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और उन्होंने तुझे गोद ले लिया, मुझे नहीं—यह हम दोनों के नसीब का ही तो फर्क था वर्ना क्या फर्क था हममें, आज भी क्या फर्क है—सेठ ने अगर तेरी जगह मुझे गोद लिया होता तो आज मैं ट्रिपल फाइव पी रहा होता और तू बीड़ी।"
"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"
मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।
"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?
अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"
"ऐसा क्या किया है मैंने?"
मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"
"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"
मैं चुप रहा।
"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"
"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"
"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"
"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।
"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"
मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।
"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?
अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"
"ऐसा क्या किया है मैंने?"
मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"
"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"
मैं चुप रहा।
"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"
"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"
"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"
"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।