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★☆★ Xforum | Ultimate Story Contest 2022 ~ Reviews Thread ★☆★

avsji

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Supreme
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Jaguaar

Prime
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लोकल

सबेरे सबेरे ही ओला - ऊबर ने उस युवक को धोखा दे दिया।

उसकी घर से ऑफिस जाने की बुकिंग पिछले पंद्रह मिनट में पाँचवी बार कैंसिल हुई थी। अब तो अगर कैब मिल भी जाए, तो ट्रैफिक इतना अधिक होगा कि ऑफिस पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने वाले थे - मतलब प्रेजेंटेशन के लिए कम से कम आधा घण्टा देरी! एक तो ऑफिस जाने की जल्दी, ऊपर से सर्ज प्राइसिंग! जैसे किडनी बेच कर कैब का बिल भरना पड़े!

‘इतने में तो मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट मिल जाए!’ युवक ने बड़ी हिकारत से सोचा।

उसने झल्ला कर ऍप को बंद किया - मन तो उसका अपना फ़ोन ही सड़क पर पटकने का था, लेकिन उसमें भी नुकसान तो अपना ही था - और बड़ी मजबूरी में आज लोकल से ही ऑफिस जाने की सोची।

लोकल की याद आते ही उसका दिल बैठने लगा। पाँच महीने पहले जब वो एक चलती लोकल ट्रेन से गिर कर, अपनी टाँग तुड़वा बैठा, तब से उसको लोकल ट्रेन से नफ़रत हो गई थी। टाँग टूटने के चक्कर में उसकी तीन महीने की सैलरी भी मारी गई, इलाज़ का खर्चा भी अपनी जेब से भरना पड़ा, और उसका वज़न बढ़ गया सो अलग! युवक अपनी दिखावट को ले कर काफ़ी संज़ीदा था। उसका पहनावा बिलकुल त्रुटिहीन था, वो फिट था, और दिखने में किसी मॉडल से कम नहीं लगता था। एक तो उस दुर्घटना की कसैली कड़वी यादें, और ऊपर से लोकल में सफ़र करने में जो दुर्गति होती है, उसको सोच सोच कर उस युवक का दिल बैठा जा रहा था।

लेकिन मरता क्या न करता? आज उसके ऑफिस में उसका एक ज़रूरी प्रेजेंटेशन था। अगर बॉस लोग इम्प्रेस हो गए, तो प्रमोशन की भी बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इसीलिए खासतौर पर आज, वो युवक सही सलामत अपने ऑफिस पहुंचना चाहता था। लेकिन, ओला - ऊबर ने सब कचरा कर दिया था। अब तो केवल लोकल ही आख़िरी सहारा थी!

तेज़ क़दमों से चलते हुए जब वो प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि उसकी वाली लोकल वहीं खड़ी हुई थी। इसका मतलब बहुत अधिक हुआ तो बाद तीस सेकण्ड का समय था उसके पास ट्रेन में चढ़ने का! तीस सेकण्ड में ऐसी ठसा-ठस भरी हुई गाड़ी में चढ़ना नाकाफ़ी ही नहीं, बल्कि अमानवीय काम है! अमानवीय क्या, महामानवीय काम है! शायद ही कभी हो कि कोई लोकल, किसी स्टेशन पर तीस सेकण्ड से अधिक खड़ी होती हो!
युवक कुछ सोच ही रहा था, कि वो सैकड़ों की भीड़ के सैलाब में फँस गया - कब वो प्लेटफार्म से उठ कर, ट्रेन के अंदर आ गया, यह उसको भी नहीं समझ आया। वैसे भी लोकल में सफ़र करना बड़ा ही रोमाँचक होता है। लेकिन इस पीक आवर्स में किसी ट्रेन में चढ़ पाना ही दूभर होता है! युवक ने अपने भाग्य को धन्यवाद किया - कहाँ तो वो सोच रहा था कि आज लटक कर ऑफिस जाना पड़ेगा, लेकिन अभी तो वो कूपे के अंदर था!

‘अहो भाग्य!’

लेकिन उसकी राहत बहुत देर न टिक सकी - उसके अपनी क़मीज़ को देखा। तरीके से इस्त्री करी हुई शर्ट अब ऐसी लग रही थी कि जैसे उसको जानवरों ने रौंद दिया हो। बस वो गन्दी नहीं हुई थी, लेकिन पूरी क़मीज़ पर नई नई, और अनुचित जगहों पर सिलवटें पड़ गई थीं। पसीने से उसकी बगलें भीग गई थीं। बगल खड़े हुए अनगिनत लोगों के शरीर की गंध उसके नथुनों ही नहीं, बल्कि उसके पूरे वज़ूद में समां गई थी।

जुगुप्सा से उसका मन भर गया!

‘आज ही के दिन यह सब होना था!’

युवक ने लोकल की छत से लटकते कुँडे को पकड़ लिया। लोकल में यह भी कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है!

लेकिन अब तक युवक का मन खिन्न हो चुका था। उसके दिमाग में झँझावात मच गया था - नैराश्य, घृणा और जुगुप्सा के मिले जुले भाव रह रह कर युवक के मन में आ और जा रहे थे। कहाँ सवेरे सवेरे वो प्रमोशन के ख़्वाब देख रहा था, और अब कहाँ वो बस समय पर ऑफिस ही पहुँच पाने को बड़ी बात मान रहा था!

युवक को अपने शरीर के दो तरफ से दबाव महसूस हुआ,

‘स्साले ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते!’

युवक ने घृणा से सोचा। लेकिन लोग क्या करें? भीड़ कुछ इस कदर थी कि किसी को खड़े होने की जगह मिल पाई, वो बड़ी बात थी। मुंबई के समाज को समरूप करने के लिए, लोकल से अधिक उपयुक्त यंत्र और कोई नहीं! क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनाढ्य, और क्या निर्धन - लोकल के लिए सभी एक समान हैं!

सभी लोग सट कर खड़े हुए थे - इतने अधिक सटे हुए, कि यह पता चलाना मुश्किल था कि कौन सा हाथ किसका है!

लोकल ट्रेन, थोड़ी-थोड़ी देर में रेंगते हुए, एक स्टेशन से दूसरे पर रुकती, और हर स्टेशन पर एक जैसा ही दृध्य होता।

हुड़दंग मचाता हुआ, यात्रियों का एक सैलाब कूपे से उतरता, और उसी समान एक दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता! और लोकल एक झटका देकर अगले स्टेशन के लिये निकल पड़ती। एक समय था कि युवक रोज़ाना इस भीड़ के साथ सफ़र करने का आदी था, लेकिन आज उसे यह सब - यह यात्रियों का सैलाब, उनका शोर, यह दबे कुचले हुए सफ़र करना बेहद अप्रिय लग रहा था। अब तो वो बस जल्दी से ऑफिस पहुँच कर, कोई ख़ामोश कोना पकड़ कर ठण्डे पानी से अपना सर ठण्डा करना चाहता था। और आज का प्रेजेंटेशन ठीक ठीक चला जाए, बस उसकी कामना कर रहा था।
ट्रेन के झटकों के साथ उसमे ठुँसे हुए यात्री रह-रह कर दाएँ-बाएँ हिल रहे थे। इस दोलन में कूपे की भीड़ एक नियमित अंतराल पर छंट जा रही थी। ऐसे में जब इस बार वो भीड़ छंटी, तो युवक ने उसको देखा।

आसमानी रंग का सूती शलवार कुर्ता पहने एक सुन्दर सी युवती उसी युवक को एकटक देख रही थी! वो उसको एकटक देख रही थी, या कि अचानक ही उनकी आँखें चार हो गईं थीं, युवक के यह समझ पाने से पहले ही भीड़ फिर से एक साथ हो गई। उत्सुकतावश, इस बार युवक ने उसी दिशा में देखते हुए भीड़ के फिर से छंटने का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। इस बार जब फिर से भीड़ छंटी, तो युवक ने फिर से देखा कि युवती की आँखें उस पर ही टिकी हुई थीं।

न जाने क्यों युवक ने अपनी आँखें फेर लीं और खिड़की के बाहर देखने लगा। लेकिन वो बहुत देर तक बाहर न देख सका - मन की उत्सुकता ने फिर से उसकी आँखें उसकी युवती की तरफ मोड़ दीं। अपने तय अंतराल पर फिर से भीड़ छंटी और फिर से उसको उस युवती का सुन्दर सा चेहरा उसकी ही तरफ देखता हुआ दिखा। युवक इस बार झेंप गया। लेकिन मन ही मन उसको गुदगुदी सी भी हुई!

‘लड़की तो सुन्दर है!’ उसने सोचा, ‘लेकिन मुझे क्यों देख रही है? पहले कभी मिली है क्या?’

युवक ने दिमाग पर ज़ोर डाला। उसको उस युवती की याद नहीं आई। मतलब आज उनकी यह पहली ही मुलाक़ात थी।

लोकल एक झटके से अगले स्टेशन पर रुकी और न जाने क्यों युवक मन ही मन मनाने लगा कि वो युवती कूपे से न उतरे। इस स्टेशन पर उतरने वाले ज्यादा थे, और चढ़ने वाले कम। लिहाज़ा, कूपे में कम लोग बचे! कुछ को बैठने की जगह भी मिल गई, इसलिए अब युवती को देखने के लिए भीड़ के छंटने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन चाह कर भी वो युवक उस युवती को एकटक न देख सका। उसने साथ लाया अंग्रेजी अखबार निकाला और उसको पढ़ने का बहाना करने लगा। लेकिन जब भी वो अखबार से आँखें उठा कर युवती की तरफ़ देखता, तो वो उसकी आँखों को अपने चेहरे पर पाता।

खेल चल निकला - शायद युवती भी यह बात समझ रही थी। वो अब मंद मंद मुस्कुराने भी लगी थी।

‘आह! कैसी भोली मुस्कान है!’

मन में चाहे जो भी चल रहा हो, लेकिन प्रत्यक्ष में युवक थोड़ा असहज तो हो ही गया था। उसको लगता कि वो तो अखबार पढ़ने का नाटक कर रहा है, लेकिन ये लड़की तो उसको ही पढ़े डाल रही है!

खुद को संयत करने के लिए उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा - एक तिहाई सफ़र तो बाकी ही बचा हुआ था!

‘ओह! कौन स्साला पाद मारा!’

एक बेहद सड़ी हुई दुर्गन्ध से युवक का मन और भी अधिक खिन्न हो गया। पहले ही भीड़, गर्मी, और पसीने से बुरा हाल था, ऊपर से यह! अब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो चला था यह सफ़र! सफ़र अब सफर (अंग्रेजी वाला) बन गया था। लेकिन वो बस उस युवती के कारण ही इस सफ़र को झेल रहा था।

युवती का सुन्दर सलोना चेहरा, इस गन्दगी में कुमुदनी के समान लग रहा था!

लेकिन उस बदबू ने युवक को मजबूर कर दिया - उसने लोगों की ठेलते हुए युवती की तरफ़ चार पाँच कदम बढ़ा दिए।

“बहुत जाड़ा है क्या?” किसी धक्का खाए व्यक्ति ने ऐतराज़ जताया, “देखो तो कैसे धक्का मार कर चल दिया!”

युवती ने भी देखा कि युवक क्या कर रहा है! उसकी मंद मुस्कान अब बड़ी हो गई।

युवक को लगा कि जैसे उसको आमंत्रण मिल गया हो। उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी।

लेकिन अभी भी दोनों के बीच में कुछ दूरी थी। एक और स्टेशन आया और कूपे की भीड़ कुछ और कम हो गई। अन्य यात्री कूपे में चढ़ पाते कि युवक ने तत्परता से तीन चार और लम्बे डग भरे, और युवती से बस कोई तीन चार फ़ीट दूरी पर आ कर खड़ा हो गया।

युवती ने नज़रें उठा कर युवक को देखा। उसकी मुस्कान अब और भी अधिक चौड़ी हो गई थी। युवक का संदेह जाता रहा।

या शायद नहीं!

उसने कुछ हिम्मत जुटा कर युवती से कहा, “आप मुझे ऐसे लगातार क्यों देख रही हैं?”

युवक के प्रश्न में शिष्टाचार तो था, साथ ही साथ उसकी आवाज़ भी अच्छी थी।

युवती के दिल में अनूठी धमक सी उठी। ऐसा उसके साथ आज से पहले कभी नहीं हुआ।

‘कहीं मुझे ये चालू लड़की न समझने लगे!’

“जी? जी अब नहीं देखूँगी!” युवती ने नजरें झुकाते हुए, लेकिन सहज शिष्टता से जवाब दिया।

“जी, तो तो ठीक है, लेकिन आप देख क्यों रही थीं?”

‘न देखने से मैंने कब मना किया है?’

इस पूरे घटनाक्रम में पहली बार युवती के गालों पर लज्जा की लालिमा चढ़ गई, “अगर कोई किसी के मन को पसंद आ जाए, तो वो अपनी आँखों को कैसे रोके?”

ऐसे मासूम से उत्तर को सुन कर युवक फिर से झेंप गया! लेकिन वो भी मुस्कुराए बिना न रह सका।

साथ ही साथ मुस्कुराने लगे युवती के अगल बगल बैठे अन्य यात्री!

युवती के सामने बैठा एक यात्री अपनी सीट से उठते हुए बोला, “बरख़ुरदार, आओ! बैठो! आज तो वैसे भी माशाअल्लाह वैलेंटाइन डे है!”

इस बात पर पूरा कूपा आस पास के यात्रीगणों के निश्छल ठहाकों से गूँज गया। दूर वाले यात्रियों को समझ नहीं आया कि कौन सा जोक मारा गया है!

युवक झेंप गया, “नहीं जी, थैंक यू! आप बैठिए! वैसे भी मेरा स्टेशन आने वाला है!”

युवती ने अपनी नजरें नीची कर लीं। उसको थोड़ी निराशा हुई कि युवक अब उतरने वाला है।

इतनी लम्बी यात्रा, छोटी पड़ गई!

लेकिन जब तीन और स्टेशन आए और चले गए, तब युवती ने राहत की साँस लेते हुए युवक की तरफ़ देखा।

युवक उसको ही देख रहा था।

“मेरा स्टेशन आने वाला है!” युवती ने धीरे से, एक स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा।

“मेरा भी!” युवक भी युवती के समान ही शिष्ट था।

लोकल रुकी!

युवक और युवती दोनों साथ ही में उतरे!

अंततः दोनों एक दूसरे के सम्मुख थे। एक दूसरे के निकट थे।

लेकिन निकटता ने जैसे जुबान को लकवा मार दिया। बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!

“मेरा ऑफिस यहीं पास ही में है!” युवक ने आखिरकार कहा।

यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।

“मेरा भी!” युवती बोल पड़ी।

क्या बातें करें, इसी बात पर उहापोह की स्थिति बन गई।

“मैं छः बजे इसी स्टेशन पर मिलूँगी!” युवती ने बड़े संकोच से कहा, “मैं रोज़ लोकल से आती जाती हूँ!”

युवक मुस्कुराया, और बिना किसी विलम्ब के बोला, “मैं भी!”



समाप्त!
Kyaaa baat kyaaa baaat kyaaa baatt. Bahotttt khubbb likhaa haiii bhaiii aapnee maza aagaya padhkee.

Padhne ke beech beech mein hasi bhi bahot baar aayi. Aapne ek aam aadmi ko local mein kya kyaa jhelna pdhta hai woh sab dikhaya. Bahott hii khubsoorat tarike se kahani ko likha hai aapne.

Jis ladke ko local se nafrat thi. Usi ladke ko ab local se pyaar hogyaa. Usse usi nafrat wali local mein ek ladki mil gayi aur dono ko hi love at first sight wala khumaar hogyaa.
Aur kismat se dono ka station bhi ek hi hai.

Jabardast Kahani maza aagaya. Aisi hi ek aur story ka intezaar rahegaa
 
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Bhaiii aapne tohhh rulaa diyaaa. Aisaa kaunn kartaa hai bhaiii. Mere paas shabd nhii haii. Main kyaa bolu mujhee samaj nhiii aaraha hai. Aapne jo likha hai uske baare mein kyaa bolu mujhee samaj nhi aaraha hai.

Mujhe toh yeh koi kahani se badh kar ek atmakatha lagi. Aisa laga jaise yeh koi kahani nhi balki sach mein ghati ek ghatna hai. Iska ek ek shabd mujhe sach laga. Ek ek ghatna mujhe sach lagi.

Par yaha mujhe ek baat samaj nhi aayi. Bete nhi aaye chalo maan liya. Par beti aur damad bhi kyaa shaadi ke baad ek baar bhi nhi aaye. Shaadi se pehle toh Ramji har 6 mahine mein ek baar aata tha shaadi ke baad kyaa hua. Maana usne ek Gudiya se shaadi krke usko apna ke bahot hi achha kaam kiya. Par usko toh pata tha uski saas ki halat kyaa hai. Woh kyo ek baar bhi nhi aaya Gudiya ke saath. Kyaa woh dono bhi bhull gayee.

Yaha Harihar kaka ke character ki daad deni padegi. Unhone ek achha padosi dharm nibhaya. Unka character mujhee bahot bahot pasand aaya.

Aisi hi ek aur story ka intezaar rahegaa bhaiii. Par issbaar thoda hasane wala kuch likhnaa. Jabardastttt story thii.
Ye kahani kuchh kuchh meri jivani par aadharit hai bhai. Haa lekin bahan ke saath wo sab nahi hua tha par apne husband ke saath hue jhagde ke karan suicide kar liya tha usne. Mugh se sirf 2 saal badi thi wo . Meri maa ki jaan thi wo.
Mughe jindgi bhar es baat ka dukh rahega ki maine apni maa ko antim samay par sewa nahi kar saka.
Ye kahani likhte waqt kai baar mere aankhon me aanshu aa gaye the.
 
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Jaguaar

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Ye kahani kuchh kuchh meri jivani par aadharit hai bhai. Haa lekin bahan ke saath wo sab nahi hua tha par apne husband ke saath hue jhagde ke karan suicide kar liya tha usne. Mugh se sirf 2 saal badi thi wo . Meri maa ki jaan thi wo.
Mughe jindgi bhar es baat ka dukh rahega ki maine apni maa ko antim samay par sewa nahi kar saka.
Ye kahani likhte waqt kai baar mere aankhon me aanshu aa gaye the.
Mujhe laga hi thaa yeh kahani nhi hai ek sachhi ghatna pe aadharit hai. Kahani mein ko padhke aisa laga hi nhi tha ke yeh koi kahani hai. Sachh meinn bahott khubb likha hai aapnee.
 
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avsji

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Kyaaa baat kyaaa baaat kyaaa baatt. Bahotttt khubbb likhaa haiii bhaiii aapnee maza aagaya padhkee.

Padhne ke beech beech mein hasi bhi bahot baar aayi. Aapne ek aam aadmi ko local mein kya kyaa jhelna pdhta hai woh sab dikhaya. Bahott hii khubsoorat tarike se kahani ko likha hai aapne.

Jis ladke ko local se nafrat thi. Usi ladke ko ab local se pyaar hogyaa. Usse usi nafrat wali local mein ek ladki mil gayi aur dono ko hi love at first sight wala khumaar hogyaa.
Aur kismat se dono ka station bhi ek hi hai.

Jabardast Kahani maza aagaya. Aisi hi ek aur story ka intezaar rahegaa

बहुत बहुत धन्यवाद मित्र! एक लंबे समय तक मुम्बई में रहा और लोगों को लोकल में यात्रा करते देखा और उसकी बातें करते सुना। तो सोचा कि क्यों न इसी पर आधारित कोई कहानी लिखूँ! कल ही प्लाट दिमाग में आया, और आज लिख दिया। बस इतना ही 😊
 

Raj_Hardcore

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लोकल

सबेरे सबेरे ही ओला - ऊबर ने उस युवक को धोखा दे दिया।

उसकी घर से ऑफिस जाने की बुकिंग पिछले पंद्रह मिनट में पाँचवी बार कैंसिल हुई थी। अब तो अगर कैब मिल भी जाए, तो ट्रैफिक इतना अधिक होगा कि ऑफिस पहुँचने में कम से कम दो घण्टे लगने वाले थे - मतलब प्रेजेंटेशन के लिए कम से कम आधा घण्टा देरी! एक तो ऑफिस जाने की जल्दी, ऊपर से सर्ज प्राइसिंग! जैसे किडनी बेच कर कैब का बिल भरना पड़े!

‘इतने में तो मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट मिल जाए!’ युवक ने बड़ी हिकारत से सोचा।

उसने झल्ला कर ऍप को बंद किया - मन तो उसका अपना फ़ोन ही सड़क पर पटकने का था, लेकिन उसमें भी नुकसान तो अपना ही था - और बड़ी मजबूरी में आज लोकल से ही ऑफिस जाने की सोची।

लोकल की याद आते ही उसका दिल बैठने लगा। पाँच महीने पहले जब वो एक चलती लोकल ट्रेन से गिर कर, अपनी टाँग तुड़वा बैठा, तब से उसको लोकल ट्रेन से नफ़रत हो गई थी। टाँग टूटने के चक्कर में उसकी तीन महीने की सैलरी भी मारी गई, इलाज़ का खर्चा भी अपनी जेब से भरना पड़ा, और उसका वज़न बढ़ गया सो अलग! युवक अपनी दिखावट को ले कर काफ़ी संज़ीदा था। उसका पहनावा बिलकुल त्रुटिहीन था, वो फिट था, और दिखने में किसी मॉडल से कम नहीं लगता था। एक तो उस दुर्घटना की कसैली कड़वी यादें, और ऊपर से लोकल में सफ़र करने में जो दुर्गति होती है, उसको सोच सोच कर उस युवक का दिल बैठा जा रहा था।

लेकिन मरता क्या न करता? आज उसके ऑफिस में उसका एक ज़रूरी प्रेजेंटेशन था। अगर बॉस लोग इम्प्रेस हो गए, तो प्रमोशन की भी बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इसीलिए खासतौर पर आज, वो युवक सही सलामत अपने ऑफिस पहुंचना चाहता था। लेकिन, ओला - ऊबर ने सब कचरा कर दिया था। अब तो केवल लोकल ही आख़िरी सहारा थी!

तेज़ क़दमों से चलते हुए जब वो प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि उसकी वाली लोकल वहीं खड़ी हुई थी। इसका मतलब बहुत अधिक हुआ तो बाद तीस सेकण्ड का समय था उसके पास ट्रेन में चढ़ने का! तीस सेकण्ड में ऐसी ठसा-ठस भरी हुई गाड़ी में चढ़ना नाकाफ़ी ही नहीं, बल्कि अमानवीय काम है! अमानवीय क्या, महामानवीय काम है! शायद ही कभी हो कि कोई लोकल, किसी स्टेशन पर तीस सेकण्ड से अधिक खड़ी होती हो!
युवक कुछ सोच ही रहा था, कि वो सैकड़ों की भीड़ के सैलाब में फँस गया - कब वो प्लेटफार्म से उठ कर, ट्रेन के अंदर आ गया, यह उसको भी नहीं समझ आया। वैसे भी लोकल में सफ़र करना बड़ा ही रोमाँचक होता है। लेकिन इस पीक आवर्स में किसी ट्रेन में चढ़ पाना ही दूभर होता है! युवक ने अपने भाग्य को धन्यवाद किया - कहाँ तो वो सोच रहा था कि आज लटक कर ऑफिस जाना पड़ेगा, लेकिन अभी तो वो कूपे के अंदर था!

‘अहो भाग्य!’

लेकिन उसकी राहत बहुत देर न टिक सकी - उसके अपनी क़मीज़ को देखा। तरीके से इस्त्री करी हुई शर्ट अब ऐसी लग रही थी कि जैसे उसको जानवरों ने रौंद दिया हो। बस वो गन्दी नहीं हुई थी, लेकिन पूरी क़मीज़ पर नई नई, और अनुचित जगहों पर सिलवटें पड़ गई थीं। पसीने से उसकी बगलें भीग गई थीं। बगल खड़े हुए अनगिनत लोगों के शरीर की गंध उसके नथुनों ही नहीं, बल्कि उसके पूरे वज़ूद में समां गई थी।

जुगुप्सा से उसका मन भर गया!

‘आज ही के दिन यह सब होना था!’

युवक ने लोकल की छत से लटकते कुँडे को पकड़ लिया। लोकल में यह भी कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है!

लेकिन अब तक युवक का मन खिन्न हो चुका था। उसके दिमाग में झँझावात मच गया था - नैराश्य, घृणा और जुगुप्सा के मिले जुले भाव रह रह कर युवक के मन में आ और जा रहे थे। कहाँ सवेरे सवेरे वो प्रमोशन के ख़्वाब देख रहा था, और अब कहाँ वो बस समय पर ऑफिस ही पहुँच पाने को बड़ी बात मान रहा था!

युवक को अपने शरीर के दो तरफ से दबाव महसूस हुआ,

‘स्साले ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते!’

युवक ने घृणा से सोचा। लेकिन लोग क्या करें? भीड़ कुछ इस कदर थी कि किसी को खड़े होने की जगह मिल पाई, वो बड़ी बात थी। मुंबई के समाज को समरूप करने के लिए, लोकल से अधिक उपयुक्त यंत्र और कोई नहीं! क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनाढ्य, और क्या निर्धन - लोकल के लिए सभी एक समान हैं!

सभी लोग सट कर खड़े हुए थे - इतने अधिक सटे हुए, कि यह पता चलाना मुश्किल था कि कौन सा हाथ किसका है!

लोकल ट्रेन, थोड़ी-थोड़ी देर में रेंगते हुए, एक स्टेशन से दूसरे पर रुकती, और हर स्टेशन पर एक जैसा ही दृध्य होता।

हुड़दंग मचाता हुआ, यात्रियों का एक सैलाब कूपे से उतरता, और उसी समान एक दूसरा सैलाब अन्दर घुस जाता! और लोकल एक झटका देकर अगले स्टेशन के लिये निकल पड़ती। एक समय था कि युवक रोज़ाना इस भीड़ के साथ सफ़र करने का आदी था, लेकिन आज उसे यह सब - यह यात्रियों का सैलाब, उनका शोर, यह दबे कुचले हुए सफ़र करना बेहद अप्रिय लग रहा था। अब तो वो बस जल्दी से ऑफिस पहुँच कर, कोई ख़ामोश कोना पकड़ कर ठण्डे पानी से अपना सर ठण्डा करना चाहता था। और आज का प्रेजेंटेशन ठीक ठीक चला जाए, बस उसकी कामना कर रहा था।
ट्रेन के झटकों के साथ उसमे ठुँसे हुए यात्री रह-रह कर दाएँ-बाएँ हिल रहे थे। इस दोलन में कूपे की भीड़ एक नियमित अंतराल पर छंट जा रही थी। ऐसे में जब इस बार वो भीड़ छंटी, तो युवक ने उसको देखा।

आसमानी रंग का सूती शलवार कुर्ता पहने एक सुन्दर सी युवती उसी युवक को एकटक देख रही थी! वो उसको एकटक देख रही थी, या कि अचानक ही उनकी आँखें चार हो गईं थीं, युवक के यह समझ पाने से पहले ही भीड़ फिर से एक साथ हो गई। उत्सुकतावश, इस बार युवक ने उसी दिशा में देखते हुए भीड़ के फिर से छंटने का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। इस बार जब फिर से भीड़ छंटी, तो युवक ने फिर से देखा कि युवती की आँखें उस पर ही टिकी हुई थीं।

न जाने क्यों युवक ने अपनी आँखें फेर लीं और खिड़की के बाहर देखने लगा। लेकिन वो बहुत देर तक बाहर न देख सका - मन की उत्सुकता ने फिर से उसकी आँखें उसकी युवती की तरफ मोड़ दीं। अपने तय अंतराल पर फिर से भीड़ छंटी और फिर से उसको उस युवती का सुन्दर सा चेहरा उसकी ही तरफ देखता हुआ दिखा। युवक इस बार झेंप गया। लेकिन मन ही मन उसको गुदगुदी सी भी हुई!

‘लड़की तो सुन्दर है!’ उसने सोचा, ‘लेकिन मुझे क्यों देख रही है? पहले कभी मिली है क्या?’

युवक ने दिमाग पर ज़ोर डाला। उसको उस युवती की याद नहीं आई। मतलब आज उनकी यह पहली ही मुलाक़ात थी।

लोकल एक झटके से अगले स्टेशन पर रुकी और न जाने क्यों युवक मन ही मन मनाने लगा कि वो युवती कूपे से न उतरे। इस स्टेशन पर उतरने वाले ज्यादा थे, और चढ़ने वाले कम। लिहाज़ा, कूपे में कम लोग बचे! कुछ को बैठने की जगह भी मिल गई, इसलिए अब युवती को देखने के लिए भीड़ के छंटने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन चाह कर भी वो युवक उस युवती को एकटक न देख सका। उसने साथ लाया अंग्रेजी अखबार निकाला और उसको पढ़ने का बहाना करने लगा। लेकिन जब भी वो अखबार से आँखें उठा कर युवती की तरफ़ देखता, तो वो उसकी आँखों को अपने चेहरे पर पाता।

खेल चल निकला - शायद युवती भी यह बात समझ रही थी। वो अब मंद मंद मुस्कुराने भी लगी थी।

‘आह! कैसी भोली मुस्कान है!’

मन में चाहे जो भी चल रहा हो, लेकिन प्रत्यक्ष में युवक थोड़ा असहज तो हो ही गया था। उसको लगता कि वो तो अखबार पढ़ने का नाटक कर रहा है, लेकिन ये लड़की तो उसको ही पढ़े डाल रही है!

खुद को संयत करने के लिए उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा - एक तिहाई सफ़र तो बाकी ही बचा हुआ था!

‘ओह! कौन स्साला पाद मारा!’

एक बेहद सड़ी हुई दुर्गन्ध से युवक का मन और भी अधिक खिन्न हो गया। पहले ही भीड़, गर्मी, और पसीने से बुरा हाल था, ऊपर से यह! अब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो चला था यह सफ़र! सफ़र अब सफर (अंग्रेजी वाला) बन गया था। लेकिन वो बस उस युवती के कारण ही इस सफ़र को झेल रहा था।

युवती का सुन्दर सलोना चेहरा, इस गन्दगी में कुमुदनी के समान लग रहा था!

लेकिन उस बदबू ने युवक को मजबूर कर दिया - उसने लोगों की ठेलते हुए युवती की तरफ़ चार पाँच कदम बढ़ा दिए।

“बहुत जाड़ा है क्या?” किसी धक्का खाए व्यक्ति ने ऐतराज़ जताया, “देखो तो कैसे धक्का मार कर चल दिया!”

युवती ने भी देखा कि युवक क्या कर रहा है! उसकी मंद मुस्कान अब बड़ी हो गई।

युवक को लगा कि जैसे उसको आमंत्रण मिल गया हो। उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी।

लेकिन अभी भी दोनों के बीच में कुछ दूरी थी। एक और स्टेशन आया और कूपे की भीड़ कुछ और कम हो गई। अन्य यात्री कूपे में चढ़ पाते कि युवक ने तत्परता से तीन चार और लम्बे डग भरे, और युवती से बस कोई तीन चार फ़ीट दूरी पर आ कर खड़ा हो गया।

युवती ने नज़रें उठा कर युवक को देखा। उसकी मुस्कान अब और भी अधिक चौड़ी हो गई थी। युवक का संदेह जाता रहा।

या शायद नहीं!

उसने कुछ हिम्मत जुटा कर युवती से कहा, “आप मुझे ऐसे लगातार क्यों देख रही हैं?”

युवक के प्रश्न में शिष्टाचार तो था, साथ ही साथ उसकी आवाज़ भी अच्छी थी।

युवती के दिल में अनूठी धमक सी उठी। ऐसा उसके साथ आज से पहले कभी नहीं हुआ।

‘कहीं मुझे ये चालू लड़की न समझने लगे!’

“जी? जी अब नहीं देखूँगी!” युवती ने नजरें झुकाते हुए, लेकिन सहज शिष्टता से जवाब दिया।

“जी, तो तो ठीक है, लेकिन आप देख क्यों रही थीं?”

‘न देखने से मैंने कब मना किया है?’

इस पूरे घटनाक्रम में पहली बार युवती के गालों पर लज्जा की लालिमा चढ़ गई, “अगर कोई किसी के मन को पसंद आ जाए, तो वो अपनी आँखों को कैसे रोके?”

ऐसे मासूम से उत्तर को सुन कर युवक फिर से झेंप गया! लेकिन वो भी मुस्कुराए बिना न रह सका।

साथ ही साथ मुस्कुराने लगे युवती के अगल बगल बैठे अन्य यात्री!

युवती के सामने बैठा एक यात्री अपनी सीट से उठते हुए बोला, “बरख़ुरदार, आओ! बैठो! आज तो वैसे भी माशाअल्लाह वैलेंटाइन डे है!”

इस बात पर पूरा कूपा आस पास के यात्रीगणों के निश्छल ठहाकों से गूँज गया। दूर वाले यात्रियों को समझ नहीं आया कि कौन सा जोक मारा गया है!

युवक झेंप गया, “नहीं जी, थैंक यू! आप बैठिए! वैसे भी मेरा स्टेशन आने वाला है!”

युवती ने अपनी नजरें नीची कर लीं। उसको थोड़ी निराशा हुई कि युवक अब उतरने वाला है।

इतनी लम्बी यात्रा, छोटी पड़ गई!

लेकिन जब तीन और स्टेशन आए और चले गए, तब युवती ने राहत की साँस लेते हुए युवक की तरफ़ देखा।

युवक उसको ही देख रहा था।

“मेरा स्टेशन आने वाला है!” युवती ने धीरे से, एक स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा।

“मेरा भी!” युवक भी युवती के समान ही शिष्ट था।

लोकल रुकी!

युवक और युवती दोनों साथ ही में उतरे!

अंततः दोनों एक दूसरे के सम्मुख थे। एक दूसरे के निकट थे।

लेकिन निकटता ने जैसे जुबान को लकवा मार दिया। बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!

“मेरा ऑफिस यहीं पास ही में है!” युवक ने आखिरकार कहा।

यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।

“मेरा भी!” युवती बोल पड़ी।

क्या बातें करें, इसी बात पर उहापोह की स्थिति बन गई।

“मैं छः बजे इसी स्टेशन पर मिलूँगी!” युवती ने बड़े संकोच से कहा, “मैं रोज़ लोकल से आती जाती हूँ!”

युवक मुस्कुराया, और बिना किसी विलम्ब के बोला, “मैं भी!”



समाप्त!
बहुत ही प्यारी कहानी है
 

avsji

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