#77
ये आसमान को आज क्या गम था जो रोये ही जा रहा था . माना की हम उलझे थे अपने ताने-बाने में पर इस बारिश को किसने सताया था . इन तूफानी हवाओ को किसने छेड़ा था आज. शायद कुदरत भी नहीं चाहती की मैं अतीत की चादर को झडका दू.
एक हाथ से साइकिल की थामे पैदल बारिश में भीगते हुए मैं कुवे की तरफ चले जा रहा था . मन में उमंग थी, आस थी , और थोडा दर्द भी था . कुवे पर पहुँच कर देखा की सरला वही मोजूद थी .
मैं- तू यहाँ पर क्या कर रही है भाभी
सरला- सुबह से यही पर हूँ मेह थम ही नहीं रहा सोचा रुकेगा तभी जाउंगी
मैं- मौसम ख़राब था तो आने की जरुरत ही क्या थी तुमको .
सरला- कल थोडा काम अधुरा रह गया था सोचा था की दोपहर तक पूरा कर लुंगी पर मौसम बेईमान
मैं- बहुत बढ़िया हुआ जो रुक गयी तुम कल का अधुरा काम आज पूरा हो जायेगा.
मैंने कपडे उतार कर फेंके और कीचड़ साफ़ करके अन्दर आते ही सरला को अपनी बाहों में भर लिया.
मैं- ये मौसम और गदराई हुई तुम, मैं कैसे रोकू खुद को
सरला ने मेरे गालो पर चुम्बन किया और बोली- मत रोको कुंवर.
सरला ने मेरे तौलिये को हटाया और मेरे लंड को हाथ में लेकर मसलने लगी.
सरला- कुंवर , क्या कर दिया तुमने मुझ पर मैं रोक नहीं पाई खुद को पिघलने से.
मैं- किसलिए रुकना है तुमको
मैंने सरला के होंठो से अपने होंठ जोड़ दिए. बरसती दोपहर में हम दोनों जलने लगे थे. चुमते चुमते मैंने उसके लहंगे की गाँठ खोली और उसने निचे से नंगी कर दिया . उसके चूतडो पर हाथ फेरने का भी अपना ही सुख था . मैंने उसे खुद से अलग किया और थोडा झुका दिया.सरला ने अपने दोनो हाथ घुटनों पर रख लिए. इस तरह झुकने से उसकी भारी गांड और भी उभर कर मेरे सामने आ गयी. मैंने सोचा चाचा क्या ही आदमी था इन रांडो को उसने जी भर कर भोगा होगा.
लंड पर थूक लगा कर मैंने उसे सरला की चूत पर लगाया और जोर से धक्का मारा वो आगे को गिर जाती पर मैंने मजबूती से उसके कुल्हे थाम लिए थे . बरसते मेह में हमारी हवस भी बरसने लगी थी . मेरी उमंग और सरला की आहों ने चुदाई के सुख को दुगुना कर दिया. आज से पहले मैं इतना नहीं झडा था ऐसे नहीं झडा था .
चुदाई के बाद मैंने उसे चाय बनांने को कहा और फिर बातो का सिलसिला शुरू हुआ.
मैं- सरला देख, मैंने तुझ पर भरोसा किया है और तूने भी वादा किया है मुझसे
सरला- मैं अब तुम्हारी हूँ कुंवर. बेशक मैंने खुद पहल करके तुम्हारे साथ सब कुछ किया पर ये मेरी इच्छा थी .
मैं-रमा , कविता की चुदाई के खेल की तीसरी साथी तुम थी न
सरला- ये तुम कल रात ही जान गए थे कुंवर तो अब क्यों पूछते हो.
मैं- क्या हरिया जानता था ये बात
सरला-नहीं
उसने चूल्हे में फूक देते हुए कहा.
मैं- क्या तू चाहती है की हरिया के कातिल का सच में पता चले
सरला- मुझसे ज्यादा कौन जानना चाहेगा. कुंवर बेशक मेरे सम्बन्ध छोटे ठाकुर से भी थे पर मैंने हरिया से भी बहुत प्यार किया
मैं- तो फिर बता चाचा का क्या हुआ
सरला- मैं नहीं जानती , वो बस अचानक से गायब हो गए . जबसे उनका और राय साहब का झगड़ा हुआ था उसके बाद से वो शांत से हो गए थे गाँव में आना जाना कम हो गया था .
मैं- जानता हूँ पिताजी ने चुदाई करते पकड़ा था उनको
सरला- ये बात नहीं थी , राय साहब को परवाह नहीं थी की उनका भाई कहाँ मुह मार रहा है . झगडा किसी और बात को लेकर हुआ था .
मैं- किस बात को लेकर.
सरला- छोटे ठाकुर नहीं चाहते थे की रुडा की बहन की बेटी उनके घर की बहु बने . छोटे ठाकुर और रुडा में छत्तीस का आंकड़ा था
मैं- पर क्यों .
सरला- नहीं जानती
मैंने गहरी सांस ली .
मैं- तुम तीनो में से छोटे ठाकुर अपने मन की बाते किस से करते थे .
सरला- शायद एक से शयद तीनो से या फिर किसी से भी नहीं . हम बस अपने अपने स्वार्थ से जुड़े थे उनको चूत चाहिए थी और हमको सुख . दोनों का लालच था .
मै- कोई और भी तो होगा चाचा का राजदार
सरला- छोटे ठाकुर का कोई दोस्त नहीं था जहाँ तक मैं जानती हूँ
मैं- जंगल में तुम्हारे मिलने की जगह कहाँ थी , ऐसी कोई तो खास जगह होगी न जहाँ पर तुम घंटो चुदाई कर पाते थे.
सरला- जंगल में नहीं रमा के घर में मिलते थे हम . पर जब उसके पति को मालूम हुआ तो फिर हम यहाँ इसी कुवे पर आने लगे. तब यहाँ इतनी चहल पहल नहीं होती थी . और ऐसी ही एक दोपहर राय साहब आ धमके उसके बाद हालात पहले से नहीं रहे.
मैंने चाय का कप रखा और मंद होती बरसात को देख कर कहा - घर चलते है भाभी
थोड़ी देर बाद हम गाँव के लिए निकल पड़े. मैं सीधा चाची के पास गया और बोला- चाचा और राय साहब में झगडा हुआ था किस बात को लेकर अभी बता मुझे
चाची- तेरे चाचा औरतखोर थे. जेठ जी को ये पसंद नहीं था .
मैं- मैं सच जानना चाहता हूँ चाची अभी
चाची- छोटे ठाकुर ने रमा के पति को मार दिया था , जेठ जी को मालूम हुआ तो बहुत कलेश हुआ .
मैं- क्यों मारा रमा को तो वो पा ही चुके थे फिर मारने की क्या जरूरत आन पड़ी.
चाची- मैं नहीं जानती ,जेठ जी ने बात को दबा दिया सिर्फ घर वाले ही जानते है इस बारे में
मैं- तेरे पति ने एक आदमी को मार दिया तू चुप रही
चाची- वो बस नाम का पति था मेरे लिए , मेरे हिस्से का सुख वो बाहर लुटा रहा था . कितना समझाया मैंने पर नहीं घर के सोने को ठुकरा कर वो बाहर पीतल तलाशता रहा . मैं करती भी तो क्या .............
“घर की दहलीज में छुपा है तेरे हिस्से का सच ” निशा की कही बात मेरे जेहन में गूंजने लगी.
मेरे बाप ने न जाने किस किस पर पर्दा डाला हुआ था . कही लाली का श्राप सच तो नहीं हो रहा था मैंने इस घर की दीवारों को कांपते हुए महसूस किया. रात को अचानक दर्द से मेरी आँख खुल गयी मैंने खुद को बिस्तर से निचे पड़ा पाया. बदन तप रहा था . पसीने से भीगा था मैं. गटागट पानी पीने लगा पर चैन नहीं आया. उलटी करने का जी हो रहा था .बाहर आकर मैंने हवा खाने की सोची. गली में बाहर आया ठण्ड बहुत थी पर बारिश थम चुकी थी.
अचानक ही मेरे पैर कांप गए और मैं गली के बिच में गिर गया. .मेरी नजर बादलो के बीच से झांकते चाँद पर पड़ी और मैं जैसे पागल हो गया. मैं बिना कुछ सोचा समझे दौड़ पड़ा..............................