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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

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    14

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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113,743
354
तमन्ना छोड़ देते हैं... इरादा छोड़ देते हैं,
चलो एक दूसरे को फिर से आधा छोड़ देते हैं।

उधर आँखों में मंज़र आज भी वैसे का वैसा है,
इधर हम भी निगाहों को तरसता छोड़ देते हैं।

हमीं ने अपनी आँखों से समन्दर तक निचोड़े हैं,
हमीं अब आजकल दरिया को प्यासा छोड़ देते हैं।

हमारा क़त्ल होता है, मोहब्बत की कहानी में,
या यूँ कह लो कि हम क़ातिल को ज़िंदा छोड़ देते हैं।

हमीं शायर हैं, हम ही तो ग़ज़ल के शाहजादे हैं,
तआरुफ़ इतना देकर बाक़ी मिसरा छोड़ देते हैं।
 
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TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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हकीक़त भी यहीं है और है फ़साना भी,
मुश्किल है किसी का साथ निभाना भी।

यूँ ही नहीं कुछ रिश्ते पाक होते हैं,
पल में रूठ जाना भी पल में मान जाना भी।

लिहाज़ नहीं दिखता की हो बेग़ैरत तुम,
लाज़िम है किसी एक वक़्त में शरमाना भी।

मोहब्बत हो शहर में इश्क़ हर दिल में हो,
जरूरी है दीवानी भी जरूरी है दीवाना भी।

जरा सा सोच-समझ के करना बातें आपस में,
होने लगे हैं आजकल के बच्चे सयाना भी।

झूठ और सच बता सकता हूँ तेरे चेहरे से,
आया अब तक नहीं एक राज़ छुपाना भी।

- प्रभाकर "प्रभू"
 
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हकीक़त भी यहीं है और है फ़साना भी,
मुश्किल है किसी का साथ निभाना भी।

यूँ ही नहीं कुछ रिश्ते पाक होते हैं,
पल में रूठ जाना भी पल में मान जाना भी।

लिहाज़ नहीं दिखता की हो बेग़ैरत तुम,
लाज़िम है किसी एक वक़्त में शरमाना भी।

मोहब्बत हो शहर में इश्क़ हर दिल में हो,
जरूरी है दीवानी भी जरूरी है दीवाना भी।

जरा सा सोच-समझ के करना बातें आपस में,
होने लगे हैं आजकल के बच्चे सयाना भी।

झूठ और सच बता सकता हूँ तेरे चेहरे से,
आया अब तक नहीं एक राज़ छुपाना भी।

- प्रभाकर "प्रभू"
Greattt bro. Beautiful poetry. :applause: :applause: :applause:
 
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गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन।
ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन।।

उम्र-ए-ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो,
इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन।।

जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती,
अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन।।

ऐ जान-ए-आरज़ू वो क़यामत से कम न थे,
काटे तिरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन।।

फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल,
कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन।।

जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ,
हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन।।
 
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गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन।
ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन।।

उम्र-ए-ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो,
इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन।।

जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती,
अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन।।

ऐ जान-ए-आरज़ू वो क़यामत से कम न थे,
काटे तिरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन।।

फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल,
कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन।।

जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ,
हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन।।
Greattt bro. Beautiful poetry. :applause: :applause: :applause:
 
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मैंने गलती तो नहीं की बता कर तुझको,
मेरे दिल के हालात दिखा कर तुझको।


मैं भूखा ही रहा कल रात पर खुश था,
अपने हिस्से का खाना खिला कर तुझको।

दुनिया की बातों पे ग़ौर ना करना कभी,
मुझसे दूर कर देगा वो बहला कर तुझको।

मेरा दिल टूटेगा तो संभल जाऊँगा मैं,
उसका टूटा तो जायेगा सुना कर तुझको।

कोई है जो तुम्हें याद करता है बहुत,
रातभर जागता है वो सुला कर तुझको।

सोचो तो ज़रा कितनी सच्चाई है उसमें,
गया भी वो तो सच सिखा कर तुझको।

प्रभाकर "प्रभू"
 
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