tha...
Avi - yahi.. Ki ek incident... Kuch suspect aur accused etc...
Main - to aapne kya kiya hai... Ab tak...
Avi - maine... Place select kar diya hai... Aur pati patni kaise honge.. Unka character decide kar diya hai...
Main - achcha... Place aapne kahan chuna hai...
Avi - Vuda Colony Visakhapatnam...
Main - aisa kyun...
Avi - bas aise hi...
Main - thik hai... Ab character...
Avi - meri kahani me.... pati ek... successes ful business man cum wakil bhi hai...
Main - aur patni...
Avi - Simple... Ek house wife...
Main - to fir patni... Pati ko kyun marna chahegi...
Avi - Patni was in love in her past with some one... Pati ko uska yehi atit malum hone ke baad... Unke relation me darar aa jati hai....
Main - to.... Isme... Jaan lene tak ki naubat kahan aa gai...
Avi - kyunki from that day... Woh pati ek dum se Sadist ho jata hai.. Perverted ho jata hai... Aur aaye din apni patni ko torture karne lagta hai...
Main - tab to kam se kam... Ghar valon ko malum ho gaya hoga uska character...
Avi - hmmm yeh ek point hai... Chalo... Ek kaam karte hain.... Un pati patni ko ghar me... Akela kar dete hain...
Main - Naukar chakar....
Avi - haan woh log to honge hi... Par un logon ko torture ke bare me kuch bhi malum nahin ho pata... Kyunki torture raat me... Bed room me... Hota hai...
Main - to aapke khalnayak ke maut kaisi chahte hain...
Avi - Dekhiye... Aapki Kahani me... Khalnayak bahut jugad lagata hai... Isliye uske rajdaar badh gaye... Par meri kahani me... Uski plan ki koi rajdar na ho.... Aur ek aisi maut... Jise police ki tahkikat bhi suljha nahi paye...
Main - aapki katha nayika... Ek house wife hai.... Woh plan banayegi aur kisiko rajdaar nahi banayegi...
Avi - ji...
Main - To aise me... Aapki katha nayika ko... Mauke ki intjar karna padega... Apke khalnayak ki daily routine me hi Loop Hole dhundhna padega... Aur kuchh aisa karna padega ki woh murder accidents lage....
Avi - to... Ab mujhe kya karna hoga...
Main - aap apne khal nayak ki daily routine banao... Fir plot banate hain...
Avi - thik hai.. Agli bar ki mulakat me sab final karte hain...
Main - ok then....

Itna kah kar hum baten aur khana khatam karte hain aur apne apne raste nikal jate hain. Main ghar laut aaya, par is baar ki Mulakat ne mere dil me ek hulchal macha diya tha. Akarshan tha ya kuch aur par mere dil me ek jignyasa ko jaga diya tha Avantika ne. Main isi soch me tha to yeh bhi yaad aaya ki agli mulakat ke liye hamne koi time fix nahin kiya tha. Pahle maine Avi ki phone ka intejar nahin kiya par ab har pal mujhe Avi ki phone ka intejar rahne laga. Aise me do hate gujar gaye. Ek din main ghar pe yuhin khali baitha tha ki Avi ki phone aaya.

Main - hello...
Avi - hello sir... Kya main yaad hun..
Main - aapne hame guru mana hai... To bhul kaise sakte hain... To kab ka time nikala hai aur kahanka venue hai...
Avi - Ummm... Chaliye... Is baar hum... Hotel Sunshine me milte hain aur time bhi wahi same...
Main - matlab... Sadhe barah baje...
Avi - ji... Kal... Hi..
Main - ok....

Tisri mulakat

Fir phone cut jata hai. Main Avantika se milne ke liye bada hi utsuk tha. Isliye raat jaise taise biti. Subha se hi taiyar ho kar main ghadi me barah bajne ki intejar karta raha. Jaise hi barah bajne ko hua main udta hua hotel Sunshine me pahuncha. Wahan par dekha Avantika waiter ko kuchh order kar rahi hai. Main use dekhta hi rah gaya. Aaj woh pili rang ki sadi aur safed rang ki blouse me gajab ki lag rahi thi. Mujhe dekh kar Avi ne ek katilana muskurahat ka var kiya. Mere dil me ek hulchal mach gai. Main sidhe jakar uske table par baith gaya.

Avi - wah... Kya baat hai... Guruji... Kya timing hai...
Main - bas aise hi...

Tabhi waiter aakar khana serv kar deta hai. Menu wahi tha jo donon ne pahli mulakat me khaya tha.

Avi - to shuru karen...
Main - jarur... Kya aapne aapke khalnayak ki daily routine set kar diya hai...
Avi - haan...
Main - thik hai... Aap batana shuru kijie...
Avi - vaise maine bahut sochne ke bad... Ek plan banaya hai... Bas aapse confirmation karna chahti hun...
Main - matlab....
Avi - dekhiye sir... Meri kahani ki heroin ek housewife hai... Aur aapne hi kaha ki use mauke ka intejar karna chahiye... Aur mauka use uski pati ki daily routine de sakti hai...
Main - haan to...
Avi - to ab unke ghar ki design par aate hain... Vuda colony me... Ek junction par jahan main rod aur sub road milte hain... Ghar ko ham wahin par rakhte hain...
Main - achcha... Hmmm... Aage..
Avi - to woh ghar ek duplex hai.... Upar hi Master bedroom hai... Jiski balcony sub road ki disha me hai... Main road ke taraf garden aur portico hai... Isliye paper wale ko strict instruction hai ki woh... Balcony ke taraf hi paper dal kar chala jaye... Kyunki nind se uthne ke bad bhi aadhi nind me hota hai.... Usi aadhi nind me.. woh balcony ja kar paper lekar bathroom jata hai...
Main - to... Isme kharabi kya hai... Yeh to ek achchi aadat hai...
Avi - haan yahi achchi aadat hi uski jaan legi...
Main - kaise...
Avi - agar woh... Balcony hi na rahe to...
Main - what... Agar balcony na rahe tab bhi... Balcony ki hight jyada se jyada pandrah feet hi hogi... Isse uska hath ya pair hi tut sakta hai...
Avi - O... To use mare kaise..
Main - Balocny nahin hoga... Aisa use bhi to pata hoga... Kyunki woh akhir uska hi bed room hai....
Avi - Hmmm... Nahi uae pata nahin hoga... Kyunke woh der raat tour se lauta hoga... Use malum hi nahi hoga...
Main - isme do locha hai... Ek uske knowledge me balcony repair hoga... Dusra... Agar galti se woh balcony me gaya to bhi niche girte wakt woh farsh par girega... Jyada se jyada woh jakhmi hoga... Marne ke liye bhishm shaiya bichhana padega...
Avi - Hmmm... Aakhir aap police vale jo thahre... Thik hai... Aisa kabhi ho nahin sakta... Ke perfect jurm ho jaye... Then I drop... Main story nahi likh sakti... Sorry...
Main - (Avi ko dilasa dete hue) fir bhi aapko likhna chahiye...
Avi - Thik hai... Dekhte hain...

Khana khatam ho chuka tha. Avantika ne bill pay kar diya. Fir bina pichche mude chali gai. Main bhi apna man maar kar nikal gaya. Fir kabhi mujhe Avi ne phone nahin kiya. Ek do baar maine koshish ki par phone switch off aata raha. Fir maine bhi dhire dhire Avi ko apne jehen se bhula diya.
Is bich teen mahine gujar gaye. Main subha subha TV laga kar news dekh raha tha ki achanak ek news ne mera dhyan khincha.

Mashur wakil Amitabh Das ki chhat se gir kar maut. Unki bedroom ki balcony repair me thi. Unhone hi use repair me diya tha. Jab kaam shuru hua tha tab woh do mahine ke liye tour par the. Par kisi karan balcony ki kaam ruk gaya tha. Kal hi achanak tour ko aadhi chod wapas aa gaye the, aur subha jab adatan paper lene ke liye balcony me gaye hadse ke shikar ho gaye. Niche naye foundation ke liye sariya lagaya gaya tha jiske vajah se unki mauke par hi dehant ho gaya. Apne piche apni beva patni Avantika ko chod gaye hain.

Yeh news sunte hi mere hath panvo kampne lage. Mujhe jabardast shock laga. Main Calender ki or dekha aaj date first April thi.
Jabardasttt Storyyy

Yehh Avantikaa toh bahottt badii shatirr auratt nikliii. Usne kitnii chalaki se apne pati ka murder kardiya aur idea bhi liya toh ek former police inspector se. Waaahhh ladkii ne bahott dimaag lagaya hai jabardastt. Unhe SKM se pura murder dicuss kiya. Jaise jaise SKM bolta gaya usne waise waise plan kiya aur aakhir mein usne apne plan ko anjaan diya.

SKM khud ek policewala hoke bhi Avantika ke shatir plan ko samaj nhi paaya. Par galti uski bhi nhi. Avantika ne plan hi aisa banaya tha ke koi bhi samaj nhi pata. Avantika ne ek kahani ko ekdum sachhi ghatna banadiya. Aksar log sachhi ghatna ko kahani banate hai.

Avantika ne kaha tha woh SKM ko shock kardegi. Usne jaise kaha bilkul waisa hi kiyaa. SKM news sunne ke baad buri tarah shock hogyaa. Par isme ek chiz samaj nhi aayi harbaar time 12:30 baje ka hi kyo aur khaane ka menu bhi harbaar same kisliye.

Jabardastt Storyy thii maza aagaya padhke.
 
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Kala Nag

Mr. X
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Jabardasttt Storyyy

Yehh Avantikaa toh bahottt badii shatirr auratt nikliii. Usne kitnii chalaki se apne pati ka murder kardiya aur idea bhi liya toh ek former police inspector se. Waaahhh ladkii ne bahott dimaag lagaya hai jabardastt. Unhe SKM se pura murder dicuss kiya. Jaise jaise SKM bolta gaya usne waise waise plan kiya aur aakhir mein usne apne plan ko anjaan diya.

SKM khud ek policewala hoke bhi Avantika ke shatir plan ko samaj nhi paaya. Par galti uski bhi nhi. Avantika ne plan hi aisa banaya tha ke koi bhi samaj nhi pata. Avantika ne ek kahani ko ekdum sachhi ghatna banadiya. Aksar log sachhi ghatna ko kahani banate hai.

Avantika ne kaha tha woh SKM ko shock kardegi. Usne jaise kaha bilkul waisa hi kiyaa. SKM news sunne ke baad buri tarah shock hogyaa. Par isme ek chiz samaj nhi aayi harbaar time 12:30 baje ka hi kyo aur khaane ka menu bhi harbaar same kisliye.

Jabardastt Storyy thii maza aagaya padhke.
बहुत कुछ सस्पेंस है
अवंतिका एक हाउस वाइफ है
वह उस वक्त को सिलेक्ट करती है जिस वक्त उसका पति काम पर हो
 

avsji

..........
Supreme
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ओला उ उबर ने मिला दी जोड़ी
बढ़िया अनुभूति रहा लोकल का
भाई वाह
मंडल आभारी आहे 😊🙏
 

Yug Purush

सादा जीवन, तुच्छ विचार
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ये कैसी बिदाई by SANJU ( V. R. )

मेरा स्वाभाव ही ऐसा हैं कि ना चाहते हुए भी कोई भी कहानी पढ़ते हुए मेरा मस्तिष्क बैकग्राउंड मे कहानी मे मेरे अनुसार मौजूद कमिया ढूंढ़ने लगता हैं... पर माँ शब्द सुनते ही मेरी ये सुपरपावर मस्तिष्क की अनंत सम्भावनाओं मे मानो कही अचानक से विलुप्त हो गई... या फिर संजू भैय्या की कहानी ही ऐसी थी की इसमें कोई कमी नही.... इसतरह से अभी तक कांटेस्ट मे मेरे द्वारा पढ़ी गई कहानियो मे ये एकमात्र त्रुटिरहित कहानी हैं....

प्लाट और थीम... भले ही एक्स्ट्राआर्डिनरी ना हो.. लेकिन उसे लिखने की कला... एक्स्ट्राऑर्डिनरी थी.ऊपर से देवनागिरी लिपि का टच :bow: ऐसी कहानी देवनागिरी लिपि मे ही लिखी जाए तो पढ़ने मे परम आनंद की अनुभूति होती हैं..

कहना बहुत कुछ हैं.. पर शब्द नही मिल रहे... मतलब एक लाचार माँ की वेदना से लेकर, बेटो की बेरुखी तक, एक लड़की के रेप से लेकर उसकी शादी तक... फिर आखिर मे उसकी मौत तक... इतनी बड़ी कहानी को एक शार्ट स्टोरी मे प्रस्तुत करना लाजवाब हैं... उससे भी लाजवाब ये हैं की इस तरह की स्टोरी xf मे पोस्ट करना.. जहाँ 99% लौंडे अपनी माँ को खुद चोदने की बात करते हैं या फिर किसी और से चुदवाने की बात करते हैं...

यदि मैं जज रहता, जो की नही हुँ... :D तो अवश्य ही प्रतियोगिता का परिणाम घोषित करते हुए इस कहानी को कांटेस्ट के शीर्ष कहानियों मे शामिल करता... बहुत ही शानदार कहानी संजू भाई :hug:

7/10
 
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अंतिम बिदाई by SANJU ( V. R. )

मेरा स्वाभाव ही ऐसा हैं कि ना चाहते हुए भी कोई भी कहानी पढ़ते हुए मेरा मस्तिष्क बैकग्राउंड मे कहानी मे मेरे अनुसार मौजूद कमिया ढूंढ़ने लगता हैं... पर माँ शब्द सुनते ही मेरी ये सुपरपावर मस्तिष्क की अनंत सम्भावनाओं मे मानो कही अचानक से विलुप्त हो गई... या फिर संजू भैय्या की कहानी ही ऐसी थी की इसमें कोई कमी नही.... इसतरह से अभी तक कांटेस्ट मे मेरे द्वारा पढ़ी गई कहानियो मे ये एकमात्र त्रुटिरहित कहानी हैं....

प्लाट और थीम... भले ही एक्स्ट्राआर्डिनरी ना हो.. लेकिन उसे लिखने की कला... एक्स्ट्राऑर्डिनरी थी.ऊपर से देवनागिरी लिपि का टच :bow: ऐसी कहानी देवनागिरी लिपि मे ही लिखी जाए तो पढ़ने मे परम आनंद की अनुभूति होती हैं..

कहना बहुत कुछ हैं.. पर शब्द नही मिल रहे... मतलब एक लाचार माँ की वेदना से लेकर, बेटो की बेरुखी तक, एक लड़की के रेप से लेकर उसकी शादी तक... फिर आखिर मे उसकी मौत तक... इतनी बड़ी कहानी को एक शार्ट स्टोरी मे प्रस्तुत करना लाजवाब हैं... उससे भी लाजवाब ये हैं की इस तरह की स्टोरी xf मे पोस्ट करना.. जहाँ 99% लौंडे अपनी माँ को खुद चोदने की बात करते हैं या फिर किसी और से चुदवाने की बात करते हैं...

यदि मैं जज रहता, जो की नही हुँ... :D तो अवश्य ही प्रतियोगिता का परिणाम घोषित करते हुए इस कहानी को कांटेस्ट के शीर्ष कहानियों मे शामिल करता... बहुत ही शानदार कहानी संजू भाई :hug:

7/10
दिग्गजों से वाहवाही हासिल करने से बड़ा सम्मान कुछ भी नहीं होता । किसी भी तरह की अवार्ड से सर्वोपरि होता है यह । आप ने स्टोरी को पसंद किया...सराहा , यही मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी है ।
थैंक्यू ज्ञानी भाई... थैंक्यू सो मच ।
 
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लोकल

सबेरे सबेरे ही ओला - ऊबर ने उस युवक को धोखा दे दिया।

उसकी घर से ऑफिस जाने की बुकिंग पिछले पंद्रह मिनट में पाँचवी बार कैंसिल हुई थी। अब तो अगर कैब मिल भी जाए, तो ट्रैफिक इतना अधिक होगा कि ऑफिस पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने वाले थे - मतलब प्रेजेंटेशन के लिए कम से कम आधा घण्टा देरी! एक तो ऑफिस जाने की जल्दी, ऊपर से सर्ज प्राइसिंग! जैसे किडनी बेच कर कैब का बिल भरना पड़े!

‘इतने में तो मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट मिल जाए!’ युवक ने बड़ी हिकारत से सोचा।

उसने झल्ला कर ऍप को बंद किया - मन तो उसका अपना फ़ोन ही सड़क पर पटकने का था, लेकिन उसमें भी नुकसान तो अपना ही था - और बड़ी मजबूरी में आज लोकल से ही ऑफिस जाने की सोची।

लोकल की याद आते ही उसका दिल बैठने लगा। पाँच महीने पहले जब वो एक चलती लोकल ट्रेन से गिर कर, अपनी टाँग तुड़वा बैठा, तब से उसको लोकल ट्रेन से नफ़रत हो गई थी। टाँग टूटने के चक्कर में उसकी तीन महीने की सैलरी भी मारी गई, इलाज़ का खर्चा भी अपनी जेब से भरना पड़ा, और उसका वज़न बढ़ गया सो अलग! युवक अपनी दिखावट को ले कर काफ़ी संज़ीदा था। उसका पहनावा बिलकुल त्रुटिहीन था, वो फिट था, और दिखने में किसी मॉडल से कम नहीं लगता था। एक तो उस दुर्घटना की कसैली कड़वी यादें, और ऊपर से लोकल में सफ़र करने में जो दुर्गति होती है, उसको सोच सोच कर उस युवक का दिल बैठा जा रहा था।

लेकिन मरता क्या न करता? आज उसके ऑफिस में उसका एक ज़रूरी प्रेजेंटेशन था। अगर बॉस लोग इम्प्रेस हो गए, तो प्रमोशन की भी बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इसीलिए खासतौर पर आज, वो युवक सही सलामत अपने ऑफिस पहुंचना चाहता था। लेकिन, ओला - ऊबर ने सब कचरा कर दिया था। अब तो केवल लोकल ही आख़िरी सहारा थी!

तेज़ क़दमों से चलते हुए जब वो प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि उसकी वाली लोकल वहीं खड़ी हुई थी। इसका मतलब बहुत अधिक हुआ तो बाद तीस सेकण्ड का समय था उसके पास ट्रेन में चढ़ने का! तीस सेकण्ड में ऐसी ठसा-ठस भरी हुई गाड़ी में चढ़ना नाकाफ़ी ही नहीं, बल्कि अमानवीय काम है! अमानवीय क्या, महामानवीय काम है! शायद ही कभी हो कि कोई लोकल, किसी स्टेशन पर तीस सेकण्ड से अधिक खड़ी होती हो!
युवक कुछ सोच ही रहा था, कि वो सैकड़ों की भीड़ के सैलाब में फँस गया - कब वो प्लेटफार्म से उठ कर, ट्रेन के अंदर आ गया, यह उसको भी नहीं समझ आया। वैसे भी लोकल में सफ़र करना बड़ा ही रोमाँचक होता है। लेकिन इस पीक आवर्स में किसी ट्रेन में चढ़ पाना ही दूभर होता है! युवक ने अपने भाग्य को धन्यवाद किया - कहाँ तो वो सोच रहा था कि आज लटक कर ऑफिस जाना पड़ेगा, लेकिन अभी तो वो कूपे के अंदर था!

‘अहो भाग्य!’

लेकिन उसकी राहत बहुत देर न टिक सकी - उसके अपनी क़मीज़ को देखा। तरीके से इस्त्री करी हुई शर्ट अब ऐसी लग रही थी कि जैसे उसको जानवरों ने रौंद दिया हो। बस वो गन्दी नहीं हुई थी, लेकिन पूरी क़मीज़ पर नई नई, और अनुचित जगहों पर सिलवटें पड़ गई थीं। पसीने से उसकी बगलें भीग गई थीं। बगल खड़े हुए अनगिनत लोगों के शरीर की गंध उसके नथुनों ही नहीं, बल्कि उसके पूरे वज़ूद में समां गई थी।

जुगुप्सा से उसका मन भर गया!

‘आज ही के दिन यह सब होना था!’

युवक ने लोकल की छत से लटकते कुँडे को पकड़ लिया। लोकल में यह भी कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है!

लेकिन अब तक युवक का मन खिन्न हो चुका था। उसके दिमाग में झँझावात मच गया था - नैराश्य, घृणा और जुगुप्सा के मिले जुले भाव रह रह कर युवक के मन में आ और जा रहे थे। कहाँ सवेरे सवेरे वो प्रमोशन के ख़्वाब देख रहा था, और अब कहाँ वो बस समय पर ऑफिस ही पहुँच पाने को बड़ी बात मान रहा था!

युवक को अपने शरीर के दो तरफ से दबाव महसूस हुआ,

‘स्साले ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते!’

युवक ने घृणा से सोचा। लेकिन लोग क्या करें? भीड़ कुछ इस कदर थी कि किसी को खड़े होने की जगह मिल पाई, वो बड़ी बात थी। मुंबई के समाज को समरूप करने के लिए, लोकल से अधिक उपयुक्त यंत्र और कोई नहीं! क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनाढ्य, और क्या निर्धन - लोकल के लिए सभी एक समान हैं!

सभी लोग सट कर खड़े हुए थे - इतने अधिक सटे हुए, कि यह पता चलाना मुश्किल था कि कौन सा हाथ किसका है!

लोकल ट्रेन, थोड़ी-थोड़ी देर में रेंगते हुए, एक स्टेशन से दूसरे पर रुकती, और हर स्टेशन पर एक जैसा ही दृध्य होता।

हुड़दंग मचाता हुआ, यात्रियों का एक सैलाब कूपे से उतरता, और उसी समान एक दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता! और लोकल एक झटका देकर अगले स्टेशन के लिये निकल पड़ती। एक समय था कि युवक रोज़ाना इस भीड़ के साथ सफ़र करने का आदी था, लेकिन आज उसे यह सब - यह यात्रियों का सैलाब, उनका शोर, यह दबे कुचले हुए सफ़र करना बेहद अप्रिय लग रहा था। अब तो वो बस जल्दी से ऑफिस पहुँच कर, कोई ख़ामोश कोना पकड़ कर ठण्डे पानी से अपना सर ठण्डा करना चाहता था। और आज का प्रेजेंटेशन ठीक ठीक चला जाए, बस उसकी कामना कर रहा था।
ट्रेन के झटकों के साथ उसमे ठुँसे हुए यात्री रह-रह कर दाएँ-बाएँ हिल रहे थे। इस दोलन में कूपे की भीड़ एक नियमित अंतराल पर छंट जा रही थी। ऐसे में जब इस बार वो भीड़ छंटी, तो युवक ने उसको देखा।

आसमानी रंग का सूती शलवार कुर्ता पहने एक सुन्दर सी युवती उसी युवक को एकटक देख रही थी! वो उसको एकटक देख रही थी, या कि अचानक ही उनकी आँखें चार हो गईं थीं, युवक के यह समझ पाने से पहले ही भीड़ फिर से एक साथ हो गई। उत्सुकतावश, इस बार युवक ने उसी दिशा में देखते हुए भीड़ के फिर से छंटने का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। इस बार जब फिर से भीड़ छंटी, तो युवक ने फिर से देखा कि युवती की आँखें उस पर ही टिकी हुई थीं।

न जाने क्यों युवक ने अपनी आँखें फेर लीं और खिड़की के बाहर देखने लगा। लेकिन वो बहुत देर तक बाहर न देख सका - मन की उत्सुकता ने फिर से उसकी आँखें उसकी युवती की तरफ मोड़ दीं। अपने तय अंतराल पर फिर से भीड़ छंटी और फिर से उसको उस युवती का सुन्दर सा चेहरा उसकी ही तरफ देखता हुआ दिखा। युवक इस बार झेंप गया। लेकिन मन ही मन उसको गुदगुदी सी भी हुई!

‘लड़की तो सुन्दर है!’ उसने सोचा, ‘लेकिन मुझे क्यों देख रही है? पहले कभी मिली है क्या?’

युवक ने दिमाग पर ज़ोर डाला। उसको उस युवती की याद नहीं आई। मतलब आज उनकी यह पहली ही मुलाक़ात थी।

लोकल एक झटके से अगले स्टेशन पर रुकी और न जाने क्यों युवक मन ही मन मनाने लगा कि वो युवती कूपे से न उतरे। इस स्टेशन पर उतरने वाले ज्यादा थे, और चढ़ने वाले कम। लिहाज़ा, कूपे में कम लोग बचे! कुछ को बैठने की जगह भी मिल गई, इसलिए अब युवती को देखने के लिए भीड़ के छंटने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन चाह कर भी वो युवक उस युवती को एकटक न देख सका। उसने साथ लाया अंग्रेजी अखबार निकाला और उसको पढ़ने का बहाना करने लगा। लेकिन जब भी वो अखबार से आँखें उठा कर युवती की तरफ़ देखता, तो वो उसकी आँखों को अपने चेहरे पर पाता।

खेल चल निकला - शायद युवती भी यह बात समझ रही थी। वो अब मंद मंद मुस्कुराने भी लगी थी।

‘आह! कैसी भोली मुस्कान है!’

मन में चाहे जो भी चल रहा हो, लेकिन प्रत्यक्ष में युवक थोड़ा असहज तो हो ही गया था। उसको लगता कि वो तो अखबार पढ़ने का नाटक कर रहा है, लेकिन ये लड़की तो उसको ही पढ़े डाल रही है!

खुद को संयत करने के लिए उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा - एक तिहाई सफ़र तो बाकी ही बचा हुआ था!

‘ओह! कौन स्साला पाद मारा!’

एक बेहद सड़ी हुई दुर्गन्ध से युवक का मन और भी अधिक खिन्न हो गया। पहले ही भीड़, गर्मी, और पसीने से बुरा हाल था, ऊपर से यह! अब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो चला था यह सफ़र! सफ़र अब सफर (अंग्रेजी वाला) बन गया था। लेकिन वो बस उस युवती के कारण ही इस सफ़र को झेल रहा था।

युवती का सुन्दर सलोना चेहरा, इस गन्दगी में कुमुदनी के समान लग रहा था!

लेकिन उस बदबू ने युवक को मजबूर कर दिया - उसने लोगों की ठेलते हुए युवती की तरफ़ चार पाँच कदम बढ़ा दिए।

“बहुत जाड़ा है क्या?” किसी धक्का खाए व्यक्ति ने ऐतराज़ जताया, “देखो तो कैसे धक्का मार कर चल दिया!”

युवती ने भी देखा कि युवक क्या कर रहा है! उसकी मंद मुस्कान अब बड़ी हो गई।

युवक को लगा कि जैसे उसको आमंत्रण मिल गया हो। उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी।

लेकिन अभी भी दोनों के बीच में कुछ दूरी थी। एक और स्टेशन आया और कूपे की भीड़ कुछ और कम हो गई। अन्य यात्री कूपे में चढ़ पाते कि युवक ने तत्परता से तीन चार और लम्बे डग भरे, और युवती से बस कोई तीन चार फ़ीट दूरी पर आ कर खड़ा हो गया।

युवती ने नज़रें उठा कर युवक को देखा। उसकी मुस्कान अब और भी अधिक चौड़ी हो गई थी। युवक का संदेह जाता रहा।

या शायद नहीं!

उसने कुछ हिम्मत जुटा कर युवती से कहा, “आप मुझे ऐसे लगातार क्यों देख रही हैं?”

युवक के प्रश्न में शिष्टाचार तो था, साथ ही साथ उसकी आवाज़ भी अच्छी थी।

युवती के दिल में अनूठी धमक सी उठी। ऐसा उसके साथ आज से पहले कभी नहीं हुआ।

‘कहीं मुझे ये चालू लड़की न समझने लगे!’

“जी? जी अब नहीं देखूँगी!” युवती ने नजरें झुकाते हुए, लेकिन सहज शिष्टता से जवाब दिया।

“जी, तो तो ठीक है, लेकिन आप देख क्यों रही थीं?”

‘न देखने से मैंने कब मना किया है?’

इस पूरे घटनाक्रम में पहली बार युवती के गालों पर लज्जा की लालिमा चढ़ गई, “अगर कोई किसी के मन को पसंद आ जाए, तो वो अपनी आँखों को कैसे रोके?”

ऐसे मासूम से उत्तर को सुन कर युवक फिर से झेंप गया! लेकिन वो भी मुस्कुराए बिना न रह सका।

साथ ही साथ मुस्कुराने लगे युवती के अगल बगल बैठे अन्य यात्री!

युवती के सामने बैठा एक यात्री अपनी सीट से उठते हुए बोला, “बरख़ुरदार, आओ! बैठो! आज तो वैसे भी माशाअल्लाह वैलेंटाइन डे है!”

इस बात पर पूरा कूपा आस पास के यात्रीगणों के निश्छल ठहाकों से गूँज गया। दूर वाले यात्रियों को समझ नहीं आया कि कौन सा जोक मारा गया है!

युवक झेंप गया, “नहीं जी, थैंक यू! आप बैठिए! वैसे भी मेरा स्टेशन आने वाला है!”

युवती ने अपनी नजरें नीची कर लीं। उसको थोड़ी निराशा हुई कि युवक अब उतरने वाला है।

इतनी लम्बी यात्रा, छोटी पड़ गई!

लेकिन जब तीन और स्टेशन आए और चले गए, तब युवती ने राहत की साँस लेते हुए युवक की तरफ़ देखा।

युवक उसको ही देख रहा था।

“मेरा स्टेशन आने वाला है!” युवती ने धीरे से, एक स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा।

“मेरा भी!” युवक भी युवती के समान ही शिष्ट था।

लोकल रुकी!

युवक और युवती दोनों साथ ही में उतरे!

अंततः दोनों एक दूसरे के सम्मुख थे। एक दूसरे के निकट थे।

लेकिन निकटता ने जैसे जुबान को लकवा मार दिया। बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!

“मेरा ऑफिस यहीं पास ही में है!” युवक ने आखिरकार कहा।

यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।

“मेरा भी!” युवती बोल पड़ी।

क्या बातें करें, इसी बात पर उहापोह की स्थिति बन गई।

“मैं छः बजे इसी स्टेशन पर मिलूँगी!” युवती ने बड़े संकोच से कहा, “मैं रोज़ लोकल से आती जाती हूँ!”

युवक मुस्कुराया, और बिना किसी विलम्ब के बोला, “मैं भी!”



समाप्त!


साधारण प्लाॅट पर बेहतरीन लेखन ✍️ के साथ एक साफ-सुथरी प्रेम कहानी🙏. ऐसी कहानी, जो हम में से अमूमन हर दूसरे महिला या पुरुष को अपने लड़कपन और यौवन से कनैकक्ट करे.

एक अच्छा प्रयास👍
 
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