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Thriller नसीब मेरा दुश्मन by वेद प्रकाश शर्मा(complete)

Rakesh1999

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कर्जदारों के आतंक से घिरा मैं खारी बावली पहुंचा—मैं एक मकान के बाहरी हिस्से में बनी छोटी-सी बैठक में रहता हूं। बैठक का दरवाजा गली में ही था और अभी मैं उस पर लटका ताला खोल रहा था कि जाने कहां से मकान मालिक टपक पड़ा, बोला— "कमरा बाद में खोलना मिक्की, पहले मेरा किराया दो।"

मैंने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा।

एक तो पहले ही अपनी एक महीने की मेहनत पर पानी फिर जाने और फिर सुदेश द्वारा जमानत दिए जाने पर मैं भिन्नाया हुआ था, ऊपर से मकान मालिक के किराए वाला राग अलापने ने मेरा खून खौला दिया—हालांकि वह मुझसे डरता था और मेरे घूरने ने उसे सहमा भी दिया, परन्तु पैसा बड़ी चीज होती है। उसे पाने की इच्छा ने ही उसे मेरे सामने खड़ा रखा।

"तू यहां से जाता है या नहीं?" मैं गुर्राया।

"य.....य़े तो कोई बात नहीं हुई मिक्की।" उसने हिम्मत की—"चार महीने का किराया चढ़ गया है तुम पर, आज एक महीने बाद शक्ल दिखा रहे हो—बिजली और पानी तक के पैसे नहीं दिए, ऐसा कब तक चलेगा?"

"जब तक मेरे पास पैसे नहीं आएंगे।"

"इस तरह काम नहीं चलेगा मिक्की, आज फैसला हो ही जाना चाहिए—किराया दो या कमरा खाली कर दो—वर्ना आज मैं मौहल्ले के लोगों को इकट्ठा करके.....।"

"बुला.....किसे बुलाएगा, हरामजादे?" झपटकर मैंने दोनों हाथों से उसका गिरेबान पकड़ लिया—"देखूं तो सही तेरे हिमायती को।"

"अरे, मिक्की.....कब आया तू.....कहां गुम हो गया था, छाकटे?" चहकने के साथ ही लहकती हुई अलका हमारे नजदीक आई और मकान मालिक के गिरेबान पर मेरे हाथ देखते ही बोली— "अरे, आते ही फिर मारा-मारी शुरू कर दी—छोड़ इसे।"

मैंने पलटकर अलका की तरफ देखा।

पूरे अधिकार के साथ उसने मेरी कलाइयां पकड़ीं और उन्हें सेठ के गिरेबान से हटाती हुई बोली— "अरे छोड़ भी, क्यों उसकी जान को आ रहा है?"

"तू बीच में से हट जा, अलका!" मैं चीखा।

उसने दायां हाथ हवा में नचाया—"वाह, क्यों हट जाऊं?"

"आज मैं इसे देख ही लूं—मौहल्ला इकट्ठा करने की धमकी देता है।"

"मगर क्यों?"

मुझसे पहले मकान मालिक बोल पड़ा—"एक तो किराया नहीं देता, ऊपर से गुण्डागर्दी दिखाता है—ये कोई शराफत है?"

"म.....मैं शरीफ हूं ही कहां कुत्ते?" मैंने एक बार फिर उस पर लपकना चाहा, मगर अलका बीच में आ गई, जबकि वह इस तरह बोला जैसे अलका के रूप में बहुत बड़ा हिमायती मिल गया हो—"द.....देखो.....देखो, किस कदर उफना जा रहा है—अपने मकान का किराया मांगकर क्या गुनाह कर रहा हूं?"


"क्यों रे, छाकटे?" अलका ने सीधे मेरी आंखों में झांका—"इसका किराया क्यों नहीं देता?"

"तू यहां से चली जा, अलका।" मैं झुंझला-सा रहा था—"वर्ना.....।"

"वर्ना क्या करेगा?" वह झट अपने दोनों हाथ कूल्हों पर रखकर मेरे सामने अड़ गई।

बेबस-सा मैं बोला—"वर्ना ठीक नहीं होगा।"

"क्या ठीक नहीं होगा, जरा बता तो सही—सुनूं तो कि मेरा छाकटा क्या कर रहा है?"

"उफ!" मेरी झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच गई, दांत और मुट्ठियां भींचे मैं कसमसाता हुआ कह उठा—"म.....मैं तेरा खून कर दूंगा।"

"आहा.....हा.....हा.....खून कर दूंगा, अरे जा छाकटे—वे कोई और होंगे जो तेरी गीदड़ भभकी से डर जाते हैं।" वह मुझे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहने के बाद अपने हाथों से इशारा करती हुई बोली—"खून करने वालों का कलेजा इत्ता बड़ा होता है और तुझे मैं जानती हूं—चूहे से भी छोटा है तेरा दिल।"
 

Rakesh1999

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जी चाहा कि झपटकर उसकी गर्दन दबा दूं, परन्तु ऐसा कर न सका—गुस्सा इतना तेज आ रहा था कि जाने क्या—क्या कहने की इच्छा के बावजूद मुंह से एक भी लफ्ज न निकला, मेरे तमतमाए चेहरे को देखकर हालांकि मकान मालिक की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी, मगर अलका पर लेशमात्र भी असर नहीं हुआ—“ लाला—जरा मौका देखकर तो बात किया कर—आज एक महीने में तो वह बेचारा आया है—जाने कहां—कहां मारा-मारा फिरा होगा—और एक तू है कि आते ही छाती पर चढ़ बैठा—जरा बैठने देता, आराम तो करने देता?"

"म.....मैंने ये कब कहा कि पैसा अभी दो?" लाला सकपका गया—"मैं तो ये पूछ रहा था कि कब देगा और ये उल्टा जवाब दे रहा है।"

"क्या कहा इसने?"

"कहता है कि अभी है नहीं, जब होगा दे देगा।"

"ठीक तो कहता है, जब है नहीं तो देगा कहां से?"

"म...मुझे इससे क्या मतलब?"

"अच्छा-अच्छा ठीक है, दिमाग न चाट मेरे छाकटे का—इस वक्त यह वैसे ही गर्म हो रहा है।" अलका ने कहा— "कितना पैसा निकलता है तेरा?"

"नौ सौ बाइस रुपये।"

"ठीक है, अपने नौ सौ बाइस रुपये तू मुझसे लेना लाला—कल अपने बैंक से निकालकर दे दूंगी और अब फूट यहां से, वर्ना सचमुच तुझे छाकटा मार बैठेगा।"

"अलका—तू.....।"

"तू चुप रह और इधर आ।" कहने के बाद उसने मेरा हाथ पकड़ा और कमरे के अन्दर घसीट ले गई—हमेशा की तरह विरोध करने की इच्छा के बावजूद मैं खिंचता चला गया।
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कमरे के अन्दर घुसते ही उसने मुझे पलंग पर पटक दिया—दरवाजा बंद करने के बाद पलटती हुई गुर्राई—"क्यों रे, कहां मरा पड़ा रहा एक महीने तक?"

मैं चुपचाप उसे देखता रहा।

वह एकदम मेरे करीब आ धमकी और बोली— "जवाब क्यों नहीं देता, कुछ होश भी है कि इस एक महीने में तेरी क्या हालत हो गई?"

"मुझे तेरी हरकतें बिल्कुल पसंद नहीं हैं, अलका।"

"हरकतें तू करता है या मैं?"

"मेरे कमरे में आकर तू इस तरह दरवाजा बन्द कर लेती है।" भिन्नाकर मैंने कहा—"क्या जानती है कि तेरी इस हरकत की वजह से मौहल्ले वाले क्या—क्या बकवास करते हैं?"

"हुंह.....करते रहें, अलका किसी साले की परवाह नहीं करती।" मुंह बनाती हुई अलका ने लापरवाही के साथ कहा। फिर अचानक रोमांटिक अंदाज में बोली— "और इससे ज्यादा कहते भी क्या होंगे कि अलका इस छाकटे की दीवानी है—मुहब्बत करती है मिक्की से—भला इसमें गलत क्या है?"

"वे कहते हैं कि तू मेरी रखैल है, कमरा बन्द करके हम.....।"

"मैं सब जानती हूं—कौन क्या कहता है?" मेरी बात बीच में ही काटकर वह बोल उठी—"बस ये बता कि क्या वे लोग ठीक कहते हैं, क्या कमरा बन्द करके हम यहां कभी पत्नी-पत्नी की तरह रहे हैं?"

"न.....नहीं।"

"क्या तू भी मुझे अपनी रखैल समझता है?"

"न.....नहीं अगर....मगर कुछ नहीं—मुझे दुनिया से क्या, लोग चाहे जो बकते रहें—“ मेरा तो बस तू है—और यदि तूने मुझे कभी कोई गलत बात कही तो मुंह नोच लूंगी।"

"मैं कौन हूं तेरा?"

"हुंह।" उसने मेरे सिर पर चपत मारते हुए पूरी तरह बेबाक अंदाज में कहा— "कितनी बार बताना पड़ेगा कि तू मेरा दिलबर है, जॉनी है मेरा—तू मेरे दिल का राजा है छाकटे, तेरी ही गुलाम हूं मैं।"

"कितनी बार कहूं कि ये सब बकवास है—मैं तुझसे प्यार नहीं करता।"

"मैंने कब कहा कि तुझे मुझसे प्यार है?"

"तो फिर तेरी इस एकतरफा तोता रटंत से फायदा?"

"अरे फायदा तेरी मोटी अक्ल में कहां आएगा छाकटे?" आदत के मुताबिक एक बार फिर उसने मेरे सिर पर चपत मारकर झटके से कहा और अनपढ़ अलका के इस जवाब पर मैं उसे देखता रह गया। समझ में नहीं आया कि उससे कैसे पीछा छुड़ाऊं, बोला— "मेरा ख्याल छोड़कर तुझे किसी भले लड़के से शादी कर लेनी चाहिए।"

"क.....क्या—ये तूने क्या बका रे छाकटे?" अलका ने झपटकर दोनों हाथों से मेरा गिरेबान पकड़ लिया—"तेरा हर सितम मंजूर है, मगर ये बात नहीं—किसी और की तो अब अलका कल्पना भी नहीं कर सकती, अगर फिर कभी ऐसा कहा, तो तेरी कसम, गर्म चिमटे से जुबान खींचकर रख दूंगी।"

"मैं कोई गलत बात नहीं कह.....।"

उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया। अचानक पूरी तरह गम्भीर नजर आने लगी वह—उस वक्त अलका का समूचा चेहरा जाने किन-किन जज्बातों से घिरा बुरी तरह तमतमा रहा था—पहली बार मैंने उसकी आंखों में आंसू तैरते देखे। मैं उसे देखता रह गया—हमेशा चहकती रहने वाली अलका की मुद्रा ने मेरे दिलो-दिमाग तक को झंझोड़ ड़ाला था। बेहद नर्म स्वर में कहा उसने—"हाथ जोड़कर तुझसे प्रार्थना करती हूं, मेरे चांद—कुछ भी कह ले, मगर ऐसी गाली न दे—तेरे अलावा किसी के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती, मेरी ये एक बात तो मान लो, मिक्की।"

मैं अवाक रह गया।
सच्चाई ये है कि अलका के उस पागलपन पर झुंझला उठा मैं। जाने क्यों इस बात को और ज्यादा बढ़ाने में मुझे डर लगा। अतः विषय बदलने की गर्ज से बोला—"तूने मकान मालिक को कल पैसे देने का वादा क्यों कर लिया?"

"जब वह किराए के लिए पागल हुआ जा रहा था तो और क्या करती?"

"म.....मगर कल पैसे कहां से देगी तू?"

"अरे वाह, तूने क्या मुझे भी खुद की तरह भुक्कड़ समझ रखा है—कमाती हूं, बैंक में डेढ़ हजार रुपये जमा कर रखे हैं मैंने।"

"तो क्या लोगों को पानी पिलाकर तू इतना कमा लेती है?"

"लालकिले पर खड़ी होती हूं—एक मिनट के लिए भी हाथ नहीं रुकता, इसीलिए तो कहती हूं कि तू भी कोई अच्छी-सी जगह देख ले, मशीन मैं दिला दूंगी, कुछ नहीं रखा इस चोरी-चकारी और मवालियों वाली जिन्दगी में—आराम से लोगों को पानी पिला और खुद फर्स्ट क्लास रोटी खा।"

"मैं ये कहना चाहता था कि तू मकान मालिक को पैसे नहीं देगी।"

"क्यों?" उसने आंखें निकालीं।
 

Rakesh1999

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उसके पैसे मुझ पर हैं, मैं ही दूंगा।"

"अरे जा-जा, अगर ऐसा ही देने वाला होता तो गली में खड़ा लाला तुझसे झगड़ न रहा होता—किराया नाक पर मारता उसकी।"

अलका के शब्द किसी नश्तर की तरह मेरे दिल को चीर गए; अजीब-सी टीस महसूस की मैंने, बोला—"तू भी मुझे ऐसा कहेगी अलका?"

"अरे.....तू तो उदास होना भी जानता है, छाकटे—मैं तो ये कहना चाहती थी कि जो ऊटपटांग धन्धे तू करता है, उनसे कभी किसी के पूरे नहीं पड़ते, मेहनत की एक रोटी खाने में बहुत 'मजा' है। खैर छोड़, तेरे-मेरे पैसे कोई अलग हैं क्या.....लाला को जुबान बन्द करना जरूरी था, वर्ना वह बवाल खड़ा कर देता।"

"किस-किसकी जुबान बन्द करेगी तू?" मैं गड़बड़ा उठा।
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नॉवल्टी थियेटर के पीछे स्थित देशी शराब का ठेका मेरा नहीं बल्कि आस-पास के लगभग सभी गुण्डों का अड्डा है। ठेकेदार के मुझ पर करीब पांच सौ रुपये बकाया थे और एक महीना पहले जब उसने कहा कि पिछला पेमेण्ट चुकता हुए बिना एक बूंद भी शऱाब नहीं देगा तो मैंने सीना ठोककर कहा था कि अब उसके ठेके में पूरा पेमेण्ट लेकर ही घुसूंगा।

उसी के बाद स्कीम बनाई, मेरठ रवाना हुआ।

आज की शाम, कंगली हालत में ही मुझे खींचकर, वहां ले गई।

हमपेशा लोग हमेशा की तरह गन्दी मेज-कुर्सियों पर बैठे पी रहे थे—मक्खियां भिनभिना रही थीं। उनके सामने रखी दारू, नमकीन दाल और चने आदि ने मेरी तलब को और भड़का दिया।

हलक शुष्क महसूस हुआ।

जीभ से सूखे हुए होंठों को तर करने की असफल चेष्टा के साथ सीधा काउण्टर पर पहुंचा। मुझे देखते ही ठेकेदार की बांछें खिल गईं। कदाचित् इस उम्मीद में कि पांच सौ रुपये मिलने वाले हैं, किन्तु अपनी उम्मीद पर पानी फिरते ही वह बिगड़ गया—मेरे दारू मांगने पर तो बुरी तरह भड़क उठा वह।
अपने गुण्डों को बुलाया।

ठेकेदार के पैर पकड़कर मैं दारू के लिए गिड़गिड़ा रहा था और उसके गुण्डों ने ठेके से बाहर फेंक देने के लिए अभी मुझे उठाया ही था कि—
"ठहरो!" वहां एक गुर्राहटदार आवाज गूंजी।

सभी ने चौंककर उस तरफ देखा।

वह रहटू था, जो अपने दाएं हाथ में खुला चाकू लिए ठेकेदार के गुण्डों को कच्चा चबा जाने के-से अंदाज में घूर रहा था। गुण्डों ने पलटकर ठेकेदार की तरफ देखा और ठेकेदार अभी अपनी कुर्सी से उठा ही था कि एक बार पुनः वहां रहटू की गुर्राहट गूंजी—"मेरे यार को छोड़ दो—वरना एक-एक की अंतड़ियां फाड़कर रख दूंगा।"

"नहीं रहटू, बेवजह झगड़ा मत कर, यार।" दुखी मन से मैं कह उठा—"गलती मेरी है।"

"क्या मतलब?"

"इसके मुझ पर पिछले पांच सौ रुपये उधार हैं—जेब में पैसे हैं नहीं—तलब उठी, सो यह सोचकर चला आया कि शायद और उधार मिल जाए।"

"इसका ये मतलब तो नहीं कि ये साले तेरी बेइज्जती करें—उठाकर ठेके से बाहर फेंक दें—रहटू अभी जिन्दा है मिक्की।"

"छोड़ यार—ये साली जिल्लत सहना तो अब आदत बन गई है—अगर तेरी जेब में कुछ हो तो दारू पिला दे।"

इस तरह झगड़ा होने से बचा।
ठेकेदार के निर्देश पर गुण्डों ने मुझे छोड़ दिया। रहटू ने चाकू जेब में डाला—मुझे साथ लिए एक बैंच पर बैठ गया।

रहटू बेहद नाटा था, सिर्फ तीन फुट का।

इस गुटकेपन ने ही उसे गुण्डागर्दी की जिन्दगी में कदम रखने पर विवश कर दिया। जब वह शरीफ ही नहीं बल्कि डरपोक था तो लोग उसे 'छटंकी' कहकर चिढ़ाते थे।

कद छोटा होने की वजह से रहटू मन-ही-मन खुद को 'हीन' महसूस करता था। यही वजह थी कि वह किसी के 'छटंकी' कहते ही बुरी तरह चिढ़ जाता—वह लोगों से रिक्वेस्ट करता कि छटंकी न कहा करें, परन्तु लोग मानते कहां हैं?

जितना मना करता, उतना ही ज्यादा चिढ़ाते।

एक दिन वह इतना चिढ़ गया कि फल बेचने वाले का चाकू उठाकर बार-बार 'छटंकी' कहने वाले के पेट में घोंप दिया—हालांकि उसे ज्यादा
चोट नहीं आई थी, मगर रहटू को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया—मर्डर करने की असफल कोशिश की धारा के तहत मुकदमा चला—कुछ तो जेल में, गुण्डों की सोहबत ने ही उसके दिल से डर निकाल दिया, कुछ जमानत पर बाहर आने के बाद पुलिस ने इस कदर परेशान करना शुरू किया कि विवश होकर रहटू ने एक चाकू खरीद लिया।

धीरे-धीरे गुण्डा बन गया।

उसे अपना यही रूप रास आया, क्योंकि अब भूल से भी कोई 'छटंकी' कहने की हिम्मत नहीं करता। मेरा अनुभव है कि जब कोई शरीफ और डरपोक युवक गुण्डागर्दी में कदम रखता है तो वह पेशेवर गुण्डों से कई गुना ज्यादा खतरनाक साबित होता है।

रहटू इस अनुभव पर खरा उतरा था।
 

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वह गिट्ठा था मगर इतना ज्यादा फुर्तीला कि सामने वाले के छक्के छुड़ा देता—लड़ाई के वक्त वह गेंद की तरह उछल-उछलकर वार करता।
जब सौ-सौ ग्राम हमारे पेट में पहुंच गई तो मैं बोला— ''मैं तेरा एहसानमंद हूं रहटू।"

"कौन-से एहसान की बात कर रहा है?" रहटू ने घुड़का।

"आज अगर तू न आता तो ये दारू.....।"

"इस बारे में अगर तूने मुझसे और ज्यादा बकवास की तो.....वे ठेकेदार के चमचे तो साले कुछ कर न सकें मगर मैं उठाकर सचमुच ठेके से बाहर फेंक दूंगा।"
उक्त शब्द उसने ऐसे अंदाज में कहे थे कि मैं कुछ बोल न सका, जबकि कुछ देर की खामोशी के बाद उसने स्वयं ही कहा— "अगर दुनिया में किसी को दोस्त मानता हूं तो वह तू है, मिक्की.....सिर्फ तू—मेरी जिन्दगी मुझ पर तेरा कर्ज है।"

"तू फिर वही बेकार की बात करने लगा!"

"वह तेरे लिए बेकार की बात हो सकती है, मिक्की, मगर मेरे लिए ठोस हकीकत है।" गम्भीर स्वर में रहटू कहता चला गया—"उस दिन पैट्रोल पम्प पर साले छैनू ने मुझे अपने ग्यारह गुर्गों सहित घेर लिया था—बात केवल घेरने तक ही सीमित नहीं थी बल्कि वे हरामजादे मुझ पर इस कदर पिल पड़े कि जान निकालने में मुश्किल से एक ही क्षण बाकी रह गया था—तभी मेरे लिए फरिश्ता बनकर तू वहां पहुंच गया—तूने न सिर्फ मुझे उनके चंगुल से बचाया, बल्कि जख्मी हालत में हस्पताल भी पहुंचाया—वह कर्ज क्या इस दारू से उतर जाएगा, नहीं मिक्की.....नहीं, कभी रहटू को आजमाकर देखना, दोस्त—जो जिन्दगी तेरा कर्ज है, उसे तेरे लिए गंवाने पर मुझे फख्र होगा—मैं तो उस क्षण की फिराक में रहता हूं पगले जब तेरे किसी काम आ सकूं।"
 

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तूने तो बेवजह दिल में एक गांठ बांध ली है, रहटू।" मैं बोला— "वे हालात ही ऐसे थे कि मैं तेरी मदद के लिए कूद पड़ा।"

"छोड़।" रहटू ने विषय बदला—"ये बता—महीने भर कहां गुम रहा, मैं तेरे कमरे पर भी गया था—वहां तेरे मकान के सामने वाले मकान में किराए पर अकेली रहने वाली अलका मिली—वह तेरे लिए मुझसे भी ज्यादा परेशान थी।"

"तेरे ख्याल से मैं क्यों गुम रहा होऊंगा?"

"पता लगा कि तू बुरी तरह कर्जों से घिर गया है, तब यह अनुमान लगाया कि इन कर्जों से निजात पाने के लिए निश्चय ही तू किसी लम्बे दांव की फिराक में होगा, मगर.....।"

"मगर?"

"न तेरी जेब में ठेकेदार का कर्ज चुकाने के लिए कुछ है, न ही आगे दारू पीने के लिए, सो मेरा अनुमान गलत साबित हुआ।"

मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई—"तेरा अनुमान गलत नहीं था, दोस्त।"

"क्या मतलब?"

"मैं सचमुच लम्बे दांव के सिलसिले में एक महीना गायब रहा।"

"फिर?"

"फिर क्या?"

"क्या रहा?"

"रहना क्या था, वही हुआ जो मेरे साथ हमेशा होता आया है।" मैं टूटे स्वर में कह उठा—"वह साला फिर धोखा दे गया।"

"क.....कौन?"

"वही.....मेरा पुराना दुश्मन।"

"नसीब?" रहटू ने पूछा।

"हां।" गुस्से की ज्यादती के कारण खुद-ब-खुद मेरे दांत भिंच गए—"यह साला बचपन से मुझे धोखा देता चला आ रहा है—सोने की खान में हाथ डालता हूं तो राख के ढेर में तब्दील हो जाती है, हाथ पर हीरा रखकर मुट्ठी बंद करूं तो खोलने तक कोयले में बदल चुका होता है।"

"हुआ क्या था?"

अपनी ठगी का किस्सा मैं उसे बेहिचक बताता चला गया और गिरफ्तारी तक की घटना का जिक्र करके कहा—“ मेरठ में मेरे द्वारा की गई ठगी—मेरी असफलता और गिरफ्तारी नसीब की मार नहीं तो और क्या है?”

"सच यार, जब तू शूरू-शुरू में कहा कहता था कि नसीब मेरा दुश्मन है तो मैं मजाक समझता था—मन-ही-मन बेवकूफ करार दिया करता था तुझे, मगर अब तेरी जिन्दगी में घटीं बहुत-सी घटनाओं से वाकिफ हो चुका हूं—और हर घटना से यही साबित होता है कि नसीब सचमुच तेरा बड़ा दुश्मन है।"

अनायास मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई। जाने किस भावना के वशीभूत उससे अपने दिल की बात कह उठा—"अब तो दिल ये चाहता है यार कि जाकर रेल की पटरी पर लेट जाऊं और जब रेल आए तो उसे अपनी गर्दन पर से गुजर जाने दूं—या कहीं से जहर मिल जाए। मरने के हजारों तरीके हैं दोस्त—गंदी नाली में रेंगते कीड़े की जिन्दगी से भी बदतर इस जिन्दगी से हर किस्म की मौत बेहतर होगी।"

रहटू के चेहरे पर सख्त नागवारी के चिन्ह उभर आए। मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरता हुआ बोला— "क्या बक रहा है तू?"

"मैं ठीक कह रहा हूं, रहटू।" कदाचित नशे की झोंक में मैं इतना जज्बाती हो उठा था कि जो नहीं कहना चाहिए था, वह भी कहता चला गया—"लूट, राहजनी, चोरी और ठगी के अदालत में मुझ पर इतने केस चल रहे हैं कि उनकी गिनती मुझे स्वयं ही याद नहीं—तुझ सहित हर परिचित के कर्जे से दबा हूं—कहीं साली कोई इज्जत नहीं। हर जगह, कदम-कदम पर बेइज्जती और जिल्लत सहनी पड़ती है, मेरी तरफ उठने वाली हर निगाह में नफरत होती है.....उफ.....परेशान आ गया हूं इस जिन्दगी से—क्या ऐसी जिन्दगी से मौत अच्छी नहीं है रहटू?"

"तू इतना निराश क्यों हो गया है मिक्की, इतना क्यों टूट गया है, यार?" रहटू वेदनायुक्त स्वर में कहता चला गया—"अभी मैं जिन्दा हूं, ऐसी तो मेरे ख्याल से अभी कोई प्रॉब्लम नहीं आई जिसे हल न किया जा सके? इतनी सारी प्रॉब्लम का एक ही हल है, पैसा—और पैसा कोई चीज नहीं जिसे हासिल न किया जा सके—अगर मेरठ में की गई ठगी नाकाम हो गई तो गोली मार उसे—उससे भी बेहतर और प्रयास किया जा सकता है।"

"हुंह.....सारे प्रयास बेकार हैं—नसीब ही जिसका दुश्मन है, उसका कोई भी प्रयास भला कैसे कामयाब हो सकता है?"

जवाब में रहटू कुछ न कह सका—जाने कहां से मेरे जेहन में अलका का चेहरा उभर आया और मैं बरबस ही बड़बड़ा उठा—"हुंह.....साली पागल है।"

"कौन?" रहटू उछल पड़ा।

"अलका।"

"अलका?"

"हां, उस बेवकूफ को समझाते-समझाते दो साल हो गए, मगर जाने मुझमें ऐसा क्या नजर आता है उसे कि अपनी जिन्दगी तबाह करने पर तुली है।"

"वह तुझसे प्यार करती है।"

"हुंह.....क्या मैं प्यार करने लायक हूं?"

"क्या कमी है तुझमें?"

"लो—अब अपनी कमियां गिनवानी पड़ेंगी!" टूटे हुए अंदाज में मैं ठहाका लगा उठा—"छोड़ यार, ऐसा क्या है जो तू नहीं जानता—अपनी इस जलालत भरी जिन्दगी से तंग आ गया हूं मैं, अगर किसी से न कहे तो अपने बारे में तुझे एक राज की बात बताऊं।"
 

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"क्या?"

मैं सचमुच बहक गया था, तभी तो उसे वह राज बता बैठा, जो अलका तक पर जाहिर नहीं होने दिया था, बोला— "एक महीना पहले जब मैं स्कीम बनाकर मेरठ के लिए रवाना हुआ, तभी सोचा था कि वह ठगी मेरे जीवन का अंतिम जुर्म होगी, कामयाबी मिलने पर सारे कर्जे चुका दूंगा और उसके बाद, जुर्म की इस काली दुनिया को अलविदा कह कर वही करूंगा जो अलका कहती है—उससे शादी कर लूंगा मैं—उस वक्त यह बेवकूफाना ख्याल मेरे जेहन में घर कर गया था—अब सोचता हूं तो खुद पर हंसी आती है।"

रहटू की आंखें चमक उठीं। बोला— "व.....वैरी गुड—वैरी गुड मिक्की, तू कल्पना भी नहीं कर सकता कि तेरे ये विचार सुनकर मुझे जितनी खुशी हुई है—तेरे प्रति अलका की दीवनगी ने सचमुच मुझ तक को झंझोड़ डाला है—दो साल की तपस्या का ये पुरस्कार उसे मिलना ही चाहिए—वाकई, जुर्म की इस जिन्दगी में कुछ नहीं रखा—छोड़ दे इसे, अभी—इसी वक्त, यहीं से तौबा कर ले कि तू भविष्य में कभी कोई जुर्म नहीं करेगा।"

"कर्जदार मेरी इस 'तोबा' को कितने दिन कायम रहने देंगे?"

"उनसे निपटने के बारे में भी कुछ सोच लेंगे।"

"एक तरीका है।"

"क्या?"

मैंने उसे अपना भावी प्रोग्राम बताया—"सुरेश के पास जाने की सोच रहा हूं।"

"स.....सुरेश?" रहटू उछल पड़ा।

"हां।"

"म......मगर क्यों, वह भला इसमें क्या कर सकता है?"

"ठगी के आरोप में पकड़े जाने पर हमेशा की तरह इस बार भी मेरी जमानत उसी ने कराई है।" सुरेश की स्मृति मात्र मुझे पागल कर देती थी—अजीब उत्तेजना में फंसा दांत भींचे मैं कहता चला गया—"दिल्ली का माना हुआ वकील उसने अदालत में भेज दिया, मेरी इच्छा के विरुद्ध उसने जमानत करा ली।"

"सुरेश आखिर चाहता क्या है?" रहटू कह उठा—"वह आज करोड़पति है, चाहे तो तेरे वजन के बराबर धन तौलकर दे सकता है मगर ऐसा नहीं करता—शुरू-शुरू में तो रुपये-पैसे से तेरी मदद कर भी देता था, परन्तु फिर वह भी बन्द कर दी—दुत्कार कर तुझे अपने ऑफिस से निकाल दिया और जमानत हर बार करा लेता है, जेल में तुझे रहने नहीं देता—ऐसा आखिर वह क्यों करता है?"

"जब मैं पिछली बार उसके ऑफिस में गया और दो हजार रुपये मांगे, तो उसने कहा था कि वह मुझे रुपये इसलिए नहीं दे रहा है, क्योंकि उसकी मदद से मैं और बिगड़ता जा रहा हूं।"

"बकता है साला, रुपये नीयत से नहीं छूटते और ऊपर से शुभचिन्तक होने का ढोंग भी करता है।"

"पता लग जाएगा कि वह ढोंग करता है या वास्तव में मुझे सुधारने के लिए ही पैसा देने से इंकार करता है।"

"कैसे?"

"आज मैं उससे दस हजार रुपये मांगने वाला हूं, साफ-साफ बताऊंगा कि दस हजार में से कुछ तो खुद को उस जंजाल से निकालने में खर्चूंगा जिसमें लोगों का उधार लेकर फंस गया हूं, बाकी से नई जिन्दगी की शुरूआत करूंगा—शराफत और मेहनत की जिन्दगी।" मैं अपने ख्वाब उसे बताया चला गया—"सच, रहटू, अगर उसने मदद कर दी तो मैं अलका को अपना लूंगा, वर्ना.....।"

"वर्ना?"

"अगर यह सुनकर भी इंकार कर दिया तो जाहिर हो जाएगा दोस्त कि वह वास्तव में मेरा शुभचिन्तक नहीं है, बल्कि सिर्फ शुभचिन्तक होने का ढोंग करता है—वह मुझे सुधारना नहीं चाहता, बल्कि चाहता है कि मैं और बिगड़ता चला जाऊं.....धंसता चला जाऊं जुर्म की इस दलदल में।"
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Rakesh1999

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कहानी जारी रहेगी।अगला अपडेट जल्दी ही..
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Rakesh1999

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शराब मेरे दिमाग को घुमा जरूर रही थी, परन्तु इतना नशे में न था कि बहकने लगूं या कदम लड़खड़ाने लगें।

बस से कनॉट प्लेस पहुंचा।

स्टॉप से पैदल ही उस कोठी की तरफ जिसे देखकर मेरे दिल पर सांप लोटा करते थे—यूं कोठियां तो बहुत थीं, उससे भी सुन्दर, मगर मेरी डाह का केन्द्र 'सुरेश की कोठी' थी।

वह, जिसने कनॉट प्लेस जैसे महंगे इलाके के दो हजार गज भूखण्ड को घेर रखा था—चारदीवारी के अंदर, चारों ओर फैले लॉन से घिरी तीन-मंजिली इमारत 'ताजमहल' की डमी-सी मालूम पड़ती थी।
मैं लोहे वाले गेट पर पहुंचा।

गेट पर जाना-पहचाना दरबान खड़ा था—वर्दीधारी दरबान के कंधे पर लटकी बन्दूक, कमर पर बंधी गोलियों वाली चौड़ी बैल्ट, ऊंचा कद, स्वस्थ शरीर, चौड़ा रौबदार चेहरा और बड़ी-बड़ी और सुर्ख आंखों में जो भाव उभरते, वे हमेशा जहर बुझे नश्तर की तरह मेरे जिगर की जड़ों तक को जख्मी करते रहे हैं।हमेशा ग्लानि हुई है मुझे।
और।

ऐसा वह अकेला व्यक्ति नहीं है जिसकी आंखों में मुझे देखते ही नफरत और हिकारत के चिन्ह उभर आते हैं, बल्कि अनेक व्यक्ति हैं।

सुरेश का हर नौकर।
हां, मैं उन्हें नौकर ही कहूंगा।

मुझ पर नजर पड़ते ही उसके ऑफिस के हर कर्मचारी, वाटर ब्वॉय से जनरल मैनेजर तक के चेहरे पर एक ही भाव उभरता है—ऐसा भाव जैसे किसी आवारा कुत्ते को दुत्कारने जा रहा हो।

सुरेश की पत्नी भी मुझे कुछ ऐसे ही अंदाज में देखती है।

वे नजरें, वह अंदाज मेरे दिल को जर्रे-जर्रे कर डालता है—सहन नहीं होता वह सब कुछ, मगर फिर भी वहां पहुंचा।
लोहे वाले गेट के इस तरफ ठिठका।

उस तरफ खड़े दरबान ने सदाबहार अंदाज में मुझे देखा, चेहरे पर ऐसे भाव उत्पन्न हुए जैसे मेरे जिस्म से निकलने वाली बदबू ने उसके नथुनों को सड़ाकर रख दिया हो, अक्खड़ अंदाज में बोला वह—"क्या बात है?"

"सुरेश है?" मैंने अपने लिए उसके चेहरे पर मौजूद हिकारत के भावों को नजरअन्दाज करने की असफल चेष्टा के साथ पूछा।

"हां हैं.....मगर इस वक्त साहब बिजी हैं।"

"मैं उनसे मिलना चाहता हूं।"

वह मुझे इस तरह घूरता रह गया जैसे कच्चा चबा जाना चाहता हो। कुछ देर उन्हीं नजरों से घूरता रहा, फिर दुत्कारने के-से अन्दाज में बोला— "अच्छा, मैं कह देता हूं, तू यहीं ठहर।"

पलटकर वह चला गया।
करीब पांच मिनट बाद लौटा।

नजदीक पहुंचकर गेट खोलता हुआ बोला— "जाओ।"

मेरे दिलो-दिमाग से जैसे कोई बोझ उतरा।
कोठी की चारदीवारी में कदम रखा।

दरबान उपेक्षित भाव से बोला— "ड्राइंगरूम में बैठना, साहब तुमसे वहीं मिलेंगे।"

बिना जवाब दिए मैं यूं आगे बढ़ गया जैसे उसके शब्द सुने ही न हों।
खूबसूरती से सजे ड्राइंगरूम में मौजूद एक-से-एक कीमती वस्तु को मैं उन्हीं नजरों से देखने लगा जिनसे पहले भी अनेक बार देख चुका था।
मुझे खुद याद नहीं कि वहां कितनी बार जा चुका हूं?

मगर।
मौजूदा चीजों को देखने से कभी नहीं थका—हां, दिलो-दिमाग अंगारों पर जरूर लोटा है—सारी जिन्दगी डाह से सुलगता रहा हूं मैं।
कम-से-कम पच्चीस हजार के कालीन को अपनी हवाई चप्पलों से गन्दा करता हुआ करीब दस हजार के सोफे पर कुछ ऐसे भाव जेहन में लिए 'धम्म' से गिरा कि वह टूट जाए।

परन्तु।
डनलप की गद्दियां मुझे झुलाकर रह गईं।

जेब से माचिस और बीड़ी का बण्डल निकालकर एक बीड़ी सुलगाई, हालांकि तीली विशाल सेन्टर टेबल के बीचों-बीच रखी सुनहरी ऐश ट्रे में डाल सकता था मगर नहीं, तीली मैंने लापरवाही से कालीन पर डाल दी।
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Rakesh1999

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सुरेश ने ड्राइंगरूम में कदम रखा।

मैं खड़ा हो गया।

डाह की एक तीव्र लहर मेरे समूचे अस्तित्व में घुमड़ती चली गई—वह 'मैं' ही था—शक्ल-सूरत, कद-काठी और स्वास्थ से 'मैं' ही।
मगर नहीं।
'वह' मैं नहीं था।
वह सुरेश था, मैं मुकेश हूं।

उसके पास जिस्म भले ही मुझ जैसा था, उस पर मौजूद कपड़े मेरे कपड़ों के ठीक विपरीत—'फर' का बना काला कोट पहने था वह, गले में 'सुर्ख नॉट'—अत्यन्त महंगे कपड़े की सफेद पैन्ट और आइने की माफिक काले जूतों में वह सीधा आकाश से उतरा फरिश्ता-सा लग रहा था।
और मैं।
आवारा कुत्ता-सा।

हम एक-दूसरे के हमशक्ल थे—एक ही सूरत, एक ही जिस्म और एक जैसा ही स्वास्थ्य होने के बावजूद हममें गगन के तारे और कीचड़ में पड़े कंकड़ जितना फर्क था।

दोनों के पास एक ही चेहरा था, एक ही रंग।
मगर फिर भी, मेरी गर्दन से जुड़ा चेहरा सूखा और निस्तेज नजर आता था, सुरेश की गर्दन से जुड़े चेहरे पर चमक थी, प्रकाश-रश्मियां-सी फूटती मालूम पड़ती थीं उसमें।

यह फर्क पैसे का था।

पैसे के पीछे था—नसीब।
मेरा दुश्मन।

"बैठो भइया।" सुरेश ने हमेशा की तरह आदर देने के अंदाज में कहा, जबकि मैं जानता था कि वह आदर देने का सिर्फ नाटक करता है, उसके दिल में मेरे लिए कोई कद्र नहीं है।

मैं बैठ गया।
आगे बढ़ते हुए उसने जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकालकर सोने के लाइटर से सिगरेट सुलगाई—मैंने अपनी उंगलियों के बीच दबी बीड़ी का सिरा कुछ ऐसे अंदाज में, मेज पर रखी ऐशट्रे में कुचला जैसे वह मेरे नसीब का सिर हो, बोला— "मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं सुरेश।"

"कहिए।" उसने पुनः सम्मान दर्शाया।

उसके इस अभिनय पर मैं तिलमिलाकर रह जाता। कसमसा उठता, मगर कुछ कह न पाता.....जी चाहता कि चीख पड़ूं, चीख-चीखकर कहूं कि मुझे बड़ा भाई मानने का ये नाटक बन्द कर सुरेश, परन्तु हमेशा की तरह आज भी इस सम्बन्ध में कुछ न कह सका।
मुझे चुप देखकर उसने पूछा—"क्या सोचने लगे मिक्की भइया?"

"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुमने मेरी जमानत क्यों कराई?"

"क्या मैंने कोई ऐसा काम किया है, जो नहीं करना चाहिए था?"

"हां?"

दांत भिंच गए, वह अजीब-से आवेश में बोला—"मैं अनेक केसों में आपकी जमानत कराता रहा हूं—पहले तो आपने कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई।"

मेरा तन-बदन सुलग उठा, मुंह से गुर्राहट निकली—"क्योंकि पहले तुम्हारे दिमाग पर मुझे सुधारने का भूत सवार नहीं था।"

"ओह! आप शायद पिछली मुलाकात का बुरा मान गए हैं—आपने दो हजार रुपये मांगे थे और मैंने इंकार कर दिया था।"

मेरे होंठों पर स्वतः जहरीली मुस्कराहट उभर आई, बोला— "उसमें बुरा मानने जैसी क्या बात थी, मदद करो या न करो.....यह तुम्हारी मर्जी पर है।"

"ऐसा न कहिए, भइया।"

"क्यों न कहूं.....क्या मैंने कुछ गलत कहा है?" मुंह से जहर में बुझे व्यंग्यात्मक शब्द निकलते चले गए—"हमारी शक्लें जरूर एक हैं, हमारे मां-बाप भले ही एक थे मगर नसीब एक-दूसरे से बहुत अलग हैं.....हमारे पैदा होने में सिर्फ दो मिनट का फर्क है और उन दो मिनटों में ही नक्षत्र साले इतने बदल गए कि आज तुम कहां हो है, मैं कहां—तुम कम-से-कम दस हजार रुपये वाला 'फर' का कोट पहनते हो—मैं पालिका बाजार से लेकर आठ रुपये की टी-शर्ट।"


"यह सब सोचकर मुझे भी दुख होता है भइया, मगर.....।"

"मगर—?"

"दो मिनट ही सही लेकिन आप मुझसे बड़े हैं और यदि सीना चीरना मेरे वश में होता तो दिखाता कि आपके लिए मेरे दिल में कितनी इज्जत है.....कितना सम्मान है।" सुरेश मानो भावुकता के भंवर में फंसता चला गया—"हमारे पिता सेठ जानकीनाथ के यहां मुनीम के घर जब एक साथ दो लड़कों का जन्म हुआ तो सेठजी ने उनमें से एक को गोद लेने की इच्छा जाहिर की।"
 
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