# 146
आंच की तपत को ना जाने क्यों मैंने उस दुरी से भी महसूस कर लिया. आगे बढ़ते हुए मैं समाधी के पास गया और उस शख्श के पास जाकर बैठ गया .
“ठण्ड कुछ ज्यादा ही है न आज ” मैंने आंच की तरफ अपने हाथ किये.
“इतनी भी नहीं की बर्फ पिघल जाये ” चौधरी रुडा ने कहा.
मैं-कब तक आपके सीने में जमी रहेगी ये बर्फ, माना की जख्म पुराना है पर मरहम की कोशिश तो कर ही सकते है न . ये दर्द ही तो है जो मुझे आपसे जोड़ता है . ये दर्द ही तो है जो उस दिन पुराणी रीत तोड़ते हुए आपने निशा का हाथ मेरे हाथ में दिया.
रुडा- क्योंकि तुम लायक थे उसके. क्योंकि उस दिन मैंने तुमको नहीं पैंतीस साल पहले के रुडा को देखा , जवानी मे मैंने कोशिश की थी रीत बदलने की . समाज कोई बहुत बढ़िया चीज नहीं होती कबीर, समाज बेडियो के सिवा कुछ नहीं, जो हमें कभी आगे नहीं बढ़ने देती.
चौधरी रुडा ने समाधी के पत्थरों पर हाथ फेरा और बोला- इस से बेहतर हक़ था उसका .
मैं- आप बहुत चाहते थे न सुनैना को
रुडा- मैं आज भी चाहता हूँ उसे. मरते दम तक चाहता रहूँगा उसे.
मैंने आंच को अपने सीने में उतरते हुए महसूस किया.
मैं- कैसी थी वो
रुडा- अलबेली, अनोखी. ये जंगल न जाने अपने अन्दर क्या क्या छिपाए हुए है उसी कुछ में कुछ लम्हे हमारे भी है .जब वो हंसती थी जंगल मुस्कुराता था . जब वो गाती थी आसमान तक झूम जाता था . सबसे अलग. सबसे बेगानी. बहुत कहती थी वो मुझसे, रुडा मत चल इस पथ पर , प्रेम का पथ बड़ा मुश्किल
मैं- और आप क्या कहते थे .
रुडा-बस इतना की तु जो नहीं तो फिर कुछ भी नहीं .
मैं- इस जंगल ने दो लोगो की दोस्ती भी देखि है ऐसा सुना मैंने.
रुडा- दोस्ती , क्या बताऊ तुमको कबीर की क्या होती है दोस्ती.
मैं- फिर भी मैं उस दोस्ती की कहानी सुनना चाहता हूँ जो खो सी गयी है इस जंगल में . मैं आपसे त्रिदेव की असली कहानी सुनना चाहता हूँ.
रुडा- तो तुमने मालूम कर लिया
मैं- नहीं, बस अंदाजा लगाया.
रुडा- जैसा की तुम जानते हो मैं और बिशम्भर बचपन के दोस्त थे. एक थाली में खाना, उसके बिना मैं नहीं मेरे बिना वो नहीं. जवानी के जोश से भरपूर दो नो जवान जिन्होंने वो करने का सोचा जिसके बारे में कोई भी नहीं सोच सकता था .पढाई की किसे फ़िक्र थी . दिन रात हम जंगल में भटकते. न जाने क्यों हमें इतना लगाव था इस जंगल से मैं आज भी नहीं जानता. फिर हमें मिली सुनैना , तालाब किनारे पशुओ को पानी पिलाते हुए देखा जो उस को बस देखता ही रह गया. डेरे की लड़की थी वो .
तुमने दोस्ती की बात की , दोस्ती . दोस्ती ही तो थी जो डेरे की लड़की बिना किसी भय के हमारे साथ दिन रात रहती थी . मैं रोज जाता उसे देखने के लिए. वो रोज आती बकरियों को पानी पिलाने के लिए . हथेली में भर कर पानी को होंठो से लगाती, उसे रोज मालुम होता की मैं उसे देखता हूँ , पर ना वो कुछ कहती न मैं कुछ कहता. ऐसी ही दोपहर थी जब मैं उसे देखने में इतना खो गया था की कुछ ख्याल ही नहीं रहा , पर उसकी नजरबराबर थी मुझ पर , घात लगाये तेंदुए के हमले से बचाया उसने मुझे. वो पहली बार था जब हमने उस से बात की. एक बार जो सिलसिला शुरू हुआ फिर रुका ही नहीं .
हम तीनो हमउम्र ही थे,नए नए विचार हमें बहुत आंदोलित करते. बिशम्भर किताबे बहुत पढता था . उसे हमेशा लगता था की प्राचीन जगहों के अपने राज होते है .इतिहास का शोकीन मेरा दोस्त, उसका ये विश्वास की हर जगह की अपनी कोई कहानी होती है उसे बल दिया सुनैना ने डेरे में टोने का काम बहुत होता था . डेरे का मान भी बहुत था .लोगो की बहुत सी बिमारी डेरे की भभूत से ठीक हो जाती. हम मगन थे , अपनी बातो में अपनी हरकतों में पर कब तक रहता ये दिल के किसी कोने से बार बार आवाज आती की सुनैना भाने लगी है. साथ होते हुए भी मैं बेगाना होने लगा था . महकने लगी थी इस जंगल की फिजाए उस अहसास से.
एक शाम हम तीनो ऐसे ही तालाब के पास खंडहर में बैठे थे तो सुनैना ने कहा की उसे मालूम हुआ की जंगल में कुछ छिपा है . कुछ ऐसा जो जिन्दगी बदल सकता है . बिशम्भर ने पूछा तो सुनैना के बताया की पक्के तौर पर तो नहीं पर उसने इतना ही सुना की कुछ छिपा है जंगल में .
रुडा- क्या तुम भी सुनैना , बिशम्भर की बातो को जायदा पक्का ही समझ लिया है तुमने.
सुनैना- नहीं रुडा, डेरे में बड़े लोगो की बाते सुनी मैंने, वो कभी झूठ नहीं बोलते
बिशाभर- क्या हो सकता है वो
सुनैना- तुम यकीन नहीं करोगे
रुडा- ऐसा भला या हो सकता है
सुनैना- सोना
सुनैना ने अपने चुन्नी का कोना खोला और सोने का एक छोटा सा टुकड़ा हमारे सामने रख दिया. खालिस सोने का टुकड़ा. मेरी और बिशम्भर की आँखे बाहर ही आ गिरी थी. पर सवाल ये था की सोना कहाँ पर छिपा है और उसे कैसे बहार निकाला जा सकता है.
सुनैना- मैं लाऊंगी उस सोने को बाहर और अगर हम इसमें कामयाब हुए तो हम उस सोने को इस्तेमाल नहीं करेंगे. बस देखेंगे और वापिस रख देंगे.
हम दोनों ने उसकी हाँ में हां मिलाई वैसे भी हमें कोई कमी तो थी नहीं . और लालच का तो सवाल ही नहीं था . ढाई साल तक हम लोग दिन रात एक कर इस जंगल में भटकते रहे. इस बीच प्रेम का अंकुर फूट पड़ा . मैंने सुनैना से वादा किया की उसे अपनी बना कर ले जाऊंगा. एक रात घनघोर ठण्ड में ओस से भीगे हम लोग बस उसे ही देख रहे थे जो अपने टोने में खो सी गयी थी . और फिर हमने करिश्मा होते देखा. सुनैना ने एक गड्ढा खोदा. गड्ढा सुरंग में बदलता गया और जब वो सुरंग खत्म हुई तो आँखों ने सामने जो देखा , मानने से इनकार कर दिया. सोने का विशाल भंडार हमारी आंखो के ठीक सामने थे .
पर कहते है न की उस चीज का ख्याल नहीं करना चाहिए जो आपकी न हो. इतना सोना देख कर हम तीनो अपनी खाई उस कसम को भूल गए . हमने उस सोने के तीन हिस्से करके उस पर अपना अधिकार करना चाहा और जिन्दगी बदल गयी .................