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Shayari शायरी और गजल™

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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354
Jagmagati jagti raato ke paikar le gaya,
wo gaya to sath apne saare manjar le gaya,


Ab yaha rakha hi kya hai tujko dene ke liye,
jo bhi sarmaya tha ghar mein wo utha kar le gaya,

Tham gaya hai kaorbare-jist sara inn dino,
kon jaalim sehar walo ka muqaddar le gaya,

Ret ki tehreer tha shayad tera ahde-wafa,
muddate gujri jise behta samundar le gaya,

Ban gaya hai kyu meri har raah ki deewar wo,
jo mere raste ka har pathar uthar kar le gaya,

Din chade aaya tha jo dene tasalli aye ‘raish’,
sham aayi to charago ko bujha kar le gaya.

Ahmed raish
 

TheBlackBlood

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Supreme
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Fir se gulshan ki jami ko tarotaaza karna,
phool mar jaye to kusbhu ka na picha karna,


Lajjate-nohagari mein n hame yaad raha,
dil pe khaye hue jhakmo ka mudawa karna,

Kya wo girte hue suraj ko sambhala dega,
jise aata n ho jarred ko sitara karna,

Khoon-sadiya ko diya jaaye to fir haath aaye,
chand lamhat ko taarikh-shanasa karna,

Fikro-ijhare ki shmeh to jalaye rakhe,
ye badhi baat hai ehsaas ka dar wo karna,

Hamne har gaam pe ibrat ke nisha chode hai,
aane walo! Inhe tum gaur se deka karna,

Karya-e-ja mein bhatkate hue muddat gujri,
khud ka paani bhi hua dast ka dairya karna,

Uski aankho mein bhi lehraye talab ke jugnu,
aise andaaj se ijhare-tamnna karna,

‘kaajmi’ ahle-najar bhul n payenge kabhi,
raksh pathraav mein rehkar tune-tanha karna.

______Akbar kaajmi
 

TheBlackBlood

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ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तुगू करते

पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते

मिरी तरह से मह-ओ-मेहर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते

हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है
सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते

लुटाते दौलत-ए-दुनिया को मय-कदे में हम
तिलाई साग़र-ए-मय नुक़रई सुबू करते

हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ूगर रहे रफ़ू करते

जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते

बयाज़-ए-गर्दन-ए-जानाँ को सुब्ह कहते जो हम
सितारा-ए-सहरी तकमा-ए-गुलू करते

ये का'बे से नहीं बे-वज्ह निस्बत-ए-रुख़-ए-यार
ये बे-सबब नहीं मुर्दे को क़िबला-रू करते

सिखाते नाला-ए-शब-गीर को दर-अंदाज़ी
ग़म-ए-फ़िराक़ का उस चर्ख़ को अदू करते

वो जान-ए-जाँ नहीं आता तो मौत ही आती
दिल-ओ-जिगर को कहाँ तक भला लहू करते

न पूछ आलम-ए-बरगश्ता-तालई 'आतिश'
बरसती आग जो बाराँ की आरज़ू करते

______हैदर अली आतिश
 

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मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है
वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है

जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे
और अब कोई कहीं कोई कहीं रहता है

रोज़ मिलने पे भी लगता था कि जुग बीत गए
इश्क़ में वक़्त का एहसास नहीं रहता है

दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है

______अहमद मुश्ताक़
 

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ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए

तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में
वो मेरी रूह में उतरा हिजाब पहने हुए

मुझे कहीं कोई चश्मा नज़र नहीं आया
हज़ार दश्त पड़े थे सराब पहने हुए

क़दम क़दम पे थकन साज़-बाज़ करती है
सिसक रहा हूँ सफ़र का अज़ाब पहने हुए

मगर सबात नहीं बे-सबील रस्तों में
कि पाँव सो गए 'साक़ी' रिकाब पहने हुए

_______साक़ी फ़ारुख़ी
 

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सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने
वो अंदेशे थे रंग आँखों के गहरे कर लिए हम ने

ख़ुदा की तरह शायद क़ैद हैं अपनी सदाक़त में
अब अपने गिर्द अफ़्सानों के पहरे कर लिए हम ने

ज़माना पेच-अंदर-पेच था हम लोग वहशी थे
ख़याल आज़ार थे लहजे इकहरे कर लिए हम ने

मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था
समुंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने

वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दिवाली देख ली हम ने दसहरे कर लिए हम ने

_______साक़ी फ़ारुख़ी
 

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दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद

मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद

छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नज़र ने
अब तक है वो इक नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा याद

जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद

क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को
मरने की अदा याद न जीने की अदा याद

मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तिरे दिल के धड़कने की सदा याद

हाँ हाँ तुझे क्या काम मिरी शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तिरे दामन की हवा याद

मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद

क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद

______जिगर मुरादाबादी
 

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आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए

हुस्न-ए-अज़ल की शान दिखा कर चले गए
इक वाक़िआ' सा याद दिला कर चले गए

चेहरे तक आस्तीन वो ला कर चले गए
क्या राज़ था कि जिस को छुपा कर चले गए

रग रग में इस तरह वो समा कर चले गए
जैसे मुझी को मुझ से चुरा कर चले गए

मेरी हयात-ए-इश्क़ को दे कर जुनून-ए-शौक़
मुझ को तमाम होश बना कर चले गए

समझा के पस्तियाँ मिरे औज-ए-कमाल की
अपनी बुलंदियाँ वो दिखा कर चले गए

अपने फ़रोग़-ए-हुस्न की दिखला के वुसअ'तें
मेरे हुदूद-ए-शौक़ बढ़ा कर चले गए

हर शय को मेरी ख़ातिर-ए-नाशाद के लिए
आईना-ए-जमाल बना कर चले गए

आए थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गए

आए थे चश्म-ए-शौक़ की हसरत निकालने
सर-ता-क़दम निगाह बना कर चले गए

अब कारोबार-ए-इश्क़ से फ़ुर्सत मुझे कहाँ
कौनैन का वो दर्द बढ़ा कर चले गए

शुक्र-ए-करम के साथ ये शिकवा भी हो क़ुबूल
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए

लब थरथरा के रह गए लेकिन वो ऐ 'जिगर'
जाते हुए निगाह मिला कर चले गए

______जिगर मुरादाबादी
 
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