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Thriller नसीब मेरा दुश्मन by वेद प्रकाश शर्मा(complete)

Rakesh1999

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नसीब मेरा दुश्मन
वेद प्रकाश शर्मा

"अरे, असलम बाबू, आप! आइए, हम तो कब से आपकी राहों में पलकें बिछाए पड़े हैं।" शान्तिबाई ने ठीक इस तरह स्वागत किया जैसे मैं आसमान से उतरा कोई फरिश्ता होऊं, मन-ही-मन मुस्कराते हुए मैंने भी किसी नवाब के-से अंदाज में कहा—"लो हम आ गए हैं।"

"मगर हम आपसे बहुत नाराज हैं।" अधेड़ आयु की फिरदौस ने उसी अंदाज में भवें मटकाईं जैसे जवानी में लोगों को जख्मी करने के लिये मटकाती रही होगी।

"वह क्यों?" मैंने आश्चर्य को अपनी आंखों में आमंत्रित किया।

"इसलिए जनाब, क्योंकि आपने हमारे कोठे की रौनक लूट ली है।"

"कैसे भला?"

"अदा उनकी देखिए कि शहर उजाड़कर गुनाह पूछते हैं," ये शब्द शायराना अन्दाज में कहने के बाद शान्ति बोली— "अब आप इतने भोले भी नहीं हैं असलम बाबू, कि हर बात आपको सिरे से समझानी पड़े—कंचन मेरे कोठे की ही नहीं बल्कि मेरठ शहर के सारे 'कबाड़ी बाजार' की शान हुआ करती थी, जब वह इस हॉल में थिरकती थी तो इस कदर भीड़ हो जाती थी जैसे हेमामालिनी की कोई नई फिल्म लगी हो—जिन्हें मालूम नहीं था, वे सारे बाजार में दीवाने हुए शान्तिबाई का कोठा पूछते फिरा करते थे, मगर अब...।''

''ऐसा क्यों?"

"क्योंकि कंचन नाम के नूर को आपने अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है—नाचना तो दूर, आपके अलावा किसी को चेहरा तक दिखाने को तैयार नहीं है—दीवानी हो गई है आपकी—और एक आप हैं कि हफ्ते-हफ्ते के लिए गायब हो जाते हैं।"

"कहां है वह?"

"पड़ी है अपने कमरे में, न कुछ खाया है न पिया।" शान्तिबाई ने सफेद झूठ बोला— "इतने बड़े सितमगर न बनिए असलम बाबू, रोज आ जाया कीजिए, वर्ना किसी दिन कंचन आपको अपने कमरे के पंखे से लटकी मिलेगी।"

"ऐसा मत कहो शान्ति।" मैंने भी सारे जमाने की दीवानगी अपने चेहरे पर समेट ली—"अगर कंचन को कुछ हो गया तो मैं इस दुनिया में जी नहीं सकूंगा, वह तो कम्बख्त मेरी पत्नी हमेशा पीछे पड़ी रहती है—पिछले हफ्ते जबरदस्ती पकड़कर शिमला ले गई, आज दोपहर ही तो लौटाकर लाई है।"

"आप शिमला की हसीन वादियों में मौज मना रहे थे और यहां कंचन बेचारी गम और आंसुओं में डूबी सारे हफ्ते अंगारे के जैसे बिस्तर से चिपकी रही, अगर मानें तो हुजूर से एक दरख्वास्त करूं?"

"क्या?"

"अगर आप अपनी बीवी से इतना ही डरते हैं तो कंचन को समझा दीजिए कि आपके बाद कम-से-कम नाच-गाना तो कर लिया करे—मेरा तो धंधा ही चौपट हुआ जा रहा है, असलम बाबू।"

"दूसरी लड़कियां भी तो हैं यहां?"

"होती रहें।" शान्ति ने होंठ सिकोड़े—"कोठा तो कंचन ही से आबाद था, जनाब—या तो रोज आ जाया कीजिए या पल्ला पसारकर आपसे एक ही भीख मांगती हूं—कंचन को अपनी दीवानगी से आजाद कर दीजिए, कम-से-कम मेरा रोजगार तो...।"

इस तरह की ढेर सारी बातें कीं उसने।

मैं जानता था कि वह झूठ के अलावा कुछ नहीं बोल रही थी। मगर खुश था, क्योंकि उसके मुंह से झूठ बुलवाना ही तो मेरा उद्देश्य था।
जाहिर था कि वह मेरी योजना में पूरी तरह फंस गई थी।

मैं कंचन के कमरे की तरफ बढ़ा।

इस बात का मुझे पूर्वानुमान था कि वह अपने कमरे को 'कोप भवन' में तब्दील किए पड़ी होगी—मैं वेश्याओं के कैरेक्टर से ठीक उसी तरह परिचित हूं जैसे दूसरी कक्षा को पढ़ाने वाला दो के पहाड़े से होता है।

हालांकि न तो मैंने बहुत ज्यादा उपन्यास पढ़े हैं और न ही ज्यादा फिल्में देखता हूं, मगर उन सभी में प्रस्तुत किए गए 'वेश्या करैक्टर' देख-पढ़कर मुझे हंसी ही नहीं बल्कि राइटर्स की अक्ल पर तरस आया है।

इन लेखक लोगों को मालूम तो कुछ होता नहीं—अपनी कुर्सी पर बैठे नहीं कि उड़ने लगे कल्पनालोक में—वेश्या का ऐसा आदर्श चित्रण करेंगे कि बस जवाब नहीं—असल वेश्या की इन्हें ए—बी-सी-डी भी पता नहीं होती।
कभी कोठे पर गए हों तो पता चले।

मैं जरा भावुक किस्म का जीव हूं।
अच्छी तरह याद है कि जब पहली बार कोठे पर गया था, तब जेहन में वेश्या के उपन्यास और फिल्मों वाले कैरेक्टर बसे हुए थे—उसके कमरा बन्द करते ही मैंने नाम पूछा, जवाब में वह निहायत बदतमीजी के साथ बोली— "अरे, नाम क्या पूछता है, धंधे का वक्त है—अपना काम कर और फूट यहां से।"

"नहीं।" मैंने कहा— "जरूर तुम्हारी मजबूरी होगी जो तुम ऐसा काम करती हो, मुझसे अपनी मजबूरी कहो—मैं तुम्हें इस नर्क से छुटकारा दिला दूंगा।"

"क्या बकता है रे, काम की बात कर।"
 

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मैंने चोर-दृष्टि से चारों तरफ देखा, इस उम्मीद में कि शायद किसी खिड़की के पार खड़ा कोई ऐसा गुण्डा उसे घूर रहा हो जो ग्राहक से धंधे की बात न करने वाली लड़की को मारते-पीटते हैं, ऐसा दृश्य मैंने कई फिल्मों में देखा था, मगर कमरे के सभी खिड़की-दरवाजे अन्दर से बन्द थे—दिमाग में विचार उठा कि निश्चय ही कोठे वालों ने इसके छोटे भाई या बहन को अपनी गिरफ्त में ले रखा होगा, शायद उसी की वजह से मजबूर होकर यह ये धंधा करती है, मैं उसके नजदीक पहुंचा, फुसफुसाया—"तुम्हारी जो भी मजबूरी हो, धीमी आवाज में मुझे बता सकती हो, यकीन मानो, मैं तुम्हें यहां से...।"

"अरे, तू कहीं पागल तो नहीं है?" मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वो गुर्राई—अपने ब्वाउज के बटन खोलती हुई बोली— "जल्दी कर।"

"न...नहीं।" मैं 'पहचान' के मनोज कुमार की तरह चीख पड़ा, उसकी तरफ पीठ घुमाकर बोला— "तुम मेरी बहन जैसी हो।"

"अरे तो फिर यहां क्या...।" इससे आगे जो कुछ उसने कहा, वह इतनी भद्दी गाली थी कि जिसे मैं यहां लिख भी नहीं सकता—
हां, ये लिख सकता हूं कि वह सिर्फ गाली देकर ही नहीं रह गई, बल्कि पीठ पर अपने दोनों हाथ इतनी जोर से मारे कि मैं मुंह के बल फर्श पर जा गिरा।
उसके बाद।
कमरे का दरवाजा खोलकर उसने भद्दे अन्दाज में शोर मचा दिया, गन्दी-गन्दी गालियां बकने लगी मुझे—सभी वेश्याएं और उनकी 'आण्टी' भी वहां आ गईं।
सभी ने गालियां दीं।

मेरी जेबें टटोलीं और उन्हें खाली पाकर न सिर्फ गालियों की पावर बढ़ गई, बल्कि बेरहमी से सीढ़ियों से नीचे धकेल दिया गया।

फिल्मों और उपन्यासों ने दिमाग में वेश्या के करैक्टर की जो छवि बनाई थी, वह उसी तरह बिखर गई जैसे स्ट्राइकर की एक जोरदार चोट से कैरम के बीच में रखी सारी गोटियां बिखर जाती हैं।
ऐसी होती है वेश्या।

आपकी जेब में पैसे हैं तो उनका तन हाजिर है, यदि आप खानदानी रईस हैं तो वे आपकी गुलाम हैं और अगर आप खानदानी रईसके साथ-साथ बेवकूफ भी हैं तो उनके लिए 'जैकपॉट' हैं—आप पर कुर्बान हो जाने, आपसे दिली मुहब्बत हो जाने का ऐसा खूबसूरत नाटक करेंगी कि शबाना आजमी भी पीछे रह जाए और यह नाटक तब तक बराबर चलता रहेगा, जब तक आप रईस हैं।

आपकी अक्ल की आंखों पर ऐसा चश्मा चढ़ाने की आर्ट में इन्हें महारत हासिल होती है, जिसमें से आपको सिर्फ ये और इनका प्यार ही नजर आए—मैं इनकी तुलना बिजली से करता हूं, क्योंकि एक बार किसी भी व्यक्ति को पकड़ लेने के बाद जिस तरह बिजली उसके जिस्म में भरे खून की अन्तिम बूंद चूसने के बाद उसे निष्प्राण करके छोड़ती है, ठीक उसी तरह वेश्या भी व्यक्ति को निष्प्राण कर डालती है—हां, यह जो चूसती है, उसे खून नहीं पैसा कहते हैं।

इनके इसी शौक का फायदा उठाते हुए मैंने एक ऐसी पुख्ता स्कीम तैयार की थी, जिसकी कामयाबी पर मेरे 'दिलद्दर' दूर हो सकते थे—उस समूची स्कीम को एक बार फिर दिमाग की मशीनगरी से गुजारता हुआ मैं कंचन के कमरे के दरवाजे पर पहुंच गया।

खूबसूरत से सजे अपने पलंग पर कंचन पीठ किए लेटी थी। अपना चेहरा कलाइयों में छुपाए वह सिसक रही थी, मगर मैंने पहली ही नजर में ताड़ लिया कि जिस वक्त मैंने इस कोठे की सीढ़ियां चढ़नी शुरू की होंगी, तब यह यहां आकर इस पोज में लेटी होगी—तन पर वही कपड़े थे जिनका इस्तेमाल वह शाम के वक्त ग्राहकों को लुभाने के लिए करती थी।

''कंचन।" पलंग के बहुत नजदीक पहुंचकर मैंने बड़े प्यार से पुकारा।

वह एक झटके से पलटी।
जैसे बुरी तरह चौंकी हो—उफ—चेहरा आंसुओं से सराबोर था। ग्राहकों को फंसाने के लिए किया गया मेकअप धुल चुका था—यदि इस वक्त यहां मेरी जगह कोई 'गांठ का पूरा और अक्ल का अंधा' होता तो हाहाकार कर उठता, यही सोचकर मैंने सारे जहां की वेदना अपने चेहरे पर समेटी, बोला—"त...तुम रो रही हो, कंचन?"

"आपको क्या, मैं मरूं या जीऊं?" कहने के बाद वह पुनः बिस्तर में मुंह देकर सिसक पड़ी—इस बार वह कुछ ज्यादा ही टूटकर रोई थी—जी चाहा कि पीछे से एक ठोकर रसीद करूं, मगर ऐसा करने से मेरी सारी योजना चौपट हो सकती थी। सो आगे बढ़ा।
आहिस्ता से पलंग पर बैठा।

हाथ उसके कंधे पर रखकर दीवानगी के आलम में बोला—"स...सुनो कंचन।"

"ब...बात मत कीजिए हमसे।" कहने के साथ उसने कंधे को इतनी जोर से झटका कि मेरा हाथ उछल गया—तीव्र गुस्सा तो ऐसा आया कि हरामजादी की चोटी पकड़कर जबरदस्ती अपने सामने खड़ी करके पूंछूं कि यदि वह हफ्ते भर से यहीं पड़ी सिसक रही है तो जिस्म पर ये हार-सिंगार कौन कर गया, परन्तु मौजूदा हालातों में ऐसा करना अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना था। सो खुशामद करता रहा।
 

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ऐसा प्रदर्शित करता रहा कि यदि उसने रोना बन्द नहीं किया तो मेरा दम ही निकल जाएगा—अपनी समझ में मुझे मुकम्मल प्रताड़ना देने के बाद वह सामान्य हुई—अपनी काल्पनिक पत्नी की ढेर सारी बुराई करते हुए मैंने जेब से सिगरेट केस और लाइटर निकाला—कंचन की आंखें चमक उठीं।

खुद 'कंचन' होने के बावजूद वह आज तक न ताड़ सकी थी कि सोने के नजर आने वाले सिगरेट केस और लाइटर पर शुद्ध सोने का पानी मात्र है और उन्हीं की क्या बात कहूं—एक महीने में मैं आज यहां आठवीं बार आया था, वह अभी तक नहीं ताड़ सकी थी कि मेरी कलाई पर बंधी रिस्टवॉच, दस में से चार उंगलियों में मौजूद अंगूठियां हीरे-जड़ित सोने की नहीं बल्कि दो कौड़ी के कांच-जड़ित एक कौड़ी के पीतल की हैं, केस से चांसलर की एक सिगरेट निकालकर मैंने होठों से लगाई ही थी कि उसने लाइटर मेरे हाथ से लगभग छीन लिया।

सिगरेट सुलगाई।

मैंने अभी पहला कश लिया था कि कंचन मुझे कातिल नजरों से घूरती हुई बोली—"अगर मैं ये लाइटर रख लूं तो?"

"स...सॉरी कंचन।" मैंने अपने चेहरे पर ऐसे भाव इकट्ठे किए जैसे इन्कार करते हुए बहुत जोर पड़ रहा हो, बोला—"ये लाइटर मेरी बीवी की नजर में है, बल्कि उसी ने प्रेजेण्ट किया था—अगर मेरे पास नहीं देखेगी तो चुड़ैल बनकर लिपट जाएगी।"

"हुंह...लो अपना लाइटर।" पलंग पर पटकते हुए उसने कहा—"मैं क्या इसके लिए मरी जा रही हूं, मैं तो ये देख रही थी कि आपका दिल कितना बड़ा है?"

"ऐसा मत कहो, कंचन।"

"क्यों न कहूं...हर समय तो नंगी तलवार की तरह आपके दिलो-दिमाग पर आपकी बीवी लटकी रहती है—जाने कैसे मुझे आपसे मुहब्बत हो गई, ये दिल कम्बख्त बड़ी बुरी चीज है—क्या आपके पास ऐसी भी कोई चीज है, जो आपकी हसीन बीवी की नजर में न हो?"

"क्यों?" मैंने 'अहमकों वाले अन्दाज' में पूछा।

''ताकि उसे देख-देखकर चूम-चूमकर ही वह वक्त गुजार दिया करूं, जब आप अपनी हसीन बीवी की बांहों में होते हैं, मुझ बदनसीब को प्यार की निशानी के रूप में देने के लिए क्या आपके पास कुछ भी नहीं है—कोई ऐसी चीज जो आपकी नजरों में न हो?" अन्तिम शब्द उसने अपने व्यंग्यात्मक लहजे में कहे।

"ऐसी तो मेरे पास कोई चीज नहीं है, लेकिन.....।"

"लेकिन—?"

"अपनी निशानी के तौर पर मैं तुम्हें बाजार से खरीदकर कोई चीज दे सकता हूं।"

"क्या चीज?"

"जो तुम चाहो।"

"अच्छा?" उसने अपने चेहरे पर आश्चर्य के भाव उत्पन्न किए, फिर इस तरह बोली जैसे मुझे आजमा रही हो—"जो मैं चाहूं?"
 

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हां।" कहते हुए मैंने लाइटर अपने जिस्म पर मौजूद काली अचकन की जेब में रखने के बहाने सौ रुपये के नोटों की एक गड्डी नीचे गिरा दी—इस गड्डी को देखते ही कंचन की आंखें हीरों के मानिन्द चमकने लगीं। जबकि वास्तविकता ये थी कि बीच में सफाई के साथ कटे सफेद कागज थे। दोनों तरफ पांच-पांच नोट असली बल्कि उन्हें भी असली नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उस सीरीज के नोट थे जिसे हमारी सरकार जाली घोषित कर चुकी थी।

मैंने गड्डी उठाकर वापस जेब में रखी।

"अगर मैं हीरों से जड़ा हार चाहने लगूं?" लहजा अब भी मुझे आजमाने वाला ही था।

"कैसी बात करती हो, कंचन, तुम्हारे सामने भला हार की क्या कीमत है?"

उसने मुझे कातर दृष्टि से देखते हुए कहा—"तो दिलाओ।"

"फिर कभी।"

"क.....क्यों?" उसके इरादों पर पानी फिर गया।

"आज शाम मेरी बीवी मायके चली गयी है और सेफ की चाबी उसी के पास रहती है—मेरी जेब में इस वक्त केवल बीस हजार रुपये पड़े हैं, इनमें वह चीज आ नहीं सकती, कंचन, जो तुम्हारे गले में फबे।"

"क.....क्या—बीवी मायके गई है?" वह उछल पड़ी—"तब तो आज की रात मैं आपको कहीं न जाने दूंगी।"

"आज मैं रात-भर रहने के लिए ही आया हूं।"

"हाऊ स्वीट—आप कितने अच्छे हैं, असलम बाबू।" कहकर वह लिपट ही नहीं गई, बल्कि बेसाख्ता मुझे चूमने लगी—शिकार फंसाने में वह इतनी माहिर थी कि 'हार' वाले विषय को इस तरह चेंज कर गई जैसे उस विषय में कोई दिलचस्पी न हो। उस वक्त उसने केवल यही 'शो' किया जैसे मेरे रात के वहां रहने के निर्णय ने उसे पागल कर दिया हो—जबकि मैं अच्छी तरह जानता था कि बीस हजार के नैकलेस पर उसकी लार टपकी जा रही है और रात के किसी वक्त वह यह कहकर कि प्यार की निशानी का महत्व कीमत से नहीं होता, मुझे बीस हजार के आस-पास का नैकलेस दिलाने के लिए तैयार करने वाली थी।

उस बेवकूफ को नहीं मालूम था कि मैं क्या गुल खिलाने वाला हूं?
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मेरठ सर्राफा।

कबाड़ी बाजार के नजदीक ही है।

दोपहर के बारह बजे थे।

काले बुर्के में कंचन मेरे साथ थी—बुर्का इसलिए, क्योंकि उसकी नजर में मैं मेरठ का सम्भ्रांत नागरिक था और किसी द्वारा हमें साथ देखा जाना मुझे पसन्द नहीं था—अपनी आंखों में बीस हजार के आस-पास के नैकलेस का सपना लिए वह मेरे साथ जिस दुकान पर चढ़ी, उसके बाहर बोर्ड़ लगा था—
खैरातीलाल—सुरेशचन्द्र।

काउण्टर पर बैठे मोटे व्यक्ति ने दुकान में घुसते ही हमें हाथों-हाथ लिया—यह प्रभाव मेरे उसी जवान पहनावे का था, जिसके जरिए एक महीना पहले शान्ति और कंचन को लपेट में लिया था।

काली अचकन, चूड़ीदार सफेद पाजामा, चमकदार गोटे वाली जूतियां, घड़ी और अंगूठियों का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूं—बढ़ी हुई दाढ़ी—मूंछें और हेयर स्टाइल से भी मैं किसी रईस मुसलमान का शौकीन लड़का नजर आता था।

"हमारी बीवी को नैकलेस दिखाओ।" मैंने नवाबी अंदाज में कहा।

"जरूर, हुजूर, किस रेंज में?"

"कोई रेंज नहीं।" मैंने अर्थपूर्ण ढंग से जाली के भीतर चमक रहीं कंचन की आंखों में झांकते हुए कहा—"बस चीज ऐसी नफीस हो कि बेगम की खूबसूरती में चार चांद लग जाएं।"

"ऐसी ही चीज लीजिए, हुजूर।" कहने के बाद मोटे ने अपने चार या पांच नौकरों में से किसी को आवाज लगाई।

दस मिनट बाद काउण्टर पर नैकलेस के ढेर सारे डिब्बे खुले पड़े थे। कंचन ठीक किसी नवाब की बीवी के समान उनका तुलनात्मक विवेचन कर रही थी और उसका शौहर होने के नाते मैं तरह-तरह की सलाह दे रहा था।

अचकन की ऊपर वाली जेब से पांच का नोट निकालकर दुकान के नौकर से पान लाने के लिए कहा। वह पान लेने चला गया—जब पान लिए लौटा तो मैं और कंचन उस नैकलेस पर विचार-विमर्श कर रहे थे, जिसकी कीमत मोटे ने साढ़े बीस हजार बताई थी—पान के बाद जब नौकर बचे हुए पैसे वापिस देने लगा तो पान मुंह में रखते हुए मैंने बुरा-सा मुंह बनाया, बोला— "तुम हमारी बेइज्जती कर रहे हो किबला?"

"ज.....जी?"

"बचे हुए पैसे जेब में डालना हमारे खानदान की फितरत नहीं।" कहने के बाद मैं कंचन के साथ बातों में इस कदर मशगूल हो गया कि चाहकर भी बेचारा नौकर बचे हुए पैसे मेरी तरफ न बढ़ा सका।

साढ़े बीस हजार के नैकलेस पर कंचन सहमत हो गई।
 

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हालांकि ऊपर से मैं पूरी तरह सामान्य और खुश नजर आ रहा था, परन्तु हकीकत में दिल हथौड़े की शक्ल अख्तियार कर जोर-जोर से पसलियों पर चोट करने लगा और ऐसा शायद इसलिए था, क्योंकि अब मेरी योजना के वे अंतिम और संवेदनशील क्षण आ पहुंचे थे, जब गड़बड़ हो सकती थी। बोला— "मैं धर्मकांटे पर नैकलेस का वजन कराना चाहूंगा।"

"जरूर कराइए हुजूर, तसल्ली जरूरी है।" कहने के बाद मोटे ने नैकलेस अपने एक नौकर को सौंपा और बोला—"बुन्दू, हुजूर के साथ धर्मकांटे पर जाकर इसका वजन करा ला।"

"जी मालिक।"

"हम अभी आते हैं बेगम तब तक चाहो तो तुम कुछ और देख सकती हो।" जाली में ढंकी कंचन की आंखों से मैंने कहा ही था कि मोटा बोला, "आप इनकी फिक्र न करें, मैं बेगम साहिबा को बोर नहीं होने दूंगा, ऐसी शानदार चीजें दिखाऊंगा कि इनकी तबीयत बाग-बाग हो जाएगी—अबे ओ छग्गन!"

"जी, मालिक।" दुकान के भीतरी हिस्से से आवाज आई।

"बेगम साहिबा के लिए एक ठंडी बोतल ला।"

बस।
इसके बाद मैं बुन्दू नामक नौकर के साथ दुकान से उतर गया। वह मुझे सराय के पश्चिमी किनारे पर, पहली मंजिल पर स्थित धर्मकांटे पर ले गया।
कुछ अन्य लोग भी धर्मकांटे पर वजन करा रहे थे।

अपना नम्बर आते ही मैंने जेब से बीस का नोट निकाला, बुन्दू को दिया और सामने ही, सड़क के पार चमक रही पनवाड़ी की दुकान की तरफ इशारा करता हुआ बोला—"जब तक वजन हो, तब तक तुम सामने वाली दुकान से चांसलर का एक पैकेट पकड़ लो, बुन्दू।"

ऐसा कहने के बाद सोचने के लिए बुन्दू को एक क्षण भी दिए बगैर मैंने नैकलेस उसके हाथ से लेकर 'कांटे' पर बैठे व्यक्ति को पकड़ा दिया।

हालांकि मैंने हालात ऐसे बना दिए थे कि बुन्दू चाहकर भी कुछ सोच न सके और उस वक्त यदि बुन्दू सोच भी पाया होगा तो सिर्फ यह कि बीस हजार के ग्राहक को नाराज करने के सिलसिले में सेठ उस पर बिगड़ भी सकता है—बीस के नोट में से बचने वाले पैसे भी उसे साफ चमक रहे होंगे—भले ही चाहे जो रहा हो, मगर हकीकत ये है कि बुन्दू सिगरेट का पैकेट लेने चला गया।

अब मेरी उद्विग्नता बढ़ती चली गई।
कांटे पर बैठा व्यक्ति नैकलेस को तौल रहा था, तौलने के बाद उसने पर्ची बनाई—जिस वक्त मैं पर्ची और नैकलेस के अपने हाथ में पहुंचने का इंतजार कर रहा था, उस वक्त बुन्दू को सड़क पार करते पनवाड़ी की दुकान की तरफ बढ़ते देखा।

"सवा दो रुपये।" कहते हुए कांटे पर बैठे व्यक्ति ने पर्ची और नैकलेस मुझे पकड़ा दिए, मैंने जबरदस्त फुर्ती के साथ सवा दो रुपये दिए। उधर, चांसलर का पैकेट बुन्दू के हाथ में पहुंच चुका था। उसे वापस देने के लिए पनवाड़ी गल्ले से नोट निकाल रहा था कि मैं जीने की तरफ लपका—कांटे पर बैठा व्यक्ति मुझसे अगले व्यक्ति को 'डील' करने में इस कदर व्यस्त था कि मेरी तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया।
मैं नीचे पहुंचा।

पर्ची और नैकलेस जेब में डाल चुका था।

इस तरफ पीठ किए बुन्दू वापस किए गए नोट गिन रहा था कि मैं गन से निकली गोली की तरह बाईं तरफ की छः दुकानों के सामने से गुजर संकरी गली में घुस गया।
अब मुझे कुछ नहीं देखना था।

जानता था कि मुश्किल से एक मिनट बाद बुन्दू को धर्मकांटे पर पहुंच जाना है और उसके वहां पहुंचते ही सारे सर्राफे में हंगामा शुरू होने जा रहा था, उसकी कल्पना मैं बखूबी कर सकता था—मेरे पास सिर्फ एक मिनट था और इस एक ही मिनट में मैं मण्डी के चौराहे की पूर्वी सड़क पर एक फाटक से बाहर निकला।

लपककर एक रिक्शे में बैठते हुए मैंने कहा—''ओडियन सिनेमा।''

कम-से-कम आज नसीब मेरा साथ दे रहा था, क्योंकि रिक्शा पुलर जवान लड़का था और उसने रिक्शा इतनी तेज चलाया, जैसे मुझसे मिला हुआ हो—'सेठों की गली' से गुजारकर उसने मुझे मुश्किल से पांच मिनट में 'ओडियन' पर पहुंचा दिया।

मैंने दो रूपए दिए।
ओडियन में उस वक्त 'नटवर लाल' लगी हुई थी, परन्तु उसके पोस्टर पर एक नजर डालता हुआ मैं सीधा 'लैट्रिन' में घुस गया।

दरवाजा अंदर से बन्द करके सबसे पहले चूड़ीदार पाजामा उतारा, उसके बाद अचकन—योजना के मुताबिक अचकन के अंदर मैंने बिना तह किए जीन्स की एक पैंट रख रखी थी, उसे चूड़ीदार पाजामें की जगह पहना।

अचकन के अन्दर पहले ही से एक ऐसी 'टीशर्ट' पहनी हुई थी, जिसके अगले हिस्से में 'ब्रूस ली' अपने प्रसिद्ध एक्शन में खड़ा नजर आ रहा था और पीठ पर 'मुहम्मद अली'—पैंट की जेब से बुरी तरह घिसी हुई 'हवाई चप्पलें' निकालकर गोटेदार जूतियों की जगह पहनीं।
अब मैं ठीक वही लग रहा था जो वास्तव में हूं।

पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित एक भारतीय किन्तु कंगला युवक।
 

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सर्राफे में हो रहे सम्भावित हंगामें और उस हंगामें के बीच फंसी कंचन की दयनीय अवस्था की कल्पना करते हुए अचकन की जेब से नैकलेस और सारे खर्चे के बाद बचे तिरेसठ रुपये पैंतालीस पैसे 'जीन्स' की एक जेब में डाले। कंघे से बालों को दुरुस्त करके अपनी वास्तविक हेयर स्टाइल में लाया—सारी अंगूठियां और घड़ी अचकन की जेब में नोटों की फर्जी गड्डियों के साथ रखीं और फिर चूड़ीदार पाजामें के साथ मैंने उन्हें 'लैट्रिन सीट' के अंदर ठूंस दिया।
जब बाहर निकला तो पूरी तरह बदला हुआ था।

मुश्किल से एक घंटे बाद नवाब वाला हुलिया सारे मेरठ में चर्चा का विषय बनने जा रहा था और उस हुलिये की अब मेरे पास सिर्फ
एक ही चीज थी—दाढ़ी-मूंछ।

मैंने ओडियन से 'हापुड़ अड्डे' के लिए रिक्शा पकड़ा।

करीब बीस मिनट बाद हापुड़ अड्डे पर स्थित एक नाई की कुर्सी पर बैठा दाढ़ी-मूंछ से निजात पा रहा था—चेहरा 'क्लीन शेव्ड' होने के बाद जब मैंने खुद को ध्यान से शीशे में देखा तो यकीन न आया कि सर्राफे से नैकलेस लेकर फरार होने वाला नवाब मैं ही हूं—आश्वस्त होने के बाद दुकान से निकला।
अब मेरा इरादा सर्राफे के नजारे देखने का था।
¶¶
 

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रिक्शा खैरातीलाल—सुरेशचन्द्र की दुकान से थोड़ा इधर ही रुक गया, क्योंकि दुकान के बाहर भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम-सा हो गया था।
पुलिस पहुंच चुकी थी।

दो पुलिस वाले भीड़ में से ट्रैफिक को निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। अन्य राहगीहों की तरह मैंने भी बाजार में एक व्यक्ति से पूछा—"क्या हुआ भाई साहब?"

"अजी होना क्या है, साला जमाना खराब आ गया है—इन कम्बख्त ठगों ने ठगी की ऐसी-ऐसी तरकीबें ईजाद कर ली हैं कि अच्छे-से-अच्छे आदमी धोखा खा जाए।"

"ऐसा क्या हो गया?"

"खुद को नवाब का लड़का बताकर कोई ठग कबाड़ी बाजार से एक तवायफ को बुर्का पहनाकर दुकान पर ले आया, उसे अपनी बीवी कहा—एक नैकलेस पसन्द किया, धर्मकांटे पर वजन कराने के बहाने नैकलेस लेकर फरार हो गया।"

"माई गॉड!" मैंने कहा—"मगर दुकानदार ने उसे नैकलेस देकर धर्मकांटे पर भेजा ही क्यों?"

"जब किसी की पत्नी दुकान पर बैठी हो तो दुकानदार बेचारा उसके फरार हो जाने की कल्पना कैसे कर सकता है? मगर फिर भी, खैराती ने उसके साथ अपना नौकर भेजा था, नौकर को सिगरेट लाने के लिए कहकर वह रफूचक्कर हो गया।"

"तवायफ पकड़ ली गई?"

"हां।"

"वह क्या कहती है?"

"कहती तो ये है हरामजादी कि वह ठग के बारे में इससे ज्यादा कुछ नहीं जानती कि उसका नाम असलम था और खुद को मेरठ के किसी अमीर मुसलमान का इकलौता लड़का बताता था।"

"तो क्या पुलिस ने उसे पकड़ लिया है?"

"हां—वह बुरी तरह शोर मचा रही है—गन्दी-गन्दी गालियां बक रही है और थाने जाने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है—कह रही हैं कि वह ठग के साथ नहीं थी, बल्कि सर्राफ से कहीं ज्यादा ठगी गई है—जो आदमी उसे सर्राफ के सामने बार-बार अपनी बीवी कहता रहा, नैकलेस पसन्द करता रहा—पकड़े जाने से पहले एक बार भी उसने यह नहीं कहा कि वह उसका पति नहीं, बल्कि उसका सहयोग करती रही, भला ऐसा कैसे हो सकता है भाई साहब कि वह उसे जानती ही न हो?"

जी चाहा कि उसे बता दूं कि ऐसा कैसे हुआ?

मगर अपने इस आला विचार को मैंने दिमाग में ही कैद रखा। रिक्शा थोड़ा-सा आगे बढ़ गया—जिस क्रम में पुलिस वालों को भीड़ छांटने में कामयाबी मिलती रही, उसी क्रम में रिक्शा आगे बढ़ता रहा—रिक्शा दुकान के सामने से गुजरने पर मैंने कंचन को छाती पीट-पीटकर रोते देखा। वह पुलिस इंस्पेक्टर तक को गालियां बक रही थी।

यह रिक्शा मैंने घंटाघर पर छोड़ा।

अब मुझे अपने शहर यानी दिल्ली की तरफ रवाना होना था, अतः मैं टहलता हुआ देवनागरी कॉलेज के चौराहे पर पहुंच गया। वहां से डीoटीoसीo की बस पकड़ी।

दरअसल जो किया था, सिर्फ वही करने मैं ठीक एक महीने पहले मेरठ आया था। धर्मशाला और रात गुजारने के अन्य सस्ते साधनों की अदला-बदली करता हुआ मेरठ में पूरा एक महीना रहा।
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Rakesh1999

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दिल्ली में दाखिल होने से पहले प्रत्येक वाहन की तरह उस बस को भी चैकिंग के लिए चुंगी पर रोक लिया गया।
दिल्ली पुलिस का एक इंस्पेक्टर और तीन सीoआरoपीo के जवान बस में चढ़ गए—मैं आराम से बैठा रहा। कोई उत्तेजना महसूस नहीं की मैंने, क्योंकि जानता था कि ये चैकिंग पंजाब के हालातों की वजह से चल रही है, और वे लोग सिर्फ सरदारों को चैक करते हैं, मगर उस वक्त चौंक पड़ा, जब उन्होंने दोनों सिरों से प्रत्येक यात्री की तलाशी लेनी शुरू कर दी।
उनकी हरकत मेरे लिए खतरे की घण्टी थी।

जो सवाल मेरे दिमाग में चकरा रहा था, अपनी तलाशी देने के बाद एक सज्जन ने वह पूछ ही लिया—"इंस्पेक्टर साहब, सब लोगों की तलाशी क्यों ली जा रही है?"

"अब सरदार और गैर-सरदार की पहचान करना मुश्किल हो गया है।" इंस्पेक्टर ने दूसरे व्यक्ति की तलाशी लेते हुए बताया—"अगर वे 'मोने' बनकर एयर बस का अपहरण कर सकते हैं तो दिल्ली में गड़बड़ करने के लिए मोने क्यों नहीं बन सकते?"

सवाल करने वाला चुप रह गया।
मगर।
मेरी हालत खराब होने लगी थी।

लगभग निश्चित हो चुका था कि तलाशी मेरी भी ली जाएगी। तलाशी में नैकलेस बरामद होगा और बीस हजार का नैकलेस मेरे हुलिए से जरा भी मेल नहीं खाता था।

निश्चय ही वे समझ जाने वाले थे कि मैं कोई चोर-उचक्का हूं।

नैकलेस की बरामदगी के साथ ही वे मुझे गिरफ्तार कर लेने वाले थे और इन विचारों ने मेरे होश उड़ा दिए—भरसक चेष्टा के बावजूद मैं अपने चेहरे को पीला पड़ने से न रोक सका, दिल धाड़-धाड़ करके बजने लगा था।

मैं बस के लगभग बीच में बैठा था।

तलाशी दोनों सिरों से शुरू होकर मेरी सीट की तरफ बढ़ रही थी—लगा कि अब मैं बच नहीं सकूंगा, दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था—अचानक जेहन में ख्याल उभरा कि क्यों न सीट की थोड़ी-सी रैक्सिन फाड़कर नैकलेस उसके अंदर ठूंस दूं।

तलाशी वालों पर दृष्टि स्थिर किए मैंने सीट को टटोला, मुकद्दर से रैक्सिन का एक उखड़ा हुआ कोना मेरी उंगलियों में आ गया।
मैंने उसे फाड़कर खींचा।
चर्र.....र्र.....र्र....की हल्की आवाज के साथ रैक्सिन फट गई।

नजर तलाशी लेने वालों पर ही चिपकाए मैंने 'जीन्स' की जेब से नैकलेस निकाला और अभी उसे सीट के फटे हुए हिस्से में ठूंसने का प्रयास कर रहा था कि दाईं तरफ बैठे मेरे सीट पार्टनर ने पूछा—"क्या कर रहे हो?"

छक्के छूट गए मेरे।

पलटकर उसकी तरफ देखा तो तिरपन कांप गए, क्योंकि उसकी नजर मेरे बाएं हाथ में दबी नैकलेस पर थी। मैं दांत भींचकर गुर्राया—"चुप रहो, वर्ना यहीं गोली मारकर ढेर कर दूंगा।"

वह हक्का-बक्का मेरा भभकता चेहरा देखता रह गया।

मगर पिछली सीट पर बैठे एक यात्री ने शायद मेरी गुर्राहट सुन ली थी, सो तुरन्त मेरे सीट पार्टनर से बोला—"क्या बात है, भाई साहब?"

"क.....कुछ नहीं।" उससे पहले मूर्खों की तरह हकलाते हुए मैंने कहा— "तुम अपना काम करो, अगर हमारे बीच में बोले तो खोपड़ी तोड़ दूंगा।"

"यार अजीब आदमी हो तुम, सबको धमकी दे रहे हो?"

दांत किटकिटाता हुआ मैं पागलों की तरह गुर्रा उठा—"तू चुप रहता है या नहीं?"

"अरे वाह, अजीब धौंस है।"

वह इतना ही कह पाया था कि मेरी पंक्ति से सिर्फ तीन पंक्ति दूर रह गए इंस्पेक्टर ने वहीं से पूछा—"क्या हो रहा है वहां?"

"देखिए तो सही, इंस्पेक्टर साहब।" पीछे वाले ने ऊंची आवाज में कहा—"गुण्डागर्दी की हद हो गई, ये आदमी किसी को बोलने तक नहीं दे रहा।"

"क्यों बे?" इंस्पेक्टर ने मेरा हुलिया देखकर ही यह वाक्य कहा था।

उस वक्त मेरे होश फाख्ता थे—थोड़ा-बहुत हौसला था तो सिर्फ अपने सीट पार्टनर की चुप्पी के कारण—वह शायद मेरे धमकाने से डर गया था, सो भरपूर लाभ उठाते हुए मैंने कहा—"क.....कुछ भी नहीं, सर।"

एकाएक सीट पार्टनर ने खड़े होकर कहा—"ये आदमी सीट फाड़कर उसमें एक नैकलेस छुपाने की.....।"

उसके आगे के शब्द एक चीख में बदल गए, क्योंकि आपे से बाहर होकर मैंने उसके जबड़े पर घूंसा जड़ दिया था।
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चुंगी से थाने तक इसी बात पर अड़ा रहा कि नैकलेस मेरा है, कहीं से चुराया नहीं है, मगर थाने में कदम रखते ही पसीने छूट गए।
एक कांस्टेबल ने मुझे देखते ही कहा—"अरे, मिक्की तू!"

मैं चुप रहा।

"क्या तुम इसे जानते हो?" इंस्पेक्टर ने पूछा।

"ऐसा कैसे हो सकता है सर कि जो दो दिन भी चांदनी चौक थाने पर रह ले, वह इसे न जानता हो।" कांस्टेबल ने कहा—"इसका नाम मुकेश है, लोग इसे मिक्की कहते हैं और खारी बावली का छंटा हुआ 'बदमाश' है ये—आप इसे कहां से पकड़ लाए?"

"चुंगी से मेरठ की बस में बैठा जा रहा था और इसके पास यह नैकलेस था—तलाशी के दौरान इसे इसने छुपाने की, कोशिश की मगर बराबर में बैठे एक अन्य यात्री ने हमें बता दिया, हरामजादा उसी को मारने लगा—गवाही के लिए हमने उसका 'पता' नोट कर लिया है—अब कहता है कि ये नैकलेस इसका अपना है।"

"बकता है साहब, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूं।" मुझे घूरते हुए कांस्टेबल ने अपना ज्ञान बांटा—"हीरे की बात तो छोड़िए, इसके पास अपना लोहे का नैकलेस भी नहीं हो सकता।"

"क्यों?"

"बेहद भुक्कड़ है ये।"

"करता क्या है?"

"अंधेरी गली में किसी की गर्दन पर चाकू रखकर घड़ी, पर्स और अंगूठी उतरवा लेना, महिलाओं के गले की चेन छीनकर भाग जाना, दुकान-मकानों में चोरी कर लेना इसके मुख्य धन्धे हैं। मगर ये नैकलेस—लगता है सर कि इस छिछोरे बदमाश ने कोई लम्बा दांव मारा है।"

मैंने कांस्टेबल को पहचानता नहीं था, किन्तु फिर भी इंस्पेक्टर से पहले बोला—"स.....सुनो कांस्टेबल भाई, जब तुम चांदनी चौक थाने पर थे तब निश्चय ही मैं वैसा था जैसा कह रहे हो, मगर अब वे सारे धन्धे मैंने छोड़ दिए हैं, शराफत की जिन्दगी बसर करने लगा हूं मैं।"

"श.....शराफत की जिन्दगी.....और तू?" मेरी खिल्ली उड़ाने के बाद कांस्टेबल ने इंस्पेक्टर से कहा—"ये सरासर झूठ बोल रहा है साहब, कुत्ते की पूंछ एक बार को सीधी हो सकती है मगर ये नहीं—मैं करीब दो साल चांदनी चौक थाने पर रहा और उस दरम्यान यह कम-से-कम सात बार विभिन्न जुर्मों में पकड़ा गया—इसके जुर्म करने के तरीकों को जानकर हर बार सारे थाने ने दांतों तले उंगली दबा ली थी—ज्यादातर संयोग से ही यह पुलिस के चंगुल में फंसा था?"

"आज भी संयोग से ही फंसा है।"

"जरूर इस नैकलेस के पीछे ऐसी कहानी होगी, जिसे सुनकर आप भी दंग रह जाएंगे।"

इंस्पेक्टर सीधा मुझ पर गुर्राया—"क्यों बे, कहां से लाया नैकलेस?"

"म.....मैंने कहा तो है.....।"

मेरी बात पूरी होने से पहले ही कांस्टेबल बोल पड़ा—"ये बहुत घुटा हुआ है, साहब—इस तरह नहीं 'हांकेगा'—अक्सर यह टॉर्चर रूम में अपनी जुबान खोलता है।"
उसने ठीक कहा था।

सचमुच मैं हमेशा की तरह टॉर्चर रूम में जुबान खोलने पर विवश हो गया—नैकलेस हासिल करने की सारी कहानी उन्होंने उगलवा ली—अधमरी-सी अवस्था में मुझे हवालात में बन्द कर दिया और वायरलैस से मेरठ के देहली गेट थाने को मेरी गिरफ्तारी और नैकलेस की बरामदगी की सूचना भेज दी। एक बार फिर सारा प्लान चौपट हो गया था।

अगले दिन पुलिस ने चार्जशीट तैयार की, मुझे कोर्ट में पेश किया और अभी मजिस्ट्रेट जेल भेजने के ऑर्डर सुनाने ही वाला था—
दिल्ली के प्रसिद्ध वकील ने मजिस्ट्रेट के सामने मेरी जमानत की अर्जी पेश कर दी। मजिस्ट्रेट ने पूछा—"क्या आप अभियुक्त के वकील हैं?"

"जी हुजूर।" वकील ने इतना ही कहा था कि मैं पागलों की तरह चिल्ला उठा—"किसने भेजा है तुम्हें—किसने मेरा वकील नियुक्त किया?"

"आपके भाई सुरेश ने।"
 

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"ख.....खामोश!" मैं इतनी जोर से दहाड़ उठा कि अदालत-कक्ष झनझनाकर रह गया—दरअसल 'सुरेश' का नाम सुनते ही मेरा तन-बदन सुलग उठा। दिमाग में इतनी गर्मी भर गई कि नसें फटने लगीं। मैं हलक फाड़कर चिल्ला उठा—"चले जाओ यहां से, मुझे कोई वकील नहीं चाहिए—उस हरामजादे के पैसे से मुझे अपनी जमानत नहीं करनी है, आई से गेट आउट।"

सुरेश का नाम सुनते ही मैं पागल-सा हो उठा था और उस कमीने द्वारा भेजा गया वकील इतना धाकड़ था कि मेरी मानसिक स्थिति ठीक न होने की बिना पर जमानत करा ली।

मैं आजाद हो गया।

जी चाहा कि वकील की गर्दन मरोड़ डालूं, मगर यह सोचकर रह गया कि इस बेचारे का भला क्या दोष है—उसे तो पैसा मिला है, मेरी जमानत के लिए भरपूर पैसा—और पैसा देने वाला सुरेश।
मेरा भाई।
उसे भाई कहते भी मुझे शर्म आती है, ग्लानि होती है।
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