• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Thriller नसीब मेरा दुश्मन by वेद प्रकाश शर्मा(complete)

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
और उन्होंने तुझे गोद ले लिया, मुझे नहीं—यह हम दोनों के नसीब का ही तो फर्क था वर्ना क्या फर्क था हममें, आज भी क्या फर्क है—सेठ ने अगर तेरी जगह मुझे गोद लिया होता तो आज मैं ट्रिपल फाइव पी रहा होता और तू बीड़ी।"

"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"

मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।

"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?

अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"

"ऐसा क्या किया है मैंने?"

मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"

"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"

मैं चुप रहा।

"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"

"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"

"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"

"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
सुरेश की आंखें भर आईं, मगर मैं जानता था कि वे मगरमच्छी आंसू हैं, वह टूटे स्वर में बोला—"ये सही है कि बाबूजी के जीते-जी मैंने उनकी बातें कभी न मानीं—आपकी मदद करता रहा और बाबूजी मेरी इस धृष्टता को सिर्फ इसलिए सहते रहे हैं क्योंकि वे मुझसे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, मगर मदद के पीछे मेरी मंशा आपको जाहिल या नकारा बनाने की बिल्कुल नहीं थी।"

"फिर क्या मंशा थी?"

"सोचा करता था कि बाबूजी गलत कहते हैं, आप दिक्कत में हैं—परेशान हैं और मदद करना मेरा फर्ज है—हर बार, जब भी आपने मांगी, मैं यह सोचकर मदद करता रहा कि शायद इस मदद के बाद आप सुधर जाएंगे।"

"फिर आज से दो महीने पहले क्या हो रहा था?"

"बाबूजी की मौत के बाद भी अपनी सोचों को ही ठीक जानकर मैंने कई बार आपकी मदद की—धीरे-धीरे ऐसा महसूस किया कि हर मदद के बाद जुर्म की दलदल में आप कुछ और गहरे धंस जाते हैं, और फिर मुझे यह अहसास हुआ कि मेरी सोचें गलत थीं, बाबूजी ठीक कहते थे—आप इसलिए कोई काम नहीं करते क्योंकि हर जरूरत तो मैं पूरी कर ही देता हूं—दरअसल जरूरत ही इंसान से मेहनत-मजदूरी कराती है, इस सिद्धान्त की सच्चाई जानने के बाद मैंने भविष्य में आपकी कोई मदद न करने का संकल्प लिया—सिर्फ और सिर्फ इस इच्छा के साथ कि यदि मैं मदद नहीं करूंगा तो जरूरतें आपको जुर्म की दुनिया त्यागने और 'कोई काम' करने पर विवश कर देंगी।''

"तभी तो पूछ रहा हूं कि जमानत क्यों कराई?"

"अपने दिल के हाथों मजबूर होकर।" सुरेश ने कहा— "इस कल्पना ने मेरे समूचे अस्तित्व को झंझोड़ डाला कि मैं इस महल में ऐश कर रहा होऊंगा और आप जेल में सड़ रहे होंगे।"

"यदि तुम मुझे वास्तव में सुधारना चाहते थे तो जमानत भी नहीं करानी चाहिए थी।" मैंने उस पर बड़ा जबरदस्त व्यंग्य किया—"क्योंकि यदि इसी तरह मेरी जमानतें होती रहीं, तो मेरे हौंसले और बढ़ेंगे, जुर्म की जिस दलदल में मैं फंसा हुआ हूं, उसमें गहरा धंसता चला जाऊंगा—तुम्हें तो यह सोचना चाहिए था सुरेश कि मुझे जेल में सड़ने दो.....शायद, वह सड़न मुझे सुधार दे, सही रास्ते पर ले आए मुझे।"

"हां.....शायद मुझे यही करना चाहिए था।" सोचने के साथ ही सुरेश मानो स्वयं से कह रहा था- "दिल के हाथों मजबूर होकर मैं ये कदम उस ट्रीटमेंट के विरुद्ध उठा गया, जो आपको सुधारने के लिए कर रहा था।"

"अब तो कभी मेरी जमानत नहीं कराओगे?"

"न.....नहीं—दिल पर पत्थर रख लूंगा।"

तिलमिलाकर मैं गुर्रा उठा—"तुम जमानत कराओगे!"

"क्या मतलब?"

"उसके बाद फिर कहोगे कि ऐसा तुमने अपने दिल के हाथों मजबूर होकर किया है।"

"मैं समझा नहीं, मिक्की भइया।"

मेरे मुंह से जहर बुझे शब्द निकले—"किसी धनवान व्यक्ति के पास गरीब को मुकम्मल तौर पर तबाह करने के लिए ढेर सारे तरीके होते हैं और तुम मुझ पर वह तरीका इस्तेमाल कर रहे हो जो उन सब तरीकों से ज्यादा नायाब है।"

"य.....ये आप क्या कह रहे हैं?"'

"खामोश!" दहाड़ता हुआ मैं एक झटके से खड़ा हो गया, उसे एक भी शब्द बोलने का मौका दिए बगैर बोला— "वह तरीका ये है कि पहले गरीब आदमी को उसकी जरूरत से ज्यादा धन देकर जरूरतें बढ़ा दो—बढ़ाते रहो और फिर तब, जब उसकी जरूरतें नाक के ऊपर पहुंच जाएं तो मदद देनी बन्द कर दो—साला मुकम्मल रूप से तबाह हो जाएगा।"

सुरेश इस तरह आंखें फाड़े मेरी ओर देखता रह गया जैसे मैं कोई अजूबा हूं और अपनी ही धुन में मग्न मैं हल्का-सा ठहाका लगाकर कह उठा—"क्यों, हैरान रह गए, यह सोचकर कि मैं तुम्हारी इतनी गहरी चाल को समझ कैसे गया?"
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
हैरान हूं आपके दिमाग पर, आपके सोचने के तरीके पर।"

"क्या मैंने कुछ गलत कहा?"

"सरासर गलत, मगर आपको समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि.....।"

"क्यों?"

"क्योंकि बचपन से, जब से आपने होश संभाला, तभी से मन में एक 'कुंठा' पाल ली है—यह कि आप बदनसीब हैं—आपको गोद क्यों नहीं लिया—मुझे ही क्यों, मेरा कोई दोष न होते हुए भी आप मुझसे डाह करने लगे—इसी डाह, इसी कुंठा ने आपको कभी सही ढंग से सोचने तक नहीं दिया—आपकी बर्बादी का कारण गरीबी नहीं, मस्तिष्क में बचपन से पलती चली जा रही कुंठा है और उसी से ग्रस्त आप मुझ पर यह आरोप लगा रहे हैं कि मैं आपको तबाह करने पर तुला हूं।"

अभी कुछ कहने के लिए मैंने मुंह खोला ही था कि सुरेश की पत्नी ने कमरे में दाखिल होते हुए पूछा—"क्या हुआ, आप लोग इतनी जोर-जोर क्यों बोल रहे हैं?"

"क.....कुछ नहीं विनी, कोई खास बात नहीं है।" सुरेश ने जल्दी से कहा।

विनीता ने मेरी तरफ देखा।

आंखों में नफरत और हिकारत का वही भाव था जो अपनी तरफ देखते मैंने हमेशा ही उसकी आंखों में देखा है—बॉबकट बालों वाली विनीता को मैंने कभी साड़ी पहने नहीं देखा। वह हमेशा अजीब-सी चुस्त पैंट और कोटी पहने रहती थी.....शादीशुदा होने के बावजूद मैंने कभी उसके पैर की उंगलियों में बिछुवे, कलाइयों में चूड़ियां, मस्तक या मांग में सिन्दूर नहीं देखा।
उसके बालों में मांग कहीं थी ही नहीं।

हालांकि विनीता सुन्दर थी, गोरी—कोमल और गदराए जिस्म वाली, मगर फिर भी यह सोचकर मुझे अजीब-सी खुशी का अहसास होता कि सुरेश को अच्छी बीवी नहीं मिली है, वह पत्नी किस काम की जो पति की लम्बी आयु तक की कामना न करे?

उसने कहा— "कुछ तो है, आप लोगों की आवाज सारी कोठी में गूंज रही है।"

"स......सॉरी विनी.....बस यूं ही, किसी मसले पर भइया से थोड़ा मतभेद हो गया था।" सुरेश बोला— "तुम जरा काशीराम को देखो, मैंने उसे भइया के लिए नाश्ता लाने को कहा था.....जाने इतनी देर क्यों लगा रहा है?"

"मुझे कोई नाश्ता नहीं करना है।"

विनीता ने मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे भिखमंगा भीख लेने से इंकार करने का नाटक कर रहा हो, जबकि सुरेश ने इस तरह कहा जैसे अपनी और मेरी तकरार विनीता के सामने न चाहता हो—"तुम जाओ विनी, काशीराम को भेजो।"

वह चली गई मगर जाते-जाते मेरी तरफ ऐसी नजर उछाल गई, जिसने मेरे बचे-खुचे आत्मसम्मान को भी राख के ढेर तब्दील कर दिया था।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
नाश्ता आया।
सुरेश ने काफी जिद की, मगर मैंने उसे छुआ तक नहीं।

मेरे और सुरेश के बीच हो चले तनावपूर्ण वातावरण के मध्य विनीता ठीक ही आई थी, क्योंकि उससे तनाव ज्यादा नहीं बढ़ पाया।

हालांकि मैं वहां दस हजार रुपये मांगने गया था—कम-से-कम वहां उत्तेजित वातावरण पैदा करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, किन्तु सुरेश और उसके ठाट-बाट देखते ही जाने मुझे क्या हो जाता.....होश गंवा बैठता मैं।
पता नहीं क्या—क्या कह जाता?

इधर-उधर की बातों के बाद सुरेश ने कहा— "क्या आप सिर्फ यही कहने आए थे कि अगर भविष्य में आप पुनः कभी पुलिस के चंगुल में फंस जाएं तो मैं जमानत न कराऊं?"

मैं मतलब की बात पर आता हुआ बोला— "आगे शायद ऐसी जरूरत न पड़े।"

"मैं तो यही चाहता हूं, मगर कैसे—आप ऐसा कैसे कह रहे हैं?"

"मैंने चोरी-चकारी और जिल्लत भरी इस जिन्दगी को हमेशा के लिए अलविदा कहने का निश्चय कर लिया है।" मैंने उसे अपने निश्चय से अवगत कराया—"अलका को तो तुम जानते ही हो, उसे भी सीधी-सादी जिन्दगी पसन्द है—मैंने उससे शादी करने का निश्चय किया है—शराफत, ईमानदारी और मेहनत की रोटी खाना चाहता हूं।"


सुरेश ने सशंक निगाह से मुझे घूरते हुए पूछा—"क्या आप सच कह रहे हैं?"

"बिल्कुल सच, लेकिन.....।"

"लेकिन—?"

"इस सबके लिए मुझे दस हजार रुपये की जरूरत है।"

सुरेश की आंखें सिकुड़कर गोल हो गईं, बोला— "मैं समझा नहीं।"

"मैं कर्जे में दबा हूं, इस वक्त कुल मिलाकर लोगों का मुझ पर करीब साढ़े छः हजार रूपया है—बाकी से कोई धंधा शुरू करूंगा।"

"साढ़े तीन हजार में कौन-सा धंधा शुरू हो जाएगा?"

"कुछ भी.....जैसे पानी पिलाने की मशीन ही खरीद लूंगा—अलका कहती है कि उसमें अच्छी कमाई है, वैसे मुझे मशीन खरीदकर देने के लिए वह भी तैयार है, मगर उससे मदद लेना मुझे गंवारा नहीं सुरेश, जिससे शादी करने वाला हूं।"

"क्या यह फैसला आपने पूरी गम्भीरता के साथ लिया है?"

"हां।"

"मुझे यकीन नहीं है।" सुरेश ने एक झटके से कहा।

मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा—"क्या मतलब?"

"अब मैं समझा कि वे उत्तेजनात्मक बातें आपने मुझसे क्यों की थीं?" वह एक झटके से खड़ा होता हुआ बोला— "आप मुझे बेवकूफ बनाने आए हैं, यह चार्ज लगाकर कि मैं आपकी बर्बादी चाहता हूं और मुझसे दस हजार रुपये ठगना चाहते हैं।"

मैं ठगा-सा उसे देखता रह गया।

"वे सब बातें आपने इसीलिए कीं ताकि जब आप दस हजार रुपये मांगें तो मैं इंकार न कर सकूं, यह सोचकर पैसा दे दूं कि यदि इंकार किया तो आप यह सोचेंगे कि मैं आपकी बर्बादी चाहता हूं।"

"ऐसा नहीं है, सुरेश।"

"ऐसा ही है।" वह दृढ़तापूर्वक बोला— "मैं आपकी चाल समझ चुका हूं और भले ही आप चाहें जो साचते रहें, मगर वह नहीं होगा जो आप चाहते हैं।"

"क्या मैं ये समझूं कि तुम दस हजार देने से इंकार कर रहे हो?"

"दस हजार मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखते, मगर काश, आपने यह मांग सच्चे दिल से की होती—काश, आप सचमुच वही करने की सोच रहे होते जो कह रहे हैं।"

"यकीन मानो, मैं सच कह रहा हूं—मेरा दिल बिल्कुल साफ है।"

"आप गर्म तवे पर बैठकर ये शब्द कहें तब भी मैं सच नहीं मान सकता।" सुरेश कहता चला गया—"मैं जानता हूं कि आप कभी नहीं सुधर सकते, यह रकम भी आपको जुए और शराब के हवाले कर देने के लिए चाहिए—मैं उन बेवकूफों में से नहीं हूं जो आज आपकी बातों के चक्रव्यूह में फंसकर रुपये दे और कल किसी के मुंह से यह सुने कि मिक्की फलां जगह बैठा यह कह रहा था कि उसने शब्दों का जाल बिछाकर सुरेश से दस हजार रुपये ठग लिए।"

मैं कसमसा उठा, बोला— "तुम गलत सोच रहे हो।"

"अगर आपने सच बोलकर यानि यह कहकर पैसे मांगे होते कि जुए और शराब के लिए चाहिए तो शायद मैं पसीज जाता, दस नहीं बीस हजार दे देता, मगर आप झूठ बोल रहे हैं—ठगने की कोशिश कर रहे हैं मुझे, अतः बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है भइया कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता।"

"तुम विश्वास क्यों नहीं करते?" न चाहते हुए भी मैं चीख पड़ा।
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
यदि आप यहां से चले जाएं तो मुझ पर बड़ी मेहरबानी होगी।" सुरेश के इन शब्दों ने मेरे दिल को छलनी कर दिया—उसका हर नौकर भले ही मुझसे नफरत करता था, हिकारत भरी नजर से देखता था मगर आज.....आज वह पहला मौका था जब उसने अपमान किया—हालांकि मुझे पहले ही शक था कि वह भी मेरे लिए अपने दिल में वैसे ही भाव रखता है, जैसे नौकरों के हैं और मुझे सम्मान देने, इज्जत करने का सिर्फ नाटक करता है मगर वह इतना खूबसूरत नाटक करता था कि मेरा शक कभी विश्वास में न बदल सका।

मगर आज।

खुले अंदाज में मेरा अपमान करके.....खैरात में मिले उस महल से निकल जाने के लिए कहकर उसने साबित कर दिया कि मेरा शक
सही था।

ताजमहल की डमी-सी नजर आने वाले उस महल से जब बाहर निकला तो मेरी झोली, दिलो-दिमाग और जिस्म का जर्रा-जर्रा अपमान से भरा था।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,


रात के दो बजे हैं।
अपने कमरे में बैठा मैं ये डायरी लिख रहा हूं।

इस वक्त भी मेरा रोम-रोम अपमान की उस आग में सुलग रहा है जिसका सामना आज पहली बार खुलकर करना पड़ा—मैं सबके द्वारा किया गया अपमान सह गया, मगर जाने क्यों सुरेश द्वारा किए गए अपमान को जज्ब नहीं कर पा रहा हूं।

उफ..... उसका 'अपनी' कोठी से निकल जाने के लिए कहना।
ईश्वर ऐसा मनहूस मंजर किसी को न दिखाए।

वहां से सीधा अपने कमरे में आया.....आते ही यह डायरी लिखनी शुरू कर दी—मुझे नहीं मालूम कि कितने पेज लिख चुका हूं। बस इतना जानता हूं कि अब यह डायरी 'अंत' पर है।
मेरी तरह।
हां।
मैं मरने का फैसला कर चुका हूं।

आप इसे आत्महत्या कहेंगे, क्योंकि मैं खुद मर रहा हूं, मगर मेरी नजरों में यह आत्महत्या नहीं, हत्या है।
हत्यारा है सुरेश।

साफ शब्दों में लिख रहा हूं कि मेरी मौत का जिम्मेदार सुरेश है।

आज मैं कर्जे से इस कदर घिरा हूं कि न इस कमरे में रह सकता हूं, न सड़क पर घूम-फिर सकता हूं—अदालत में इतने केस चल रहे हैं कि लगभग रोज नसीब विफल कर देता है—हर तरफ अपमान, जिल्लत, बेइज्जती, हिकारत और नफरत-भरी नजरें।
जीकर करूं भी क्या?

मेरे चारों ओर इन सब हालातों को इकट्ठा करने वाला सुरेश है। यह सब उसने कैसे किया.....वह मैं विस्तार से लिख चुका हूं। शुरू में मदद की, पैसा देकर मेरी जरूरतें बढ़ाईं और फिर पैसा देना बंद कर दिया।

ऐसे हालातों में जीऊं भी तो कैसे?
अपनी पूरी जिन्दगी में मुझे दो बेवकूफों से प्यार मिला है।
हां, मैं उन्हें बेवकूफ ही कहूंगा।
पहली अलका.....दूसरा रहटू।

सिर्फ इन दोनों को मेरी मौत का दुःख होगा, मगर इन दोनों मूर्खों को मेरी अंतिम सलाह ये है कि किसी को सोच-समझकर प्यार किया करें—प्यार इंसानों से किया जाता हैं, जानवरों से नहीं।

मैंने मरने का सारा इंतजाम कर लिया है, बल्कि अगर यह लिखूं तो गलत न होगा कि पूरी योजना तैयार कर चुका हूं—अपनी आदत के मुताबिक अंतिम क्षणों में योजना को अच्छी तरह ठोक-बजाकर भी देखूंगा।

फिर भी डरता हूं कि हमेशा की तरह मेरा दुश्मन इस अंतिम प्रयास में भी मुझे विफल न कर दे, मगर नसीब के डर से मैंने कभी, अपनी किसी योजना को कार्यान्वित करने में कोताही नहीं बरती।
आज भी नहीं बरतूंगा।

बचपन से आज तक मेरा नसीब मुझे हराता चला आया है, मगर इसके सामने मैंने कभी घुटने नहीं टेके—टकराया हूं—आज भी नहीं टेकूंगा, हमेशा की तरह इस बार भी मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने दुश्मन को शिकस्त दूंगा।

जिन लोगों का कर्ज न दे सका, उनसे माफी चाहता हूं।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
डायरी पढ़ने के बाद सब-इंस्पेक्टर शशिकान्त ने एक नजर लाश पर डाली—कमरे की छत के बीचों-बीच शायद सीलिंग फैन लगाने के लिए लोहे का कुन्दा लगाया गया था, मगर इस वक्त उसमें पंखा नहीं, एक रस्सी लटक रही थी।
रस्सी के निचले सिरे पर फंदे में मुकेश की लाश।

लाश के मुंह पर एक कपड़ा बंधा था, जो इस वक्त ढीला था, मुंह में ठुंसी ढेर सारी रुई का छोटा-सा हिस्सा नजर आ रहा था।
गले की नसें फंदे के कसाव के कारण फूली हुई थीं।
चेहरा पीला जर्द और निस्तेज।

पलकों के किनारों पर आंखें इस कदर लटकी हुई थीं जैसे यदि लाश को जरा भी हिलाया-डुलाया गया तो 'पट्ट' से जमीन पर गिर पड़ेंगी।
फर्श पर एक स्टूल लुढ़का पड़ा था।

कमरे में मौजूद एकमात्र चारपाई की 'अदवायन' गायब थी, बल्कि यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि 'अदवायन' लोहे के कुन्दे और लाश की गर्दन के बीच नजर आ रही थी।

जाने कहां से आकर लाश पर कई मक्खियां भिनभिनाने लगीं।

कमरे के अंदर दो कांस्टेबलों और शशिकान्त के अलावा कोई न था—हां, बाहर गली में जरूर हजूम इकट्ठा हो गया था।

मात्र एक व्यक्ति के रोने के आवाज गली से यहां तक आ रही थी और सब-इंस्पेक्टर शशिकान्त जानता था कि यह आवाज अलका की है।

बाहर तीन पुलिसमैन लोगों को कमरे में घुसने से रोकने के लिए तैनात थे और नजरों ही से लाश का निरीक्षण करने के बाद शशिकान्त एक कांस्टेबल से कुछ कहना चाहता था कि चांदनी चौक थाने के इंचार्ज इंस्पेक्टर महेश विश्वास ने कमरे में कदम रखा।
कांस्टेबलों सहित शशिकान्त ने सैल्यूट किया।

महेश विश्वास के साथ पुलिस फोटोग्राफर और फिंगर प्रिन्ट एक्सपर्ट भी थे—कमरे में पहुंचते ही सबकी नजरें लाश पर ठहर गईं।

कुछ देर बाद।
फिंगर प्रिन्ट्स विशेषज्ञ और फोटोग्राफर अपने-अपने काम में मशगूल हो गए। महेश विश्वास ने शशिकान्त से पूछा—"कोई खास बात?"

"चारपाई से यह डायरी और एक पैन मिला है, सर।"

शशिकान्त ने रुमाल से पकड़ी डायरी दिखाते हुए बताया।

"पैन कहां है?"

"चारपाई पर ही पड़ा है, सर।" शशिकान्त ने इशारा किया—"उसे मैंने छेड़ा नहीं है, डायरी उठाने और पढ़ने में भी मैंने सावधानी बरती है कि फिंगर प्रिन्ट्स न मिट पाएं।"

"कोई सुसाइड़ नोट लिखा है?"

"काफी लम्बा है सर।"

फिंगर प्रिन्ट्स एक्सपर्ट को डायरी और पैन से उंगलियों के निशान लेने के हुक्म देने के बाद महेश विश्वास ने सवाल किया—"क्या लिखा है?"

"यूं नोट तो बहुत लम्बा है, सर, स्वयं पढ़ने से ही आप सबकुछ समझ पाएंगे, लब्बो-लुआब ये है कि मकतूल ने आत्महत्या की बात को कबूल करते हुए जिम्मेदार अपने भाई सुरेश को ठहराया है।"

"क्या मतलब?" महेश विश्वास चौंका।

शशिकान्त ने डायरी में लिखीं बातों का सारांश इंस्पेक्टर को बता दिया, सुनने के बाद महेश विश्वास ने पूछा—"क्या सुरेश का पता कोई जानता है?"

"जी हां—प्रत्येक केस में वही मिक्की की जमानत कराता था, अतः थाने के रजिस्टर में उसका पता दर्ज है।"

महेश विश्वास ने एक कांस्टेबल से कहा— "तुम थाने जाओ, रजिस्टर से इसके भाई का 'एड्रेस' लो और उसे तुरन्त यहां लेकर आओ।"

"ऑलराइट सर।" कहने के बाद कांस्टेबल ने एड़ियां बजाईं और बाहर निकल गया। महेश विश्वास ने कहा— "अब तक की कार्यवाही का संक्षेप में विवरण दो।"

"करीब साठ मिनट पहले मौहल्ले के एक व्यक्ति ने थाने फोन करके वारदात की सूचना दी—जब हम यहां पहुंचे, तब गली में जबरदस्त भीड़ थी—पता लगा कि अलका के काफी खटखटाने.....।"

"कौन अलका?"

"इस मकान के सामने वाले मकान में किराए का एक कमरा लेकर रहती है, सर लालकिले पर लोगों को पानी पिलाती है।"

"उसने मिक्की के कमरे का दरवाजा क्यों खटखटाया?"
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
सारा मौहल्ला कहता है सर और कुछ-कुछ पुलिस को भी भनक है कि मिक्की के अलका से नाजायज ताल्लुकात थे, हालांकि डायरी के मुताबिक यह बात गलत है, मगर मिक्की ने स्वीकारा है कि अलका इससे प्यार करती थी और शादी भी करना चाहता थी.....शायद वह इसी नाते सुबह-सुबह दरवाजे पर पहुंची।"

"खैर, फिर?"

"काफी खटखटाने के बावजूद जब दरवाजा नहीं खुला तो अलका घबरा गई, वह पागलों की तरह चीख-चीखकर दरवाजा तोड़ने की असफल कोशिश करने लगी—उसकी ऐसी अवस्था देखकर लोग जुट गए और फिर जब किसी के भी प्रयास से दरवाजा नहीं खुला तो थाने फोन किया गया।"

टूटे हुए दरवाजे को देखते हुए महेश विश्वास ने कहा— "यानी दरवाजा अन्दर से बन्द था और यहां पहुंचने के बाद इसे तुमने स्वयं तोड़ा है?"

"जी हां।"

"उसके बाद?"

"इस डायरी के अलावा अभी तक मैंने किसी वस्तु को हाथ नहीं लगाया, अतः स्थिति यथापूर्व है.....मौहल्ले के दो व्यक्तियों ने मिक्की को कल शाम सात बजे अपने कमरे का ताला खोलते देखा था।"

"इसके बाद किसी ने नहीं देखा?"

"अलका मिक्की से मिली थी।"

"कब?"

"रात नौ बजे, अपना काम बंद करके लालकिले से लौटी थी, मिक्की के कमरे में रोशनी देखकर अपने कमरे में जाने की बजाय इधर आ गई—दरवाजा बिना खोले मिक्की ने अलका को टालना चाहा, परन्तु अलका न टली—अन्ततः उसे दरवाजा खोलना पड़ा।"

"फिर?"

"अलका के अनुसार उस वक्त डायरी में वह कुछ लिख रहा था—उसने कहा कि वह काम कर रहा है, डिस्टर्ब न करे, मगर अपनी आदत के मुताबिक अलका नहीं मानी—उसे छेड़ती रही और अचानक वह बहुत गुस्से में आ गया—अलका का कहना है कि मिक्की को इतने गुस्से में उसने पहले कभी नहीं देखा।"

"क्या मिक्की ने अलका से कोई ऐसी बात कही थी जिससे उसकी मनःस्थिति का आभास मिलता हो?"

"जी—मिक्की ने कहा था कि तू मुझे बहुत परेशान करती है, कल से देखूंगा किसे परेशान करेगी—यह बताने के बाद अलका दहाड़े मार-मारकर रो रही है
—ठीक ऐसे अन्दाज में सर, जैसे किसी औरत का सुहाग उजड़ गया हो—रोने के बीच वह बार-बार चिल्लाए जा रही है कि रात में मिक्की के वाक्य का मतलब नहीं समझ पाई थी, क्या हो गया था मेरे मगज को?"

"वह अपने कमरे में कब लौटी?"

"दस मिनट बाद सर—जब उसने महसूस किया कि मिक्की सचमुच गुस्से में है तो सुबह बात करने के लिए कहकर चली गई।"

"किसी अन्य मौहल्ले वाले ने कोई ऐसी बात कही, जिससे इस वारदात पर कोई रोशनी पड़ती हो?"

"मकान मालिक का बयान है कि कल दोपहर अलका ने उसे मिक्की के कमरे का किराया दिया था—उसने यह बताया कि रात करीब तीन बजे वह टॉयलेट के लिए उठा, उस वक्त मिक्की के कमरे की लाइट ऑन थी।"

"वह तो अब भी ऑन है।" महेश विश्वास ने बल्ब की तरफ देखा।

शशिकान्त ने बताया—"यह हमें इसी पोजीशन में मिला है सर।"

"मिलना भी चाहिए था, मकतूल की आत्महत्या के बाद इसे 'ऑफ' कौन करता?" बड़बड़ाने के बाद महेश विश्वास ने कहा— "मगर लाश के मुंह में ठुंसी रूई और उसके ऊपर बंधे कपड़े का अर्थ समझ में नहीं आ रहा।"

"यह शायद उस योजना का अंग है सर, जिसके बारे में मकतूल ने डायरी में लिखा है।"

"क्या मतलब?"

"मिक्की को अपने नसीब से खतरा था, डर था कि कहीं आत्महत्या के प्रयास में भी विफल न हो जाए, अतः यह काम भी उसने अपनी आदत के मुताबिक पूरी योजना बनाकर किया—इतना वह समझता होगा कि जब दम घुटेगा तो न चाहते हुए भी हलक से चीखें निकलेंगी—उसे डर होगा कि कहीं चीखें सुनकर कोई बचाने न आ जाए—सो, हलक से चीखें न निकलने का इन्तजाम कर लिया—मुंह में रूई ठूंसी, उसके ऊपर कसकर कपड़ा बांधा—कपड़ा इस वक्त थोड़ा ढीला है—जो जाहिर करता है कि जब दम घुट रहा था तो उसने अपने हाथों से इसे खोलने की कोशिश की।"

"यह बहुत स्वाभाविक है, आत्महत्या करने वालों के साथ हमेशा यही होता है कि अन्तिम क्षणों में जब उसका दम निकल रहा होता है तो खुद को बचाने के लिए हाथ-पैर मारता है।"
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
आत्महत्या के लिए तैयार की गई मिक्की की स्कीम से जाहिर कि वह इस मनोविज्ञान से वाकिफ था, उसने इस बात के कड़े इन्तजाम कर लिए कि अन्तिम समय में कोशिश के बावजूद अपने-आपको न बचा सके।"

"इस बार वह अपने नसीब को शिकस्त देने में कामयाब हो ही गया सर।"

"शायद यही होना था, ऐसे बदमाशों का अन्त यही होता है शशिकान्त—या तो वे अपने चारों ओर खुद पैदा किए गए हालातों से घबराकर आत्महत्या कर लेते हैं अथवा इन्हीं का कोई संगी-सीधा इनका कत्ल कर देता है।"

शशिकान्त ने वह सवाल किया जिसका जवाब जानने की जिज्ञासा डायरी पढ़ने के बाद से ही उसे थी—"क्या इसके भाई पर कोई केस बनता है सर?"

"शायद नहीं।"

"म.....मगर क्यों नहीं सर?" शशिकान्त ने पूछा—"मिक्की ने डायरी में बिल्कुल साफ-साफ लिखा है कि मौत का जिम्मेदार सुरेश है।"

"इस आधार पर सिर्फ केस चल सकता है, मगर उससे कुछ होगा नहीं।"

"क्यों?"

"जिस घटना और जिन विचारों को लेकर मकतूल ने अपनी मौत की जिम्मेदारी सुरेश पर डाली है, वे दमदार नहीं हैं—सुरेश का उसे पैसा देने से इन्कार करना कोई जुर्म नहीं है, क्योंकि मकतूल का उस पर कुछ चाहिए नहीं था।"

"उस लॉजिक को कैसे भूला जा सकता है सर, जो मिक्की ने स्वयं डायरी में लिखा है, यह कि शुरू में सुरेश पैसा देकर उसकी जरूरतें बढ़ाता रहा और जब जरूरतें नाक तक पहुंच गईं तो पैसा देना बन्द कर दिया—एक तरफ वह मिक्की की जमानत कराता है, दूसरी तरफ अपने घर में अपमान करता है, क्या ये सब बातें किसी को इस हद तक परेशान करने की गवाह नहीं हैं कि मजबूर होकर वह आत्महत्या कर ले?"

"बकवास।" महेश विश्वास बुरा-सा मुंह बनाकर बोला— "मकतूल के जीवन की हर घटना की पीछे सिर्फ और सिर्फ वह 'कुण्ठा' है जो उसने जानकीनाथ द्वारा सुरेश को गोद लिए जाने से स्वयं अपने दिमाग में पाल ली—उसके दिलो-दिमाग में यह बात जम गई कि नसीब उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और जिसके दिमाग में यह बात बैठ जाए, वह अपने जीवन में कम ही सफल हो पाएगा—कुण्ठाग्रस्त होने की वजह से ही सुरेश का कोई दोष न होते हुए भी वह उससे डाह करने लगा—इस 'डाह' ने ही उसे गुण्डों की सोहबत में डाला, वह गुण्डा बन गया—मकतूल के चारों ओर जो हालात थे, वे सुरेश ने नहीं, खुद मिक्की ने पैदा किए, जब वह आत्महत्या कर रहा था, तब भी खुद को 'कुण्ठा' और सुरेश के प्रति 'डाह' से मुक्त नहीं कर पाया—इसी डाह से ग्रस्त होकर उसने अपनी मौत की जिम्मेदारी सुरेश पर डाली है—जो व्यक्ति सुरेश से ही नहीं बल्कि उसकी हर वस्तु से ईर्ष्या करता था, क्या उसके बारे में यह नहीं चाहेगा कि मुझे आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने के आरोप में बंधा-बंधा फिरे?"


"आप मकतूल के अन्तिम बयान पर शक रहे हैं, सर जबकि माना यह जाता है कि बुरे-से-बुरा व्यक्ति कम-से-कम मरते वक्त सच बोलता है।"



"हमने यह नहीं कहा कि उसने 'झूठ' लिखा है, बल्कि सिर्फ यह कि 'ठीक' नहीं लिखा।" महेश विश्वास ने कहा— "इसमें शक नहीं कि जब इंसान को यह मालूम हो कि जो कुछ वह लिख रहा है, उसके बाद मरने वाला है तो बेहद भावुक हो उठता है और भावुक व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ सच लिखता है, मगर यहां यह बात गौर करने वाली है शशिकान्त कि जो बात उसके नजरिए से 'ठीक' है, जरूरी नहीं कि 'ठीक' ही हो—मिक्की ने डायरी पूरी ईमानदारी से लिखी है क्योंकि इसमें सुरेश का पक्ष भी है, अगर लिखना चाहता तो यह भी लिख सकता था कि सुरेश ने ही मुझे साफ-साफ आत्महत्या करने के लिए कहा, मगर ऐसा उसने नहीं लिखा—सो जाहिर है कि उसने झूठ नहीं लिखा—अपनी मौत की जिम्मेदारी उसने सुरेश पर सिर्फ अपने नजरिए से डाली है और हम उस नजरिए से सहमत नहीं है, क्योंकि यह नजरिया एक 'कुण्ठाग्रस्त' व्यक्ति का उसके प्रति है, जिससे वह 'डाह' करता था।''

"यहां आकर तो बात उलझ गई, सर।" शशिकान्त ने कहा— "आप मिक्की के नजरिए से सहमत नहीं हैं किन्तु मुमकिन हैं कि मैं हूं।"

"यह तो तुम मानते हो न कि प्रत्येक हत्या के पीछे कोई वजह जरूर होती है?"

"यकीनन, सर।"

"अगर यह हत्या है, अगर सुरेश ने मिक्की को आत्महत्या के लिए विवश किया, तो क्या तुम बता सकते हो कि वह ऐसा किसलिए करेगा—मिक्की के मर जाने से उसे क्या लाभ होने वाला है?"

शशिकान्त बगलें झांकने लगा।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
गली इतनी संकरी थी कि उसमें मर्सड़ीज दाखिल नहीं हो सकती थी, अतः वर्दीधारी ड्राइवर ने गाड़ी गली के सिरे पर ही रोक दी।

कांस्टेबल के साथ सुरेश बाहर निकला।

इस वक्त उसके चेहरे पर हर तरफ वेदना-ही-वेदना थी, आंखें रह-रहकर भर आतीं और अपने जबड़े उसने सख्ती के साथ भींच रखे थे—साफ जाहिर था कि वह अन्दर से फूट पड़ने वाली रुलाई को रोकने का भरपूर प्रयत्न कर रहा था।

गली में लगी भीड़ को चीरते हुए वे आगे बढ़े।

मुकेश के कमरे के बाहर अलका के मार्मिक रूदन से सारी गली दहल रही थी—सुरेश ने देखा कि कुछ लोगों ने उसे पकड़ रखा है—मस्तक से बहता खून अलका के सारे चेहरे पर फैल चुका था—जाहिर था कि उसने अपना सिर पटक-पटककर दीवारों में मारा है।

तभी लोगों ने उसे पकड़ा होगा।

इस वक्त भी वह दहाड़े मार-मारकर रो रही थी—लोगों की गिरफ्त से निकलने के लिए बुरी तरह मचल रही थी वह—जाने क्या—क्या चीख रही थी।
उसकी हालत देखकर सुरेश की आंखें भर आईं, होंठ कांपे और शीघ्र ही अपने जबड़ों को भींचे वह आगे बढ़ गया—अभी मुकेश के दरवाजे से दूर ही था कि एक इंसान हवा में लहराता नजर आया।

सुरेश के चेहरे पर इतना जबरदस्त घूंसा पड़ा कि न सिर्फ हलक से चीख निकल गई, बल्कि यदि भीड़ ने न संभाल लिया होता तो वह गली में गिर जाता।
अभी सुरेश कुछ समझ भी न पाया था कि—कुल तीन फुट लम्बाई वाले ने बिजली की-सी गति से उछलकर उसके सीने पर फ्लाइंग किक मारी—सुरेश के कण्ठ से एक और चीख निकल गई।
इस बार वह गली में गिर गया।

तीसरा वार करने से पहले ही कांस्टेबल और मुहल्लेवासियों ने रहटू को दबोच लिया और उनके बंधनों से निकलने का असफल प्रयास करता हुआ रहटू हलक फाड़कर चिल्लाया—"छोड़ दो मुझे, मैं इसका खून पी जाऊंगा—इसी ने मिक्की को मारा है, ये हत्यारा है मेरे यार का।"

सुरेश खड़ा हुआ।
तीन फुटे पर नजर पड़ने के बाद उसे अपने कपड़ों से धूल तक झाड़ने का होश न रहा.....गुस्से से तमतमाए रहटू के चेहरे और अंगारा बनी उसकी आंखों पर नजर पड़ते ही सुरेश के समूचे जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ गई।

मौत की सिहरन।

लगा कि ये छोटे-से कद का व्यक्ति उसे कच्चा चबा जाएगा।

उसके पहले हमले से सुरेश का होंठ कट गया था, वहां से खून बह रहा था—रहटू को विचित्र निगाहों से देख रहा था वह—और तीन फुटा अब भी अपने उक्त शब्द दोहराता हुआ मुक्त होने की पुरजोर कोशिश कर रहा था।

रहटू के शब्द सुनकर अलका रोना भूल गई।
वह भी इधर ही देख रही थी।

शायद ठीक से अभी कुछ समझ भी न पाई थी कि कमरे के दरवाजे के प्रकट हुए शशिकान्त ने ऊंची आवाज में पूछा—"क्या बात है, क्या हो रहा है वहां?"

"रहटू मिस्टर सुरेश को मिक्की का हत्यारा बता रहा है, सर।" कांस्टेबल ने कहा— "इसने मिस्टर सुरेश पर हमला भी किया है।"

सन्नाटा छा गया।

सुरेश अब भी अजीब नजरों से उस तीन फुटे आफत के पुतले को देख रहा था कि शशिकान्त ने कहा— "रहटू को भी अंदर ले आओ।"

कांस्टेबल ने हुक्म का पालन किया।

सुरेश ने जेब से रूमाल निकाला, होंठों से बहता हुआ खून पोंछने के बाद वह दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

Rakesh1999

Well-Known Member
3,092
12,077
159
खामोश!" इंस्पेक्टर महेश विश्वास इतनी जोर से दहाड़ा कि लगातार चीख रहे रहटू की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई—समूचा अस्तित्व कांप उठा उसका—चुपचाप, एकटक महेश विश्वास की ओर देखता रह गया।

"होश में आओ।" महेश विश्वास ने अपेक्षाकृत शांत स्वर में कहा— "और आदमी की तरह बताओ कि किस आधार पर मिस्टर सुरेश को हत्यारा कह रहे हो?"

"स.....साहब—ये आदमी उसका भाई नहीं दुश्मन है—भला ऐसा भी दुनिया में कोई भाई होगा जो खुद मौज उड़ाता रहे, बड़ा भाई कंगला बना घूमता रहे और छोटा उसकी मदद न करे?"

"मगर हमें पता लगा है कि मिस्टर सुरेश मिक्की की मदद करते थे। "

"वह पुरानी बात है साहब, मैं मिक्की का दोस्त हूं—वह अपने दिल की सारी बातें मुझे बताता था—करीब दो महीने पहले वह इससे दो हजार रुपये मांगने गया था, मगर इसने नहीं दिए, जबकि ये कमीना करोड़पति है, दो हजार की इसके लिए कोई अहमियत नहीं है।"

"हम ये पूछ रहे हैं कि तुम इन्हें मिक्की का हत्यारा क्यों कह रहे हो?"

"कल मिक्की बहुत परेशान था साहब.....वह अपनी घटिया और जुर्म से भरी जिन्दगी को छोड़कर शराफत और ईमानदारी की जिन्दगी अपनाना चाहता था—वह अलका से शादी करना चाहता था साहब।"

"फिर?"

"दिक्कत यह थी कि वह लोगों का कर्जमन्द था, कर्जमुक्त होने के लिए उसने अपने जीवन का अन्तिम गुनाह मानकर मेरठ में ठगी की, परन्तु पकड़ा गया—उस तरफ से निराश होने के बाद पूरी तरह निराशा में डूबा वह आत्महत्या की बात कर रहा था, यह उसकी आखिरी उम्मीद थी साहब, आज जब मेरे यार की लाश आंखों के सामने पड़ी है तो मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस जलील आदमी ने मिक्की की मदद न की होगी—इसकी तरफ से निराश होने के बाद ही मिक्की ने आत्महत्या की है, अगर इसने दस हजार रुपये दे दिए होते तो मिक्की कभी न मरता।"

डायरी का कोई जिक्र न करते हुए महेश विश्वास ने सुरेश से कहा— "क्यों मिस्टर सुरेश, क्या रहटू ठीक कह रहा है?"

"जी हां।" अजीब से स्वर में एक झटके से कहने के बाद मुकेश की लाश की तरफ देखा, फोटोग्राफर और फिंगर प्रिंट्स विभाग का कार्य पूरा होने के बाद लाश को कुन्दे से उतारकर फर्श पर लिटा दिया गया था—चेहरे पर दर्द-ही-दर्द लिए वह लाश के समीप पहुंचा, घुटनों के बल उसके नजदीक बैठा और निरन्तर मिक्की के निस्तेज चेहरे की ओर देखता हुआ बोला— "ये आदमी ठीक कह रहा है इंस्पेक्टर, मिक्की का हत्यारा मैं ही हूं।"

"क.....क्या मतलब?" महेश विश्वास उछल पड़ा।

"कल ये मेरे पास दस हजार रुपये मांगने आए थे—वह सब भी कहा था जो रहटू कह रहा है, मगर मैंने सच नहीं माना, अपने ही नशे में रहा मैं—सोचता रहा कि मुझसे शराब और जुए के लिए दस हजार ठग रहे हैं.....मैंने इनकी एक न सुनी, जो सुनी उस पर यकीन न मानकर अपनी ही सोचों को सही माना—और न सिर्फ रुपये नहीं दिए, बल्कि अपने घर से निकल जाने के लिए भी कहा।"

"इसका अपमान क्यों किया आपने?"
 
Top