#45
कोई और होता तो पागल हो जाता, मर जाता पर ये मैं था अपने आप से जूझते हुए कहे तो किस से कहे, ले देकर बस एक प्रज्ञा थी और एक मेघा थी , जो न जाने कहाँ गुम थी , आँखों आँखों में रात कट गयी , सुबह से भी कोई खास उम्मीद नहीं थी , मैं चबूतरे पर आया, उसने कहा था उस ताबीज को मैं वही रख दूँ , पर वहां जाके ना जाने क्यों मैंने अपने निर्णय बदल दिया ,
जरुर इस चबूतरे का कुछ तो सम्बन्ध था उस औरत से, पर बस एक टूटे चबूतरे से भला क्या रिश्ता रहा होगा, मैंने गौर किया और पाया की मेरे जीवन में भी इस चबूतरे का नाता था, चबूतरा मंदिर, और अब वो नयी जगह , एक समानता और थी इन तीनो जगहों में दिए, दो जगह दिए जलते थे एक जगह नहीं , और फिर मुझे उस जगह का ध्यान भी आया जो मेरे गाँव में थी वहां पर भी मुझे एक दिया जलता मिला था , जैसे ये कोई सेरिज हो, अवश्य ही कुछ तो रहा होगा उस जगह से भी लेना देना , मैं तुरंत ही गाँव के लिए निकल पड़ा
पर वहां जाकर भी निराशा ही हाथ लगी कुछ नहीं था सिवाय जमीन के , मेरे सर में बहुत दर्द हो रहा था , मुझे मेघा की जरुरत थी , पर जरुरत के समय कौन किसे मिलता है , गाँव में जाके मैं दुकानों पर बैठ गया ,पर अब ये गाँव भी कहाँ अपना रहा था , दुनिया बस उस जंगल और दो गाँवो के बीच सिमट कर रह गयी थी ,
“उसका बोझ तुम उठा नहीं पाओगे ” उसके कहे शब्द मेरे कानो में गूँज रहे थे आखिर क्या मतलब था उनका, मैंने ताबीज को गले से उतार कर हथेली में रखा, मुश्किल से बीसों ग्राम का होगा या तीस का तो फिर क्या बोझ था उसमे, मैंने लोकेट खोल कर उन दो तस्वीरों को देखा , पर क्या देखा, देखने लायक थी ही नहीं वो.
मौसम बदल रहा था बारिशे ठंड की तरफ बढ़ रही थी और हमारी उलझन थी की कोई सुलझाता नहीं था .
“भैया, दो समोसे और एक चाय, ”
ये आवाज सुनते ही जैसे मैं घबरा गया मुझे सपनो में भी दूर दूर तक उम्मीद नहीं थी मैं मेरा मतलब अब क्या कहूँ , मैंने नजर उठा कर देखा, वो मेरे सामने खड़ी थी .
रात वाले कपड़ो से बिलकुल अलग, उसे देख कर लगा की वो बहुत अमीर होगी ,
“आप यहाँ कैसे ” मैं बस इतना कह पाया
“क्यों, यहाँ क्या ठाकुरों का ही आना जाना है , ” उसने मेरे पास बैठते हुए कहा .
मैं- नहीं मेरा मतलब वो नहीं था .
वो- हाँ, अक्सर मैं कुछ खाने पीने इस बाजार आ जाती हु, पुराना नाता है , स्वाद लगा हैं यहाँ का जुबान को ,
उसने मेरे हाथ में लॉकेट देखा और बोली- मैंने कहा था न इसे वहां छोड़ देना
मैं- नहीं, मैं पहनूंगा इसे
वो- किसी ने तुम्हे बताया नहीं की हर चीज़ की कीमत होती है चूका देगा तू
मैंने उसको बड़े गौर से देखा, एक अजीब सी बेतकल्लुफी थी, उसने माथे की लट को हटाया और समोसे के टुकड़े को होंठो से लगा लिया.
मैं- क्या कीमत है इसकी, कितने का है .
वो - पैसे ही कीमत नहीं होती बरखुरदार
मैं- तो क्या है कीमत इस छोटी सी चीज़ की
मैंने उसके अहंकार पर चोट करते हुए कहा
उसने चाय की चुस्की ली और बोली- अच्छी कोशिश है पर मुझे कोई अहंकार नहीं , कोई मोह नहीं
न जाने कैसे वो समझ गयी थी मेरे अंदेशे को
वो- मेरे एक सवाल का जवाब दे,
मैं - जी,
वो- तू जान दे सकता है किसी के लिए
ये एक अत्याप्र्तियाषित सवाल था ,मैं क्या कहता अब उसे
मैं-निर्भर करता है , अगर मेरे जान देने से किसी की जान बचती है तो बेशक
वो-उफ्फ्फ ये आदर्श भरी झूठी बाते, ये ज़माने के तमाम अफसाने
मैं- मैं आपको जानना चाहता हु, आपके बारे में मेरा मतलब
वो- कुछ नहीं बताने को , कहने को तो मैं ही तुम हूँ तुम ही मैं हु पर ये सब बाते है , सच तो ये है मुसाफिर तुम हो मुसाफिर हम है ,
उसके चेहरे पर एक भाव आया जिसे मैंने पकड लिया
मैं- मंदिर में वो भेस करके आप ही आती थी न, आप ही थी वो , आप ही थी न
उसने मुस्का कर मुझे देखा और बोली- मैं नहीं चाहती थी की तुम्हारी मासूमियत नष्ट हो, तुम्हारी पवित्रता बनी रहे, मैं नहीं चाहती थी की इन हाथो पर और खून लगे, बेशक ये हाथ पहले ही खून से रंगे है .
मैं हैरान हो गया, वो सब जानती थी सब कुछ
“जब इतना जानती हो तो ये भी जानती होगी की क्या परिस्तिथि थी वो ” मैंने कहा
वो- मैंने कहा था न मैं इतनी भी सरल नहीं रहती, खैर मेरे जाने का समय हो गया. खैर, अब जब तुमने फैसला किया है ये लॉकेट नहीं लौटने का तो इसकी कीमत चूका देना .
मैं- पर क्या
वो- वहां जाओ जिसे सबने भुला दिया, जहाँ से अलख जगी थी जहाँ से प्रीत बाँधी गयी थी , वहां जाके धागा बांधना
उसने इतना कहा और मुड कर चल पड़ी, मैं बस आवाजे देता रह गया