काशी, वाराणसी, बनारस
काशी, वाराणसी या बनारस, संसार के सबसे पुराने नगरों में है जिनके इतिहास की एक सतत परंपरा रही है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण, और पूराणो में काशी या वाराणसी का आदर पूर्वक उल्लेख है। ऋग्वेद, प्रथम वेद, ने इसे काशी (प्रकाश का नगर) कहा क्योंकि वह विद्याध्यन, ज्ञान की खोज का केंद्र था। स्कन्द पुराण, सबसे बड़े पुराण में एक खंड ही है, काशी खंड। यह खंड दो भागो में हैं और हर भाग में 50-50 अध्याय हैं।
काशी के प्रथम राजा जन श्रुति के अनुसार दिवोदास हैं, उन्हीं के समय में कहा जाता है की ब्रह्मा ने 10 अश्वमेध यज्ञ किये और जिस घाट पर ये यज्ञ हुए, वो दशाश्वमेध कहलाया और काशी के 80 से अधिक घाटों में सबसे प्रमुख है। दिवोदास के समय ही विश्वनाथ मंदिर की स्थापना हुई। शिव और गंगा के बिना बनारस की कल्पना नहीं की जा सकती। कहा जाता है की जब भागीरथ ने गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के लिए तपस्या की तो ये प्रश्न हुआ की गंगा के वेग को कौन रोकेगा। जब विष्णु के नख से ब्रह्मा के कमंडल से रौरव ध्वनी करती, कोलाहल करती गंगा धरती पर, स्वर्ग से उतरेंगी तो पूरी धरती जल प्लावित हो जायेगी, सब पहाड़, उपत्यकाएं खेत खलिहान जल मग्न हो जायेंगे।
भागीरथ ने देवाधिदेव, महादेव से अनुरोध किया। शिव कैलाश पर एक पैर गड़ाकर, कमर में बाघम्बर और गले में सर्प की माला डालकर खड़े हो गये। चन्द्रमा उनकी जटाओं में सुशोभित हो रहा था। गंगा बड़े गर्व से, वेग से, निनाद करती, तूफान मचाती इस अभिमान के साथ उतरीं की उनकी धारा के वेग को कौन रोक पायेगा। लेकिन आशुतोष ने उन्हें अपनी जटाओं में रोप लिया। उन उलझी, लटों में सुरसरी ऐसी रुकीं की वहीं मोहित होकर रह गईं और भोलेनाथ का एक नाम गंगाधर भी पड़ा। स्वर्ग के मोह से मुक्त होकर अब वह चंद्रमौली की जटा में निवास करने लगी। लेकिन यात्रा अभी लम्बी थी।
भागीरथ के पुरखे प्रतीक्षा कर रहे थे, माँ गंगा के पावन स्पर्श का और मन मसोस कर भागीरथ के साथ वो निकल पड़ी, कलकल छलछल करती। मैदान में आकर गति उनकी थोड़ी मंद हुई, कूल चौड़े हुए और लोगों को हर्षाती वो आगे बढीं। लेकिन मन उनका अभी कैलाश पर ही अटका था और बनारस आकर उनका मन मचल पड़ा। काशी एक ऐसा नगर है जहाँ गंगा, एक वक्र रूप लेती हैं मानो वो पीछे मुड़ रही हों।
कैलाश से महेश्वर ने उन्हें समझाया, मनाया और जब तक उन्होंने ये नहीं कहा की वो भी काशी में ही धुनी रमाएंगे, गंगा टस से मस नहीं हुई। उनका आश्वासन मिलते ही वो हँसती मचलती गंगा सागर की ओर चल पड़ी। नटराज, विश्वनाथ बन काशी में अवस्थित हुए।
पूरे भारत में 12 ज्योतिर्लिंग हैं लेकिन सबके प्रतिक स्वरूप 12 ज्योतिर्लिंग काशी में भी हैं। काशी के कोतवाल भैरव माने जाते हैं।
गौतम बुद्ध ने ज्ञान भले ही बोध गया में प्राप्त किया हो लेकिन उनकी शिष्य परंपरा, धम्म की शुरूआत वाराणसी के ही अंग सारनाथ में हुई।
दर्शन के जो षडांग है, मीमांसा, न्याय, इत्यादि उन पर शोध का स्थल काशी ही था और शंकराचार्य का सबसे चर्चित शास्त्रार्थ मंडन मिश्र, मीमांसा के ज्ञानी, से काशी में हुआ।
मध्य कालीन भारत में भी सहित्य की अजस्त्र धारा, रामानंद, तुलसी, कबीर के रूप में काशी से ही प्रवाहित होती रही। आधुनिक मारत के अभ्युदय के साथ, जब हिंदी के विकास का शैशव काल था तो वाराणसी से भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य की अलख जगाई। 33 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने 30 से अधिक नाटक, कविता, गद्य, निबंध सारी विधाओं में लिखा।
जिसे हम आधुनिक भारत का पहला “पापुलर फिक्शन…” कह सकते हैं या आज की भाषा में शायद पल्प फिक्शन। चंद्रकांता, चंद्रकांता संतिति, भूतनाथ, काजर की कोठरी, गुप्त गोदना, इन उपन्यासों के लेखक और शायद आधुनिक भारत के जासूसी और थ्रिलर की परंपरा की शुरूआत के सूत्र जिनमें मिलते हैं। उन पुस्तकों के लेखक। देवकीनंदन खत्री की भी कर्म भूमि वाराणसी थी जहाँ उन्होंने इन कृतियों का सृजन किया। आगे चलकर, साहित्य की परंपरा को जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद ऐसे समर्थ साहित्यकारों ने बढ़ाया।
दर्शन और संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में, ममाहोपाध्याय, देशिकोत्तम और पद्म विभूषण ऐसे उपाधियों से सम्मानित पंडित गोपीनाथ कविराज वाराणसी में ही साधना रत थे। महामना मदननोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्विधालय की स्थापना 1916 में निज प्रयासों और सर्वजनीन सहयोग से की।