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Erotica फागुन के दिन चार

komaalrani

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फागुन के दिन चार भाग ४७

वापस बनारस --- रीत और दुष्ट दमन पृष्ठ ४७३

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komaalrani

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यह पोस्ट कहानी का हिस्सा है भी और नहीं भी,

और यह द्वैत, उलटबांसी कहने वाले कबीर के ही शहर का हो सकता है

यह कहानी बनारस से ही शुरू हुयी, आनंद बाबू के बनारस आने से , ख़त्म भी वहीं होगी, भले ही बीच में पूरी दुनिया घूम के आये

तो इस लिए बनारस की थोड़ी बहुत बात जरूरी है , कहानी के लिए भी,कहानी की पृष्ठभूमि के लिए भी और बनारस को थोड़ा बहुत समझने के लिए
तो जो मेरी थोड़ी बहुत समझ है , वो लिख रही हूँ , पढियेगा भी और कैसा लगा वह भी और कुछ कहना हो तो वो भी

हाँ कहानी आगे बढ़ेगी और कहानी से जुडी पोस्ट बस इसी सप्ताह लेकिन तब तक


बनारस
 

komaalrani

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काशी, वाराणसी, बनारस

काशी, वाराणसी या बनारस, संसार के सबसे पुराने नगरों में है जिनके इतिहास की एक सतत परंपरा रही है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण, और पूराणो में काशी या वाराणसी का आदर पूर्वक उल्लेख है। ऋग्वेद, प्रथम वेद, ने इसे काशी (प्रकाश का नगर) कहा क्योंकि वह विद्याध्यन, ज्ञान की खोज का केंद्र था। स्कन्द पुराण, सबसे बड़े पुराण में एक खंड ही है, काशी खंड। यह खंड दो भागो में हैं और हर भाग में 50-50 अध्याय हैं।

काशी के प्रथम राजा जन श्रुति के अनुसार दिवोदास हैं, उन्हीं के समय में कहा जाता है की ब्रह्मा ने 10 अश्वमेध यज्ञ किये और जिस घाट पर ये यज्ञ हुए, वो दशाश्वमेध कहलाया और काशी के 80 से अधिक घाटों में सबसे प्रमुख है। दिवोदास के समय ही विश्वनाथ मंदिर की स्थापना हुई। शिव और गंगा के बिना बनारस की कल्पना नहीं की जा सकती। कहा जाता है की जब भागीरथ ने गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के लिए तपस्या की तो ये प्रश्न हुआ की गंगा के वेग को कौन रोकेगा। जब विष्णु के नख से ब्रह्मा के कमंडल से रौरव ध्वनी करती, कोलाहल करती गंगा धरती पर, स्वर्ग से उतरेंगी तो पूरी धरती जल प्लावित हो जायेगी, सब पहाड़, उपत्यकाएं खेत खलिहान जल मग्न हो जायेंगे।

भागीरथ ने देवाधिदेव, महादेव से अनुरोध किया। शिव कैलाश पर एक पैर गड़ाकर, कमर में बाघम्बर और गले में सर्प की माला डालकर खड़े हो गये। चन्द्रमा उनकी जटाओं में सुशोभित हो रहा था। गंगा बड़े गर्व से, वेग से, निनाद करती, तूफान मचाती इस अभिमान के साथ उतरीं की उनकी धारा के वेग को कौन रोक पायेगा। लेकिन आशुतोष ने उन्हें अपनी जटाओं में रोप लिया। उन उलझी, लटों में सुरसरी ऐसी रुकीं की वहीं मोहित होकर रह गईं और भोलेनाथ का एक नाम गंगाधर भी पड़ा। स्वर्ग के मोह से मुक्त होकर अब वह चंद्रमौली की जटा में निवास करने लगी। लेकिन यात्रा अभी लम्बी थी।


भागीरथ के पुरखे प्रतीक्षा कर रहे थे, माँ गंगा के पावन स्पर्श का और मन मसोस कर भागीरथ के साथ वो निकल पड़ी, कलकल छलछल करती। मैदान में आकर गति उनकी थोड़ी मंद हुई, कूल चौड़े हुए और लोगों को हर्षाती वो आगे बढीं। लेकिन मन उनका अभी कैलाश पर ही अटका था और बनारस आकर उनका मन मचल पड़ा। काशी एक ऐसा नगर है जहाँ गंगा, एक वक्र रूप लेती हैं मानो वो पीछे मुड़ रही हों।


कैलाश से महेश्वर ने उन्हें समझाया, मनाया और जब तक उन्होंने ये नहीं कहा की वो भी काशी में ही धुनी रमाएंगे, गंगा टस से मस नहीं हुई। उनका आश्वासन मिलते ही वो हँसती मचलती गंगा सागर की ओर चल पड़ी। नटराज, विश्वनाथ बन काशी में अवस्थित हुए।

पूरे भारत में 12 ज्योतिर्लिंग हैं लेकिन सबके प्रतिक स्वरूप 12 ज्योतिर्लिंग काशी में भी हैं। काशी के कोतवाल भैरव माने जाते हैं।

गौतम बुद्ध ने ज्ञान भले ही बोध गया में प्राप्त किया हो लेकिन उनकी शिष्य परंपरा, धम्म की शुरूआत वाराणसी के ही अंग सारनाथ में हुई।

दर्शन के जो षडांग है, मीमांसा, न्याय, इत्यादि उन पर शोध का स्थल काशी ही था और शंकराचार्य का सबसे चर्चित शास्त्रार्थ मंडन मिश्र, मीमांसा के ज्ञानी, से काशी में हुआ।


मध्य कालीन भारत में भी सहित्य की अजस्त्र धारा, रामानंद, तुलसी, कबीर के रूप में काशी से ही प्रवाहित होती रही। आधुनिक मारत के अभ्युदय के साथ, जब हिंदी के विकास का शैशव काल था तो वाराणसी से भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य की अलख जगाई। 33 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने 30 से अधिक नाटक, कविता, गद्य, निबंध सारी विधाओं में लिखा।

जिसे हम आधुनिक भारत का पहला “पापुलर फिक्शन…” कह सकते हैं या आज की भाषा में शायद पल्प फिक्शन। चंद्रकांता, चंद्रकांता संतिति, भूतनाथ, काजर की कोठरी, गुप्त गोदना, इन उपन्यासों के लेखक और शायद आधुनिक भारत के जासूसी और थ्रिलर की परंपरा की शुरूआत के सूत्र जिनमें मिलते हैं। उन पुस्तकों के लेखक। देवकीनंदन खत्री की भी कर्म भूमि वाराणसी थी जहाँ उन्होंने इन कृतियों का सृजन किया। आगे चलकर, साहित्य की परंपरा को जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद ऐसे समर्थ साहित्यकारों ने बढ़ाया।

दर्शन और संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में, ममाहोपाध्याय, देशिकोत्तम और पद्म विभूषण ऐसे उपाधियों से सम्मानित पंडित गोपीनाथ कविराज वाराणसी में ही साधना रत थे। महामना मदननोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्विधालय की स्थापना 1916 में निज प्रयासों और सर्वजनीन सहयोग से की।
 

komaalrani

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हिन्दुस्तान में रिकार्डिंग की शुरूआत जिन गायिका से हुई, गौहर जान वो भी बनारस से जुड़ी थी। मध्य कालीन युग में बनारस, ध्रुपद और उसके साथ, धमार, होरी और चतुरंग के लिए प्रसिद्ध था। बनारस घराने और पूरबी अंग की ठुमरी ने एक नई पहचान बनारस को दी, सिद्धेश्वरी, बड़ी मोती बाई, और अब गिरजा देवी और छुन्नुलाल मिश्र ने ठुमरी गायकी एक पहचान दी। अभी भी राजन सजन मिश्र बनारस घराने का नाम रोशन कर रहे हैं( राजन मिश्र अब नहीं रहे, कोविड के परवर्ती असर से ) । भारत रत्न बिस्मिलाह खान जीवन पर्यंत बनारस में रहे और खांटी बनारसी अंदाज में रहे। पंडित रविशंकर, किशन महाराज। एक लम्बी श्रंखला है।



और शायद इन सबने मिलकर जिस चीज को जन्म दिया। जिसे कोई भी शब्द बाँध नहीं सकता,.... बनारसी अंदाज। जीवन शैली। एक अक्खडपन, एक मस्ती हर पल को उल्लास से जीने की लालसा। औघड़ दानी के शहर और कबीर की परंपरा की जीवन शैली।

मस्ती अन लिमिटेड।

बुढ़वा मंगल का उल्लास, होली की मस्ती, रामनगर की राम लीला और जो जार्ज हैरिसन, बीटल्स से लेकर ब्रैड पिट को बनारस खींच लाती है और उन्हें वहां न कोई माब करता है न आटोग्राफ मांगता है।

लेकिन इन मस्ती के अखंड उत्सव में। 20 वी सदी के आखिरी दशकों में जो पूर्वांचल में एक अपराध की लहर चली, जो राजनीती और अपराध की एक दुरभि संधि बनी उसका असर बनारस पर भी पड़ा। मुम्बई की डी कंपनी के मुख्य लोगों में कई बनारस से जुड़े थे और मुम्बई ब्लास्ट के बाद वापस आकर उन्होंने अपने अलग साम्राज्य कायम करने शुरू किये, और गैंग्स की आपसी लडाई भी शुरू हुई।

इसी के साथ या बल्की इसके पहले से ही राजनीति में जाती और धर्म से वोट बैंक बनाने का खेल शुरू हो चुका था। अपराध जगत ने इसमें अपना तड़का लगाया।


तेग सिंह ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही बनारस में “बदमाश दर्पण…” पुस्तक लिखी थी और उसकी भूमिका में गुंडा शब्द की अच्छी मीमांसा है। शिव के गण से एक ओर इसकी उत्पत्ति मानी गई वहां ये भी कहा गया की संस्कृत में गुंड धातु से ये शब्द बना है और गुंड शब्द का अर्थ होता है, जो रक्षा करे। यानी एक तरह से आज कल के प्रोटेक्शन रैकेट की शुरूआत। जयशंकर प्रसाद ने एक गुंडा कहानी भी लिखी थी। वैसे बदमाश शब्द का भी मतलब यही होता है की माश का अर्थ है जीविका और बद यानी बुरा, अर्थात जो बुरे साधनों से अपनी जीविका चलाये।

21 वीं शताब्दी आते आते इसके साथ आतंकवाद भी जुड़ गया। 2006 में बनारस में दो भयानक धमाके हुए, मंगल के दिन संकट मोचन मंदिर पर और कैंट स्टेशन पर।
 
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komaalrani

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21 वीं शताब्दी आते आते इसके साथ आतंकवाद भी जुड़ गया। 2006 में बनारस में दो भयानक धमाके हुए, मंगल के दिन संकट मोचन मंदिर पर और कैंट स्टेशन पर।

सूत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से जोड़ के देखे जाने लगे और उसमें भी तमाम राजनितिक रंग जुड़ गए।

लेकिन अभी भी बनारस एक शहर नहीं है।

एक जीवन शैली है, एक परंपरा है। जहाँ कल आज और कल की दूरियां मिट जाती हैं, जो कालजयी है। जहाँ प्राचीन और अर्वाचीन साथ-साथ रहते हैं। आधुनिक माल और बर्गर की दुकानें भी खुल गई हैं। लेकिन पहलवान के दुकान और रामनगर की लस्सी का मजा कम नहीं हुआ न ही भांग और ठंडाई का।

जैसे माँ गंगा अजस्त्र बहती हैं उसी तरह उनकी गोद में ये शहर कालातीत अपने को इन्वेंटरी इन्वेंट करते हुए बदलते हुए भी वही है। परम्परा और बदलाव का एक अद्भुत संगम। पूरे हिन्दुस्तान की तरह।

काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। यह नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित है।

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-

काशिरित्ते। आप इवकाशिनासंगृभीता:।

पूराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है।

पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पूरी थी। जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया।

महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पूरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।

महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्र में रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बड़े दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। शिवजी मन्दराचल पर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया।

गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्ग की स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।


काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बड़े पुराण स्कन्द महापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पूरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपूरी, त्रिपूरारिराज नगरी और विश्वनाथ नगरी हैं। स्कन्द पुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते सा काशी त्रिपूरारिराज नगरी पायादपायाज्जगत्॥ जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है। जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटने वाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोक पावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है।



त्रिपूरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत की रक्षा करे।

सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पूरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं।

काशी नाम का अर्थ भी यही है- जहां ब्रह्म प्रकाशित हो।शिव काशी को कभी नहीं छोड़ते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ़ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोनमुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है।

शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥

काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं।

तारकमन्त्र सुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति करा के मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-

अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच। काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:। ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिर्लिगका स्वरूप मानता है- अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पञ्चक्रोशपरीमितम्…” ज्योतिलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥

पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूप मानना चाहिए
 

komaalrani

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अपडेट के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कोमल मैम

अपडेट काफी बड़ा था लेकिन पता नहीं क्यों अधूरा सा लगा।

इससे आगे आने वाले अपडेट का इंतजार और भी ज्यादा हो गया है।

अब जल्दी से अपडेट दे ही दीजियेगा।

सादर
अपडेट शायद अधूरा सा इसलिए लगा की इस अपडेट में सवाल थे जवाब नहीं था

और इसमें से कुछ सवालों के जवाब अगले अपडेट में मिलेंगे तो जैसे सीरयल वाले लटका देते हैं आखिर मिनट पर जिससे अगली पोस्ट आदमी देखे ही तो थोड़ा बहुत ट्रिक मैंने भी ट्राई की

हां , लेकिन बनारस के बारे में ये पोस्ट कैसी लगी जरूर लिखियेगा, और कुछ कमेंट्स आते ही अगला अपडेट काशी चाट भण्डार में चाट पार्टी का
 

komaalrani

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२६ जुलाई को पोस्टेड अपडेट पर अबतक पांच मित्रों के कमेन्ट आये हैं

प्रतीक्षा है शायद कुछ और लोग अपनी बात कहें

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Sutradhar

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अपडेट शायद अधूरा सा इसलिए लगा की इस अपडेट में सवाल थे जवाब नहीं था

और इसमें से कुछ सवालों के जवाब अगले अपडेट में मिलेंगे तो जैसे सीरयल वाले लटका देते हैं आखिर मिनट पर जिससे अगली पोस्ट आदमी देखे ही तो थोड़ा बहुत ट्रिक मैंने भी ट्राई की

हां , लेकिन बनारस के बारे में ये पोस्ट कैसी लगी जरूर लिखियेगा, और कुछ कमेंट्स आते ही अगला अपडेट काशी चाट भण्डार में चाट पार्टी का

कोमल मैम

काशी के बारे में बहुत कुछ लिखा - पढ़ा जाता रहा है और आगे भी जारी रहेगा लेकिन आपने जो वर्णन किया है वो तो गागर में सागर समेटने जैसा है।

सच में आप धन्य हैं।

आपकी कहानियों में जिस तरह से बनारस बसता है वो तो स्तर ही अलग है। कितनी सहजता से आप बताती रहती हैं और पाठक उस रस से भीगता रहता है।

सादर
 

komaalrani

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कोमल मैम

काशी के बारे में बहुत कुछ लिखा - पढ़ा जाता रहा है और आगे भी जारी रहेगा लेकिन आपने जो वर्णन किया है वो तो गागर में सागर समेटने जैसा है।

सच में आप धन्य हैं।

आपकी कहानियों में जिस तरह से बनारस बसता है वो तो स्तर ही अलग है। कितनी सहजता से आप बताती रहती हैं और पाठक उस रस से भीगता रहता है।

सादर

🙏🙏🙏🙏:thank_you::thank_you::thank_you::thank_you::thankyou::thankyou::thankyou::thanks::thanks::thanks::thanks::thanks:🙏🙏🙏🙏
 

Luckyloda

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Aapme
21 वीं शताब्दी आते आते इसके साथ आतंकवाद भी जुड़ गया। 2006 में बनारस में दो भयानक धमाके हुए, मंगल के दिन संकट मोचन मंदिर पर और कैंट स्टेशन पर।

सूत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से जोड़ के देखे जाने लगे और उसमें भी तमाम राजनितिक रंग जुड़ गए।

लेकिन अभी भी बनारस एक शहर नहीं है।

एक जीवन शैली है, एक परंपरा है। जहाँ कल आज और कल की दूरियां मिट जाती हैं, जो कालजयी है। जहाँ प्राचीन और अर्वाचीन साथ-साथ रहते हैं। आधुनिक माल और बर्गर की दुकानें भी खुल गई हैं। लेकिन पहलवान के दुकान और रामनगर की लस्सी का मजा कम नहीं हुआ न ही भांग और ठंडाई का।

जैसे माँ गंगा अजस्त्र बहती हैं उसी तरह उनकी गोद में ये शहर कालातीत अपने को इन्वेंटरी इन्वेंट करते हुए बदलते हुए भी वही है। परम्परा और बदलाव का एक अद्भुत संगम। पूरे हिन्दुस्तान की तरह।

काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। यह नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित है।

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-

काशिरित्ते। आप इवकाशिनासंगृभीता:।

पूराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है।

पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पूरी थी। जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया।

महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पूरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।

महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्र में रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बड़े दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। शिवजी मन्दराचल पर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया।

गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्ग की स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।


काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बड़े पुराण स्कन्द महापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पूरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपूरी, त्रिपूरारिराज नगरी और विश्वनाथ नगरी हैं। स्कन्द पुराण काशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है- भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते सा काशी त्रिपूरारिराज नगरी पायादपायाज्जगत्॥ जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है। जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटने वाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोक पावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है।



त्रिपूरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत की रक्षा करे।

सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पूरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं।

काशी नाम का अर्थ भी यही है- जहां ब्रह्म प्रकाशित हो।शिव काशी को कभी नहीं छोड़ते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ़ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोनमुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है।

शास्त्रों का उद्घोष है- यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥

काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं।

तारकमन्त्र सुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति करा के मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-

अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच। काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:। ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिर्लिगका स्वरूप मानता है- अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पञ्चक्रोशपरीमितम्…” ज्योतिलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥

पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूप मानना चाहिए

आपने तो काशी के दर्शन करवा दिए.....


बहुत बहुत धन्यवाद
 
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